सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के इकतालीसवें अध्याय से पैतालीसवें अध्याय तक (From the 36 chapter to the 40 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“अवाकीर्ण और यायात तीर्थ की महिमा के प्रसंग में दाल्भ्य की कथा और ययाति के यज्ञ का वर्णन”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! ब्राह्मणत्व की प्राप्ति कराने वाले उस तीर्थ से प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलराम जी अवाकीर्ण तीर्थ में गये, जहाँ आश्रम में रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दल्भ पुत्र बक ने महान क्रोध में भरकर घोर तपस्या द्वारा अपने शरीर को सुखाते हुए विचित्र वीर्य कुमार राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र का होम कर दिया था। पूर्व काल में नैमिषारण्य निवासी ऋषियों ने बारह वर्षों तक चालू रहने वाले एक सत्र का आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित नामक यज्ञ के अन्त में पाञ्चाल देश में गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियों ने उस देश के राजा से दक्षिणा के लिये धन की याचना की। राजन! वहाँ महर्षियों ने पाञ्चालों से इक्कीस बलवान और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उन में से दल्भ पुत्र बक ने अन्य सब ऋषियों से कहा- ‘आप लोग इन पशुओं को बांट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजा से दूसरे पशु मांग लूंगा’।

      नरेश्वर! उन सब ऋषियों से ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्र के घर पर गये। निकट जाकर दाल्भ्य ने कौरव नरेश धृतराष्ट्र से पशुओं की याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएं दैवेच्छा से मर गयी थीं। उन्हीं को लक्ष्य करके राजा ने क्रोध पूर्वक कहा,

    धृतराष्ट्र ने कहा ;- ‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओं को ही शीघ्र ले जाओ’। उनकी वैसी बात सुन कर धर्मज्ञ ऋषि ने चिन्तामग्न होकर सोचा- ‘अहो! बड़े खेद की बात है कि इस राजा ने भरी सभा में मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’। दो घड़ी तक इस प्रकार चिन्ता करके रोष में भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्य ने राजा धृतराष्ट्र के विनाश का विचार किया। वे मुनि श्रेष्ठ उन मृत पशुओं के ही मांस काट-काट कर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र की ही आहुति देने लगे। महाराज! सरस्वती के अवाकीर्ण तीर्थ में अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भ पुत्र बक उत्तम नियम का आश्रय ले उन मृत पशुओं के मांसो द्वारा ही उनके राष्ट्र का हवन करने लगे।

     राजन! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तब से धृतराष्ट्र का राष्ट्र क्षीण होने लगा। प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ी से काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजा का राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफत में फंस गया; वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया। राजन! अपने राष्ट्र को इस प्रकार संकट मग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुखी हुए और गहरी चिन्ता में डूब गये। फिर ब्राह्मणों के साथ अपने देश को संकट से बचाने का प्रयत्न करने लगे। अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्र का कल्याण साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणों को बड़ा खेद हुआ। नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्र को उस विपत्ति से छुटकारा दिलाने में समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्नि कों (प्रश्न पूछने पर भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें बताने वालों) को बुला कर उन से इसका कारण पूछा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

      तब उन प्राश्निकों ने कहा ;- ‘आपने पशु के लिये याचना करने वाले बक मुनि का तिरस्कार किया है; इसलिये ये मृत पशुओं के मांसों द्वारा आपके इस राष्ट्र का विनाश करने की इच्छा से होम कर रहे हैं। ‘उनके द्वारा आपके राष्ट्र की आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्या का प्रभाव है, जिससे आपके इस देश का इस समय महान विलय होने लगा हैं। ‘भूपाल! सरस्वती के कुन्ज में जल के समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’

     तब राजा ने सरस्वती के तट पर जाकर बक मुनि से इस प्रकार कहा,- भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वी पर माथा टेक हाथ जोड़ कर बोले,

    धृतराष्ट्र ने कहा ;- ‘भगवन! मैं आपकों प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खता से हतबुद्धि हुए अपराधी के अपराध को क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझ पर अवश्य कृपा करें’। राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार शोक से अचेत होकर विलाप करते देख उनके मन में दया आ गयी और उन्होंने राजा के राज्य को संकट से मुक्त कर दिया। ऋषि क्रोध छोड़ कर राजा पर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्य को संकट से बचाने के लिये आहुति देने लगे। इस प्रकार राज्य को विपत्ति से छुड़ा कर राजा से बहुत से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्य को ही चले गये। राजन! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थ चित्त हो अपने समृद्धिशाली नगर को ही लौट आये।

    राजन! उस तीर्थ में उदार बुद्धि बृहस्पति जी ने असुरों के विनाश और देवताओं की उन्नति के लिये मांसों द्वारा आभिचारिक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्ध में विजय से सुशोभित होने वाले देवताओं ने उन्हें मार भगाया। पृथ्वीनाथ! महायशस्वी महाबाहु बलराम जी उस तीर्थ में भी ब्राह्मणों को विधि पूर्वक हाथी, घोड़े, खच्चरियों से जुते हुए रथ, बहुमूल्य रत्न तथा प्रचुर धन-धान्य का दान करके वहाँ से यायात तीर्थ में गये। महाराज! वहाँ पूर्व काल में नहुषनन्दन महात्मा ययाति ने यज्ञ किया था, जिस में सरस्वती ने उनके लिये दूध और घी का स्त्रोत बहाया था। पुरुष सिंह भूपाल ययाति वहाँ यज्ञ करके प्रसन्नतापूर्वक ऊर्ध्व लोक में चले गये और वहाँ उन्हें बहुत से पुण्य लोक प्राप्त हए। शक्तिशाली राजा ययाति जब वहाँ यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनकी उत्कृष्ट उदारता को दृष्टि में रख कर और अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देख सरस्वती ने उस यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों को, जिसने अपने मन से जिन-जिन भोगों को चाहा, वे सभी मनोवान्छित भोग प्रदान किये। राजा के यज्ञमण्डप में बुलाकर आया हुआ जो ब्राह्मण जहाँ कहीं ठहर गया, वहीं उसके लिये सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने पृथक- पृथक गृह, शय्या, आसन, षडरस भोजन तथा नाना प्रकार के दान की व्यवस्था की।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 38-40 का हिन्दी अनुवाद)

     उन ब्राह्मणों ने यह समझ कर कि राजा ने ही वह उत्तम दान दिया है, अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा ययाति को शुभाशीर्वाद दे उन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उस यज्ञ की सम्पत्ति से देवता और गन्धर्व भी बड़े प्रसन्न हुए थे। मनुष्यों को तो वह यज्ञ वैभव देख कर महान आश्चर्य हुआ था। तदनन्तर महान धर्म ही जिनकी ध्वजा है और जिनकी पताका पर ताड़ का चिह्न सुशोभित है, वे महात्मा, कृतात्मा, धृतात्मा तथा जितात्मा बलराम जी, जो प्रतिदिन बड़े-बड़े दान किया करते थे, वहाँ से वसिष्ठा पवाह नामक तीर्थ में गये, जहाँ सरस्वती का वेग बड़ा भयंकर है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

बयालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“वसिष्ठा पवाह तीर्थ की उत्पत्ति के प्रसंग में विश्वामित्र का क्रोध और वसिष्ठजी की सहनशीलता”

    जनमेजय ने पूछा ;- प्रभो! वसिष्ठापवाह तीर्थ में सरस्वती के जल का भयंकर वेग कैसे हुआ? सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने उन महर्षि को किस लिये बहाया? उनके साथ उसका वैर कैसे हुआ? उस वैर का कारण क्या है? महामते! मैंने जो पूछा है, वह बताइये। मैं आपके वचनों को सुनते सुनते तृप्त नहीं होता हूँ।

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- भारत! तपस्या में होड़ लग जाने के कारण विश्वामित्र तथा ब्रह्मर्षि वसिष्ठ में बड़ा भारी वैर हो गया था। सरस्वती के स्थाणु तीर्थ में पूर्व तट पर वसिष्ठ का बहुत बड़ा आश्रम था और पश्चिम तट पर बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि का आश्रम बना हुआ था। महाराज! जहाँ भगवान स्थाणु ने बड़ी भारी तपस्या की थी, वहाँ मनीषी पुरुष उनके घोर तप का वर्णन करते हैं। प्रभो! जहाँ भगवान स्थाणु (शिव) ने सरस्वती का पूजन और यज्ञ करके तीर्थ की स्थापना की थी, वहाँ वह तीर्थ स्थाणु तीर्थ मे नाम से विख्यात हुआ। नरेश्वर! उसी तीर्थ में देवताओं ने देव शत्रुओं का विनाश करने वाले स्कन्द को महान सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया था। उसी सारस्वत तीर्थ में महामुनि विश्वामित्र ने अपनी उग्र तापस्या से वसिष्ठ मुनि को विचलित कर दिया था। वह प्रसंग सुनाता हूं, सुनो।

     भारत! विश्वामित्र और वसिष्ठ दोनों ही तपस्या के धनी थे, वे प्रतिदिन होड़ लगा कर अत्यन्त कठोर तप किया करते थे। उन में भी महामुनि विश्वामित्र को ही अधिक संताप होता था, वे वसिष्ठ का तेज देख कर चिन्तामग्न हो गये थे। भरतनन्दन! सदा धर्म में तत्पर रहने वाले विश्वामित्र मुनि के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह सरस्वती तपोधन वसिष्ठ को अपने जल के वेग से तुरंत ही मेरे समीप ला देगी और यहाँ आ जाने पर तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ विप्रवर वसिष्ठ का मैं वध कर डालूंगा; इसमें संशय नहीं है। ऐसा निश्चय करके पूज्य महामुनि विश्वामित्र के नेत्र क्रोध से रक्त-वर्ण हो गये।

     उन्होंने सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का स्मरण किया। उन मुनि के चिन्तन करने पर विचारशीला सरस्वती व्याकुल हो उठी। उसे ज्ञात हो गया कि ये महान शक्तिशाली महर्षि इस समय बड़े भारी क्रोध से भरे हुए हैं। इससे सरस्वती की कान्ति फीकी पड़ गयी और वह हाथ जोड़ थर-थर कांपती हुई मुनिवर विश्वामित्र की सेवा में उपस्थित हुई। जिसका पति मारा गया हो उस विधवा नारी के समान वह अत्यन्त दुखी हो गयी और उन मुनि श्रेष्ठ से बोली-‘प्रभो! बताइये, मैं आपकी किस आज्ञा का पालन करूं ?’ तब कुपित हुए मुनि ने उससे कहा- ‘वसिष्ठ को शीघ्र यहाँ बहाकर ले आओ, जिससे आज मैं इनका वध कर डालूं।’ यह सुन कर सरस्वती नदी व्यथित हो उठी। वह कमल नयना अबला हाथ जोड़ कर वायु के झकोरे से हिलायी गयी लता के समान अत्यन्त भयभीत हो जोर-जोर से कांपने लगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)

   उसकी ऐसी अवस्था देखकर मुनि ने उस महानदी से कहा,

   मुनी बोले ;- ‘तुम बिना कोई विचार किये वसिष्ठ को मेरे पास ले आओ’। विश्वामित्र की बात सुनकर और उनकी पापपूर्ण चेष्टा जान कर वसिष्ठ के भूतल पर विख्यात अनुपम प्रभाव को जानती हुई उस नदी ने उनके पास जाकर बुद्धिमान विश्वामित्र ने जो कुछ कहा था, वह सब उन से कह सुनाया। वह दोनों के शाप से भयभीत हो बारंबार कांप रही थी। महान शाप का चिन्तन करके विश्वामित्र ऋषि के डर से बहुत डर गयी थी। राजन! उसे दुर्बल, उदास और चिन्तामग्न देख मनुष्यों में श्रेष्ठ धर्मात्मा वसिष्ठ ने कहा।

    वसिष्ठ बोले ;- सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती! तुम शीघ्र गति से प्रवाहित होकर मुझे बहा ले चलो और अपनी रक्षा करो, अन्यथा विश्वामित्र तुम्हें शाप दे देंगे; इसलिये तुम कोई दूसरा विचार मन में न लाओ। कुरुनन्दन! उन कृपाशील महर्षि का वह वचन सुन कर सरस्वती सोचने लगी, ‘क्या करने से शुभ होगा?’ उसके मन में यह विचार उठा कि ‘वसिष्ठ ने मुझ पर बड़ी भारी दया की है। अतः सदा मुझे इनका हित साधन करना चाहिये’।

    राजन! तदनन्तर ऋषि श्रेष्ठ विश्वामित्र को अपने तट पर जप और होम करते देख सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने सोचा, यही अच्छा अवसर है, फिर तो उस नदी ने पूर्व तट को तोड़ कर उसे अपने वेग से बहाना आरम्भ किया। उस बहते हुए किनारे के साथ मित्रावरुण के पुत्र वसिष्ठ जी भी बहने लगे। राजन! बहते समय वसिष्ठ जी सरस्वती की स्तुति करने लगे। ‘सरस्वती! तुम पितामह ब्रह्माजी के सरोवर से प्रकट हुई हो, इसीलिये तुम्हारा नाम सरस्वती है। तुम्हारे उत्तम जल से ही यह सारा जगत व्याप्त है। ‘देवी! तुम्हीं आकाश में जाकर मेघों में जल की सृष्टि करती हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जल हो; तुमसे ही हम ऋषिगण वेदों का अध्ययन करते हैं। ‘तुम्हीं पुष्टि, कीर्ति, द्युति, सिद्धि, बुद्धि, उमा, वाणी और स्वाहा हो। यह सारा जगत तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं समस्त प्राणियों में चार प्रकार के रूप धारण करके निवास करती हो’।

     राजन! महर्षि के मुख से इस प्रकार स्तुति सुनती हुई सरस्वती ने उन ब्रह्मर्षि को अपने वेग द्वारा विश्वामित्र के आश्रम पर पहुँचा दिया और विश्वामित्र से बारंबार निवेदन किया कि ‘वसिष्ठ मुनि उपस्थित हैं’। सरस्वती द्वारा लाये हुए वसिष्ठ को देख कर विश्वामित्र कुपित हो उठे और उनके जीवन का अन्त कर देने के लिये कोई हथियार ढूंढ़ने लगे। उन्हें कुपित देख सरस्वती नदी ब्रह्म हत्या के भय से आलस्य छोड़ दोनों की आज्ञा का पालन करती हुई विश्वामित्र को धोखा देकर वसिष्ठ मुनि को पुनः पूर्व दिशा की ओर बहा ले गयी। मुनि श्रेष्ठ वसिष्ठ को पुनः अपने से दूर बहाया गया देख अमर्षशील विश्वामित्र दुःख से अत्यन्त कुपित हो बोले,

    विश्वामित्र बोले ;- ‘सरिताओं में श्रेष्ठ कल्याणमयी सरस्वती! तुम मुझे धोखा देकर फिर चली गयी, इसलिये अब जल की जगह रक्त बहाओ, जो राक्षसों के समूह को अधिक प्रिय है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 39-41 का हिन्दी अनुवाद)

       बुद्धिमान विश्वामित्र के इस प्रकार शाप देने पर सरस्वती नदी एक साल तक रक्त मिश्रित जल बहाती रही। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सरा सरस्वती को उस अवस्था में देखकर अत्यन्त दुखी हो गये। नरेश्वर! इस प्रकार वह स्थान जगत में वसिष्ठापवाह के नाम से विख्यात हुआ। वसिष्ठ जी को बहाने के पश्चात सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती फिर अपने पूर्व मार्ग पर ही बहने लग गयी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

तैंतालिसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“ऋषियों के प्रयत्न से सरस्वती के शाप की निवृत्ति, जल की शुद्धि तथा अरुणा संगम में स्नान करने से राक्षसों और इन्द्र का संकटमोचन”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! कुपित हुए बुद्धिमान विश्वामित्र ने जब सरस्वती नदी को शाप दे दिया, तब वह नदी उस उज्ज्वल एवं श्रेष्ठ तीर्थ में रक्त की धारा बहाने लगी। भारत! तदनन्तर वहाँ बहुत से राक्षस आ पहुँचे। वे सब के सब उस रक्त को पीते हुए वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उस रक्त से अत्यन्त तृप्त, सुखी और निश्चिन्त हो वे राक्षस वहाँ नाचने और हंसने लगे, मानो उन्होंने स्वर्ग लोक को जीत लिया हो।

     पृथ्वीनाथ! कुछ काल के पश्चात बहुत से तपोधन मुनि सरस्वती के तट पर तीर्थ यात्रा के लिये पधारे। पूर्वोक्त सभी तीर्थो में गोता लगा कर वे तपस्या के लोभी विज्ञ मुनिवर पूर्ण प्रसन्न हो उसी ओर गये, जिधर रक्त की धारा बहाने वाला पूर्वोक्त तीर्थ था। नृपश्रेष्ठ! वहाँ आकर उन महाभाग मुनियों ने देखा कि उस तीर्थ की दारुण दशा हो गयी है, वहाँ सरस्वती का जल रक्त से ओतप्रोत है और बहुत से राक्षस उस का पान कर रहे हैं। राजन! उन राक्षसों को देखकर कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनियों ने सरस्वती के उस तीर्थ की रक्षा के लिये महान प्रयत्न किया। उन सभी महान व्रतधारी महाभाग ऋषियों ने मिलकर सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती को बुला कर पूछा,

    ऋषिगण बोले ;- ‘कल्याणि! तुम्हारा यह कुण्ड इस प्रकार रक्त से मिश्रित क्यों हो गया? इसका क्या कारण है? बताओ। उसे सुन कर हम लोग कोई उपाय सोचेंगे’। तब कांपती हुई सरस्वती ने सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से कह सुनाया। उसे दुखी देख वे तपोधन महर्षि उससे बोले,

   महर्षि बोले ;- ‘निष्पाप सरस्वती! हमने शाप और उसका कारण सुन लिया। ये सभी तपोधन इस विषय में समयोचित कर्त्तव्य का पालन करेंगे’। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती से ऐसा कह कर वे आपस में बोले,

     ऋषिगण बोले ;- ‘हम सब लोग मिलकर इस सरस्वती को शाप से छुटकारा दिलावें’। राजन! उन सभी ब्राह्मणों ने तप, नियम, उपवास, नाना प्रकार के संयम तथा कष्ट साध्यव्रतों के द्वारा पशुपति विश्वनाथ महादेव जी की आराधना करके सरिताओं में श्रेष्ठ उस सरस्वती देवी को शाप से छुटकारा दिलाया। उनके प्रभाव से सरस्वती प्रकृतिस्थ हुई, उस का जल पूर्ववत स्वच्छ हो गया।

      राजन! शाप मुक्त हुई सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती पहले की भाँति शोभा पाने लगी। उन मुनियों के द्वारा सरस्वती का जल वैसा शुद्ध कर दिया गया- यह देखकर वे भूखे हुए राक्षस उन्हीं महर्षियों की शरण में गये। राजन! तदनन्तर वे भूख से पीड़ित हुए राक्षस उन सभी कृपालु मुनियों से बारंबार हाथ जोड़ कर कहने लगे,

    राक्षस बोले ;- ‘महात्माओ! हम भूखे हैं। सनातन धर्म से भ्रष्ट हो गये हैं। ‘हम लोग जो पापाचार करते हैं, यह हमारा स्वेच्छाचार नहीं है। आप-जैसे महात्माओं की हम लोगों पर कभी कृपा नहीं हुई और हम सदा दुष्कर्म ही करते चले आये। इससे हमारे पाप की निरन्तर वृद्धि होती रहती है और हम ब्रह्म राक्षस हो गये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘स्त्रियां अपने योनि दोष जनित पाप (व्यभिचार) से राक्षसी हो जाती हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में से जो लोग ब्राह्मणों से द्वेष करते हैं, वे भी इस जगत में राक्षस होते हैं। ‘जो प्राणधारी मानव आचार्य, ऋत्विज, गुरु और वृद्ध पुरुषों का अपमान करते हैं, वे भी यहाँ राक्षस होते हैं। ‘अतः विप्रवरो! आप यहाँ हमारा उद्धार करें, क्योंकि आप लोग सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने में समर्थ हैं’।

     उन राक्षसों का वचन सुन कर एकाग्रचित्त महर्षियों ने उनकी मुक्ति के लिये महानदी सरस्वती का स्तवन किया और इस प्रकार कहा- ‘जिस अन्न पर थूक पड़ गयी हो, जिस में कीड़े पड़े हों, जो जूठा हो, जिस में बाल गिरा हो, जो तिरस्कारपूर्वक प्राप्त हुआ हो, जो अश्रुपात से दूषित हो गया हो तथा जिसे कुत्तों ने छू दिया हो, वह सारा अन्न इस जगत में राक्षसों का भाग है। अतः विद्वान पुरुष सदा समझ-बूझ कर इन सब प्रकार के अन्नों का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करे। जो ऐसे अन्न को खाता है, वह मानो राक्षसों का अन्न खाता है’। तदन्नतर उन तपोधन महर्षियों ने उस तीर्थ की शुद्धि करके उन राक्षसों की मुक्ति के लिये सरस्वती नदी से अनुरोध किया।

     राजन! नरश्रेष्ठ! महर्षियों का यह मत जानकर सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती अपनी ही स्वरूपभूता अरुणा को ले आयी। महाराज! उस अरुणा में स्नान करके वे राक्षस अपना शरीर छोड़ कर स्वर्ग लोक में चले गये; क्योंकि वह ब्रह्म हत्या का निवारण करने वाली है। राजन! कहते हैं, इस बात को जान कर देवराज इन्द्र उसी श्रेष्ठ तीर्थ में स्नान करके ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए थे।

     जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! भगवान इन्द्र को ब्रह्म हत्या का पाप कैसे लगा तथा वे किस प्रकार इस तीर्थ में स्नान करके पाप मुक्त हुए थे?

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनेश्वर! पूर्व काल में इन्द्र ने नमुचि के साथ अपनी की हुई प्रतिज्ञा को जिस प्रकार तोड़ डाला था, वह सारी कथा जैसे घटित हुई थी, तुम यथार्थ रूप से सुनो। पहले की बात है, नमुचि इन्द्र के भय से डर कर सूर्य की किरणों में समा गया था। तब इन्द्र ने उसके साथ मित्रता कर ली और यह प्रतिज्ञा की ‘असुरश्रेष्ठ! मैं न तो तुम्हें गीले हथियार से मारूंगा न सूखे से। न दिन में मारूंगा ना रात में। सखे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर यह बात तुम से कहता हूं’। राजन! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके भी देवराज इन्द्र ने चारों ओर कुहासा छाया हुआ देख पानी के फेन से नमुचि का सिर काट लिया। नमुचि का वह कटा हुआ मस्तक इन्द्र के पीछे लग गया। वह उनके पास जाकर बारंबार कहने लगा, ‘ओ मित्रघाती पापात्मा इन्द्र! तू कहाँ जाता है?’। इस प्रकार उस मस्तक के द्वारा बारंबार पूर्वोक्त बात पूछी जाने पर अत्यन्त संतप्त हुए इन्द्र ने ब्रह्मा जी से यह सारा समाचार निवेदन किया। तब लोकगुरु ब्रह्मा ने उनसे कहा- ‘देवेन्द्र! अरुणा तीर्थ पाप भय को दूर करने वाला है। तुम वहाँ विधिपूर्वक यज्ञ करके अरुणा के जल में स्नान करो।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘शक्र! महर्षियों ने इस अरुणा के जल को परम पवित्र बना दिया है। इस तीर्थ में पहले ही गुप्तरूप से उसका आगमन हो चुका था, फिर सरस्वती ने निकट आकर अरुणा देवी को अपने जल से आप्लावित कर दिया। ‘देवेन्द्र! सरस्वती और अरुणा का यह संगम महान पुण्य दायक तीर्थ है। तुम यहाँ यज्ञ करों और अनेक प्रकार के दान दो। फिर उसमें स्नान करके तुम भयानक पातक से मुक्त हो जाओगे’। जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर इन्द्र ने सरस्वती के कुन्ज में विधिपूर्वक यज्ञ करके अरुणा में स्नान किया। फिर ब्रह्म हत्या जनित पाप से मुक्त हो देवराज इन्द्र हर्षोत्फुल्ल हृदय से स्वर्ग लोक में चले गये। भारत! नृपश्रेष्ठ! नमुचि का वह मस्तक भी उसी तीर्थ में गोता लगकर मनोवान्छित फल देने वाले अक्षय लोकों में चला गया।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! पारमार्थिक कार्य करने वाले महात्मा बलराम जी उस तीर्थ में भी स्नान करके नाना प्रकार की वस्तुओं का दान करके धर्म का फल पाकर सोम के महान एवं उत्तम तीर्थ में गये। जहाँ पूर्व काल में साक्षात राजाधिराज सोम ने विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस श्रेष्ठ यज्ञ में बुद्धिमान विप्रवर महात्मा अत्रि ने होता का कार्य किया था। उस यज्ञ के अन्त में देवताओं के साथ दानवों, दैत्यों तथा राक्षसों का महान एवं भयंकर तारकामय संग्राम हुआ था, जिसमें स्कन्द ने तारकासुर का वध किया था। उसी में दैत्य विनाशक महासेन कार्तिकेय ने देवताओं का सेनापतित्व ग्रहण किया था। जहाँ वह पाकड़ का श्रेष्ठ वृक्ष है, वहाँ साक्षात कुमार कार्तिकेय इस तीर्थ में सदा निवास करते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

चवालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कुमार कार्तिकेय का प्राकट्य और उनके अभिषेक की तैयारी”

     जनमेजय ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! आपने सरस्वती का यह प्रभाव बताया है। ब्रह्मन! अब कुमार कार्तिकेय के अभिषेक का वर्णन कीजिये। वक्ताओं में श्रेष्ठ! किस देश और काल में किन लोगों ने किस विधि से किस प्रकार शक्तिशाली भगवान स्कन्द का अभिषेक किया? स्कन्द ने जिस प्रकार दैत्यों का महान संहार किया हो, वह सब उसी तरह मुझे बताइये; क्योंकि मेरे मन में इसे सुनने के लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है।

       वैशम्पायन जी बोले ;- जनमेजय! तुम्हारा यह कौतूहल कुरुवंश के योग्य ही है। तुम्हारा वचन मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष उत्पन्न कर रहा है। नरेश्वर! तुम ध्यान देकर सुन रहे हो, इसलिये मैं तुमसे प्रसन्नतापूर्वक महात्मा कुमार कार्तिकेय के अभिषेक और प्रभाव का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल की बात है, भगवान शिव का तेजोमय वीर्य अग्नि में गिर पड़ा। भगवान अग्नि सर्वभक्षी हैं तो भी उस अक्षय वीर्य को वे भस्म न कर सके। उस वीर्य के कारण अग्निदेव दीप्तिमान, तेजस्वी तथा शक्ति सम्पन्न होकर भी कष्ट का अनुभव करने लगे। वे उस समय उस तेजोमय गर्भ को जब धारण न कर सके, तब ब्रह्मा जी की आज्ञा से उन भगवान अग्निदेव ने सूर्य के समान तेजस्वी उस दिव्य गर्भ को गंगा जी में डाल दिया। तदनन्तर गंगा ने भी उस गर्भ को धारण करने में असमर्थ होकर उसे देवपूजित सुरभ्य हिमालय पर्वत के शिखर पर सरकण्डों में छोड़ दिया। अग्नि का वह पुत्र अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके वहाँ बढ़ने लगा।

      सरकण्डों के समूह में अग्नि के समान प्रकाशित होते हुए उस सर्वसमर्थ महात्मा अग्नि पुत्र को, जो नवजात शिशु के रूप में उपस्थित था, छहों कृत्तिकाओं ने देखा। उसे देखते ही पुत्र की अभिलाषा रखने वाली वे सभी कृत्तिकाएं पुकार-पुकार कर कहने लगी ‘यह मेरा पुत्र है’। उन माताओं के उस वात्सल्य भाव को जानकर प्रभावशाली भगवान स्कन्द छः मुख प्रकट करके उनके स्तनों से झरते हुए दूध को पीने लगे। वे दिव्यरूप धारिणी छहों कृत्तिका देवियां उस बालक का वह प्रभाव देखकर अत्यन्त आश्चर्य से चकित हो उठीं। कुरुश्रेष्ठ! गंगा जी ने पर्वत के जिस शिखर पर स्कन्द को छोड़ा था, वह सारा का सारा सुवर्णमय हो गया। उस बढ़ते हुए शिशु ने वहाँ की भूमि को रंजित (प्रकाशित) कर दिया था। इसलिये वहाँ के सभी पर्वत सोने की खान बन गये। वह महान शक्तिशाली कुमार कार्तिकेय के नाम से विख्यात हुआ। वह महान योग बल से सम्पन्न बालक पहले गंगा जी का पुत्र था। राजेन्द्र! शम, तपस्या और पराक्रम से युक्त वह कुमार अत्यन्त वेग से बढ़ने लगा। वह देखने में चन्द्रमा के समान प्रिय लगता था। उस दिव्य सुवर्णमय प्रदेश में सरकण्डों के समूह पर स्थित हुआ वह कान्तिमान बालक निरन्तर गन्धर्वों एवं मुनियों के मुख से अपनी स्तुति सुनता हुआ सो रहा था। तदनन्तर दिव्य वाद्य और नृत्य की कला जानने वाली सहस्रों सुन्दरी देवकन्याएं उस कुमार की स्तुति करती हुई उसके समीप नृत्य करने लगीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

      सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा भी उस दिव्य बालक के पास आ बैठीं। पृथ्वी देवी ने उत्तम रूप धारण करके उसे अपने अंक में धारण किया। बृहस्पति जी ने वहाँ उस बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये और चार स्वरूपों में अभिव्यक्त होने वाला वेद हाथ जोड़कर उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। चारों चरणों से युक्त धनुर्वेद, संग्रह सहित शस्त्र-समूह तथा केवल साक्षात वाणी-ये सभी कुमार की सेवा में उपस्थित हुए। कुमार ने देखा की सैकड़ों भूतसंघों से घिरे हुए महापराक्रमी देवाधिदेव उमापति गिरिराजनन्दिनी उमा के साथ पास ही बैठे हुए हैं। उनके साथ आये हुए भूतसंघों के शरीर देखने में बड़े ही अद्भुत, विकृत और विकराल थे। उनके आभूषण और ध्वज भी बड़े विकट थे। उनमें से किन्हीं के मुंह बाघ और सिंह के समान थे तो किन्हीं के रीछ, बिल्ली और मगर के समान। कितनों के मुख वन-बिलावों के तुल्य थे। कितने ही हाथी, ऊंट और उल्लू के समान मुख वाले थे। बहुत से गीधों और गीदड़ों के समान दिखायी देते थे। किन्हीं-किन्हीं के मुख क्रौन्च पक्षी, कबूतर और रंकु मृग के समान थे। बहुतेरे भूत जहाँ-तहाँ हिंसक जन्तु, साही, गोह, बकरी, भेड़ और गायों के समान शरीर धारण करते थे। कितने ही मेघों और पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने हाथों में चक्र और गदा आदि आयुध ले रखे थे। कोई अंजन-पुन्ज के समान काले और कोई श्वेत गिरि के समान गौर कान्ति से सुशोभित होते थे।

     प्रजानाथ! वहाँ सात मातृकाएं आ गयी थीं। साध्य, विश्व, मरुद्गण, वसुगण, पितर, रुद्र, आदित्य, सिद्ध, भुजंग, दानव, पक्षी, पुत्र सहित स्वयम्भू भगवान ब्रह्मा, श्रीविष्णु तथा इन्द्र अपने नियमों से च्युत न होने वाले उस श्रेष्ठ कुमार को दखने के लिये पधारे थे। देवताओं और गन्धर्वों में श्रेष्ठ नारद आदि देवर्षि, बृहस्पति आदि सिद्ध, सम्पूर्ण जगत से श्रेष्ठ तथा देवताओं के भी देवता पितृ-गण, सम्पूर्ण यामगण और धामगण भी वहाँ आये थे। बालक होने पर भी बलशाली एवं महान योगबल से सम्पन्न कुमार त्रिशूल और पिनाक धारण करने वाले देवेश्वर भगवान शिव की ओर चले। उन्हें आते देख एक ही समय भगवान शंकर, गिरिराज नन्दिनी उमा, गंगा और अग्निदेव के मन में यह संकल्प उठा कि देखें यह बालक पिता-माता का गौरव प्रदान करने के लिये पहले किसके पास जाता है? क्या यह मेरे पास आयेगा? यह प्रश्न उन सब के मन में उठा। तब उन सबके अभिप्राय को लक्ष्य करके कुमार ने एक ही साथ योगबल का आश्रय ले अपने अनेक शरीर बना लिये। तदनन्तर प्रभावशाली भगवान स्कन्द क्षण भर में चार रूपों में प्रकट हो गये। पीछे जो उनकी मूर्तियां प्रकट हुईं, उनका नाम क्रमशः शाख, विशाख और नैगमेय हुआ। इस प्रकार अपने आपको चार स्वरूपों में प्रकट करके अद्भुत दिखायी देने वाले प्रभावशाली भगवान स्कन्द जहाँ रुद्र थे, उधर ही गये। विशाख उस ओर चल दिये, जिस ओर गिरिराजनन्दिनी उमा देवी बैठी थीं। वायुमूर्ति भगवान शाख अग्नि के पास और अग्नितुल्य तेजस्वी नैगमेय गंगा जी के निकट गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 41-53 का हिन्दी अनुवाद)

      उन चारों के रूप एक समान थे। उन सबके शरीर तेज से उद्भासित हो रहे थे। वे चारों कुमार उन चारों के पास एक साथ जा पहुँचे। वह एक अद्भुत सा कार्य हुआ। वह महान आश्चर्यमय, अदभुत तथा रोमान्चकारी घटना देखकर देवताओं, दानवों तथा राक्षसों में महान हाहाकार मच गया। तदनन्तर भगवान रुद्र, देवी पार्वती, अग्निदेव तथा गंगा जी- इन सबने एक साथ लोकनाथ ब्रह्मा जी को प्रणाम किया। राजन! नृपश्रेष्ठ! विधिपूर्वक प्रणाम करके वे सब कार्तिकेय का प्रिय करने की इच्छा से यह वचन बोले,- ‘देवेश्वर! भगवन! आप हम लोगों का प्रिय करने के लिये इस बालक को यथायोग्य मन की इच्छा के अनुरूप कोई आधिपत्य प्रदान कीजिये’। तदनन्तर सर्वलोक पितामह बुद्धिमान भगवान ब्रह्मा ने मन ही मन चिन्तन किया कि ‘यह बालक कौन सा आधिपत्य ग्रहण करे’।

     महामति ब्रह्मा ने जगत के भिन्न-भिन्न पदार्थों के ऊपर देवता, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, भूत, नाग और पक्षियों का आधिपत्य पहले से ही निर्धारित कर रखा था। साथ ही वे कुमार को भी आधिपत्य करने में समर्थ मानते थे। भरतनन्दन! तदनन्तर देवगणों के मंगल सम्पादन में तत्पर हुए ब्रह्मा ने दो घड़ी तक चिन्तन करने के पश्चात सब प्राणियों में श्रेष्ठ कार्तिकेय को सम्पूर्ण देवताओं का सेनापति पद प्रदान किया। जो सम्पूर्ण देव समूहों के राजा रूप में विख्यात थे, उन सबको सर्वभूत पितामह ब्रह्मा ने कुमार के अधीन रहने का आदेश दिया। तब ब्रह्मा आदि देवता अभिषेक के लिये कुमार को लेकर एक साथ गिरिराज हिमालय पर वहाँ से निकली हुई सरिताओं में श्रेष्ठ पुण्यसलिला सरस्वती देवी के तट पर गये, जो समंतपंचक तीर्थ में प्रवाहित होकर तीनों लोकों में विख्यात है। वहाँ वे सभी देवता आौर गन्धर्व पूर्ण मनोरथ हो सरस्वती के सर्वगुण सम्पन्न पावन तट पर विराजमान हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेव जी की तीर्थ यात्रा और सार स्वतोपाख्यान के प्रसंग में कुमार के अभिषेक की तैयारी विषयक चैवालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

पैतालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“स्कन्द का अभिषेक और उनके महापार्षदों के नाम, रूप आदि का वर्णन”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर बृहस्पति जी ने सम्पूर्ण अभिषेक सामग्री का संग्रह करके शास्त्रीय पद्धति से प्रज्वलित की हुई अग्नि में विधिपूर्वक होम किया। तत्पश्चात हिमवान के दिये हुए उत्तम मणियों से सुशोभित तथा दिव्य रत्नों से जटित पवित्र सिंहासन पर कुमार कार्तिकेय विराजमान हुए। उस समय उनके पास सम्पूर्ण मांगलिक उपकरणों के साथ विधि एवं मन्त्रोच्चारणपूर्वक अभिषेक द्रव्य लेकर समस्त देवता वहाँ पधारे। महापराक्रमी इन्द्र और विष्णु, सूर्य और चन्द्रमा, धाता और विधाता, वायु और अग्नि, पूषा, भग, अर्यमा, अंश, विवस्वान, मित्र और वरुण के साथ बुद्धिमान रुद्रदेव, एकादश रुद्रगण, आठ वसु, बारह आदित्य और दोनों अश्विनी कुमार- ये सब के सब प्रभावशाली कुमार कार्तिकेय को घेर कर खड़े हुए। विश्वेदेव, मरुद्गण, साध्यगण, पितृगण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, नाग, असंख्य देवर्षि, ब्रह्मर्षि, वनवासी मुनि वालखिल्य, वायु पीकर रहले वाले ऋषि, सूर्य की किरणों का पान करने वाले मुनि, भृगु और अंगिरा के वंश में उत्पन्न महर्षि, महात्मा यतिगण, सर्प, विद्याधर तथा पुण्यात्मा योग सिद्ध मुनि भी कार्तिकेय को घेर कर खड़े हुए। प्रजानाथ! ब्रह्मा जी, पुलस्त्य, महातपस्वी पुलह, अंगिरा, कश्यप, अत्रि, मरीचि, भृगु, क्रतु, हर, वरुण, मनु, दक्ष, ऋतु, ग्रह, नक्षत्र, मूर्तिमती सरिताएं, मूर्तिमान सनातन वेद, समुद्र, सरोवर, नाना प्रकार के तीर्थ, पृथ्वी, द्युलोक, दिशा, वृक्ष, देवमाता अदिति, ह्री, श्री, स्वाहा, सरस्वती, उमा, शची, सिनीवाली, अनुमति, कुहू, राका, धिषणा, देवताओं की अन्यान्य पत्नियां, हिमवान, विन्ध्य, अनेक शिखरों से सुशोभित मेरुगिरि, अनुचरों सहित ऐरावत, कला, काष्ठा, मास, एक्ष, ऋतु, रात्रि, दिन, अश्वों में श्रेष्ठ उच्चै:श्रवा, नागराज वासुकि, अरुण, गरुड़, ओषधियों सहित वृक्ष, भगवान धर्मदेव, काल, यम, मृत्यु तथा यम के अनुचर- ये सब के सब वहाँ एक साथ पधारे थे।

      संख्या में अधिक होने के कारण जिनके नाम यहाँ नहीं बताये गये हैं, वे सभी नाना प्रकार के देवता कुमार कार्तिकेय का अभिषेक करने के लिये इधर-उधर से वहाँ आ पहुँचे थे। राजन! उस समय उन सभी देवताओं ने अभिषेक के पात्र और सब प्रकार के मांगलिक द्रव्य हाथों में ले रखे थे। नरेश्वर! हर्ष से उत्फुल्ल देवता पवित्र एवं दिव्य जल वाली सातों सरस्वती नदियों के जल से भरे हुए, दिव्य सामग्रियों से सम्पन्न, सुवर्णमय कलशों द्वारा असुर-भयंकर महामनस्वी कुमार कार्तिकेय का सेनापति के पद पर अभिषेक करने लगे। महाराज! जैसे पूर्वकाल में जल के स्वामी वरुण का अभिषेक किया गा था, उसी प्रकार सर्वलोक पितामह भगवान ब्रह्मा, महातेजस्वी कश्यप तथा दूसरे विश्वविख्यात महर्षियों ने कार्तिकेय का अभिषेक किया। उस समय भगवान ब्रह्मा ने संतुष्ट होकर कार्तिकेय को वायु के समान वेगशाली, इच्छानुसार शक्तिधारी, बलवान और सिद्ध चार महान अनुचर प्रदान किये, जिनमें पहला नन्दिसेन, दूसरा लोहिताक्ष, तीसरा परमप्रिय घण्टाकर्ण और उनका चौथा अनुचर कुमुदमाली के नाम से विख्यात था। राजेन्द्र! फिर वहाँ महातेजस्वी भगवान शंकर ने स्कन्द को एक महान असुर समर्पित किया, जो सैकड़ों मायाओं को धारण करने वाला, इच्छानुसार बल पराक्रम से सम्पन्न तथा दैत्यों का संहार करने में समर्थ था। उसने देवासुर संग्राम में अत्यन्त कुपित होकर भयानक कर्म करने वाले चौदह प्रयुत दैत्यों का केवल अपनी दोनों भुजाओं से वध कर डाला था।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 28-49 का हिन्दी अनुवाद)

      इसी प्रकार देवताओं ने उन्हें देव-शत्रुओं का विनाश करने वाली, अजेय एवं विष्णुरूपणी सेना प्रदान की, जो नैर्ऋतों से भरी हुई थी। उस समय इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों, राक्षसों, मुनियों तथा पितरों ने जय-जयकार किया। तत्पश्चात यमराज ने उन्हें दो अनुचर प्रदान किये, जिनके नाम थे- उन्माथ और प्रमाथ। वे दोनों काल के समान महापराक्रमी और महातेजस्वी थे। सुभ्राज और भास्वर जो सूर्य के अनुचर थे, उन्हें प्रतापी सूर्य ने प्रसन्न होकर कार्तिकेय की सेवा में दे दिया। चन्द्रमा ने भी कैलास शिखर के समान श्वेतवर्ण वाले तथा श्वेत माला और श्वेत चन्दन धारण करने वाले दो अनुचर प्रदान किये, जिनके नाम थे- मणि और सुमणि। अग्नि देव ने भी अपने पुत्र स्कन्द को ज्वालाजिह तथा ज्योति नामक दो शूर सेवक प्रदान किये, जो शत्रु सेना को मथ डालने वाले थे। अंश ने भी बुद्धिमान स्कन्द को पांच अनुचर प्रदान किये, जिनके नाम इस प्रकार हैं- परिघ, वट, महाबली भीम तथा दहति और दहन। इनमें से दहति और दहन बड़े प्रचण्ड तथा बल पराक्रम की दृष्टि से सम्मानित थे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले इन्द्र ने अग्निकुमार स्कन्द को उत्क्रोश और पंचक नामक दो अनुचर प्रदान किये। वे दोनों क्रमशः वज्र और दण्ड धारण करने वाले थे। उन दोनों ने समरांगण में इन्द्र के बहुत से शत्रुओं का संहार कर डाला था। महायशस्वी भगवान विष्णु ने स्कन्द को चक्र, विक्रम और महाबली संक्रम -ये तीन अनुचर दिये। सम्पूर्ण विद्याओं में प्रवीण चिकित्सक चूड़ामणि अश्विनी कुमारों ने प्रसन्न होकर स्कन्द को वर्धन और नन्दन नामक दो सेवक दिये। महायशस्वी धाता ने महात्मा स्कन्द को कुन्द, कुसुम, कुमुद, डम्बर अैर आडम्बर- ये पांच सेवक प्रदान किये। प्रजापति त्वष्टा ने बलवान, बलोन्मत्त, महामायावी और मेघचक्रधारी चक्र और अनुचक्र नामक दो अनुचर स्कन्द की सेवा में उपस्थित किये।

    भगवान मित्र ने महात्मा कुमार को सुव्रत और सत्यसंध नामक दो सेवक प्रदान किये। वे दोनों ही तप और विद्या धारण करने वाले तथा महामनस्वी थे। इतना ही नहीं, वे देखने में बड़े ही सुन्दर, वर देने में समर्थ तथा तीनों लोकों में विख्यात थे। विधाता ने कार्तिकेय को महामना सुव्रत और सुकर्मा- ये दो लोक-विख्यात सेवक प्रदान किये। भरतनन्दन! पूषा ने कार्तिकेय को पाणीतक और कालिक नामक दो पार्षद प्रदान किये। वे दोनों ही बड़े भारी मायावी थे। भरश्रेष्ठ! वायु देवता ने कृत्तिका कुमार को महान बलशाली एवं विशाल मुख वाले बल और अतिबल नामक दो सेवक प्रदान किये। सत्यप्रतिज्ञ वरुण ने कृत्तिका नन्दन स्कन्द को यम और अतियम नामक दो महाबली पार्षद दिये, जिनके मुख तिमि नामक महामत्स्य के समान थे। राजन! हिमवान ने अग्निकुमार को महामना सुवर्चा और अतिवर्चा नामक दो पार्षद प्रदान किये। भारत! मेरु ने अग्नि पुत्र स्कन्द को महामना कान्चन और मेघमाली नामक दो अनुचर अर्पित किये। महामना मेरु ने ही अग्नि पुत्र कार्तिकेय को स्थिर और अतिस्थिर नामक दो पार्षद और दिये। वे दोनों महान बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। विन्ध्य पर्वत ने भी अग्नि कुमार को दो पार्षद प्रदान किये, जिनके नाम थे- उच्छृंग और अतिश्रृंग। वे दोनों ही बड़े-बड़े पत्थरों की चटटानों द्वारा युद्ध करने में कुशल थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 50-85 का हिन्दी अनुवाद)

    समुद्र ने भी अग्नि पुत्र को दो गदाधारी महापार्षद दिये, जिनके नाम थे- संग्रह और विग्रह। शुभदर्शना पार्वती देवी ने अग्नि पुत्र को तीन पार्षद दिये- उन्माद, शंकुकर्ण तथा पुष्पदन्त। पुरुषसिंह! नागराज वासुकि ने अग्नि कुमार को पार्षद रूप से जय और महाजय नामक दो नाग भेंट किये। इस प्रकार साध्य, रुद्र, वसु, पितृगण, समुद्र, सरिताओं और महाबली पर्वतों ने उन्हें विभिन्न सेनापति अर्पित किये, जो शूल, पट्टिश और नाना प्रकार के दिव्य आयुध धारण किये हुए थे। वे सब के सब भाँति-भाँति की वेश-भूषा से विभूषित थे। स्कन्द के जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न और विचित्र आभूषणों से विभूषित अन्य सैनिक थे, उनके नाम सुनो।

     शंकुकर्ण, निकुम्भ, पद्म, कुमुद, अनन्त, द्वादशभुज, कृष्ण, उपकृष्ण, घ्राणश्रवा, कपिस्कन्ध, काञ्चनाक्ष, जलन्धम, अक्ष, संतर्जन, कुनदीक, तमोऽन्तकृत, एकाक्ष, द्वादशाक्ष, एकजट, प्रभु, सहस्रबाहु, विकट, व्याघ्राक्ष, क्षितिकम्पन, पुण्यनामा, सुनामा, सुचक्र, प्रियदर्शन, परिश्रुत, कोकनद, प्रियमाल्यानुलेपन, अजोदर, गजशिरा, स्कंधाक्ष, शतलोचन, ज्वालाजिह, करालाक्ष, शितिकेश, जटी, हरि, कृष्णकेश, जटाधर, चतुर्देष्ट्र, अष्टजिह्व, मेघनाद, पृथुश्रवा, विद्युताक्ष, धनुर्वक्त्र, जाठर, मारुताशन, उदाराक्ष, रथाक्ष, वज्रनाभ, वसुप्रभ, समुद्रवेग, शैलकम्पी, वृष, मेष, प्रवाह, नंद, उपनन्द, धूम्र, श्वेत, कलिंग, सिद्धार्थ, प्रियक, प्रतापी गोनन्द, आनन्द, प्रमोद, स्वस्तिक, ध्रुवक, क्षेमवाह, सुवाह, सिद्धपात्र, गोव्रज, कनकापीड, महापरिषदेश्वर, गायन, हसन, बाण, पराक्रमी खंग, वैताली, गतिताली, कथक, वातिक, हंसज, पंकदिग्धांग, समुद्रोन्मादन, रणोत्कट, प्रहास, श्वेतसिद्ध, नन्दन, कालकण्ठ, प्रभास, कुम्भाण्डकोदर, कालकक्ष, सित, भूतमथन, यक्षवाह, सुवाह, देवयाजी, सोमप, मज्जान, महातेजा, क्रथ, क्राथ, तुहर, तुहार, पराक्रमी चित्रदेव, मधुर, सुप्रसाद, किरीटी, महाबल, वत्सल, मधुवर्ण, कलशोदर, धर्मद, मन्मथकर, शक्तिशाली सूचीवक्त्र, श्वेतवक्त्र, सुवक्त्र, चारुवक्त्र, पाण्डुर, दण्डबाहु, सुबाहु, रज, कोकिलक, अचल, कनकाक्ष, बालस्वामी, संचारक, गृध्नपत्र, जम्बुक, लोहवक्त्र , अजवक्त्र, जघन, कुम्भवक्त्र, कुम्भक, स्वर्णग्रीव, कृष्णौजा, हंसवक्त्र, चन्द्रभ, पाणिकूर्च, शम्बूक, पञ्चवक्त्र, शिक्षक, चापवक्त्र, जम्बूक, शाकवक्त्र और कुञ्चल।

      जनमेजय! ये सब पार्षद योगयुक्त, महामना तथा निरन्तर ब्राह्मणों से प्रेम रखने वाले हैं। इनके सिवा, पितामह ब्रह्मा जी के दिये हुए जो महामना महापार्षद हैं, वे तथा दूसरे बालक, तरुण एवं वृद्ध सहस्रों पार्षद कुमार की सेवा में उपस्थित हुए। जनमेजय! उन सबके नाना प्रकार के मुख थे। किनके कैसे मुख थे? यह बताता हूं, सुनो। कुछ पार्षदों के मुख कछुओं और मुर्गों के समान थे, कितनों के मुख खरगोश, उल्लू, गदहा, ऊंट और सूअर के समान थे। भारत! बहुतों के मुख बिल्ली और खरगोश के समान थे। किन्हीं के मुख बहुत बड़े थे और किन्हीं के नेवले, उल्लू, कौए, चूहे, बभ्रु तथा मयूर के मुखों के समान थे। किन्हीं-किन्हीं के मुख मछली, मेढे, बकरी, भेड़, भैंसे, रीछ, व्याघ्र, भेड़िये तथा सिंहों के समान थे। किन्ही के मुख हाथी के समान थे, इसलिये वे बड़े भयानक जान पड़ते थे। कुछ पार्षदों के मुख मगर, गरुड़, कंक, भेड़ियों और कौओं के समान जान पड़ते थे। भारत! कुछ पार्षद गाय, गदहा, ऊंट और वनबिलाव के समान मुख धारण करते थे। किन्हीं के पेट, पैर और दूसरे-दूसरे अंग भी विशाल थे। उनकी आंखें तारों के समान चमकती थीं। कुछ पार्षदों के मुख कबूतर, बैल, कोयल, बाज और तीतरों के समान थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 86-98 का हिन्दी अनुवाद)

      किन्हीं-किन्हीं के मुख गिरगिट के समान जान पड़ते थे। कुछ बहुत ही श्वेत वस्त्र धारण करते थे। किन्हीं के मुख सर्पों के समान थे तो किन्हीं के शूल के समान। किन्हीं के मुख से अत्यन्त क्रोध टपकता था और किन्हीं के मुख पर सौम्यभाव छा रहा था। कुछ विषधर सर्पों के समान जान पड़ते थे। कोई चीर धारण करते थे और किन्हीं-किन्हीं के मुख गाय के नथुनों के समान प्रतीत होते थे। किन्हीं के पेट बहुत मोटे थे और किन्हीं के अत्यन्त कृश। कोई शरीर से बहुत दुबले-पतले थे तो कोई महास्थूलकाय दिखायी देते थे। किन्हीं की गर्दन छोटी और कान बड़े-बड़े थे। नाना प्रकार के सर्पों को उन्होंने आभूषण के रूप में धारण कर रखा था। कोई अपने शरीर में हाथी की खाल लपेटे हुए थे तो कोई काला मृगछाला धारण करते थे। महाराज! किन्हीं के मुख कंधों पर थे तो किन्हीं के पेट में। कोई पीठ में, कोई दाढ़ी में और कोई जांघों में ही मुख धारण करते थे। बहुत से ऐसे भी थे, जिनके मुख पार्श्व भाग में स्थित थे। शरीर के विभिन्न प्रदेशों में मुख धारण करने वाले पार्षदों की संख्या भी कम नहीं थी। भिन्न-भिन्न गणों के अधिपति कीट पतंगोें के समान मुख धारण करत थे। किन्हीं के अनेक और सर्पाकार मुख थे। किन्हीं-किन्हीं के बहुत सी भुजाएं और गर्दनें थे। किन्हीं की बहुसंख्यक भुजाएं नाना प्रकार के वृक्षों के समान जान पड़ती थी। किन्हीं-किन्हीं के मस्तक उन के कटि-प्रदेश में ही दिखायी देते थे। किन्हीं के सर्पाकार मुख थे। कोई नाना प्रकार के गुल्मों और लताओं से अपने को आच्छादित किये हुए थे।

     कोई चीर वस्त्र में ही अपने को ढके हुए थे और कोई नाना प्रकार के सुनहरे वस्त्र धारण करते थे। वे नाना प्रकार के वेश, भाँति-भाँति की माला और चन्दन तथा अनेक प्रकार के वस्त्र धारण करते थे। कोई-कोई चमड़े का ही वस्त्र पहनते थे। किन्हीं के मस्तक पर पगड़ी थी तो किन्हीं के सिर पर मुकुट शोभा पाते थे। किन्हीं की गर्दन और अंगकान्ति बड़ी ही सुन्दर थी। कोई किरीट धारण करते और कोई सिर पर पांच शिखाएं रखते थे। किन्हीं के सिर के बाल सुनहरे रंग के थे। कोई दो, कोई तीन और कोई सात शिखाएं रखते थे। कोई माथे पर मोर पंख और कोई मुकुट धारण करते थे। कोई मूंड़, मुड़ाये और कोई जटा बढ़ाये हुए थे। कोई विचित्र माला धारण किये हुए थे और किन्हीं के मुख पर बहुत से रोयें जमे हुए थे। उन सबको लड़ाई-झगड़े में ही रस आता था। वे सदा श्रेष्ठ देवताओं के लिये भी अजेय थे। कोई काले थे, किन्हीं के मुख पर मांस रहित हड्डियों का ढांचा मात्र था। किन्हीं की पीठ बहुत बड़ी थी और पेट भीतर को धंसा हुआ था। किन्हीं की पीठ मोटी और किन्हीं की छोटी थी। किन्हीं के पेट और मूत्रेन्द्रिय दोनों बड़े थे। किन्हीं की भुजाएं विशाल थी तो किन्हीं की बहुत छोटी। कोई छोटे-छोटे अंगों वाले और बौने थे। कोई कुबड़े थे तो किन्हीं-किन्हीं की जांघें बहुत छोटी थी। कोई हाथी के समान कान और गर्दन धारण करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 99-115 का हिन्दी अनुवाद)

     किन्हीं की नाक हाथी- जैसी, किन्हीं की कछुओं के समान और किन्हीं की भेड़ियों जैसी थी। कोई लंबी सांस लेते थे। किन्हीं की जांघें बहुत बड़ी थी। किन्हीं का मुख नीचे की ओर था और वे विकराल दिखायी देते थे। किन्हीं की दाढ़ें बड़ी, किन्हीं की छोटी और किन्हीं की चार थी। राजन! दूसरे भी सहस्रों पार्षद गजराज के समान विशालकाय एवं भयंकर थे। उनके शरीर के सभी अंग सुन्दर विभागपूर्वक देखे जाते थे। वे दीप्तिमान तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित थे। भारत! उनके नेत्र पिंगलवर्ण के थे, कान शंकु के समान जान पड़ते थे और नासिका लाल रंग की थी। किन्हीं की दाढ़ें बड़ी और किन्हीं की मोटी थीं। किन्हीं के ओठ मोटे और सिर के बाल नीले थे। किन्हीं के पैर, ओठ, दाढ़ें, हाथ और गर्दनें नाना प्रकार की और अनेक थीं। भारत! कुछ लोग नाना प्रकार के चर्ममय वस्त्रों से आच्छादित, नाना प्रकार की भाषाएं बोलने वाले, देश की सभी भाषाओं में कुशल एवं परस्पर बातचीत करने में समर्थ थे। वे महापार्षदगण हर्ष में भरकर चारों ओर से दौड़े चले आ रहे थे। उनकी ग्रीवा, मस्तक, हाथ, पैर और नख सभी बड़े-बड़े थे। भ्रतनन्दन! उनकी आंखें भूरी थी, कण्ठ में नीले रंग का चिह्न था और कान लंबे-लंबे थे। किन्हीं का रंग भेड़ियों के उदर के समान था तो कोई काजल के समान काले थे। किन्हीं की आंखें सफ़ेद और गर्दन लाल थी। कुछ लोगों के नेत्र पिंगल वर्ण के थे।

      भरतवंशी नरेश! बहुत से पार्षद विचित्र वर्ण वाले और चितकबरे थे। कितने ही पार्षदों के शरीर का रंग चंवर तथा फूलों के मुकुट सा सफ़ेद था। कुछ लोगों के अंगों में श्वेत और लाल रंगों की पंक्तियां दिखायी देती थी। कुछ पार्षद एक दूसरे से भिन्न रंग के थे और बहुत से समान रंग वाले भी थे। किन्हीं-किन्हीं की कान्ति मोरों के समान थी। अब शेष पार्षदों ने जिन आयुधों को ग्रहण किया था, उनके नाम बता रहा हूं, सुना। कुछ पार्षद हाथों में पाश लिये हुए थे, कोई मुंह बाये खड़े थे, किन्हीं के मुख गदहों के समान थे, कितनों की आंखें पृष्ठभाग में थी और कितनों के कण्ठों में नील रंग का चिह्न था। बहुत से पार्षदों की भुजाएं ही परिघ के समान थीं। भरतनन्दन! किन्हीं के हाथों में शतघ्नी थी तो किन्हीं के चक्र। कोई हाथ में मुसल लिये हुए थे तो कोई तलवार, मुद्गर और डंडे लेकर खड़े थे। किन्हीं के हाथों में गदा, तोमर और भुशुण्डि शोभा पा रहे थे। वे महावेगशाली महामनस्वी पार्षद नाना प्राकर के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न थे। उनका बल और वेग महान था। वे युद्ध प्रेमी महापार्षदगण कुमार का अभिषेक देखकर बड़े प्रसन्न हुए। वे अपने अंगों में छोटी-छोटी घंटियों से युक्त जालीदार वस्त्र पहने हुए थे। उनमें महान ओज भरा था। नरेश्वर! वे हर्ष में भरकर नृत्य कर रहे थे। ये तथा और भी बहुत से महापार्षदगण यशस्वी महात्मा कार्तिकेय की सेवा में उपस्थित हुए थे। देवताओं की आज्ञा पाकर देवलोक, अन्तरिक्ष लोक तथा भूलोक के वायुतुल्य वेगशाली शूरवीर पार्षद स्कन्द के अनुचर हुए थे। ऐसे-ऐसे सहस्रों, लाखों और अरबों पार्षद अभिषेक के पश्चात स्कन्द को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलरामजी की तीर्थ यात्रा और सा स्वतोपाख्यान के प्रसंग में स्कन्द का अभिषेक विषयक पैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें