सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 11th chapter to the 15th chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“शल्य का पराक्रम, कौरव-पाण्डव योद्धाओं के द्वन्द्वयुद्ध तथा भीमसेन के द्वारा शल्य की पराजय”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! उस महासमर में जब दोनों पक्षों की सेनाएँ परस्पर की मार खाकर भय से व्याकुल हो उठीं, दोनों दलों के योद्धा पलायन करने लगे, हाथी चिंग्घाड़ने तथा पैदल सैनिक कराहने और चिल्लाने लगे; बहुत-से घोडे़ मारे गये, सम्पूर्ण देहधारियों का घोर भयंकर एवं विनाशकारी संहार होने लगा, नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र परस्पर टकराने लगे, रथ और हाथी एक दूसरे से उलझ गये, युद्धकुशल योद्धाओं का हर्ष और कायरों का भय बढ़ाने वाला संग्राम होने लगा, एक दूसरे के वध की इच्छा से उभय पक्ष की सेनाओं में दोनों दलों के योद्धा प्रवेश करने लगे, प्राणों की बाजी लगाकर महाभयंकर युद्ध का जूआ आरम्भ हो गया तथा यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला घोर संग्राम चलने लगा, उस समय पाण्डव अपने तीखे बाणों से आपकी सेना का संहार करने लगे। इसी प्रकार आपके योद्धा भी पाण्डवसैनिकों के वध में प्रवृत्त हो गये।

     राजन! पूर्वाहृकाल प्राप्त होने पर सूर्योदय के समय जब कायरों का भय बढा़ने वाला वर्तमान युद्ध चल रहा था, उस समय महात्मा अर्जुन से सुरक्षित शत्रु योद्धा, जो लक्ष्य वेधने में कुशल थे, मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्त होने की सीमा नियत करके आपकी सेना के साथ जूझने लगे। पाण्डव योद्धा बलवान और प्रहारकुशल थे। उनका निशाना कभी ख़ाली नहीं जाता था। उनकी मार खाकर कौरव सेना दावानल से घिरी हुई हरिणी के समान अत्यन्त संतप्त हो उठी। कीचड़ में फँसी हुई दुर्बल गाय के समान कौरव सेना को बहुत कष्ट पाती देख उसका उद्धार करने की इच्छा से राजा शल्य ने उस समय पाण्डवों पर आक्रमण किया। मद्रराज शल्य ने अत्यन्त क्रोध में भरकर उत्तम धनुष हाथ में ले संग्राम में अपने वध के लिये उद्यत हुए पाण्डवों पर वेगपूर्वक धावा किया।

     भूपाल! समर में विजय से सुशोभित होने वाले पाण्डव भी मद्रराज शल्य के निकट जाकर उन्हें अपने पैने बाणों से बींधने लगे। तब महारथी मद्रराज धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते उनकी सेना को अपने-सैकड़ों तीखें बाणों से संतप्त करने लगे। उस समय नाना प्रकार के बहुत-से अशुभसूचक निमित्त प्रकट होने लगे। पर्वतोंसहित पृथ्वी महान शब्द करती हुई डोलने लगी। आकाश में बहुत-सी उल्काएँ सूर्यमण्डल से टकराकर पृथ्वी पर गिरने लगीं। उनके साथ दण्डयुक्त शूल भी गिर रहे थे। उन उल्काओं के अग्रभाग अपनी दीप्ति से चमक रहे थे। वे सब-की-सब चारों ओर बिखरी पड़ती थीं। प्रजानाथ! नरेश्वर! उस समय मृग, महिष और पक्षी आपकी सेना को बारंबार दाहिने करके जाने लगे।

     शुक्र और मंगल बुध से संयुक्त हो पाण्डवों के पृष्ठभाग में तथा अन्य सब नरेशों के सम्मुख उदित हुए थे। शस्त्रों के अग्रभाग में ज्वाला-सी प्रकट होती और नेत्रों मं चकाचौंध पैदा करके वह पृथ्वी पर गिर जाती थी। योद्धाओं- के मस्तकों और ध्वजाओं में कौए और उल्लू बारंबार छिपने लगे। नरेश्वर! तत्पश्चात एक साथ संगठित होकर जूझने वाले दोनों पक्षों केक वीरों का वह युद्ध बड़ा भयंकर हो गया। राजन! कौरव-योद्धाओं ने अपनी सारी सेनाओं को एकत्र करके पाण्डव सेना पर धावा बोल दिया। धर्मात्मा राजा शल्य ने वर्षा करने वाले इन्द्र की भाँति कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाबली शल्य ने भीमसेन, द्रौपदी के सभी पुत्र, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, धृष्टद्युम्न, सात्यकि और शिखण्डी इनमें से प्रत्येक को शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले दस दस बाणों से घायल कर दिया। तत्पश्चात वे वर्षा काल में जल बरसाने वाले इन्द्र के समान बाणों की वृष्टि करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 24-44 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन! तत्पश्चात सहस्रों प्रभद्रक और सोमक योद्धा शल्य के बाणों से घायल होकर गिरे और गिरते हुए दिखायी देने लगे। शल्य के बाण भ्रमरों के समूह, टिड्डियों के दल और मेघों की घटा से प्रकट होने वाली बिजलियाँ के समान पृथ्वी पर गिर रहे थे। शल्य के बाणों की मार खाकर पीड़ित हुए हाथी, घोडे़, रथी और पैदल सैनिक गिरने, चक्कर काटने और आर्तनाद करने लगे। प्रलयकाल में प्रकट हुए यमराज के समान मद्रराज शल्य क्रोध से आविष्ट हुए पुरुष की भाँति अपने पुरुषार्थ से युद्धस्थल में शत्रुओं को बाणों द्वारा आच्छादित करने लगे। महाबली मद्रराज मेघों की गर्जना के समान सिंहनाद कर रहे थे। उनके द्वारा मारी जाती हुई पाण्डव सेना भागकर अजाशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर के पास चली गयी। शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले शल्य ने युद्धस्थल में पैने बाणों द्वारा पाण्डवसेना का मर्दन करके बड़ी भारी बाणवर्षा के द्वारा युधिष्ठिर को भी गहरी चोट पहुँचायी।

    तब क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर पैदलों और घुड़सवारों के साथ आते हुए शल्य को अपने तीखें बाणों से उसी प्रकार रोक दिया, जैसे महावत अंकुशों की मार से विशालकाय हाथी को आगे बढ़ने से रोक देता है। उस समय शल्य ने युधिष्ठिर पर विषैले सर्प के समान एक भयंकर बाण का प्रहार किया। वह बाण बड़े वेग से महात्मा युधिष्ठिर को घायल करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देख भीमसेन कुपित हो उठे। उन्होंने सात बाणों से शल्य को बींध डाला। फिर सहदेव ने पाँच, नकुल ने दस और द्रौपदी के पुत्रों ने अनेक बाणों से शत्रुसूदन शूरवीर शल्य को घायल कर दिया। महाराज! जैसे मेघ पर्वत पर पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे शल्य पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। शल्य को कुन्ती के पुत्रों द्वारा सब ओर से अवरुद्ध हुआ देख कृतवर्मा और कृपाचार्य क्रोध में भरकर उनकी ओर दौडे़ आये। साथ ही महापराक्रमी उलूक, सुबलपुत्र शकुनि, महाबली अश्वत्थामा तथा आपके सम्पूर्ण पुत्र भी धीरे-धीरे वहाँ आकर रणभूमि में शल्य की रक्षा करने लगे।

      कृतवर्मा ने क्रोध में भरे हुए भीमसेन को तीन बाणों से घायल करके भारी बाण वर्षा के द्वारा आगे बढ़ने से रोक दिया। तत्पश्चात कुपित हुए कृपाचार्य ने धृष्टद्युम्न को अपनी बाण वर्षा द्वारा पीड़ित कर दिया। शकुनि ने द्रौपदी के पुत्रों पर और अश्वत्थामा ने नकुल-सहदेव पर धावा किया। योद्धओं मे श्रेष्ठ, भयंकर तेजस्वी और बलवान दुर्योधन ने समरांगण में श्रीकृष्ण और अर्जुन पर चढ़ाई की तथा बाणों द्वारा उन्हें गहरी चोट पहुँचायी। प्रजानाथ! इस प्रकार जहाँ-तहाँ आपके सैनिकों के शत्रुओं के साथ सैकड़ों भयानक एवं विचित्र द्वन्द्वयुद्ध होने लगे। कृतवर्मा ने युद्धस्थल में भीमसेन के रीछ के समान रंग वाले घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर पाण्डुनन्दन भीमसेन रथ की बैठक से नीचे उतरकर हाथ में गदा ले युद्ध करने लगे, मानो यमराज अपना दण्ड उठाकर प्रहार कर रहे हों। मद्रराज शल्य ने अपने सामने आये हुए सहदेव के घोड़ों को मार डाला। तब सहदेव ने भी शल्य के पुत्र को तलवार से मार गिराया। आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा अधिक क्रुद्ध न होकर हँसते हुए से दस दस बाणों द्वारा द्रौपदी के वीर पुत्रों मे से प्रत्येक को घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 45-63 का हिन्दी अनुवाद)

     (इसी बीच में भीमसेन दूसरे रथ पर आरूढ़ हो गये थे) कृतवर्मा ने युद्धस्थल में पुनः भीमसेन के घोड़ों को मार डाला। तब घोड़ों के मारे जाने पर महाबली पाण्डुकुमार भीमसेन शीघ्र ही रथ से उतर पड़े और कुपित होकर दण्ड उठाये काल के समान गदा लेकर उन्होंने कृतवर्मा के घोड़ों तथा रथ को चूर-चूर कर दिया। कृतवर्मा उस रथ से कूदकर भाग गया। राजन! इधर शल्य भी अत्यन्त क्रोध में भरकर सोमकों और पाण्डव योद्धाओं का संहार करने लगे। उन्होंने पुनः पैने बाणों द्वारा युधिष्ठिर को पीड़ा देना प्रारम्भ किया। यह देख पराक्रमी भीमसेन कुपित हो ओठ चबाते हुए रणभूमि में शल्य के विनाश का संकल्प लेकर यमदण्ड के समान भयंकर गदा लिये उन पर टूट पड़े। हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के भी शरीरों का विनाश करने वाली वह गदा संहार के लिये उद्यत हुई काल रात्रि के समान जान पड़ती थी। उनके ऊपर सोने का पत्र जड़ा गया था। वह लोहे की बनी हुई वज्रतुल्य गदा प्रज्वलित उल्का तथा छींके पर बैठी हुई सर्पिणी के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होती थी। अंगों में चन्दन और अगुरु का लेप लगाये हुए मनचाही प्रियतमा रमणी के समान उसके सर्वांग में वसा और मेद लिपटे हुए थे।

     वह देखने में यमराज की जिहृा के समान भयंकर थी। उसमें सैकड़ों घंटिया लगी थीं। जिनका कलरव गूँजता रहा था वह इन्द्र के वज्र की भाँति भयानक जान पड़ती थी। केंचुल से छूटे हुए विषधर सर्प के समान वह सम्पूर्ण प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करती थी और अपनी सेना का हर्ष बढ़ाती रहती थी। उसमें हाथी के मद लिपटे हुए थे पर्वत शिखरों को विदीर्ण करने वाली वह गदा मनुष्यलोक में सर्वत्र विख्यात है। यह वही गदा है, जिसके द्वारा महाबली भीमसेन ने कैलास शिखर पर भगवान शंकर सखा कुबेर को युद्ध के लिये ललकारा था तथा जिसके द्वारा क्रोध में भरे हुए महाबलवान कुन्तीकुमार भीम ने बहुतों के मना करने पर भी द्रौपदी का प्रिय करने के लिये उद्यत हो गर्जना करते हुए कुबेरभवन में रहने वाले बहुत-से मायामय अभिमानी गुह्यकों का वध किया था। जिसमें वज्र की गुरुता भरी है और जो हीरे, मणि तथा रत्न समूहों से जटित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करती है, उसी को हाथ में उठाकर महाबाहु भीमसेन रणभूमि में शल्य पर टूट पड़े।

     युद्धकुशल भीमसेन ने भयंकर शब्द करने वाली उस गदा के द्वारा शल्य के महान वेगशाली चारों घोड़ों को मार गिराया। तब रणभूमि में कुपित हो गर्जना करते हुए वीर शल्य ने भीमसेन के विशाल वक्षःस्थल में एक तोमर धँसा दिया। वह उनके कवच को छेदकर छाती में गड़ गया। उसी तोमर को निकालकर उसके द्वारा मद्रराज शल्य के सारथि की छाती छेद डाली। इससे सारथि का मर्मस्थल विदीर्ण हो गया और वह मुँह से रक्तवमन करता हुआ दीन एवं भयभीतचित्त होकर शल्य के सामने ही रथ से नीचे गिर पड़ा। फिर तो मद्रराज शल्य वहाँ से पीछे हट गये। अपने प्रहार का भरपूर उत्तर प्राप्त हुआ देख धर्मात्मा शल्य का चित्त आश्चर्य से चकित हो उठा। वे गदा हाथ में लेकर अपने शत्रु की ओर देखने लगे। संग्राम में अनायास ही महान कर्म करने वाले भीमसेन का वह घोर पराक्रम देखकर कुन्ती के सभी पुत्र प्रसन्नचित्त हो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में भीमसेन और शल्य का युद्धविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और शल्य का भयानक गदायुद्ध तथा युधिष्ठिर के साथ शल्य का युद्ध, दुर्योधन द्वारा चेकितान का और युधिष्ठिर द्वारा चन्द्रसेन एवं द्रुमसेन का वध, पुनः युधिष्ठिर और माद्रीपुत्रों के साथ शल्य का युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! अपने सारथि को गिरा हुआ देख मद्रराज शल्य वेगपूर्वक लोहे की गदा हाथ में लेकर पर्वत के समान अविचल भाव से खडे़ हो गये। वे प्रलयकाल की प्रज्वलित अग्नि, पाशधारी यमराज, शिखरयुक्त कैलास, वज्रधारी इन्द्र, त्रिशूलधारी रुद्र तथा जंगल के मतवाले हाथी के समान भयंकर जान पड़ते थे। भीमसेन बहुत बड़ी गदा हाथ में लेकर वेगपूर्वक उनके ऊपर टूट पड़े। फिर तो शंखनाद, सहस्रों वाद्यों का गम्भीर घोष तथा शूरवीरों का हर्ष बढ़ाने वाला सिंहनाद सब ओर होने लगा। योद्धाओं में महान गजराज के समान पराक्रमी उन दोनों वीरों को देखकर आपके और शत्रुपक्ष के योद्धा सब ओर से वाह-वाह कहकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करने लगे। संसार में मद्रराज शल्य अथवा यदुनन्दन बलराम जी के सिवा दूसरा कोई ऐसा योद्धा नहीं है, जो युद्ध में भीमसेन का वेग सह सके। इसी प्रकार महामना मद्रराज शल्य की गदा का वेग भी रणभूमि में भीमसेन के सिवा दूसरा कोई योद्धा नहीं सह सकता। शल्य और भीमसेन दोनों वीर हाथ में गदा लिये साँड़ों की तरह गर्जते हुए चक्कर लगाने और पैंतरे देने लगे। मण्डलाकार गति से घूमने में, भाँति-भाँति के पैंतरे दिखाने की कला में तथा गदा का प्रहार करने में उन दोनों पुरुषसिंह में कोई भी अंतर नहीं दिखायी देता था, दोनों एक-से जान पड़ते थे।

     तपाये हुए उज्ज्वल सुवर्णमय पत्रों से जड़ी हुई शल्य की वह भयंकर गदा आग की ज्वालाओं से लिपटी हुई-सी प्रतीत होती थी। इसी प्रकार मण्डलाकार गति से विचित्र पैंतरों के साथ विचरते हुए महामनस्वी भीमसेन की गदा बिजलीसहित मेघ के समान सुशोभित होती थी। राजन! मद्रराज ने अपनी गदा से जब भीमसेन की गदा पर चोट की, तब वह प्रज्वलित-सी हो उठी और उससे आग की लपटें निकलने लगीं। इसी प्रकार भीमसेन की गदा से ताड़ित होकर शल्य की गदा भी अंगारे बरसाने लगी। वह अद्भुत-सा दृश्य हुआ। जैसे दो विशाल हाथी दाँतों से और दो बड़े-बड़े़ साँड़ सींगों से एक दूसरे पर चोट करते हैं, उसी प्रकार अंकुशों जैसी उन श्रेष्ठ गदाओं द्वारा वे दोनों वीर एक दूसरे पर आघात करने लगे। उन दोनों के अंगों में गदा की गहरी चोटों से घाव हो गये थे। अतः दोनों ही क्षणभर में खून से नहा गये। उस समय खिले हुए दो पलाश वृक्षों के समान वे दोनों वीर देखने ही योग्य जान पड़ते थे। मद्रराज की गदा से दायें-बायें अच्छी तरह चोट खाकर भी महाबाहु भीमसेन विचलित नहीं हुए। वे पर्वत के समान अविचल भाव से खडे़ रहे। इसी प्रकार भीमसेन की गदा के वेग से बारंबार आहत होने पर भी शल्य को उसी प्रकार व्यर्था नहीं हुई, जैसे दन्तार हाथी के आघात से महान पर्वत पीड़ित नहीं होता।

     उस समय उन दोनों पुरुषसिंहों की गदाओं के टकराने की आवाज सम्पूर्ण दिशाओं में दो वज्रों के आघात के समान सुनायी देती थी। महापराक्रमी भीमसेन और शल्य दोनों वीर अपनी विशाल गदाओं को ऊपर उठाये कभी पीछे लौट पड़ते, कभी मध्यम मार्ग में स्थित होते और कभी मण्डलाकार घूमने लगते थे। वे युद्ध करते-करते आठ कदम आगे बढ़ आये और लोहे के डंडे उठाकर एक दूसरे को मारने लगे। उनका पराक्रम अलौकिक था। उन दोनों में उस समय भयानक संघर्ष होने लगा। वे दोनों युद्धकला के विद्वान, एक दूसरे को कुचलते हुए मण्डलाकार विचरते और अपना-अपना विशेष कार्य कौशल प्रदर्शित करते थे। तदनन्तर वे पुनः अपनी भयंकर गदाएँ उठाकर शिखरयुक्त दो पर्वतों के समान परस्पर आघात करने और मण्डलाकार गति से विचरने लगे। युद्धविषयक का विशेष के ज्ञात वे दोनों वीर अविचलभाव से रणभूमि में डटे हुए थे। वे एक दूसरे पर क्रोधपूर्वक गदाओं का प्रहार करके अत्यन्त घायल हो गये और दो इन्द्र-ध्वजों के समान एक ही साथ पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय दोनों सेनाओं के वीर हाहाकार करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 26-44 का हिन्दी अनुवाद)

       इधर गदाधारी भीमसेन पलक मारते-मारते पुनः होश में आकर उठ खडे़ हुए विहलता के कारण मतवाले पुरुष- के समान मद्रराज को युद्ध के लिये ललकारने लगे। तब आपके सैनिक नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर भाँति-भाँति के रणवाद्यों की गम्भीर ध्वनि के साथ पाण्डव सेना से युद्ध करने लगे। महाराज! दुर्योधन आदि कौरववीर दोनों हाथ और शस्त्र उठाकर महान कोलाहल एवं सिंहनाद करते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े। उस कौरव दल को धावा करते देख पाण्डव-वीर सिंह के समान गर्जना करके दुर्योधन आदि की ओर बढ़ चले। भरतश्रेष्ठ! आपके पुत्र ने तुरन्त ही एक प्रास का प्रहार करके उन आक्रमणकारी पाण्डव योद्धाओं में से चेकितान की छाती पर गहरी चोट पहुँचायी। आपके पुत्र द्वारा ताड़ित होकर चेकितान अत्यन्त मूर्च्छित हो रथ की बैठक में गिर पड़ा। उस समय उसका सारा शरीर खून से लथपथ हो गया था। चेकितान को मारा गया देख पाण्डव महारथी पृथक-पृथक बाणों की लगातार वर्षा करने लगे।

     महाराज! विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डव सेनाओं में सब ओर निर्भय विचरते थे। उस समय वे देखने ही योग्य थे। तत्पश्चात कृपाचार्य, कृतवर्मा और महारथी शकुनि मद्रराज शल्य को आगे करके धर्मराज युधिष्ठिर से युद्ध करने लगे। राजाधिराज! आपका पुत्र दुर्योधन अत्यन्त बल-पराक्रम से सम्पन्न द्रोणहन्ता धृष्टद्युम्न के साथ जूझने लगा। राजन! आपके पुत्र से प्रेरित हो तीन हजार योद्धा अश्वत्थामा को अगुआ बनाकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगे। नरेश्वर! जैसे हंस महान सरोवर में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार आपके सैनिक समरांगण में विजय का दृढ़ संकल्प ले प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं की सेना में जा घुसे। फिर तो एक दूसरे के वध की इच्छा वाले उभयपक्ष के सैनिकों में घोर युद्ध होने लगा। सभी एक दूसरे के संहार के लिये सचेष्ट थे और वह युद्ध उनकी पारस्परिक प्रसन्नता को बढ़ा रहा था।

       राजन! बड़े-बड़े़ वीरों का विनाश करने वाले उस घोर संग्राम के आरम्भ होते ही वायु की प्रेरणा से धरती की भयंकर धूल ऊपर उठने लगी। उस समय उस धूल के अन्धकार में समस्त योद्धा निर्भय-से होकर युद्ध कर रहे थे। पाण्डव तथा कौरव योद्धा जो अपना नाम लेकर परिचय देते थे, उसे ही सुनकर हम लोग एक दूसरे को पहचान पाते थे। पुरुषसिंह! उस समय इतना खून बहा कि उससे वहाँ छायी हुई धूल बैठ गयी। उस धूलजनित अन्धकार का नाश होने पर सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं। इस प्रकार घोर भयानक संग्राम चलने लगा। उस समय आपके और शत्रुपक्ष के योद्धाओं में से कोई भी युद्ध से विमुख नहीं हुआ। सबका लक्ष्य था ब्रह्मलोक की प्राप्ति। वे सभी सैनिक युद्ध में विजय चाहते और उत्तम युद्ध के द्वारा पराक्रम दिखाते हुए स्वर्गलोक पाने की अभिलाषा रखते थे। सभी योद्धा स्‍वामी के दिये हुए अन्न के ऋण के उऋण होने के लिये उनके कार्य को सिद्ध करने का दृढ़ निश्चय किये मन में स्वर्ग की अभिलाषा रखकर उस समय उत्साहपूर्वक युद्ध कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 45-63 का हिन्दी अनुवाद)

      नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके परस्पर प्रहार करने वाले महारथी एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जना करते थे। आपकी और पाण्डवों की सेना में मारो, बींध डालो, पकड़ों, प्रहार करो और टुकडे़-टुकडे़ कर डालो ये ही बातें सुनायी देती थीं। महाराज! तदनन्तर राजा शल्य ने महारथी धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को मार डालने की इच्छा से पैंने बाणों द्वारा बींध डाला। महाराज! मर्मज्ञ कुन्तीकुमार ने शल्य के मर्मस्थानों को लक्ष्य करके हँसते हुए से चौदह नाराच चलाये और उनके अंगों में धँसा दिये। महाबली शल्य पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को रोककर उन्हें मार डालने की इच्छा से समरांगण में कंकपत्रयुक्त अनेक बाणों द्वारा उन पर क्रोधपूर्वक प्रहार करने लगे।

     राजाधिराज! फिर उन्होंने सारी सेना के देखते-देखते झुकी हुई गाँठ वाले बाण से युधिष्ठिर को घायल कर दिया। तब महायशस्वी धर्मराज ने भी अत्यन्त कुपित हो कंक और मोर की पाँखों वाले पैने बाणों से मद्रराज शल्य को क्षत-विक्षत कर दिया। इसके बाद महारथी युधिष्ठिर ने सत्तर बाणों से चन्द्रसेन को, नव बाणों शल्य के सारथि को चौंसठ बाणों से द्रुमसेन को मार डाला। फिर सात्यकि को पच्चीस, भीमसेन को पाँच, तथा माद्री के पुत्रों को सौ तीखें बाणों से रणभूमि में घायल कर दिया। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार संग्राम में विचरते हुए राजा शल्य को लक्ष्य करके कुन्तीकुमार ने विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं तीखे बाण चलाये। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने समरांगण में सामने खडे़ हुए शल्य की ध्वजा के अग्रभाग को एक भल्ल के द्वारा रथ से काट गिराया।

     महात्मा पाण्डुपुत्र के द्वारा कटकर गिरते हुए उस ध्वज को हम लोगों ने वज्र के आघात से टूटकर नीचे गिरने वाले पर्वत-शिखर के समान देखा था। ध्वज नीचे गिर पड़ा और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर सामने खडे़ हैं; यह देखकर मद्रराज शल्य को बड़ा क्रोध हुआ और वे बाणों की वर्षा करने लगे। अमेय आत्मबल से सम्पन्न क्षत्रियशिरोमणि शल्य वृष्टिकारी मेघ के समान क्षत्रियों पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। सात्यकि, भीमसेन और माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल सहदेव- इनमें से प्रत्येक को पांच-पांच बाणों से घायल करके वे युधिष्ठिर को पीड़ा देने लगे। महाराज! तदनन्तर हम लोगों ने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की छाती पर बाणों का जाल-सा बिछा हुआ देखा, मानों आकाश में मेघों की घटा घिर आयी हो। रणभूमि में कुपित हुए महारथी शल्य ने झुकी हुई गांठ-वाले बाणों से युधिष्ठिर की सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं को ढक दिया। उस समय अद्भुत पराक्रमी राजा युधिष्ठिर उस बाण समूह से वैसे ही पीड़ित हो गये, जैसे इन्द्र ने जम्भासुर को संतप्त किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्धविषयक बारहवाॅ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“मद्रराज शल्य का अद्भुत पराक्रम”

   संजय कहते हैं ;- आर्य! जब मद्रराज शल्य धर्मराज युधिष्ठिर को पीड़ा देने लगे, तब सात्यकि, भीमसेन और माद्रीपुत्र पाण्डव नकुल-सहदेव ने युद्धस्थल में शल्य को रथों द्वारा घेरकर उन्हें पीड़ा देना प्रारम्भ किया। अकेले शल्य को अनेक महारथियों द्वारा पीड़ित होते देख उनको सब ओर से महान साधुवाद प्राप्त होने लगा। वहाँ एकत्र हुए सिद्ध और महर्षि भी हर्ष में भरकर बोल उठे,

    महर्षि बोले ;- आश्चर्य है। भीमसेन ने रणभूमि में अपने पराक्रम के लिये कष्टरूप शल्य को पहले एक बाण से घायल करके फिर सात बाणों से बींध डाला। सात्यकि भी धर्मपुत्र युधिष्ठिर की रक्षा के लिये मद्रराज को सौ बाणों से आच्छादित करके सिंह के समान दहाड़ने लगे। नकुल और सहदेव ने पांच-पांच बाणों से शल्य को घायल करके फिर सात बाणों से उन्हें तुरन्त ही बींध डाला।

     माननीय नरेश! समरांगण में शूरवीर शल्य ने उन महारथियों द्वारा पीड़ित होने पर भी विजय के लिये यत्नशील हो भार सहन करने में समर्थ और शत्रु के वेग का नाश करने वाले एक भयंकर धनुष को खींचकर सात्यकि को पच्चीस, भीमसेन को सत्तर और नकुल को सात बाण मारे। तत्पश्चात समरभूमि में एक भल्ल के द्वारा धनुर्धर सहदेव के बाण सहित धनुष को काटकर शल्य ने उन्हें इक्कीस बाणों से घायल कर दिया। तब सहदेव ने संग्राम में दूसरे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर अपने अत्यन्त तेजस्वी मामा को विषधर सर्पों के समान भयंकर और जलती हुई आग के समान प्रज्वलित पांच बाणों द्वारा घायल कर दिया। साथ ही अत्यन्त कुपित होकर उन्होंने झुकी हुई गांठ वाले बाण से उनके सारथि को भी पीट दिया और उन्हें भी पुनः तीन बाणों से घायल कर दिया। तत्पश्चात भीमसेन ने सत्तर, सात्यकि ने नौ और धर्मराज युधिष्ठिर ने साठ बाणों से शल्य के शरीर को चोट पहुँचायी। महाराज! उन महारथियों द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जाने पर राजा शल्य अपने अंगों से रक्त की धारा बहाने लगे, मानो पर्वत गेरू-मिश्रित जल का झरना बहा रहा हो। राजन! उन्होंने उन सभी महाधनुर्धरों को पांच-पांच बाणों से वेगपूर्वक घायल कर दिया। वह उनके द्वारा अद्भुत सा कार्य हुआ।

     मान्यवर! तदनन्तर उन श्रेष्ठ महारथी शल्य ने समरांगण में एक दूसरे भल्ल के द्वारा धर्मपुत्र युधिष्ठिर के प्रत्यंचा सहित धनुष को काट डाला। तब धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर, घोडे़, सारथि, ध्वज और रथसहित शल्य को अपने बाणों से आच्छादित कर दिया। समरांगण में धर्मपुत्र के बाणों से आच्छादित होते हुए शल्य ने युधिष्ठिर को दस पैने बाणों से बींध डाला। जब धर्मपुत्र युधिष्ठिर शल्य के बाणों से पीड़ित हो गये, तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि ने शूरवीर मद्रराज पर पांच बाणों का प्रहार किया। यह देख शल्य ने एक क्षुरप्र से सात्यकि के विशाल धनुष को काट दिया और भीमसेन आदि को भी तीन-तीन बाणों से चोट पहुँचायी। महाराज! तब सत्यपराक्रमी सात्यकि ने कुपित हो शल्य पर सुवर्णमय दण्ड से विभूषित एक बहुमूल्य तोमर का प्रहार किया। भीमसेन ने प्रज्वलित सर्प के समान नाराच चलाया, नकुल ने संग्रामभूमि में शल्य पर शक्ति छोड़ी, सहदेव ने सुन्दर गदा चलायी और धर्मराज युधिष्ठिर ने रणक्षेत्र में शल्य को मार डालने की इच्छा से उन पर शतघ्नी का प्रहार किया। परंतु मद्रराज शल्य ने समरांगण में अपने शस्त्रसमूहों द्वारा उन पाँचों वीरों के हाथों से छूटे हुए उक्त सभी अस्त्रों का शीघ्र ही निवारण कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 24-48 का हिन्दी अनुवाद)

      सिद्धहस्त एवं प्रतापी वीर शल्य ने अपने भल्लों द्वारा सात्यकि के चलाये हुए तोमर के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले और भीमसेन के छोडे़ हुए सुवर्णभूषित बाण के दो खण्ड कर डाले। इसी प्रकार उन्होंने नकुल की चलायी हुई स्वर्ण-दण्ड विभूषित भयंकर शक्ति का तथा सहदेव की फेंकी हुई गदा का भी अपने बाणसमूहों द्वारा निवारण कर दिया। भारत! फिर शल्य दो बाणों से राजा युधिष्ठिर की उस शतघ्नी को भी पाण्डवों के देखते-देखते काट डाला और सिंह के समान दहाड़ना आरम्भ किया। युद्ध में शत्रु की इस विजय को शिनिपौत्र सात्यकि नहीं सहन कर सके। उन्होंने दूसरा धनुष हाथ में लेकर क्रोध से आतुर हो दो बाणों से मद्रराज को घायल करके तीन से उनके सारथि को भी बींध डाला। राजन! तब राजा शल्य रणभूमि में अत्यन्त कुपित हो उठे और जैसे महावत अंकुशों से बड़े-बड़े़ हाथियों को चोट पहुँचाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने उन सब योद्धाओं को दस बाणों से घायल कर दिया। समरांगण में मद्रराज शल्य के द्वारा इस प्रकार रोके जाते हुए शत्रुसुदन पाण्डव-महारथी उनके सामने ठहर न सके। उस समय राजा दुर्योधन शल्य का वह पराक्रम देखकर ऐसा समझने लगा कि अब पाण्डव, पांचाल और सृंजय अवश्य मार डाले जायँगे।

      राजन! तदनन्तर प्रतापी महाबाहु भीमसेन मन से प्राणों का मोह छोड़कर मद्रराज शल्य के साथ युद्ध करने लगे। नकुल, सहदेव और महारथी सात्यकि ने भी उस समय शल्य को घेरकर उनके ऊपर चारों ओर से बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। इन चार महाधनुर्धर पाण्डव पक्ष के महारथियों से घिरे हुए प्रतापी मद्रराज शल्य उन सबके साथ युद्ध कर रहे थे। राजन! उस महासमर में धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने एक क्षुरप्र द्वारा मद्रराज शल्य के चक्ररक्षक को शीघ्र ही मार डाला। अपने महारथी शूरवीर चक्ररक्षक के मारे जाने पर बलवान मद्रराज भी बाणों द्वारा शत्रुपक्ष के समस्त योद्धाओं को आच्छादित कर दिया। राजन! समरांगण में अपने समस्त सैनिकों को बाणों से ढका हुआ देख धर्मपुत्र युधिष्ठिर मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे। इस युद्धस्थल में भगवान श्रीकृष्ण की कही हुई वह महत्त्वपूर्ण बात कैसे सिद्ध हो सकेगी? कहीं ऐसा न हो कि रणभूमि में कुपित हुए महाराज शल्य मेरी सारी सेना का संहार कर डालें। मैं, मेरे भाई, महारथी सात्यकि तथा पांचाल और सृंजय योद्धा सब मिलकर भी मद्रराज शल्य को पराजित करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। जान पड़ता है ये महाबली मामा आज हम लोगों का वध कर डालेंगे। फिर भगवान श्रीकृष्ण की यह बात (कि शल्य मेरे हाथ से मारे जायँगे) कैसे सिद्ध होगी?

      पाण्डु के बड़े भाई महाराज धृतराष्ट्र! तदनन्तर रथ, हाथी और घोड़ों सहित समस्त पाण्डवयोद्धा मद्रराज शल्य को सब ओर से पीड़ा देते हुए उन पर चढ़ आये। जैसे वायु बड़े-बड़े़ बादलों को उड़ा देती है, उसी प्रकार समरांगण में राजा शल्य ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से परिपूर्ण उस उमड़ी हुई शस्त्रवर्षा को छिन्न-भिन्न कर डाला। तत्पश्चात शल्य के चलाये हुए सुनहरे पंख वाले बाणों की वर्षा आकाश में टिड्डीदलों के समान छा गयी, जिसे हमने अपनी आँखों देखा था। युद्ध के मुहाने पर मद्रराज के चलाये हुए वे बाण शलभ-समूहों के समान गिरते दिखायी देते थे। नरेश्वर! मद्रराज शल्य के धनुष से छुटे उन सुवर्णभूषित बाणों से आकाश ठसाठस भर गया था। उस महायुद्ध में बाणों द्वारा महान अन्धकार छा गया, जिससे वहाँ हमारी और पाण्डवों की कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती थी।

     बलवान मद्रराज के द्वारा शीघ्रतापूर्वक की जाने वाले उस बाण वर्षा से पाण्डवों के उस सैन्‍यसमुद्र को विचलित होते देख देवता, गन्धर्व और दानव अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये। मान्यवर! विजय के लिये प्रयत्न करने वाले उन समस्त योद्धाओं को सब ओर से बाणों द्वारा आच्छादित करके शल्य धर्मराज युधिष्ठिर को भी ढक्कर बारंबार सिंह के समान गर्जना करने लगे। समरांगण में उनके बाणों से आच्छादित हुए पाण्डवों के महारथी उस युद्ध में महारथी शल्य की ओर आगे बढ़ने में समर्थ न हो सके। तो भी धर्मराज को आगे रखकर भीमसेन आदि रथी संग्राम में शोभा पाने वाले शूरवीर शल्य को वहाँ छोडकर पीछे न हटे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में शल्य का युद्धविषयक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

चौदहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और अश्वत्‍थामा का युद्ध तथा पांचाल वीर सुरथ का वध”


     संजय कहते हैं ;- महाराज! दूसरी ओर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा उसके पीछे चलने वाले त्रिगर्तदेशीय शूरवीर महारथियों ने अर्जुन को लोहे के बने हुए बहुत से बाणों द्वारा घायल कर दिया। तब अर्जुन ने समरभूमि में तीन बाणों से अश्वत्थामा को और दो-दो बाणों से अन्य महाधनुर्धरों को बींध डाला। महाराज! भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात अर्जुन ने पुनः उन सब को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित कर दिया। अर्जुन के पैंने बाणों की मार खाकर उन बाणों से कण्टकयुक्त होकर भी आपके अर्जुन को छोड़ न सके। समरांगण में द्रोणपुत्र को आगे करके कौरव महारथी अर्जुन को रथसमूह से घेरकर उनके साथ युद्ध करने लगे। राजन! उनके चलाये हुए सुवर्णभूषित बाणों से अर्जुन के रथ की बैठक को अनायास ही भर दिया। सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ तथा महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्पूर्ण अंगों को बाणों से व्यथित हुआ देख रणदुर्भद कौरव योद्धा बड़े प्रसन्न हुए। प्रभो! अर्जुन के रथ के पहिये, कूबर, ईषादण्ड, लगाम यो जोते, जूआ और अनुकर्ष- ये सब-के-सब उस समय बाणभय हो रहे थे। राजन! वहाँ आपके योद्धाओं ने अर्जुन की जैसी अवस्था कर दी थी, वैसी पहले कभी न तो देखी गयी और न सुनी ही गयी थी। विचित्र पंखवाले पैंने बाणों द्वारा सब ओर से व्याप्त हुआ अर्जुन का रथ भूतल पर सैकड़ों मसालों से प्रकाशित होने वाले विमान के समान शोभा पाता था।
     महाराज! तदनन्तर अर्जुन ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा आपकी उस सेना को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे मेघ पानी वर्षा से पर्वत को आच्छादित कर देता है। समरभूमि में अर्जुन के नाम से अंकित बाणों की चोट खाते हुए कौरव सैनिक उन्हें उसी रूप में देखते हुए सब कुछ अर्जुनमय ही मानने लगे। अर्जुनरूपी महान अग्नि क्रोध से प्रज्वलित हुई बाणमयी ज्वालाएं फैलाकर धनुष की टंकार रूपी वायु से प्रेरित आपके सैन्यरूपी ईधन को शीघ्रतापूर्वक जलाना आरम्भ किया। भारत! महाभाग! अर्जुन के रथ के भागों में धरती पर गिरते हुए रथ के पहियों, जूओं, तरकसों, पताकाओं, ध्वजों, रथों, हरसों, अनुकर्षो, त्रिवेणु नाम काष्ठों, धुरों, रस्सियों, चाबुकों, कुण्डल और पगड़ी धारण करने वाले मस्तकों, भुजाओं, कंधों, छत्रों, व्यजनों और मुकुटों के ढेर-के-ढेर दिखायी देने लगे। प्रजानाथ! कुपित हुए अर्जुन के रथ के मार्ग की भूमि पर मांस और रक्त की कीच जम जाने के कारण वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया। भरतश्रेष्ठ! वह रणभूमि रुद्रदेव के क्रीड़ास्थल (श्मशान) की भाँति कायरों के मन में भय उत्पन्न करने वाली और शूरवीरों का हर्ष बढ़ाने वाली थी। शत्रुओं को संताप देनेवाले पार्थ समरांगण में आवरणसहित दो सहस्र रथों का संहार करके धूमरहित प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। राजन! जैसे चराचर जगत को दग्ध करके भगवान अग्नि देव धूमरहित देखे जाते हैं, उसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन भी देदीप्यमान हो रहे थे।
      संग्रामभूमि में पाण्डुपुत्र अर्जुन का वह पराक्रम देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने अत्यन्त ऊँची पताका वाले रथ के द्वारा आकर उन्हें रोका। वे दोनों ही मनुष्यों में व्याघ्र के समान पराक्रमी थे और दोनों ही धनुर्धरों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। उस समय परस्पर वध की इच्छा से दोनों ही एक दूसरे के साथ भिड़ गये। महाराज! भरतश्रेष्ठ! जैसे वर्षा ऋतु में दो मेघखण्ड पानी बरसा रहे हों, उसी प्रकार उन दोनों के बाणों की वहाँ अत्यन्त भयंकर वर्षा होने लगी। जैसे दो सांड परस्पर सींगों से प्रहार करते हैं, उसी प्रकार आपस में लाग-डाँट रखने वाले वे दोनों वीर झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा एक-दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। महाराज! बहुत देर तक तो उन दोनों का युद्ध एक-सा चलता रहा। फिर उनमें वहाँ अस्त्र-शस्त्रों का घोर संघर्ष आरम्भ हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 26-48 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! तब अश्वत्थामा ने अत्यन्त तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले बारह बाणों से अर्जुन को और दस सायकों से श्रीकृष्ण को भी घायल कर दिया। तदनन्तर उस महासमर में दो घड़ी तक गुरुपुत्र का आदर करके अर्जुन ने बड़े हर्ष और उत्साह के साथ गाण्डीव धनुष को खींचना आरम्भ किया।
       शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची ने अश्वत्थामा के घोडे़, सारथि एवं रथ को चौपट कर दिया। फिर वे हल्के हाथों से बाण चलाकर बारंबार उसे घायल करने लगे। जिसके घोडे़ मार डाले गये थे, उसी रथ पर खडे़ हुए द्रोणपुत्र ने पाण्डुकुमार अर्जुन पर लोहे का एक मूसल चलाया, जो परिघ के समान प्रतीत होता था। शत्रुओं का संहार करने वाले वीर अर्जुन ने सहसा अपनी ओर आते हुए उस सुवर्णपत्रविभूषित मूसल के सात टुकडे़ कर डाले। अपने मूसल को कटा हुआ देख अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने पर्वत शिखरों के समान एक भयंकर परिघ हाथ में ले लिया। युद्ध विशारद द्रोणपुत्र ने वह परिघ अर्जुन पर दे मारा। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उस परिघ को देखकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने तुरन्त ही पांच उत्तम बाणों द्वारा उसे काट गिराया। भारत! उस महासमर में पार्थ के बाणों से कटकर वह परिघ राजाओं के हृदयों को विदीर्ण करता हुआ-सा पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात पाण्डुकुमार अर्जुन ने दूसरे भल्लों से द्रोणपुत्र को घायल कर दिया। महामनस्वी बलवान वीर अर्जुन के द्वारा अत्यन्त घायल होकर भी अश्वत्थामा अपने पुरुषार्थ का आश्रय ले तनिक भी कम्पित नहीं हुआ।
      राजन! तब भारद्वाज नन्दन अश्वत्थामा ने सम्पूर्ण क्षत्रियों के देखते-देखते महारथी सुरथ को अपने बाणसमूहों से आच्छादित कर दिया। तब युद्धस्थल में पांचाल महारथी सुरथ ने भी मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा अश्वत्थामा पर ही धावा किया। सब प्रकार के भारों को सहन करने में समर्थ, सुदृढ़ एवं उत्तम धनुष को खींचकर सुरथ ने अग्नि और विषैले सर्पों के समान भयंकर बाणों की वर्षा करके अश्वत्थामा को ढक दिया। महारथी सुरथ को क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख अश्वत्थामा समर में डंडे की चोट खाये हुए सर्प के समान भयंकर बाणों की वर्षा करके अश्वत्थामा को ढक दिया। महारथी सुरथ को क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख अश्वत्थामा समर में डंडे की चोट खाये हुए सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा। वह भौहों को तीन जगह से टेढ़ी करके अपने गल्फरों को चाटने लगा और सुरथ की और रोषपूर्वक देखकर धनुष की प्रत्यंचा को साफ करके उसने यमदण्ड के समान तेजस्वी तीखे नाराच का प्रहार किया। जैसे इन्द्र का छोड़ा हुआ अत्यन्त वेगशाली वज्र पृथ्वी फाड़कर उसके भीतर घुस जाता है, उसी प्रकार वह नाराच वेगपूर्वक सुरथ की छाती छेदकर उसके भीतर समा गया। नाराच से घायल हुए सुरथ वज्र से विदीर्ण हुए पर्वत के शिखर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस वीर के मारे जाने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तुरन्त ही उसी रथ पर आरूढ़ हो गया।
      महाराज! फिर युद्धसज्जा से सुसज्जित हो रणभूमि में संशप्तकों से घिरा हुआ रणदुर्भद द्रोणकुमार अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। वहाँ दोपहर होते-होते अर्जुन का शत्रुओं के साथ महाघोर युद्ध होने लगा, जो यमराज के राष्ट्र की वृद्धि करने वाला था।। उस सयम उन कौरव पक्षीय वीरों का पराक्रम देखकर हमने एक और आश्चर्य की बात यह देखी कि अर्जुन अकेले ही एक ही समय उन सभी वीरों के साथ युद्ध कर रहे हैं। जैसे पूर्वकाल में विशाल दैत्य सेना के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ था, उसी प्रकार एकमात्र अर्जुन का बहुसंख्यक विपक्षियों के साथ महान संग्राम होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में सकुलयुद्धविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

पंद्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन और धृष्टद्युम्न का एवं अर्जुन और अश्वत्थामा का तथा शल्य के साथ नकुल और सात्यकि आदि का घोर संग्राम”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! एक ओर दुर्योधन तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न महान युद्ध कर रहे थे। वह युद्ध बाणों और शक्तियों के प्रहार से व्याप्त हो रहा था। राजाधिराज! जैसे वर्षाकाल में सब ओर मेघों की जल धाराएँ बरसती हैं, उसी प्रकार उन दोनों की ओर से बाणों की सहस्रों धाराएँ गिर रही थीं। राजा दुर्योधन पांच शीघ्रगामी बाणों द्वारा भयंकर बाण वाले द्रोणहन्ता धृष्टद्युम्न को बींधकर पुनः सात बाणों द्वारा उन्‍हें घायल कर दिया। तब सुदृढ़ पराक्रमी बलवान धृष्टद्युम्न ने संग्राम भूमि में सत्तर बाण मारकर दुर्योधन को पीड़ित कर दिया।
       भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन को पीड़ित हुआ देख उसके सारे भाईयों ने विशाल सेना के साथ आकर धृष्टद्युम्न को घेर लिया। राजन! उन अतिरथी वीरों द्वारा सब ओर से घिरे हुए धृष्टद्युम्न अपनी अस्त्र संचालन की फुर्ती दिखाये हुए समरभूमि में विचरने लगे। दूसरी ओर शिखण्डी ने प्रभद्रकों की सेना साथ लेकर कृतवर्मा और महारथी कृपाचार्य- इन दोनों धनुर्धरों से युद्ध छेड़ दिया। प्रजानाथ! वहाँ भी जीवन का मोह छोड़कर प्राणों की बाजी लगाकर खेले जाने वाले युद्धरूपी जूए में लगे हुए समस्त सैनिकों में घोर संग्राम हो रहा था।
      इधर शल्य सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में सात्यकि और भीमसेन सहित पाण्डवों को पीड़ा देने लगे। राजेन्द्र! वे युद्ध में यमराज के तुल्य पराक्रमी नकुल और सहदेव के साथ भी अपने पराक्रम और अस्त्रबल से युद्ध कर रहे थे। जब शल्य अपने बाणों से पाण्डव महारथियों को आहत कर रहे थे, उस समय महासमर में उन्हें कोई अपना रक्षक नहीं मिलता था। जब धर्मराज युधिष्ठिर शल्य की मार ये अत्यन्त पीड़ित हो गये, तब माता को आनंदित करने वाले शूरवीर नकुल ने बड़े वेग से अपने मामा पर आक्रमण किया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले नकुल ने समरांगण में शल्य को शरसमूहों द्वारा आच्छादित करके मुस्कराते हुए उनकी छाती में बाण मारे। वे बाण सब-के-सब लोहे के बने हुए थे। कारीगर ने उन्हें अच्छी तरह माँज-धोकर स्वच्छ बनाया था। उनमें सोने के पंख लगे थे और उन्हें सान पर चढ़ाकर तेज किया गया था। वे दसों बाण धनुषरूपी यन्त्र पर रखकर चलाये गये थे। अपने महामनस्वी भानजे के द्वारा पीड़ित हुए शल्य ने झुकी हुई गाँठवाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा नकुल को गहरी चोट पहुँचायी।
     तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, सात्यकि और माद्रीकुमार सहदेव ने एक साथ मद्रराज शल्य पर आक्रमण किया। वे अपने रथ की घर्घराहट से सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं को गुँजाते हुए पृथ्वी को कम्पित कर रहे थे। सहसा आक्रमण करने वाले उन वीरों को शत्रुविजयी सेनापति शल्य ने समरभूमि में आगे बढ़ने से रोक दिया। माननीय नरेश! मद्रराज शल्य ने युद्धस्थल में युधिष्ठिर को तीन, भीमसेन को पांच, सात्यकि को सौ और सहदेव को तीन बाणों से घायल करके महामनस्वी नकुल के बाणसहित धनुष को क्षुरप्र से काट डाला। शल्य के बाणों से कटा हुआ वह धनुष टूक-टूक होकर बिखर गया। इसके बाद माद्रीपुत्र महारथी नकुल ने तुरन्त ही दूसरा धनुष हाथ में लेकर मद्रराज के रथ को बाणों से भर दिया। आर्य! साथ ही युधिष्ठिर और सहदेव ने दस-दस बाणों से उनकी छाती छेद डाली। फिर भीमसेन ने साठ और सात्यकि ने कंकपत्रयुक्त दस बाणों से मद्रराज पर वेगपूर्वक प्रहार किया।
      तब कुपित हुए मद्रराज शल्य ने सात्यकि को झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणों से घायल करके फिर सत्तर बाणों द्वारा क्षत-विक्षत कर दिया। मान्यवर! इसके बाद शल्य ने उनके बाण सहित धनुष मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और संग्राम में उनके चारों घोड़ों को भी मौत के घर भेज दिया। सात्यकि को रथहीन करके महारथी मद्रराज शल्य ने सौ बाणों द्वारा उन्हें सब ओर से घायल कर दिया। कुरुनन्दन! इतना ही नहीं, उन्होंने क्रोध में भरे हुए माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, पाण्डुपुत्र भीमसेन तथा युधिष्ठिर को भी दस बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 28-43 का हिन्दी अनुवाद)

     उस महान संग्राम में हम लोगों ने मद्रराज शल्य का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि समस्त पाण्डव एक साथ होकर भी इन्हें युद्ध में पराजित न कर सके। तत्पश्चात सत्यपराक्रमी सात्यकि ने दूसरे रथ पर आरूढ़ होकर पाण्डवों को पीड़ित तथा मद्रराज के अधीन हुआ देख बड़े वेग से बलपूर्वक उन पर धावा किया। युद्ध में शोभा पाने वाले शल्य उनके रथ को अपनी ओर आते देख स्वयं भी रथ के द्वारा ही उनकी ओर बढे़। ठीक उसी तरह, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदमत्त हाथी का सामना करने के लिये जाता है। शूरवीर सात्यकि और मद्रराज शल्य इन दोनों का वह संग्राम बड़ा भयंकर अद्भुत दिखायी देता था। वह वैसा ही था, जैसा कि पूर्वकाल में शम्बासुर और देवराज इन्द्र का युद्ध हुआ था। सात्यकि ने समरांगण में खड़े हुए मद्रराज को देखकर उन्हें दस बाणों से बींध डाला और कहा-खडे़ रहो, खडे़ रहो। महामनस्वी सात्यकि के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए मद्रराज ने विचित्र पंखवाले पैंने बाणों से सात्यकि को भी घायल करके बदला चुकाया।
        तब महाधर्नुधर पृथापुत्रों ने सात्यकि के साथ उलझे हुए मामा मद्रराज शल्य के वध की इच्छा से रथों द्वारा उन पर आक्रमण किया। फिर तो वहाँ घोर संग्राम छिड़ गय। सिंहों के समान गर्जते और जूझते हुए शूरवीरों का खून पानी की तरह बहाया जाने लगा। महाराज! जैसे मांस के लोभ से सिंह गर्जते हुए आपस में लड़ते हों, उसी प्रकार उस युद्धस्थल में उन समस्त योद्धाओं का एक-दूसरे के प्रति भयंकर प्रहार हो रहा था। उस समय उनके सहस्रों बाणसमूहों से रणभूमि आच्छादित हो गयी आकाश भी सहसा बाणमय प्रतीत होने लगा। उन महामनस्वी वीरों के छोडे़ हुए बाणों से सहसा चारों ओर अन्धकार छा गया। मेघों की छाया-सी प्रकट हो गयी। राजन! केचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान वहाँ छूटे हुए सुवर्णमय पंखवलो चमकीले बाणों से उस समय सम्पूर्ण दिशाएँ प्रकाशित हो उठी थीं। उस रणभूमि में शत्रुसूदन शूरवीर शल्य ने यह बड़ा अद्भुत पराक्रम किया कि अकेले ही वे उन बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध करते रहे। मद्रराज की भुजाओं से छूटकर गिरने वाले कंक और मोर की पाँखों से युक्त भयानक बाणों द्वारा वहाँ की सारी पृथ्वी ढक गयी थी। राजन! जैसे पूर्वकाल में असुरों का विनाश करते समय इन्द्र का रथ आगे बढ़ता था, उसी प्रकार उस महासमर में हम लोगों ने राजा शल्य के रथ को विचरते देखा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्धविषयक पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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