सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the 36 chapter to the 40 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

  

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

छत्तीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“उदपान तीर्थ की उत्पत्ति की तथा त्रित मुनि के कूप में गिरने, वहाँ यज्ञ करने और अपने भाइयों को शाप देने की कथा”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! उस चमसोदेद तीर्थ से चल कर बलराम जी यशस्वी त्रितमुनि के उदपान तीर्थ में गये, जो सरस्वती नदी के जल में स्थित है। मुसलधारी बलराम जी ने वहाँ जल का स्पर्श, आचमन एवं स्नान करके बहुत सा द्रव्य दान करने के पश्चात ब्राह्मणों का पूजन किया। फिर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ महातपस्वी त्रितमुनि धर्मपरायण होकर रहते थे। उन महात्मा ने कुएं में रहकर ही सोमपान किया था। उनके दो भाई उस कुएं में ही उन्हें छोड़ कर घर को चले गये थे। इससे ब्राह्मण श्रेष्ठ त्रित ने दोनों को शाप दे दिया था।

    जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! उदपान तीर्थ कैसे हुआ? वे महातपस्वी त्रितमुनि उसमें कैसे गिर पड़े और द्विज श्रेष्ठ! उनके दोनों भाइयों ने उन्हें क्यों वहीं छोड़ दिया था? क्या कारण था, जिससे वे दोनों भाई उन्हें कुएं में ही त्याग कर घर चले गये थे? वहाँ रहकर उन्होंने यज्ञ और सोमपान कैसे किया? ब्रह्मन! यदि यह प्रसंग मेरे सुनने योग्य समझें तो अवश्य मुझे बतावें।

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! पहले युग में तीन सहोदर भाई रहते थे। वे तीनों ही मुनि थे। उनके नाम थे एकत, द्वित और त्रित। वे सभी महर्षि सूर्य के समान तेजस्वी, प्रजापति के समान संतानवान और ब्रह्मवादी थे। उन्होंने तपस्या द्वारा ब्रह्मलोक पर विजय प्राप्त की थी। उनकी तपस्या, नियम और इन्द्रियनिग्रह से उनके धर्म परायण पिता गौतम सदा ही प्रसन्न रहा करते थे। उन पुत्रों की त्याग तपस्या से संतुष्ट रहते हुए वे पूजनीय महात्मा गौतम दीर्घकाल के पश्चात अपने अनुरूप स्थान (स्वर्ग लोक) में चले गये। राजन! उन महात्मा गौतम के यजमान जो राजा लोग थे, वे सब उनके स्वर्गवासी हो जाने पर उनके पुत्रों का ही आदर-सत्कार करने लगे। नरेश्वर! उन तीनों में भी अपने शुभ कर्म और स्वाध्याय के द्वारा महर्षि त्रित ने सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। जैसे उनके पिता सम्मानित थे, वैसे ही वे भी हो गये।

    महान सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा सभी महर्षि भी महाभाग त्रित का उनके पिता के तुल्य ही सम्मान करते थे। राजन! एक दिन की बात है, उनके दोनों भाई एकत और द्वित यज्ञ और धन के लिये चिन्ता करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम लोग त्रित को साथ लेकर यजमानों का यज्ञ करावें और दक्षिणा के रूप में बहुत से पशु प्राप्त करके महान फलदायक यज्ञ का अनुष्ठान करें और उसी में प्रसन्नतापूर्वक सोमरस का पान करें। राजन! ऐसा विचार करके उन तीनों भाइयों ने वही किया। वे सभी यजमानों के यहाँ पशुओं की प्राप्ति के उद्देश्य से गये और उनसे विधिपूर्वक यज्ञ करवा कर उस याज्य कर्म के द्वारा उन्होंने बहुतेरे पशु प्राप्त कर लिये। तत्पश्चात वे महात्मा महर्षि पूर्व दिशा की ओर चल दिये। महाराज! उनमें त्रित मुनि तो प्रसन्नतापूर्वक आगे-आगे चलते थे और एकत तथा द्वित पीछे रहकर पशुओं को हांकते जाते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)

    पशुओं के उस महान समुदाय को देखकर एकत और द्वित के मन में यह चिन्ता समायी कि किस उपाय से ये गौएं त्रित को न मिल कर हम दोनों के ही पास रह जायं। जनेश्वर! उन एकत और द्वित दोनों पापियों ने एक दूसरे से सलाह करके परस्पर जो कुछ कहा, वह बताता हूं, सुनो। त्रित यज्ञ कराने में कुशल हैं, त्रित वेदों के परिनिष्ठित विद्वान हैं, अतः वे और बहुत सी गौएं प्राप्त कर लेंगे। इस समय हम दोनों एक साथ होकर इन गौओं। को हांक ले चलें और त्रित हमसे अलग होकर जहाँ इच्छा हो वहाँ चले जायं। रात्रि का समय था और वे तीनों भाई रास्ता पकड़े चले आ रहे थे। उनके मार्ग में एक भेडि़या खड़ा था। वहाँ पास ही सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा कुआं था। त्रित अपने आगे रास्ते में खड़े हुए भेडि़ये को देखकर उसके भय से भागने लगे। भागते-भागते वे समस्त प्राणियों के लिये भयंकर उस महाघोर अगाध कूप में गिर पड़े। महाराज! कुएं में पहुँचने पर मुनिश्रेष्ठ त्रित ने बड़े जोर से आर्तनाद किया, जिसे उन दोनों मुनियों ने सुना। अपने भाई को कुएं में गिरा हुआ जानकर भी दोनों भाई एकत और द्वित भेड़िये के भय और लोभ से उन्हें वहीं छोड़कर चल दिये। राजन! पशुओं के लोभ में आकर उन दोनों भाइयों ने उस समय उन महातपस्वी त्रित को धूलि से भरे हुए उस निर्जल कूप में ही छोड़ दिया।

    भरतश्रेष्ठ! जैसे पापी मनुष्य अपने-आपको नरक में डूबा हुआ देखता है, उसी प्रकार तृण, वीरुध और लताओं से व्याप्त हुए उस कुएं में अपने आपको गिरा देख मृत्यु से डरे और सोमपान से वंचित हुए विद्वान त्रित अपनी बुद्धि से सोचने लगे कि ‘मैं इस कुएं में रहकर कैसे सोमरस का पान कर सकता हूँ’। इस प्रकार विचार करते-करते महातपस्वी त्रित ने उस कुएं में एक लता देखी, जो दैव योग से वहाँ फैली हुई थी। मुनि ने उस बालू भरे कूप में जल की भावना करके उसी में संकल्प द्वारा अग्नि की स्थापना की और होता आदि के स्थान पर अपने आपको ही प्रतिष्ठित किया। तत्पश्चात उन महातपस्वी त्रित ने उस फैली हुई लता में सोम की भावना करके मन ही मन ऋग, यजु और साम का चिन्तन किया। नरेश्वर! इसके बाद कंकड़ या बालू-कणों में सिल और लोढ़े की भावना करके उस पर पीस कर लता से सोमरस निकाला। फिर जल में घी का संकल्प करके उन्होंने देवताओं के भाग नियत किये और सोमरस तैयार करके उसकी आहुति देते हुए वेद-मन्त्रों की गम्भीर ध्वनि की। राजन! ब्रह्मवादियों ने जैसा बताया है, उसके अनुसार ही उस यज्ञ का सम्पादन करके की हुई त्रित की वह वेदध्वनि स्वर्ग लोक तक गूंज उठी। महात्मा त्रित का वह महान यज्ञ जब चालू हुआ, उस समय सारा स्वर्ग लोक उद्विग्न हो उठा, परंतु किसी को उसका कोई कारण नहीं जान पड़ा। तब देवपुरोहित बृहस्पति जी ने वेदमन्त्रों के उस तुमुलनाद को सुनकर देवताओं से कहा- ‘देवगण! त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा है, वहाँ हम लोगों को चलना चाहिये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 40-55 का हिन्दी अनुवाद)

    वे महान तपस्वी हैं। यदि हम नहीं चलेंगे तो वे कुपित होकर दूसरे देवताओं की सृष्टि कर लेंगे’। बृहस्पति जी का यह वचन सुनकर सब देवता एक साथ हो उस स्थान पर गये, जहाँ त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा था। वहाँ पहुँच कर देवताओं ने उस कूप को देखा, जिसमें त्रित मौजूद थे। साथ ही उन्होंने यज्ञ में दीक्षित हुए महात्मा त्रित मुनि का भी दर्शन किया। वे बड़े तेजस्वी दिखायी दे रहे थे। उन महाभाग मुनि का दर्शन करके देवताओं ने उनसे कहा,

     देवता बोले ;- ‘हम लोग यज्ञ में अपना भाग लेने के लिये आये हैं’। उस समय महर्षि ने उनसे कहा,

     महर्षि बोले ;- ‘देवताओ! देखो, में किस दशा में पड़ा हूँ। इस भयानक कूप में गिरकर अपनी सुधबुध खो बैठा हूं’। महाराज! तदनन्तर त्रित ने देवताओं को विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए उनके भाग समर्पित किये। इससे वे उस समय बड़े प्रसन्न हुए। विधिपूर्वक प्राप्त हुए उन भागों को ग्रहण करके प्रसन्न चित्त हुए देवताओं ने उन्हें मनोवान्छित वर प्रदान किया। मुनि ने देवताओं से वर मांगते हुए कहा- ‘मुझे इस कूप से आप लोग बचावें तथा जो मनुष्य इसमें आचमन करे, उसे यज्ञ में सोमपान करने वालों की गति प्राप्त हो’। राजन! मुनि के इतना कहते ही कुएं में तरंगमालाओं से सुशोभित सरस्वती लहरा उठी। उसने अपने जल के वेग से मुनि को ऊपर उठा दिया और वे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने देवताओं का पूजन किया।

     नरेश्वर! मुनि के मांगे हुए वर के विषय में ‘तथास्तु’ कह कर सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। फिर त्रित भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को ही लौट गये। उन महातपस्वी ने कुपित हो अपने उन दोनों ऋषि भाइयों के पास पहुँच कर कठोर वाणी में शाप देते हुए कहा- ‘तुम दोनों पशुओं के लोभ में फंसकर मुझे छोड़कर भाग आये। इसलिये इसी पाप कर्म के कारण मेरे शाप से तुम दोनों भाई महाभयंकर भेड़िये का शरीर धारण करके दांढ़ों से युक्त हो इधर-उधर भटकते फिरोगे। तुम दोनों की संतान के रूप में गोलांगूल, रीछ और वानर आदि पशुओं की उत्पत्ति होगी’। प्रजानाथ! उनके इतना कहते ही वे दोनों भाई उस सत्यवादी के वचन से उसी क्षण भेड़िये की शकल में दिखायी देने लगे। अमित पराक्रमी बलराम जी ने उस तीर्थ में भी जल का स्पर्श किया और ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें नाना प्रकार के धन प्रदान किये। उदार चित्त वाले बलराम जी सरस्वती नदी के अन्तर्गत उदपान तीर्थ का दर्शन करके उसकी बारंबार स्तुति-प्रशंसा करते हुए वहाँ से विनशन तीर्थ में चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में त्रित का उपाख्यान विषयक छत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

सैतीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“विनशन, सुभूमिक, गन्धर्व, गर्गस्त्रोत, शंख, द्वैतवन तथा नैमिषेय आदि तीर्थो में होते हुए बलमद्रजी का सप्त सारस्वत तीर्थ में प्रवेश”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! उदपान तीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ में आये, जहाँ (दुष्कर्म परायण) शूद्रों और आमीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी विनष्ट (अदृश्य) हो गयी है। इसीलिये ऋषिगण उसे सदा विनशन तीर्थ कहते हैं। महाबली बलराम वहाँ भी सरस्वती में आचमन और स्नान करके उसके सुन्दर तट पर स्थित हुए सुभूमिक तीर्थ में गये। उस तीर्थ में गौरवर्ण तथा निर्मल मुख वाली सुन्दरी अप्सराएं आलस्य त्याग कर सदा नाना प्रकार की विमल क्रीड़ाओं द्वारा मनोरन्जन करती हैं। जनेश्वर! वहाँ उस ब्राह्मण सेवित पुण्य तीर्थ में गन्धर्वो सहित देवता भी प्रतिमास आया करते हैं। राजन! गन्धर्वगण और अप्सराएं एक साथ मिलकर वहाँ आती और सुख पूर्वक विचरण करती दिखायी देती हैं। वहाँ देवता और पितर लता-वेलों के साथ आमोदित होते हैं, उनके ऊपर सदा पवित्र एवं दिव्य पुष्पों की वर्षा बारंबार होती रहती है। राजन! सरस्वती के सुन्दर तट पर वह उन उप्सराओं की मंगलमयी क्रीड़ा भूमि है, इसलिये वह स्थान सुभूमिक नाम से विख्यात है। बलराम जी ने वहाँ स्नान करके ब्राह्मणों को धन दान किया और दिव्य गीत एवं दिव्य वाद्यों की ध्वनि सुनकर देवताओं, गन्धर्वो तथा राक्षसों की बहुत सी मूर्तियों का दर्शन किया।

      तत्पश्चात रोहिणीनन्दन बलराम गन्धर्व तीर्थ में गये। वहाँ तपस्या में लगे हुए विश्वावसु आदि गन्धर्व अत्यन्त मनोरम नृत्य, वाद्य और गीत का आयोजन करते रहते हैं। हलधर ने वहाँ भी ब्राह्मणों को भेड़, बकरी, गाय, गदहा, ऊंट और सोना-चांदी आदि नाना प्रकार के धन देकर उन्हें इच्छानुसार भोजन कराया तथा प्रचुर धन से संतुष्ट करके ब्राह्मणों के साथ ही वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय ब्राह्मण लोग बलराम जी की बड़ी स्तुति करते थे। उस गन्धर्व तीर्थ से चल कर एक कान में कुण्डल धारण करने वाले शत्रुदमन महाबाहु बलराम गर्ग स्त्रोत नामक महातीर्थ में आये। जनमेजय! वहाँ तपस्या से पवित्र अन्तः करण वाले महात्मा वृद्ध गर्ग ने सरस्वती के उस शुभ तीर्थ में काल का ज्ञान, काल की गति, ग्रहों और नक्षत्रों के उलट-फेर, दारुण उत्पात तथा शुभ लक्षण- इन सभी बातों की जानकारी प्राप्त कर ली थी। उन्हीं के नाम से वह तीर्थ गर्ग स्त्रोत कहलाता है। सामर्थ्यशाली नरेश्वर! वहाँ उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषियों ने काल ज्ञान के लिये सदा महाभाग गर्ग मुनि की उपासना (सेवा) की थी।

     महाराज! वहाँ जाकर श्वेतचन्दन चर्चित, नीलाम्बरधारी महायशस्वी बलराम जी विशुद्ध अन्तः करण वाले महर्षियों को विधिपूर्वक धन देकर ब्राह्मणों को नाना प्रकार के भक्ष्य भोज्य पदार्थ समर्पित करके वहाँ से शंख तीर्थ में चले गये। वहाँ ताल चिह्नित ध्वजा वाले बलवान बलराम ने महाशंख नामक एक वृक्ष देखा, जो महान मेरु पर्वत के समान ऊंचा और श्वेताचल के समान उज्ज्वल था। उसके नीचे ऋषियों के समूह निवास करते थे। वह वृक्ष सरस्वती के तट पर ही उत्पन्न हुआ था।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 21-45 का हिन्दी अनुवाद)

      उस वृक्ष के आस-पास यक्ष, विद्याधर, अमित तेजस्वी राक्षस, अनन्त बलशाली पिशाच तथा सिद्धगण सहस्रों की संख्या में निवास करते थे। वे सब के सब अन्न छोड़ कर व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय-समय पर उस वृक्ष का ही फल खाया करते थे। पुरुषश्रेष्ठ! वे उन स्वीकृत नियमों के अनुसार पृथक-पृथक विचरते हुए मनुष्यों से अदृश्य रह कर घूमते थे। नरव्याघ्र! इस प्रकार वह वनस्पति इस विश्व में विख्यात था। वह वृक्ष सरस्वती का लोक विख्यात पावन तीर्थ है। यदु श्रेष्ठ बलराम उस तीर्थ में दूध देने वाली गौओं का दान करके तांबे और लोहे के बर्तन तथा नाना प्रकार के वस्त्र भी ब्राह्मणों को दिये। ब्राह्मणों का पूजन करके वे स्वयं भी तपस्ती मुनियों द्वारा पूजित हुए।

     राजन! वहाँ से हलधर बलभद्र जी पवित्र द्वैतवन में आये और वहाँ के नाना वेशधारी मुनियों का दर्शन करके जल में गोता लगा कर उन्होंने ब्राह्मणों का पूजन किया। राजन! इसी प्रकार विप्रवृन्द को प्रचुर भोग सामग्री अर्पित करके फिर बलराम जी सरस्वती के दक्षिण तट पर होकर यात्रा करने लगे। महाराज! इस प्रकार थोड़ी ही दूर जाकर महाबाहु, महायशस्वी धर्मात्मा भगवान बलराम नागधन्वा नामक तीर्थ में पहुँच गये, जहाँ महातेजस्वी नागराज वासुकि का बहुसंख्यक सर्पों से घिरा हुआ निवास स्थान है। वहाँ सदा चौदह हज़ार ऋषि निवास करते हैं। वहीं देवताओं ने आकर सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि को समस्त सर्पों के राजा के पद पर विधिपूर्वक अभिषिक्त किया था। पौरव! वहाँ किसी को सर्पों से भय नहीं होता। उस तीर्थ में भी बलराम जी ब्राह्मणों को विधिपूर्वक ढेर-के-ढेर रत्न देकर पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहाँ पग-पग पर अनेक प्रकार के प्रसिद्ध तीर्थ प्रकट हुए हैं। उनकी संख्या लगभग एक लाख है। उन तीर्थो में स्नान करके उन्होंने ऋषियों के बताये अनुसार व्रत-उपवास आदि नियमों का पालन किया। फिर सब प्रकार के दान करके तीर्थ निवासी मुनियों को मस्तक नवा कर उनके बताये हुए मार्ग से वे पुनः उस स्थान की ओर चल दिये, जहाँ सरस्वती हवा की मारी हुई वर्षा के समान पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी हैं। राजन! नैमिषारण्य निवासी महात्मा मुनियों के दर्शन के लिये पूर्व दिशा की ओर लौटी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का दर्शन करके श्वेत-चन्दन चर्चित हलधारी बलराम आश्चर्य चकित हो उठे।

      जनमेजय ने पूछा ;- यजुर्वेद के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ विप्रवर वैशम्पायन जी! मैं आपके मुंह से यह सुनना चाहता हूँ कि सरस्वती नदी किस कारण से पीछे लौट कर पूर्वाभिमुख बहने लगी? क्या कारण था कि वहाँ यदुनन्दन बलराम जी को भी आश्चर्य हुआ? सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती किस कारण से और किस प्रकार पूर्व दिशा की ओर लौटी थी?

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! पूर्व काल के सत्य युग की बात है, वहाँ बारह वर्षों में पूर्ण होने वाले एक महान यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया गया था। उस सत्र में नैमिषारण्य निवासी तपस्वी मुनि तथा अन्य बहुत से ऋषि पधारे थे। नैमिषारण्य वासियों के उस द्वादश वर्षीय यज्ञ में वे महाभाग ऋषि दीर्घकाल तक रहे। जब वह यज्ञ समाप्त हो गया तब बहुत से महर्षि तीर्थ सेवन के लिये वहाँ आये। प्रजानाथ! ऋषियों की संख्या अधिक होने के कारण सरस्वती के दक्षिण तट पर जितने तीर्थ थे, वे सभी नगरों के समान प्रतीत होने लगे। पुरुषसिंह! तीर्थ सेवन के लोभ से वे ब्रह्मर्षिगण समन्त पन्चक तीर्थ तक सरस्वती नदी के तट पर ठहर गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 46-67 का हिन्दी अनुवाद)

      वहाँ होम करते हुए पवित्रात्मा मुनियों के अत्यन्त गम्भीर स्वर से किये जाने वाले स्वाध्याय के शब्द से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठी थीं। चारों ओर प्रकाशित हुए उन महात्माओं द्वारा किये जाने वाले यज्ञ से सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती की बड़ी शोभा हो रही थी। महाराज! सरस्वती के उस निकटवर्ती तट पर सुप्रसिद्ध तपस्वी वालखिल्य, अश्मकुट्ट्, दन्तोलूखली, प्रसंख्यान हवा पीकर रहने वाले, जलपान पर ही निर्वाह करने वाले, पत्तों का ही आहार करने वाले, भाँति-भाँति के नियमों में संलग्न तथा वेदी पर शयन करने वाले तपस्वी-मुनि विराजमान थे। वे सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती की उसी प्रकार शोभा बढ़ा रहे थे, जैसे देवता लोग गंगाजी की। सत्रयाग में सम्मिलित हुए सैकड़ों महान् व्रतधारी ऋषि वहाँ आये थे; परंतु उन्होंने सरस्वती के तट पर अपने रहने के लिये स्थान नहीं देखा। तब उन्होंने यज्ञोपवीत से उस तीर्थ का निर्माण करके वहाँ अग्निहोत्र-सम्बन्धी आहुतियां दी और नाना प्रकार के कर्मो का अनुष्ठान किया।

     राजेन्द्र! उस समय उस ऋषि-समूह को निराश और चिन्तित जान सरस्वती ने उनकी अभीष्ट-सिद्धि के लिये उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जनमेजय! तत्पश्चात बहुत से कुन्जों का निमार्ण करती हुई सरस्वती पीछे लौट पड़ी; क्योंकि उन पुण्यतपस्वी ऋषियों पर उन के हृदय में करुणा का संचार हो आया था। राजेन्द्र! उनके लिये लौट कर सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती पुनः पश्चिम की ओर मुड़ कर बहने लगीं। राजन! उस महानदी ने यह सोच लिया था कि मैं इन ऋषियों के आगमन को सफल बनाकर पुनः पश्चिम मार्ग से ही लौट जाऊंगी। यह सोच कर ही उसने वह महान अदभुत कर्म किया। नरेश्वर! इस प्रकार वह कुन्ज नैमिषीय नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुरुश्रेष्ठ! तुम भी कुरुक्षेत्र में महान कर्म करो। वहाँ बहुत से कुन्जों तथा लौटी हुई सरस्वती का दर्शन करके महात्मा बलराम जी को बड़ा विस्मय हुआ।

      यदुनन्दन बलराम ने वहाँ विधिपूर्वक स्नान और आव्रमन करके ब्राह्मणों को धन और भाँति-भाँति के बर्तन दान किये। राजन! फिर उन्हें नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ देकर द्विजातियों द्वारा पूजित होते हुए बलराम जी वहाँ से चल दिये। तदनन्तर हलायुध बलदेव जी सप्तसारस्वत नामक तीर्थ में आये, जो सरस्वती के तीर्थो में सबसे श्रेष्ठ हैं। वहाँ अनेकानेक ब्राह्मणों के समुदाय निवास करते थे। वेर, इंगुद, काश्मर्य (गम्भारी), पाकर, पीपल, बहेड़े, कंकोल, पलाश, करीर, पीलु, करूष, विल्व, अमड़ा, अतिमुक्त, पारिजात तथा सरस्वती के तट पर उगे हुए अन्य नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वह तीर्थ देखने में कमनीय और मन को मोह लेने वाला है। वहाँ केले के बहुत से बगीचे हैं। उस तीर्थ में वायु, जल, फल और पत्ते चबाकर रहने वाले, दांतों से ही ओखली का काम लेने वाले और पत्थर से फोड़े हुए फल खाने वाले बहुतेरे वानप्रस्थ मुनि भरे हुए थे। वहाँ वेदों के स्वाध्याय की गम्भीर ध्वनि गूंज रही थी। मृगों के सैकड़ों यूथ सब ओर फैले हुए थे। हिंसा रहित धर्म परायण मनुष्य उस तीर्थ का अधिक सेवन करते थे। वहीं सिद्ध महामुनि मंकणक ने बड़ी भारी तपस्या की थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में बलदेवजी की तार्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक सैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“सप्तसारस्वत तीर्थ की उत्पत्ति, महिमा और मंकणक मुनि का चरित्र”

जनमेजय ने वैशम्पायन जी से पूछा,

    जनमेजय ने कहा ;- विप्रवर! सप्तसारस्वत तीर्थ की उत्पत्ति किस हेतु से हुई? पूजनीय मंकणक मुनि कौन थे? कैसे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई और उनका नियम क्या था? द्विजश्रेष्ठ! वे किसके वंश में उत्पन्न हुए थे और उन्होंने किस शास्त्र का अध्ययन किया था? यह सब मैं विधि पूर्वक सुनना चाहता हूँ।

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! सरस्वती नाम की सात नदियां और हैं, जो इस सारे जगत में फैली हुई हैं। तपोबल सम्पन्न महात्माओं ने जहां-जहाँ सरस्वती का आवाहन किया है, वहां-वहाँ वे गयी हैं। उन सब के नाम इस प्रकार हैं- सुप्रभा, कान्चनाक्षी, विशाला, मनोरमा, सरस्वती, ओघवती, सुरेणु और विमलोदका। एक समय की बात है, पुष्कर तीर्थ में महात्मा ब्रह्मा जी का एक महान यज्ञ हो रहा था। उनकी विस्तृत यज्ञ शाला में सिद्ध ब्राह्मण विराजमान थे। पुण्याहवाचन के निर्दोष घोष तथा वेद मन्त्रों की ध्वनि से सारा यज्ञ मण्डप गूंज रहा था और सम्पूर्ण देवता उस यज्ञ-कर्म के सम्पादन में व्यस्त थे। महाराज! साक्षात ब्रह्मा जी ने उस यज्ञ की दीक्षा ली थी। उनके यज्ञ करते समय सब की समस्त इच्छाएं उस यज्ञ द्वारा परिपूर्ण होती थीं। राजेन्द्र! धर्म और अर्थ में कुशल मनुष्य मन में जिन पदार्थों का चिन्तन करते थे, वे उनके पास वहाँ तत्काल उपस्थित हो जाते थे। उस यज्ञ में गन्धर्व गीत गाते और अप्सराएं नृत्य करती थीं। वहाँ दिव्य बाजे बजाये जा रहे थे। उस यज्ञ के वैभव से देवता भी संतुष्ट थे और अत्यन्त आश्चर्य में निमग्न हो रहे थे; फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है?

    राजन! इस प्रकार जब पितामह ब्रह्मा पुष्कर में रहकर यज्ञ कर रहे थे, उस समय ऋषियों ने उनसे कहा,

     ऋषि बोले ;- ‘भगवन! आपका यह यज्ञ अभी महान गुण से सम्पन्न नहीं है; क्योंकि यहाँ सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती नहीं दिखायी देती हैं’। यह सुनकर भगवान ब्रह्मा ने प्रसन्नतापूर्वक सरस्वती देवी की आराधना करके पुष्कर में यज्ञ करते समय उनका आवाहन किया। राजेन्द्र! तब वहाँ सरस्वती सुप्रभा नाम से प्रकट हुई। बड़ी उतावली के साथ आकर ब्रह्मा जी का सम्मान करती हुई सरस्वती का दर्शन करके ऋषिगण बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उस यज्ञ को बहुत सम्मान दिया। इस प्रकार सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती पुष्कर तीर्थ में ब्रह्मा जी तथा मनीषी महात्माओं के संतोष के लिये प्रकट हुई।

     राजन! जनेश्वर! नैमिषारण्य में बहुत से मुनि आकर रहते थे। वहाँ वेद के विषय में विचित्र कथा-वार्ता होती रहती थी। जहाँ वे नाना प्रकार के स्वाध्यायों का ज्ञान रखने वाले मुनि रहते थे, वहीं उन्होंने परस्पर मिल कर सरस्वती देवी का स्मरण किया। महाराज! राजाधिराज! उन सत्रयाजी (ज्ञानयज्ञ करने वाले) ऋषियों के ध्यान लगाने पर महाभागा पुण्य सलिला सरस्वती देवी उन समागत महात्माओं की सहायता के लिये वहाँ आयी। भारत! नैमिषारण्य तीर्थ में उन सत्रयाजी मुनियों के समक्ष आयी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती कान्चनाक्षी नाम से सम्मानित हुई। राजा गय गयदेश में ही एक महान यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। उनके यज्ञ में भी सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का आवाहन किया गया था। कठोर व्रत का पालन करने वाले महर्षि गय के यज्ञ में आयी हुई सरस्वती को विशाला कहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! यज्ञपरायण उद्दालक ऋषि के यज्ञ में भी सरस्वती का आवाहन किया गया। वे शीघ्रगामिनी सरस्वती हिमालय से निकल कर उस यज्ञ में आयी थी। राजन! उन दिनों समृद्धिशाली एवं पुण्यमय उत्तर कोसल प्रान्त में सब ओर से मुनि मण्डली एकत्र हुई थी। उसमें यज्ञ करते हुए महात्मा उद्दालक ने पूर्वकाल में सरस्वती देवी का ध्यान किया। तब मुनि का कार्य सिद्ध करने के लिये सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती उस देश में आयीं। वहाँ वल्कल और मृगचर्मधारी मुनियों से पूजित होने वाली सरस्वती का नाम हुआ मनोरमा; क्योंकि उन्होंने मन के द्वारा उन का चिन्तन किया था। राजर्षियों से सेवित पुण्यमय ऋषभद्वीप तथा कुरुक्षेत्र में जब महात्मा राजा कुरु यज्ञ कर रहे थे, उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ महाभागा सरस्वती वहाँ आयी थीं; उनका नाम हुआ सुरेणु।

      गंगा द्वार में यज्ञ करते समय दक्ष प्रजापति ने जब सरस्वती का स्मरण किया था, उस समय भी शीघ्रगामिनी सरस्वती वहाँ बहती हुई सुरेणु नाम से ही विख्यात हुई। राजेन्द्र! इसी प्रकार महात्मा वसिष्ठ ने भी कुरुक्षेत्र में दिव्यसलिला सरस्वती का आवाहन किया था, जो ओघवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा जी ने एक बार फिर पुण्यमय हिमालय पर्वत पर यज्ञ किया था। उस समय उनके आवाहन करने पर भगवती सरस्वती ने विमलोदका नाम से प्रसिद्ध होकर वहाँ पदार्पण किया था। फिर ये सातों सरस्वतियां एकत्र होकर उस तीर्थ में आयी थीं, इसीलिये इस भूतल पर ‘सप्तसारस्वत तीर्थ के नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई। इस प्रकार सात सरस्वती नदियों का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन किया गया है। इन्हीं से सप्तसारस्वत नामक परम पुण्यमय तीर्थ का प्रादुर्भाव बताया गया है।

    राजन! कुमारावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा प्रतिदिन सरस्वती नदी में स्नान करने वाले मंकणक मुनि का महान लीलामय चरित्र सुनो। भरतनन्दन! महाराज! एक समय की बात है, कोई सुन्दर नेत्रों वाली अनिन्द्य सुन्दरी रमणी सरस्वती के जल में नंगी नहा रही थी। दैवयोग से मंकणक मुनि की दृष्टि उस पर पड़ गयी और उनका वीर्य स्खलित होकर जल में गिर पड़ा। महातपस्वी मुनि ने उस वीर्य को एक कलश में ले लिया। कलश में स्थित होने पर वह वीर्य सात भागों में विभक्त हो गया। उस कलश में सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत मरुद्गण थे। उन के नाम इस प्रकार हैं- वायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेता और शक्तिशाली वायुचक्र। ये उन्चास मरुद्गणों के जन्मदाता ‘मरुत’ उत्पन्न हुए थे। राजन! महर्षि मंकणक का यह तीनों लोकों में विख्यात अदभुत चरित्र जैसा सुना गया है, इसे तुम भी श्रवण करो। वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है।

     नरेश्वर! हमारे सुनने में आया है कि पहले कभी सिद्ध मंकणक मुनि का हाथ किसी कुश के अग्रभाग से छिद गया था, उससे रक्त के स्थान पर शाक का रस चूने लगा था। वह शाक का रस देखकर मुनि हर्ष के आवेश से मतवाले हो नृत्य करने लगे। वीर! उनके नृत्य में प्रवृत्त होते ही स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के प्राणी उनके तेज से मोहित होकर नाचने लगे। राजन! नरेश्वर! तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपोधन महर्षियों ने ऋषि के विषय में महादेव जी से निवेदन किया-‘देव! आप ऐसा कोई उपाय करें, जिससे ये मुनि नृत्य न करें’।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद)

      मुनि को हर्ष के आवेश से अत्यन्त मतवाला हुआ देख महादेव जी ने (ब्राह्मण का रूप धारण करके) देवताओं के हित के लिये उनसे इस प्रकार कहा,

      महादेव ने कहा ;- ‘धर्मज्ञ ब्राह्मण! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं ? मुने! आपके लिये अधिक हर्ष का कौन सा कारण उपस्थित हो गया है? द्विजश्रेष्ठ! आप तो तपस्वी हैं, सदा धर्म के मार्ग पर स्थित रहते हैं, फिर आप क्यों हर्ष से उन्मत्त हो रहे हैं?’ 

     ऋषि ने कहा ;- ब्रह्मन! क्या आप नहीं देखते कि मेरे हाथ से शाक का रस चू रहा है। प्रभो! उसी को देखकर मैं महान हर्ष से नाचने लगा हूँ। यह सुनकर महादेव जी ठठाकर हंस पड़े और उन आसक्ति से मोहित हुए मुनि से बोले,

    महादेव जी बोले ;- ‘विप्रवर! मुझे तो यह देखकर विस्मय नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखो’। राजेन्द्र! मुनिश्रेष्ठ मंकणक मुनि से ऐसा कहकर बुद्धिमान महादेव जी ने अपनी अंगुलि के अग्रभाग से अंगूठे में घाव कर दिया। उस घाव से बर्फ के समान सफेद भस्म झड़ने लगा। राजन! यह देखकर मुनि लजा गये और महादेव जी के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने महादेव जी को पहचान लिया और विस्मित होकर कहा- ‘भगवन! मैं रुद्रदेव के सिवा दूसरे किसी देवता को परम महान नहीं मानता।

      आप ही देवताओं तथा असुरों सहित सम्पूर्ण जगत के आश्रयभूत त्रिशूलधारी महादेव हैं। ‘मनीषी पुरुष कहते हैं कि आपने ही इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है। प्रलय के समय यह सारा जगत आप में ही विलीन हो जाता है। इन्हीं ऋषियों की तपस्या से कल्पान्तर में दिति के गर्भ से उन्चास मरुद्रणों का आविर्भाव हुआ। ये ही दिति के उदर में एक गर्भ के रूप में प्रकट हुए, फिर इन्द्र के वज्र से कटकर उन्चास अमर शरीरों के रूप में उत्पन्न हुए- ऐसा समझना चाहिये। ‘सम्पूर्ण देवता भी आपको यथार्थ रूप से नहीं जान सकते, फिर मैं कैसे जान सकूंगा? संसार में जो-जो पदार्थ स्थित हैं, वे सब आप में देखे जाते हैं। ‘अनघ! ब्रह्मा आदि देवता आप वरदायक प्रभु की ही उपासना करते हैं। आप सर्वस्व रूप हैं। देवताओं के कर्ता और कारयिता भी आप ही हैं। आपके प्रसाद से ही सम्पूर्ण देवता यहाँ निर्भय हो आनन्द का अनुभव करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 54-59 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘शंकर! आप सब के प्रभु हैं। अपने उत्कृष्ट ऐश्वर्य से आपकी अधिक शोभा हो रही है। ब्रह्मा और इन्द्र सम्पूर्ण लोकों को धारण करके आप में ही स्थित हैं। ‘महेश्वर! सम्पूर्ण जगत के मूल कारण आप ही हैं। इसका अन्त भी आप में ही होता है। सब की उत्पत्ति के हेतु भूत परमेश्वर! से सातों लोक आप से ही उत्पन्न होकर ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं। ‘सर्वभूतेश्वर! देवता सब प्रकार से आपकी ही पूजा अर्चना करते हैं। सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भूतों के उपादान कारण भी आप ही हैं। ‘आप ही अभ्युदय की इच्छा रखने वाले सत्कर्म परायण मनुष्यों को ध्यान योग से उनके कर्मों का विचार करके उत्तम पद स्वर्गलोक प्रदान करते हैं। ‘महादेव! महेश्वर! कमल नयन! आपका कृपा प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता! आपकी दी हुई सामग्री से ही मैं कार्य कर पाता हूं, अतः सर्वदा सब ओर स्थित हुए सर्वव्यापी आप भगवान शंकर की मैं शरण में आता हूं’।

     इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके वे महर्षि नतमस्तक हो गये और इस प्रकार बोले,

     महर्षि ने कहा ;- ‘देव! मैंने जो यह अहंकार आदि प्रकट करने की चपलता की है, उसके लिये क्षमा मांगते हुए आप से प्रसन्न होने की मैं प्रार्थना करता हूँ। मेरी तपस्या नष्ट न हो’। यह सुनकर महादेव जी का मन प्रसन्न हो गया। वे उन महर्षि से पुनः बोले,

     महादेव जी बोले ;- ‘विप्रवर! मेरे प्रसाद से तुम्हारी तपस्या सहस्रगुनी बढ़ जाय। मैं इस आश्रम में सदा तुम्हारे साथ निवास करूंगा। जो इस सप्तसारस्वत तीर्थ में मेरी पूजा करेगा, उसके लिये इहलोक या परलोक में कुछ भी दुर्लभ न होगा। वे सारस्वत लोक में जायंगे- इसमें संशय नहीं है’। यह महातेजस्वी मंकणक मुनि का चरित्र बताया गया है। वे वायु के औरस पुत्र थे। वायु देवता ने सुकन्या के गर्भ से उन्हें उत्पन्न किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व मे बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक अड़तीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

उन्तालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“औशनस एवं कपालमोचन तीर्थ की माहात्म्य कथा तथा रुषंगु के आश्रम पृथूदक तीर्थ की महिमा”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! उस सप्तसारस्वत तीर्थ में रहकर हलधर बलराम जी ने आश्रमवासी ऋषियों का पूजन किया और मंकणक मुनि पर अपनी उत्तम प्रीति का परिचय दिया। भरतनन्दन! वहाँ ब्राह्मणों को दान दे उस रात्रि में निवास करने के पश्चात प्रातः काल उठ कर मुनिमण्डली से सम्मानित हो महाबली लांगलधारी बलराम ने पुनः तीर्थ के जल में स्नान किया और सम्पूर्ण ऋषि-मुनियों की आज्ञा ले अन्य तीर्थो में जाने के लिये वहाँ से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान कर दिया।

     तदनन्तर हलधारी बलराम औशनस तीर्थ में आये, जिसका दूसरा नाम कपालमोचन तीर्थ भी है। महाराज! पूर्वकाल में भगवान श्रीराम ने एक राक्षस को मारकर उसे दूर फेंक दिया था। उसका विशाल सिर महामुनि महोदर की जांघ में चपक गया था। वे महामुनि इस तीर्थ में स्नान करने पर उस कपाल से मुक्त हुए थे। महात्मा शुक्राचार्य ने वहीं पहले तप किया था, जिससे उनके हृदय में सम्पूर्ण नीति-विद्या स्फुरित हुई थी। वहीं रहकर उन्होंने दैत्यों अथवा दानवों के युद्ध के विषय में विचार किया था। राजन! उस श्रेष्ठ तीर्थ में पहुँच कर बलराम जी ने महात्मा ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन का दान दिया था।

     जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! उस तीर्थ का नाम कपाल मोचन कैसे हुआ, जहाँ महामुनि महोदर को छुटकारा मिला था? अनकी जांघ में वह सिर कैसे और किस कारण से चिपक गया था?

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- नृपश्रेष्ठ! पूर्वकाल की बात है, रघुकुल तिलक महात्मा श्रीरामचन्द्र जी ने दण्डकारण्य में रहते समय जब राक्षसों के संहार का विचार किया, तब तीखी धार वाले क्षुर से जनस्थान में उस दुरात्मा राक्षस का मस्तक काट दिया। वह कटा हुआ मस्तक उस महान वन में ऊपर को उछला और दैवयोग से वन में विचरते हुए महोदर मुनि की जांघ में जा लगा। नरेश्वर! उस समय उनकी हड्डी छेदकर वह भीतर तक घुस गया। उस मस्तक के चिपक जाने से वे महाबुद्धिमान ब्राह्मण किसी तीर्थ या देवालय में सुगमतापूर्वक आ-जा नहीं सकते थे। उस मस्तक से दुर्गन्धयुक्त पीब बहती रहती थी और महामुनि महोदर वेदना से पीड़ित हो गये थे। हमने सुना है कि मुनि ने किसी तरह भूमण्डल के सभी तीर्थों की यात्रा की। उन महातपस्वी महर्षि ने सम्पूर्ण सरिताओं और समुद्रों की यात्रा करके वहाँ रहने वाले पवित्रात्मा मुनियों से वह सब वृत्तान्त कह सुनाया। सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करके भी वे उस कपाल से छुटकारा न पा सके। विप्रवर! उन्होंने मुनियों के मुख से यह महत्त्वपूर्ण बात सुनी कि ‘सरस्वती का श्रेष्ठ तीर्थ जो औशनस नाम से विख्यात है, सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने वाला तथा परम उत्तम सिद्धि-क्षेत्र है’। तदनन्तर वे ब्रह्मर्षि वहाँ औशनस तीर्थ में गये और उसके जल से आचमन एवं स्नान किया। उसी समय वह कपाल उनके चरण (जांघ) को छोड़कर पानी के भीतर गिर पड़ा। प्रभो! उस मस्तक या कपाल से मुक्त होने पर महोदर मुनि को बड़ा सुख मिला। साथ ही वह मस्तक भी (जो उनकी जांघ से छूटकर गिरा था) पानी के भीतर अदृश्य हो गया। राजन! उस कपाल से मुक्त हो निष्पाप एवं पवित्र अन्तः करण वाले महोदर मुनि कृतकृत्य हो प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम पर औट आये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)

     संकट से मुक्त हुए उन महातपस्वी मुनि ने अपने पवित्र आश्रम पर जाकर वहाँ रहने वाले पवित्रात्मा ऋषियों से अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। मानद! तदनन्तर वहाँ आये हुए महर्षियों ने महोदर मुनि की बात सुनकर उस तीर्थ का नाम कपालमोचन रख दिया। इसके बाद महर्षि महोदर पुनः उस श्रेष्ठ तीर्थ में गये और वहाँ का प्रचुर जल पीकर उत्तम सिद्धि को प्राप्त हुए। वृष्णिवंशावतंस बलराम जी ने वहाँ ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें बहुत धन का दान किया। इसके बाद में रुषंगु मुनि के आश्रम पर गये।

      राजन! वहीं आर्ष्टिषेण मुनि ने घोर तपस्या की थी और वहीं महामुनि विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। प्रभो! वह महान आश्रम सम्पूर्ण मनोवान्छित वस्तुओं से सम्पन्न है। वहाँ बहुत से मुनि और ब्राह्मण सदा निवास करते हैं। राजेन्द्र! तत्पश्चात श्रीमान हलधर ब्राह्मणों से घिरकर उस स्थान पर गये, जहाँ रुषंगु ने अपना शरीर छोड़ा था।

     भारत! बूढ़े ब्राह्मण रुषंगु सदा तपस्या में संलग्न रहते थे। एक समय उन महातपस्वी रुषंगु मुनि ने शरीर त्याग देने का विचार करके बहुत कुछ सोचकर अपने सभी पुत्रों को बुलाया और उनसे कहा- ‘मुझे पृथूदक तीर्थ में ले चलो’। उन तपस्वी पुत्रों ने तपोधन रुषंगु को अत्यन्त वृद्ध जानकर उन्हें सरस्वती के उस उत्तम तीर्थ में पहुँचा दिया। राजन! नरव्याघ्र! वे पुत्र जब उन बुद्धिमान मुनि को ब्राह्मण समूहों से सेवित तथा सैकड़ों तीर्थो से सुशोभित पुण्य सलिला सरस्वती के तट पर ले आये, तब वे महातपस्वी महर्षि वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके तीर्थ के गुणों को जानकर अपने पास बैठे हुए सभी पुत्रों से प्रसन्नतापूर्वक बोले,

   महर्षि बोले ;- ‘जो सरस्वती के उत्तर तट पर पृथूदक तीर्थ में जप करते हुए अपने शरीर का परित्याग करता है, उसे भविष्य में पुनः मृत्यु का कष्ट नहीं भोगना पड़ता’। धर्मात्मा विप्रवत्सल हलधर बलराम जी ने उस तीर्थ में स्नान करके ब्राह्मणों को बहुत धन का दान किया। कुरुवंशी नरेश! तत्पश्चात बलवान एवं प्रतापी बलभद्र जी उस तीर्थ में आ गये, जहाँ लोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की थी, जहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि श्रेष्ठ आर्ष्टिषेण ने बड़ी भारी तपस्या करके ब्राह्मणत्व पाया था तथा जहाँ राजर्षि सिन्धुद्वीप, महान तपस्वी देवापि और महायशस्वी, उग्रतेजस्वी एवं महातपस्वी भगवान विश्वामित्र मुनि ने भी ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक उन्तालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

चालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“आर्ष्टिषेण एवं विश्वामित्र की तपस्या तथा वर प्राप्ति”

    जनमेजय ने से पूछा ;- ब्रह्मन! मुनिश्रेष्ठ! पूज्य आर्ष्टिषेण ने वहाँ किस प्रकार बड़ी भारी तपस्या की थी तथा सिन्धुद्वीप, देवापि और विश्वामित्र जी ने किस तरह ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था? भगवन! यह सब मुझे बताइये। इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ी भारी उत्सुकता है।

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! प्राचीन काल की सत्य युग की बात है, द्विज आर्ष्टिषेण सदा गुरुकुल में निवास करते हुए निरन्तर वेद-शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे। प्रजानाथ! नरेश्वर! गुरुकुल में सर्वदा रहते हुए भी न तो उनकी विद्या समाप्त हुई और न वे सम्पूर्ण वेद ही पढ़ सके। नरेश्वर! इससे महातपस्वी आर्ष्टिषेण खिन्न एवं विरक्त हो उठे, फिर उन्होंने सरस्वती के उसी तीर्थ में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। उस तप के प्रभाव से उत्तम वेदों का ज्ञान प्राप्त करके वे ऋषिश्रेष्ठ विद्वान वेदज्ञ और सिद्ध हो गये। तदनन्तर उन महातपस्वी ने उस तीर्थ को तीन वर प्रदान किये- ‘आज से जो मनुष्य महानदी सरस्वती के इस तीर्थ में स्नान करेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ का सम्पूर्ण फल प्राप्त होगा। आज से इस तीर्थ में किसी को सर्प से भय नहीं होगा। थोड़े समय तक ही इस तीर्थ के सेवन से मनुष्य को बहुत अधिक फल प्राप्त होगा’। ऐसा कह कर वे महातेजस्वी मुनि स्वर्ग लोक को चले गये। इस प्रकार पूजनीय एवं प्रतापी आर्ष्टिषेण ऋषि उस तीर्थ में सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।

     महाराज! उन्हीं दिनों उसी तीर्थ में प्रतापी सिन्धुद्वीप तथा देवापि ने वहाँ तप करके महान ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। तात! कुशिकवंशी विश्वामित्र भी वहीं निरन्तर इन्द्रिय संयमपूर्वक तपस्या करते थे। उस भारी तपस्या के प्रभाव से उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई। राजन! पहले इस भूतल पर गाधि नाम से विख्यात महान क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। प्रतापी विश्वामित्र उन्हीं के पुत्र थे। तात! लोग कहते हैं कि कुशिकवंशी राजा गाधि महान योगी और बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुत्र विश्वामित्र को राज्य पर अभिषिक्त करके शरीर को त्याग देने का विचार किया। तब सारी प्रजा उनसे नतमस्तक होकर बोली,

    प्रजा ने कहा ;- ‘महाबुद्धिमान नरेश! आप कहीं न जायं, यहीं रहकर हमारी इस जगत के महान भय से रक्षा करते रहें’। उनके ऐसा कहने पर गाधि ने सम्पूर्ण प्रजाओं से कहा,

    गाधि ने कहा ;- ‘मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत की रक्षा करने वाला होगा (अतः तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये)’। राजन यों कहकर राजा गाधि विश्वामित्र को राज सिंहासन पर बिठा कर स्वर्ग लोक को चले गये। तत्पश्चात विश्वामित्र राजा हुए। वे प्रयत्नशील होने पर भी सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा नहीं कर पाते थे। एक दिन राजा विश्वामित्र ने सुना कि ‘प्रजा को राक्षसों से महान भय प्राप्त हुआ है’। तब वे चतुरंगिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़े और दूर तक का रास्ता तय करके वसिष्ठ के आश्रम के पास जा पहुँचे।

     राजन! उनके उन सैनिकों ने वहाँ बहुत से अन्याय एवं अत्याचार किये। तदनन्तर पूज्य ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कहीं से अपने आश्रम पर आये। आकर उन्होंने देखा कि वह सारा विशाल वन उजाड़ होता जा रहा है। महाराज! यह देख कर मुनिवर वसिष्ठ राजा विश्वामित्र पर कुपित हो उठे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद)

फिर उन्होंने अपनी गौ नन्दिनी से कहा,

     ब्रह्मर्षि वसिष्ठ बोले ;- ‘तुम भयंकर भील जाति के सैनिकों की सृष्टि करो’। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर उनकी होम धेनु ने ऐसे पुरुषों को उत्पन्न किया, जो देखने में बड़े भयानक थे। उन्होंने विश्वामित्र की सेना पर आक्रमण करके उनके सैनिकों को सम्पूर्ण दिशाओं में मार भगाया। गाधिनन्दन विश्वामित्र ने जब यह सुना कि मेरी सेना भाग गयी तो तप को ही अधिक प्रबल मानकर तपस्या में ही मन लगाया। राजन! उन्होंने सरस्वती के उस श्रेष्ठ तीर्थ में चित्त को एकाग्र करके नियमों और उपवासों के द्वारा अपने शरीर को सुखाना आरम्भ किया। वे कभी जल पीकर रहते, कभी वायु को ही आहार बनाते और कभी पत्ते चबाकर रहते थे। सदा भूमि की वेदी बना कर उस पर सोते और तपस्या सम्बन्धी जो अन्य सारे नियम हैं, उनका भी पृथक-पृथक पालन करते थे। देवताओं ने उनके व्रत में बारंबार विघ्न डाला; परंतु उन महात्मा की बुद्धि कभी नियम से विचलित नहीं होती थी। तदनन्तर महान प्रयत्न के द्वारा नाना प्रकार की तपस्या करके गाधिनन्दन विश्वामित्र अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे।

      विश्वामित्र को ऐसी तपस्या से युक्त देख महातेजस्वी एवं वरदायक ब्रह्मा जी ने उन्हें वर देने का विचार किया। राजन! तब उन्होंने यह वर मांगा कि ‘मैं ब्राह्मण हो जाऊं।’ सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी ने उन्हें ‘तथास्तु’ कहकर वह वर दे दिया। उस उग्र तपस्या के द्वारा ब्राह्मणत्व पाकर सफल मनोरथ हुए महायशस्वी विश्वामित्र देवता के समान समस्त भूमण्डल में विचरने लगे। राजन! बलराम जी ने उस श्रेष्ठ तीर्थ में उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें दूध देने वाली गौएं, वाहन, शय्या, वस्त्र, अलंकार तथा खाने-पीने के सुन्दर पदार्थ प्रसन्नतापूर्वक दिये। फिर वहाँ से वे बक के आश्रम के निकट गये, जहाँ दल्भ पुत्र बक ने तीव्र तपस्या की थी।

 (इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक चालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

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