सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the 46 chapter to the 50 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

छियालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद)

“मातृकाओं का परिचय तथा स्कन्द देव की रणयात्रा और उनके द्वारा तारकासुर, महिषासुर आदि दैत्यों का सेना सहित संहार”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- वीर नरेश! अब मैं उन मातृकाओं के नाम बता रहा हूं, जो शत्रुओं का संहार करने वाली तथा कुमार कार्तिकेय की अनुचरी हैं। भरतनन्दन! तुम उन यशस्वी मातृकाओं के नाम सुनो, जिन कल्याणकारिणी देवियों ने विभागपूर्वक तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है। कुरुवंशी! भरतकुलनन्दन! राजेन्द्र! वे नाम इस प्रकार हैं- प्रभावती, विशालाक्षी, पालिता, गोस्तनी, श्रीमती, बहुला, बहुपुत्रिका, अप्सु जाता, गोपाली, बृहदम्बालिका, जयावती, मालतिका, ध्रुवरत्ना, भयंकरी, वसुदामा, दामा, विशोका, नन्दिनी, एकचूडा, महाचूड़ा, चक्रनेमि, उत्तेजनी, जयत्सेना, कमलाक्षी, शोभना, शत्रुंजया, क्रोधना, शलभी, खरी, माधवी, शुभवक्त्रा, तीर्थनेमि, गीताप्रिया, कल्याणी, रुद्ररोमा, अमिताशना, मेघस्वना, भोगवती, सुभ्रू, कनकावती, अलाताक्षी, वीर्यवती, विद्युज्जिह्वा, पद्मावती, सुनक्षत्रा, कन्दरा, बहुयोजना, संतानिका, कमला, महाबला, सुदामा, बहुदामा, सुप्रभा, यशस्विनी, नृत्यप्रिया, शतोलूखलमेखला, शतघण्टा, शतानन्दा, भगनन्दा, भाविनी, वपुष्मती, चन्द्रसीता, भद्रकाली, ऋक्षाम्बिका, निष्कुटिका, वामा, चत्वरवासिनी, सुमंगला, स्वस्तिमती, बुद्धिकामा, जयप्रिया, धनदा, सुप्रसादा, भवदा, जलेश्वरी, एडी, भेडी, समेडी, वेतालजननी, कण्डूतिकालिका, देवमित्रा, वसुश्री, कोटरा, चित्रसेना, अचला, कुक्कुटिका, शंखलिका, शकुनिका, कुण्डारिका, कौकुलिका, कुम्भिका, शतोदरी, उत्क्राथिनी, जलेला, महावेगा, कंकणा, मनोजवा, कण्टकिनी, प्रघसा, पूतना; केशयन्त्री, त्रुटि, वामा, क्रोशना, तड़ित्प्रभा, मन्दोदरी, मुण्डी, मेघवाहिनी, सुभगा, लम्बिनी, लम्बा, ताम्रचूड़ा, विकाशिनी, ऊर्ध्ववेणीधरा, पिंगाक्षी, लोहमेखला, पृथुवस्त्रा, मधुलिका, मधुकुम्भा, पक्षालिका, मत्कुलिका, जरायु, जर्जरानना, ख्याता, दहदहा, धमधमा, खण्डखण्डा, पूषणा, मणिकुट्टिका, अमोघा, लम्बपयोधरा, वेणुवीणाधरा, शशोलूकमुखी, कृष्णा, खरजंघा, महाजवा, शिशुमारमुखी, श्वेता, लोहिताक्षी, विभीषणा, जटालिका, कामचरी, दीर्घजिह्वा, बलोत्कटा, कालेहिका, वामनिका, मुकुटा, लोहिताक्षी, महाकाया, हरिपिण्डा, एकत्वचा, सुकुसुमा, कृष्णकर्णी, क्षुरकर्णी, चतुष्कर्णी, कर्णप्रावरणा, चतुष्पथनिकेता, गोकर्णी, महिषानना, खरकर्णी, महाकर्णी, भेरीस्वना, महास्वना, शंखश्रवा, कुम्भश्रवा, भगदा, महाबला, गणा, सुगणा, अभीति, कामदा, चतुष्पथरता, भूतितीर्था, अन्यगोचरी, पशुदा, वित्तदा, सुखदा, महायशा, पयोदा, गोदा, महिषदा, सुविशाला, प्रतिष्ठा, सुप्रतिष्ठा, रोचमाना, सुरोचना, नौकर्णी, मुखकर्णी, विशिरा, मन्थिनी, एकचन्द्रा, मेघकर्णा, मेघमाला और विरोचना।

      भरतश्रेष्ठ! ये तथा और भी नाना रूपधारिणी बहुत सी सहस्रों मातृकाएं हैं, जो कुमार कार्तिकेय का अनुसरण करती हैं। भरतनन्दन! इनके नख, दांत और मुख सभी विशाल हैं। ये सबला, मधुरा (सुन्दरी), युवावस्था से सम्पन्न तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं। इनकी बड़ी महिमा है। ये अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाली हैं। इनमें से कुछ माताृकाओं के शरीर केवल हड्डियों के ढांचे हैं। उनमें मांस का पता नहीं है। कुछ श्वेत वर्ण की हैं और कितनों की ही अंगकान्ति सुवर्ण के समान है। भरतश्रेष्ठ! कुछ मातृकाएं कृष्ण मेघ के समान काली तथा कुछ धूम्रवर्ण की हैं। कितनों की कान्ति अरुण वर्ण की है। वे सभी महान भोगों से सम्पन्न हैं। उनके केश बड़े-बड़े और वस्त्र उज्ज्वल हैं। वे ऊपर की ओर वेणी धारण करने वाली, भूरी आंखों से सुशोभित तथा लम्बी मेखला से अलंकृत हैं। उनमेें से किन्हीं के उदर, किन्हीं के कान तथा किन्हीं के दोनों स्तन लंबे हैं। कितनों की आंखें तांबे के समान लाल रंग की हैं। कुछ मातृकाओं के शरीर की कान्ति भी ताम्रवर्ण की हैं। बहुतों की आंखें काले रंग की हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद)

      वे वर देने में समर्थ, अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाली और सदा आनन्द में निमग्न रहने वाली हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतश्रेष्ठ! उन मातृकाओं में से कुछ यम की शक्तियां हैं, कुछ रुद्र की। कुछ सोम की शक्तियां हैं और कुछ कुबेर की। वे सबकी सब महान बल से सम्पन्न हैं। इसी तरह कुछ वरुण की, कुछ देवराज इन्द्र की, कुछ अग्नि, वायु, कुमार, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य तथा भगवान वराह की महाबलशालिनी शक्तियां हैं, जो रूप में अप्सराओं के समान मनोहारिणी और मनोरमा हैं। वे मीठी वाणी बोलने में कोयल और धनसमृद्धि में कुबेर के समान हैं। युद्ध में इन्द्र के सदृश पराक्रम प्रकट करने वाली तथा अग्नि के समान तेजस्विनी हैं। युद्ध छिड़ जाने पर वे सदा शत्रुओं के लिये भयदायिनी होती हैं। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली तथा वायु के समान वेगशालिनी हैं। उनके बल, वीर्य और पराक्रम अचिन्त्य हैं। वे वृक्षों, चबूतरों और चौराहों पर निवास करती हैं। गुफाएं, श्मशान, पर्वत और झरने भी उनके निवास स्थान हैं। वे नाना प्रकार के आभूषण, पुष्पहार और वस्त्र धारण करती हैं। उनके वेश नाना प्रकार के और विचित्र हैं। वे अनेक प्रकार की भाषाएं बोलती हैं। ये तथा और भी बहुत से शत्रुओं को भयभीत करने वाले गण देवेन्द्र की सम्मति से महात्मा स्कन्द का अनुसरण करने लगे।

      नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर भगवान पाकशासन ने देवद्रोहियों के विनाश के लिये कुमार कार्तिकेय को शक्ति नामक अस्त्र प्रदान किया। साथ ही उन्होंने बड़े जोर से आवाज़ करने वाला एक विशाल घंटा भी दिया, जो अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित हो रहा था। भरतश्रेष्ठ! भगवान पशुपति ने उन्हें अरुण औरर सूर्य के समान प्रकाशमान एक पताका और अपने सम्पूर्ण भूतगणों की विशाल सेना भी प्रदान की। वह भयंकर सेना धनंजय नाम से विख्यात थी। उसमें सभी सैनिक नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र, तपस्या, बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। रुद्र के समान बलशाली तीस हज़ार रुद्रगणों से युक्त वह सेना शत्रुओं के लिये अजेय थी। वह कभी भी युद्ध से पीछे हटना जानती ही नहीं थी। भगवान विष्णु ने कुमार को बल बढ़ाने वाली वैजयन्ती माला दी और उमा ने सूर्य के समान चमकीले दो निर्मल वस्त्र प्रदान किये। गंगा ने कुमार को प्रसन्नतापूर्वक एक दिव्य अैर उत्तम कमण्डलु दिया, जो अमृत प्रकट करने वाला था। बृहस्पति जी ने दण्ड प्रदान किया। गरुड़ ने विचित्र पंखों से सुशोभित अपना प्रिय पुत्र मयूर भेंट किया। अरुण ने लाल शिखा वाले अपने पुत्र ताम्रचूड (मुर्ग) को समर्पित किया, जिसका पैर ही आयुध था। राजा वरुण ने बल और वीर्य से सम्पन्न एक नाग भेंट किया और लोकस्रष्टा भगवान ब्रह्मा ने ब्रह्मणहितैषी कुमार को काला मृग चर्म तथा युद्ध में विजय का आशीर्वाद प्रदान किया। देवताओं का सेनापतित्व पाकर तेजस्वी स्कन्द अपने तेज से प्रज्वलित हो दूसरे अग्नि देव के समान सुशोभित होने लगे। तदनन्तर अपने पार्षदों तथा मातृकागणों के साथ कुमार कार्तिकेय ने देवेश्वरों को आनन्द प्रदान करते हुए दैत्यों के विनाश के लिये प्रस्थान किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 55-75 का हिन्दी अनुवाद)

      नैर्ऋतों (भूतगणों) की वह भयंकर सेना घंटा, भेरी, शंख और मृदंग की ध्वनि से गूंज रही थी। उसकी ऊंचे उठी हुई पताकाएं फहरा रही थीं। अस्त्र-शस्त्रों और पताकाओं से सम्पन्न वह विशाल वाहिनी नक्षत्रों से सुशोभित शरद काल के आकाश की भाँति शोभा पा रही थी। तदनन्तर वे देवसमूह तथा नाना प्रकार के भूतगण शान्तचित्त हो भेरी, बहुत से शंख, पटह, झांझ, क्रकच, गोश्रृंग, आडम्बर, गोमुख और भारी आवाज करने वाले नगाड़े बजाने लगे। फिर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता कुमार की स्तुति करने लगे। देव-गन्धर्व गाने और अप्सराएं नाचने लगीं। इससे प्रसन्न होकर कुमार महासेन ने देवताओं को यह वर दिया कि ‘जो आप लोगों का वध करना चाहते हैं, आपके उन समस्त शत्रुओं का मैं समरांगण में संहार कर डालूंगा’। उन सुरश्रेष्ठ कुमार से वह वर पाकर महामनस्वी देवता बड़े प्रसन्न हुए और अपने शत्रुओं को मरा हुआ ही मानने लगे। महात्मा कुमार के वर देने पर सम्पूर्ण भूत-समुदायों ने जो हर्षनाद किया, वह तीनों लोकों में गूंज उठा। तत्पश्चात विशाल सेना से घिरे हुए स्वामी महासेन युद्ध में दैत्यों का वध और देवताओं की रक्षा करने के लिये आगे बढ़े। नरेश्वर! उस समय व्यवसाय (दृढ़ निश्चय), विजय, धर्म सिद्धि लक्ष्मी, धृति और स्मृति- ये सब के सब महासेन के सैनिकों के आगे-आगे चलने लगे। वह सेना बड़ी भयंकर थी। उसने हाथों में शूल, मुद्गर, जलते हुए काठ, गदा, मुसल, नाराच, शक्ति और तोमर धारण कर रखे थे। सारी सेना विचित्र आभूषणों और कवचों से सुसज्जित थी तथा दर्पयुक्त सिंह के समान दहाड़ रही थी, उस सेना के साथ सिंहनाद करके कुमार कार्तिकेय युद्ध के लिये प्रस्थित हुए। उन्हें देखकर सम्पूर्ण दैत्य, दानव और राक्षस भय से अद्विग्न हो सारी दिशाओं में सब ओर भाग गये।

      देवता अपने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र ले उन दैत्यों का पीछा करने लगे। यह सब देखकर तेज और बल से सम्पन्न भगवान स्कन्द कुपित हो उठे और शक्ति नामक भयानक अस्त्र का बारंबार प्रयोग करने लगे। उन्होंने उसमें अपना तेज स्थापित कर दिया था और वे उस समय घी से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। महाराज! अमित तेजस्वी स्कन्द के द्वारा शक्ति का बारंबार प्रयोग होने से पृथ्वी पर प्रज्वलित उल्का गिरने लगीं। नरेश्वर! जैसे प्रलय के समय अत्यन्त भयंकर वज्र भारी गड़गड़ाहट के साथ पृथ्वी पर गिरने लगते हैं, उसी प्रकार उस समय भी भीषण गर्जना के साथ वज्रपात होने लगा। भरतश्रेष्ठ! अग्नि कुमार ने जब एक बार अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी, तब उससे कराड़ों शक्तियां प्रकट होकर गिरने लगी। इससे प्रभावशाली भगवान महासेन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने महान बल एवं पराक्रम से सम्पन्न उस दैत्यराज तारक को मार गिराया, जो एक लाख बलवान एवं वीर दैत्यों से घिरा हुआ था। साथ ही उन्होंने युद्धस्थल में आठ पदम दैत्यों से घिरे हुए महिषासुर का, दस लाख असुरों से सुरक्षित त्रिपाद का और दस निखर्व दैत्य-योद्धाओं से घिरे हुए हदोदर का भी नाना प्रकार के आयुधधारी अनुचरों सहित वध कर डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 76-97 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन! जब शत्रु मारे जाने लगे, उस समय कुमार के अनुचर दसों दिशाओं को गुंजाते हुए बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। इतना ही नहीं, वे आनन्दमग्न होकर नाचने, कूदने तथा जोर-जोर से हंसने भी लगे। राजेन्द्र! उस शक्ति नामक अस्त्र की सब ओर फैलती हुई ज्वालाओं से सारी त्रिलोकी थर्रा उठी। सहस्रों दैत्य उस शक्ति की आग में जलकर भस्म हो गये। कितने ही स्कन्द के सिंहनादों से ही डरकर अपने प्राण खो बैठे तथा कुछ देवद्रोही उनकी पताका से ही कम्पित होकर मर गये। कुछ दैत्य उनके घंटानाद से संत्रस्त होकर धरती पर बैठ गये और कुछ उनके आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गतायु होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार महाबली शक्तिशाली वीर कार्तिकेय ने समरांगण में अनेक आततायी देवद्रोहियों का संहार कर डाला। राजा बलि का महाबली पुत्र बाणासुर क्रौन्च पर्वत का आश्रय लेकर देव समूहों को कष्ट पहुँचाया करता था। उदार बुद्धि महासेन ने उस दैत्य पर भी आक्रमण किया। तब वह कार्तिकेय के भय से क्रौन्च पर्वत की शरण में जा छिपा। इससे भगवान कार्तिकेय को महान क्रोध हुआ। उन्होंने अग्नि की दी हुई शक्ति से क्रौन्च पक्षियों के कोलाहल से गूंजते हुए क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला। क्रौन्च पर्वत शालवृक्ष के तनों से भरा हुआ था। वहाँ के वानर और हाथी संत्रस्त हो उठे थे, पक्षी भय से व्याकुल होकर उड़ चले थे, सर्प धराशायी हो गये थे, गोलांगूल जाति के वानरों और रीछों के समुदाय भाग रहे थे तथा उनके चीत्कार से वह पर्वत गूंज उठा था, हरिणों के आर्तनाद से उस पर्वत का वनप्रान्त प्रतिध्वनित हो रहा था, गुफा से निकलकर सहसा भागने वाले सिंहों और शरभों के कारण वह पर्वत बड़ी शोचनीय दशा में पड़ गया था तो भी वह सुशोभित सा ही हो रहा था।

     उस पर्वत के शिखर पर निवास करने वाले विद्याधर और किन्नर शक्ति के अघातजनित शब्द से उद्विग्न होकर आकाश में उड़ गये। तत्पश्चात उस जलते हुए श्रेष्ठ पर्वत से विचित्र आभूषण और माला धारण करने वाले सैकड़ों और हज़ारों दैत्य निकल पड़े। कुमार के पार्षदों ने युद्ध में आक्रमण करके उन सब दैत्यों को मार गिराया। साथ ही भगवान कार्तिकेय ने कुपित होकर वृत्रासुर को मारने वाले देवराज इन्द्र के समान दैत्यराज के उस पुत्र को उसके छोटे भाई सहित शीघ्र ही मार डाला। शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली अग्नि पुत्र कार्तिकेय ने अपने आपको एक और अनेक रूपों में प्रकट करके शक्ति द्वारा क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला। रणभूमि में बार-बार चलायी हुई उनकी शक्ति शत्रु का संहार करके पुनः उनके हाथ में लौट आती थी। अग्नि पुत्र कार्तिकेय का ऐसा ही प्रभाव है, बल्कि इससे भी बढ़कर है। वे शौर्य की अपेक्षा उत्तरोत्तर दुगुने तेज, यश और श्री से सम्पन्न हैं। उन्होंने क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण करके सैकड़ों दैत्यों को मार गिराया। तदनन्तर भगवान स्कन्द देव देवशत्रुओं का संहार करके देवताओं से सेवित हो अत्यन्त आनन्दित हुए। भरतवंशी नरेश! तत्पश्चात दुन्दुभियां बज उठीं, शंखों की ध्वनि होने लगी, सैकड़ों और हज़ारों देवांगनाएं योगीश्वर स्कन्द देव पर उत्तम फूलों की वर्षा करने लगीं। दिव्य फूलों की सुगन्ध लेकर पवित्र वायु चलने लगी। गन्धर्व और यज्ञपरायण महर्षि उनकी स्तुति करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 98-108 का हिन्दी अनुवाद)

     कोई उनके विषय में यह निश्चय करने लगे कि ‘ये ब्रह्मा जी के पुत्र, सबके अग्रज एवं ब्रह्मयोनि सनत्कुमार हैं’। कोई उन्हें महादेव जी का, कोई अग्नि का, कोई पार्वती का, कोई कृत्तिकाओं का और कोई गंगा जी का पुत्र बताने लगे। उन महाबली योगेश्वर स्कन्द देव को लोग एक, दो, चार, सौ तथा सहस्रों रूपों में देखते और जानते हैं। राजन! यह मैंने तुम्हें कार्तिकेय के अभिषेक का प्रसंग सुनाया है। अब तुम सरस्वती के उस श्रेष्ठ तीर्थ की पावनता का वर्णन सुनो। महाराज! कुमार कार्तिकेय के द्वारा देवशत्रुओं के मारे जाने पर वह श्रेष्ठ तीर्थ दूसरे स्वर्ग के समान सुखदायक हो गया। वहीं रहकर स्वामी स्कन्द ने पृथक-पृथक ऐश्वर्य प्रदान किये। अग्नि कुमार ने अपनी सेना के मुख्य मुख्य अधिकारियों को तीनों लोक सौंप दिये। महाराज! इस प्रकार दैत्यकुलविनाशक देव सेनापति भगवान स्कन्द का उस तीर्थ में देवताओं द्वारा अभिषेक किया गया। भरतश्रेष्ठ! वह तैजस नाम का तीर्थ है, जहाँ पहले जल के स्वामी वरुणदेव का देवताओं द्वारा अभिषेक किया गया था। उस श्रेष्ठ तीर्थ में हलधारी बलराम ने स्नान करके स्कन्द देव का पूजन किया और ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र एवं आभूषण दिये। शत्रुवीरों का संहार करने वाले मधुवंशी हलधर वहाँ रात भर रहे और उस श्रेष्ठ तीर्थ का पूजन एवं उसके जल में स्नान करके हर्ष से खिल उठे। उन यदुश्रेष्ठ बलराम का मन वहाँ प्रसन्न हो गया था। राजन! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे थे, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें कह सुनाया। समागत देवताओं द्वारा किस प्रकार भगवान स्कन्द का अभिषेक हुआ और किस प्रकार बाल्यावस्था में ही वे महाबली कुमार सेनापति बना दिये गये, यह सब कुछ बता दिया गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा एवं सार स्वतोपाख्यान के प्रसंग में तारकासुर का वध विषयक छियालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

सैतालिसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“वरुण का अभिषेक तथा अग्नि तीर्थ, ब्रह्मयोनि और कुबेर तीर्थ की उत्पत्ति का प्रसंग”

     जनमेजय ने कहा ;- ब्रह्मन! आज मैंने आपके मुख से कुमार के विधिपूर्वक अभिषेक का यह अद्भुत वृत्तान्त यथार्थ रूप से और विस्तारपूर्वक सुना है। तपोधन! उसे सुनकर मैं अपने आपको पवित्र हुआ समझता हूँ। हर्ष से मेरे रोयें खड़े हो गये हैं और मेरा मन प्रसन्नता से भर गया है। कुमार के अभिषेक और उनके द्वारा दैत्यों के वध का वृत्तान्त सुनकर मुझे बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ है और पुनः मेरे मन में इस विषय को सुनने की उत्कण्ठा जाग्रत हो गयी है। साधुशिरोमणे! महाप्राज्ञ! इस तीर्थ में देवताओं ने पहले जल के स्वामी वरुण का अभिषेक किस प्रकार किया था, यह सब मुझे बताइये; क्योंकि आप प्रवचन करने में कुशल हैं।

      वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! इस विचित्र प्रसंग को यथार्थ रूप से सुनो। पूर्वकल्प की बात है, जब आदि कृतयुग चल रहा था, उस समय सम्पूर्ण देवताओं ने वरुण के पास जाकर इस प्रकार कहा,

     देवतागण बोले ;- ‘जैसे देवराज इन्द्र सदा भय से हम लोगों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी समस्त सरिताओं के अधिपति हो जाइये (और हमारी रक्षा कीजिये)। देव! मकरालय समुद्र में आपका सदा निवास स्थान होगा और यह नदीपति समुद्र सदा आपके वश में रहेगा। चन्द्रमा के साथ आपकी भी हानि और वृद्धि होगी’। तब वरुण ने उन देवताओं से कहा,

   वरूण बोले ;- ‘एवमस्तु’। इस प्रकार उनकी अनुमति पाकर सब देवता इकट्ठे होकर उन्होंने समुद्र निवासी वरुण को शास्त्रीय विधि के अनुसार जल का राजा बना दिया। जलजन्तुओं के स्वामी जलेश्वर वरुण का अभिषेक और पूजन करके सम्पूर्ण देवता अपने-अपने स्थान को ही चले गये। देवताओं द्वारा अभिषिक्त होकर महायशस्वी वरुण देवगणों की रक्षा करने वाले इन्द्र के समान सरिताओं, सागरों, नदों और सरोवरों का भी विधिपूर्वक पालन करने लगे।

      प्रलम्बासुर का वध करने वाले महाज्ञानी बलराम जी उस तीर्थ में स्नान और भाँति-भाँति के धन का दान करके अग्नि तीर्थ में गये। निष्पाप नरेश! जब शमी के गर्भ में छिप जाने के कारण कहीं अग्नि देव का दर्शन नहीं हो रहा था और सम्पूर्ण जगत के प्रकाश अथवा दृष्टि शक्ति के विनाश की घड़ी उपस्थित हो गयी, तब सब देवता सर्वलोक पितामह ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित हुए और बोले,

     देवगण बोले ;- ‘प्रभो! भगवान अग्नि देव अदृश्य हो गये हैं। इसका क्या कारण है, यह हमारी समझ में नहीं आता। सम्पूर्ण भूतों का विनाश न हो जाय, इसके लिये अग्नि देव को प्रकट कीजिये’। 

     जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! लोक भावन भगवान अग्नि क्यों अदृश्य हो गये थे और देवताओं ने कैसे उनका पता लगाया? यह यथार्थ रूप से बताइये। 

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! एक समय की बात है कि प्रतापी भगवान अग्नि देव महर्षि भृगु के शाप से अत्यन्त भयभीत हो शमी के भीतर जाकर अदृश्य हो गये। उस समय अग्नि देव के दिखायी न देने पर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता बहुत दुखी हो उनकी खोज करने लगे। तत्पश्चात अग्नि तीर्थ में आकर देवताओं ने अग्नि को शमी के गर्भ में विधिपूर्वक निवास करते देखा। नरव्याघ्र! इन्द्र सहित सब देवता बृहस्पति को आगे करके अग्नि देव के समीप आये और उन्हें देखकर बड़े प्रसन्न हुए।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)

   महाभाग! फिर वे जैसे आये थे, वैसे लौट गये और अग्नि देव महर्षि भृगु के शाप से सर्वभक्षी हो गये। उन ब्रह्मवादी मुनि ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ। उस तीर्थ में गोता लगाकर बुद्धिमान बलराम जी ब्रह्मयोनि तीर्थ में गये; जहाँ सर्वलोक पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि की थी। पूर्वकाल में देवताओं सहित भगवान ब्रह्मा ने वहाँ स्नान करके विधिपूर्वक देव तीर्थों की रचना की थी। राजन! उस तीर्थ में स्नान और नाना प्रकार के धन का दान करके बलराम जी कुबेर-तीर्थ में गये, जहाँ बड़ी भारी तपस्या करके भगवान कुबेर ने धनाध्यक्ष का पद प्राप्त किया था। नरेश्वर! वहीं उनके पास धन और निधियां पहुँच गयी थी। नरश्रेष्ठ! हलधारी बलराम ने उस तीर्थ में जाकर स्नान के पश्चात ब्रह्माणों के लिये विधिपूर्वक धन का दान किया। तत्पश्चात उन्होंने वहाँ के एक उत्तम वन में कुबेर के उस स्थान का दर्शन किया, जहाँ पूर्वकाल में महात्मा यक्षराज कुबेर ने बड़ी भारी तपस्या की और बहुत से वर प्राप्त किये। महाबाहो! धनपति कुबेर ने वहाँ अमित तेजस्वी रुद्र के साथ मित्रता, धन का स्वामित्व, देवत्व, लोकपालत्व और नलकूबर नामक पुत्र अनायास ही प्राप्त कर लिये। वहीं आकर देवताओं ने उनका अभिषेक किया तथा उनके लिये हंसों से जुता हुआ और मन के समान वेगशाली वाहन दिव्य पुष्पक विमान दिया। साथ ही उन्हें यक्षों का राजा बना दिया। राजन! उस तीर्थ में स्नान और प्रचुर दान करके श्वेत चन्दनधारी बलराम जी शीघ्रतापूर्वक बदरपाचन नामक शुभ तीर्थ में गये, जो सब प्रकार के जीव-जन्तुओं से सेवित, नाना ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न वनस्थलियों से युक्त तथा निरन्तर फूलों और फलों से भरा रहने वाला था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अनतर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा और सारस्वतोपाख्यान विषयक सैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“बदरपाचन तीर्थ की महिमा के प्रसंग में श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! पहले कहा गया है कि वहाँ से बलराम जी बदरपाचन नामक श्रेष्ठ तीर्थ में गये, जहाँ तपस्वी और सिद्ध पुरुष विचरण करते हैं तथा जहाँ पूर्वकाल में उत्तम व्रत धारण करने वाली भरद्वाज की ब्रह्मचारिणी पुत्री कुमारी कन्या श्रुतावती, जिसके रूप और सौन्दर्य की भूमण्डल में कहीं तुलना नहीं थी, निवास करती थी। वह भामिनी बहुत से नियमों को धारण करके वहाँ अत्यन्त उग्र तपस्या कर रही थी। उसने अपनी तपस्या का यही उद्देश्य निश्चित कर लिया था कि देवराज इन्द्र मेरे पति हों। कुरुकुलभूषण! स्त्रियों के लिये जिनका पालन अत्यन्त दुष्कर और दुःसह है, उन-उन कठोर नियमों का पालन करती हुई श्रुतावती के वहाँ अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। प्रजानाथ! उसके उस आचरण, तपस्या तथा पराभक्ति से भगवान पाकशासन (इन्द्र) बड़े प्रसन्न हुए। वे शक्तिशाली देवराज ब्रह्मर्षि महात्मा वसिष्ठ का रूप धारण करके उसके आश्रम पर आये। भरतनन्दन! उसने तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ और उग्र तपस्या परायण वसिष्ठ को देखकर मुनिजनोचित आचारों द्वारा उनका पूजन किया। फिर नियमों का ज्ञान रखने वाली और मधुर एवं प्रिय वचन बोलने वाली कल्याणमयी श्रुतावती ने इस प्रकार कहा,

     श्रुतावती बोली ;- ‘भगवन! मुनिश्रेष्ठ! प्रभो! मेरे लिये क्या आज्ञा है? सुव्रत! आज मैं यथा शक्ति आपको सब कुछ दूंगी; परंतु इन्द्र के प्रति अनुराग रखने के कारण अपना हाथ आपको किसी प्रकार नहीं दे सकूंगी। तपोधन! मुझे अपने व्रतों, नियमों तथा तपस्या द्वारा त्रिभुवन सम्राट भगवान इन्द्र को ही संतुष्ट करना है’।

     भारत! श्रुतावती के ऐसा कहने पर भगवान इन्द्र ने मुस्कराते हुए से उसकी ओर देखा और उसके नियम को जानकर उसे सान्त्वना देते हुए से कहा,

     इंद्रदेव बोले ;- ‘सुव्रते! मैं जानता हूँ तुम बड़ी उग्र तपस्या कर रही हो। कल्याणि! सुमुखि! जिस उद्देश्य से तुमने यह अनुष्ठान आरम्भ किया है और तुम्हारे हृदय में जो संकल्प है, वह सब यथार्थ रूप से सफल होगा। शुभानने! तपस्या से सब कुछ प्राप्त होता है। तुम्हारा मनोरथ भी यथावत रूप से सिद्ध होगा। देवताओं के जो दिव्य स्थान हैं, वे तपस्या से प्राप्त होने वाले हैं। महान सुख का मूल कारण तपस्या ही है। कल्याणि! इस उद्देश्य से मनुष्य घोर तपस्या करके अपने शरीर को त्याग कर देवत्व प्राप्त कर लेते हैं। अच्छा, अब तुम मेरी एक बात सुनो। सुभगे! शुभव्रते! ये पांच बेर के फल हैं। तुम इन्हें पका दो।’ ऐसा कहकर भगवान इन्द्र कल्याणी श्रुतावती से पूछकर उस आश्रम से थोड़ी ही दूर पर स्थित उत्तम तीर्थ में गये और वहाँ स्नान करके जप करने लगे। मानद! वह तीर्थ तीनों लोकों में इन्द्र-तीर्थ के नाम से विख्यात है। देवराज भगवान पाकशासन ने उस कन्या के मनोभाव की परीक्षा लेने के लिये उन बेर के फलों को पकने नहीं दिया। राजन! तदनन्तर शौचाचार से सम्पन्न उस तपस्विनी ने थकावट से रहित हो मौन भाव से उन फलों को आग पर चढ़ा दिया। नृपश्रेष्ठ! फिर वह महाव्रता कुमारी बड़ी तत्परता के साथ उन बेर के फलों को पकाने लगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)

       पुरुषप्रवर! उन फलों को पकाते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया, परंतु वे फल पक न सके। इतने में ही दिन समाप्त हो गया। उसने जो ईधन जमा कर रखे थे, वे सब आग में जल गये। तब अग्नि को ईधन रहित देख उसने अपने शरीर को जलाना आरम्भ किया। निष्पाप नरेश! मनोहर दिखायी देने वाली उस कन्या ने पहले अपने दोनों पैर आग में डाल दिये। वे ज्यों-ज्यों जलने लगे, त्यों-ही-त्यों वह उन्हें आग के भीतर बढ़ाती गयी। उस साध्वी ने अपने जलते हुए चरणों की कुछ भी परवा नहीं की। वह महर्षि का प्रिय करने की इच्छा से दुष्कर कार्य कर रही थी। उसके मन में तनिक भी उदासी नहीं आयी। मुख की कान्ति में भी कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह अपने शरीर को आग में जलाकर भी ऐसी प्रसन्न थी, मानो जल के भीतर खड़ी हो। भारत! उसके मन में निरन्तर इसी बात का चिन्तन होता रहता था कि ‘इन बेर के फलों को हर तरह से पकाना है’। भरतनन्दन! महर्षि के वचन को मन में रख कर वह शुभ लक्षणा कन्या उन बेरों को पकाती ही रही, परंतु वे पक न सके। भगवान अग्नि ने स्वयं ही उसके दोनों पैरों को जला दिया, तथापि उस समय उसके मन में थोड़ा सा भी दुःख नहीं हुआ। उसका यह कर्म देख कर त्रिभुवन के स्वामी इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने उस कन्या को अपना यथार्थ रूप दिखाया। इसके बाद सुरश्रेष्ठ इन्द्र ने दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली उस कन्या से इस प्रकार कहा,

      इन्द्रदेव बोले ;- ‘शुभे! मैं तुम्हारी तपस्या, नियम पालन और भक्ति से बहुत संतुष्ट हूँ। अतः कल्याणि! तुम्हारे मन में जो अभीष्ट मनोरथ है, वह पूर्ण होगा। महाभागे! तुम इस शरीर का परित्याग करके स्वर्ग लोक में मेरे पास रहोगी। सुभ्रु! तुम्हारा यह श्रेष्ठ तीर्थ इस जगत में सुस्थिर होगा, बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला होगा।

    यह तीनों लोकों में विख्यात है। बहुत से ब्रह्मर्षियों ने इस में स्नान किया है। पाप रहित महाभागे! एक समय सप्तर्षिगण इस मंगलमय श्रेष्ठ तीर्थ में अरुन्धती को छोड़ कर हिमालय पर्वत पर गये थे। वहाँ पहुँच कर कठोर व्रत का पालन करने वाले वे महाभाग महर्षि जीवन-निर्वाह के निमित्त फल-मूल लाने के लिये वन में गये। जीविका की इच्छा से जब वे हिमालय के वन में निवास करते थे, उन्हीं दिनों बारह वर्षों तक इस देश में वर्षा ही नहीं हुई। वे तपस्वी मुनि वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय कल्याणी अरुन्धती भी प्रतिदिन तपस्या में ही लगी रही। अरुन्धती को कठोर नियम का आश्रय लेकर तपस्या करती देख त्रिनेत्रधारी वरदायक भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे महायशस्वी महादेव जी ब्राह्मण का रूप धारण करके उनके पास गये और बोले,

    महादेव बोले ;- ‘शुभे! मैं भिक्षा चाहता हूं’। तब परम सुन्दरी अरुन्धती ने उन ब्राह्मण देवता से कहा,

     अरुन्धती बोली ;- ‘विप्रवर! अन्न का संग्रह तो समाप्त हो गया। अब यहाँ ये बेर हैं, इन्हीं को खाइये’। 

     तब महादेव जी ने कहा ;- ‘सुव्रते! इन बेरों को पका दो।’ उनके इस प्रकार आदेश देने पर यशस्विनी अरुन्धती ने ब्राह्मण का प्रिय करने की इच्छा से उन बेरों को प्रज्वलित अग्नि पर रखकर पकाना आरम्भ किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)

     उस समय उसे परम पवित्र मनोहर एवं दिव्य कथाएं सुनायी देने लगीं। वह बिना खाये ही बेर पकाती और मंगलमयी कथाएं सुनती रही। इतने में ही बारह वर्षों की वह भयंकर अनावृष्टि समाप्त हो गयी। वह अत्यन्त दारुण समय उसके लिये एक दिन के समान व्यतीत हो गया। तदनन्तर सप्तर्षिगण हिमालय पर्वत से फल लेकर वहाँ आये। उस समय भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर अरुन्धती से कहा,

     भगवान शंकर ने कहा ;- ‘धर्मज्ञे! अब तुम पहले के समान इन ऋषियों के पास जाओ! धर्म को जानने वाली देवि! मैं तुम्हारी तपस्या और नियम से बहुत प्रसन्न हूं’। ऐसा कहकर भगवान शंकर ने अपने स्वरूप का दर्शन कराया और उन सप्तर्षियों से अरुन्धती के महान चरित्र का वर्णन किया। 

     वे बोले (महादेव) ;- विप्रवरों! आप लोगों ने हिमालय के शिखर पर रहकर जो तपस्या की है और अरुन्धती ने यहीं रहकर जो तप किया है, इन दोनों में कोई समानता नहीं है (अरुन्धती का ही तप श्रेष्ठ है)। इस तपस्विनी ने बिना कुछ खाये-पीये बेर पकाते हुए बारह वर्ष बिता दिये हैं। इस प्रकार इसने दुष्कर तप का उपार्जन कर लिया है। इसके बाद भगवान शंकर ने पुनः अरुन्धती से कहा,

     भगवान शंकर ने कहा ;- 'कल्याणि! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, उसके अनुसार कोई वर मांग लो’। तब विशाल एवं अरुण नेत्रों वाली अरुन्धती ने सप्तर्षियों की सभा में महादेव जी से कहा,

    अरुन्धती ने कहा ;- ‘भगवान यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह स्थान बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सिद्धों और देवर्षियों का प्रिय एवं अदभुत तीर्थ हो जाय।

     देवदेवेश्वर! इस तीर्थ में तीन रात तक पवित्र भाव से रहकर वास करने से मनुष्य को बारह वर्षों के उपवास का फल प्राप्त हो। तब महादेव जी ने उस तपस्विनी से कहा,

    महादेव जी ने कहा ;- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। फिर सप्तर्षियों ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात महादेव जी अपने लोक में चले गये। अरुन्धती भूख-प्यास से युक्त होने पर भी न तो थकी थी और न उसकी अंगकान्ति ही फीकी पड़ी थी। उसे देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कठोर व्रत का पालन करने वाली महाभागे! इस प्रकार विशुद्ध हृदया अरुन्धती देवी ने यहाँ परम सिद्धि प्राप्त की थी, जैसी कि तुमने मेरे लिये तप करके सिद्धि पायी है। भद्रे! तुमने इस व्रत में विशेष आत्मसमर्पण किया है। सती कल्याणि! मैं तुम्हारे नियम से संतुष्ट होकर यह विशेष वर प्रदान करता हूँ। ‘कल्याणि! महात्मा भगवान शंकर ने अरुन्धती देवी को जो वर दिया था, तुम्हारे तेज और प्रभाव से मैं उससे भी बढ़कर उत्तम वर देता हूँ। जो इस तीर्थ में एकाग्रचित्त होकर एक रात निवास करेगा, वह यहाँ स्नान करके देह-त्याग के पश्चात उन पुण्य लोकों में जायगा, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं’। पुण्यमयी श्रुतावती से ऐसा कहकर सहस्र नेत्रधारी प्रतापी भगवान इन्द्रदेव पुनः स्वर्गलोक में चले गये। राजन! भरतश्रेष्ठ! वज्रधारी इन्द्र के चले जाने पर वहाँ पवित्र सुगन्ध वाले दिव्य पुष्पों की वर्षा होनी लगी और महान शब्द करने वाली देवदुन्दुभियां बज उठीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 62-68 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रजानाथ! पावन सुगंध से युक्त पवित्र वायु चलने लगी। शुभलक्षणा श्रुतावती अपने शरीर को त्याग कर इन्द्र की भार्या हो गयी। अच्युत! वह अपनी उग्र तपस्या से इन्द्र को पाकर उनके साथ रमण करने लगी।

     जनमेजय ने पूछा ;- भगवन! शोभामयी श्रुतावती की माता कौन थी और वह कहाँ पली थी? यह मैं सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा हो रही है।

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! एक दिन विशाल नेत्रों वाली घृताची अप्सरा कहीं से आ रही थी। उसे देखकर महात्मा महर्षि भरद्वाज का वीर्य स्खलित हो गया। जप करने वालों में श्रेष्ठ ऋषि ने उस वीर्य को अपने हाथ में ले लिया, परंतु वह तत्काल ही एक पत्ते के दोने में गिर पड़ा? वहीं वह कन्या प्रकट हो गयी। तपस्या के धनी धर्मात्मा महामुनि भरद्वाज ने उसके जात कर्म आदि सब संस्कार करके देवर्षियों की सभा में उसका नाम श्रुतावती रख दिया। फिर वे उस कन्या को अपने आश्रम में रखकर हिमालय के जंगल में चले गये थे। वृष्णिवंशावतंस महानुभाव बलराम जी उस तीर्थ में भी स्नान और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को धन का दान करके उस समय एकाग्रचित्त हो वहाँ से इन्द्र-तीर्थ में चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेव जी की तीर्थ यात्रा और सारस्वतोपाख्यान के प्रसंग में बदरपाचन तीर्थ का वर्णन विषयक अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

उनचासवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनपन्चाश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्र तीर्थ, राम तीर्थ, यमुना तीर्थ और आदित्य तीर्थ की महिमा”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! वहाँ से इन्द्र तीर्थ में जाकर स्नान करके यदुकुलतिलक बलराम जी ने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन और रत्नों का दान किया। उस तीर्थ में देवेश्वर देवराज इन्द्र ने सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था और बृहस्पति जी को प्रचुर धन दिया था। नाना प्रकार की दक्षिणाओं से युक्त एवं पुष्ट उन सभी शास्त्रोक्त यज्ञों को इन्द्र ने वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ बिना किसी विघ्न-बाधा के वहाँ पूर्ण कर लिया। भरतश्रेष्ठ! महातेजस्वी इन्द्र ने उन यज्ञों को सौ बार विधिपूर्वक पूर्ण किया, इसलिये इन्द्र शतक्रतु नाम से विख्यात हो गये। उन्हीं के नाम से वह सर्वपापापहारी, कल्याणकारी एवं सनातन पुण्य तीर्थ ‘इन्द्रतीर्थ, कहलाने लगा।

    मुसलधारी बलराम जी वहाँ भी विधिपूर्वक स्नान तथा उत्तम भोजन-वस्त्र द्वारा ब्राह्मणों का पूजन करके वहाँ से शुभ तीर्थप्रवर रामतीर्थ में चले गये। जहाँ महातपस्वी भृगुवंशी महाभाग परशुराम जी ने बारंबार क्षत्रिय नरेशों का संहार करके इस पृथ्वी को जीतने के पश्चात मुनिश्रेष्ठ कश्यप को आचार्य रूप से आगे रखकर वाजपेय तथा एक सौ अश्वमेध यज्ञ द्वारा भगवान का पूजन किया और दक्षिणा रूप में समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी दे दी। नाना प्रकार के रत्न, गौ, हाथी, दास, दासी और भेड़ बकरों सहित अनेक प्रकार के दान देकर वे वन में चले गये।

     पृथ्वीनाथ! देवताओं और ब्रह्मर्षियों से सेवित उस उत्तम पुण्यमय तीर्थ में मुनियों को प्रणाम करके बलराम जी यमुना तीर्थ में आये, जहाँ अदिति के महाभाग पुत्र गौरकान्ति वरुण जी ने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले वरुण ने संग्राम में मनुष्यों और देवताओं को जीत कर उस श्रेष्ठ यज्ञ का आयोजन किया था। राजन! वह श्रेष्ठ यज्ञ समाप्त होने पर देवताओं और दानवों में घोर संग्राम हुआ था, जो तीनों लोकों के लिये भयंकर था। जनमेजय! क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान पूर्ण हो जाने पर उस देश के क्षत्रियों में महाभयंकर संग्राम हुआ करता है। सबकी इच्छा पूर्ण करने वाले भगवान हलधर ने उस तीर्थ में भी स्नान एवं ऋषियों का पूजन करके अन्य याचकों को भी धन दान किया।

     तदनन्तर महर्षियों के मुख से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न हुए वनमालाधारी कमलनयन बलराम वहाँ से आदित्य तीर्थ में गये। नृपश्रेष्ठ! वहीं यज्ञ करके ज्योतिर्मय भगवान भास्कर ने ज्योतियों का आधिपत्य एवं प्रभुत्व प्राप्त किया था। प्रजानाथ! उसी नदी के तट पर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता, विश्वेदेव, मरुद्रण, गन्धर्व, अप्सराएं, द्वैपायन व्यास, शुकदेव, मधुसूदन श्रीकृष्ण, यक्ष, राक्षस एवं पिशाच- ये तथा और भी बहुत से पुरुष सहस्रों की संख्या में योग सिद्ध हो गये हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतश्रेष्ठ! सरस्वती के उस परम उत्तम कल्याणकारी पुण्यतीर्थ में पहले मधु और कैटभ नामक असुरों का वध करके भगवान विष्णु ने स्नान किया था। भारत! इसी प्रकार धर्मात्मा द्वैपायन व्यास ने भी उसी तीर्थ में गोता लगाया था। इससे उन्होंने परम योग को पाकर उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली। महातपस्वी असित, देवल ऋषि ने उसी तीर्थ में परम योग का आश्रय ले योग सिद्धि पायी थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सारस्वतोपाख्यान विषयक उनचासवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

पचासवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“आदित्य तीर्थ की महिमा के प्रसंग में असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि का चरित्र”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! प्राचीन काल की बात है, उसी तीर्थ में तपस्या के धनी धर्मात्मा असित देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर निवास करते थे। वे सदा धर्मपरायण, पवित्र, जितेन्द्रिय, किसी को भी दण्ड न देने वाले, महातपस्वी तथा मन, वाणी और क्रिया द्वारा सभी जीवों के प्रति समान भाव रखने वाले थे। महाराज! उनमें क्रोध नहीं था। वे अपनी निन्दा और स्तुति को समान समझते थे। प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में उनकी चित्तवृत्ति एक सी रहती थी। वे यमराज की भाँति सबके प्रति सम दृष्टि रखते थे। सोना हो या मिट्टी का ढेला, महातपस्वी देवल दोनों को समान दृष्टि से देखते थे और प्रतिदिन देवताओं तथा ब्राह्मणों सहित अतिथियों का पूजन एवं आदर-सत्कार करते थे। वे मुनि सदा ब्रह्मचर्य पालन में तत्पर रहते थे। उन्हें सब समय धर्म का ही सबसे बड़ा सहारा था। महाभाग! एक दिन बुद्धिमान जैगीषव्य मुनि जो संन्यासी थे, योग का आश्रय लेकर उस तीर्थ में आये और एकाग्रचित्त होकर वहाँ रहने लगे। राजन! महाराज! वे महातेजस्वी और महातपस्वी जैगीषव्य सदा योगपरायण रहकर सिद्धि प्राप्त कर चुके थे तथा देवल के ही आश्रम में रहते थे। यद्यपि महामुनि जैगीषव्य उस आश्रम में ही रहते थे तथापि देवल मुनि उन्हें दिखाकर धर्मतः योग-साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहाँ रहते हुए बहुत समय बीत गया।

     जनमेजय! तदनन्तर कुछ काल तक ऐसा हुआ कि देवल मुनिवर जैगीषव्य को हर समय नहीं देख पाते थे। धर्म के ज्ञाता बुद्धिमान संन्यासी जैगीषव्य केवल भोजन या भिक्षा लेने के समय देवल के पास आते थे। भारत! संन्यासी के रूप में वहाँ आये हुए महामुनि जैगीषव्य को देखकर देवल उनके प्रति अत्यन्त गौरव और महान प्रेम प्रकट करते तथा यथाशक्ति शास्त्रीय विधि से एकाग्रचित्त हो उनका पूजन (आदर-सत्कार) किया करते थे। बहुत वर्षों तक उन्होंने ऐसा ही किया। नरेश्वर! एक दिन महातेजस्वी जैगीषव्य मुनि को देखकर महात्मा देवल के मन में बड़ी भारी चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा, ‘इनकी पूजा करते हुए मुझे बहुत वर्ष बीत गये; परंतु ये आलसी भिक्षु आज तक एक बात भी नहीं बोले’। यही सोचते हुए श्रीमान देवल मुनि कलश हाथ में लेकर आकाश मार्ग से समुद्र तट की ओर चल दिये। भारत! नदीपति समुद्र के पास पहुँचते ही धर्मात्मा देवल ने देखा कि जैगीषव्य वहाँ पहले से ही गये हैं। तब तो अमित तेजस्वी महर्षि असित देवल को चिन्ता के साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ। वे सोचने लगे, ‘ये भिक्षु यहाँ पहले ही कैसे आ पहुँचे? इन्होंने तो समुद्र में स्नान का कार्य भी पूर्ण कर लिया’। जनमेजय! फिर उन्होंने समुद्र में विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो अपने योग्य मन्त्र का जप किया। जप आदि नित्य कर्मपूर्ण करके श्रीमान देवल जल से भरा हुआ कलश लेकर अपने आश्रम पर आये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-42 का हिन्दी अनुवाद)

   आश्रम में प्रवेश करते ही देवल मुनि ने वहाँ बैठे हुए जैगीषव्य को देखा, परंतु जैगीषव्य ने उस समय भी किसी तरह उनसे बात नहीं की। वे महातपस्वी मुनि आश्रम पर काष्ठमौन होकर बैठे हुए थे। राजन! समुद्र के समान अत्यन्त प्रभावशाली मुनि को समुद्र के जल में स्नान करके अपने से पहले ही आश्रम में प्रविष्ट हुआ देख बुद्धिमान असित देवल को पुनः बड़ी चिन्ता हुई। राजेन्द्र! जैगीषव्य की तपस्या का वह योग जनित प्रभाव देखकर ये मुनिश्रेष्ठ देवल फिर सोचने लगे- ‘मैंने इन्हें अभी-अभी समुद्र तट पर देखा है, फिर ये आश्रम में कैसे उपस्थित हैं?’ प्रजानाथ! ऐसा विचार करते हुए वे मन्त्रशास्त्र के पारंगत विद्वान मुनि उस आश्रम से आकाश ही ओर उड़ चले। उस समय भिक्षु जैगीषव्य की परीक्षा लेने के लिये उन्होंने ऐसा किया। ऊपर जाकर उन्होंने बहुत से अन्तरिक्षचारी एकाग्र चित्त वाले सिद्धों को देखा। साथ ही उन सिद्धों के द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनि का भी उन्हें दर्शन हुआ। तदनन्तर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले दृढ़ निश्चयी असित देवल मुनि रोषावेश में भर गये। फिर उन्होंने जैगीषव्य को स्वर्ग लोक में जाते देखा। स्वर्ग लोक से उन्हें पितृलोक में और पितृलोक से यमलोक में जाते देखा। वहाँ से भी ऊपर उठकर महामुनि जैगीषव्य जलमय चन्द्रलोक में जाते दिखायी दिये। फिर वे एकान्ततः यज्ञ करने वाले पुरुषों के उत्तम लोकों की ओर उड़ते दिखायी दिये। वहाँ से वे अग्निहोत्रियों के लोकों मेें गये। उन लोकों से ऊपर उठकर वे बुद्धिमान मुनि उन तपोधनों के लोक में गये, जो दर्श और पौर्णमास यज्ञ करते हैं।

     वहाँ से वे पशुयाग करने वालों के लोकों में जाते दिखायी दिये। जो तपस्वी नाना प्रकार के चातुर्मास यज्ञ करते हैं, उनके निर्मल लोकों में जाते हुए जैगीषव्य को देवल मुनि ने देखा। वे वहाँ देवताओं से पूजित हो रहे थे। वहाँ से अग्निष्टोमया जी तथा अग्निष्टुत यज्ञ के द्वारा यज्ञ करने वाले तपोधनों के लोक में पहुँचे हुए जैगीषव्य को देवल मुनि ने देखा। जो महाप्राज्ञ पुरुष बहुत सी सुवर्णमयी दक्षिणाओं से युक्त क्रतुश्रेष्ठ वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी उन्होंने जैगीषव्य का दर्शन किया। जो राजसूय पुण्डरीक यज्ञ के द्वारा यजन करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य को देखा। जो नरश्रेष्ठ क्रतुओं में उत्तम अश्वमेध तथा नरमेध का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी उनका दर्शन किया। जो लोग दुर्लभ सर्वमेध तथा सौत्रामणि यज्ञ करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य को देखा। नरेश्वर! जो नाना प्रकार के द्वादशाह यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य का दर्शन किया। तत्पश्चात असित ने मित्र, वरुण और आदित्यों के लोकों में पहुँचे हुए जैगीषव्य को देखा। तदनन्तर रुद्र, वसु और बृहस्पति के जो स्थान हैं, उन सब को लांघ कर ऊपर उठे हुए जैगीषव्य का असित देवल ने दर्शन किया। इसके बाद असित ने गौओं के लोक में जाकर जैगीषव्य को ब्रह्मसत्र करने वालों के लोकों में जाते देखा। तत्पश्चात देवल ने देखा कि विप्रवर जैगीषव्य मुनि अपने तेज से ऊपर-ऊपर के तीन लोकों को लांघ कर पतिव्रताओं के लोक में जा रहे हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद)

      शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश! इसके बाद असित ने मुनिवर जैगीषव्य को पुनः किसी लोक में स्थित नहीं देखा। वे अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात महाभाग देवल ने जैगीषव्य के प्रभाव, उत्तम व्रत और अनुपम योग सिद्धि के विषय में विचार किया। इसके बाद धैर्यवान असित ने उन लोकों में रहने वाले ब्रह्माजी सिद्धों और साधु पुरुषों से हाथ जोड़कर विनीत भाव से पूछा,

    देवल जी बोले ;- ‘महात्माओं! मैं महातेजस्वी जैगीषव्य को अब देख नहीं रहा हूँ। आप उनका पता बतावें। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है’। 

   सिद्धों ने कहा ;- दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले देवल! सुनो। हम तुम्हें वह बात बता रहे हैं, जो हो चुकी है। जैगीषव्य मुनि सनातन ब्रह्मलोक में जा पहुँचे हैं। 

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! उन ब्रह्मयाजी सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि तुरंत ऊपर की ओर उछले, परंतु नीचे गिर पड़े। तब उन सिद्धों ने पुनः देवल से कहा,

     सिध्दों ने कहा ;- ‘तपोधन देवल! विप्रवर! जहाँ जैगीषव्य गये हैं, उस ब्रह्मलोक में जाने की शक्ति तुममें नहीं है’। 

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! उन सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि पुनः क्रमशः उन सभी लोकों में होते हुए नीचे उतर आये। पक्षी की तरह उड़ते हुए वे अपने पुण्यमय आश्रम पर आ पहुँचे। आश्रम के भीतर प्रवेश करते ही देवल ने जैगीषव्य मुनि को वहाँ बैठा देखा। तब देवल ने जैगीषव्य की तपस्या का वह योगजनित प्रभाव देखकर धर्म युक्त बुद्धि से उस पर विचार किया।

    राजन! इसके बाद महामुनि महात्मा जैगीषव्य के पास जाकर देवल ने विनीत भाव से कहा,

    देवल ने कहा ;- ‘भगवन! मैं मोक्ष धर्म का आश्रय लेना चाहता हूँ।’ उनकी वह बात सुनकर महातपस्वी जैगीषव्य ने उनका संन्यास लेने का विचार जानकर उन्हें ज्ञान का उपदेश किया। साथ ही योग की उत्तम विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रीय विधि के अनुसार उनके संन्यास ग्रहण सम्बन्धी समस्त कार्य (दीक्षा और सस्कार आदि) किये। उनका संन्यास लेने का विचार जानकर पितरों सहित समस्त प्राणी यह कहते हुए रोने लगे ‘कि अब हमें कौन विभागपूर्वक अन्नदान करेगा। दसों दिशाओं में विलाप करते हुए उन प्राणियों का करुणा युक्त वचन सुनकर देवल ने मोक्ष धर्म (संन्यास) को त्याग देने को विचार किया। भारत! यह देख फल-मूल, पवित्री (कुश), पुष्प और ओषधियां- ये सहस्रों पदार्थ यह कहकर बरंबार रोने लगे कि ‘यह खोटी बुद्धि वाला क्षुद्र देवल निश्चय ही फिर हमारा उच्छेद करेगा। तभी तो यह सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देकर भी अब अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण नहीं करता है’। तब मुनि श्रेष्ठ देवल पुनः अपनी बुद्धि से विचार करने लगे, मोक्ष ओर गार्हस्थ्य धर्म इनमें से कौन सा मेरे लिये श्रेयस्कर होगा। नृपश्रेष्ठ! देवल ने मन ही मन इस बात पर निश्चित विचार करके गार्हस्थ्य धर्म को त्याग कर अपने लिये मोक्ष धर्म को पसंद किया। भारत! इन सब बातों को सोच-विचार कर देवल ने जो संन्यास लेने का ही निश्चय किया, उससे उन्होंने परम सिद्धि और उत्तम योग को प्राप्त कर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 64-69 का हिन्दी अनुवाद)

   तब बृहस्पति आदि सब देवता और तपस्वी वहाँ आकर जैगीषव्य मुनि के तप की प्रशंसा करने लगे। तदनन्तर मुनि श्रेष्ठ नारद ने देवताओं से कहा,

    नारद जी ने कहा ;- ‘जैगीषव्य में तपस्या नहीं है; क्योंकि ये असित मुनि को अपना प्रभाव दिखाकर आश्चर्य में डाल रहे हैं’। ऐसा कहने वाले ज्ञानी नारद मुनि को देवताओं ने महामुनि जैगीषव्य की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया,

     देवता बोले ;- ‘आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये; क्योंकि प्रभाव, तेज, तपस्या और योग की दृष्टि से इन महात्मा से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है’। धर्मात्मा जैगीषव्य तथा असित मुनि का ऐसा ही प्रभाव था। उन दोनों महात्माओं का यह श्रेष्ठ स्थान ही तीर्थ है। पारमार्थिक कर्म करने वाले महात्मा हलधर वहाँ भी स्नान करके ब्राह्मणों को धन-दान दे धर्म का फल पाकर सोम के महान एवं उत्तम तीर्थ में गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक पचासवां अध्याय पूरा हुआ)


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