सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“पण्डवों का द्वैपायन सरोवर पर जाना, वहाँ युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण की बातचीत तथा तालाब में छिपे हुए दुर्योधन के साथ युधिष्ठिर का संवाद”
संजय कहते हैं ;- महाराज! उन तीनों रथियों के हट जाने पर पाण्डव उस सरोवर के तट पर आये, जिसमें दुर्योधन छिपा हुआ था। कुरुश्रेष्ठ! द्वैपायन-कुण्ड पर पहुँच कर युधिष्ठिर ने देखा कि दुर्योधन ने इस जलाशय के जल को स्तम्भित कर दिया है। यह देख कर कुरुनन्दन युधिष्ठिर ने भगवान वासुदेव से इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘प्रभो! देखिये तो सही, दुर्योधन ने जल के भीतर इस माया का कैसा प्रयोग किया है? ‘यह पानी को रोक कर सो रहा है। इसे यहाँ मनुष्य से किसी प्रकार का भय नहीं है; क्योंकि यह इस दैवी माया का प्रयोग करके जल के भीतर निवास करता है। ‘माधव! यद्यपि यह छल-कपट की विद्या में बड़ा चतुर है, तथापि कपट करके मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। यदि समरांगण में साक्षात वज्रधारी इन्द्र इसकी सहायता करें तो भी युद्ध में इसे सब लोग मरा हुआ ही देखेंगे’।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- भारत! मायावी दुर्योधन की इस माया को आप माया द्वारा ही नष्ट कर डालिये! युधिष्ठिर! मायावी का वध माया से ही करना चाहिये, यह सच्ची नीति है। भरतश्रेष्ठ! आप बहुत से रचनात्मक उपायों द्वारा जल में माया का प्रयोग करके मायामय दुर्योधन का वध कीजिये। रचनात्मक उपायों से ही इन्द्र ने बहुत से दैत्य और दानवों का संहार किया, नाना प्रकार के रचनात्मक उपायों से ही महात्मा श्रीहरि ने बलि को बांधा और बहुसंख्यक रचनात्मक उपायों से ही उन्होंने महान असुर हिरण्याक्ष का वध किया था। क्रियात्मक प्रयत्न के द्वारा ही भगवान ने हिरण्यकशिपु को भी मारा था। राजन! वृत्रासुर का वध भी क्रियात्मक उपाय से ही हुआ था, इसमें संशय नहीं है। राजन! पुलस्त्यकुमार विश्रवा का पुत्र रावण नामक राक्षस श्रीरामचन्द्र जी के द्वारा क्रियात्मक उपाय और युक्ति और कौशल के सहारे ही सम्बन्धियों और सेवकों सहित मारा गया, उसी प्रकार आप भी पराक्रम प्रकट करें। नरेश्वर! पूर्वकाल के महादैत्य तारक और पराक्रमी विप्रचित्ति को मैंने क्रियात्मक उपायों से ही मारा था। प्रभो! वातापि, इल्वल, त्रिशिरा तथा सुन्द-उपसुन्द नामक असुर भी कार्य कौशल से ही मारे गये हैं। क्रियात्मक उपायों से ही इन्द्र स्वर्ग का राज्य भोगते हैं। राजन! कार्य कौशल ही बलवान है, दूसरी कोई वस्तु नहीं। युधिष्ठिर! दैत्य, दानव, राक्षस तथा बहुत से भूपाल क्रियात्मक उपायों से ही मारे गये हैं; अतः आप भी क्रियात्मक उपाय का ही आश्रय लें।
संजय कहते हैं ;- महाराज! भरतनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करने वाले पाण्डुकुमार कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने जल में स्थित हुए आपके महाबली पुत्र से हंसते हुए से कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘प्रजानाथ सुयोधन! तुमने किस लिये पानी में यह अनुष्ठान आरम्भ किया है। सम्पूर्ण क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार करा कर आज अपनी जान बचाने की इच्छा से तुम जलाशय में घुसे बैठै हो। राजा सुयोधन! उठो और हम लोगों के साथ युद्ध करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)
‘राजन! नरश्रेष्ठ! तुम्हारा वह पहले का दर्प और अभिमान कहाँ चला गया, जो डर के मारे जल का स्तम्भन करके यहाँ छिपे हुए हो? ‘सभा में सब लोग तुम्हें शूरवीर कहा करते हैं। जब तुम भयभीत होकर पानी में सो रहे हो, तब तुम्हारे उस तथा कथित शौर्य को मैं व्यर्थ समझता हूँ। राजन! उठो, युद्ध करो; क्योंकि तुम कुलीन क्षत्रिय हो, विशेषतः कुरुकुल की संतान हो अपने कुल और जन्म का स्मरण तो करो। ‘तुम तो कौरव वंश में उत्पन्न होने के कारण अपने जन्म की प्रशंसा करते थे। फिर आज युद्ध से डर कर पानी के भीतर कैसे घुसे बैठे हो?
‘नरेश्वर! युद्ध न करना अथवा युद्ध में स्थिर न रह कर वहाँ से पीठ दिखाकर भागना यह सनातन धर्म नहीं है। नीच पुरुष ही ऐसे कुमार्ग का आश्रय लेते हैं। इससे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। ‘युद्ध से पार पाये बिना ही तुम्हें जीवित रहने की इच्छा कैसे हो गयी? तात! रणभूमि में गिरे हुए इन पुत्रों, भाईयों और चाचे-ताऊओं को देखकर सम्बन्धियों, मित्रों, मामाओं और बन्धु-बान्धवों का वध कराकर इस समय तालाब में क्यों छिपे बैठे हो? ‘तुम अपने को शूर तो मानते हो, परंतु शूर हो नहीं। भरतवंश के खोटी बुद्धि वाले नरेश! तुम सब लोगों के सुनते हुए व्यर्थ ही कहा करते हो कि ‘मैं शूरवीर हूं’। ‘जो वास्तव में शूरवीर हैं, वे शत्रुओं को देखकर किसी तरह भागते नहीं हैं। अपने को शूर कहने वाले सुयोधन! बताओ तो सही, तुम किस वृत्ति का आश्रय लेकर युद्ध छोड़ रहे हो। ‘अतः तुम अपना भय दूर करके उठो और युद्ध करो।
सुयोधन! भाइयों तथा सम्पूर्ण सेना को मरवाकर क्षत्रिय धर्म का आश्रय लिये हुए तुम्हारे-जैसे पुरुष को धर्म सम्पादन की इच्छा से इस समय केवल अपनी जान बचाने का विचार नहीं करना चाहिये। ‘तुम जो कर्ण और सुबल पुत्र शकुनि का सहारा लेकर मोहवश अपने आप को अजर-अमर सा मान बैठे थे, अपने को मनुष्य समझते ही नहीं थे, वह महान पाप करके अब युद्ध क्यों नहीं करते? भारत! उठो, हमारे साथ युद्ध करो। तुम्हारे जैसा वीर पुरुष मोहवश पीठ दिखाकर भागना कैसे पसंद करेगा? ‘सुयोधन! तुम्हारा वह पौरुष कहाँ चला गया? कहाँ है वह तुम्हारा अभिमान? कहाँ गया पराक्रम? कहाँ है वह महान गर्जन-तर्जन? और कहाँ गया वह अस्त्र विद्या का ज्ञान? इस समय इस तालाब में तुम्हें कैसे नींद आ रही है? भारत! उठो और क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करो। ‘भरतनन्दन! हम सब लोगों को परास्त करके इस पृथ्वी का शासन करो अथवा हमारे हाथों मारे जाकर सदा के लिये रणभूमि में सो जाओ। ‘भगवान ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये यही उत्तम धर्म बनाया है। उस धर्म का यथार्थ रूप से पालन करो। महारथी वीर! वास्तव में राजा बनो (राजोचित पराक्रम प्रकट करो)’।
संजय कहते हैं ;- महाराज! बुद्धिमान धर्म पुत्र युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जल के भीतर स्थित हुए तुम्हारे पुत्र ने यह बात कही।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 38-54 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन बोला ;- महाराज! किसी भी प्राणी के मन में भय समा जाय, यह आश्चर्य की बात नहीं है; परंतु भरतनन्दन! मैं प्राणों के भय से भाग कर यहाँ नहीं आया हूँ। मेरे पास न तो रथ है और न तरकस। मेरे पाश्र्वरक्षक भी मारे जा चुके हैं। मेरी सेना नष्ट हो गयी और मैं युद्ध स्थल में अकेला रह गया था; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई। प्रजानाथ! मैं न तो प्राणों की रक्षा के लिये, न किसी भय से और न विषाद के ही कारण इस जल में आ घुसा हूँ। केवल थक जाने के कारण मैंने ऐसा किया है। कुन्तीकुमार! तुम भी कुछ देर तक विश्राम कर लो। तुम्हारे अनुगामी सेवक भी सुस्ता लें। फिर मैं उठ कर समरागंण में तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सुयोधन! हम सब लोग तो सुस्ता ही सुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं; इसलिये अब तुम उठो और यहीं युद्ध करो। संग्राम में समस्त पाण्डवों को मार कर समद्धिशाली राज्य प्राप्त करो अथवा रणभूमि में हमारे हाथों मारे जाकर वीरों को मिलने योग्य पुण्य लोकों में चले जाओ।
दुर्योधन बोला ;- कुरुनन्दन नरेश्वर! मैं जिनके लिये कौरवों का राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। भूमण्डल के सभी क्षत्रिय शिरोमणियों का संहार हो गया है। यहाँ के सभी रत्न नष्ट हो गये हैं; अतः विधवा स्त्री के समान श्री हीन हुई इस पृथ्वी का उपभोग करने के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है। भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! मैं आज भी पाञ्चालों और पाण्डवों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने का हौसला रखता हूँ। किंतु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये तथा पितामह भीष्म मार डाले गये तो अब मेरी राय में कभी भी इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं रही। राजन! अब यह सूनी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे। कौन राजा सहायकों से रहित होकर राज्य शासन की इच्छा करेगा? वैसे हितैषी सुहृदों, पुत्रों, भाइयों और पिताओं को छोड़ कर तुम लोगों के द्वारा राज्य का अपहरण को जाने पर कौन मेरे जैसा पुरुष जीवित रहेगा? भरतनन्दन! मैं मृगचर्म धारण करके वन में चला जाऊंगा। अपने पक्ष के लोगों के मारे जाने से अब इस राज्य में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। राजन! यह पृथ्वी, जहाँ मेरे अधिक से अधिक भाई बन्धु, घोड़े और हाथी मारे गये हैं, अब तुम्हारे ही अधिकार में रहे। तुम निश्चिन्त होकर इसका अपभोग करो। प्रभो! मैं तो दो मृग छाला धारण करके वन में ही चला जाऊंगा, जब मेरे स्वजन ही नहीं रहे, तब मुझे भी इस जीवन को सुरक्षित रखने की इच्छा नहीं है। राजेन्द्र! जाओ, जिसके स्वामी का नाश हो गया है, योद्धा मारे गये हैं और सारे रत्न नष्ट हो गये हैं, उस पृथ्वी का आनन्दपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी जीविका क्षीण हो गयी थी। संजय कहते हैं- राजन! महायशस्वी युधिष्ठिर ने वह करुणायुक्त वचन सुनकर पानी में स्थित हुए आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 55-73 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर बोले ;- नरेश्वर! तुम जल में स्थित होकर आर्त पुरुषों के समान प्रलाप न करो। तात! चिडि़यों के चहचहाने के समान तुम्हारी यह बात मेरे मन में कोई अर्थ नहीं रखती है। सुयोधन! यदि तुम इसे देने में समर्थ होते तो भी मैं तुम्हारी दी हुई इस पृथ्वी पर शासन करने की इच्छा नहीं रखता। राजन! तुम्हारी दी हुई इस भूमि को मैं अधर्मपूर्वक नहीं ले सकता; क्षत्रिय के लिये दान लेना धर्म नहीं बताया गया है। तुम्हारे देने पर इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भी मैं नहीं लेना चाहता। तुम्हें युद्ध में परास्त करके ही इस वसुधा का उपभोग करूंगा। अब तो तुम स्वयं ही इस पृथ्वी के स्वामी नहीं रहे; फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो? राजन! जब हम लोग कुल में शान्ति बनाये रखने के लिये पहले धर्म के अनुसार अपना ही राज्य मांग रहे थे, उसी समय तुमने हमें यह पृथ्वी क्यों नहीं दे दी। नरेश्वर! पहले महाबली भगवान श्रीकृष्ण को हमारे लिये राज्य देने से इन्कार करके इस समय क्यों दे रहे हो? तुम्हारे चित्त में यह कैसा भ्रम छा रहा है? जो शत्रुओं से आक्रान्त हो, ऐसा कौन राजा किसी को भूमि देने की इच्छा करेगा? कौरव नन्दन नरेश! अब न तो तुम किसी को पृथ्वी दे सकते हो और न बलपूर्वक उसे छीन ही सकते हो। ऐसी दशा में तुम्हें भूमि देने की इच्छा कैसे हो गयी?
मुझे संग्राम में जीत कर इस पृथ्वी का पालन करो। भारत! पहले तो तुम सूई की नोक से जितना छिद सके, भूमि का उतना सा भाग भी मुझे नहीं दे रहे थे। प्रजानाथ! फिर आज यह सारी पृथ्वी कैसे दे रहे हो? पहले तो तुम सूई की नोक बराबर भी भूमि नहीं छोड़ रहे थे, अब सारी पृथ्वी कैसे त्याग रहे हो? इस प्रकार ऐश्वर्य पाकर इस वसुधा का शासन करके कौन मूर्ख शत्रु के हाथ में अपनी भूमि देना चाहेगा? तुम तो केवल मूर्खतावश विवेक खो बैठे हो; इसीलिये यह नहीं समझते कि आज भूमि देने की इच्छा करने पर भी तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। या तो हम लोगों को परास्त करके तुम्हीं इस पृथ्वी का शासन करो या हमारे हाथों मारे जाकर परम उत्तम लोकों में चले जाओ। राजन! मेरे और तुम्हारे दोनों के जीते-जी हमारी विजय के विषय में समस्त प्राणियों को संदेह बना रहेगा। दुर्मते! इस समय तुम्हारा जीवन मेरे हाथ में है। मैं इच्छानुसार तुम्हें जीवन दान दे सकता हूं; परंतु तुम स्वेच्छा पूर्वक जीवित रहने में समर्थ नहीं हो। याद है न, तुमने हम लोगों को जला डालने के लिये विशेष प्रयत्न किया था। भीम को विषधर सर्पों से डसवाया, विष खिलाकर उन्हें पानी में डुबाया, हम लोगों का राज्य छीन कर हमें अपने कपट जाल का शिकार बनाया, द्रौपदी को कटु वचन सुनाये और उसके केश खींचे। पापी! इन सब कारणों से तुम्हारा जीवन नष्ट सा हो चुका है। उठो-उठो, युद्ध करो; इसी से तुम्हारा कल्याण होगा। नरेश्वर! वे विजयी वीर पाण्डव इस प्रकार वहाँ बारम्बार नाना प्रकार की बातें कहने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में दुर्योधन-युधिष्ठिर संवाद विषयक इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर के कहने से दुर्योधन का तालाब से बाहर होकर किसी एक पाण्डव के साथ गदा युद्ध के लिये तैयार होना”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! शत्रुओं को संताप देने वाला मेरा वीर पुत्र राजा दुर्योधन स्वभाव से ही क्रोधी था। जब युधिष्ठिर ने उसे इस प्रकार फटकारा, तब उसकी कैसी दशा हुई? उसने पहले कभी किसी तरह ऐसी फटकार नहीं सुनी थी; क्योंकि राजा होने के कारण वह सब लोगों के सम्मान का पात्र था। अभिमानी होने के कारण जिसके मन में अपने छत्र की छाया और सूर्य की प्रभा भी खेद ही उत्पन्न करती थी, वह ऐसी कठोर बातें कैसे सह सकता था? संजय! तुमने तो प्रत्यक्ष ही देखा था कि म्लेच्छों तथा जंगली जातियों सहित यह सारी पृथ्वी दुर्योधन की कृपा से ही जीवन धारण करती थी। इस समय वह अपने सेवकों से हीन हो चुका था और एकान्त स्थान में घिर गया था। उस दशा में विशेषतः पाण्डवों ने जब उसे वैसी कड़ी फटकार सुनायी, तब शत्रुओं के विजय से युक्त उन कटुवचनों को बारंबार सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों से क्या कहा? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजाधिराज! राजन! उस समय भाइयों सहित युधिष्ठिर ने जब इस प्रकार फटकारा, तब जल में खड़े हुए आपके पुत्र ने उन कठोर वचनों को सुनकर गरम-गरम लंबी सांस छोड़ी। राजा दुर्योधन विषम परिस्थिति में पड़ गया था और पानी में स्थित था; इसलिये बारंबार उच्छ्वास लेता रहा।
उसने जल के भीतर ही अनेक बार दोनों हाथ हिलाकर मन ही मन युद्ध का निश्चय किया और राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘तुम सभी पाण्डव अपने हितैषी मित्रों को साथ लेकर आये हो। तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। मैं अकेला थका-मादा, रथहीन और वाहनशून्य हूँ। ‘तुम्हारी संख्या अधिक है। तुमने रथ पर बैठकर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे घेर रखा है। फिर तुम्हारे साथ मैं अकेला पैदल और अस्त्र-शस्त्रों से रहित होकर कैसे युद्ध कर सकता हूँ? ‘युधिष्ठिर! तुम लोग एक-एक करके मुझसे युद्ध करो। युद्ध में बहुत से वीरों के साथ किसी एक को लड़ने के लिये विवश करना न्यायोचित नहीं है। ‘विशेषतः उस दशा में जिसके शरीर पर कवच नहीं हो, जो थका मांदा, आपत्ति में पड़ा और अत्यन्त घायल हो तथा जिसके वाहन और सैनिक भी थक गये हों, उसे युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है। ‘राजन! मुझे न तो तुमसे, ना कुन्ती के बेटे भीमसेन से, न अर्जुन से, न श्रीकृष्ण से अथवा पाञ्चालों से ही कोई भय है। नकुल-सहदेव, सात्यकि तथा अन्य जो-जो तुम्हारे सैनिक हैं, उनसे भी मैं नहीं डरता। युद्ध में क्रोधपूर्वक स्थित होने पर मैं अकेला ही तुम सब लोगों को आगे बढ़ने से रोक दूंगा। ‘नरेश्वर! साधु पुरुषों की कीर्ति का मूल कारण धर्म ही है। मैं यहाँ उस धर्म और कीर्ति का पालन करता हुआ ही यह बात कह रहा हूँ। ‘मैं उठ कर रणभूमि में एक एक करके आये हुए तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा, ठीक उसी तरह, जैसे संवत्सर बारी-बारी से आये हुए सम्पूर्ण ऋतुओं को ग्रहण करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
‘पाण्डवों! स्थिर होकर खड़े रहो। आज मैं अस्त्र-शस्त्र एवं रथ से हीन होकर भी घोड़ों और रथों पर चढ़ कर आये हुए तुम सब लोगों को उसी तरह अपने तेज से नष्ट कर दूंगा, जैसे रात्रि के अन्त में सूर्यदेव सम्पूर्ण नक्षत्रों को अपने तेज से अदृश्य कर देते हैं। ‘भरतश्रेष्ठ! आज मैं भाइयों सहित तुम्हारा वध करके उन यशस्वी क्षत्रियों के ऋण से उऋण हो जाऊंगा। बाह्लीक, द्रोण, भीष्म, महामना कर्ण, शूरवीर जयद्रथ, भगदत्त, मद्रराज शल्य, भूरिश्रवा, सुबलकुमार शकुनि तथा पुत्रों, मित्रों, सुहृदों एवं बन्धु बान्धवों के ऋण से भी उऋण हो जाऊंगा।’ राजा दुर्योधन इतना कहकर चुप हो गया।
युधिष्ठिर बोले ;- सुयोधन! सौभाग्य की बात है कि तुम भी क्षत्रिय धर्म को जानते हो। महाबाहो! यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अभी तुम्हारा विचार युद्ध करने का ही है। कुरुनन्दन! तुम शूरवीर हो और युद्ध करना जानते हो- यह हर्ष और सौभाग्य की बात है। तुम रणभूमि में अकेले ही एक-एक के साथ भिड़ कर हम सब लोगों से युद्ध करना चाहते हो तो ऐसा ही सही। जो हथियार तुम्हें पसंद हो, उसी को लेकर हम लोगों में से एक-एक के साथ युद्ध करो। हम सब लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे। वीर! मैं स्वयं ही पुनः तुम्हें यह अभीष्ट वर देता हूँ कि ‘हम में से एक का भी वध कर देने पर सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा अथवा यदि तुम्हीं मारे गये तो स्वर्गलोक प्राप्त करोगे।’
दुर्योधन बोला ;- राजन! यदि ऐसी बात है तो इस महासमर में मेरे साथ लड़ने के लिये आज किसी भी एक शूरवीर को दे दो और तुम्हारी सम्मति के अनुसार हथियारों में मैंने एक मात्र इस गदा का ही वरण किया है। मैं हर्ष के साथ कह रहा हूँ कि ‘तुम में से कोई भी एक वीर जो मुझ अकेले को जीत सकने का अभिमान रखता हो, वह रणभूमि में पैदल ही गदा द्वारा मेरे साथ युद्ध करे’। रथ के विचित्र युद्ध तो पग-पग पर हुए हैं। आज यह एक अत्यन्त अद्भुत गदा युद्ध भी हो जाय। मनुष्य बारी-बारी से एक-एक अस्त्र का प्रयोग करना चाहते हैं; परंतु आज तुम्हारी अनुमति से युद्ध भी क्रमशः एक-एक योद्धा के साथ ही हो। महाबाहो! मैं गदा के द्वारा भाइयों सहित तुम को, पाञ्चालों और सृंजयों को तथा जो तुम्हारे दूसरे सैनिक हैं, उनको भी जीत लूंगा। युधिष्ठिर! मुझे इन्द्र से भी कभी घबराहट नहीं होती।
युधिष्ठिर बोले ;- गान्धारीनन्दन! सुयोधन! उठो-उठो और मेरे साथ युद्ध करो। बलवान तो तुम हो ही। युद्ध में गदा के द्वारा अकेले किसी एक वीर के साथ ही भिड़ कर अपने पुरुषत्व का परिचय दो। एकाग्रचित्त होकर युद्ध करो। यदि इन्द्र भी तुम्हारे आश्रयदाता हो जायं तो भी आज तुम्हारे प्राण नहीं बच सकते।
संजय कहते हैं ;- राजन! युधिष्ठिर के इस कथन को जल में स्थित हुआ आपका पुत्र पुरुष सिंह दुर्योधन नहीं सह सका। वह बिल में बैठे हुए विशाल सर्प के समान लंबी सांस खींचने लगा। राजन! जैसे अच्छा घोड़ा कोड़े की मार नहीं सह सकता है, उसी प्रकार वचन रूपी चाबुक से बार-बार पीड़ित किया जाता हुआ दुर्योधन युधिष्ठिर की उस बात को सहन न कर सका।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद)
वह पराक्रमी वीर बड़े वेग से सोने के अंगद से विभूषित एवं लोहे की बनी हुई भारी गदा हाथ में लेकर पानी को चीरता हुआ उसके भीतर से उठ खड़ा हुआ और सर्पराज के समान लंबी सांस खींचने लगा। कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल का भेदन करके आपका वह पुत्र प्रतापी सूर्य के समान ऊपर उठा। इसके बाद महाबली बुद्धिमान दुर्योधन ने लोहे की बनी हुई वह सुवर्णभूषित भारी गदा हाथ में ली। हाथ में गदा लिये हुए दुर्योधन को पाण्डवों ने इस प्रकार देखा, मानो कोई श्रृंग युक्त पर्वत हो अथवा प्रजा पर कुपित होकर हाथ में त्रिशूल लिये हुए रुद्रदेव खड़े हों। वह गदाधारी भरतवंशी वीर तपते हुए सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु दुर्योधन को हाथ मे गदा लिये जल से निकला हुआ देख समस्त प्राणी ऐसा मानने लगे, मानो दण्डधारी यमराज प्रकट हो गये हों।
नरेश्वर! सम्पूर्ण पाञ्चालों ने आपके पुत्र को वज्रधारी इन्द्र और त्रिशूलधारी रुद्र के समान देखा। उसे जल से बाहर निकला देख समस्त पाञ्चाल और पाण्डव हर्ष से खिल उठे और एक-दूसरे से हाथ मिलाने लगे। महाराज! उनके इस हाथ मिलाने को दुर्योधन ने अपना उपहास समझा; अतः क्रोधपूर्वक आंखें घुमा कर पाण्डवों की ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें जला कर भस्म कर देना चाहता हो। उसने अपनी भौहों को तीन जगह से टेढ़ी करके दांतों से ओठ को दबाया और श्रीकृष्ण सहित पाण्डवों से इस प्रकार कहा। दुर्योधन बोला- पाञ्चालो और पाण्डवो! इस उपहास का फल तुम्हें अभी भोगना पड़ेगा; मेरे हाथ से मारे जाकर तुम तत्काल यमलोक में पहुँच जाओगे।
संजय कहते हैं ;- राजन! आप का पुत्र दुर्योधन उस जल से निकल कर हाथ में गदा लिये खड़ा हो गया। वह रक्त से भीगा हुआ था। उस समय खून से लथपथ हुए दुर्योधन का शरीर पानी से भीग कर जल का स्त्रोत बहाने वाले पर्वत के समान प्रतीत होता था। वहाँ हाथ में गदा उठाये हुए वीर दुर्योधन को पाण्डवों ने क्रोध में भरे हुए यमराज तथा हाथ में त्रिशूल लेकर खड़े हुए रुद्र के समान समझा। उस पराक्रमी वीर ने हंकड़ते हुए सांड़ के समान मेघ के तुल्य गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े हर्ष के साथ गदा युद्ध के लिये पाण्डवों का ललकारा।
दुर्योधन बोला ;- युधिष्ठिर! तुम लोग एक-एक करके मेरे साथ युद्ध के लिये आते जाओ। रणभूमि में किसी एक वीर को बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है। विशेषतः उस वीर को जिसने अपना कवच उतार दिया हो, जो थक कर जल में गोता लगा कर विश्राम कर रहा हो, जिसके सारे अंग अत्यन्त घायल हो गये हों तथा जिसके वाहन और सैनिक मार डाले गये हों, किसी समूह के साथ युद्ध के लिये बाध्य करना कदापि उचित नहीं है। मुझे तो तुम सब लोगों के साथ अवश्य युद्ध करना है; परंतु इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित; इसे तुम सदा अच्छी तरह जानते हो।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सुयोधन! जब तुम बहुत से महारथियों ने मिलकर युद्ध में अभिमन्यु को मारा था, उस समय तुम्हारे मन में ऐसा विचार क्यों नहीं उत्पन्न हुआ?
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 56-71 का हिन्दी अनुवाद)
वास्तव में क्षत्रिय धर्म बड़ा ही क्रूर, किसी की भी अपेक्षा न रखने वाला तथा अत्यन्त निर्दय है; अन्यथा तुम सब लोग धर्मज्ञ, शूरवीर तथा युद्ध में शरीर का विसर्जन करने को उद्यत रहने वाले होकर भी उस असहाय अवस्था में अभिमन्यु का वध कैसे कर सकते थे? न्यायपूर्वक युद्ध करने वाले वीरों के लिये परम उत्तम इन्द्रलोक की प्राप्ति बतलायी गयी है। ‘बहुत से योद्धा मिलकर किसी एक वीर को न मारें’ यदि यही धर्म है तो तुम्हारी सम्मति से अनेक महारथियों ने अभिमन्यु का वध कैसे किया? प्रायः सभी प्राणी जब स्वयं संकट में पड़ जाते हैं तो अपनी रक्षा के लिये धर्मशास्त्र की दुहाई दने लगते हैं और जब अपने उच्च पद पर प्रतिष्ठित होते हैं, उस समय उन्हें परलोक का दरवाजा बंद दिखायी देता है।
वीर भरतनन्दन! तुम कवच धारण कर लो, अपने केशों को अच्छी तरह बांध लो तथा युद्ध की और कोई आवश्यक सामग्री जो तुम्हारे पास न हो, उसे भी ले लो। वीर! मैं पुनः तुम्हें एक अभीष्ट वर देता हूं- ‘पाचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, उस एक का ही वध कर देने पर तुम राजा हो सकते हो अथवा यदि स्वयं मारे गये तो स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे। शूरवीर! बताओ, युद्ध में जीवन की रक्षा के सिवा तुम्हारा और कौन सा प्रिय कार्य हम कर सकते हैं?
संजय कहते हैं ;- राजन! तदन्नतर आपके पुत्र ने सुवर्णमय कवच तथा स्वर्णजटित विचित्र शिरस्त्राण धारण किया। महाराज! शिरस्त्राण बांधकर सुन्दर सुवर्णमय कवच धारण करके आप का पुत्र स्वर्णमय गिरिराज मेरु के समान शोभा पाने लगा। नरेश्वर! युद्ध के मुहाने पर सुसज्जित हो कवच बांधे और गदा हाथ में लिये आपके पुत्र दुर्योधन ने सतस्त पाण्डवों से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे भाइयों में से कोई एक मेरे साथ गदा द्वारा युद्ध करे। मैं सहदेव, नकुल, भीमसेन, अर्जुन अथवा स्वयं तुम से भी युद्ध कर सकता हूँ। ‘रणक्षेत्र में पहुँच कर मैं तुम में से किसी एक के साथ युद्ध करूंगा और मेरा विश्वास है कि समरांगण में विजय पाऊंगा। पुरुष सिंह! आज मैं सुवर्णपत्र जटित गदा के द्वारा वैर के उस पार पहुँच जाऊंगा, जहाँ जाना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। ‘मैं इस बात को सदा याद रखता हूँ कि ‘गदा युद्ध में मेरी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है।’ गदा के द्वारा सामने आने पर मैं तुम सभी लोगों को मार डालूंगा। ‘तुम सभी लोग अथवा तुम में से कोई भी मेरे साथ न्यायपूर्वक युद्ध करने में समर्थ नहीं हो। मुझे स्वयं ही अपने विषय में इस प्रकार गर्व से उद्धत वचन नहीं कहना चाहिये, तथापि कहना पड़ा है अथवा कहने की क्या आवश्यकता? मैं तुम्हारे सामने ही यह सब सफल कर दिखाऊंगा। ‘मेरा वचन सत्य है या मिथ्या, यह इसी मुहूर्त में स्पष्ट हो जायगा। आज मेरे साथ जो भी युद्ध करने को उद्यत हो, वह गदा उठावे’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में युधिष्ठिर और दुर्योधन का संवाद विषयक बत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
तैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को फटकारना, भीमसेन की प्रशंसा तथा भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन! जब यों कहकर दुर्योधन बारंबार गर्जना करने लगा, उस समय भगवान श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित होकर युधिष्ठिर से बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘युधिष्ठिर! यदि यह दुर्योधन युद्ध में तुम को, अर्जुन को अथवा नकुल या सहदेव को ही युद्ध के लिये वरण कर ले, तब क्या होगा? राजन! आपने क्यों ऐसी दुःसाहस पूर्ण बात कह डाली कि ‘तुम हम में से एक को ही मार कर कौरवों का राजा हो जाओ’। मैं नहीं मानता कि आप लोग युद्ध में गदाधारी दुर्योधन का सामना करने में समर्थ हैं। राजन! इसने भीमसेन का वध करने की इच्छा से उनकी लोहे की मूर्ति के साथ तेरह वर्षों तक गदा युद्ध का अभ्यास किया है। भरतभूषण! अब हम लोग अपना कार्य कैसे सिद्ध कर सकते हैं? नृपश्रेष्ठ! आपने दयावश यह दुःसाहस पूर्ण कार्य कर डाला है। मैं कुन्तिपुत्र भीमसेन के सिवा, दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो गदा युद्ध में दुर्योधन का सामना कर सके, परंतु भीमसेन ने भी अधिक परिश्रम नहीं किया है। इस समय आपने पहले के समान ही पुनः यह जूए का खेल आरम्भ कर दिया है। प्रजानाथ! आपका यह जूआ शकुनि के जूए से कहीं अधिक भयंकर है। राजन! माना कि भीमसेन बलवान और समर्थ हैं, परंतु राजा दुर्योधन ने अभ्यास अधिक किया है।
एक ओर बलवान हो और दूसरी ओर युद्ध का अभ्यासी, तो उन में युद्ध का अभ्यास करने वाला ही बड़ा माना जाता है। अतः महाराज! आपने अपने शत्रु को समान मार्ग पर ला दिया है। अपने आप को तो भारी संकट में फंसाया ही है, हम लोगों को भी भारी कठिनाई में डाल दिया है। भला कौन ऐसा होगा, जो सब शत्रुओं को जीत लेने के बाद जब एक ही बाकी रह जाय और वह भी संकट में पड़ा हो तो उस के साथ अपने हाथ में आये हुए राज्य को दांव पर लगाकर हार जाय और इस प्रकार एक के साथ युद्ध करने की शर्त रखकर लड़ना पसंद करे? मैं संसार में किसी भी शूरवीर को, वह देवता ही क्यों न हो, ऐसा नहीं देखता, जो आज रणभूमि में गदाधारी दुर्योधन को परास्त करने में समर्थ हो। आप, भीमसेन, नकुल, सहदेव अथवा अर्जुन- कोई भी न्यायपूर्वक युद्ध करके दुर्योधन पर विजय नहीं पा सकते; क्योंकि राजा सुयोधन ने गदा युद्ध का अधिक अभ्यास किया है। भारत! जब ऐसी अवस्था है, तब आपने अपने शत्रु से कैसे यह कह दिया कि तुम गदा द्वारा युद्ध करो और हम में से किसी एक को मार कर राजा हो जाओ। भीमसेन पर युद्ध का भार रखा जाय तो भी हमें विजय मिलने में संदेह है; क्योंकि न्यायपूर्वक युद्ध करने वाले योद्धाओं में महाबली सुयोधन का अभ्यास सबसे अधिक है। फिर भी आपने बारंबार कहा है कि ‘तुम हम लोगों में से एक को भी मार कर राजा हो जाओ।’ निश्चय ही राजा पाण्डु और कुन्ती देवी की संतान राज्य भोगने की अधिकारिणी नहीं है। विधाता ने इसे अनन्त काल तक वनवास करने अथवा भीख मांगने के लिये ही पैदा किया है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद)
यह सुनकर,,
भीमसेन बोले ;- 'मधुसूदन! आप विषाद न करें। यदुनन्दन! मैं आज वैर की उस अन्तिम सीमा पर पहुँच जाऊंगा, जहाँ जाना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। श्रीकृष्ण! इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि मैं युद्ध में सुयोधन को मार डालूंगा। मुझे तो धर्मराज की निश्चय ही विजय दिखायी देती है। मेरी यह गदा दुर्योधन की गदा से डेढ़ गुनी भारी है। ऐसी दुर्योधन की गदा नहीं है; अतः माधव! आप व्यथित न हों। मैं समरागंण में इस गदा द्वारा इससे भिड़ने का उत्साह रखता हूँ। जनार्दन! आप सब लोग दर्शक बनकर मेरा युद्ध देखते रहें। श्रीकृष्ण! मैं रणक्षेत्र में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण करने वाले देवताओं सहित तीनों लोकों के साथ युद्ध कर सकता हूं; फिर इस सुयोधन की तो बात ही क्या है'?
संजय कहते हैं ;- महाराज! भीमसेन ने जब ऐसी बात कही, तब भगवान श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा करने लगे और इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘महाबाहो! इसमें संदेह नहीं कि धर्मराज युधिष्ठिर ने तुम्हारा आश्रय लेकर ही शत्रुओं का संहार करके पुनः अपनी उज्ज्वल राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया है। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र तुम्हारे ही हाथ से युद्ध में मारे गये हैं। तुमने कितने ही राजाओं, राजकुमारों और गजराजों को मार गिराया है। पाण्डुनन्दन! कलिंग, मगध, प्राच्य, गान्धार और कुरुदेश के योद्धा भी इस महायुद्ध में तुम्हारे सामने आकर काल के गाल में चले गये हैं। कुन्तीकुमार! जैसे भगवान विष्णु ने शचीपति इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी दुर्योधन का वध करके समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी धर्मराज युधिष्ठिर को समर्पित कर दो। अवश्य ही रणभूमि में तुमसे टक्कर लेकर पापी दुर्योधन नष्ट हो जायगा और तुम उसकी दोनों जांघें तोड़ कर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करोगे। किंतु पार्थ! तुम्हें दुर्योधन के साथ सदा प्रयत्नपूर्वक युद्ध करना चाहिये; क्योंकि वह अभ्यास कुशल, बलवान और युद्ध की कला में निरन्तर चतुर है’। राजन! तदनन्तर सात्यकि ने पाण्डुपुत्र भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। धर्मराज आदि पाण्डव तथा पाञ्चाल सभी ने भीमसेन के उस वचन का बड़ा आदर किया।
तदनन्तर भयंकर बलशाली भीमसेन ने सृंजयों के साथ खड़े हुए तपते सूर्य के समान तेजस्वी युधिष्ठिर से कहा,
भीमसेन ने कहा ;- ‘भैया! मैं रणभूमि में इस दुर्योधन के साथ भिड़कर लड़ने का उत्साह रखता हूँ। यह नराधम मुझे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता। मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो अत्यन्त क्रोध संचित है, उसे आज मैं धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्निदेव को छोड़ा था। पाण्डुनन्दन! नरेश! आज मैं गदा द्वारा पापी दुर्योधन का वध करके आपके हृदय का कांटा निकाल दूंगा; अतः आप सुखी होइये। अनघ! आज आपके गले में मैं कीर्तिमयी माला पहनाऊंगा तथा आज यह दुर्योधन अपने राज्यलक्ष्मी और प्राणों का परित्याग करेगा। आज मेरे हाथ से पुत्र को मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र शकुनि की सलाह से किये हुए अपने अशुभ कर्मों को याद करेंगे’।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा कहकर भरतवंशी वीरों में श्रेष्ठ पराक्रमी भीमसेन गदा उठा कर युद्ध के लिये उठ खड़े हुए और जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को ललकारा था, उसी प्रकार उन्होंने दुर्योधन का आह्वान किया। महाराज! उस समय आपका अत्यन्त पराक्रमी पुत्र दुर्योधन भीमसेन की उस ललकार को न सह सका। वह तुरंत ही उनका सामना करने के लिये उपस्थित हो गया, मानो एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत गजराज से भिड़ने को उद्यत हो गया हो। हाथ में गदा लेकर युद्ध के लिये उपस्थित हुए आपके पुत्र को समस्त पाण्डवों ने श्रृंगधारी कैलास पर्वत के समान देखा। जैसे कोई मतवाला हाथी अपने यूथ से बिछुड़ गया हो, उसी प्रकार अकेले आये हुए आपके महाबली पुत्र दुर्योधन को पाकर समस्त पाण्डव हर्ष से खिल उठे। उस समय दुर्योधन के मन में न घबराहट थी, न भय। न ग्लानि थी, न व्यथा। वह युद्धस्थल में सिंह के समान निर्भय खड़ा था। राजन! श्रृंगधारी कैलास पर्वत के समान गदा उठाये दुर्योधन को देखकर भीमसेन ने उससे कहा,
भीमसेन बोले ;- ‘दुर्योधन! तूने तथा राजा धृतराष्ट्र ने भी हम लोगों पर जो-जो अत्याचार किया था और वारणावत नगर में जो कुछ हुआ था, उन सारे पाप कर्मों को याद कर ले।
दुरात्मन! तूने भरी सभा में रजस्वला द्रौपदी को क्लेश पहुँचाया, शकुनि की सलाह लेकर राजा युधिष्ठिर को कपटपूर्वक जूए में हराया तथा निरपराध कुन्तीपुत्रों पर दूसरे-दूसरे जो पाप एवं अत्याचार किये थे, उन सब का महान अशुभ फल आज तू अपनी आंखों देख ले। तेरे ही कारण हम सब लोगों के पितामह महायशस्वी गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्मजी आज शरशय्या पर पड़े हुए हैं। तेरी ही करतूतों से आचार्य द्रोण, कर्ण, प्रतापी शल्य तथा वैरका आदि स्रष्टा वह शकुनि- ये सभी रणभूमि में मारे गये हैं। तेरे भाई, शूरवीर पुत्र, सैनिक तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अन्य बहुत से शौर्य सम्पन्न नरेश भी मृत्यु के अधीन हो गये हैं। ये तथा दूसरे बहुसंख्यक क्षत्रिय शिरोमणि वीर मार डाले गये हैं। द्रौपदी को क्लेश पहुँचाने वाले पापी प्रातिकामी का भी वध हो चुका है। अब इस वंश का नाश करने वाला नराधम एक मात्र तू ही बच गया है। आज इस गदा से तुझे भी मार डालूंगा; इसमें संशय नहीं है। नरेश्वर! आज रणभूमि में मैं तेरा सारा घमंड चूर्ण कर दूंगा। राजन! तेरे मन में राज्य पाने की जो बड़ी भारी लालसा है, उसका तथा पाण्डवों पर तेरे द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का भी अन्त कर डालूंगा’।
दुर्योधन बोला ;- वृकोदर! बहुत बढ़-बढ़ कर बातें बनाने से क्या लाभ? आज मेरे साथ भिड़ तो सही। मैं युद्ध का तेरा सारा हौसला मिटा दूंगा। पापी! क्या तू देखता नहीं कि मैं हिमालय के शिखर की भाँति विशाल गदा हाथ में लेकर युद्ध के लिये खड़ा हूँ। ओ पापी! आज कौन ऐसा शत्रु है, जो मेरे हाथ में गदा रहते हुए भी मुझे मार सके। न्यायपूर्वक युद्ध करते हुए देवताओं के राजा इन्द्र भी मुझे परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीपुत्र! शरद ऋतु के निर्जल मेघ की भाँति व्यर्थ गर्जना न कर। आज तेरे पास जितना बल हो, वह सब युद्ध में दिखा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयस्त्रिश अध्याय के श्लोक 56-58 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन का यह वचन सुनकर विजय की इच्छा रखने वाले समस्त पाण्डवों और सृंजयों ने भी उसकी बड़ी सराहना की। राजन! जैसे मतवाले हाथी को मनुष्य ताली बजा कर कुपित कर देते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बारंबार ताल ठोककर राजा दुर्योधन के युद्ध विषयक हर्ष और उत्साह को बढ़ाया। उस समय वहाँ विजयाभिलाषी पाण्डवों के हाथी बारंबार चिग्घाड़ने और घोड़े हिनहिनाने लगे। साथ ही उनके अस्त्र शस्त्र दीप्ति से प्रकाशित हो उठे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में भीमसेन और दुर्योधन का संवाद विषयक तैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुस्त्रिश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“बलरामजी का आगमन और स्वागत तथा भीमसेन और दुर्योधन के युद्ध का आरम्भ”
संजय कहते हैं ;- महाराज! वह अत्यन्त भयंकर युद्ध जब आरम्भ होने लगा और समस्त महात्मा पाण्डव उसे देखने के लिये बैठ गये, उस समय अपने दोनों शिष्यों का संग्राम उपस्थित होने पर उसका समाचार सुन तालचिह्नित ध्वज वाले हलधारी बलराम जी वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण सहित पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने निकट जाकर उनका चरणस्पर्श किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा की। राजन! पूजन के पश्चात उन्होंने इस प्रकार कहा,
पाण्डव बोले ;- ‘बलराम जी! अपने दोनों शिष्यों का युद्ध कौशल देखिये’। उस समय बलराम जी ने श्रीकृष्ण, पाण्डव तथा हाथ में गदा लेकर खड़े हुए कुरुवंशी दुर्योधन की ओर देखकर कहा,
बलराम जी ने कहा ;- ‘माधव! तीर्थ यात्रा के लिये निकले हुए आज मुझे बयालीस दिन हो गये। पुष्य नक्षत्र में चला था और श्रवण नक्षत्र में पुनः वापस आया हूँ। मैं अपने दोनों शिष्यों का गदा युद्ध देखना चाहता हूं’। तदनन्तर गदा हाथ में लेकर दुर्योधन और भीमसेन युद्ध भूमि में उतरे। वे दोनों ही वीर वहाँ बड़ी शोभा पा रहे थे। उस समय राजा युधिष्ठिर ने बलराम जी को हृदय से लगा कर उनका स्वागत किया और यथोचितरूप से उनका कुशल समाचार पूछा। यशस्वी महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुन भी बलराम जी को प्रणाम करके अत्यन्त प्रसन्न हो प्रेमपूर्वक उनके हृदय से लग गये। राजन! माद्री के दोनों शूरवीर पुत्र नकुल-सहदेव और द्रौपदी के पांचों पुत्र भी रोहिणीनन्दन महाबली बलराम जी को प्रणाम करके उनके पास विनीत भाव से खड़े हो गये। नरेश्वर! भीमसेन और आपका बलवान पुत्र दुर्योधन इन दोनों ने गदा को ऊंचे उठा कर बलराम जी के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया।
समादर करके वहाँ महात्मा रोहिणीपुत्र बलराम जी से बोले,- ‘महाबाहो! युद्ध देखिये’। उस समय बलराम जी ने पाण्डवों, सृंजयों तथा अमित बलशाली सम्पूर्ण भूपालों को हृदय से लगाकर उनका कुशल मंगल पूछा। उसी प्रकार वे राजा भी उनसे मिलकर उनके आरोग्य का समाचार पूछने लगे। हलधर ने सम्पूर्ण महामनस्वी क्षत्रियों का समादर करके अवस्था के अनुसार क्रमशः उनसे कुशल मंगल की जिज्ञासा की और श्रीकृष्ण तथा सात्यकि को प्रेमपूर्वक छाती से लगा लिया। राजन! इन दोनों का मस्तक सूंघ कर उन्होंने कुशल समाचार पूछा और उन दोनों ने भी अपने गुरुजन बलराम जी का विधिपूर्वक पूजन किया। ठीक उसी तरह, जैसे इन्द्र और उपेन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक देवेश्वर ब्रह्मा जी की पूजा की थी। भारत! तत्पश्चात धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुदमन रोहिणीकुमार से कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘बलराम जी! दोनों भाइयों का यह महान युद्ध देखिये’। उनके ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता महाबाहु बलवान श्रीराम उन महारथियों से पूजित हो उनके बीच में अत्यन्त प्रसन्न होकर बैठे। राजाओं के मध्य भाग में बैठे हुए नीलाम्बरधारी गौर कान्ति बलराम जी आकाश में नक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे। राजन! तदनन्तर आपके उन दोनों पुत्रों में वैर का अन्त कर देने वाला भयंकर एवं रोमान्चकारी संग्राम होने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलरामजी का आगमन विषयक चौंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (गदा पर्व)
पैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“बलदेवजी की तीर्थ यात्रा तथा प्रभास-क्षेत्र के प्रभाव का वर्णन के प्रसंग में चन्द्रमा के शापमोचन की कथा”
जनमेजय ने कहा ;- ब्रह्मन! जब महाभारत युद्ध आरम्भ होने का समय निकट आ गया, उस समय युद्ध प्रारम्भ होने से पहले ही भगवान बलराम श्रीकृष्ण की सम्मति ले, अन्य वृष्णि वंशियों के साथ तीर्थ यात्रा के लिये चले गये और जाते समय यह कह गये कि ‘केशव! मैं न तो धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की सहायता करुंगा और न पाण्डवों की ही’। विप्रवर! उन दिनों ऐसी बात कहकर जब क्षत्रिय संहारक बलराम जी चले गये, तब उनका पुनः आगमन कैसे हुआ, यह बताने की कृपा करें। साधुशिरोमणे! आप कथा कहने में कुशल हैं; अतः मुझे विस्तारपूर्वक बताइये कि बलराम जी कैसे वहाँ उपस्थित हुए और किस प्रकार उन्होंने युद्ध देखा?
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! जिन दिनों महामनस्वी पाण्डव उपप्लव्य नामक स्थान में छावनी डाल कर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है। महाबाहो! पाण्डवों ने समस्त प्राणियों के हित के लिये सन्धि के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। भगवान ने हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से भेंट की और उनसे सबके लिये विशेष हितकारक एवं यथार्थ बातें कहीं। नरेश्वर! किंतु राजा धृतराष्ट्र ने भगवान का कहना नहीं माना। यह सब बात पहले यथार्थरूप से बतायी गयी हैं। महाबाहु पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण वहाँ संधि कराने में सफलता न मिलने पर पुनः उपप्लव्य में ही लौट आये। नरव्याघ्र! कार्य न होने पर धृतराष्ट्र से विदा ले वहाँ से लौटे हुए श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘कौरव काल के अधीन हो रहे हैं, इसलिये वे मेरा कहना नहीं मानते हैं। पाण्डवों! अब तुम लोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो'। इसके बाद जब सेना का बटवारा होने लगा, तब बलवानों में श्रेष्ठ महामना बलदेव जी ने अपने भाई श्रीकृष्ण से कहा,
बलराम जी ने कहा ;- ‘महाबाहु मधुसूदन! उन कौरवों की भी सहायता करना।’ परंतु श्रीकृष्ण ने उस समय उनकी यह बात नहीं मानी। इससे मन ही मन कुपित और खिन्न होकर महायशस्वी यदुनन्दन हलधर सरस्वती के तट पर तीर्थ यात्रा के लिये चल दिये। इसके बाद शत्रुओं का दमन करने वाले कृतवर्मा ने सम्पूर्ण यादवों के साथ अनुराधा नक्षत्र में दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया। सात्यकि सहित भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का पक्ष लिया।
रोहिणीनन्दन शूरवीर बलराम जी के चले जाने पर मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को आगे करके पुष्यनक्षत्र में कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। यात्रा करते हुए बलराम जी ने स्वयं मार्ग में ही रहकर अपने सेवकों से कहा,
बलराम जी ने कहा ;- ‘तुम लोग शीघ्र ही द्वारका जाकर वहाँ से तीर्थ यात्रा में काम आने वाली सब सामग्री, समस्त आवश्यक उपकरण, अग्निहोत्र की अग्नि तथा पुरोहितों को ले आओ। सोना, चांदी, दूध देने वाली गायें, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, गदहा और ऊंट आदि वाहन एवं तीर्थोपयोगी सब सामान शीघ्र ले आओ। शीघ्रगामी सेवकों! तुम सरस्वती के स्त्रोत की ओ चलो और सैकड़ों श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा ऋत्विजों को ले आओ’। राजन! महाबली बलदेव जी ने सेवकों को ऐसी आज्ञा देकर उस समय कुरुक्षेत्र में ही तीर्थ यात्रा आरम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ! वे सरस्वती के स्त्रोत की ओर चलकर उसके दोनों तटों पर गये। उनके साथ ऋत्विज, सुहृद, अन्यान्य श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी, घोड़े और सेवक भी थे। बैल, गदहा और ऊंटों से जुते हुए बहुसंख्यक रथों से बलराम जी घिरे हुए थे। राजन! उस समय उन्होंने देश-देश में थके-मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये नाना प्रकार की देने योग्य वस्तुएं प्रचुर मात्रा में तैयार करा रखी थीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 25-42 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! विभिन्न देशों में लोग जिन वस्तुओं की इच्छा रखते थे, उन्हें वे ही दी जाती थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबन्ध किया गया था। नरेश्वर! जिस किसी देश में जो-जो ब्राह्मण जब कभी भोजन की इच्छा प्रकट करता, बलराम जी के सेवक उसे वहीं तत्काल खाने-पीने की वस्तुएं अर्पित करते थे। राजन! रोहिणीकुमार बलराम जी की आज्ञा से उनके सेवक विभिन्न तीर्थ स्थानों में खाने-पीने की वस्तुओं के ढेर लगाये रखते थे। सुख चाहने वाले ब्राह्मणों के सत्कार के लिये बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रखे जाते थे। भारत! जो ब्राह्मण जहाँ भी सोता या जागता था, वहां-वहाँ उसके लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सदा प्रस्तुत दिखायी देती थीं। भरतश्रेष्ठ! इस यात्रा में सब लोग सुखपूर्वक चलते और विश्राम करते थे। यात्री की इच्छा हो तो उसे सवारियां दी जाती थीं, प्यासे को पानी और भूखे को स्वादिष्ठ अन्न दिये जाते थे। साथ ही वहाँ बलराम जी के सेवक वस्त्र और आभूषण भी भेंट करते थे। वीर नरेश! वहाँ यात्रा करने वाले सब लोगों को वह मार्ग स्वर्ग के समान सुखदायक प्रतीत होता था। उस मार्ग में सदा आनन्द रहता, स्वादिष्ठ भोजन मिलता और शुभ की ही प्राप्ति होती थी। उस पथ पर खरीदने-बेचने की वस्तुओं का बाज़ार भी साथ साथ चलता था, जिसमें नाना प्रकार के सैकड़ों मनुष्य भरे रहते थे। वह हाट भाँति-भाँति के वृक्षों और लताओं से सुशोभित तथा अनेकानेक रत्नों से विभूषित दिखायी देता था।
राजन! यदुकुल के प्रमुख वीर हलधारी महात्मा बलराम नियमपूर्वक रहकर प्रसन्नता के साथ पुण्यतीर्थों में ब्राह्मणों को धन और यज्ञ की दक्षिणाएं देते थे। बलराम ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सहस्रों दूध देने वाली गौएं दान की, जिन्हें सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित करके उनके सींगों में सोने के पत्र जड़े गये थे। साथ ही उन्होंने अनेक देशों में उत्पन्न घोड़े, रथ और सुन्दर वेश-भूषा वाले दास भी ब्राह्मणों की सेवा में अर्पित किये। इतना ही नहीं, बलराम ने भाँति-भाँति के रत्न, मोती, मणि, मूंगा, उत्तम सुवर्ण, विशुद्ध चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी बांटे थे। इस प्रकार उदार वृत्ति वाले अनुपम प्रभावशाली महात्मा बलराम ने सरस्वती के श्रेष्ठ तीर्थों में बहुत धन दान किया और क्रमशः यात्रा करते हुए वे कुरुक्षेत्र में आये। जनमेजय बोले- ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ और मनुष्यों में उत्तम ब्राह्मण देव! अब आप मुझे सरस्वती तटवर्ती तीर्थों के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। भगवन! क्रमशः उन तीर्थों के सेवन का फल और जिस कर्म से वहाँ सिद्धि प्राप्त होती है, उसका अनुष्ठान भी बताइये, मेरे मन में यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। वैशम्पायन जी ने कहा- राजेन्द्र! मैं तुम्हें तीर्थों के गुण, प्रभाव, उत्पत्ति तथा उनके सेवन का पुण्य फल बता रहा हूँ। वह सब तुम ध्यान से सुनो। महाराज! यदुकुल के प्रमुख वीर बलराम जी सबसे पहले ऋत्विजों, सुहृदों और ब्राह्मणों के साथ पुण्यमय प्रभास क्षेत्र में गये, जहाँ राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला था। नरेन्द्र! वे वहीं पुनः अपना तेज प्राप्त करके सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ इस पृथ्वी पर प्रभास नाम से विख्यात हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 43-61 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजय ने पूछा ;- भगवन! चन्द्रमा कैसे राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो गये और उस उत्तम तीर्थ में किस प्रकार उन्होंने स्नान किया? महामुने! उस तीर्थ में गोता लगाकर चन्द्रमा पुनः किस प्रकार हृष्ट-पुष्ट हुए? यह सब प्रसंग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।
वैशम्पायनजी ने कहा ;- तात! प्रजानाथ! प्रजापति दक्ष के बहुत सी संतानें उत्पन्न हुई थीं। उनमें से अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चन्द्रमा के साथ कर दिया था। राजेन्द्र! शुभकर्म करने वाले सोम की वे पत्नियां समय की गणना के लिये नक्षत्रों से सम्बन्ध रखने के कारण उसी नाम से विख्यात हुई। वे सब की सब विशाल नेत्रों से सुशोभित होती थीं। इस भूतल पर उनके रूप की समानता करने वाली कोई स्त्री नहीं थी। उनमें भी रोहिणी अपने रूप-वैभव की दृष्टि से सब की अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी थी। इसलिये भगवान चन्द्रमा उससे अधिक प्रेम करने लगे, वही उनकी हृदयवल्लभा हुई; अतः वे सदा उसी का उपभोग करते थे। राजेन्द्र! पूर्वकाल में चन्द्रमा सदा रोहिणी के ही समीप रहते थे; अतः नक्षत्र नाम से प्रसिद्ध हुई महात्मा सोम की वे सारी पत्नियां उन पर कुपित हो उठीं। और आलस्य छोड़कर अपने पिता के पास जाकर बोलीं,
सभी पत्नी बोली ;- ‘प्रभो! चन्द्रमा हमारे पास नहीं आते। वे सदा रोहिणी का ही सेवन करते हैं। अतः प्रजेश्वर! हम सब बहिनें एक साथ नियमित आहार करके तपस्या में संलग्न हो आपके ही पास रहेंगी’।
उनकी यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष ने चन्द्रमा से कहा,
प्रजापति दक्ष बोले ;- ‘सोम! तुम अपनी सभी पत्नियों के साथ समानतापूर्ण बर्ताव करो, जिससे तुम्हें महान पाप न लगे’। फिर दक्ष ने उन सभी कन्याओं से कहा,
दक्ष प्रजापति बोले ;- ‘अब तुम लोग चन्द्रमा के पास ही जाओ। वे मेरी आज्ञा से तुम सब लोगों के प्रति समान भाव रखेंगे’। पृथ्वीनाथ! पिता के बिदा करने पर वे पुनः चन्द्रमा के घर में लौट गयीं, तथापि भगवान सोम फिर रोहिणी के पास ही अधिकाधिक प्रेमपूर्वक रहने लगे। तब वे सब कन्याएं पुनः एक साथ अपने पिता के पास जाकर बोलीं,
सभी कन्याएं बोली ;- ‘हम सब लोग आपकी सेवा में तत्पर रहकर आपके ही समीप रहेंगी। चन्द्रमा हमारे साथ नहीं रहते। उन्होंने आपकी बात नहीं मानी’। उनकी बात सुनकर दक्ष ने पुनः सोम से कहा,
दक्ष प्रजापति ने कहा ;- ‘प्रकाशमान चन्द्रदेव! तुम अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करो, नहीं तो तुम्हे शाप दे दूंगा’। दक्ष के इतना कहने पर भी भगवान चन्द्रमा उनकी बात की अवहेलना करके केवल रोहिणी के ही साथ रहने लगे। यह देख दूसरी स्त्रियां पुनः क्रोध से जल उठीं और पिता के पास जा उनके चरणों में मस्तक नवाकर प्रणाम करने के अनन्तर बोलीं,
पत्नियां बोली ;- ‘भगवन! सोम हमारे पास नहीं रहते। अतः आप हमें शरण दें। भगवान चन्द्रमा सदा रोहिणी के ही समीप रहते हैं। वे आपकी बात को कुछ गिनते ही नहीं हैं। हम लोगों पर स्नेह रखना नहीं चाहते हैं; अतः आप हम सब लोगों की रक्षा करें, जिससे चन्द्रमा हमारे साथ भी सम्बन्ध रखें’। पृथ्वीनाथ! यह सुनकर भगवान दक्ष कुपित हो उठे। उन्होंने चन्द्रमा के लिये रोषपूर्वक राजयक्ष्मा की सृष्टि की। वह चन्द्रमा के भीतर प्रविष्ट हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 62-83 का हिन्दी अनुवाद)
यक्ष्मा से शरीर ग्रस्त हो जाने के कारण चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होने लगे। राजन! उस यक्ष्मा से छूटने के लिये उन्होंने बड़ा यत्न किया। महाराज! नाना प्रकार के यज्ञ-यागों का अनुष्ठान करके भी चन्द्रमा उस शाप से मुक्त न हो सके और धीरे-धीरे क्षीण होते चले गये। चन्द्रमा के क्षीण होने से अन्न आदि औषधियां उत्पन्न नहीं होती थीं। उन सब के स्वाद, रस और प्रभाव नष्ट हो गये। औषधियों के क्षीण होने से समस्त प्राणियों का भी क्षय होने लगा। इस प्रकार चन्द्रमा के क्षय के साथ-साथ सारी प्रजा अत्यन्त दुर्बल हो गयी। पृथ्वीनाथ! उस समय देवताओं ने चन्द्रमा से मिलकर पूछा,
देवतागण बोले ;- ‘आपका रूप ऐसा कैसे हो गया? यह प्रकाशित क्यों नहीं होता है? हम लोगों से सारा कारण बताइये, जिससे आप को महान भय प्राप्त हुआ। आपकी बात सुनकर हम लोग इस संकट के निवारण का कोई उपाय करेंगे’।
उनके इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमा ने उन सब को उत्तर देते हुए अपने को प्राप्त हुए शाप के कारण राजयक्ष्मा की उत्पत्ति बतलायी। उनका वचन सुनकर देवता दक्ष के पास जाकर बोले,
देवगण बोले ;- ‘भगवन! आप चन्द्रमा पर प्रसन्न होइये और यह शाप हटा लीजिये। चन्द्रमा क्षीण हो चुके हैं और उनका कुछ ही अंश शेष दिखायी देता है। देवेश्वर! उनके क्षय से लता, वीरुत्, औषधियां भाँति-भाँति के बीज और सम्पूर्ण प्रजा भी क्षीण हो गयी है। उन सबके क्षीण होने पर हमारा भी क्षय हो जायगा। फिर हमारे बिना संसार कैसे रह सकता है? लोकगुरो! ऐसा जानकर आपको चन्द्रदेव पर अवश्य कृपा करनी चाहिये’। उनके ऐसा कहने पर प्रजापति दक्ष देवताओं से इस प्रकार बोले,
दक्ष प्रजापति ने कहा ;- ‘महाभाग देवगण! मेरी बात पलटी नहीं जा सकती। किसी विशेष कारण से वह स्वतः निवृत्त हो जायगी। यदि चन्द्रमा अपनी सभी पत्नियों के प्रति सदा समान बर्ताव करें और सरस्वती के श्रेष्ठ तीर्थ में गोता लगायें तो वे पुनः बढ़कर पुष्ट हो जायेंगे। देवताओं! मेरी यह बात अवश्य सच होगी। सोम आधे मास तक प्रतिदिन क्षीण होंगे और आधे मास तक निरन्तर बढ़ते रहेंगे। मेरी यह बात अवश्य सत्य होगी। पश्चिमी समुद्र के तट पर जहाँ सरस्वती और समुद्र का संगम हुआ है, वहाँ जाकर चन्द्रमा देवेश्वर महादेव जी की आराधना करें तो पुनः ये अपनी कान्ति प्राप्त कर लेंगे’।
ऋषि (दक्ष प्रजापति) के इस आदेश से सोम सरस्वती के प्रथम तीर्थ प्रभास क्षेत्र में गये। महातेजस्वी महाकान्तिमान चन्द्रमा ने अमावास्या को उस तीर्थ में गोता लगाया। इससे उन्हें शीतल किरणें प्राप्त हुई और वे सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करने लगे। राजेन्द्र! फिर सम्पूर्ण देवता सोम के साथ महान प्रकाश प्राप्त करके पुनः दक्ष प्रजापति के सामने उपस्थित हुए। तब भगवान प्रजापति ने समस्त देवताओं को विदा कर दिया और सोम से पुनः प्रसन्नतापूर्वक कहा,
दक्ष प्रजापति ने कहा ;- ‘बेटा! अपनी स्त्रियों तथा ब्राह्मणों की कभी अवहेलना न करना। जाओ, सदा सावधान रहकर मेरी आज्ञा का पालन करते रहो’। महाराज! ऐसा कहकर प्रजापति ने उन्हें विदा कर दिया। चन्द्रमा अपने स्थान को चले गये और सारी प्रजा पूर्ववत प्रसन्न रहने लगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 84-90 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार चन्द्रमा को जैसे शाप प्राप्त हुआ था और महान प्रभास तीर्थ जिस प्रकार सब तीर्थों में श्रेष्ठ माना गया, वह सारा प्रसंग मैंने तुमसे कह सुनाया। महाराज! चन्द्रमा उत्तम प्रभास तीर्थ में प्रत्येक अमावास्या को स्नान करके कान्तिमान एवं पुष्ट होते हैं। भूमिपाल! इसीलिये सब लोग इसे प्रभास तीर्थ के नाम से जानते हैं; क्योंकि उसमें गोता लगाकर चन्द्रमा ने उत्कृष्ट प्रभा प्राप्त की थी। तदनन्तर भगवान बलराम चमसोदेद नामक तीर्थ में गये। उस तीर्थ को सब लोग चमसोदेद के नाम से ही पुकारते हैं। श्रीकृष्ण के बड़े भाई हलधारी बलराम ने वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके उत्तम दान दे एक रात रह कर बड़ी उतावली के साथ वहाँ से उदपान तीर्थ को प्रस्थान किया, जो मंगलकारी आदि तीर्थ है। राजेन्द्र जनमेजय! उदपान वह तीर्थ है, जहाँ उपस्थित होने मात्र से महान फल की प्राप्ति होती है। सिद्ध पुरुष वहाँ औषधियों (वृक्षों और लताओं) की स्निग्धता और भूमि की आर्द्रता देखकर अदृश्य हुई सरस्वती को भी जान लेते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में प्रभास तीर्थ का वर्णन विषयक पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
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