सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“सारस्वत तीर्थ की महिमा के प्रसंग में दधीच ऋषि और सारस्वत मुनि के चरित्र का वर्णन”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतनन्दन! वही सोम तीर्थ है, जहाँ नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया था। उसी तीर्थ में महान तारकामय संग्राम हुआ था। धर्मात्मा एवं मनस्वी बलराम जी उस तीर्थ में भी स्नान एवं दान करके सारस्वत मुनि के तीर्थ में गये। प्राचीन काल में जब बारह वर्षों की अनावृष्टि हो गयी थी, सारस्वत मुनि ने वहीं उत्तम ब्राह्मणों को वेदाध्ययन कराया था। जनमेजय ने पूछा- मुने! प्राचीन काल में सारस्वत मुनि ने बारह वर्षों की अनावृष्टि के समय उत्तम ब्राह्मणों को किस प्रकार वेदों का अध्ययन कराया था?
वैशम्पायन जी ने कहा ;- महाराज! पूर्वकाल में एक बुद्धिमान महातपस्वी मुनि रहते थे, जो ब्रह्मचारी और जितेन्द्रिय थे। उनका नाम था दधीच। प्रभो! उनकी भारी तपस्या से इन्द्र सदा डरते रहते थे। नाना प्रकार के फलों का प्रलोभन देने पर भी उन्हें लुभाया नहीं जा सकता था। तब इन्द्र ने मुनि को लुभाने के लिये एक पवित्र दर्शनीय एवं दिव्य अप्सरा भेजी, जिसका नाम था अलम्बुषा।
महाराज! एक दिन, जब महात्मा दधीच सरस्वती नदी में देवताओं का तर्पण कर रहे थे, वह माननीय अप्सरा उनके पास जाकर खड़ी हो गयी। उस दिव्य रूप धारिणी अप्सरा को देखकर उन विशुद्ध अन्तः करण वाले महर्षि का वीर्य सरस्वती के जल में गिर पड़ा। उस वीर्य को सरस्वती नदी ने स्वयं ग्रहण कर लिया। पुरुषप्रवर! उस महान नदी ने हर्ष में भरकर पुत्र के लिये उस वीर्य को अपनी कुक्षि में रख लिया और इस प्रकार वह गर्भवती हो गयी। प्रभो! समय आने पर सरिताओं में श्रेष्ट सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया और उसे लेकर वह ऋषि के पास गयी। राजेन्द्र! ऋषियों की सभा में बैठे हुए मुनि श्रेष्ठ दधीच को देखकर उन्हें उनका वह पुत्र सौंपती हुई सरस्वती नदी इस प्रकार बोली- ‘ब्रह्मर्षे! यह आपका पुत्र है। इसे आपके प्रति भक्ति होने के कारण मैंने अपने गर्भ में धारण किया था। ब्रह्मर्षे! पहले अलम्बुषा नामक अप्सरा को देखकर जो आपका वीर्य स्खलित हुआ था, उसे आपके प्रति भक्ति होने के कारण मैंने अपने गर्भ में धारण कर लिया था; क्योंकि मेरे मन में यह विचार हुआ था कि आपका यह तेज नष्ट न होने पावे। अतः आप मेरे दिये हुए अपने इस अनिन्दनीय पुत्र को ग्रहण कीजिये’। उसके ऐसा कहने पर मुनि ने उस पुत्र को ग्रहण कर लिया और वे बड़े प्रसन्न हुए। भरतभूषण! उन द्विज श्रेष्ठ ने बड़े प्रेम से अपने उस पुत्र का मस्तक सूंघा और दीर्घ काल तक छाती से लगाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महामुनि ने सरस्वती को वर दिया- ‘सुभगे! तुम्हारे जल से तर्पण करने पर विश्वेदेव, पितृगण तथा गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदाय सभी तृप्ति लाभ करेंगे’।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 18-40 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! ऐसा कहकर अत्यंत हर्षोत्फुल्ल हृदय से मुनि ने प्रेमपूर्वक उत्तम वाणी द्वारा सरस्वती देवी का स्तवन किया। उस स्तुति को तुम यथार्थरूप से सुनो। ‘महाभागे! तुम पूर्वकाल में ब्रह्मा जी के सरोवर से प्रकट हुई हो। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती! कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि तुम्हारी महिमा को जानते हैं। प्रियदर्शने! तुम सदा मेरा भी प्रिय करती रही हो; अतः वरवर्णिनि! तुम्हारा यह लोकभावन महान पुत्र तुम्हारे ही नाम पर ‘सारस्वत’ कहलायेगा। यह सारस्वत नाम से विख्यात महातपस्वी होगा। महाभागे! इस संसार में बारह वर्षों तक जब वर्षा बंद हो जायगी, उस समय यह सारस्वत ही श्रेष्ठ ब्राह्मणों को वेद पढ़ायेगा। शुभे! महासौभाग्यशालिनी सरस्वति! तुम मेरे प्रसाद से अन्य पवित्र सरिताओं की अपेक्षा सदा ही अधिक पवित्र बनी रहोगी’। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उनके द्वारा प्रशंसित हो वर पाकर वह महानदी पुत्र को लेकर प्रसन्नतापूर्वक चली गयी। इसी समय देवताओं और दानवों में विरोध होने पर इन्द्र अस्त्र-शस्त्रों की खोज के लिये तीनों लोकों में विचरण करने लगे। परंतु भगवान शक्र उस समय ऐसा कोई हथियार न पा सके, जो उन देवद्रोहियों के वध के लिये उपयोगी हो सके। तदनन्तर इन्द्र ने देवताओं से कहा,
इन्द्रदेव ने कहा ;- ‘दधीच मुनि की अस्थियों के सिवा और किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरे द्वारा देवद्रोही महान असुर नहीं मारे जा सकते। अतः सुरश्रेष्ठगण! तुम लोग जाकर मुनिवर दधीच से याचना करो कि आप अपनी हड्डियां हमें दे दें। हम उन्हीं के द्वारा अपने शत्रुओं का वध करेंगे’।
कुरुश्रेष्ठ! देवताओं के द्वारा प्रयत्नपूर्वक अस्थियों के लिये याचना की जाने पर मुनिवर दधीच ने बिना कोई विचार किये अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। उस समय देवताओं का प्रिय करने के कारण वे अक्षय लोकों में चले गये। तब इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर दधीच की हड्डियों से गदा, वज्र, चक्र और बहुसंख्यक भारी दण्ड आदि नाना प्रकार के दिव्य आयुध तैयार कराये। ब्रह्मा जी के पुत्र महर्षि भृगु ने तीव्र तपस्या से भरे हुए लोक मंगलकारी विशालकाय एवं तेजस्वी दधीच को उत्पन्न किया था। ऐसा जान पड़ता था, मानो सम्पूर्ण जगत के सारतत्त्व से उनका निर्माण किया गया हो। वे पर्वत के समान भारी और ऊंचे थे। अपनी महत्ता के लिये वे सामर्थ्यशाली मुनि सर्वत्र विख्यात थे। पाकशासन इन्द्र उनके तेज से सदा उद्विग्न रहते थे। भरतनन्दन! ब्रह्म तेज से प्रकट हुए उस वज्र को मन्त्रोच्चारण के साथ अत्यन्त क्रोधपूर्वक छोड़कर भगवान इन्द्र ने आठ सौ दस दैत्य-दानव वीरों का वध कर डाला। राजन! तदनन्तर सुदीर्घ काल व्यतीत होने पर जगत में बारह वर्षों तक स्थिर रहने वाली अत्यन्त भयंकर अनावृष्टि प्राप्त हुई। नरेश्वर! बारह वर्षों की उस अनावृष्टि में सब महर्षि भूख से पीड़ित हो जीविका के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं से भागकर इधर-उधर जाते हुए उन महर्षियों को देखकर सारस्वत मुनि ने भी वहाँ से अन्यत्र जाने का विचार किया। तब सरस्वती देवी ने उनसे कहा। भरतनन्दन! सरस्वती इस प्रकार बोली- ‘बेटा! तुम्हें यहाँ से कहीं नहीं जाना चाहिये। मैं सदा तुम्हें भोजन के लिये उत्तमोत्तम मछलियां दूगी; अतः तुम यहीं रहो’। सरस्वती के ऐसा कहने पर सारस्वत मुनि वहीं रहकर देवताओं और पितरों को तृप्त करने लगे। वे प्रतिदिन भोजन करते और अपने प्राणों तथा वेदों की रक्षा करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 41-53 का हिन्दी अनुवाद)
जब बारह वर्षों की वह अनावृष्टि प्रायः बीत गयी, तब महर्षि पुनः स्वाध्याय के लिये एक-दूसरे से पूछने लगे। राजेन्द्र! उस समय भूख से पीड़ित होकर इधर-उधर दौड़ने वाले सभी महर्षि वेद भूल गये थे। कोई भी ऐसा प्रतिभाशाली नहीं था, जिसे वेदों का स्मरण रह गया हो। तदनन्तर उनमें से कोई ऋषि प्रतिदिन स्वाध्याय करने वाले शुद्धात्मा मुनिवर सारस्वत के पास आये। फिर वहाँ से जाकर उन्होंने सब महर्षियों को बताया कि ‘देवताओं के समान अत्यन्त कान्तिमान एक सारस्वत मुनि हैं, जो निर्जन वन में रहकर सदा स्वाध्याय करते हैं’। राजन! यह सुनकर वे सब महर्षि वहाँ आये और आकर मुनिश्रेष्ठ सारस्वत से इस प्रकार बोले,
महर्षि बोले ;- ‘मुने! आप हम लोगों को वेद पढ़ाइये।’ तब सारस्वत ने उनसे कहा,
सारस्वत ने कहा ;- ‘आप लोग विधिपूर्वक मेरी शिष्यता ग्रहण करें’। तब वहाँ उन मुनियों ने कहा,
मुनि बोले ;- ‘बेटा! तुम तो अभी बालक हो’ (हम तुम्हारे शिष्य कैसे हो सकते हैं?) तब सारस्वत ने पुनः उन मुनियों से कहा,
सारस्वत ने कहा ;- ‘मेरा धर्म नष्ट न हो, इसलिये मैं आप लोगों को शिष्य बनाना चाहता हूं; क्योंकि जो अधर्मपूर्वक वेदों का प्रवचन करता है तथा जो अधर्म पूर्वक उन वेद मन्त्रों को ग्रहण करता है, वे दोनों शीघ्र ही हीनावस्था को प्राप्त होते हैं अथवा दोनों एक-दूसरे के वैरी हो जाते हैं। ‘न बहुत वर्षों की अवस्था होने से, न बाल पकने से, न धन से और न अधिक भाई-बन्धुओं से कोई बड़ा होता है। ऋषियों ने हमारे लिये यही धर्म निश्चित किया है कि हममें से जो वेदों का प्रवचन कर सके, वही महान है’। सारस्वत की यह बात सुनकर वे मुनि उनसे विधिपूर्वक वेदों का उपदेश पाकर पुनः धर्म का अनुष्ठान करने लगे। साठ हज़ार मुनियों ने स्वाध्याय के निमित्त ब्रह्मर्षि सारस्वत की शिष्यता ग्रहण की थी। वे ब्रह्मर्षि यद्यपि बालक थे तो भी वे सभी बड़े-बड़े महर्षि उनकी आज्ञा के अधीन रहकर उनके आसन के लिये एक-एक मुटठी कुश ले आया करते थे। श्रीकृष्ण के बड़े भाई महाबली रोहिणीनन्दन बलराम जी वहाँ भी स्नान और धन दान करके प्रसन्नतापूर्वक क्रमशः सब तीर्थों में विचरते हुए उस विख्यात महातीर्थ में गये, जहाँ कभी वृद्धा कुमारी कन्या निवास करती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सारस्वतोपाख्यान विषयक इक्यावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“वृद्ध कन्या का चरित्र, श्रृंगवान् के साथ उसका विवाह और स्वर्ग गमन तथा उस तीर्थ का माहात्म्य”
जनमेजय ने पूछा ;- भगवन! पूर्वकाल में वह कुमारी तपस्या में क्यों संलग्न हुई? उसने किसलिये तपस्या की और उसका कौन सा नियम था? ब्रह्मन! मैंने आपके मुख से यह अत्यन्त उत्तम तथा परम दुष्कर तप की बात सुनी है। आप सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से बताइये; वह कन्या क्यों तपस्या में प्रवृत्त हुई थी?
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! प्राचीन काल में एक महान शक्तिशाली और महायशस्वी कुणिर्गर्ग नामक ऋषि रहते थे। तपस्या करने वालों में श्रेष्ठ उन महर्षि ने बड़ा भारी तप करके अपने मन से एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की। नरेश्वर! उसे देखकर महायशस्वी मुनि कुणिर्गर्ग बड़े प्रसन्न हुए और कुछ काल के पश्चात अपना यह शरीर छोड़ कर स्वर्गलोक में चले गये। तदनन्तर कमल के समान सुन्दर नेत्रों वाली वह कल्याणमयी सती साध्वी सुन्दरी कन्या पूर्वकाल में अपने लिये आश्रम बना कर बड़ी कठोर तपस्या तथा उपवास के साथ-साथ देवताओं और पितरों का पूजन करती हुई वहाँ रहने लगी।
राजन! उग्र तपस्या करते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया। पिता ने अपने जीवनकाल में उसका किसी के साथ ब्याह कर देने का प्रयत्न किया; परंतु उस अनिन्द्य सुन्दरी ने विवाह की इच्छा नहीं की। उसे अपने योग्य कोई वर ही नहीं दिखायी देता था। तब वह उग्र तपस्या के द्वारा अपने शरीर को पीड़ा देकर निर्जन वन में पितरों तथा देवताओं के पूजन में तत्पर हो गयी। राजेन्द्र! परिश्रम से थक जाने पर भी वह अपने आपको कृतार्थ मानती रही। धीरे-धीरे बुढ़ापा और तपस्या ने उसे दुर्बल बना दिया। जब वह स्वयं एक पग भी चलने में असमर्थ हो गयी, तब उसने परलोक में जाने का विचार किया। उसकी देहत्याग की इच्छा देख देवर्षि नारद ने उससे कहा,
नारदजी बोले ;- ‘महान व्रत का पालन करने वाली निष्पाप नारी! तुम्हारा तो अभी विवाह संस्कार भी नहीं हुआ, तुम तो अभी कन्या हो। फिर तुम्हें पुण्यलोक कैसे प्राप्त हो सकते हैं? तुम्हारे सम्बन्ध में ऐसी बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की है; परंतु पुण्यलोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त किया है’। नारद जी की यह बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में उपस्थित होकर बोली,
कन्या बोली ;- ‘साधुशिरोमणे! आपमें से जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग दे दूंगी’। उसके ऐसा कहने पर सबसे पहले गालव के पुत्र श्रृंगवान ऋषि ने उसका पाणिग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और सबसे पहले उसके सामने यह शर्त रखी- ‘शोभने! मैं एक शर्त के साथ आज तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा। विवाह के बाद तुम्हें एक रात मेरे साथ रहना होगा। यदि यह स्वीकार हो तो मैं तैयार हूं’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने मुनि के हाथ में अपना हाथ दे दिया। फिर गालव पुत्र ने शास्त्रोक्त रीति से विधिपूर्वक अग्नि में हवन करके उसका पाणिग्रहण और विवाह-संस्कार किया। राजन! रात्रि में वह दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित और दिव्य गन्धयुक्त अंगराग से अलंकृत परम सुन्दरी तरुणी हो गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)
उसे अपनी कान्ति से सब ओर प्रकाश फैलाती देख गालव कुमार बड़े प्रसन्न हुए और उसके साथ एक रात निवास किया। सबेरा होते ही वह मुनि से बोली,
कन्या बोली ;- ‘तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि! आपने जो शर्त की थी, उसके अनुसार मैं आपके साथ रह चुकी। आपका मंगल हो, कल्याण हो। अब आज्ञा दीजिये, मैं जाती हूं’। यों कहकर वह वहाँ से चल दी। जाते-जाते उसने फिर कहा,
वह फिर बोली ;- ‘जो अपने चित्त को एकाग्र कर इस तीर्थ में स्नान और देवताओं का तर्पण करके एक रात निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों तक विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करने का फल प्राप्त होगा’। ऐसा कहकर वह साध्वी तपस्विनी देह त्यागकर स्वर्ग लोक में चली गयी और मुनि उसके दिव्य रूप का चिन्तन करते हुए बहुत दुखी हो गये। उन्होंने शर्त के अनुसार उसकी तपस्या का आधा भाग बड़े कष्ट से स्वीकार किया। फिर वे भी अपने शरीर का परित्याग करके उसी के पथ पर चले गये। भरतश्रेष्ठ! वे उसके रूप पर बलात आकृष्ट होकर अत्यन्त दुखी हो गये थे। यह मैंने तुमसे वृद्ध कन्या के महान चरित्र, ब्रह्मचर्य पालन तथा स्वर्ग लोक की प्राप्ति रूप सद्गति का वर्णन किया। वहीं रहकर शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी ने शल्य के मारे जाने का समाचार सुना था। वहाँ भी मधुवंशी बलराम ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दे समन्तपंचक द्वार से निकलकर ऋषियों से कुरुक्षेत्र के सेवन का फल पूछा। प्रभो! उस यदुसिंह के द्वारा कुरुक्षेत्र के फल के विषय में पूछे जाने पर वहाँ रहने वाले महात्माओं ने उन्हें सब कुछ यथावत रूप से बताया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सारस्वतोपाख्यान विषयक बावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“ऋषियों द्वारा कुरुक्षेत्र की सीमा और महिमा का वर्णन”
ऋषियों ने कहा ;- बलराम जी! समन्तपन्चक क्षेत्र सनातन तीर्थ है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी कहते हैं। वहाँ प्राचीनकाल में महान वरदायक देवताओं ने बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पहले अमित तेजस्वी बुद्धिमान राजर्षिप्रवर महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र को बहुत वर्षों तक जोता था, इसलिये इस जगत में इसका नाम कुरुक्षेत्र प्रसिद्ध हो गया।
बलराम जी ने पूछा ;- तपोधनों! महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र को किसलिये जोता था? मैं आप लोगों के मुख से यह कथा सुनना चाहता हूँ।
ऋषि बोले ;- राम! सुना जाता है कि पूर्वकाल में सदा प्रत्येक शुभ कार्य के लिये उद्यत रहने वाले कुरु जब इस क्षेत्र को जोत रहे थे, उस समय इन्द्र ने स्वर्ग से आकर इसका कारण पूछा। इन्द्र ने प्रश्न किया- राजन! यह महान प्रयत्न के साथ क्या हो रहा है? राजर्षे! आप क्या चाहते हैं, जिसके कारण यह भूमि जोत रहे हैं?
कुरु ने कहा ;- शतक्रतो! जो मनुष्य इस क्षेत्र में मरेंगे, वे पुण्यात्माओं के पाप रहित लोकों में जायंगे। तब इन्द्र उनका उपहास करके स्वर्गलोक में चले गये। राजर्षि कुरु उस कार्य से उदासीन न होकर वहाँ की भूमि जोतते ही रहे। शतक्रतु इन्द्र अपने कार्य से विरत न होने वाले कुरु के पास बारंबार आते और उन से पूछ-पूछ कर प्रत्येक बार उनकी हंसी उड़ाकर स्वर्गलोक में चले जाते थे। जब राजा कुरु कठोर तपस्या पूर्वक पृथ्वी को जोतते ही रह गये, तब इन्द्र ने देवताओं से राजर्षि कुरु की वह चेष्टा बतायी।
यह सुनकर देवताओं ने सहस्र नेत्रधारी इन्द्र से कहा,
देवता बोले ;- ‘शक्र! यदि सम्भव हो तो राजर्षि कुरु को वर देकर अपने अनुकूल किया जाय। यदि यहाँ मरे हुए मानव यज्ञों द्वारा हमारा पूजन किये बिना ही स्वर्गलोक में चले जायंगे, तब तो हम लोगों का भाग सर्वथा नष्ट हो जायगा’। तब इन्द्र ने वहाँ से आकर राजर्षि कुरु से कहा,
इन्द्र ने कहा ;- ‘नरेश्वर! आप व्यर्थ कष्ट क्यों उठाते हैं? मेरी बात मान लीजिये। महामते! राजेन्द्र! जो मनुष्य और पशु-पक्षी यहाँ निराहार रहकर देह त्याग करेंगे अथवा युद्ध में मारे जायंगे, वे स्वर्गलोक के भागी होंगे’। तब राजा कुरु ने इन्द्र से कहा,
कुरु ने कहा ;- ‘देवराज! ऐसा ही हो’ तदनन्तर कुरु से विदा ले बलसूदन इन्द्र फिर शीघ्र ही प्रसन्न चित्त से स्वर्गलोक में चले गये। यदुश्रेष्ठ! इस प्रकार प्राचीन काल में राजर्षि कुरु ने इस क्षेत्र को जोता और इन्द्र तथा ब्रह्मा आदि देवताओं ने इसे वर देकर अनुगृहीत किया। भूतल का कोई भी स्थान इससे बढ़कर पुण्यदायक नहीं होगा। जो मनुष्य यहाँ रहकर बड़ी भारी तपस्या करेंगे, वे सब लोग देहत्याग के पश्चात ब्रह्मलोक में जायंगे। जो पुण्यात्मा मानव वहाँ दान देंगे, उनका वह दान शीघ्र ही सहस्रगुना हो जायगा। जो मानव शुभ की इच्छा रखकर यहाँ नित्य निवास करेंगे, उन्हें कभी यम का राज्य नहीं देखना पड़ेगा। जो नरेश्वर यहाँ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे, वे जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक स्वर्गलोक में निवास करेंगे। हलायुध! स्वयं देवराज इन्द्र ने कुरुक्षेत्र के सम्बन्ध में यहाँ जो गाथा गायी है, उसे आप सुनिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-26 का हिन्दी अनुवाद)
‘कुरुक्षेत्र से वायु द्वारा उड़ायी हुई धूलियां भी यदि ऊपर पड़ जायं तो वे पापी मनुष्य को भी परम पद की प्राप्ति कराती हैं। श्रेष्ठ देवताओं! यहाँ ब्राह्मणशिरोमणि तथा नृग आदि मुख्य-मुख्य पुरुषसिंह नरेश महान यज्ञों का अनुष्ठान करके देहत्याग के पश्चात उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं। तरन्तुक, अरन्तुक, रामहंद ( परशुराम कुण्ड) तथा मचक्रुक -इनके बीच का जो भूभाग है, यही समन्तपंचक एवं कुरुक्षेत्र है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी कहते हैं। यह महान पुण्यप्रद, कल्याणकारी, देवताओं का प्रिय एवं सर्वगुणसम्पन्न तीर्थ है। अतः यहाँ रणभूमि में मारे गये सम्पूर्ण नरेश सदा पुण्यमयी अक्षय गति प्राप्त करेंगे’। ब्रह्मा आदि देवताओं सहित साक्षात इन्द्र ने ऐसी बातें कही थीं तथा ब्रह्मा, विष्णु और महादेव जी ने इन सारी बातों का अनुमोदन किया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेव जी की तीर्थ यात्रा और सारस्वतोपाख्यान के प्रसंग में कुरुक्षेत्र की महिमा का वर्णन विषयक तिरपनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुष्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“प्लक्षप्रस्त्रवण आदि तीर्थों तथा सरस्वती की महिमा एवं नारद जी से कौरवों के विनाश और भीम तथा दुर्योधन के युद्ध का समाचार सुनकर बलराम जी का उसे देखने के लिये जाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सात्वतवंशी बलराम जी कुरुक्षेत्र का दर्शन कर वहाँ बहुत सा धन दान करके उस स्थान से एक महान एवं दिव्य आश्रम में गये। महुआ और आम के वन उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। पाकड़ और बरगद के वृक्ष वहाँ अपनी छाया फैला रहे थे। चिलबिल, कटहल और अर्जुन (समूह) के पेड़ चारों ओर भरे हुए थे। पुण्यदायक लक्षणों से युक्त उस पुण्यमय श्रेष्ठ आश्रम का दर्शन करके यादव श्रेष्ठ बलराम जी ने उन समस्त ऋषियों से पूछा कि ‘यह सुन्दर आश्रम किसका है?’
राजन! तब वे सभी ऋषि महात्मा हलधर से बोले,
ऋषि ने कहा ;- ‘बलराम जी! पहले यह आश्रम जिसके अधिकार में था, उसकी कथा विस्तारपूर्वक सुनिये- ‘प्राचीनकाल में यहाँ भगवान विष्णु ने उत्तम तपस्या की है, यहीं उनके सभी सनातन यज्ञ विधिपूर्वक सम्पन्न हुए हैं। ‘यहीं कुमारावस्था से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली एक सिद्ध ब्राह्मणी रहती थी, जो तपःसिद्ध तपस्विनी थी। वह योगयुक्त होकर स्वर्गलोक में चली गयी। ‘राजन! नियमपूर्वक व्रतधारण और ब्रह्मचर्य पालन करने वाली वह तेजस्विनी साध्वी महात्मा शाण्डिल्य की सुपुत्री थी। ‘स्त्रियों के लिये जो अत्यन्त दुष्कर था, ऐसा घोर तप करके देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हुई वह महान सौभाग्यशालिनी देवी स्वर्गलोक को चली गयी थी’।
ऋषियों का वचन सुनकर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले बलराम जी उस आश्रम में गये। वहाँ हिमालय के पाश्व भाग में उन ऋषियों को प्रणाम करके संध्या-वन्दन आदि सब कार्य करने के अनन्तर वे हिमालय पर चढ़ने लगे। जिनकी ध्वजा पर ताल का चिह्न सुशोभित होता है, वे बलराम जी उस पर्वत पर थोड़ी ही दूर गये थे कि उनकी दृष्टि एक पुण्यमय उत्तम तीर्थ पर पड़ी। वह सरस्वती की उत्पत्ति का स्थान प्लक्षप्रस्त्रवण नामक तीर्थ था। उसका दर्शन करके बलराम जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर वे कारपवन नामक उत्तम तीर्थ में गये। महाबली हलधर ने वहाँ के निर्मल, पवित्र और अत्यन्त शीतल पुण्यदायक जल में गोता लगाकर ब्राह्मणों को दान दे देवताओं और पितरों का तर्पण किया। तत्पश्चात रणदुर्मद बलराम जी यतियों और ब्राह्मणों के साथ वहाँ एक रात रहकर मित्रावरुण के पवित्र आश्रम पर गये। जहाँ पूर्वकाल में इन्द्र, अग्नि और अर्यमा ने बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की थी, वह स्थान यमुना के तट पर है। कारपवन से उस तीर्थ में जाकर महाबली धर्मात्मा बलराम ने स्नान करके बड़ा हर्ष प्राप्त किया। फिर वे यदुपुंग व बलभद्र ऋषियों और सिद्धों के साथ बैठकर उत्तम कथाएं सुनने लगे।
इस प्रकार वे लोग वहीं ठहरे हुए थे, तब तक देवर्षि भगवान नारद भी उनके पास उसी स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ बलराम जी विराजमान थे। राजन! महातपस्वी नारद जटामण्डल से मण्डित हो सुनहरा चीर धारण किये हुए थे। उन्होंने कमण्डलु, सोने का दण्ड तथा सुखदायक शब्द करने वाली कच्छपी नामक मनोरम वीणा भी ले रखी थी। वे नृत्य-गीत में कुशल, देवताओं तथा ब्राह्मणों से सम्मानित, कलह कराने वाले तथा सदैव कलह के प्रेमी हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुष्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)
वे उस स्थान पर गये, जहाँ तेजस्वी बलराम बैठै हुए थे। उन्होंने उठकर नियम और व्रत का पालन करने वाले देवर्षि का भली-भाँति पूजन करके उनसे कौरवों का समाचार पूछा। राजन! तब सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता नारद जी ने उनसे यह सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से बता दिया कि कुरुकुल का अत्यन्त संहार हो गया है। तब रोहिणीनन्दन बलराम ने दीनवाणी में नारद जी से पूछा,
बलराम जी ने पूछा ;- ‘तपोधन! जो राजा लोग वहाँ उपस्थित हुए थे, उन सब क्षत्रियों की क्या अवस्था हुई है, यह सब तो मैंने पहले ही सुन लिया था। इस समय कुछ विशेष और विस्तृत समाचार जानने के लिये मेरे मन में अत्यन्त उत्सुकता हुई है’।
नारद जी ने कहा ;- रोहिणीनन्दन! भीष्म जी तो पहले ही मारे गये। फिर सिंधुराज जयद्रथ, द्रोण, वैकर्तन कर्ण तथा उसके महारथी पुत्र भी मारे गये हैं। भूरिश्रवा तथा पराक्रमी मद्रराज शल्य भी मार डाले गये। ये तथा और भी बहुत से महाबली राजा और राजकुमार जो युद्ध से पीछे हटने वाले नही थे, कुरुराज दुर्योधन की विजय के लिये अपने प्यारे प्राणों का परित्याग करके स्वर्गलोक में चले गये हैं। महाबाहु माधव! जो वहाँ नही मारे गये हैं, उनके नाम भी मुझसे सुन लो। दुर्योधन की सेना में कृपाचार्य, कृतवर्मा और पराक्रमी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा- ये शत्रुदल का मर्दन करने वाले तीन ही वीर शेष रह गये हैं। परंतु बलराम जी! जब शल्य मारे गये, तब ये तीनों भी भय के मारे सम्पूर्ण दिशाओं में पलायन कर गये थे। शल्य के मारे जाने और कृप आदि के भाग जाने पर दुर्योधन बहुत दुखी हुआ और भागकर द्वैपायन सरोवर में जा छिपा। जब दुर्योधन जल को स्तम्भित करके उसके भीतर सो रहा था, उस समय पाण्डव लोग भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहाँ आ पहुँचे और अपनी कठोर बातों से उसे कष्ट पहुँचाने लगे।
बलराम! जब सब ओर से कड़वी बातों द्वारा उसे व्यथित किया जाने लगा, तब वह बलवान वीर विशाल गदा हाथ में लेकर सरोवर से उठ खड़ा हुआ। इस समय वह भीम के साथ युद्ध करने के लिये उनके पास जा पहुँचा है। राम! आज उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध होगा, माधव! यदि तुम्हारे मन में भी उसे देखने का कौतूहल हो तो शीघ्र जाओ। यदि ठीक समझो तो अपने दोनों शिष्यों का वह महाभयंकर युद्ध अपनी आंखों से देख लो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! नारद जी की बात सुनकर बलराम जी ने अपने साथ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया और सेवकों को आज्ञा दे दी कि तुम लोग द्वारका चले जाओ। फिर वे प्लक्षप्रस्त्रवण नामक शुभ पर्वत शिखर से नीचे उतर आये और तीर्थ सेवन का महान फल सुनकर प्रसन्नचित्त हो अच्युत बलराम ने ब्राह्मणों के समीप इस श्लोक का गान किया- ‘सरस्वती नदी के तट पर निवास करने में जो सुख और आनन्द है, वह अन्यत्र कहाँ से मिल सकता है? सरस्वती तट पर निवास करने में जो गुण हैं, वे अन्यत्र कहाँ हैं ? सरस्वती का सेवन करके स्वर्गलोक में पहुँचे हुए मनुष्य सदा सरस्वती नदी का स्मरण करते रहेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुष्पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 39-41 का हिन्दी अनुवाद)
‘सरस्वती सब नदियों में पवित्र है। सरस्वती सदा सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाली है। सरस्वती को पाकर मनुष्य इहलोक और परलोक में कभी पापों के लिये शोक नहीं करते हैं’। तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी बारंबार प्रेमपूर्वक सरस्वती नदी की ओर देखते हुए घोड़ों से जुते उज्ज्वल रथ पर आरूढ़ हुए। उसी शीघ्रगामी रथ के द्वारा तत्काल उपस्थित हुए दोनों शिष्यों का युद्ध देखने के लिये यदुपुंगव बलराम जी उनके पास जा पहुँचे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सारस्वतोपाख्यान विषयक चौवनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“बलराम जी की सलाह से सब का कुरुक्षेत्र के समन्तपन्चक तीर्थ में जाना और वहाँ भीम तथा दुर्योधन में गदा युद्ध की तैयारी”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार वह तुमुल युद्ध हुआ, जिसके विषय में अत्यन्त दुखी हुए राजा धृतराष्ट्र ने इस तरह प्रश्न किया।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! गदायुद्ध उपस्थित होने पर बलराम जी को निकट आया देख मेरे पुत्र ने भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया?
संजय ने कहा ;- राजन! बलराम जी को निकट पाकर युद्ध की इच्छा रखने वाला आपका शक्तिशाली पुत्र महाबाहु दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ। भरतनन्दन! हलधर को देखते ही राजा युधिष्ठिर उठ कर खड़े हो गये और बड़े प्रेम से विधिपूर्वक उनकी पूजा करके उन्हें बैठने के लिये उन्होंने आसन दिया तथा उनके स्वास्थ्य का समाचार पूछा। तब बलराम ने युधिष्ठिर से मधुर वाणी में शूरवीरों के लिये हितकर धर्म युक्त वचन कहा,
बलराम जी ने कहा ;- ‘नृपश्रेष्ठ! मैंने माहात्म्य कथा कहने वाले ऋषियों के मुख से यह सुना है कि कुरुक्षेत्र परम पावन पुण्यमय तीर्थ है। वह स्वर्ग प्रदान करने वाला है। देवता, ऋषि तथा महात्मा ब्राह्मण सदा उसका सेवन करते हैं। ‘माननीय नरेश! जो मानव वहाँ युद्ध करते हुए अपने शरीर का त्याग करेगा, उनका निश्चय ही स्वर्गलोक में इन्द्र के साथ निवास होगा। ‘अतः नरेश्वर! हम सब लोग यहाँ से शीघ्र ही समन्तपन्चक तीर्थ में चलें। वह भूमि देवलोक में प्रजापति की उत्तर वेदी के नाम से प्रसिद्ध है। त्रिलोकी के उस परम पुण्यतम सनातन तीर्थ में युद्ध करके मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य निश्चय ही स्वर्गलोक में जायगा’। महाराज! तब ‘बहुत अच्छा’, कहकर वीर राजा कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर समन्तपन्चक तीर्थ की ओर चल दिये।
उस समय अमर्ष में भरा हुआ तेजस्वी राजा दुर्योधन हाथ में विशाल गदा लेकर पाण्डवों के साथ पैदल ही चला। गदा हाथ में लिये कवच धारण किये दुर्योधन को इस प्रकार आते देख आकाश में विचरने वाले देवता साधु-साधु कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। वातिक और चारण भी उसे देखकर हर्ष से खिल उठे। पाण्डवों से घिरा हुआ आपका पुत्र कुरुराज दुर्योधन मतवाले गजराज की सी गति का आश्रय लेकर चल रहा था। उस समय शंखों की ध्वनि, रणभेरियों के गम्भीर घोष और शूरवीरों के सिंहनादों से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठीं।
तदनन्तर वे सभी श्रेष्ठ नरवीर आपके पुत्र के साथ पश्चिमाभिमुख चलकर पूर्वोक्त कुरुश्रेत्र में आ पहुँचे। वह उत्तम तीर्थ सरस्वती के दक्षिण तट पर स्थित एवं सद्रति की प्राप्ति कराने वाला था। वहाँ कहीं ऊसर भूमि नहीं थी। उसी स्थान में आकर सब ने युद्ध करना पसंद किया। फिर तो भीमसेन कवच पहन कर बहुत बड़ी नोकवाली गदा हाथ मे ले गरुड़ का सा रूप धारण करके युद्ध के लिये तैयार हो गये। तत्पश्चात दुर्योधन भी सिर पर टोप लगाये सोने का कवच बांधे भीम के साथ युद्ध के लिये डट गया। राजन! उस समय आपका पुत्र सुवर्णमय गिरिराज मेरु के समान शोभा पा रहा था। कवच बांधे हुए दोनों वीर भीमसेन और दुर्योधन युद्ध भूमि में कुपित हुए दो मतवाले हाथियों के समान प्रकाशित हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! रणमण्डल के बीच में खड़े हुए ये दोनों नरश्रेष्ठ भ्राता उदित हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान शोभा पा रहे थे। राजन! क्रोध में भरे हुए दो गजराजों के समान एक दूसरे के वध की इच्छा रखने वाले वे दोनों वीर परस्पर इस प्रकार देखने लगे, मानो नेत्रों द्वारा एक दूसरे को भस्म कर डालेंगे। नरेश्वर! तदनन्तर शक्तिशाली कुरुवंशी राजा दुर्योधन प्रसन्नचित्त हो गदा हाथ में ले क्रोध से लाल आंखें करके गलफरों को चाटता और लंबी सांसें खींचता हुआ भीमसेन की ओर देखकर उसी प्रकार ललकारने लगा, जैसे एक हाथी दूसरे हाथी को पुकार रहा हो। उसी प्रकार पराक्रमी भीमसेन ने लोहे की गदा लेकर राजा दुर्योधन को ललकारा, मानो वन में एक सिंह दूसरे सिंह को पुकार रहा हो। दुर्योधन और भीमसेन दोनों की गदाएं ऊपर को उठी थीं। उस समय रणभूमि में वे दोनों शिखरयुक्त दो पर्वतों के समान प्रकाशित हो रहे थे। दोनों ही अत्यन्त क्रोध में भरे थे। दोनों भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले थे और दोनों ही गदायुद्ध में बुद्धिमान रोहिणीनन्दन बलराम जी के शिष्य थे।
महाराज! शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों महाबली वीर यमराज, इन्द्र, वरुण, श्रीकृष्ण, बलराम, कुबेर, मधु, कैटभ, सुन्द, उपसुन्द, राम, रावण तथा बाली और सुग्रीव के समान पराक्रम दिखाने वाले थे तथा काल एवं मृत्यु के समान जान पड़ते थे। जैसे शरद् ऋतु में मैथुन की इच्छा वाली हथिनी से समागम करने के लिये दो मतवाले हाथी मदोन्मत्त होकर एक दूसरे पर धावा करते हों, उसी प्रकार अपने बल का गर्व रखने वाले वे दोनों वीर एक दूसरे से टक्कर लेने को उद्यत थे।
शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों योद्धा दो सर्पों के समान प्रज्वलित क्रोधरूपी विष का वमन करते हुए एक दूसरे को रोषपूर्वक देख रहे थे। भरतवंश के वे विक्रमशाली सिंह दो जंगली सिंहों के समान दुर्जय थे और दोनों ही गदायुद्ध के विशेषज्ञ माने जाते थे। पन्चों और दाढ़ों से प्रहार करने वाले दो व्याघ्रों के समान उन दोनों वीरों का वेग शत्रुओं के लिये दुःसह था। प्रलय काल में विक्षुब्ध हुए दो समुद्रों के समान उन्हें पार करना कठिन था। वे दोनों महारथी क्रोध में भरे हुए दो मंगल ग्रहों के समान एक दूसरे को ताप दे रहे थे। जैसे वर्षा ऋतु में पूर्व और पश्चिम दिशाओं में स्थित दो वृष्टिकारक मेघ भयंकर गर्जना कर रहे हों, उसी प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर एक दूसरे को देखते हुए भयानक सिंहनाद कर रहे थे। महामनस्वी महाबली कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन और भीमसेन प्रखर किरणों से युक्त, प्रलयकाल में उगे हुए दो दीप्तिशाली सूर्यो के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। रोष में भरे हुए दो व्याघ्रों, गरजते हुए दो मेघों और दहाड़ते हुए दो सिंहों के समान वे दोनों महाबाहु वीर हर्षोत्फुल्ल हो रहे थे। वे दोनों महामनस्वी योद्धा परस्पर कुपित हुए दो हाथियों, प्रज्वलित हुई दो अग्नियों और शिखरयुक्त दो पर्वतों के समान दिखायी देते थे। उन दोनों के ओठ रोष से फड़क रहे थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ एक दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए हाथ में गदा ले परस्पर भिड़ने के लिये उद्यत थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 41-50 का हिन्दी अनुवाद)
दोनों अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरे थे। दोनों ही बड़े सम्मानित वीर थे। मनुष्यों में श्रेष्ठ वे दुर्योधन और भीमसेन हींसते हुए दो अच्छे घोड़ों, चिग्घाड़ते हुए दो गजराजों और हंकड़ते हुए दो सांड़ों तथा बल से उन्मत्त हुए दो दैत्यों के समान शोभा पाते थे।
राजन! तदनन्तर दुर्योधन ने अमित पराक्रमी बलराम, महात्मा श्रीकृष्ण, महामनस्वी पाञ्चाल, सृंजय, केकयगण तथा अपने भाइयों के साथ खड़े हुए अभिमानी युधिष्ठिर से इस प्रकार गर्वयुक्त वचन कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीरो! मेरा और भीमसेन का जो यह युद्ध निश्चित हुआ है, इसे आप लोग सभी श्रेष्ठ नरेशों के साथ निकट बैठकर देखिये’। दुर्योधन की यह बात सुनकर सब लोगों ने उसे स्वीकार कर लिया, फिर तो राजाओं का वह विशाल समूह वहाँ सब ओर बैठ गया। नरेशों की वह मण्डली आकाश में सूर्यमण्डल के समान दिखायी दे रही थी। उन सब के बीच में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता तेजस्वी महाबाहु बलराम जी विराजमान हुए। महाराज! सब ओर से सम्मानित होते हुए नीलाम्बरधारी, गौरकान्ति बलभद्र जी राजाओं के बीच में वैसे ही शोभा पा रहे थे, जैसे रात्रि में नक्षत्रों से घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। महाराज! हाथ में गदा लिये वे दोनों दुःसह वीर एक दूसरे को अपने कठोर वचनों द्वारा पीड़ा देते हुए खड़े थे। परस्पर कटु वचनों का प्रयोग करके वे दोनों कुरुकुल के श्रेष्ठतम वीर वहाँ युद्धस्थल में वृत्रासुर और इन्द्र के समान एक दूसरे को देखते हुए युद्ध के लिये डटे रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में युद्ध का आरम्भ विषयक पचपनवां अध्याय पूरा हुआ)
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