सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के साथ युद्ध करने के विषय में श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत तथा अर्जुन का कर्ण के सामने उपस्थित होना”
संजय कहते हैं ;- राजन! अपने पुत्र को अपनी आँखों के सामने ही युद्ध में श्वेत वाहन अर्जुन द्वारा मारा गया देख महामनस्वी कर्ण को महान क्रोध हुआ तथा उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन पर सहसा आक्रमण कर दिया। सीमा को लाँघकर आगे बढ़ते हुए महासागर के सदृश विशालकाय कर्ण गर्जना करता हुआ आगे बढ़ा। वह देवताओं के लिये भी दुर्जय था। उसे आते देख दशार्ह कुलनन्दन पुरुष श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने हँसकर अर्जुन से कहा-पार्थ! जिसके सारथि शल्य हैं और रथ में श्वेत घोडे़ जुते हैं, वही यह कर्ण रथसहित इधर आ रहा है। धनंजय! तुम्हें जिसके साथ युद्ध करना है, वह कर्ण आ गया। अब स्थिर हो जाओ। पाण्डु नन्दन! श्वेत घोड़ों से जुते हुए कर्ण के इस सजे-सजाये रथ को, जिस पर वह स्वयं विराजमान है, देखो। इस पर भाँति-भाँति की पताकाएँ फहरा रही हैं तथा वह छोटी-छोटी घंटियों वाली झालर से अलंकृत है। ये सफेद घोड़े आकाश में विमान के समान इस रथ को लेकर मानो उडे़ जा रहे हैं। महामनस्वी कर्ण की इस ध्वजा को तो देखो, जिसमें हाथी के रस्से का चिह्न बना हुआ है। वह ध्वज इन्द्रधनुष के समान प्रकाशित होता हुआ आकाश में रेखा-सा खींच रहा है।
देखो, दुर्योधन का प्रिय चाहने वाला कर्ण इधर ही आ रहा है। वह जल की धारा गिराने वाले बादल के समान बाणधारा की वर्षा कर रहा है। ये मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य रथ के अग्रभाग में बैठकर अमित बलशाली इस राधापुत्र कर्ण के घोड़ों को काबू में रख रहे हैं। पाण्डु नन्दन! सुनो, दुन्दुभि का गम्भीर घोष और भयंकर शंखध्वनि हो रही है। चारों ओर नाना प्रकार के सिंहनाद भी होने लगे हैं, इन्हें सुनो। अमित तेजस्वी कर्ण अपने धनुष को बड़े वेग से हिला रहा है। उसकी टंकार ध्वनि बड़ी भारी आवाज को भी दबाकर सुनायी पड़ रही है, सुनो। जैसे महान वन में मृग कुपित हुए सिंह को देखकर भागने लगते हैं, उसी प्रकार ये पांचाल महारथी अपने सैन्यदल के साथ कर्ण को देखकर भागे जा रहे हैं।
कुन्तीनन्दन! तुम्हें पूर्ण प्रयत्न करके सूतपुत्र कर्ण का वध करना चाहिये। दूसरा कोई मनुष्य कर्ण के बाणों को नहीं सह सकता है। देवता, असुर, गन्धर्व तथा चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को तुम रणभूमि में जीत सकते हो; यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। जिनकी मूर्ति बड़ी ही उग्र और भयंकर है, जो महात्मा हैं, जिनके तीन नेत्र और मस्तक पर जटाजूट है, उन सर्व समर्थ ईश्वर भगवान शंकर को दूसरे लोग देख भी नहीं सकते फिर उनके साथ युद्ध करने की बात ही क्या है? परंतु तुमने सम्पूर्ण जीवों का कल्याण करने वाले उन्हीं स्थाणुस्वरूप महादेव साक्षात भगवान शिव की युद्ध के द्वारा अराधना की है, अन्य देवताओं ने भी तुम्हें वरदान दिये हैं; इसलिये महाबाहु पार्थ! तुम उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान शंकर की कृपा से कर्ण को उसी प्रकार मार डालो, जैसे वृत्र विनाशक इन्द्र ने नमुचि का वध किया था। कुन्तीनन्दन! तुम्हारा सदा ही कल्याण हो। तुम युद्ध में विजय प्राप्त करो।
अर्जुन ने कहा ;- मधुसूदन श्रीकृष्ण! मेरी विजय अवश्य होगी, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के गुरु आप मुझ पर प्रसन्न हैं। महारथी हृषीकेश! आप मेरे रथ और घोड़ों को आगे बढाईये। अब अर्जुन समरांगण में कर्ण का वध किये बिना पीछे नहीं लौटेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)
गोविन्द! आज आप मेरे बाणों से मरकर टुकडे़-टुकडे़ हुए कर्ण को देखिये। अथवा मुझे ही कर्ण के बाणों से मरा हुआ देखियेगा। आज तीनों लोकों को मोह में डालने वाला यह घोर युद्ध उपस्थित है। जब तक पृथ्वी कायम रहेगी, तब तक संसार के लोग इस युद्ध की चर्चा करेंगे। अनायास ही महान कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन उस समय रथ के द्वारा शीघ्रतापूर्वक कर्ण के सामने गये, मानो किसी हाथी का सामना करने के लिये प्रतिद्वन्द्वी हाथी जा रहा हो। उस समय तेजस्वी पार्थ ने शत्रुदमन श्रीकृष्ण से पुनः इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- हृषीकेश! मेरे घोड़ों को हाँकिये, यह समय बीता जा रहा है। महामना पाण्डुकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने विजयसूचक आर्शीवाद के द्वारा उनका आदर करके उस समय मन के समान वेगशाली घोड़ों को तीव्र वेग से आगे बढ़ाया। पाण्डुपुत्र अर्जुन का वह मनोजव रथ एक ही क्षण में कर्ण के रथ के सामने जाकर खड़ा हो गया।
(इसी प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण और अर्जुन के द्वैरथयुद्ध के प्रसंग में भगवान् श्रीकृष्ण का वाक्य विषय छियासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सतासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध में समागम, उनकी जय-पराजय के सम्बन्ध में सब प्राणियों का संषय, ब्रह्मा और महादेव जी द्वारा अर्जुन की विजय घोषणा तथा कर्ण की शल्य से और अर्जुन की श्रीकृष्ण से वार्ता”
संजय कहते हैं ;- महाराज! जब कर्ण ने वृषसेन को मारा गया देखा, तब वह शोक और अमर्ष के वशीभूत हो अपने दोनों नेत्रों से पुत्र शोकजनित आँसू बहाने लगा। फिर तेजस्वी कर्ण क्रोध से लाल आँखें करके अपने शत्रु धनंजय को युद्ध के लिये ललकारता हुआ रथ के द्वारा उनके सामने आया। व्याघ्रचर्म से आच्छादित और सूर्य के समान तेजस्वी वे दोनों रथ जब एकत्र हुए, तब लोगों ने वहाँ उन्हें इस प्रकार देखा, मानों दो सूर्य उदित हुए हों। दोनों घोडे़ सफेद रंग के थे। दोनों ही दिव्य पुरुष और शत्रुओं का मर्दन करने में समर्थ थे। वे दोनों महामनस्वी वीर आकाश में चन्द्रमा और सूर्य के समान रणभूमि में शोभा पा रहे थे। मान्यवर! तीनों लोकों पर विजय पाने के लिये प्रयत्नशील हुए इन्द्र और बलि के समान उन दोनों वीरों को आमने-सामने देखकर समस्त सेनाओं को बड़ा विस्मय हुआ। रथ, धनुष की प्रत्यंचा और हथेली के शब्द, बाणों की सनसनाहट तथा सिंहनाद के साथ एक दूसरे के सम्मुख दौड़ते हुए उन दोनों रथों को देखकर एवं उनकी परस्पर सटी हुई ध्वजाओं का अवलोकन करके वहाँ आये हुए राजाओं को बड़ा विस्मय हुआ। कर्ण की ध्वजा में हाथी के साँकल का चिह्न था और किरीधारी अर्जुन की ध्वजा पर मूर्तिमान वानर बैठा था।
भरतनन्दन! उन दोनों रथों को एक दूसरे से सटा देख सब राजा सिंहनाद करने और प्रचुर साधुवाद देने लगे। उन दोनों द्वैरथ युद्ध प्रस्तुत देख वहाँ खडे़ हुए सहस्रों योद्धा अपनी भुजाओं पर ताल ठोकने और कपड़े हिलाने लगे। तदनन्तर कर्ण का हर्ष बढ़ाने के लिये कौरव सैनिक वहाँ सब ओर बाजे बजाने और शंख ध्वनि करने लगे। इसी प्रकार समस्त पाण्डव भी अर्जुन का हर्ष बढ़ाते हुए वाद्यों और शंखों की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगे। कर्ण और अर्जुन के उस संघर्ष में शूरवीरों के सिंहनाद करने, ताली बजाने, गर्जने और भुजाओं पर ताल ठोकने से सब ओर भयानक आवाज गूँज उठी। वे दोनों पुरुषसिंह रथ पर विराजमान और रथियों में श्रेष्ठ थे। दोनों ने विशाल धनुष धारण किये थे। दोनों ही बाण, शक्ति और ध्वज से सम्पन्न थे। दोनों कवचधारी थे और कमर में तलवार बाँधे हुए थे। उन दोनों के घोड़े श्वेत रंग के थे। वे दोनों ही शंख से सुशोभित, उत्तम तरकस से सम्पन्न और देखने में सुन्दर थे। दोनों ही साँड़ो के समान मदमत्त थे। दोनों के धनुष और ध्वज विद्युत के सामान कान्तिमान थे। दोनों ही शस्त्र समूहों द्वारा युद्ध करने में कुशल थे। दोनों चँवर और व्यजनों से युक्त तथा श्वेत छत्र से सुशोभित थे।
एक के सारथि श्रीकृष्ण थे तो दूसरे के शल्य। उन दोनों महारथियों के रूप एक से ही थे। उनके कंधे सिंह के समान, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और आँखें लाल थीं। दोनों ने सुवर्ण की मालाएँ पहन रखी थीं। दोनों सिंह के समान उन्नत कंधों से प्रकाशित होते थे। दोनों की छाती चैड़ी थी और दोनों ही महान बलशाली थे। दोनों एक दूसरे का वध करना चाहते और परस्पर विजय पाने की अभिलाषा रखते थे। गोशाला में लड़ने वाले दो साँड़ों के समान वे दोनों एक दूसरे पर धावा करते थे। विषधर सर्पों के शिशुओं-जैसे जान पड़ते थे। यम, काल और अन्तक के समान भयंकर प्रतीत होते थे। इन्द्र और वृत्रासुर के समान वे एक दूसरे पर कुपित थे। सुर्य और चन्द्रमा के समान अपनी प्रभा बिखेर रहे थे। क्रोध में भरे हुए दो महान ग्रहों के समान प्रलय मचाने के लिये उठ खडे़ हुए थे। दोनों ही देवताओं के समान बली और देवतुल्य रूपवान थे। दैवेच्छा से भूतल पर उतरे हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान शोभा पाते थे। दोनों ही समरांगण में बलवान और अभिमानी थे। युद्ध के लिये नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे। प्रजानाथ! आमने-सामने खडे़ हुए दो सिंहो के समान उन दोनों नरव्याघ्र वीरों को देखकर आपके सैनिकों को महान हर्ष हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुष सिंह कर्ण और धनंजय को एकत्र हुआ देखकर समस्त प्राणियों को किसी एक की विजय में संदेह होने लगा। दोनों ने श्रेष्ठ आयुध धारण कर रखे थे, दोनों ने ही युद्ध की कला सीखने में परिश्रम किया था और दोनों अपनी भुजाओं के शब्द से आकाश को प्रतिध्वनित कर रहे थे। दोनों के कर्म विख्यात थे। युद्ध में पुरुषार्थ और बल की दृष्टि से दोनों ही शम्बरासुर और देवराज इन्द्र के समान थे। दोनों ही युद्ध में कार्तवीर्य अर्जुन, दशरथ नन्दन श्रीराम, भगवान विष्णु और भगवान शंकर के समान पराक्रमी थे। राजन! दोनों के घोडे़ सफेद रंग के थे। दोनों ही श्रेष्ठ रथ पर सवार थे और उस महासमर में दोनों के सारथि श्रेष्ठ पुरुष थे। भरतश्रेष्ठ! वहाँ सुशोभित होने वाले महारथियों को देखकर सिद्धों और चारणों के समुदायों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर सेनासहित आपके पुत्र युद्ध में शोभा पाने वाले महामनस्वी कर्ण को शीघ्र ही सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। इसी प्रकार हर्ष में भरे हुए धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव वीर युद्ध में अपना सानी न रखने वाले महात्मा कुन्तीकुमार अर्जुन को घेरकर खडे़ हुए। नकुल, सहदेव, चेकितान, हर्ष में भरे हुए प्रभद्रकगण, नाना देशों के निवासी और युद्ध का अभिनन्दन करने वाले अवशिष्ट शूरवीर- ये सब के सब हर्ष में भरकर एक साथ अर्जुन को चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये। वे पैदल, घुड़सवार, रथों और हाथियों द्वारा शत्रुसूदन अर्जुन की रक्षा करना चाहते थे। उन्होंने अर्जुन की विजय और कर्ण के वध के लिये दृढ़ निश्चय कर लिया थ। राजन! इसी प्रकार दुर्योधन आदि आपके सभी पुत्र सावधान एवं शत्रु सेनाओं पर प्रहार करने के लिये उद्यत हो युद्धस्थल में कर्ण की रक्षा करने लगे। प्रजानाथ! आपकी ओर से युद्धरूपी जूए में कर्ण को दाँव पर लगा दिया गया था। इसी प्रकार पाण्डव पक्ष की ओर से कुन्तीकुमार अर्जुन दाँव पर चढ़ गये थे। जो पहले के जूए दर्शक थे, वे ही वहाँ भी सभासद बने हुए थे। वहाँ युद्धरूपी जूआ देखते हुए इन वीरों में से एक की जय और दूसरे की पराजय अवश्यम्भावी थी। उन दोनों ने युद्ध के मुहाने पर खडे़ हुए हम लोगों तथा पाण्डवों की विजय अथवा पराजय के लिये रणद्यूत आरम्भ किया था।
महाराज! युद्ध में शोभा पाने वाले वे दोनों वीर कर्ण और अर्जुन परस्पर कुपित हो एक दूसरे के वध की इच्छा से संग्राम के लिये खडे़ हुए थे। प्रभो! इन्द्र और वृत्रासुर के समान वे दोनों एक दूसरे पर प्रहार की इच्छा रखते थे। उस समय उन दोनों ने दो महान केतु-ग्रहों के समान अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर लिया था। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अन्तरिक्ष में स्थित हुए समस्त भूतों में कर्ण और अर्जुन की जय-पराजय को लेकर परस्पर आक्षेप युक्त विवाद और मतभेद पैदा हो गया। मान्यवर! सब लोग परस्पर भिन्न विचार व्यक्त करते सुनायी देते थे। देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस- इन सबने कर्ण और अर्जुन के युद्ध के विषय में पक्ष और विपक्ष ग्रहण कर लिया। द्यौ (आकाश अधिष्ठा देवी) माता के समान सूतपुत्र कर्ण के पक्ष में खड़ी थी; परन्तु भूदेवी माता की भाँति धनंजय की विजय चाहती थी। पर्वत, समुद्र, सजल नदियाँ, वृक्ष तथा औषधियाँ इन सबने अर्जुन के पक्ष का आश्रय ले रखा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)
शत्रुओं को तापने वाले वीर! असुर, यातुधान और गुह्यक- ये सब ओर से प्रसन्नचित्त हो कर्ण के ही पक्ष में आ गये थे। महाराज! मुनि, चारण, सिद्ध, गरुड़, पक्षी, रत्न, निधियाँ, उपदेव, उननिषद, रहस्य, संग्रह और इतिहास पुराणसहित सम्पूर्ण सर्पगण, अपने वंशजों सहित कद्रू की संतानें, विषैले नाग, ऐरावत, सौरभेय और वैशालेय सर्प- ये सब अर्जुन के पक्ष में हो गये। छोटे-छोटे सर्प कर्ण का साथ देने लगे। राजन! ईहामृग, व्यालमृग, मंगलसूचक मृग, पशु और पक्षी, सिंह तथा व्याघ्र- ये सब के सब अर्जुन की ही विजय का आग्रह रखने लगे। वसु, मरुद्गण, साध्य, रुद्र, विश्वेदेप, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, सोम, पवन, और दसों दिशाएँ अर्जुन के पक्ष में हो गये एवं (इन्द्र के सिवा अन्य) आदित्यगण कर्ण के पक्ष में हो गये। महाराज! वैश्य, शूद्र, सूत तथा शंकर जाति के लोग सब प्रकार से उस समय राधापुत्र कर्ण को ही अपनाने लगे। अपने गणों और सेवकों सहित देवता, पितर, यम, कुवेर और वरुण अर्जुन के पक्ष में थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, यज्ञ और दक्षिणा आदि ने भी अर्जुन का ही साथ दिया। प्रेत, पिशाच, मांसभोजी पशु-पक्षी, राक्षस, जलजन्तु, कुत्ते और सियार- ये कर्ण के पक्ष में हो गये। राजन! देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियों के समुदाय पाण्डुपुत्र अर्जुन के पक्ष में थे। तुम्बुरू आदि गन्धर्व, प्राधा और मुनि ने उत्पन्न हुए गन्धर्व एवं अप्सराओं के समुदाय भी अर्जुन की ही ओर थे। शुद्ध अप्सराओं सहित देवदूत, गुह्यक, और मनोरम पवित्र सुगन्ध- ये सब किरीटधारी अर्जुन के पक्ष में आ गये तथा मन को प्रिय न लगने वाले जो दुर्गन्धयुक्त पदार्थ थे, उन सब ने कर्ण का आश्रय लिया था।
विनाशोन्मुख प्राणियों के समक्ष जो विपरित अनिष्ठ प्रकट होते हैं, अन्तकाल में विपरित भाव का आश्रय लेने वाले पुरुष में उसकी मृत्यु की घड़ी आने पर जो भाव प्रवेश करते हैं, वे सभी भाव अरिष्ट एक साथ सूतपुत्र कर्ण के भीतर प्रविष्ट हुए। नरव्याघ्र! नृपश्रेष्ठ! ओज, तेज, सिद्धी, हर्ष, सत्य, पराक्रम, मानसिक संतोष, विजय तथा आनंद- ऐसे ही भाव और शुभ निमित्त उस युद्धसागर में विजयशील अर्जुन के भीतर प्रविष्ट हुए थे।। ब्राह्मणों सहित ऋषियों ने किरीटधारी अर्जुन का साथ दिया। महाराज! देवसमुदायों और चारणों के साथ सिद्ध गण दो दलों में विभक्त होकर उन दोनों नरश्रेष्ठ अर्जुन और कर्ण का पक्ष लेने लगे। वे सब लोग विचित्र एवं गुणवान विमानों पर बैठकर कर्ण और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध देखने के लिये आये थे।। क्रीड़ीमृग, पक्षी समुदाय तथा हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों सहित दिव्य मनीषी पुरुष वायु तथा बादलों को वाहन बनाकर कर्ण और अर्जुन का युद्ध देखने के लिये वहाँ पधारे थे।
महाराज! देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, यक्ष, पक्षी, वेदज्ञ महर्षि, स्वधाभोजी पितर, तप, विद्या तथा नाना प्रकार के रूप और बल से सम्पन्न औषधियाँ-ये सब के सब कोलाहल मचाते हुए अंतरिक्ष में खडे़ हुए थे। ब्रह्मर्षियों तथा प्रजापतियो के साथ ब्रह्मा और महादेव जी भी दिव्य विमान पर स्थित हो उस प्रदेश में आये।। उन दोनों महामनस्वी वीर कर्ण और अर्जुन को एकत्र हुआ देख उस समय इन्द्र बोल उठे- अर्जुन कर्ण पर विजय प्राप्त करे। यह सुनकर सूर्य देव कहने लगे- नहीं, कर्ण ही अर्जुन को जीत ले। मेरा पुत्र कर्ण युद्धस्थल में अर्जुन को मारकर विजय प्राप्त करे। (इन्द्र बोले-) नहीं, मेरा पुत्र अर्जुन ही आज कर्ण का वध करके विजय श्री का वरण करे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 60-81 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार सूर्य और इन्द्र में विवाद होने लगा। वे दोनों देवश्रेष्ठ वहाँ एक-एक पक्ष में खडे़ थे। भारत! देवताओं और असुरों में भी वहाँ दो पक्ष हो गये थे। महामना कर्ण और अर्जुन को युद्ध के लिये एकत्र हुआ देख देवताओं, ऋषियों तथा चारणों सहित तीनों लोक के प्राणी काँपने लगे। सम्पूर्ण देवता तथा समस्त प्राणी भी भयभीत हो उठे थे। जिस ओर अर्जुन थे, उधर देवता और जिस ओर कर्ण था, उधर असुर खडे़ थे। रणयूथपति कर्ण और अर्जुन कौरव तथा पाण्डव दल के प्रमुख वीर थे। उनके विषय में दो पक्ष देखकर देवताओं ने प्रजापति स्वयम्भू ब्रह्मा जी से पूछा,
देवताओं ने पूछा ;- देव! इन कौरव-पाण्डव योद्धाओं में कौन विजयी होगा? भगवन! हम चाहते हैं कि इन दोनों पुरुषसिंह को एक सी ही विजय हो। प्रभो! कर्ण और अर्जुन के विवाद से सारा संसार संशय में पड़ गया। स्वयम्भू! आप हमें इसके विजय के सम्बन्ध में सच्ची बात बताइये। आप ऐसा वचन बोलिये, जिससे इन दोनों की समान विजय सूचित हो। देवताओं की वह बात सुनकर बुद्धिमान में श्रेष्ठ इन्द्र ने देवेश्वर भगवान ब्रह्मा को प्रमाण करके यह निवेदन किया-भगवन! आपने पहले कहा था कि -इन दोनों कृष्णों की विजय अटल है। आपका वह कथन सत्य हो। आपको नमस्कार है। आप मुझ पर प्रसन्न होइये। तब ब्रह्मा और महादेव जी ने देवेश्वर इन्द्र से कहा,
ब्रह्मा जी ने कहा ;- महात्मा अर्जुन की विजय तो निश्चित ही है। इन्द्र! इन्हीं सव्यसाची अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्निदेव को संतुष्ट किया और स्वर्गलोक में जाकर तुम्हारी भी सहायता की। कर्ण दानव पक्ष का पुरुष है; अतः उसकी पराजय करनी चाहिये ऐसा कहने पर निश्चित रूप से देवताओं का ही कार्य सिद्ध होगा। देवेश्वर! अपना कार्य सभी के लिये गुरुतर होता है। महामना अर्जुन सदा सत्य और क्रोध धर्म में तत्पर रहने वाले हैं; अतः उनकी विजय अवश्य होगी, इसमें संशय नहीं है। शतलोचन! जिन्होंने महात्मा भगवान वृषभध्वज को संतुष्ट किया है, उनकी विजय कैसे नहीं होगी। -साक्षात् जगदीश्वर भगवान विष्णु ने जिनका सारथ्य किया है, जो मनस्वी, बलवान, शूरवीर, अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता और तपस्या के धनी हैं,उसकी विजय क्यों न होगी? सर्वगुण सम्पन्न महातजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन सम्पूर्ण धनुर्वेद को धारण करते हैं; अतः उनकी विजय होगी ही; क्योंकि यह देवताओं का ही कार्य है। पाण्डव वनवास आदि के द्वारा सदा महान कष्ट उठाते आये हैं। पुरुष प्रवर अर्जुन तपोबल से सम्पन्न और पर्याप्त शक्तिशाली हैं। ये अपनी महिमा से दैव के भी निश्चित विधान को पलट सकते हैं; यदि ऐसा हुआ तो सम्पूर्ण लोकों का अवश्य ही अन्त हो जायेगा।
श्रीकृष्ण और अर्जुन के कुपित होने पर यह संसार कहीं टिक नहीं सकता; पुरुषप्रवर श्रीकृष्ण और अर्जुन ही निरन्तर जगत की सृष्टि करते हैं। ये ही प्राचीन ऋषि श्रेष्ठ पर और नारायण हैं; इन पर किसी का शासन नहीं चलता। ये ही सबके नियन्ता हैं; अतः ये शत्रुओं को संताप देने में समर्थ हैं। देवलोक अथवा मनुष्य लोक में कोई भी इन दोनों की समानता करने वाला नहीं है। देवता, ऋषि और चारणों के साथ तीनों लोक, समस्त देवगण और सम्पूर्ण भूत इनके ही नियन्त्रण में में रहने वाले हैं। इन्हीं के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत अपने अपने कर्मों में प्रवृत्त होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 82-100 का हिन्दी अनुवाद)
शूरवीर पूरूष प्रवर वैकर्तन कर्ण श्रेष्ठ लोक प्राप्त करे; परन्तु विजय तो श्रीकृष्ण और अर्जुन की ही हो। कर्ण और द्रोणाचार्य और भीष्म जी के साथ वसुओं अथवा मरुद्रणों के लोक में जाय अथवा स्वर्गलोक ही प्राप्त करे। देवाधिदेव ब्रह्मा और महादेव जी के ऐसा कहने पर इन्द्र ने सम्पूर्ण प्राणियों को बुलाकर उन दोनों की आज्ञा सुनायी।। वे बोले,
इन्द्रदेव बोले ;- हमारे पूज्य प्रभुओं ने संसार के हित के लिये जो कुछ कहा है, वह सब तुम लोगों ने सुन ही लिया होगा। वह वैसे ही होगा। उसके विपरित होना असम्भव है; अतः अब निश्चिन्त हो जाओ। माननीय नरेश! इन्द्र का वचन सुनकर समस्त प्राणी विस्मित हो गये और हर्ष में भरकर श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। साथ ही उन दोनों के ऊपर उन्होंने दिव्य सुगन्धित फूलों की वर्षा की। देवताओं ने नाना प्रकार के दिव्य बाजे बजाने आरम्भ कर दिये।
राजन! पुरुषसिंह कर्ण और अर्जुन का अनुपम द्वैरथ युद्ध देखने की इच्छा से देवता, दानव और गन्धर्व सभी वहाँ खडे़ हो गये। राजन! कर्ण और अर्जुन हर्ष में भरकर जिन रथों पर बैठे हुए थे, उन महामनस्वी वीरों के वे दोनो रथ श्वेत घोड़ों से युक्त, दिव्य और आवश्यक सामग्रियों से सम्पन्न थे। भरतनन्दन! वहाँ एकत्र हुए सम्पूर्ण जगत के वीर पृथक-पृथक शंखध्वनि करने लगे। वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तथा शल्य और कर्ण ने भी अपना अपना शंख बजाया। इन्द्र और शम्बरासुर के समान एक दूसरे से डाह रखने वाले उन दोनों वीरों में उस समय घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जो कायरों के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला था। उन दोनों के रथों पर निर्मल ध्वजाएँ शोभा पा रही थीं, मानों संसार के प्रलयकाल में आकाश में राहु और केतु दोनों ग्रह उदित हुए हों। कर्ण के ध्वज की पताका में हाथी की साँकल का चिह्न था, वह साँकल रत्नसारमयी, सुदृढ़ और विषधर सर्प के समान आकारवाली थी। वह आकाश में इन्द्रधनुष के समान शोभा पाती थी। कुन्तीकुमार अर्जुन के रथ पर मुँह बाये हुए यमराज के समान एक श्रेष्ठ वानर बैठा हुआ था, जो अपनी दाढ़ों से सबको डराया करता था। वह अपनी प्रभा से सूर्य के समान जान पड़ता था। उसकी ओर देखना कठिन था।
गाण्डीवधारी अर्जुन का ध्वज मानो युद्ध का इच्छुक होकर कर्ण के ध्वज पर आक्रमण करने लगा। अर्जुन की ध्वजा का महान वेगशाली वानर उस समय अपने स्थान से उछला और कर्ण की ध्वजा की साँकल पर चोट करने लगा, जैसे गरुड़ अपने पंजो और चोंच से सर्प पर प्रहार कर रहे हों। कर्ण के ध्वज पर जो हाथी की साँकल थी, वह कालपाश के समान जान पड़ती थी। वह लोह निर्मित हाथी की साँकल छोटी-छोटी घण्टियों से विभूषित थी। उसने अत्यन्त कुपित होकर उस वानर पर धावा किया। उन दोनों में घोरतर द्वैरथ युद्धरूपी जूए का अवसर उपस्थित था, इसीलिये उन दोनों की ध्वजाओं ने पहले स्वयं ही युद्ध आरम्भ कर दिया। एक के घोडे़ दूसरे के घोड़ों को देखकर परस्पर लाग-डाँट रखते हुए हिनहिना ने लगे। इसी समय कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने शल्य की ओर त्यौरी चढ़ाकर देखा, मानो वे उसे नेत्ररूपी बाणों से बींध रहे हों। इसी प्रकार शल्य ने भी कमलनयन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टिपात किया; परंतु वहाँ विजय श्रीकृष्ण की हुई। उन्होंने अपने नेत्ररूपी बाणों से शल्य को पराजित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ताशीतिम अध्याय के श्लोक 101-117 का हिन्दी अनुवाद)
इसी तरह कुन्तीनन्दन धनंजय ने भी अपनी दृष्टि द्वारा कर्ण को परास्त कर दिया। तदनन्तर कर्ण ने शल्य से मुसकराते हुए कहा,
कर्ण ने कहा ;- शल्य! सच बताओ, यदि कदाचित आज रणभूमि में कुन्तीपुत्र अर्जुन मुझे यहाँ मार डालें तो तुम इस संग्राम में क्या करोगे?
शल्य ने कहा ;- कर्ण! यदि श्वेतवाहन अर्जुन आज युद्ध में तुझे मार डालें तो में एकमात्र रथ के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों का वध कर डालूँगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! इसी प्रकार अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से पूछा तब श्रीकृष्ण ने हँसकर अर्जुन से यह सत्य बात कहीं,
श्री कृष्ण ने कहा ;- धनंजय! सूर्य अपने स्थान से गिर जाय, समुद्र सूख जाय और अग्नि सदा के लिये शीतल हो जाय तो भी कर्ण तुम्हें मार नहीं सकता। यदि किसी तरह ऐसा हो जाय तो संसार उलट जायगा। मैं अपनी दोनों भुजाओं से ही युद्धभुमि में कर्ण तथा शल्य को मसल डालूँगा।
भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर कपिध्वज अर्जुन हँस पड़े और अनायास ही महान कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार बोले,
अर्जुन ने कहा ;- जनार्दन! ये कर्ण और शल्य तो मेंरे ही लिये पर्याप्त नहीं हैं। श्रीकृष्ण! आज रणभूमि में आप देखियेगा, मैं कवच, छत्र, शक्ति, धनुष, बाण, ध्वजा, पताका, रथ, घोडे़ तथा राजा शल्य के सहित कर्ण को अपने बाणों से टुकडे़-टुकडे़ कर डालूँगा। जैसे जंगल में दन्तार हाथी किसी पेड़ को टूक-टूक कर देता है, उसी प्रकार आज ही मैं रथ, घोडे़, शक्ति, कवच तथा अस्त्र-शस्त्र सहित कर्ण को चूर-चूर कर डालूँगा। माधव! आज राधापुत्र कर्ण की स्त्रियों के विधवा होने का अवसर उपस्थित है। निश्चय ही, उन्होंने स्वप्न में अनिष्ट वस्तुओं के दर्शन किये हैं। आप निश्चय ही, आज कर्ण की स्त्रियों को विधवा हुई देखेंगे। इस अदूरर्दशी मूर्ख ने सभा में द्रौपदी को आयी देख बारंबार उसकी तथा हम लोगों की हँसी उड़ायी और हम सब लोगों पर आक्षेप किया। ऐसा करते हुए इस कर्ण ने पहले जो कुकृत्य किया है, उसे याद करके मेरा क्रोध शांत नहीं होता है। गोविन्द! जैसे मतवाला हाथी फले-फूले वृक्ष को तोड़ डालता है, उसी प्रकार आज में इस कर्ण को मथ डालूँगा। आप यह सब कुछ अपनी आँखों देखेंगे। मधुसूदन! आज कर्ण के मारे जाने पर आपको मधुर बाते सुनने को मिलेंगी। हम लोग कहेंगे- वृष्णिनन्दन! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज आपकी विजय हुई। जनार्दन! आज आप अत्यन्त प्रसन्न होकर अभिमन्यु की माता सुभद्रा को और अपनी बुआ कुन्ती देवी को सान्त्त्वना देंगे। माधव! आज आप मुख पर आँसुओं की धारा बहाने वाली द्रुपदकुमारी कृष्णा तथा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को अमृत के समान मधुर वचनों द्वारार सान्त्वना प्रदान करेंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण और अर्जुन का द्वैरथयुद्ध में समागतविषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अठ्ठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार, अश्वथामा का दुर्योधन से संधि के लिये प्रस्ताव और दुर्योधन द्वारा उसकी अस्वीकृति”
संजय कहते हैं ;- महाराज! उस समय आकाश में देवता, नाग, असुर, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, अप्सराओं के समुदाय, ब्रह्मर्षि, राजर्षि और गरुड़- ये सब जुटे हुए थे। इन के कारण आकाश का स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यमय प्रतीत होता था। नाना प्रकार के मनोरम शब्दों, वाद्यों, गीतों, स्तोत्रों, नृत्यों और हास्य आदि से आकाश मुखरित हो उठा। उस समय भूतल के मनुष्य और आकाशचारी प्राणी सभी उस आश्चर्यमय अन्तरिक्ष की ओर देख रहे थे।
तदनन्तर कौरव और पाण्डव पक्ष के समस्त योद्धा बड़े हर्ष में भरकर वाद्य, शंखध्वनि, सिंहनाद और कोलाहल से रणभूमि एवं सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए समस्त शत्रुओं का संहार करने लगे। उस समय हाथी, अश्व, रथ और पैदल सैनिकों से भरा हुआ बाण, खड्ग, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से दुःसह प्रतीत होने वाला एवं मृतकों के शरीर से व्याप्त हुआ वह वीर से वित समरांगण खून से लाल दिखायी देने लगा। जैसे पूर्वकाल में देवताओं का असुरों के साथ संग्राम हुआ था, उसी प्रकार पाण्डवों का कौरवों के साथ युद्ध होने लगा। अर्जुन और कर्ण के बाणों से वह अत्यन्त दारुण तुमुल युद्ध आरम्भ होने पर वे दोनों कवचधारी वीर अपने पैने बाणों से परस्पर सम्पूर्ण दिशाओं तथा सेना को आच्छादित करने लगे। तत्पश्चात आपके और शत्रुपक्ष के सैनिक जब बाणों से फैले हुए अन्धकार में कुछ भी देख न के, वह भय से आतुर हो उन दोनों प्रधान रथियों की शरण में आ गये। फिर तो चारों ओर अदभुत युद्ध होने लगा।
तदनन्तर जैसे पूर्व और पश्चिम की हवाएँ एक दुसरी को दबाती हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर एक दूसरे के अस्त्रों को अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट करके फैले हुए प्रगाढ़ अन्धकार में उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान अत्यन्त प्रकाशित होने लगे। किसी को युद्ध से मुँह मोड़कर भागना नहीं चाहिये इस नियम से प्रेरित होकर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिक उन दोनों महारथियों को चारों ओर से घेरकर उसी प्रकार युद्ध में डटे रहे, जैसे पूर्वकाल में देवता और असुर, इन्द्र और शम्बरासुर को घेरकर खडे़ हुए थे। दोनों दलों में होती हुई मृदंग, भेरी, पणव और आनक आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ वे दोनों नरश्रेष्ठ जोर-जोर से सिंहनाद कर रहे थे, उस समय वे दोनों पुरुषरत्न मेंघों की गम्भीर गर्जना के साथ उदित हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे। रणभूमि में दोनों वीर चराचर जगत को दग्ध करने की इच्छा से प्रकट हुए प्रलयकाल के दो सूर्यों के समान शत्रुओं के लिये दुःसह हो रहे थे। कर्ण और अर्जुनरूप वे दोनों सूर्य अपने विशाल धनुषरूपी मण्डल के मध्य में प्रकाशित होते थे। सहस्रों बाण ही उनकी किरण थे और वे दोनों ही महान तेज से सम्पन्न दिखायी देते थे। दोनों ही अजेय और शत्रुओं का विनाश करने वाले थे। दोनों ही अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान और एक दूसरे के वध की इच्छा रखने वाले थे। कर्ण और अर्जुन दोनों वीर इन्द्र और जम्भासुर के समान उस महासमर में निर्भय विचरते थे। नरेश्वर! वे महाधनुर्धर और महारथी वीर महान अस्त्रों का प्रयोग करते हुए अपने भयानक बाणों द्वारा असंख्य मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों का संहार करते हुए आपस में भी एक दूसरे को चोट पहुँचाते थे। जैसे सिंह के द्वारा घायल किये हुए जंगली पशु सब ओर भागने लगते हैं, उसी प्रकार उन नरश्रेष्ठ वीरों के द्वारा बाणों से पीड़ित किये हुए कौरव तथा पाण्डव सैनिक हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों सहित दसों दिशाओं में भाग खडे़ हुए।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तदनन्तर दुर्योधन, कृतवर्मा, शकुनि, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य और कर्ण- ये पांच महारथी शरीरों को पीड़ा देने वाले बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन को घायल करने लगे। यह देख अर्जुन ने उनके धनुष, तरकस, ध्वज, घोडे़, रथ और सारथि- इन सबको अपने बाणों द्वारा एक साथ ही प्रमथित करके चारों ओर खडे़ हुए शत्रुओं को शीघ्र ही बींध डाला और सूतपुत्र कर्ण पर भी बारह बाणों का प्रहार किया। तदनन्तर वहाँ सैकड़ों रथी और सैकड़ों हाथीसवार आततायी बनकर अर्जुन को मार डालने की इच्छा से दौड़े़ आये, उनके साथ शक, तुषार, यवन आदि काम्बोज देशों के अच्छे घुड़सवार भी थे। परंतु अर्जुन ने अपने हाथ के बाणों और क्षुरों द्वारा उन सबके उत्तम-उत्तम अस्त्रों को काट डाला। शत्रुओं के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। अर्जुन ने विपक्षियों के घोड़ों, हाथियों और रथों तथा युद्ध में तत्पर हुए उन शत्रुओं को भी पृथ्वी पर काट गिराया। तत्पश्चात आकाश में हर्ष से उल्लसित हुए दर्शकों द्वारा साधुवाद देने के साथ-साथ दिव्य बाजे भी बजाये जाने लगे। वायु की प्रेरणा से वहाँ सुन्दर सुगन्धित और उत्तम फूलों की वर्षा होने लगी।
देवताओं और मनुष्यों के सक्षित्व में होने वाले उस अदभुत युद्ध को देखकर समस्त प्राणी उस समय आश्चर्य चकित हो उठे; परंतु आपका पुत्र दुर्योधन और सूतपुत्र कर्ण- ये दोनों ही एक निश्चय पर पहुँच चुके थे; अतः इनके मन में न तो व्यथा हुई और न ये विस्मय को ही प्राप्त हुए। तदनन्तर द्रोणाकुमार अश्वत्थामा ने दुर्योधन का हाथ अपने हाथ से दबाकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- दुर्योधन! अब प्रसन्न हो जाओ। पाण्डवों से संधि कर लो। विरोध से कोई लाभ नहीं है। आपस के इस झगड़े को धिक्कार है! तुम्हारे गुरुदेव अस्त्रविद्या के महान पण्डित थे। साक्षात ब्रह्मा जी के समान थे तो भी इस युद्ध में मारे गये। यही दशा भीष्म आदि महारथियों की भी हुई। मैं और मेरे मामा कृपाचार्य तो अवध्य हैं (इसलिये अब तक बचे हुए हैं)
अतः अब तुम पाण्डवों के साथ मिल कर चिरकाल तक राज्यशासन करो। अर्जुन मेरे मना करने पर शांत हो जायँगे। श्रीकृष्ण भी तुम लोगों में विरोध नहीं चाहते हैं। युधिष्ठिर तो सभी प्राणियों के हित में ही लगे रहते हैं। अतः वे भी मेरी बात मान लेंगे। बाकी रहे भीमसेन और नकुल-सहदेव, सो ये भी धर्मराज के अधीन हैं; (अतः उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे) इस प्रकार पाण्डवों के साथ तुम्हारी संधि हो जाने पर सारी प्रजा का कल्याण होगा। फिर तुम्हारी इच्छा से शेष सगे-सम्बन्धी भाई-बन्धु अपने-अपने नगर को लौट जायँ और समस्त सैनिकों को युद्ध से छुट्टी मिल जाय। नरेश्वर! यदि मेरी बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही युद्ध में शत्रुओं के हाथ से मारे जाओगे और उस समय तुम्हें बड़ा पश्चात्ताप होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 25-29 का हिन्दी अनुवाद)
बुढ़े पिता धृतराष्ट्र और यशस्विनी माता गांधारी की ओर देखकर दयालु धर्मराज युधिष्ठिर मेरे अनुरोध करने पर भी संधि कर लेंगे। वे सामर्थ्यशाली, विद्वान, उत्तम बुद्धि से युक्त, धैर्यवान तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले हैं; अतः तुम्हारे लिये राज्य का जितना भाग उचित है, उस पर शासन करने के लिये वे तुम्हें स्वयं ही आज्ञा दे देंगे। धर्मात्मा युधिष्ठिर वैर दूर कर देंगे; क्योंकि आत्मीयजन से कोई भूल हो जाय तो उसे अक्षम्य अपराध नहीं माना जाता। श्रीकृष्ण भी यह नहीं चाहते कि आपस में कलह हो, वे स्वजनोंपर सदा संतुष्ट रहते हैं। भीमसेन, अर्जुन और दोनों भाई माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव- ये सब लोग भगवान श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान युधिष्ठिर की राय से चलते हैं; अतः ये पुरुषसिंह वीर उन दोनों के आदेश का गौरव रखते हुए युद्ध से निवृत हो जायँगे।
दुर्योधन! तुम स्वयं ही अपनी रक्षा करो। आत्मा ही सब सुखों का भाजन है। तुम जीवन-रक्षा के लिये प्रयत्न करो। जीवित रहने वाला पुरुष ही कल्याण का दर्शन करता है। तुम्हारा कल्याण हो; तुम जीवित रहोगे, तभी तुम्हें राज्य और लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है। कुरुनन्दन! मरे हुए को राज्य नहीं मिलता, फिर सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? भारत! लोक में घटित होने वाले इस प्रचलित व्यवहार की ओर दृष्टिपात करो; पाण्डवों के साथ संधि कर लो और कौरव कुल को शेष रहने दो। कुरुनन्दन! ऐसा समय कभी न आवे जबकि मैं इच्छानुसार तुमसे कोई अहितकर बात कहूँ; अतः महाबाहो! तुम मेरी बात का अनादर न करो। मेरा यह कथन धर्म के अनुकूल तथा राजा और राज कुल के लिये अत्यन्त हितकर है; यह कौरव वंश की वृद्धि के लिये परम कल्याणकारी है। गान्धारीनन्दन! मेरा यह वचन प्रजाजनों के लिये हितकर, इस कुल के लिये सुखदायक, लाभकारी तथा भविष्य में भी मंगलकारक है। नरश्रेष्ठ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि कर्ण नरव्याघ्र अर्जुन को कदापि जीत न सकेगा; अतः मेरा यह शुभ वचन तुम्हें पसंद आना चाहिये। राजेन्द्र! यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ा भारी विनाश होगा। किरीटधारी अर्जुन ने अकेले जो पराक्रम किया है, इसे सारे संसार के साथ तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। ऐसा पराक्रम न तो इन्द्र कर सकते हैं और न यमराज न धाता कर सकते हैं और न भगवान यक्षराज कुबेर। यद्यपि अर्जुन अपने गुणों द्वारा इससे भी बहुत बढ़े-चढ़े हैं, तथापि मुझे विश्वास है कि वे मेरी कहीं हुई इन सारी बातों को कदापि नहीं टालेंगे। यही नहीं, वे सदा तुम्हारा अनुसरण करेंगे; इसलिये राजेन्द्र! तुम प्रसन्न होओ और संधि कर लो। तुम्हारे प्रति मेरे मन में भी सदा बड़े आदर का भाव रहा है। हम दोनों की जो घनिष्ठ मित्रता है, उसी के कारण मैं तुमसे यह प्रस्ताव करता हूँ। यदि तुम प्रेमपूर्वक राजी हो जाओगे तो मैं कर्ण को भी युद्ध से रोक दूँगा।
विद्वान पुरुष चार प्रकार के मित्र बतलाते हैं। एक सहज मित्र होते हैं (जिके साथ स्वाभाविक मैत्री होती हैं)। दूसरे हैं संधि करके बनाये हुए मित्र। तीसरे वे हैं जो धन देकर अपनाये गये हैं जो किसी के प्रबल प्रताप से प्रभावित हो स्वतः शरण में आ जाते हैं, वे चौथे प्रकार के मित्र हैं। पाण्डवों के साथ तुम्हारी सभी प्रकार की मित्रता सम्भव है। वीर! एक तो वे तुम्हारे जन्मजात भाई हैं; अतः सहज मित्र हैं। प्रभो! फिर तुम संधि करके उन्हें अपना मित्र बना लो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों से मित्रता स्वीकार कर लो तो तुम्हारे द्वारा संसार का अनुपम हित हो सकता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 30-34 का हिन्दी अनुवाद)
सुहृदय अश्वत्थामा ने जब इस प्रकार हित की बात कहीं, तब दुर्योधन ने उस पर विचार करके लंबी साँस खींचकर मन ही मन दुखी हो इस प्रकार बोले-सखे! तुम जैसा कहते हो, वह सब ठीक है; परंतु इस विषय में कुछ मैं भी निवेदन कर रहा हूँ, अतः मेरी बात भी सुन लो। इस दुर्बुद्धि भीमसेन ने सिंह के समान हठपूर्वक दुःशासन का वध करके जो बात कहीं थी, वह तुमसे छिपी नहीं है। वह इस समय भी मेरे हृदय में स्थित होकर पीड़ा दे रही है। ऐसी दशा में कैसे संधि हो सकती है? इसके सिवा भयंकर वायु जैसे महापर्वत मेरु का सामना नहीं कर सकती, उसी प्रकार अर्जुन इस रणभूमि मेंं कर्ण का वेग नहीं सह सकते। हमने हठपूर्वक बारंबार जो वैर किया है, उसे सोचकर कुन्ती के पुत्र मुझ पर विश्वास भी नहीं करेंगे। अपनी मर्यादा न छोड़ने वाले गुरुपुत्र! तुम्हें कर्ण से युद्ध बंद करने के लिये नहीं कहना चाहिये; क्योंकि इस समय अर्जुन महान परिश्रम से थक गये हैं; अतः अब कर्ण उन्हें बलपूर्वक मार डालेगा। अश्वत्थामा से ऐसा कहकर बारंबार अनुनय-विनय के द्वारा उसे प्रसन्न करके आपके पुत्र ने अपने सैनिकों को आदेश देते हुए कहा- अरे! तुम लोग हाथों में बाण लिये चुपचाप बैठे क्यों हो? मेंरे शत्रुओं पर टूट पड़ो और उन्हें मार डालो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वत्थामा का वचनविषयक अठासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण और अर्जुन भयंकर युद्ध और कौरव वीरों का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप जब वहाँ शंख और भेरियों की गम्भीर ध्वनि होने लगी, उस समय वहाँ श्वेत घोड़ों वाले दोनों नरश्रेष्ठ वैकर्तन कर्ण और अर्जुन युद्ध के लिये एक दूसरे की ओर बढे़। ये दोनों यशस्वी वीर उस समय दो विषधर सर्पों के समान लंबी साँस खींचकर मानो अपने भूखों से धूमरहित अग्नि ने सदृश वैर भाव प्रकट कर रहे थे। वे घी की आहुति से प्रज्वलित हुई दो अग्नियों की भाँति युद्धभूमि में देदीप्यमान होने लगे। जैसे मद की धारा बहाने वाले हिमाचल प्रदेश के बड़े-बड़े़ दाँतों वाले दो हाथी किसी हथिनी के लिये लड़ रहे हों, उसी प्रकार भयंकर पराक्रमी वीर अर्जुन और कर्ण युद्ध के लिये एक-दूसरे के समान आये।
जिनके शिखर, वृक्ष, लता-गुल्म और औषधि सभी विशाल एवं बढे़ हुए हों तथा जो नाना प्रकार के बड़े-बड़े़ झरनों के उद्रमस्थान हों, ऐसे दो पर्वतों के समान वे महाबली कर्ण और अर्जुन आगे बढ़कर अपने महान अस्त्रों द्वारा एक-दूसरे आघात करने लगे। उन दोनों का वह संग्राम वैसा ही महान था, जैसा कि पूर्वकाल में इन्द्र और बलि का युद्ध हुआ था। बाणों के आघात से उन दोनों के शरीर, सारथि और घोडे़ क्षत-विक्षत हो गये थे और वहाँ कटु रक्तरूपी जल का प्रवाह बह रहा था। वह युद्ध दूसरों के लिये अत्यन्त दुःसह था। जैसे प्रचुर पद्य, उत्पल, मत्स्य और कच्छपों से युक्त तथा पक्षिसमुहों से आवृत दो अत्यन्त निकटवर्ती विशाल सरोवर वायु से संचालित हो परस्पर मिल जायँ, उसी प्रकार ध्वजों से सुशोभित उनके वे दोनों रथ एक दूसरे से भिड़ गये थे। वे दोनों वीर इन्द्र के समान पराक्रमी और उन्हीं के सदृश महारथी थे। इन्द्र के वज्रतुल्य बाणों से इन्द्र और वृत्रासुर के समान वे एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। विचित्र कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध धारण करने वाली, हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों सहित उभय पक्ष की चतुरंगिणी सेनाएँ अर्जुन और कर्ण के उस युद्ध में भय के कारण आश्चर्यजनक-रूप से काँपने लगीं तथा आकाशवर्ती प्राणी भी भय से थर्रा उठे। जैसे मतवाला हाथी किसी हाथी पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अर्जुन जब कर्ण के वध की इच्छा से उस पर धावा करने लगे, उस समय दर्शकों ने आनंदित हो सिंहनाद करते हुए अपने हाथ ऊपर उठा दिये और अगुलियों में वस्त्र लेकर उन्हें हिलाना आरम्भ किया।
जब महासमर में अपराह्न के समय पर्वत पर जाने वाले मेघ के समान सूतपुत्र कर्ण ने अर्जुन पर आक्रमण किया, उस समय कौरवों और सोमकों का महान कोलाहल सब ओर प्रकट होने लगा। उसी समय उन दोनों रथों का संघर्ष आरम्भ हुआ। उस महायुद्ध में रक्त और मांस की कीच जम गयी थी। उस समय सोमकों ने आगे बढ़कर वहाँ कुन्तीकुमार से पुकार-पुकार कर कहा-अर्जुन! तुम कर्ण को मार डालो। अब देर करने की आवश्यकता नहीं है। कर्ण के मस्तक और दुर्योधन की राज्य प्राप्ति की आशा दोनों को एक साथ ही काट डालो। इसी प्रकार हमारे पक्ष के बहुत से योद्धा कर्ण को प्रेरित करते हुए बोले-कर्ण! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। अपने पैने बाणों से अर्जुन को मार डालो, जिससे कुन्ती के सभी पुत्र पुनः दीर्घकाल के लिये वन में चले जायँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर वहाँ कर्ण ने पहले इस विशाल बाणों द्वारा अर्जुन को बींध डाला, तब अर्जुन ने भी हँसकर तीखी धारवाले दस बाणों से कर्ण की काँख में प्रहार किया। सूतपुत्र कर्ण और अर्जुन दोनों उस युद्ध में अत्यन्त हर्ष में भरकर सुन्दर पंख वाले बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। वे परस्पर क्षति पहुँचाते और भयानक आक्रमण करते थे। तत्पश्चात भयंकर धनुष वाले अर्जुन ने अपनी दोनों भुजाओं तथा गाण्डीव धनुष को पोंछकर नाराच, नालीक, वराह कर्ण, क्षुर, अंजलिक तथा धर्मचन्द्र आदि बाणों का प्रहार आरम्भ किया। राजन! वे अर्जुन के बाण कर्ण के रथ में घुसकर सब ओर बिखर जाते थे। ठीक उसी तरह, जैसे संध्या के समय पक्षियों के झुंड बसेरा लेने के लिये नीचे मुख किये शीघ्र ही किसी वृक्ष पर जा बैठते हैं। नरेश्वर! शत्रुविजयी अर्जुन भौंहें टेढ़ी करके कटाक्ष-पूर्वक देखते हुए कर्ण पर जिन-जिन बाणों का प्रहार करते थे, पाण्डुपुत्र अर्जुन के चलाये हुए उन सभी बाण समूहों को सूतपुत्र कर्ण शीघ्र ही नष्ट कर देता था। तब इन्द्रकुमार अर्जुन ने कर्ण पर शत्रुनाशक आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। उस आग्नेयास्त्र का स्वरूप पृथ्वी, आकाश, दिशा तथा सूर्य के मार्ग को व्याप्त करके वहाँ प्रज्वलित हो उठा। इससे वहाँ समस्त योद्धाओं के वस्त्र जलने लगे। कपड़े जल जाने से वे सब-के-सब वहाँ से भाग चले। जैसे जंगल के बीच बाँस के वन में आग लगने पर जोर-जोर से चटकने की आवाज होती है, उसी प्रकार आग की लपट में झुलसते हुए सैनिकों का अत्यन्त भयंकर आर्तनाद होने लगा।
प्रतापी सूतपुत्र कर्ण ने उस आग्नेयास्त्र को उद्दीप्त हुआ देखकर रणक्षेत्र में उसकी शांति के लिये वारुणास्त्र प्रयोग किया और उसके द्वारा उस आग को बुझा दिया। फिर तो बड़े वेग से मेघों की घटा घिर आयी और उसने सम्पूर्ण दिशाओं को अन्धकार से आच्छादित कर दिया। दिशाओं का अंतिम भाग काले पर्वत के समान दिखायी देने लगा। मेघों की घटाओं ने वहाँ का सारा प्रदेश जल से आप्लावित कर दिया था। उन मेघों ने वहाँ पूवोक्त रूप से बढ़ी हुई अति प्रचण्ड आग को बड़े वेग से बुझा दिया। फिर समस्त दिशाओं और आकाश में वे ही छा गये। मेघों से घिरकर सारी दिशाएँ अन्धकाराच्छन्न हो गयीं; अतः कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती थी।
तदनन्तर कर्ण की ओर से आये हुए सम्पूर्ण मेघसमूहों को वायव्यास्त्र से छिन्न-भिन्न करके शत्रुओं के लिये अजेय अर्जुन ने गाण्डीव धनुष, उसकी प्रत्यंचा तथा बाणों को अभिमंत्रित करके अत्यन्त प्रभावशाली वज्रास्त्र को प्रकट किया, जो देवराज इन्द्र का प्रिय अस्त्र है। उस गाण्डीव धनुष से क्षुरप्र, अंजलिक, अर्धचन्द्र, नालीक, नाराच और वराहकर्ण आदि तीखे अस्त्र हजारों की संख्या में छूटने लगे। वे सभी अस्त्र वज्र के समान वेगशाली थे। वे महाप्रभावशाली, गीध के पंखों से युक्त, तेज धारवाले और अतिशय वेगवान अस्त्र कर्ण के पास पहुँचकर उसके समस्त अंगों में, घोड़ों पर, धनुष में तथा रथ के जुओं, पहियों और ध्वजों में जा लगे। जैसे गरुड़ से डरे हुए सर्प धरती छेदकर उसके भीतर घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे तीखें अस्त्र उपयुक्त वस्तुओं को विदीर्ण कर शीघ्र ही उनके भीतर घुँस गये। कर्ण के सारे अंग बाणों से भर गये। सम्पूर्ण शरीर रक्त से नहा उठा। इससे उसके नेत्र उस समय क्रोध से घूमने लगे। उस महामनस्वी वीर ने अपने धनुष को जिसकी प्रत्यंचा सुदृढ़ थी, झुकाकर समुद्र के समान गम्भीर गर्जना करने वाले भार्गवास्त्र को प्रकट किया और अर्जुन के महेन्द्रास्त्र से प्रकट हुए बाण-समुहों के टुकडे़-टुकडे़ करके अपने अस्त्र से उनके अस्त्र को दबाकर युद्धस्थल में रथों, हाथियों और पैदल-सैनिकों का संहार कर डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 28-43 का हिन्दी अनुवाद)
अमर्षशील कर्ण उस महासमर में भार्गवास्त्र के प्रताप से देवराज इन्द्र के समान पराक्रम प्रकट कर रहा था। क्रोध में भरे हुए वेगशाली सूतपुत्र कर्ण ने अच्छी तरह छोड़े गये और शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बाणों द्वारा युद्धस्थल में हठपूर्वक मुख्य-मुख्य पांचाल योद्धाओं को घायल कर दिया। राजन! समरांगण कर्ण के बाणसमूहों से पीड़ित होते हुए पांचाल और सोमक योद्धा भी क्रोधपूर्वक एकत्र हो अपने पैने बाणों से सूतपुत्र कर्ण को बींधने लगे। किंतु उस रणक्षेत्र में सूतपुत्र कर्ण ने बाणसमूहों द्वारा हर्ष और उत्साह के साथ पांचाल के रथियों, हाथीसवारों और घुड़सवारों को घायल करके बड़ी पीड़ा दी और उन्हें बाणों से मार डाला। कर्ण के बाणों से उनके शरीरों के टुकडे़-टुकडे़ हो गये और वे प्राणशून्य होकर कराहते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। जैसे विशाल वन में भयानक बलशाली और क्रोध में भरे हुए सिंह से विदीर्ण किये गये हाथियों के झुंड धराशायी हो जाते हैं, वैसी ही दशा उन पांचाल योद्धाओं की भी हुई। राजन! पांचालों के समस्त श्रेष्ठ योद्धाओं का बलपूर्वक वध करके उदार वीर कर्ण आकाश में प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। उस समय आपके सैनिक कर्ण की विजय समझकर बड़े प्रसन्न हुए और सिंहनाद करने लगे।
कौरवेन्द्र! उन सब ने यही समझा कि कर्ण ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को बहुत घायल कर दिया है। महारथी कर्ण का वह शत्रुओं के लिये असह्य वैसा पराक्रम दृष्टिपथ में लाकर तथा रणभूमि में कर्ण द्वारा अर्जुन के उस अस्त्रों को नष्ट हुआ देखकर अमर्षशील वायुपुत्र भीमसेन हाथ-से-हाथ मलने लगे। उनके नेत्र क्रोध से प्रज्वलित हो उठे। हृदय में अमर्ष और क्रोध का प्रादुर्भाव हो गया; अतः वे सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन से इस प्रकार बोले-विजयी अर्जुन! तुम्हें तो पूर्वकाल में देवता भी नहीं जीत सके थे। कालकेय दानव भी नहीं परास्त कर सके थे। तुम साक्षात भगवान शंकर की भुजाओं से टक्कर ले चुके हो तो भी इस सूतपुत्र ने तुम्हें पहले ही दस बाण मारकर कैसे बींध डाला? तुम्हारे चलाये हुए बाणसमूहों को इसने नष्ट कर दिया, यह तो आज मुझे बड़े आश्चर्य की बात जान पड़ती है। सव्यसाची अर्जुन! कौरव-सभा में द्रौपदी को दिये गये उन क्लेशों को तो याद करो। इस पाप बुद्धि दुरात्मा सूतपुत्र ने जो निर्भय होकर हम लोगों को थोथे तिलों के समान नपुंसक बताया था और बहुत-सी अत्यन्त तीखी एवं रूखी बातें सुनायी थीं, उन सबको यहाँ याद करके तुम पापी कर्ण को शीघ्र ही युद्ध में मार डालो। किरीटधारी पार्थ! तुम क्यों इसकी उपेक्षा करते हो? आज यहाँ यह उपेक्षा करने का समय नहीं है। तुमने जिस धैर्य से खाण्डव वन में अग्नि देव को ग्रास समर्पित करते हुए समस्त प्राणियों पर विजय पायी थी, उसी धैर्य के द्वारा सूतपुत्र को मार डालो। फिर में भी इसे अपनी गदा से कुचल डालूँगा।
तदनन्तर वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के रथ सम्बन्धी बाणों को कर्ण के द्वारा नष्ट होते देख उनसे इस प्रकार कहा किरीटधारी अर्जुन! यह क्या बात है? तुमने अब तक जितने बार प्रहार किये हैं, उन सब में कर्ण ने तुम्हारे अस्त्र को अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट कर दिया है। वीर! आज तुम पर कैसा मोह छा रहा है? तुम सावधान क्यों नहीं होते? देखो, ये तुम्हारे शत्रु कौरव अत्यन्त हर्ष में भरकर सिंहनाद कर हरे हैं!
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 44-60 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण को आगे करके सब लोग यही समझ रहे हैं कि तुम्हारा अस्त्र उसके अस्त्रों द्वारा नष्ट होता जा रहा है। तुमने जिस धैर्य से प्रत्येक युग में घोर राक्षसों का, उनके मायामय तामस अस्त्र तथा दम्भोद्धव नाम वाले असुरों का युद्धस्थलों में विनाश किया है, उसी धैर्य से आज तुम कर्ण को भी मार डालो। तुम मेरे दिये हुए इस सुदर्शन चक्र के द्वारा जिसके नेमि भाग में (किनारे) क्षुर लगे हुए हैं, आज बलपूर्वक शत्रु का मस्तक काट डालो। जैसे इन्द्र ने वज्र के द्वारा अपने शत्रु नमुचि का सिर काट दिया था। वीर! तुमने अपने जिस उत्तम धैर्य के द्वारा किरातरूप धारी महात्मा भगवान शंख को संतुष्ट किया था, उसी धैर्य को पुनः अपना कर सगे-सम्बन्धयों सहित सूतपुत्र का वध कर डालो। पार्थ! तत्पश्चात समुद्र से घिरी हुई नगरों और गाँवों से युक्त तथा शत्रुसमुदाय से शून्य वह समृद्धि शालिनी पृथ्वी राजा युधिष्ठिर को दे दो और अनुपम यश प्राप्त करो।
भीमसेन और श्रीकृष्ण के इस प्रकार प्रेरणा देने और कहने पर अत्यन्त बलशाली महात्मा अर्जुन ने सूतपुत्र के वध का विचार किया। उन्होंने अपने स्वरूप स्मरण करके सब बातों पर दृष्टिपात किया और इस युद्धभूमि में अपने आगमन के प्रयोजन को समझकर श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- प्रभो! मैं जगत के कल्याण और सूतपुत्र वध के लिये अब एक महान एवं भयंकर अस्त्र प्रकट कर रहा हूँ। इसके लिये आप, ब्रह्मा जी को नमस्कार करके जिसका मन से ही प्रयोग किया जात है, उस असह्य एवं उत्तम ब्रह्मास्त्र को प्रकट किया। परंतु जैसे मेघ जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार बाणों की बौछार से कर्ण उस अस्त्र को नष्ट करके बड़ी शोभा पाने लगा। रणभूमि में किरीटधारी अर्जुन के उस अस्त्र को कर्ण द्वारा नष्ट हुआ देख अमर्षशील बलवान भीमसेन पुनः क्रोध से जल उठे और सत्य प्रतिज्ञ अर्जुन से इस प्रकार बोले,
भीमसेन बोले ;- सव्यसचिन! सब लोग कहते हैं कि तुम परम उत्तम एवं मन के द्वारा प्रयोग करने योग्य महान ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो; इसलिये तुम दूसरे किसी श्रेष्ठ अस्त्र का प्रयोग करो। उनके ऐसा कहने पर सव्यसाची अर्जुन ने दूसरे दिव्यास्त्र का प्रयोग किया। इससे महातेजस्वी अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष से छुटे हुए सर्पों के समान भयंकर और सूर्य-किरणों के तुल्य तेजस्वी बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया, कोना-कोना ढक दिया।
भरतश्रेष्ठ अर्जुन के छोड़े हुए प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि किरणों के समान प्रकाशित होने वाले दस हजार बाणों ने क्षणभर में कर्ण के रथ को आच्छादित कर दिया। उस दिव्यास्त्र से शूल, फरसे, चक्र और सैकड़ों नाराच आदि घोरतर अस्त्र-शस्त्र प्रकट होने लगे, जिनसे सब ओर के योद्धाओं का विनाश होने लगा। उस युद्धस्थल में किसी शत्रुपक्षीय योद्धा का सिर धड़ से कटकर धरती पर गिर पड़ा। उसे देखकर दूसरा भी भय के मारे धराशायी हो गया। उसको गिरा हुआ देख तीसरा योद्धा वहाँ से भाग खड़ा हुआ। किसी दूसरे योद्धा की हाथी की सूँड़ के समान मोटी दाहिनी बाँह तलवार सहित कटकर गिर पड़ी। दूसरे की बायीं भुजा क्षुरों द्वारा कवच के साथ कटकर भूमि पर गिर गयी। इस प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने शत्रुपक्ष के सभी मुख्य-मुख्य योद्धाओं का संहार कर डाला। उन्होंने शरीर का अन्त कर देने वाले घोर बाणों द्वारा दुर्योधन की सारी सेना का विध्वंस कर दिया। इसी प्रकार वैकर्तन कर्ण ने भी समरांगण में सहस्रों बाण समूहों की वर्षा की।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 61-75 का हिन्दी अनुवाद)
वे बाण मेघों की बरसायी हुई जलधाराओं के समान शब्द करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन को जा लगे। तत्पश्चात अप्रतिम प्रभावशाली और भयंकर बलवान कर्ण ने तीन तीन बाणों से श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन को घायल करके बड़े जोर से भयानक गर्जना की। कर्ण के बाणों से घायल हुए किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन भीमसेन तथा भगवान श्रीकृष्ण को भी उसी प्रकार क्षत-विक्षत देखकर सहन न कर सके; अतः उन्होंने अपने तरकस से पुनः अठारह बाण निकाले। एक बाण से कर्ण की ध्वजा को बींधकर अर्जुन ने चार बाणों से शल्य को और तीन बाणों से कर्ण को घायल कर दिया।। तत्पश्चात उन्होंने दस बाण छोड़कर सुवर्णमय कवच धारण करने वाले सभापति नामक राजकुमार को मार डाला। वह राजकुमार मस्तक, भुजा, घोडे़, सारथि, धनुष और ध्वज रहित हो मरकर रथ के अग्रभाग से नीचे गिर पड़ा, मानों फरसों से काटा गया शालवृक्ष टूटकर धराशायी हो गया हो। इसके बाद अर्जुन ने पुनः तीन, आठ, दो, चार, और दस बाणों द्वारा कर्ण को बारंबार घायल करके अस्त्र-शस्त्रधारी सवारों सहित चार सौ हाथियों को मारकर आठ सौ रथों को नष्ट कर दिया। तदनन्तर सवारों सहित हजारों घोड़ों और सहस्रों पैदल वीरों को मारकर रथ, सारथि और ध्वजसहित कर्ण को भी शीघ्रगामी बाणों द्वारा ढक्कर अदृश्य कर दिया।
अर्जुन की मार खाते हुए कौरव सैनिक चारों ओर से कर्ण को पुकारने लगे,- कर्ण! शीघ्र बाण छोड़ों और अर्जुन को घायल कर डालो। कहीं ऐसा न हो कि ये पहले ही समस्त कौरवों का वध कर डालें। इस प्रकार प्रेरणा मिलने पर कर्ण ने सारी शक्ति लगाकर बारंबार बहुत-से बाण छोड़े। रक्त और धूल में सने हुए वे मर्मभेदी बाण पाण्डव और पांचालों का विनाश करने लगे। वे दोनों सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ, महाबली, सारे शत्रुओं का सामना करने में समर्थ और अस्त्रविद्या के विद्वान थे; अतः भयंकर शत्रुसेना को तथा आपस में भी एक दूसरे को महान अस्त्रों द्वारा घायल करने लगे। तत्पश्चात शिविर में हितैषी वैद्य शिरोमणियों ने मन्त्र और औषधियों द्वारा राजा युधिष्ठिर के शरीर से बाण निकालकर उन्हें रोगरहित (स्वस्थ) कर दिया; इसलिये वे बड़ी उतावली के साथ सुवर्णमय कवच धारण करके वहाँ युद्ध देखने के लिये आये। धर्मराज को युद्धस्थल में आया हुआ देख समस्त प्राणी बड़ी प्रसन्नता के साथ अभिनन्दन करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे राहु के ग्रहण से छूटे हुए निर्मल एवं सम्पूर्ण चन्द्रमा को उदित देख सब लोग बडे़-प्रसन्न होते हैं। परस्पर जूझते हुए उन दोनों शत्रुनाशक एवं प्रधान शूरवीर कर्ण और अर्जुन को देखकर उन्हीं की ओर दृष्टि लगाये आकाश और भूतल में ठहरे हुए सभी दर्शक अपनी-अपनी जगह स्थिर भाव से खड़े रहे।
उस समय वहाँ अर्जुन और कर्ण उत्तम बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचा रहे थे। उनके धनुष, प्रत्यंचा और हथेली का संघर्ष बड़ा भयंकर होता जा रहा था और उससे उत्तमोत्तम बाण छूट रहे थे। इसी समय पाण्डुपुत्र अर्जुन के धनुष की डोरी अधिक खींची जाने के कारण सहसा भारी आवाज के साथ टूट गया। उस अवसर पर सूतपुत्र कर्ण ने पाण्डुकुमार अर्जुन को सौ बाण मारे। फिर तेल के धाये और पक्षियों के पंख लगाये गये, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान भयंकर साठ बाणों द्वारा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को भी क्षत-विक्षत कर दिया। इसके बाद पुनः अर्जुन को आठ बाण मारे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 76-89 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर सूर्य कुमार कर्ण ने दस हजार उत्तम बाणों द्वारा वायु पुत्र भीमसेन के मर्मस्थानों पर गहरा आघात किया। साथ ही, श्रीकृष्ण, अर्जुन और उनके रथ की ध्वजा को, उनके छोटे भाईयों को तथा सोमकों को भी उसने मार गिराने का प्रयत्न किया। जब जैसे मेघों के समूह आकाश में सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार सोमकों ने अपने बाणों द्वारा कर्ण को आच्छादित कर दिया; परंतु सूतपुत्र अस्त्रविद्या का महान पण्डित था, उसने अनेक बाणों द्वारा अपने ऊपर आक्रमण करते हुए सोमकों को जहाँ-के-तहाँ रोक दिया। राजन! उनके चलाये हुए सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का नाश करके सूतपुत्र ने उनके बहुत-से रथों, घोड़ों और हाथियों का भी संहार कर डाला और अपने बाणों द्वारा शत्रुपक्ष के प्रधान-प्रधान योद्धाओं को पीड़ा देना प्रारम्भ किया। उन सबके शरीर कर्ण के बाणों से विदीर्ण हो गये और वे आर्तनाद करते हुए प्राणशून्य हो पृथ्वी पर गिर पड़े। जैसे क्रोध में भरे हुए भयंकर बलशाली सिंह ने कुत्तों के महाबली समुदाय को मार गिराया हो, वही दशा सोमकों की हुई। पांचालों के प्रधान-प्रधान सैनिक तथा दूसरे योद्धा पुनः कर्ण और अर्जुन के बीच में आ पहुँचे; परंतु बलवान कर्ण ने अच्छी तरह छोड़े हुए बाणों द्वारा उन सबको हठपूर्वक मार गिराया। फिर तो आपके सैनिक कर्ण की बड़ी भारी विजय मानकर ताली पीटने और सिंहनाद करने लगे। उन सबने यह समझ लिया कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन कर्ण के वश में हो गये।
तब कर्ण के बाणों से जिनका अंग-अंग क्षत-विक्षत हो गया था, उन कुन्तीकुमार अर्जुन ने रणभूमि में अत्यन्त कुपित हो शीघ्र ही धनुष की प्रत्यंचा को झुकाकर चढ़ा दिया और कर्ण के चलाये हुए बाणों को छिन्न-भिन्न करके कौरवों को आगे बढ़ने से रोक दिया। तत्पश्चात किरीटधारी अर्जुन ने धनुष की प्रत्यंचा को हाथ से रगड़कर कर्ण के दस्ताने पर आघात किया और सहसा बाणों का जाल फैलाकर वहाँ अन्धकार कर दिया। फिर कर्ण, शल्य और समस्त कौरवों को अपने बाणों द्वारा बलपूर्वक घायल किया। अर्जुन के महान अस्त्रों द्वारा आकाश में घोर अंधकार फैल जाने से उस समय वहाँ पक्षी भी नहीं उड़ पाते थे। तब अन्तरिक्ष में खडे़ हुए प्राणि समूहों से प्रेरित होकर तत्काल वहाँ दिव्य सुगन्धित वायु चलने लगी। इसी समय कुन्तीकुमार अर्जुन ने हँसते-हँसते दस बाणों से शल्य को गहरी चोट पहुँचायी और उनके कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला। फिर अच्छी तरह छोड़े हुए बारह बाणों से कर्ण को घायल करके पुनः उसे सात बाणों से बींध डाला।
अर्जुन के धनुष वेगपूर्वक छूटे हुए भयंकर वेगशाली बाणों द्वारा गहरी चोट खाकर कर्ण के सारे अंग विदीर्ण हो गये। वह खून से नहा उठा और रौद्र मुहूर्त में श्मशान के भीतर क्रीड़ा करते हुए, बाणों से व्याप्त एवं रक्त से भीगे शरीर वाले रुद्र देव के समान प्रतीत होने लगा। तदनन्तर अधिरथपुत्र कर्ण देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन को तीन बाणों से बींध डाला और श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से उनके शरीर में प्रज्जवलित सर्पों के समान पाँच बाण घुसा दिये। अच्छी तरह से छोड़े हुए वे सुवर्णजटित वेगशाली बाण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के कवच को विदीर्ण करके बड़े वेग से धरती में समा गये और पाताल गंगा में नहाकर पुनः कर्ण की ओर जाने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 90-97 का हिन्दी अनुवाद)
वे बाण नहीं, तक्षकपुत्र अश्वसेन के पक्षपाती पाँच विशाल सर्प थे। अर्जुन ने सावधानी से छोड़े गये दस भल्लों द्वारा उनमें से प्रत्येक के तीन-तीन टुकडे़ कर डाले। अर्जुन के बाणों से मारे जाकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े। कर्ण के हाथों से छूटे हुए उन सभी बाणों द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीअंगों को घायल हुआ देख किरीटधारी अर्जुन सूखे काठ या घास-फूस के ढेर को जलाने वाली आग के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने कान तक खींचकर छोड़े गये शरीर नाशक प्रज्वलित बाणों द्वारा कर्ण के मर्मस्थानों में गहरी चोट पहुँचायी। कर्ण दुःख से विचलित हो उठा; परन्तु किसी तरह मन में धैर्य धारण करके दैवयोग से रणभूमि में डटा रहा।
राजन! तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने बाण समूहों का ऐसा जाल फैलाया कि दिशाएँ, विदिशाएँ, सूर्य की प्रभा और कर्ण का रथ सब कुछ कुहासे से ढके हुए आकाश की भाँति अदृश्य हो गया। नरेश्वर! कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुष अद्वितीय वीर शत्रुनाशक सव्यसाची अर्जुन ने कर्ण के चक्ररक्षक, पादरक्षक, अग्रगामी और पृष्ठरक्षक सभी कौरव दल के सारभूत प्रमुख वीरों को, जो दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार चलने वाले और युद्ध के लिये सदा उद्यत रहने वाले थे तथा जिनकी संख्या दो हजार थी, एक ही क्षण में रथ, घोड़ों और सारथियों सहित काल के गाल में भेज दिया। तदनन्तर जो मरने से बच गये थे, वे आपके पुत्र और कौरव सैनिक कर्ण को छोड़कर तथा मारे गये और बाणों से घायल हो सगे-सम्बन्धियों को पुकारने वाले अपने पुत्रों एवं पिताओं की भी उपेक्षा करके वहाँ से भाग गये। अर्जुन के बाणों से संतप्त और क्षत-विक्षत हो समस्त कौरव योद्धा जब वहाँ खडे़ हुए, तब दुर्योधन ने उनमें से श्रेष्ठ वीरों को पुनः कर्ण के रथ के पीछे जाने के लिये आज्ञा दी।
दुर्योधन बोला ;- क्षत्रियो! तुम सब लोग शूरवीर हो, क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहते हो। यहाँ कर्ण को छोड़कर उसके निकट से भाग जाना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है।
संजय कहते हैं ;- राजन! आपके पुत्र के इस प्रकार कहने पर भी वे योद्धा वहाँ खडे़ न हो सके। अर्जुन के बाणों से उन्हें बडी़ पीड़ा हो रही थी। भय से उनकी कांति फीकी पड़ गयी थी; इसलिये वे क्षणभर में दिशाओं और उनके कोनों में जाकर छिप गये। भारत! भय से भागे हुए कौरव योद्धाओं से परित्यक्त हो सम्पूर्ण दिशाओं को सूनी देखकर भी वहाँ कर्ण अपने मन में तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। उसने पूरे हर्ष और उत्साह के साथ ही अर्जुन पर धावा किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण और अर्जुन का द्वैरथ-युद्धविषयक नवासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
नब्बेवाँ अध्याय
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