सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के लिये अपशकुन, भीमसेन का उत्साह तथा भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध के पश्चात् गदायुद्ध का आरम्भ”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भीमसेन और दुर्योधन में भयंकर वाग्युद्ध होने लगा। इस प्रसंग को सुनकर राजा धृतराष्ट्र बहुत दुखी हुए और संजय से इस प्रकार बोले,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘निष्पाप संजय! जिसका परिणाम ऐसा दुःखह होता है, उस मानव-जन्म को धिक्कार है! मेरा पुत्र एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं का स्वामी था। उसने सब राजाओं पर हुक्म चलाया और सारी पृथ्वी का अकेले उपभोग किया; किंतु अन्त में उसकी यह दशा हुई कि गदा हाथ में लेकर उसे वेगपूर्वक पैदल ही युद्ध में जाना पड़ा। ‘जो मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत का नाथ था, वही अनाथ की भाँति गदा हाथ में लेकर युद्धस्थल में पैदल जा रहा था। इसे भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है? ‘संजय! हाय! मेरे पुत्र ने बड़ा भारी दुःख उठाया।’ ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र दुःख से पीड़ित हो चुप हो रहे।
संजय ने कहा ;- महाराज! उस समय रणभूमि में मेघ के समान गम्भीर गर्जना करने वाले पराक्रमी दुर्योधन ने हर्ष में भरकर जोर-जोर से शब्द करने वाले सांड़ की भाँति सिंहनाद करके कुन्तीपुत्र भीमसेन को युद्ध के लिये ललकारा। महामनस्वी कुरुराज दुर्योधन जब भीमसेन का आहवान करने लगा, उस समय नाना प्रकार के भयंकर अपशकुन प्रकट हुए। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी, सब ओर धूलि की वर्षा होने लगी, सम्पूर्ण दिशाएं अन्धकार से आच्छन्न हो गयीं, आकाश से महान शब्द तथा वज्र की सी गड़गड़ाहट के साथ रोंगटे खड़े कर देने वाली सैकड़ों भयंकर उल्काएं भूतल को विदीर्ण करती हुई गिरने लगी। प्रजानाथ! अमावास्या के बिना ही राहु ने सूर्य को ग्रस लिया, वन और वृक्षों सहित सारी पृथ्वी जोर-जोर से कांपने लगी। नीचे धूल और कंकड़ की वर्षा करती हुई रूखी हवा चलने लगी। पर्वतों के शिखर टूट-टूट कर पृथ्वी पर गिरने लगे। नाना प्रकार की आकृति वाले मृग दसों दिशाओं में दौड़ लगाने लगे। अत्यन्त भयंकर एवं घोर रूप धारण करने वाली सियारिनें जिनका मुख अग्नि से प्रज्वलित हो रहा था, अमंगल सूचक बोली बोल रही थीं। राजेन्द्र! अत्यन्त भयंकर और रोमान्चकारी शब्द प्रकट हो रहे थे, दिशाएं मानो जल रही थीं और मृग किसी भावी अमंगल की सूचना दे रहे थे। नरेश्वर? कुओं के जल सब ओर से अपने आप बढ़ने लगे और बिना शरीर के ही जोर-जोर से गर्जनाएं सुनायी दे रही थीं।
इस प्रकार बहुत से अपशकुन देखकर भीमसेन अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर से बोले।
भीमसेन बोले ;- ‘भैया! यह मन्दबुद्धि दुर्योधन रणभूमि में मुझे किसी प्रकार परास्त नहीं कर सकता। आज मैं अपने हृदय में चिरकाल से छिपाये हुए क्रोध को कौरवराज दुर्योधन पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्नि को छोड़ा था। पाण्डुनन्दन! आज आपके हृदय का काँटा मैं निकाल दूँगा। मैं अपनी गदा से इस कुरुकुलधम पापी को मारकर आज आपको कीर्तिमयी माला पहनाऊँगा। युद्ध के मुहाने पर गदा के आघात से इस पापी का वध करके आज इसी गदा से इसके शरीर के सौ-सौ टुकड़े कर डालूंगा। ‘अब फिर कभी यह हस्तिनापुर में प्रवेश नहीं करेगा। भरतश्रेष्ठ! इसने जो मेरी शय्या पर सांप छोड़ा था, भोजन में विष दिया था, प्रमाणकोटि के जल में मुझे गिराया था, लाक्षागृह में जलाने की चेष्टा की थी, भरी सभा में मेरा उपहास किया था, सर्वस्व हर लिया था तथा बारह वर्षो तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास के लिये विवश किया था; इसके द्वारा प्राप्त हुए मैं इन सभी दुःखों का अन्त कर डालूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)
‘आज एक दिन में इसका वध करके मैं अपने आप से उऋण हो जाऊंगा। भरतभूषण! आज दुर्बुद्धि एवं अजितात्मा धृतराष्ट्र पुत्र की आयु समाप्त हो गयी है। इसे माता-पिता के दर्शन का अवसर भी अब नहीं मिलने वाला है। ‘राजेन्द्र! महाराज! आज खोटी बुद्धि वाले कुरुराज दुर्योधन का सारा सुख समाप्त हो गया। अब इसके लिये पुनः अपनी स्त्रियों को देखना और उनसे मिलना असम्भव है। ‘कुरुराज शान्तनु के कुल का यह जीता-जागता कलंक आज अपने प्राण, लक्ष्मी तथा राज्य को छोड़ कर सदा के लिये पृथ्वी पर सो जायगा। ‘आज राजा धृतराष्ट्र अपने इस पुत्र को मारा गया सुन कर अपने उन अशुभ कर्मों को याद करेंगे, जिन्हें उन्होंने शकुनि की सलाह के अनुसार किया था’।
नृपश्रेष्ठ! ऐसा कहकर पराक्रमी भीमसेन हाथ में गदा ले युद्ध के लिये खड़े हो गये और जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को ललकारा था, उसी प्रकार वे दुर्योधन का आह्वान करने लगे। शिखरयुक्त कैलास पर्वत के समान गदा उठाये दुर्योधन को खड़ा देख भीमसेन पुनः कुपित हो उससे इस प्रकार बोले,
भीमसेन बोले ;- ‘दुर्योधन! वारणावत नगर में जो कुछ हुआ था, राजा धृतराष्ट्र के और अपने भी उस कुकर्म को तू याद कर ले। ‘तूने भरी सभा में जो रजस्वा द्रौपदी को अपमानित करके उसे क्लेश पहुँचाया था, सुबल पुत्र शकुनि के द्वारा जूए में जो राजा युधिष्ठिर को ठग लिया था, तुम्हारे कारण हम सब लोगों ने जो वन में महान दुःख उठाया था और विराट नगर में जो हमें दूसरी योनि में गये हुए प्राणियों के समान रहना पड़ा था; इन सब कष्टों के कारण मेरे मन में जो क्रोध संचित है, वह सब का सब आज तुझ पर डाल दूंगा। दुर्मते! सौभाग्य से आज तू मुझे दीख गया है। ‘तेरे ही कारण रथियों में श्रेष्ठ प्रतापी गंगानन्दन भीष्म द्रुपदकुमार शिखण्डी के हाथ से मारे जाकर बाण शय्या पर सो रहे हैं। ‘द्रोणाचार्य, कर्ण और प्रतापी शल्य मारे गये तथा इस वैर की आग को प्रज्वलित करने में जिसका सबसे पहला हाथ था, वह सुबल पुत्र शकुनि भी मार डाला गया। ‘द्रौपदी को क्लेश देने वाला पापात्मा प्रातिकामी भी मारा गया। साथ ही जो पराक्रमपूर्वक युद्ध करने वाले थे, वे तेरे सभी शूरवीर भाई भी मारे जा चुके हैं। ‘ये तथा और भी बहुत से नरेश तेरे लिये युद्ध में मारे गये हैं। आज तुझे भी गदा से मार गिराऊंगा, इसमें संशय नहीं है’।
राजेन्द्र! इस प्रकार उच्च स्वर से बोलने वाले भीमसेन से आपके सत्यपराक्रमी पुत्र ने निर्भय होकर कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘वृकोदर! बहुत बढ़-बढ़ कर बातें बनाने से क्या लाभ? तू मेरे साथ संग्राम कर ले। कुलाधम! आज मैं तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूंगा। ‘ओ नीच! तेरे-जैसा कोई भी मनुष्य अन्य प्राकृत पुरुष के समान दुर्योधन को वाणी द्वारा नहीं डरा सकता। ‘सौभाग्य की बात है कि मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो तेरे साथ गदायुद्ध करने की अभिलाषा भी, उसे देवताओं ने पूर्ण कर दिया। ‘दुर्बुद्धे! वाणी द्वारा बहुत शेखी बघारने से क्या होगा? तू जो कुछ कहता है, उसे शीघ्र ही कार्य रूप में परिणत कर’। दुर्योधन की यह बात सुनकर वहाँ आये हुए समस्त राजाओं तथा सोमकों ने उसकी बड़ी सराहना की।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 43-46 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर सबसे सम्मानित हो कुरुनन्दन दुर्योधन ने युद्ध के लिये धीर बुद्धि का आश्रय लिया। उस समय उसके शरीर में रोमान्च हो आया था। इसके बाद जैसे लोग ताली बजाकर मतवाले हाथी को कुपित कर देते हैं, उसी प्रकार राजाओं ने ताली पीट कर अमर्षशील दुर्योधन को पुनः हर्ष और उत्साह से भर दिया। महामनस्वी पाण्डु पुत्र भीमसेन ने गदा उठाकर आपके महामना पुत्र दुर्योधन पर बड़े वेग से आक्रमण किया। उस समय हाथी बारंबार चिग्घाड़ने और घोड़े हिनहिनाने लगे। साथ ही विजयाभिलाषी पाण्डवों के अस्त्र-शस्त्र चमक उठे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में गदायुद्ध का आरम्भ विषयक छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन और दुर्योधन का गदा युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर उदार हृदय दुर्योधन ने भीमसेन को इस प्रकार आक्रमण करते देख स्वयं भी गर्जना करते हुए बड़े वेग से आगे बढ़ कर उनका सामना किया। वे दोनों बड़े-बड़े सींग वाले दो सांड़ों के समान एक दूसरे से भिड़ गये। उनके प्रहारों की आवाज महान वज्रपात के समान भयंकर जान पड़ती थी। एक-दूसरे को जीतने की इच्छा रखने वाले उन दोनों में इन्द्र और प्रह्लाद के समान भयंकर एवं रोमान्चकारी युद्ध होने लगा। उनके सारे अंग खून से लथपथ हो गये थे। हाथ में गदा लिये वे दोनों महामना मनस्वी वीर फूले हुए दो पलाश वृक्षों के समान दिखायी देते थे। उस अत्यन्त भयंकर महायुद्ध के चालू होने पर गदाओं के आघात से आग की चिनगारियां छूटने लगी। वे आकाश में जुगनुओं के दल के समान जान पड़ती थी और उनसे वहाँ के आकाश की दर्शनीय शोभा हो रही थी। इस प्रकार चलते हुए उस अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध में लड़ते-लड़ते वे दोनों शत्रुदमन वीर बहुत थक गये। फिर उन दोनों ने दो घड़ी तक विश्राम किया। इसके बाद शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों योद्धा फिर विचित्र एवं सुन्दर गदाएं हाथ में लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। उन समान बलशाली महापराक्रमी नरश्रेष्ठ वीरों ने विश्राम करके पुनः हाथ में गदा ले ली और मैथुन की इच्छा वाली हथिनी के लिये लड़ने वाले दो बलवान एवं मदोन्मत्त गजराजों के समान पुनः युद्ध आरम्भ कर दिया है, यह देखकर देवता, गन्धर्व और मनुष्य सभी अत्यन्त आश्चर्य से चकित हो उठे।
दुर्योधन और भीमसेन को पुनः गदा उठाये देख उनमें से किसी एक की विजय के सम्बन्ध में समस्त प्राणियों के हृदय में संशय उत्पन्न हो गया। बलवानों में श्रेष्ठ उन दोनों भाइयों में जब पुनः भिड़न्त हुई तो दोनों ही दोनों के चूकने का अवसर देखते हुए पैंतरे बदलने लगे। राजन! उस समय युद्धस्थल में जब भीमसेन अपनी गदा घुमाने लगे, तब दर्शकों ने देखा, उनकी भारी गदा यमदण्ड के समान भयंकर है। वह इन्द्र के वज्र के समान ऊपर उठी हुई है और शत्रु को छिन्न-भिन्न कर डालने में समर्थ है। गदा घुमाते समय उसकी घोर एवं भयानक आवाज वहाँ दो घड़ी तक गूंजती रही। आपका पुत्र दुर्योधन अपने शत्रु पाण्डु कुमार भीमसेन को वह अनुपम वेगशालिनी गदा घुमाते देख आश्चर्य में पड़ गया। भरतनन्दन! वीर भीमसेन भाँति-भाँति के मार्गों और मण्डलों का प्रदर्शन करते हुए पुनः बड़ी शोभा पाने लगे।
वे दोनों परस्पर भिड़कर एक दूसरे से अपनी रक्षा के लिये प्रयत्नशील हो रोटी के टुकड़ों के लिये लड़ने वाले दो बिलावों के समान बारंबार आघात-प्रतिघात कर रहे थे। उस समय भीमसेन नाना प्रकार के मार्ग और विचित्र मण्डल दिखाने लगे। वे कभी शत्रु के सम्मुख आगे बढ़ते और कभी उसका सामना करते हुए ही पीछे हट आते थे। विचित्र अस्त्र-यन्त्रों और भाँति-भाँति के स्थानों का प्रदर्शन करते हुए वे दोनों शत्रु के प्रहारों से अपने को बचाते, विपक्षी के प्रहार को व्यर्थ कर देते और दायें-बायें दौड़ लगाते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
कभी वेग से एक-दूसरे के सामने जाते, कभी विरोधी को गिराने की चेष्टा करते, कभी स्थिर भाव से खड़े होते, कभी गिरे हुए शत्रु के उठने पर पुनः उसके साथ युद्ध करते, कभी विरोधी पर प्रहार करने के लिये चक्कर काटते, कभी शत्रु के बढ़ाव को रोक देते, कभी विपक्षी के प्रहार को विफल करने के लिये झुककर निकल जाते, कभी उछलते-कूदते, कभी निकट आकर गदा का प्रहार करते और कभी लौटकर पीछे की ओर किये हुए हाथ से शत्रु पर आघात करते थे। दोनों ही गदा युद्ध के विशेषज्ञ थे और इस प्रकार पैंतरे बदलते हुए एक दूसरे पर चोट करते थे।
कुरुकुल के वे दोनों श्रेष्ठ और बलवान वीर विपक्षी को चकमा देते हुए बारंबार युद्ध के खेल दिखाते तथा पैंतरे बदलते थे। समरागंण में सब ओर युद्ध की क्रीड़ा का प्रदर्शन करते हुए उन दोनों शत्रुदमन वीरों ने सहसा अपनी गदाओं द्वारा एक दूसरे पर प्रहार किया। महाराज! जैसे दो हाथी अपने दांतों से परस्पर प्रहार करके लहू-लुहान हो जाते हैं, उसी प्रकार वे दोनों एक दूसरे पर चोट करके खून से भीगकर शोभा पाने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! इस प्रकार दिन की समाप्ति के समय उन दोनों वीरों में वृत्रासुर और इन्द्र के समान क्रूरतापूर्ण एवं भयंकर युद्ध होने लगा। राजन! दोनों ही हाथ में गदा लेकर मण्डलाकार युद्ध स्थल में खड़े थे। उनमें से बलवान दुर्योधन दक्षिण मण्डल में खड़ा था और भीमसेन बायें मण्डल में।
महाराज! युद्ध के मुहाने पर वाममण्डल में विचरते हुए भीमसेन की पसली में दुर्योधन ने गदा मारी। भरतनन्दन! आपके पुत्र द्वारा आहत किये गये भीमसेन उस प्रहार को कुछ भी न गिनते हुए अपनी भारी गदा घुमाने लगे। राजेन्द्र! दर्शकों ने भीमसेन की उस भयंकर गदा को इन्द्र के वज्र और यमराज के दण्ड के समान उठी हुई देखा। शत्रुओं को संताप देने वाले आपके पुत्र दुर्योधन ने भीमसेन को गदा घुमाते देख अपनी भयंकर गदा उठाकर उनकी गदा पर दे मारी। भारत! अपके पुत्र की वायुतुल्य गदा के वेग से उस गदा के टकराने पर बड़े जोर का शब्द हुआ और दोनों गदाओं से आग की चिनगारियां छूटने लगी। नाना प्रकार के मार्गों और भिन्न-भिन्न मण्डलों से विचरते हुए तेजस्वी दुर्योधन की उस समय भीमसेन से अधिक शोभा हुई। भीमसेन के द्वारा सम्पूर्ण वेग से घुमायी गयी वह विशाल गदा उस समय भयंकर शब्द करती हुई धूम और ज्वालाओं सहित आग प्रकट करने लगी। भीमसेन के द्वारा घुमायी गयी उस गदा को देखकर दुर्योधन भी अपनी लोहमयी भारी गदा को घुमाता हुआ अधिक शोभा पाने लगा। उस महामनस्वी वीर की वायुतुल्य गदा के वेग को देख कर सोमकों सहित समस्त पाण्डवों के मन में भय समा गया। समरांगण में सब ओर युद्ध की क्रीड़ा का प्रदर्शन करते उन दोनों शत्रुदमन वीरों ने सहसा अपने गदाओं द्वारा एक-दूसरे पर प्रहार किया। महाराज! जैसे दो हाथी अपने दांतों से परस्पर प्रहार करके लहू-लुहान हो जाते है, उसी प्रकार वे दोनों एक दूसरे पर चोट करके खून से लथपथ हो अद्भुत शोभा पाने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 37-57 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार दिन की समाप्ति के समय, उन दोनों वीरों में प्रकट रूप में वृत्रासुर और इन्द्र के समान क्रूरतापूर्ण एवं भयंकर युद्ध होने लगा। तदनन्तर विचित्र मार्गों से विचरते हुए आपके महाबली पुत्र ने कुन्ती कुमार भीमसेन को खड़ा देख उन पर सहसा आक्रमण किया। यह देख क्रोध में भरे भीमसेन ने अत्यन्त कुपित हुए दुर्योधन की सुवर्णजटित उस महावेगशालिनी गदा पर ही अपनी गदा से आघात किया। महाराज! उन दोनों गदाओं के टकराने से भयंकर शब्द हुआ और आग की चिनगारियां छूटने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ा, मानो दोनों ओर से छोड़े गये दो वज्र परस्पर टकरा गये हो। राजेन्द्र! भीमसेन की छोड़ी हुई उस वेगवती गदा के गिरने से धरती डोलने लगी। जैसे क्रोध में भरा हुआ मतवाला हाथी अपने प्रतिद्वन्द्वी गजराज को देखकर सहन नहीं कर पाता, उसी प्रकार रणभूमि में अपनी गदा को प्रतिहत हुई देख कुरुवंशी दुर्योधन नही सह सका। तत्पश्चात राजा दुर्योधन ने अपने मन में दृढ़ निश्चय लेकर बाये मण्डल से चक्कर लगाते हुए अपनी भयंकर वेगशाली गदा से कुन्ती कुमार भीमसेन के मस्तक पर प्रहार किया। महाराज! आपके पुत्र के आघात से पीड़ित होने पर भी पाण्डु पुत्र भीमसेन विचलित नही हुए। वह अद्भुत सी बात हुई। राजन! गदा की चोट खाकर भी जो भीमसेन एक पग भी इधर-उधर नहीं हुए, वह महान आश्चर्य की बात थी, जिसकी सभी सैनिकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।
तदनन्तर भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने दुर्योधन पर अपनी सुवर्णजटित तेजस्विनी एवं बड़ी भारी गदा छोड़ी। परंतु महाबली दुर्योधन को उससे तनिक भी घबराहट नहीं हुई उसने फुर्ती से इधर-उधर होकर उस प्रहार को व्यर्थ कर दिया। यह देख वहाँ सब लोगों को महान आश्चर्य हुआ। राजन! भीमसेन की चलायी हुई वह गदा जब व्यर्थ होकर गिरने लगी, उस समय उसने वज्रपात के समान महान शब्द प्रकट करके पृथ्वी को हिला दिया। जब राज दुर्योधन ने देखा कि भीमसेन की गदा नीचे गिर गयी और उनका वार ख़ाली गया, तब क्रोध में भरे हुए महाबली कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन ने कौशिक मार्गों का आश्रय ले बार-बार उछलकर भीमसेन को धोखा देकर उनकी छाती में गदा मारी। उस महासमर में आपके पुत्र की गदा की चोट खाकर भीमसेन मूर्च्छित से हो गये और एक क्षण तक उन्हें अपने कर्त्तव्य का ज्ञान तक न रहा। राजन! जब भीमसेन की ऐसी अवस्था हो गयी, उस समय सोमक और पाण्डव बहुत ही खिन्न और उदास हो गये। उनकी विजय की आशा नष्ट हो गयी।
उस प्रहार से भीमसेन मतवाले हाथी की भाँति कुपित हो उठे और जैसे एक गजराज दूसरे गजराज पर धावा करता है, उसी प्रकार उन्होंने आपके पुत्र पर आक्रमण किया। जैसे सिंह जंगली हाथी पर झपटता है, उसी प्रकार भीमसेन गदा लेकर बड़े वेग से आपके पुत्र की ओर दौड़े। राजन! गदा का प्रहार करने में कुशल भीमसेन ने आपके पुत्र राजा दुर्योधन के निकट पहुँच कर गदा घुमायी और उसे मार डालने के उद्देश्य से उसकी पसली में आघात किया। राजन! उस प्रहार से व्याकुल हो आपका पुत्र पृथ्वी पर घुटने टेक कर बैठ गया। उस कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर दुर्योधन के घुटने टेक देने पर सृंजयों ने बड़े जोर से हर्षध्वनि की।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 58-72 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! उन सृंजयों का वह सिंहनाद सुनकर पुरुष प्रवर आपका महाबाहु पुत्र दुर्योधन अमर्ष से कुपित हो उठा और खड़ा होकर महान सर्प के समान फुंकार करने लगा। उसने दोनों आंखों से भीमसेन की ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें भस्म कर डालना चाहता हो। भरतवंश का वह श्रेष्ठ वीर हाथ में गदा लेकर युद्धस्थल में भीमसेन का मस्तक कुचल डालने के लिये उनकी ओर दौड़ा। पास पहुँच कर उस भयंकर पराक्रमी महामनस्वी वीर ने महामना भीमसेन के ललाट पर गदा से आघात किया, परंतु भीमसेन पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े रह गये, तनिक भी विचलित नहीं हुए। राजन! रणभूमि में उस गदा की चोट खाकर भीमसेन के मस्तक से रक्त की धारा बह चली और वे मद की धारा बहाने वाले गजराज के समान अधिक शोभा पाने लगे। तदनन्तर अर्जुन के बड़े भाई शत्रु सूदन भीमसेन ने बलपूर्वक पराक्रम प्रकट करके वज्र और अशनि के तुल्य महान शब्द करने वाली वीर विनाशिनी लोहमयी गदा हाथ में लेकर उसके द्वारा अपने शत्रु पर प्रहार किया। भीमसेन के उस प्रहार से आहत होकर आपके पुत्र के शरीर की नस-नस ढीली हो गयी और वह वायु के वेग से प्रताड़ित हो झोंके खाने वाले विकसित शाल वृक्ष की भाँति कांपता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा।
आपके पुत्र को पृथ्वी पर पड़ा देख पाण्डव हर्ष में भरकर सिंहनाद करने लगे। इतने ही में आपक पुत्र होश में आ गया और सरोवर से निकले हुए हाथी के समान उछल कर खड़ा हो गया। सदा अमर्ष में भरे रहने वाले महारथी राजा दुर्योधन ने एक शिक्षित योद्धा की भाँति विचरते हुए अपने सामने खड़े भीमसेन पर पुनः गदा का प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भीमसेन को सारा शरीर शिथिल हो गया और उन्होंने धरती थाम ली। भीमसेन को युद्ध स्थल में बलपूर्वक भूमि पर गिराकर कुरुराज दुर्योधन सिंह के समान दहाड़ने लगा। उसने सारी शक्ति लगाकर चलायी हुई गदा के आघात से भीमसेन के वज्रतुल्य कवच का भेदन कर दिया था। उस समय आकाश में हर्षध्वनि करने वाले देवताओं और अप्सराओं का महान कोलाहल गूंज उठा। साथ ही देवताओं द्वारा बहुत ऊंचे से की हुई विचित्र पुष्प समूहों की वहाँ अच्छी वर्षा होने लगी। राजन! तदनन्तर यह देखकर कि भीमसेन का सुदृढ़ कवच छिन्न-भिन्न हो गया, नरश्रेष्ठ भीम धराशायी हो गये और कुरुराज दुर्योधन का बल क्षीण नहीं हो रहा है, शत्रुओं के मन में बड़ा भारी भय समा गया। तत्पश्चात दो घड़ी में सचेत हो भीमसेन खून से भीगे हुए अपने मुंह को पोंछते हुए उठे और बलपूर्वक अपने को संभाल कर धैर्य का आश्रय ले आंख खोलकर देखते हुए पुनः युद्ध के लिये खड़े हो गये। उस समय यमराज के सदृश पराक्रमी नकुल और सहदेव, धृष्टद्युम्न तथा पराक्रमी शिनिपौत्र सात्यकि- ये सब के सब विजय के अभिलाषी हो ‘मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा’ ऐसा कहकर बड़ी उतावली के साथ आपके पुत्र को ललकारने और उस पर आक्रमण करने लगे। परंतु बलवान पाण्डु पुत्र भीम ने उन सब को रोककर स्वयं ही आपके पुत्र पर पुनः काल के समान आक्रमण किया और खेद एवं कम्प से रहित होकर वे रणभूमि में उसी प्रकार विचरने लगे, जैसे देवराज इन्द्र श्रेष्ठ दैत्य नमुचि पर आक्रमण करके युद्धस्थल में विचरण करते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में गदायुद्ध विषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
अट्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत तथा अर्जुन के संकेत के अनुसार भीमसेन का गदा से दुर्योधन की जांघें तोड़ कर उसे धराशायी करना एवं भीषण उत्पातों का प्रकट होना”
संजय कहते हैं ;- राजन! कुरुकुल के उन दोनों प्रमुख वीरों के उस संग्राम को उत्तरोत्तर बढ़ता देख अर्जुन ने यशस्वी भगवान श्रीकृष्ण से पूछा,
अर्जुन ने पूछा ;- ‘जनार्दन! आपकी राय में इन दोनों वीरों में से इस युद्धस्थल में कौन बड़ा है अथवा किसमें कौन सा गुण अधिक है? यह मुझे बताइये’।
भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- अर्जुन! इन दोनों को शिक्षा तो एक सी मिली है; परंतु भीमसेन बल में अधिक हैं और यह दुर्योधन उनकी अपेक्षा अभ्यास और प्रयत्न में बढ़ा-चढ़ा है। यदि भीमसेन धर्मपूर्वक युद्ध करते रहे तो कदापि नहीं जीतेंगे और अन्यायपूर्वक युद्ध करने पर निश्चय ही दुर्योधन का वध कर डालेंगे। हमने सुना है कि देवताओं ने पूर्वकाल में माया से ही असुरों पर विजय पायी थी और इन्द्र ने माया से ही विरोचन को परास्त किया था। बलसूदन इन्द्र ने माया से वृत्रासुर के तेज को नष्ट कर दिया था, इसलिये भीमसेन भी यहाँ मायामय पराक्रम का ही आश्रया लें। धनंजय! जूए के समय भीम ने प्रतिज्ञा करते हुए दुर्योधन से यह कहा था कि ‘मैं युद्ध में गदा मारकर तेरी दोनों जांघें तोड़ डालूंगा’। अतः शत्रु सूदन भीमसेन अपनी उस प्रतिज्ञा का पालन करें और मायावी राजा दुर्योधन को माया से ही नष्ट कर डालें। यदि ये बल का सहारा लेकर न्यायपूर्वक प्रहार करेंगे, तब राजा युधिष्ठिर पुनः बड़ी विषम परिस्थिति में पड़ जायंगे। पाण्डुनन्दन! मैं पुनः यह बात कहे देता हूं, तुम उसे ध्यान देकर सुनो। धर्मराज के अपराध से हम लोगों पर फिर भय आ पहुँचा है। महान प्रयास करके भीष्म आदि कौरवों को मारकर विजय एवं श्रेष्ठ यश की प्राप्ति की गयी और वैर का पूरा-पूरा बदला चुकाया गया था। इस प्रकार जो विजय प्राप्त हुई थी, उसे उन्होंने फिर संशय में डाल दिया है।
पाण्डुनन्दन! एक की ही हार-जीत से सबकी हार-जीत की शर्त लगाकर जो इन्होंने इस भयंकर युद्ध को जूए का दांव बना डाला, यह धर्मराज की बड़ी भारी नासमझी है। दुर्योधन युद्ध की कला जानता है, वीर है और एक निश्चय पर डटा हुआ है। इस विषय में शुक्राचार्य का कहा हुआ यह एक प्राचीन श्लोक सुनने में आता है, जो नीति शास्त्र के तात्त्विक अर्थ से भरा हुआ है, उसे सुना रहा हूं, मेरे कहने से वह शलोक सुनो। ‘मरने से बचे हुए शत्रुगण यदि युद्ध में जान बचाने की इच्छा से भाग गये हों और पुनः युद्ध के लिये लौटने लगे हों तो उनसे डरते रहना चाहिये; क्योंकि वे एक निश्चय पर पहुँचे हुए होते हैं (उस समय वे मृत्यु से भी नहीं डरते हैं )’। धनंजय! जो जीवन की आशा छोड़कर साहसपूर्वक युद्ध में कूद पड़े हों, उनके सामने इन्द्र भी नहीं ठहर सकते।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)
इस दुर्योधन की सेना मारी गयी थी। यह परास्त हो गया था और अब राज्य पाने से निराश हो वन में चला जाना चाहता था। इसीलिये भागकर पोखरे में छिपा था, ऐसे हताश शत्रु को कौन बुद्धिमान पुरुष समरांगण में द्वन्द्व युद्ध के लिये आमन्त्रित करेगा? कहीं ऐसा न हो कि हमारे जीते हुए राज्य को दुर्योधन फिर हड़प ले। उसने तेरह वर्षों तक गदा द्वारा युद्ध करने का निरन्तर श्रम एवं अभ्यास किया है। देखो, यह भीमसेन के वध की इच्छा से इधर-उधर और ऊपर की ओर विचर रहा है। यदि महाबाहु भीमसेन इसे अन्यायपूर्वक नहीं मारेंगे तो यह धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन ही आपका तथा समस्त कुरुकुल का राजा होगा।
महात्मा भगवान केशव का वचन सुनकर अर्जुन ने भीमसेन के देखते हुए अपनी बायीं जांघ को ठोंका। इससे संकेत पाकर भीमसेन रणभूमि में गदा द्वारा यमक तथा अन्य प्रकार के विचित्र मण्डल दिखाते हुए विचरने लगे। राजन! पाण्डुपुत्र भीमसेन आपके शत्रु को मोहित करते हुए-से दक्षिण, वाम और गो मूत्रक मण्डल से विचरने लगे। इसी प्रकार गदायुद्ध की प्रणाली का विशेषज्ञ आपका पुत्र भी भीमसेन के वध की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक विचित्र पैंतरे देता हुआ विचरने लगा। वैर का अन्त करने की इच्छा वाले वे दोनों वीर रणभूमि में चन्दन और अगुरु से चर्चित भयंकर गदाएं घुमाते हुए कुपित काल के समान प्रतीत होते थे। जैसे दो गरुड़ किसी सर्प के मांस को पाने की इच्छा से परस्पर लड़ रहे हों, उसी प्रकार एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वे दोनों पुरुषप्रवर प्रमुख वीर भीमसेन और दुर्योधन आपस में जूझ रहे थे।
विचित्र मण्डलों (पैंतरों) से विचरते हुए राजा दुर्योधन और भीमसेन की गदाओं के टकराने से वहाँ आग की लपटे प्रकट होने लगीं। राजन! जैसे वायु से विक्षुब्ध हुए दो समुद्र एक दूसरे से टकरा रहे हों अथवा दो मतवाले हाथी परस्पर चोट कर रहे हों, उसी प्रकार वहाँ एक दूसरे पर समान रूप से प्रहार करने वाले दोनों बलवान वीरों के परस्पर चोट करने पर गदाओं के टकराने की आवाज वज्र की कड़क के समान प्रकट होती थी। उस समय उस अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध में शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर परस्पर युद्ध करते हुए बहुत थक गये। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! तब दोनों दो घड़ी तक विश्राम करके पुनः विशाल गदाएं हाथ में लेकर क्रोधपूर्वक एक दूसरे पर प्रहार करने लगे।
राजेन्द्र! गदा की चोट से एक दूसरे को घायल करते हुए उन दोनों में खुले तौर पर घोर युद्ध हो रहा था। बैल के समान विशाल नेत्रों वाले वे दोनों वेगशाली वीर समरांगण में परस्पर धावा करके कीचड़ में खड़े हुए दो भैंसों के समान एक दूसरे पर चोट करते थे। उन दोनों के सारे अंग गदा के प्रहार से जर्जर हो गये थे और दोनों ही खून से लथपथ हो गये थे। उस दशा में वे हिमालय पर खिले हुए दो पलाश वृक्षों के समान दिखायी देते थे। जब अर्जुन ने छिद्र की ओर संकेत किया, तब कनखियों से उसे देखकर दुर्योधन सहसा भीमसेन की ओर बढ़ा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 36-56 का हिन्दी अनुवाद)
रणभूमि में उसे निकट आया देख बुद्धिमान एवं बलवान भीम ने उस पर बड़े वेग से गदा चलायी। प्रजानाथ! उन्हें गदा चलाते देख आपका पुत्र सहसा उस स्थान से हट गया और वह गदा व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुरुश्रेष्ठ! उस प्रहार से अपने को बचाकर आपके पुत्र ने भीमसेन पर बड़े वेग से गदा द्वारा आघात किया। उसकी चोट से अमित तेजस्वी भीम के शरीर से रक्त की धारा बह चली साथ ही उस प्रहार के गहरे आघात से अन्हें मूर्छा-सी आ गयी।
उस समय दुर्योधन यह न जान सका कि रणभूमि में पाण्डु पुत्र भीमसेन अधिक पीड़ित हो गये हैं। यद्यपि उनके शरीर में अत्यन्त वेदना हो रही थी तो भी भीमसेन उसे संभाले रहे। उसने यही समझा कि रणक्षेत्र में भीमसेन अब मुझ पर प्रहार करने के लिये खड़े हैं; अतः बचने की ही चेष्टा में संलग्न होकर आपके पुत्र ने पुनः उन पर प्रहार नहीं किया। राजन! तदनन्तर दो घड़ी सुस्ता कर प्रतापी भीमसेन ने निकट आये हुए दुर्योधन पर बड़े वेग से आक्रमण किया। भरतश्रेष्ठ! अमित तेजस्वी भीम को रोषपूर्वक धावा करते देख आपके पुत्र ने उनके उस प्रहार को व्यर्थ कर देने की इच्छा की। राजन! भीमसेन को छलने के लिये आपके महामनस्वी पुत्र ने पहले वहाँ स्थिरतापूर्वक खड़े रहने का विचार करके फिर उछल कर दूर हट जाने की इच्छा की। भीमसेन समझ गये कि राजा दुर्योधन क्या करना चाहता है। अतः पैंतरे से छलने और ऊपर उछलने की इच्छा वाले दुर्योधन के ऊपर आक्रमण करके भीमसेन ने सिंह के समान गर्जन की और उसकी जांघों पर बड़े वेग से गदा चलायी। भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन के द्वारा चलायी हुई वह गदा वज्रपात के समान गिरी और दुर्योधन की सुन्दर दिखायी देने वाली जांघों को उसने तोड़ दिया।
पृथ्वीनाथ! इस प्रकार जब भीमसेन ने उसकी जांघें तोड़ डालीं, तब आपका पुत्र पुरुषसिंह दुर्योधन पृथ्वी को प्रतिध्वनित करता हुआ गिर पड़ा। फिर तो समस्त भूपालों के स्वामी वीर राजा दुर्योधन के धराशायी होने पर वहाँ बिजली की गड़गड़ाहट के साथ प्रचण्ड हवा चलने लगी, धूलि की वर्षा होने लगी और वृक्षों, वनों एवं पर्वतों सहित सारी पृथ्वी कांपने लगी। पृथ्वीपति दुर्योधन के गिर जाने पर आकाश से पुनः महान शब्द और बिजली की कड़क के साथ प्रज्वलित, भयंकर एवं विशाल उल्का भूमि पर गिरी। भरतनन्दन! आपके पुत्र के धराशायी हो जाने पर इन्द्र ने वहाँ रक्त और धूलि की वर्षा की। भरतश्रेष्ठ! उस समय आकाश में यक्षों, राक्षसों तथा पिशाचों का महान कोलाहल सुनायी देने लगा। उस घोर शब्द के साथ बहुत से पशुओं और पक्षियों की भयानक आवाज भी सम्पूर्ण दिशाओं में गूंज उठी। वहाँ जो घोड़े, हाथी और मनुष्य शेष रह गये थे, वे सभी आपके पुत्र के मारे जाने पर महान कोलाहल करने लगे। राजन! जब आपका पुत्र मार गिराया गया, उस समय इस भूतल पर भेरी, शंखों और मृदंगों का गम्भीर घोष होने लगा। नरेश्वर! वहाँ सम्पूर्ण दिशाओं में नाचते हुए अनेक पैर और अनेक बांह वाले घोर एवं भयंकर कबन्ध व्याप्त हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 57-62 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! आपके पुत्र के धराशायी हो जाने पर वहाँ अस्त्र-शस्त्र और ध्वजा वाले सभी वीर कांपने लगे। नृपश्रेष्ठ! तालाबों और कूपों में रक्त का उफान आने लगा और महान वेगशालिनी नदियां उल्टी अपने उद्गम की ओर बहने लगीं। राजन! आपके पुत्र दुर्योधन के धराशायी होने पर स्त्रियों में पुरुषत्व और पुरुषों में स्त्रीत्व के सूचक लक्षण प्रकट होने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन अद्भुत उत्पातों को देखकर पाण्डवों सहित समस्त पाञ्चाल मन ही मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे। भारत! तदनन्तर देवता, गन्धर्व और अप्सराओं के समूह आपके दोनों पुत्रों के अद्भुत युद्ध की चर्चा करते हुए अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। राजेन्द्र! उसी प्रकार सिद्ध, वातिक (वायुचारी) और चारण उन दोनों पुरुष सिंहों की प्रशंसा करते हुए जैसे आये थे, वैसे चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में दुर्योधन का वध विषयक अटठावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन के द्वारा दुर्योधन का तिरस्कार एवं युधिष्ठिर का भीमसेन को समझाकर अन्याय से रोकना और दुर्योधन को सान्त्वना देते हुए खेद प्रकट करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! दुर्योधन को ऊंचे एवं विशाल शालवृक्ष के समान गिराया गया देख समस्त पाण्डव मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और निकट जाकर उसे देखने लगे। समस्त सोमकों ने भी सिंह के द्वारा गिराये गये मदमत गजराज के समान जब दुर्योधन को धराशायी हुआ देखा तो हर्ष से उनके अंगों में रोमांच हो आया। इस प्रकार दुर्योधन का वध करके प्रतापी भीमसेन उस गिराये गये कौरव राज के पास जाकर बोले,
भीमसेन ने कहा ;- खोटी बुद्धि वाले मूर्ख तूने पहले मुझे 'बैल, बैल' कहकर और एक वस्त्र धारिणी रजस्वला द्रौपदी को सभा में लाकर जो हम लोगों का उपहास किया था तथा हम सबके प्रति कटुवचन सुनाये थे उस उपहास का फल आज तू प्राप्त कर ले। ऐसा कहकर भीमसेन ने अपने बायें पैर से उसके मुकुट को ठुकराया और उस राजसिंह के मस्तक पर भी पैर से ठोकर मारा। नरेश्वर इसी प्रकार शत्रुसेना का संहार करने वाले भीमसेन ने क्रोध से लाल आंखें करके फिर जो बात कही उसे भी सुन लीजिये। जिन मूर्खों ने पहले हमें 'बैल-बैल' कहकर नृत्य किया था आज उन्हें 'बैल-बैल' कहकर उस अपमान का बदला लेते हुए हम भी प्रसन्नता से नाच रहे हैं। छल-कपट करना घर में आग लगाना जूआ खेलना अथवा ठगी करना हमारा काम नहीं है हम तो अपने बाहुबल का भरोसा करके शत्रुओं को संताप देते हैं।
इस प्रकार भारी वैर से पार होकर भीमसेन धीरे-धीरे हंसते हुए युधिष्ठिर श्रीकृष्ण सृंजयगण अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव से बोले,
भीमसेन ने कहा ;- जिन लोगों ने रजस्वला द्रौपदी को सभा में बुलाया जिन्होंने उसे भरी सभा में नंगी करने का प्रयत्न किया उन्हीं धृतराष्ट पुत्रों को द्रौपदी की तपस्या से पाण्डवों ने रणभूमि में मार गिराया यह सब लोग देख लो। राजा धृतराष्ट्र के जिन क्रूर पुत्रों ने पहले हमें थोथे तिलों के समान नपुंसक कहा था वे अपने सेवकों और संबंधियों सहित हमारे हाथ से मार डाले गए अब हम भले ही स्वर्ग में जायें या नरक में गिरें इसकी चिन्ता नहीं है। यों कहकर भीमसेन ने पृथ्वी पर पड़े हुए राजा दुर्योधन के कंधें से लगी हुई उसकी गदा ले ली और बायें पैर से उसका सिर कुचलकर उसे छलिया और कपटी कहा। राजन! क्षुद्र बुद्धि वाले भीमसेन हर्ष में भरकर जो कुरुश्रेष्ठ राजा दुर्योधन के मस्तक पर पैर रखा उनके इस कार्य को देखकर सोमकों मे जो श्रेष्ठ एवं धर्मात्मा पुरुष थे वे प्रसन्न नहीं हुए और न उन्होंने उनके इस कुकृत्ये का अभिनन्दन ही किया। आपके पुत्र को मारकर बहुत बढ़-बढ़कर बातें बनाते और बारंबार नाचते-कूदते हुए भीमसेन से धर्मराज युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- भीम! तुम वैर से उऋण हुए। तुमने शुभ या अशुभ कर्म से अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। अब तो इस कार्य से बिरत हो जाओ। तुम इसके मस्तक को पैर से न ठुकराओ। तुम्हारे द्वारा धर्म का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। अनघ! दुर्योधन राजा और हमारा भाई-बन्धु है। यह मार डाला गया। अब तुम्हें इसके साथ ऐसा बर्ताव करना उचित नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 17-31का हिन्दी अनुवाद)
'भीम! ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी तथा अपने ही बान्धव कुरुराज राजा दुर्योधन को पैर से न ठुकराओ। इसके भाई और मन्त्री मारे गये सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी और यह स्वयं भी युद्ध में मारा गया ऐसी दशा में राजा दुर्योधन सर्वथा शोक के योग्य है उपहास का पात्र नहीं है। इसका सर्वथा विध्वंस हो गया इसके मन्त्री भाई और पुत्र भी मार डाले गये। अब इसे पिण्ड देने वाला भी कोई नहीं रह गया है। इसके सिवा यह हमारा ही भाई है। तुमने इसके साथ यह न्यायोचित बर्ताव नहीं किया है। तुम्हारे विषय में लोग पहले कहा करते थे कि भीमसेन बड़े धर्मात्मा हैं। भीम! वही तुम आज राजा दुर्योधन को क्यों पैर से ठुकराते हो'।
भीमसेन से ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर दीनभाव से शत्रुदमन दुर्योधन के पास गये और अश्रुगद्गद कण्ठ से इस प्रकार बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- 'तात! तुम्हें खेद या क्रोध नहीं करना चाहिये। साथ ही अपने लिये शोक करना भी उचित नहीं है। निश्चय ही सब लोग अपने पहले के किये हुए अत्यन्त भयंकर कर्मों का ही परिणाम भोगते हैं। कुरुश्रेष्ठ! इस समय जो हम लोग तुम्हें और तुम हमें मार डालना चाहते थे, यह अवश्य ही विधाता का दिया हुआ हमारे ही अशुद्ध कर्मों का विषम फल है। भरतनन्दन! तुमने लोभ, मद और अविवेक के कारण अपने ही अपराध से ऐसा भारी संकट प्राप्त किया है। तुम अपने मित्रों, भाइयों, पितृतुल्य पुरुषों, पुत्रों और पौत्रों का वध कराकर फिर स्वयं भी मारे गये। तुम्हारे अपराध से ही हम लोगों ने तुम्हारे भाइयों को मार गिराया और कुटुम्बीजनों का वध किया है, मैं इसे देव का दुर्लंघ्य विधान ही मानता हुं।
अनघ! तुम्हें अपने लिये शोक नहीं करना चाहिये, तुम्हारी प्रसंनीय मृत्यु हो रही है। कुरुराज! अब तो सभी अवस्थाओं में इस समय हम लोग ही शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि उन प्रिय बन्धु-बान्धवों से रहित होकर हमें दीनतापूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। भला, मैं भाइयों और पुत्रों की उन शोकविहला और दुःख में डूबी हुई विधवा बहुओं को कैसे देख सकूंगा। राजन! तुम अकेले सुखी हो। निश्चय ही स्वर्ग में तुम्हें स्थान प्राप्त होगा और हमें यहाँ नरकतुल्य दारुण दुःख भोगना पड़ेगा। धृतराष्ट्र की वे शोकातुर एवं व्याकुल विधवा पुत्रवधुएं और पौत्रवधुएं भी निश्चय ही हम लोगों की निन्दा करेंगी।' राजन! ऐसा कहकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुख से आतुर हो लंबी सांस छोड़ते हुए बहुत देर तक विलाप करते रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व युधिष्ठिर का विलाप विषयक उनसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“क्रोध में भरे हुए बलराम को श्रीकृष्ण का समझाना और युधिष्ठिर के साथ श्रीकृष्ण की तथा भीमसेन की बातचीत”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- सूत! उस समय राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारा गया देख महाबली मधुकुलशिरोमणि बलदेव जी ने क्या कहा था? संजय! गदायुद्ध के विशेषज्ञ तथा उसकी कला में कुशल रोहिणीनन्दन बलराम जी ने वहाँ जो कुछ किया हो, वह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! भीमसेन द्वारा आपके पुत्र के मस्तक पर पैर का प्रहार हुआ देख योद्धाओं में श्रेष्ठ बलवान बलराम को बड़ा क्रोध हुआ। फिर वहाँ राजाओं की मण्डली में अपनी दोनों बांहें ऊपर उठाकर हलधर बलराम ने भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा- भीमसेन! तुम्हें धिक्कार है! धिक्कार है!! अहो! इस धर्मयुद्ध में नाभि से नीचे जो प्रहार किया गया है और जिसे भीमसेन ने स्वयं किया है, यह गदायुद्ध में कभी नहीं देखा गया। नाभि से नीचे आघात नहीं करना चाहिये। यह गदायुद्ध के विषय में शास्त्र का सिद्धान्त है। परंतु यह शास्त्र ज्ञान से शून्य मूर्ख भीमसेन यहाँ स्वेच्छाचार कर रहा है। ये सब बातें कहते हुए बलदेव जी का रोष बहुत बढ़ गया। फिर राजा दुर्योधन की ओर दृष्टिपात करके उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गयी। महाराज! फिर बलदेव जी ने कहा- 'श्रीकृष्ण! राजा दुर्योधन मेरे समान बलवान था। गदायुद्ध में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं था। यहाँ अन्याय करके केवल दुर्योधन नहीं गिराया गया है, (मेरा भी अपमान किया गया है) शरणागत की दुर्बलता के कारण शरण देने वाले का तिरस्कार किया जा रहा है। ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौडे़।
उस समय अपनी भुजाएं ऊपर उठाये हुए महात्मा बलराम जी का रूप अनेक धातुओं के कारण विचित्र शोभा पाने वाले महान श्वेतपर्वत के समान जान पड़ता था। महाराज! हलधर को आक्रमण करते देख अर्जुन सहित अस्त्रवेत्ता भाइयों के साथ खड़े हुए बलवान भीमसेन तनिक भी व्यथित नहीं हुए। उस समय विनयशील, बलवान श्रीकृष्ण ने आक्रमण करते हुए बलराम जी को अपनी मोटी एवं गोल-गोल भुजाओं द्वारा बड़े प्रयत्न से पकड़ा। राजेन्द्र! वे श्याम-गौर यदुकुलतिलक दोनों भाई परस्पर मिले हुए कैलास और कज्जल पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। राजन! संध्याकाल के आकाश में जैसे चन्द्रमा और सूर्य उदित हुए हों, वैसे ही उस रणक्षेत्र में वे दोनों भाई सुशोभित हो रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण ने रोष से भरे हुए बलराम जी को शान्त करते हुए से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- 'भैया! अपनी उन्नति छः प्रकार की होती है -अपनी बुद्धि, मित्र की वृद्धि और मित्र के मित्र की वृद्धि तथा शत्रु पक्ष में इसके विपरीत स्थिति अर्थात शत्रु की हानि, शत्रु के मित्र की हानि तथा शत्रु के मित्र के मित्र की हानि। अपनी और अपने मित्र की यदि इसके विपरीत परिस्थिति हो तो मन-ही-मन ग्लानि का अनुभव करना चाहिये और मित्रों की उस हानि के निवारक के लिये शीघ्र प्रयत्नशील होना चाहिये। शुद्ध पुरुषार्थ का आश्रय लेने वाले पाण्डव हमारे सहज मित्र हैं। बुआ के पुत्र होने के कारण सर्वथा अपने हैं। शत्रुओं ने इनके साथ बहुत छल-कपट किया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद)
'मैं समझता हूँ कि इस जगत में अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना क्षत्रिय के लिये धर्म ही है। पहले सभा में भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं महायुद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जांघें तोड़ डालूंगा। शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी! महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन को पहले से ही यह शाप दे रखा था कि भीमसेन अपनी गदा से तेरी दोनों जांघें तोड़ डालेंगें। अत लम्बहनता बलभद्र जी! मैं इसमें भीमसेन का कोई दोष नहीं देखता; इसलिये आप भी क्रोध न कीजिये। हमारा पाण्डवों के साथ यौन-संबंध तो है ही। परस्पर सुख देने वाले सौहार्द से भी हम लोग बंधे हुए हैं। पुरुष प्रवर! इन पाण्डवों की वृद्धि से हमारी भी वृद्धि है, अतः आप क्रोध न करें।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर धर्मज्ञ हलधर ने इस प्रकार कहा,
बलराम जी ने कहा ;- 'श्रीकृष्ण! श्रेष्ठ पुरुषों ने धर्म का अच्छी तरह आचरण किया है; किंतु वह अर्थ और काम- इन दो वस्तुओं से संकुचित हो जाता है। अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुँचाते हैं! जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से अर्थ और काम को हानि न पहुँचाकर धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथोचित रूप से सेवन करता है, वह अत्यन्त सुख का भागी होता है। गोविन्द! भीमसेन ने (अर्थ के लोभ से) धर्म को हानि पहुँचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। तुम मुझसे जिस प्रकार इस कार्य को धर्मसंगत बता रहे हो वह सब तुम्हारी मनमानी कल्पना है।'
श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'भैया! आप संसार में क्रोधरहित, धर्मात्मा और निरन्तर धर्म पर अनुग्रह रखने वाले सत्पुरुष के रूप में विख्यात हैं; अतः शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलियुग आ गया। पाण्डुपुत्र भीमसेन की प्रतिज्ञा पर भी ध्यान दीजिये। आज पाण्डुकुमार भी वैर और प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्त हो जायं। पुरुषसिंह भीम रणभूमि में कपटी दुर्योधन को मारकर चले गये। उन्होंने जो अपने शत्रु का वध किया है, इसमें कोई अधर्म नहीं है। इसी दुर्योधन ने कर्ण को आज्ञा दी थी, जिससे उसने कुरु और वृष्णि दोनों कुलों के सुयश की वृद्धि करने वाले, युद्धपरायण, वीर अभिमन्यु के धनुष को समरांगण में पीछे से आकर काट दिया था। इस प्रकार धनुष कट जाने और रथ से हीन हो जाने पर भी जो पुरुषार्थ में ही तत्पर था, रणभूमि में पीठ न दिखाने वाले उस सुभद्राकुमार अभिमन्यु को इसने निहत्था करके मार डाला था। यह दुरात्मा, दुर्बुद्धि एवं पापी दुर्योधन जन्म से ही लोभी तथा कुरुकुल का कलंक रहा है, जो भीमसेन के हाथ से मारा गया है। भीमसेन की प्रतिज्ञा तेरह वर्षों से चल रही थी और सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुकी थी। युद्ध करते समय दुर्योधन ने उसे याद क्यों नहीं रखा? यह वेग से ऊपर उछलकर भीमसेन को मार डालना चाहता था। उस अवस्था में भीम ने अपनी गदा से इसकी दोनों जांघें तोड़ डाली थीं। उस समय न तो यह किसी स्थान में था और न मण्डल में ही।'
संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! भगवान श्रीकृष्ण से यह छलरूप धर्म का विवेचन सुनकर बलदेव जी के मन को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने भरी सभा में कहा-
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 27-48 का हिन्दी अनुवाद)
बलराम जी ने कहा ;- धर्मात्मा राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारकर पाण्डुपुत्र भीमसेन इस संसार में कपटपर्ण युद्ध करने वाले योद्धा के रूप में विख्यात होंगे। धृतराष्ट्रपुत्र धर्मात्मा राजा दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में मारा गया है; अतः वह सनातन सद्गति को प्राप्त होगा। युद्ध की दीक्षा ले संग्रामभूमि में प्रविष्ट हो रणयज्ञ का विस्तार करके शत्रुरूपी प्रज्वलित अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दुर्योधन ने सुयशरूपी अवभृथ-स्नान का शुभ अवसर प्राप्त किया है। यह कहकर प्रतापी रोहिणीनन्दन बलराम जी, जो श्वेत बादलों के अग्रभाग की भाँति गौर-क्रान्ति से सुशोभित हो रहे थे, रथ पर आरूढ़ हो द्वारका की ओर चल दिये।
प्रजानाथ! बलराम जी के इस प्रकार द्वारका चले जाने पर पांचाल, वृष्णिवंशी तथा पाण्डव वीर उदास हो गये। उनके मन में अधिक उत्साह नहीं रह गया। उस समय युधिष्ठिर बहुत दुखी थे। वे नीचे मुख किये चिन्ता में डूब गये थे। शोक से उनका मनोरथ भंग हो गया था। उस अवस्था में उनसे भगवान श्रीकृष्ण बोले।
श्रीकृष्ण ने पूछा ;- धर्मराज! आप चुप होकर अधर्म का अनुमोदन क्यों कर रहे हैं? नरेश्वर दुर्योधन के भाई और सहायक मारे जा चुके हैं। यह पृथ्वी पर गिरकर अचेत हो रहा है। ऐसी दशा में भीमसेन इसके मस्तक को पैर से कुचल रहे हैं। आप धर्मज्ञ होकर समीप से ही यह सब कैसे देख रहे हैं।
युधिष्ठिर ने कहा ;- श्रीकृष्ण! भीमसेन ने क्रोध में भरकर जो राजा दुर्योधन के मस्तक को पैरों से ठुकराया है, यह मुझे भी अच्छा नहीं लगा। अपने कुल का संहार हो जाने से मैं प्रसन्न नहीं हूँ। वृष्णिनन्दन! भीमसेन के हृदय में इन सब बातों के लिये बड़ा दुःख था। यही सोचकर मैंने उनके इस कार्य की उपेक्षा की है। इसलिये मैंने विचार किया कि काम के वशीभूत हुए लोभी और अजितात्मा दुर्योधन को मारकर धर्म या अधर्म करके पाण्डुपुत्र भी अपनी इच्छा पूरी कर लें।
संजय कहते हैं ;- राजन! धर्मराज के ऐसा कहने पर यदुकुलश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े कष्ट से यह कहा कि अच्छा, ऐसा ही सही।
भीमसेन का प्रिय और हित चाहने वाले भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने भीमसेन के द्वारा युद्धस्थल में जो कुछ किया गया था, उस सबका अनुमोदन किया। महाबाहु अर्जुन भी अप्रसन्न-चित्त से अपने भाई के प्रति भला बुरा कुछ नहीं बोले। अमर्षशील भीमसेन युद्धस्थल में आपके पुत्र का वध करके बड़े प्रसन्न हुए और युधिष्ठिर को प्रणाम करके उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। प्रजानाथ! उस समय महातेजस्वी भीमसेन विजयश्री से प्रकाशित हो रहे थे। उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,
भीमसेन ने कहा ;- महाराज! आज यह सारी पृथ्वी आपकी हो गयी, इसके कांटे नष्ट कर दिये गये, अतः यह मंगलमयी हो गयी है। आप इसका शासन तथा अपने धर्म का पालन कीजिये। पृथ्वीनाथ! जिसे छल और कपट ही प्रिय था तथा जिसने कपट से ही इस बैर की नींव उाली थी, वही यह दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वी पर सो रहा है। वे भयंकर कटुवचन बोलने वाले दुःशासन आदि धृतराष्ट्रपुत्र तथा कर्ण और शकुनि आदि आपके सभी शत्रु मार डाले गये। महाराज! आपके शत्रु नष्ट हो गये। आज यह रत्नों से भरी हुई वन और पर्वतों सहित सारी पृथ्वी आपकी सेवा में प्रस्तुत है।
युधिष्ठिर बोले ;- भीमसेन! सौभाग्य की बात है कि तुमने बैर का अन्त कर दिया; राजा दुर्योधन मारा गया और श्रीकृष्ण के मत का आश्रय लेकर हमने यह सारी पृथ्वी जीत ली। सौभाग्य से तुम माता तथा क्रोध दोनों के ऋण से उऋण हो गये। दुर्घर्ष वीर! भाग्यवश तुम विजयी हुए और सौभाग्य से ही तुमने अपने शत्रु को मार गिराया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व में श्रीकृष्ण का बलदेवजी को सान्त्वना देना विषयक साठवां अघ्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें