सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन के द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का और बहुत-सी चतुरगिंणी सेना का वध”

     संजय कहते हैं ;- राजन! भरतनन्दन! पाण्डुपुत्र भीमसेन के द्वारा आपकी गजसेना तथा दूसरी सेना का भी संहार हो जाने पर जब आपका पुत्र कुरुवंशी दुर्योधन कहीं दिखायी नहीं दिया, तब मरने से बचे हुए आपके सभी पुत्र एक साथ हो गये और समरांगण में दण्डधारी, प्राणान्तकारी यमराज के समान कुपित हुए शत्रुदमन भीमसेन को विचरते देख सब मिलकर उन पर टूट पड़े। दुर्मर्षण, श्रुतान्त (चित्रांग), जैत्र, भूरिबल (भीमबल), रवि, जयत्सेन, सुजात, दुर्विषह (दुर्विगाह), शत्रुनाशक दुर्विमोचन, दुष्प्रधर्ष (दुष्प्रधर्षण) और महाबाहु श्रुतर्वा ये सभी आपके युद्ध विशारद पुत्र एक साथ हो सब ओर से भीमसेन पर धावा करके उनकी सम्पूर्ण दिशाओं को रोक कर खड़े हो गये। महाराज! तब भीम पुनः अपने रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्रों के मर्मस्थानों में तीखे बाणों का प्रहार करने लगे। उस महासमर में जब भीमसेन आपके पुत्रों पर बाणों का प्रहार करने लगे, तब वे भीमसेन को उसी प्रकार दूर तक खींच ले गये, जैसे शिकारी नीचे स्थान से हाथी को खींचते हैं। तब रणभूमि में क्रुद्ध हुए भीमसेन ने एक क्षुरप्र से दुर्मर्षण का मस्तक शीघ्रतापूर्वक पृथ्वी पर काट गिराया। तत्पश्चात समस्त आवरणों का भेदन करने वाले दूसरे भल्ल के द्वारा महारथी भीमसेन ने आपके पुत्र श्रुतान्त का अन्त कर दिया। फिर हंसते-हंसते उन शत्रुदमन वीर ने कुरुवंशी जयत्सेन को नाराच से घायल करके उसे रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। राजन! जयत्सेन रथ से पृथ्वी पर गिरा और तुरंत मर गया।

     मान्यवर नरेश! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए श्रुतर्वा ने गीध की पांख और झुकी हुई गांठ वाले सौ बाणों से भीमसेन को बींध डाला। यह देख भीमसेन क्रोध से जल उठे और उन्होंने रणभूमि में विष और अग्नि के समान भयंकर तीन बाणों द्वारा जैत्र, भूरिबल और रवि- इन तीनों पर प्रहार किया। उन बाणों द्वारा मारे गये वे तीनों महारथी वसन्त ऋतु मे कटे हुए पुष्पयुक्त पलाश के वृक्षों की भाँति रथों से पृथ्वी पर गिर पड़े। इसके बाद शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन ने दूसरे तीखे भल्ल से दुर्विमोचन को मारकर मृत्यु के लोक में भेज दिया। रथियों में श्रेष्ठ दुर्विमोचन उस भल्ल की चोट खाकर अपने रथ से भूमि पर गिर पड़ा, मानो पर्वत के शिखर पर उत्पन्न हुआ वृक्ष वायु के वेग से टूट कर धराशायी हो गया हो। तदनन्तर भीमसेन ने आपके पुत्र दुष्प्रधर्ष और सुजात को रणक्षेत्र में सेना के मुहाने पर दो-दो बाणों से मार गिराया। वे दोनों महारथी वीर बाणों से सारा शरीर बिंध जाने के कारण रणभूमि में गिर पड़े। तत्पश्चात आपके पुत्र दुर्विषह को संग्राम में चढ़ाई करते देख भीमसेन ने एक भल्ल से मार गिराया। उस भल्ल की चोट खाकर दुर्विषह सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते रथ से नीचे जा गिरा। युद्धस्थल में एक मात्र भीम के द्वारा अपने बहुत-से भाइयों को मारा गया देख श्रुतर्वा अमर्ष के वशीभूत हो भीमसेन का सामना करने के लिये आ पहुँचा। वह अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को खींचकर उसके द्वारा विष और अग्नि के समान भयंकर बहुतेरे बाणों की वर्षा कर रहा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन! उसने उस महासमर में पाण्डुपुत्र के धनुष को काटकर कटे हुए धनुष वाले भीमसेन को बीस बाणों से घायल कर दिया। तब महाबली भीमसेन दूसरा धनुष लेकर आपके पुत्र पर बाणों की वर्षा करने लगे और बोले,

   भीमसेन बोले ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। उस समय उन दोनों में विचित्र, भयानक और महान युद्ध होने लगा। पूर्वकाल में रणक्षेत्र में जम्भ और इन्द्र का जैसा युद्ध हुआ था, वैसा ही उन दोनों का भी हुआ। उन दोनों के छोड़े हुए यमदण्ड के समान तीखे बाणों से सारी पृथ्वी, आकाश, दिशाएं और विदिशाएं आच्छादित हो गयी। राजन! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए श्रुतर्वा ने धनुष लेकर अपने बाणों से रणभूमि में भीमसेन की दोनों भुजाओं और छाती में प्रहार किया। महाराज! आपके धनुर्धर पुत्र द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जाने पर भीमसेन का क्रोध भड़क उठा और वे पूर्णिमा के दिन उमड़ते हुए महासागर के समान बहुत ही क्षुब्ध हो उठे। आर्य! फिर रोष से आविष्ट हुए भीमसेन ने अपने बाणों द्वारा आपके पुत्र के सारथि और चारों घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया। अमेय आत्मबल से सम्पन्न भीमसेन श्रुतर्वा को रथहीन हुआ देख अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए उसके ऊपर पक्षियों के पंख से युक्त होकर उड़ने वाले बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! रथहीन हुए श्रुतर्वा ने अपने हाथों में ढाल और तलवार ले ली। वह सौ चन्द्राकार चिह्नों से युक्त ढाल तथा अपनी प्रभा से चमकती हुई तलवार ले ही रहा था कि पाण्डुपुत्र भीमसेन ने एक क्षुरप्र द्वारा उसके मस्तक को धड़ से काट गिराया।

     महामनस्वी भीमसेन के क्षुरप्र से मस्तक कट जाने पर उसका धड़ वसुधा को प्रतिध्वनित करता हुआ रथ से नीचे गिर पड़ा। उस वीर के गिरते ही आपके सैनिक भय से व्याकुल होने पर भी संग्राम में जूझने की इच्छा से भीमसेन की ओर दौड़े। मरने से बचे हुए सैन्य-समूह से निकलकर शीघ्रतापूर्वक अपने ऊपर आक्रमण करते हुए उन कवचधारी योद्धाओं को प्रतापी भीमसेन ने आगे बढ़ने से रोक दिया।

      वे योद्धा भीमसेन के पास पहुँचकर उन्हें चारों ओर से घेर कर खड़े हो गये। तब जैसे इन्द्र असुरों को नष्ट करते हैं, उसी प्रकार घिरे हुए भीमसेन ने पैने बाणों द्वारा आपके उन समस्त सैनिकों को पीड़ित करना आरम्भ किया। तदनन्तर भीमसेन ने आवरणों सहित पांच सौ विशाल रथों का संहार करके युद्ध में सात सौ हाथियों की सेना को पुनः मार गिराया। फिर उत्तम बाणों द्वारा एक लाख पैदलों और सवारों सहित आठ सौ घोड़ों का वध करके पाण्डव भीमसेन विजयश्री से सुशोभित होने लगे। प्रभो! इस प्रकार कुन्तीपुत्र भीमसेन ने युद्ध में आपके पुत्रों का विनाश करके अपने आपको कृतार्थ और जन्म को सफल हुआ समझा। नरेश्वर! इस तरह युद्ध और आपके पुत्रों का वध करते हुए भीमसेन को आपके सैनिक देखने का भी साहस नहीं कर पाते थे। समस्त कौरवों को भगाकर और उनके अनुगामी सैनिकों का संहार करके भीमसेन बड़े-बड़े हाथियों को डराते हुए अपनी दोनों भुजाओं द्वारा ताल ठोंकने का शब्द किया। प्रजानाथ! महाराज! आपकी सेना के अधिकांश योद्धा मारे गये और बहुत थोड़े सैनिक शेष रह गये; अतः वह सेना अत्यन्त दीन हो गयी थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व में धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध विषयक छब्वीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

सत्ताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत, अर्जुन द्वारा सत्यकर्मा, सत्येषु तथा पैंतालीस पुत्रों और सेना सहित सुशर्मा का वध तथा भीम के द्वारा धृतराष्ट्र पुत्र सुदर्शन का अन्त”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! उस समय आपके पुत्र दुर्योधन और सुदर्शन ये- दो ही बच गये थे। दोनों ही घुड़सवारों के बीच में खड़े थे। तदनन्तर दुर्योधन को घुड़सवारों के बीच में खड़ा देख देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्तीकुमार अर्जुन से इस प्रकार कहा,

     श्री कृष्ण ने कहा ;- भरतनन्दन! शत्रुओं के अधिकांश योद्धा मारे गये और अपने कुटुम्बी जनों की रक्षा हुई। उधर देखो, वे शिनिप्रवर सात्यकि संजय को कैद करके उसे साथ लिये लौटे आ रहे हैं। रणभूमि में सेवकों सहित धृतराष्ट्र के पापी पुत्रों से युद्ध करके दोनों भाई नकुल और सहदेव भी बहुत थक गये हैं। उधर कृपाचार्य, कृतवर्मा और महारथी अश्वत्थामा- ये तीनों युद्धभूमि में दुर्योधन को छोड़कर कहीं अन्यत्र स्थित हैं। इधर, सम्पूर्ण प्रभद्रकों सहित दुर्योधन की सेना का संहार करके पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न अपनी सुन्दर कान्ति से सुशोभित हो रहे हैं। पार्थ! वह रहा दुर्योधन, जो छत्र धारण किये घुड़सवारों के बीच में खड़ा है और बारंबार इधर ही देख रहा है। वह अपनी सारी सेना का व्यूह बनाकर युद्धभूमि में खड़ा है। तुम इसे पैने बाणों से मारकर कृतकृत्य हो जाओगे।

     शत्रुदमन! गजसेना का वध और तुम्हारा आगमन हुआ देख ये कौरव-योद्धा जब तक भाग नहीं जाते तभी तक दुर्योधन को मार डालो। अपने दल का कोई पुरुष पाञ्चालराज धृष्टद्युम्न के पास जाय और कहे कि ‘आप शीघ्रतापूर्वक चलें। तात! यह पापात्मा दुर्योधन अब बच नहीं सकता, क्योंकि इसकी सारी सेना थक गयी है। दुर्योधन समझता है कि संग्रामभूमि में तुम्हारी सारी सेना का संहार करके पाण्डवों को पराजित कर दूंगा। इसीलिये वह अत्यन्त उग्र रूप धारण कर रहा है। परंतु अपनी सेना को पाण्डवों द्वारा पीड़ित एवं मारी गयी देख राजा दुर्योधन निश्चय ही अपने विनाश के लिये ही युद्धस्थल में पदार्पण करेगा।

    भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन उनसे इस प्रकार बोले- माधव! धृतराष्ट्र के प्रायः सभी पुत्र भीमसेन के हाथ से मारे गये हैं। श्रीकृष्ण! ये जो दो पुत्र खड़े हैं, इनका भी आज अन्त हो जायगा। श्रीकृष्ण! भीष्म मारे जा चुके, द्रोण का भी अन्त हो गया, वैकर्तन कर्ण भी मार डाला गया, मद्रराज शल्य का भी वध हो गया और जयद्रथ भी यमलोक पहुँच गया। सुबल पुत्र शकुनि के पास पांच सौ घुड़सवारों की सेना अभी शेष है। जनार्दन! उसके पास दो सौ रथ, सौ से कुछ अधिक हाथी और तीन हजार पैदल सैनिक भी शेष रह गये हैं। माधव! दुर्योधन की सेना में अश्वत्थामा, कृपाचार्य, त्रिगर्तराज सुशर्मा, उलूक, शकुनि और सात्वतवंशी कृतवर्मा ये थोड़े से ही वीर सैनिक शेष रह गये हैं। निश्चय ही इस पृथ्वी पर किसी को भी काल से छुटकारा नहीं मिलता, तभी तो इस प्रकार अपनी सेना का संहार होने पर भी दुर्योधन युद्ध के लिये खड़ा है, उसे देखिये। आज के दिन महाराज युधिष्ठिर शत्रुहीन हो जायंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

       श्रीकृष्ण! मैं सोचता हूँ कि आज शत्रुदल का कोई भी योद्धा यहाँ मेरे हाथ से बचकर नहीं जा सकेगा। जो मदोन्मत्त वीर आज युद्ध छोड़कर भाग नहीं जायेंगे, उन सब को, वे मनुष्य न होकर देवता या दैत्य ही क्यों न हों, मैं मार डालूंगा। आज मैं अत्यन्त कुपित हो गान्धारराज शकुनि को पैने बाणों से मरवाकर राजा युधिष्ठिर के दीर्घकालीन जागरण रूपी रोग को दूर कर दूंगा। दुराचारी सुबलपुत्र शकुनि ने द्यूतसभा में छल करके जिन रत्नों को हर लिया था, उन सब को मैं वापस ले लूंगा। आज हस्तिनापुर की वे सारी स्त्रियां भी युद्ध में पाण्डवों के हाथ से अपने पतियों और पुत्रों को मारा गया सुनकर फूट-फूट कर रोयेंगी। श्रीकृष्ण! आज हम लोगों का सारा कार्य समाप्त हो जायगा। आज दुर्योधन अपनी उज्ज्वल राजलक्ष्मी और प्राणों को भी खो बैठेगा। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! यदि वह मेरे भय से युद्ध से भाग न जाये, तो मेरे द्वारा उस मूढ़ दुर्योधन को आप मारा गया ही समझें। शत्रुदमन! यह घुड़सवारों की सेना मेरे गाण्डीव धनुष की टंकार को नहीं सह सकेगी। आप घोड़े बढ़ाइये, मैं अभी इन सब को मारे डालता हूँ। राजन! यशस्वी पाण्डुपुत्र अर्जुन के ऐसा कहने पर दशार्हकुलनन्दन श्रीकृष्ण ने दुर्योधन की सेना की ओर घोड़े बढ़ा दिये।

      मान्यवर! उस सेना को देखकर तीन महारथी भीमसेन, अर्जुन और सहदेव युद्ध-सामग्री से सुसज्जित हो दुर्योधन के वध की इच्छा से सिंहनाद करते हुए आगे बढ़े। उन सबको बड़े वेग से धनुष उठाये एक साथ आक्रमण करते देख सुबल पुत्र शकुनि रणभूमि में आततायी पाण्डवों की ओर दौड़ा। आपका पुत्र सुदर्शन भीम का सामना करने लगा। सुशर्मा और शकुनि ने किरीटधारी अर्जुन के साथ युद्ध छेड़ दिया। नरेश्वर! घोड़े की पीठ पर बैठा हुआ आप का पुत्र दुर्योधन सहदेव के सामने आया। उसने बड़े यत्न से सहदेव के मस्तक पर शीघ्रतापूर्वक प्रास का प्रहार किया। आपके पुत्र द्वारा ताड़ित होकर सहदेव फुफकारते हुए विषधर सर्प के समान लंबी सांस खींचते हुए रथ के पिछले भाग में बैठ गये। उनका सारा शरीर लहूलुहान हो गया। प्रजानाथ! थोड़ी देर में सचेत होने पर क्रोध में भरे हुए सहदेव दुर्योधन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे।

      कुन्तीपुत्र अर्जुन ने भी युद्ध में पराक्रम करके घोड़ों की पीठों से शूरवीरों के मस्तक काट गिराये। पार्थ ने अपने बहुसंख्यक बाणों द्वारा घुड़सवारों की उस सेना को छिन्न-भिन्न कर डाला तथा समस्त घोड़ों को धराशायी करके त्रिगर्त देशीय रथियों पर चढ़ाई कर दी। तब वे त्रिगर्त देशीय महारथी एक साथ होकर अर्जुन और श्रीकृष्ण को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करने दगे। प्रभो! उस समय महायशस्वी पाण्डुनन्दन अर्जुन ने क्षुरप्र द्वारा सत्यकर्मा पर प्रहार करके उसके रथ की ईषा (हरसा) काट डाली। तत्पश्चात उन महायशस्वी वीर ने शिला पर तेज किये हुए क्षुरप्र द्वारा उसके तपाये हुए सुवर्ण के कुण्डलों से विभूषित मस्तक को सहसा काट लिया। राजन! जैसे वन में भूखा सिंह किसी मृग को दबोच लेता है, उसी प्रकार अर्जुन ने समस्त योद्धाओं के देखते-देखते सत्येषु के भी प्राण हर लिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

      सत्येषु का वध करके अर्जुन ने सुशर्मा को तीन बाणों से घायल कर दिया और उन समस्त स्वर्णभूषित रथों का विध्वंस कर डाला। तत्पश्चात पार्थ अपने दीर्घकाल से संचित किये हुए तीखे क्रोध रूपी विष को प्रस्थलेश्वर सुशर्मा पर छोड़ने के लिये तीव्र गति से आगे बढ़े। भरतश्रेष्ठ! अर्जुन ने सौ बाणों द्वारा उसे आच्छादित कर के उस धनुर्धर वीर के घोड़ों पर घातक प्रहार किया। इसके बाद यमदण्ड के समान भयंकर बाण हाथ में लेकर सुशर्मा को लक्ष्य कर के हंसते हुए से शीघ्र ही छोड़ दिया। क्रोध से तमतमाये हुए धनुर्धर के अर्जुन के द्वारा चलाये गये उस बाण ने सुशर्मा पर चोट कर के उसकी छाती छेद डाली। महाराज! सुशर्मा आपके पुत्रों को व्यथित और समस्त पाण्डवों को आनन्दित करता हुआ प्राणशून्य हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। रणभूमि में सुशर्मा का वध करके अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा उसके पैंतालीस महारथी पुत्रों को भी यमलोक पहुँचा दिया। तदनन्तर पैने बाणों द्वारा उसके सारे सेवकों का संहार करके महारथी अर्जुन ने मरने से बची हुई कौरवी सेना पर आक्रमण किया।

       जनेश्वर! दूसरी आर कुपित हुए भीमसेन ने हंसते-हंसते बाणों की वर्षा करके सुदर्शन को ढक दिया। फिर क्रोधपूर्वक अट्टहास करते हुए उन्होंने उसके मस्तक को तीखे क्षुरप्र द्वारा धड़ से काट लिया। सुदर्शन मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस वीर के मारे जाने पर उसके सेवकों ने नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए रणभूमि में भीमसेन को सब ओर से घेर लिया। तत्पश्चात भीमसेन ने इन्द्र के वज्र की भाँति कठोर स्पर्श वाले तीखे बाणों द्वारा आपकी सेना को चारों ओर से ढक दिया। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद भीमसेन ने क्षणभर में आपकी सेना का संहार कर डाला।

      भारत! जब उन कौरव सैनिकों का संहार होने लगा, तब महारथी सेनापतिगण भीमसेन पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध करने लगे। राजन! पाण्डुपुत्र भीमसेन ने उन सब पर भयंकर बाणों की वृष्टि की। इसी प्रकार आपके सैनिकों ने भी बड़ी भारी बाण वर्षा करके पाण्डव महारथियों को सब ओर से आच्छादित कर दिया। शत्रुओं के साथ जूझने वाले पाण्डवों का और पाण्डवों के साथ युद्ध की इच्छा रखने वाले आपके सैनिकों का सारा सैन्य दल समरांगण में परस्पर मिलकर एक सा हो गया। राजन! उस समय वहाँ एक-दूसरे की मार खाकर दोनों दलों के योद्धा अपने भाई बन्धुओं के लिये शोक करते हुए धराशायी हो जाते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व में सुशर्मा का वध विषयक सत्ताईसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

अठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“सहदेव के द्वारा उलूक और शकुनि का वध एवं बची हुई सेना सहित दुर्योधन का पलायन”

     संजय कहते हैं ;- राजन! हाथी-घोड़ों और मनुष्यों का संहार करने वाले उस युद्ध का आरम्भ होने पर सुबलपुत्र शकुनि ने सहदेव पर धावा किया। तब प्रतापी सहदेव ने भी अपने ऊपर आक्रमण करने वाले शकुनि पर तुरंत ही बहुत से शीघ्रगामी बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी, जो आकाश में टिड्डी दलों के समान छा रहे थे। महाराज! शकुनि के साथ उलूक भी था, उसने भीमसेन को दस बाणों से बींध डाला। फिर शकुनि ने भी तीन बाणों से भीम को घायल करके नब्बे बाणों से सहदेव को ढक दिया। राजन! वे शूरवीर समरांगण में एक-दूसरे से टक्कर लेकर कंक और मोर के से पंख वाले तीखे बाणों द्वारा परस्पर आघात प्रत्याघात करने लगे। उनके वे बाण सुनहरी पांखों से सुशोभित, शिला पर साफ किये हुए और कानों तक खींच कर छोड़े गये थे। प्रजानाथ! उन वीरों के धनुष और बाहुबल से छोड़े गये बाणों की उस वर्षा ने सम्पूर्ण दिशाओं को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे मेघ की जलधारा सारी दिशाओं को ढक देती है।

      भारत! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए भीमसेन और सहदेव दोनों महाबली वीर युद्धस्थल में भीषण संहार मचाते हुए विचरने लगे। भरतनन्दन! उन दोनों के सैकड़ों बाणों से ढकी हुई आपकी सेना जहाँ-तहाँ अन्धकारपूर्ण आकाश के समान प्रतीत होती थी। प्रजानाथ! बाणों से ढके हुए भागते घोड़ों ने, जो बहुत से मरे हुए वीरों को अपने साथ इधर-उधर खींचे लिये जाते थे, यत्र-तत्र जाने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। मान्यवर नरेश! घुड़सवारों सहित मारे गये घोड़ों के शरीरों, कटे हुए कवचों, टूक-टूक हुए प्रास, ऋष्टियों, शक्तियों, खंगों, भालों और फरसों से ढकी हुई पृथ्वी बहुरंगी फलों से आच्छादित हो चितकबरी हुई सी जान पड़ती थी। महाराज! वहाँ रणभूमि में कुपित हुए योद्धा एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर चोट करते हुए घूम रहे थे। कमल केसर की सी कान्ति वाले कुण्डलमण्डित कटे हुए मस्तकों से यह पृथ्वी ढक गयी थी। उनकी आंखें घूर रही थी और उन्होंने रोष के कारण अपने ओठों को दांतों से दबा रखा था। महाराज! अंगद, कवच, खड्ग, प्रास और फरसों सहित कटी हुई हाथी की सूड़ की समान भुजाओं, छिन्न-भिन्न एवं खड़े होकर नाचते हुए कबन्धों तथा अन्य लोगों से भरी और मांसभक्षी जीव-जन्तुओं से आच्छादित हुई यह पृथ्वी बड़ी भयंकर प्रतीत होती थी। इस प्रकार उस महासमर में जब कौरवों के पास बहुत थोड़ी सेना शेष रह गयी, तब हर्ष और उत्साह में भर कर पाण्डव वीर उन सबको यमलोक पहुँचाने लगे।

      इसी समय प्रतापी वीर सुबलपुत्र शकुनि ने अपने प्रास से सहदेव के मस्तक पर गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! उस चोट से व्याकुल होकर सहदेव रथ की बैठक में धम्म से बैठ गये। उनकी वैसी अवस्था देख प्रतापी भीमसेन अत्यन्त कुपित हो उठे। भारत! उन्होंने आपकी सारी सेनाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया तथा सैकड़ों और हजारों नाराचों की वर्षा करके उन सब को विदीर्ण कर डाला। शत्रुदमन भीमसेन ने शत्रु सेना का विदीर्ण करके बड़े जोर से सिंहनाद किया। उनकी उस गर्जना से भयभीत हो शकुनि के पीछे चलने वाले सारे सैनिक घोड़े और हाथियों सहित सहसा भाग खड़े हुए।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

       उन सब को भागते देख राजा दुर्योधन ने इस प्रकार कहा-‘अरे पापियो! लौट आओ और युद्ध करो। भागने से तुम्हें क्या लाभ होगा? जो धीर वीर रणभूमि में पीठ न दिखाकर प्राणों का परित्याग करता है, वह इस लोक में अपनी कीर्ति स्थापित करके मृत्यु के पश्चात उत्तम लोकों में सुख भोगता है। राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर सुबल पुत्र शकुनि के पीछे चलने वाले सैनिक ‘अब हमें मृत्यु ही युद्ध से लौटा सकती है’ ऐसा संकल्प लेकर पुनः पाण्डवों पर टूट पड़े। राजेन्द्र! वहाँ धावा करते समय उन सैनिकों ने बड़ा भयंकर कोलाहल मचाया। वे विक्षुब्ध समुद्र के समान क्षोभ में भरकर सब ओर छा गये। महाराज! शकुनि के सेवकों को इस प्रकार सामने आया देख विजय के लिये उद्यत हुए पाण्डव वीर आगे बढ़े।

      प्रजानाथ! इतने ही में स्वस्थ होकर दुर्धर्ष वीर सहदेव ने हंसते हुए से दस बाणों से शकुनि को बींध डाला और तीन बाणों से उसके घोड़ों को मारकर हंसते हुए से अनेक बाणों द्वारा सुबल पुत्र के धनुष को भी टूक-टूक कर डाला। तदनन्तर दूसरा धनुष हाथ में लेकर रणदुर्मद शकुनि ने नकुल को साठ और भीमसेन को सात बाणों से घायल कर दिया। महाराज! रणभूमि में पिता की रक्षा करते हुए उलूक ने भीमसेन को सात और सहदेव को सत्तर बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। तब भीमसेन ने समरागंण में नौ बाणों से उलूक को, चौसठ बाणों से शकुनि को और तीन-तीन बाणों से उसके पाश्वरक्षकों को भी घायल कर दिया। भीमसेन के नाराचों को तेल पिलाया गया था। उनके द्वारा भीमसेन के हाथ से मार खाये हुए शत्रु सैनिकों ने रणभूमि में कुपित होकर सहदेव को अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया, मानो बिजली सहित मेघों ने जल की धाराओं से पर्वत को आच्छादित कर दिया हो।

       महाराज! तब प्रतापी शूरवीर सहदेव ने एक भल्ल मारकर अपने ऊपर आक्रमण करने वाले उलूक का मस्तक काट डाला। सहदेव के हाथ से मारा गया उलूक युद्ध में पाण्डवों को आनन्दित करता हुआ रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय उसके सारे अंग खून से लथपथ हो गये थे। भारत! अपने पुत्र को मारा गया देख वहाँ शकुनि का गला भर आया। वह लंबी सांस खींचकर विदुर जी की बातों को याद करने लगा। अपनी आंखों में आंसू भरकर उच्छ्वास लेता हुआ दो घड़ी तक चिन्ता में डूबा रहा।

       महाराज! इसके बाद सहदेव के पास जाकर उसने तीन बाणों द्वारा उन पर प्रहार किया। उसके छोड़े हुए उन बाणों का अपने शर समूहों से निवाराण करके प्रतापी सहदेव ने युद्ध स्थल में उसका धनुष काट डाला। राजेन्द्र! धनुष कट जाने पर उस समय सुबल पुत्र शकुनि ने एक विशाल खड्ग लेकर उसे सहदेव पर दे मारा। प्रजानाथ! शकुनि के उस घोर खड्ग को सहसा आते देख समरांगण में सहदेव ने हंसते हुए से उसके दो टुकड़े कर डाले। उस खड्ग को कटा हुआ देख शकुनि ने सहदेव पर एक विशाल गदा चलायी; परंतु वह विफल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देख सुबल पुत्र क्रोध से जल उठा। अब की बार उसने उठी हुई कालरात्रि के समान एक महा भयंकर शक्ति सहदेव को लक्ष्य करके चलायी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)

     अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति को सुवर्णभूषित बाणों द्वारा मारकर सहदेव ने समरांगण में हंसते हुए से सहसा उसके तीन टुकड़े कर डाले। तीन टुकड़ों में कटी हुई वह सुवर्णभूषित शक्ति आकाश से गिरने वाली चमकीली बिजली के समान पृथ्वी पर बिखर गयी। उस शक्ति को नष्ट हुई देख और सुबल पुत्र शकुनि को भी भय से पीड़ित‍जान आपके सभी सैनिक भयभीत हो शकुनि सहित वहाँ से भाग खड़े हुए। उस समय विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। इससे आपके सभी सैनिक प्रायः युद्ध से विमुख हो गये। उन सबको युद्ध से उदासीन देख प्रतापी माद्रीकुमार सहदेव ने अनेक सहस्र बाणों की वर्षा करके उन्हें युद्धस्थल में ही रोक दिया। इसके बाद गान्धार देश के हृष्टपुष्ट घोड़ों और घुड़सवारों से सुरक्षित तथा विजय के लिये दृढ़ संकल्प होकर रणभूमि में जाते हुए सुबल पुत्र शकुनि पर सहदेव ने आक्रमण किया। नरेश्वर! शकुनि को अपना अवशिष्ट भाग मानकर सहदेव ने सुवर्णमय अंगो वाले रथ के द्वारा उसका पीछा किया। उन्होंने एक विशाल धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यन्चा चढ़ा कर शिला पर तेज किये हुए गीध के पंखों वाले बाणों द्वारा शकुनि पर आक्रमण किया और जैसे किसी विशाल गजराज को अंकुशों से मारा जाय, उसी प्रकार कुपित हो उसको गहरी चोट पहुँचायी।

     बुद्धिमान सहदेव ने उस पर आक्रमण करके कुछ याद दिलाते हुए से इस प्रकार कहा,

    सहदेव ने कहा ;- ओ मूढ़! क्षत्रिय धर्म में स्थित होकर युद्ध कर और पुरुष बन। खोटी बुद्धि वाले शकुनि! तू सभा में पासे फेंक कर जूआ खेलते समय जो उस दिन बहुत खुश हो रहा था, आज उस दुष्कर्म का महान फल प्राप्त कर ले। जिन दुरात्माओं ने पूर्वकाल में हम लोगों की हंसी उड़ायी थी, वे सब मारे गये। अब केवल कुलांगर दुर्योधन और उसका मामा तू- ये दो ही बच गये हैं। जैसे मथ डालने वाले डंडे से मारकर पेड़ से फल तोड़ लिया जाता है, उसी प्रकार आज मैं क्षुर के द्वारा तेरा मस्तक काटकर तुझे मौत के हवाले कर दूंगा।

      महाराज! ऐसा कहकर रणक्षेत्र में सिंह के समान पराक्रम दिखाने वाले महाबली सहदेव ने अत्यन्त कुपित हो बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया। योद्धाओें में श्रेष्ठ सहदेव अत्यन्त दुर्जय वीर हैं। उन्होंने क्रोध से जलते हुए-से पास जाकर अपने धनुष को बलपूर्वक खींचा और दस बाणों से शकुनि को घायल करके चार बाणों से उसके घोड़ों को भी बींध डाला। तत्पश्चात उसके छत्र, ध्वज और धनुष को भी काट कर सिंह के समान गर्जना की। सहदेव ने शकुनि के ध्वज, छत्र और धनुष को काट देने के पश्चात उसके सम्पूर्ण मर्मस्थानों में बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! तत्पश्चात प्रतापी सहदेव ने पुनः शकुनि पर दुर्जय बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। इससे सुबल पुत्र शकुनि को बड़ा क्रोध हुआ। उसने उस संग्राम में माद्रीकुमार सहदेव को सुवर्णभूषित प्रास के द्वारा मार डालने की इच्छा से अकेले ही उन पर तीव्र गति से आक्रमण किया। माद्रीकुमार ने शकुनि के उस उठे हुए प्रास को और उसकी दोनों सुन्दर गोल-गोल भुजाओं को भी युद्ध के मुहाने पर तीन भल्लों द्वारा एक साथ ही काट डाला और युद्धस्थल में उच्च स्वर से वेगपूर्वक गर्जना की।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 61-68 का हिन्दी अनुवाद)

     तत्पश्चात शीघ्रता करने वाले सहदेव ने अच्छी तरह संधान करके छोड़े गये सुवर्णमय पंख वाले लोहे के बने हुए सुदृढ़ भल्ल के द्वारा, जो समस्त आवरणों को छेद डालने वाला था, शकुनि के मस्तक को पुनः धड़ से काट गिराया। वह सुवर्णभूषित बाण सूर्य के समान तेजस्वी तथा अच्छी तरह संधान करके चलाया गया था। उसके द्वारा पाण्डुकुमार सहदेव ने युद्धस्थल में जब सुबल पुत्र शकुनि का मस्तक काट डाला, तब वह प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। क्रोध में भरे हुए पाण्डु पुत्र सहदेव ने शिला पर तेज किये हुए और सुवर्णमय पंख वाले वेगवान बाण से शकुनि के उस मस्तक को काट गिराया, जो कौरवों के अन्याय का मूल कारण था। राजन! वीर सहदेव ने जब उसकी गोल-गोल सुन्दर दोनों भुजाएं काट दीं, उसके पश्चात राजा शकुनि का भयंकर धड़ लहूलुहान होकर श्रेष्ठ रथ से नीचे गिर पड़ा और छटपटाने लगा।

      शकुनि को मस्तक से रहित एवं खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देख आपके योद्धा भय के कारण अपना धैर्य खो बैठे और हथियार लिये हुए सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। उनके मुख सूख गये थे। उनकी चेतना लुप्त-सी हो रही थी। वे गाण्डीव की टंकार से मृतप्राय हो रहे थे; उनके रथ, घोड़े और हाथि नष्ट हो गये थे; अतः वे भय से पीड़ित हो आपके पुत्र दुर्योधन सहित पैदल ही भाग चले।

      भरतनन्दन! रथ से शकुनि को गिरा कर समरांगण में श्रीकृष्ण सहित समस्त पाण्डव अत्यन्त हर्ष में भरकर सैनिकों का हर्ष बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक शंखनाद करने लगे। सहदेव को देख कर युद्ध क्षेत्र में सब लोग उनकी पूजा (प्रशंसा) करते हुए इस प्रकार कहने लगे- वीर! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने रणभूमि में कपट द्यूत के विधायक महामना शकुनि को पुत्र सहित मार डाला है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व में शकुनि और उलूक का वध विषयक अटठाईसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

उनत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“बची हुई समस्त कौरव सेना का वध, संजय का कैद से छूटना, दुर्योधन का सरोवर में प्रवेश तथा युयुत्सु का राजमहिलाओं के साथ हस्तिनापुर में जाना”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर शकुनि के अनुचर क्रोध में भर गये और प्राणों का भय छोड़ कर उन्होंने उस महासमर में पाण्डवों को चारों ओर से घेर लिया। उस समय सहदेव की विजय को सुरक्षित रखने का दृढ़ निश्चय लेकर अर्जुन ने उन समस्त सैनिकों को आगे बढ़ने से रोका। उनके साथ तेजस्वी भीमसेन भी थे, जो कुपित हुए विषधर सर्प के समान दिखायी देते थे। सहदेव को मारने की इच्छा से शक्ति, ऋष्टि और प्रास हाथ में लेकर आक्रमण करने वाले उन समस्त योद्धाओं का संकल्प अर्जुन ने गाण्डीव धनुष के द्वारा व्यर्थ कर दिया। सहदेव पर धावा करने वाले उन योद्धाओं की अस्त्र-शस्त्र युक्त भुजाओं, मस्तकों और उनके घोड़ों को भी अर्जुन ने भल्लों से काट गिराया। रणभूमि में विचरते हुए विश्वविख्यात वीर सव्यसाची अर्जुन के द्वारा मारे गये वे घोड़े और घुड़सवार प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

     अपनी सेना का इस प्रकार संहार होता देख राजा दुर्योधन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने मरने से बचे हुए बहुत से रथियों, हाथी सवारों, घुड़सवारों और पैदलों को सब ओर से एकत्र करके उन सबसे इस प्रकार कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीरो! तुम सब लोग रणभूमि में समस्त पाण्डवों तथा उनके मित्रों से भिड़कर उन्हें मार डालो और पाञ्चालराज धृष्टद्युम्न का भी सेना सहित संहार करके शीघ्र लौट आओ’। राजन! आपके पुत्र की आज्ञा से उसके उस वचन को शिरोधार्य करके वे रणदुर्मद योद्धा युद्ध के लिये आगे बढ़े।

      उस महासमर में शीघ्रतापूर्वक आक्रमण करने वाले मरने से बचे हुए उन सैनिकों पर समस्त पाण्डवों ने विषधर सर्प के समान आकार वाले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ! वह सेना युद्धस्थल में आकर महात्मा पाण्डवों द्वारा दो ही घड़ी में मार डाली गयी। उस समय उसे कोई भी अपना रक्षक नहीं मिला। वह युद्ध के लिये कवच बांधकर प्रस्थित तो हुई, किंतु भय के मारे वहाँ टिक न सकी। चारों ओर दौड़ते हुए घोड़ों तथा सेना के द्वारा उड़ायी हुई धूल से वहाँ का सारा प्रदेश छा गया था। अतः समरभूमि में दिशाओं तथा विदिशाओं का कुछ पता नहीं चलता था। भारत! पाण्डव सेना से बहुत से सैनिकों ने निकल कर युद्ध में एक ही मुहूर्त के भीतर आपके सम्पूर्ण योद्धाओं का संहार कर डाला। भरतनन्दन! उस समय आपकी वह सेना सर्वथा नष्ट हो गयी। उसमें से एक भी योद्धा बच न सका। प्रभो! भरतवंशी नरेश! आपके पुत्र के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं थीं; परंतु युद्ध में पाण्डवों और सृंजयों ने उन सबका विनाश कर डाला।

     राजन! आपके दल के उन सहस्रों महामनस्वी राजाओं में एकमात्र दुर्योधन ही उस समय दिखायी देता था; परंतु वह भी बहुत घायल हो चुका था। उस समय उसे सम्पूर्ण दिशाएं और सारी पृथ्वी सूनी दिखायी दी। वह अपने समस्त योद्धाओं से हीन हो चुका था। महाराज! दुर्योधन ने युद्धस्थल में पाण्डवों को सर्वथा प्रसन्न, सफल मनोरथ और सब ओर से सिंहनाद करते देख तथा उन महामनस्वी वीरों के बाणों की सनसनाहट सुनकर शोक से संतप्त हो वहाँ से भाग जाने का विचार किया। उसके पास न तो सेना थी और न कोई सवारी ही।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद)

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- सूत! जब मेरी सेना मार डाली गयी और सारी छावनी सूनी कर दी गयी, उस समय पाण्डवों की सेना में कितने सैनिक शेष रह गये थे? संजय! मैं यह बात पूछ रहा हूं, तुम मुझे बताओ; क्योंकि यह सब बताने में तुम कुशल हो। अपनी सेना का संहार हुआ देख कर अकेले बचे हुए मेरे मूर्ख पुत्र राजा दुर्योधन ने क्या किया?

     संजय ने कहा ;- राजन! पाण्डवों की विशाल सेना में से केवल दो हजार रथ, सात सौ हाथी, पांच हजार घोड़े और दस हजार पैदल बच गये थे। इन सबको साथ लेकर सेनापति धृष्टद्युम्न युद्धभूमि में खड़े थे। उधर राजा दुर्योधन अकेला हो गया था। महाराज! रथियों में श्रेष्ठ दुर्योधन ने जब समरभूमि में अपने किसी सहायक को न देखकर शत्रुओं को गर्जते देखा और अपनी सेना के विनाश पर दृष्टिपात किया, तब वह अकेला भूपाल अपने मरे हुए घोड़े को वहीं छोड़ कर भय के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग चला। जो किसी समय ग्यारह अक्षौहिणी सेना का सेनापति था, वही आपका तेजस्वी पुत्र दुर्योधन अब गदा लेकर पैदल ही सरोवर की ओर भागा जा रहा था।

     अपने पैरों से ही थोड़ी ही दूर जाने के पश्चात राजा दुर्योधन को धर्मशील बुद्धिमान विदुर जी की कही हुई बातें याद आने लगीं। वह मन ही मन सोचने लगा कि हमारा और इन क्षत्रियों का जो महान संहार हुआ है, इसे महाज्ञानी विदुर जी ने अवश्य पहले ही देख और समझ लिया था। राजन्! अपनी सेना का संहार देख कर इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा दुर्योधन का हृदय दुःख और शोक से संतप्त हो उठा था। उसने सरोवर में प्रवेश करने का विचार किया।

     महाराज! धृष्टद्युम्न आदि पाण्डवों ने अत्यन्त कुपित होकर आपकी सेना पर धावा किया था तथा शक्ति, ऋष्टि और प्रास हाथ में लेकर गर्जना करने वाले आपके योद्धाओं का सारा संकल्प अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष से व्यर्थ कर दिया था। अपने पैने बाणों से बन्धुओं और मन्त्रियों सहित उन योद्धाओं का संहार करके श्वेत घोड़ों वाले रथ पर स्थित हुए अर्जुन की बड़ी शोभा हो रही थी। घोड़े, रथ और हाथियों सहित सुबल पुत्र के मारे जाने पर आपकी सेना कटे हुए विशाल वन के समान प्रतीत होती थी।

       राजन! दुर्योधन की कई लाख सेना में से द्रोणपुत्र वीर अश्वत्थामा, कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा आपके पुत्र राजा दुर्योधन के अतिरिक्त दूसरा कोई महारथी जीवित नहीं दिखायी देता था। उस समय मुझे कैद में पड़ा हुआ देखकर हंसते हुए धृष्टद्युम्न ने सात्यकि से कहा,

     धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘इसको कैद करके क्या करना है? इसके जीवित रहने से अपना कोई लाभ नहीं है। धृष्टद्युम्न की बात सुन कर शिनि पौत्र महारथी सात्यकि तीखी तलवार उठा कर उसी क्षण मुझे मार डालने के लिये उद्यत हो गये। उस समय महाज्ञानी श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास जी सहसा आकर बोले,

   व्यास जी ने कहा ;- ‘संजय को जीवित छोड़ दो। यह किसी प्रकार वध के योग्य नहीं है’। हाथ जोड़े हुए शिनि पौत्र सात्यकि ने व्यास जी की वह बात सुन कर मुझे कैद के मुक्त करके कहा,

    सात्यकि ने कहा ;- ‘संजय! तुम्हारा कल्याण हो। जाओ, अपना अभीष्ट साधन करो’। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर मैंने कवच उतार दिया और अस्त्र-शस्त्रों से रहित हो सायंकाल के समय नगर की ओर प्रस्थित हुआ। उस समय मेरा सारा शरीर रक्त से भीगा हुआ था।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय कहते हैं ;- राजन! एक कोस आने पर मैंने भीगे हुए दुर्योधन को गदा हाथ में लिये अकेला खड़ा देखा। उसके शरीर पर बहुत-से घाव हो गये थे। मुझ पर दृष्टि पड़ते ही उसके नेत्रों में आंसू भर आये। वह अच्छी तरह मेरी ओर देख न सका। मैं उस समय दीन भाव से खड़ा था। वह मेरी उस अवस्था पर दृष्टिपात करता रहा। मैं भी युद्ध क्षेत्र में अकेले शोकमग्न हुए दुर्योधन को देखकर अत्यन्त दुःख शोक में डूब गया और दो घड़ी तक कोई बात मुंह से न निकाल सका। मस्तक पर मुकुट धारण करने वाले सहस्रों मूर्धाभिषिक्त नरेश जिसके लिये भेंट लाकर देते थे और वे सब के सब जिसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे, पूर्वकाल में एक मात्र वीर कर्ण ने जिसके लिये चारों समुद्रों तक फैली हुई इस रत्न भूषित पृथ्वी से कर वसूल किया था, कर्ण ने ही दूसरे राष्ट्रों में जिसकी आज्ञा का प्रसार किया था, जिस राजा को राज्य शासन करते समय कभी हथियार उठाने का कष्ट नहीं सहन करना पड़ा था, जो हस्तिनापुर में ही रह कर अपने कल्याणमय निष्कण्टक राज्य का निरन्तर पालन करता था, जिसने अपने ऐश्वर्य से कुबेर को भी भुला दिया था, राजन! पृथ्वीनाथ! एक घर से दूसरे घर में जाने अथवा देवालय में प्रवेश करने के हेतु जिसके लिये सुवर्णमय मार्ग बनाया गया था, जो इन्द्र के समान बलवान भूपाल ऐरावत के समान कान्तिमान गजराज पर आरूढ़ हो महान ऐश्वर्य के साथ यात्रा करता था, उसी इन्द्र तुल्य तेजस्वी राजा दुर्योधन को अत्यन्त घायल हो पांव-पयादे ही पृथ्वी पर अकेला खड़ा देख मुझे महान क्लेश हुआ।

     ऐसे प्रतापी और सम्पूर्ण जगत के स्वामी इस भूपाल को जो अनुपम विपत्ति प्राप्त हुई, उसे देखकर कहना पड़ता है कि ‘विधाता ही सबसे बड़ा बलवान है’। तत्पश्चात मैंने युद्ध में अपने पकड़े जाने और व्यास जी की कृपा से जीवित छूटने का सारा समाचार उससे कह सुनाया। उसने दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार कर सचेत होने पर मुझसे अपने भाईयों तथा सम्पूर्ण सेनाओं का समाचार पूछा।

    मैंने भी जो कुछ आंखो देखा था, वह सब कुछ उसे इस प्रकार बताया,

  संजय ने कहा ;- ‘नरेश्वर! तुम्हारे सारे भाई मार डाले गये और समस्त सेना का भी संहार हो गया। रणभूमि से प्रस्थान करते समय व्यास जी ने मुझ से कहा था कि ‘तुम्हारे पक्ष में तीन ही महारथी बच गये हैं’। यह सुनकर आपने पुत्र ने लंबी सांस खींच कर बारंबार मेरी ओर देखा और हाथ से मेरा स्पर्श करके इस प्रकार कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- ‘संजय! इस संग्राम में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा आत्मीय जन सम्भवतः जीवित नहीं है; क्योंकि मैं यहाँ दूसरे किसी स्वजन को देख नहीं रहा हूँ। उधर पाण्डव अपने सहायकों से सम्पन्न हैं। ‘संजय! तुम प्रज्ञाचक्षु ऐश्वर्यशाली महाराज से कहना कि ‘आपका पुत्र दुर्योधन वैसे पराक्रमी सुहृदों, पुत्रों और भ्राताओं से हीन होकर सरोवर में प्रवेश कर गया है। जब पाण्डवों ने मेरा राज्य हर लिया, तब इस दयनीय दशा में मेरे-जैसा कौन पुरुष जीवन धारण कर सकता है ?’ संजय! तुम ये सारी बातें कहना और यह भी बताना कि ‘दुर्योधन उस महासंग्राम से जीवित बच कर पानी से भरे हुए इस सरोवर में छिपा है और उसका सारा शरीर अत्यन्त घायल हो गया है’’।

    महाराज! ऐसा कहकर राजा दुर्योधन ने उस महान सरोवर में प्रवेश किया और माया से उसका पानी बांध दिया। जब दुर्योधन सरोवर में समा गया, उसके बाद अकेले खड़े हुए मैंने अपने पक्ष के तीन महारथियों को वहाँ उपस्थित देखा, जो एक साथ उस स्थान पर आ पहुँचे थे। उन तीनों के घोड़े थक गये थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 56-76 का हिन्दी अनुवाद)

    उनके नाम इस प्रकार हैं- शरद्वान के पुत्र वीर कृपाचार्य, रथियों में श्रेष्ठ द्रोणकुमार अश्वत्थामा तथा भोजवंशी कृतवर्मा। ये सब लोग एक साथ थे और बाणों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। मुझे देखते ही उन तीनों ने शीघ्रतापूर्वक अपने घोड़े बढ़ाये और निकट आकर मुझसे कहा,- ‘संजय! सौभाग्य की बात है कि तुम जीवित हो’। फिर उन सबने आपके पुत्र राजा दुर्योधन का समाचार पूछा,- ‘संजय! क्या हमारे राजा दुर्योधन जीवित हैं? ’। तब मैंने उन लोगो से दुर्योधन का कुशल समाचार बताया तथा दुर्योधन ने मुझे जो संदेश दिया था, वह भी सब उनसे कह सुनाया और जिस सरोवर में वह घुसा था, उसका भी पता बता दिया। राजन! मेरी बात सुन कर अश्वत्थामा ने उस विशाल सरोवर की ओर देखा और करुण विलाप करते हुए कहा,

     अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘अहो! धिक्कार है, राजा दुर्योधन नहीं जानते हैं कि हम सब जीवित हैं। उनके साथ रह कर हम लोग शत्रुओं से जूझने के लिये पर्याप्त हैं’। तत्पश्चात वे महारथी दीर्घकाल तक वहाँ विलाप करते रहे।

   फिर रणभूमि में पाण्डवों को आते देख वे रथियों में श्रेष्ठ तीनों वीर वहाँ से भाग निकले। मरने से बचे हुए वे तीनों रथी मुझे भी कृपाचार्य के सुसज्जित रथ पर बिठा कर छावनी तक ले आये। सूर्य अस्ताचल पर जा चुके थे। वहाँ छावनी के पहरेदार भय से घबराये हुए थे। आपके पुत्रों के विनाश का समाचार सुन कर वे सभी फूट-फूट कर रोने लगे। महाराज! तदनन्तर स्त्रिोयों की रक्षा में नियुक्त हुए वृद्ध पुरुषों ने राजकुल की महिलाओं को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी की। उस समय वहाँ अपने पतियों को पुकारती और रोती बिलखती हुई राजमहिलाओं का महान आर्तनाद सब ओर गूंज उठा। राजन! अपनी सेना और पतियों के संहार का समाचार सुन कर वे राजकुल की युवतियां अपने आर्तनाद से भूतल को प्रतिध्वनित करती हुई बारंबार कुररी की भाँति विलाप करने लगीं। वे जहाँ-तहाँ हाहाकार करती हुई अपने ऊपर नखों से आघात करने, हाथों से सिर और छाती पीटने तथा केश नोचने लगीं। प्रजानाथ! शोक में डूब कर पति को पुकारती हुई वे रानियां करुण स्वर से क्रन्दन करने लगीं। इससे दुर्योधन के मन्त्रियों का गला भर आया और वे अत्यन्त व्याकुल हो राजमहिलाओं को साथ ले नगर की ओर चल दिये।

    प्रजानाथ! उनके साथ हाथों में बेंत की छड़ी लिये द्वारपाल भी चल रहे थे। रानियों की रक्षा में नियुक्त हुए सेवक शुभ्र एवं बहुमूल्य बिछौने लेकर शीघ्रतापूर्वक नगर की ओर चलने लगे। अन्य बहुत से राजकीय पुरुष खच्चरियों से जुते हुए रथों पर आरूढ़ हो अपनी-अपनी रक्षा में स्थित स्त्रियों को लेकर नगर की ओर यात्रा करने लगे। महाराज! जिन राजमहिलाओं को महलों में रहते समय पहले सूर्यदेव ने भी नहीं देखा होगा, उन्हें ही नगर की ओर जाते हुए साधारण लोग भी देख रहे थे। भरतश्रेष्ठ! जिनके स्वजन और बान्धव मारे गये थे, वे सुकुमारी स्त्रियां तीव्र गति से नगर की ओर जा रही थीं। उस समय भीमसेन के भय से पीड़ित हो सभी मनुष्य गायों और भेड़ों के चरवाहे तक घबरा कर नगर की ओर भाग रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 77-95 का हिन्दी अनुवाद)

    उन्हें कुन्ती के पुत्रों से दारुण एवं तीव्र भय प्राप्त हुआ था। वे एक दूसरे की ओर देखते हुए नगर की ओर भागने लगे। जब इस प्रकार अति भयंकर भगदड़ मची हुई थी, उस समय युयुत्सु शोक से मूर्च्छित हो मन-ही-मन समयोचित कर्त्तव्य का विचार करने लगा- ‘भयंकर पराक्रमी पाण्डवों ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन को युद्ध में परास्त कर दिया और उसके भाईयों को भी मार डाला। ‘भीष्म और द्रोणाचार्य जिनके अगुआ थे, वे समस्त कौरव मारे गये। अकस्मात भाग्य-योग से अकेला मैं ही बच गया हूँ। ‘सारे शिबिर के लोग सब ओर भाग गये।

     स्वामी के मारे जाने से हतोत्साह होकर सभी सेवक इधर-उधर पलायन कर रहे हैं। ‘उन सबकी ऐसी अवस्था हो गयी है, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। सभी दुःख से आतुर हैं और सब के नेत्र भय से व्याकुल हो उठे हैं। सभी लोग भयभीत मृगों के समान दसों दिशाओं की ओर देख रहे हैं। दुर्योधन के मन्त्रियों में से जो कोई बच गये हैं, वे राजमहिलाओं को साथ लेकर नगर की ओर जा रहे हैं। ‘मैं राजा युधिष्ठिर और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर उन मन्त्रियों के साथ ही नगर में प्रवेश करूं, यही मुझे समयोचित कर्तव्य जान पड़ता है’। ऐसा सोच कर महाबाहु युयुत्सु ने उन दोनों के सामने अपना विचार प्रकट किया। उसकी बात सुनकर निरन्तर करुणा का अनुभव करने वाले महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वैश्यकुमारी के पुत्र युयुत्सु को छाती से लगा कर विदा कर दिया। तत्पश्चात उसने रथ पर बैठा कर तुरंत ही अपने घोड़े बढ़ाये और राजकुल की स्त्रियों को राजधानी में पहुँचा दिया। सूर्य के अस्त होते-होते नेत्रों से आंसू बहाते हुए उसने उन सबके साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया। उस समय उसका गला भर आया था।

    राजन! वहाँ उसने आपके पास से निकले हुए महाज्ञानी विदुर जी का दर्शन किया, जिनके नेत्रों में आंसू भरे हुए थे और मन शोक में डूबा हुआ था। सत्यपरायण विदुर ने प्रणाम करके सामने खड़े हुए युयुत्सु से कहा,

    विदुर ने कहा ;- ‘बेटा! बड़े सौभाग्य की बात है कि कौरवों के इस विकट संहार में भी तुम जीवित बच गये हो; परंतु राजा युधिष्ठिर के हस्तिनापुर में प्रवेश करने से पहले ही तुम यहाँ कैसे चले आये? यह सारा कारण मुझे विस्तारपूर्वक बताओ’। 

     युयुत्सु ने कहा ;- चाचा जी! जाति, भाई और पुत्र सहित शकुनि के मारे जाने पर जिसके शेष परिवार नष्ट हो गये थे, वह राजा दुर्योधन अपने घोड़े को युद्धभूमि में ही छोड़ कर भय के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग गया। राजा के छावनी से दूर भाग जाने पर सब लोग भय से व्याकुल हो राजधानी की ओर भाग चले। तब राजा तथा उनके भाइयों की पत्नियों को सब ओर से सवारियों पर बिठा कर अन्तःपुर के अध्यक्ष भी भय के मारे भाग खड़े हुए। तदनन्तर मैं भगवान श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर भागे हुए लोगो की रक्षा के लिये हस्तिनापुर में चला आया हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 96-105 का हिन्दी अनुवाद)

    वेश्या पुत्र युयुत्सु की कहीं हुई यह बात सुन कर और इसे समयोचित जानकर सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता तथा अमेय आत्मबल से सम्पन्न विदुर जी ने युयुत्सु की भूरी-भूरी प्रशंसा की एवं इस प्रकार कहा,

    विदुर जी ने कहा ;- ‘भरतवंशियों के इस विनाश के समय जो यह समयोचित कर्त्तव्य प्राप्त था, वह सब बताकर अपनी दयालुता के कारण तुमने कुल-धर्म की रक्षा की है। ‘वीरों का विनाश करने वाले इस संग्राम से बच कर तुम कुशलपूर्वक नगर में लौट आये- इस अवस्थाओं में हमने तुम्हें उसी प्रकार देखा है, जैसे रात्रि के अन्त में प्रजा भगवान भास्कर का दर्शन करती है। ‘लोभी, अदूरदर्शी और अन्धे राजा के लिये तुम लाठी के सहारे हो। मैंने उनसे युद्ध रोकने के लिये बारंबार याचना की थी, परंतु दैव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। आज वे संकट से पीड़ित हैं, बेटा! इस अवस्था में एकमात्र तुम्हीं उन्हें सहारा देने के लिये जीवित हो। ‘आज यहीं विश्राम करो। कल सबेरे युधिष्ठिर के पास चले जाना’ ऐसा कहकर नेत्रों में आंसू भरे विदुर जी ने युयुत्सु को साथ लेकर राजमहल में प्रवेश किया।

      वह भवन नगर और जनपद के लोगों द्वारा दुःख पूर्वक किये जाने वाले हाहाकार एवं भयंकर आर्तनाद से गूंज उठा था। वहाँ न तो आनन्द था और न वैभवजनित शोभा ही दृष्टिगोचर होती थी। वह राजभवन उस जलाशय के समान जनशून्य और विध्वस्त सा जान पड़ता था, जिसके तट का उद्यान नष्ट हो गया हो। वहाँ पहुँच कर विदुर जी दुःख से अत्यन्त खिन्न हो गये। राजन! सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता विदुर जी ने व्याकुल अन्तः- करण से नगर में प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे लंबी सांस खींचने लगे। युयुत्सु भी उस रात में अपने घर पर ही रहे। उनके मन में अत्यन्न दुःख था, इसलिये वे स्वजनों द्वारा वन्दित होने पर भी प्रसन्न नहीं हुए। इस पारस्परिक युद्ध से भरतवंशियों का जो घोर संहार हुआ था, उसी की चिन्ता में वे निमग्न हो गये थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत ह्रद प्रवेश पर्व में उन्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदापर्व)

तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य का सरोवर पर जाकर दुर्योधन से युद्ध करने के विषय में बातचीत करना, व्याधों से दुर्योधन का पता पाकर युधिष्ठिर का सेना सहित सरोवर पर जाना और कृपाचार्य आदि का दूर हट जाना”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;-  संजय! जब पाण्डु के पुत्रों ने समरांगण में समस्त सेनाओं का संहार कर डाला, तब मेरी सेना के शेष वीरों ने क्या किया? कृतवर्मा, कृपाचार्य, पराक्रमी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा तथा मन्दबुद्धि राजा दुर्योधन ने उस समय क्या किया?

    संजय ने कहा ;- राजन! जब महामनस्वी क्षत्रिय राजाओं की पत्नियां भाग चलीं और सब लोगों के पलायन करने से सारा शिबिर सूना हो गया, उस समय पूर्वोक्त तीनों रथी अत्यन्त उद्विग्न हो गये। सायंकाल में विजयी पाण्डवों की गर्जना सुनकर और अपने सारे शिबिर के लोगों को भागा हुआ देख कर राजा दुर्योधन को चाहने वाले उन तीनों महारथियों को वहाँ ठहरना अच्छा न लगा; इसलिये वे उसी सरोवर के तट पर गये।

    राजन! इधर धर्मात्मा युधिष्ठिर भी रणभूमि में दुर्योधन के वध की इच्छा से बड़े हर्ष के साथ भाइयों सहित विचर रहे थे। विजय के अभिलाषी पाण्डव अत्यन्त कुपित होकर आपके पुत्र का पता लगाने लगे; परंतु यत्नपूर्वक खोज करने पर भी उन्हें राजा दुर्योधन कहीं दिखायी नहीं दिया। वह हाथ में गदा लेकर तीव्र वेग से भागा और अपनी माया से जल को स्तम्भित करके उस सरोवर के भीतर जा घुसा। दुर्योधन की खोज करते-करते जब पाण्डवों के वाहन बहुत थक गये, तब सभी पाण्डव सैनिकों सहित अपने शिबिर में आ कर ठहर गये।

     तदनन्तर जब कुन्ती के सभी पुत्र शिबिर में विश्राम करने लगे, तब कृपाचार्य, अश्वत्थामा और सात्वतवंशी कृतवर्मा धीरे-धीरे उस सरोवर के तट पर जा पहुँचे। जिस में राजा दुर्योधन सो रहा था, उस सरोवर के समीप पहुँच कर, वे जल में सोये हुए उस दुर्धर्ष नरेश से इस प्रकार बोले,

  अश्वत्थामा बोले ;- ‘राजन! उठो और हमारे साथ चल कर युधिष्ठिर से युद्ध करो। विजयी होकर पृथ्वी का राज्य भोगो अथवा मारे जाकर स्वर्गलोक प्राप्त करो। ‘प्रजानाथ दुर्योधन! भरतनन्दन! तुमने भी तो पाण्डवों की सारी सेना का संहार कर डाला है। वहाँ जो सैनिक शेष रह गये हैं, वे भी बहुत घायल हो चुके हैं; अतः जब तुम हमारे द्वारा सुरक्षित होकर उन पर आक्रमण करोगे तो वे तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे; इसलिये तुम युद्ध के लिये उठो’।

       दुर्योधन बोला ;- मैं ऐसे जन संहारकारी पाण्डव कौरव संग्राम से आप सभी नरश्रेष्ठ वीरों को जीवित बचा हुआ देख रहा हूं, यह बड़े सौभाग्य की बात है। हम सब लोग विश्राम करके अपनी थकावट दूर कर लें तो अवश्य विजयी होंगे। आप लोग भी बहुत थके हुए हैं और हम भी अत्यन्त घायल हो चुके हैं। उधर पाण्डवों का बल बढ़ा हुआ है; इसलिये इस समय मेरी युद्ध करने की रुचि नहीं हो रही है। वीर! आपके मन में जो युद्ध के लिये महान उत्साह बना हुआ है, यह कोई अद्भुत बात नहीं है। आप लोगों का मुझ पर महान प्रेम भी है, तथापि यह पराक्रम प्रकट करने का समय नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

     आज एक रात विश्राम करके कल सबेरे रणभूमि में आप लोगों के साथ रहकर मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करूंगा, इस में संशय नहीं है।

     संजय कहते हैं ;- राजन! दुर्योधन के ऐसा कहने पर द्रोणकुमार ने उस रणदुर्मद राजा से इस प्रकार कहा,

    अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘महाराज! उठो, तुम्हारा कल्याण हो। हम शत्रुओं पर विजय प्राप्त करेंगे। ‘राजन! मैं अपने इष्टापूर्त कर्म, दान, सत्य और जय की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज सोमकों का संहार कर डालूंगा। ‘यदि यह रात बीतते ही प्रातःकाल रणभूमि में शत्रुओं को न मार डालूं तो मुझे सज्जन पुरुषों के योग्य और यज्ञकर्ताओं को प्राप्त होने वाली प्रसन्नता न प्राप्त हो।

      नरेश्वर! मैं समस्त पाञ्चालों का संहार किये बिना अपना कवच नहीं उतारूंगा, यह तुम से सच्ची बात कहता हूँ। मेरे इस कथन को तुम ध्यान से सुनो’। वे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि मांस के भार से थके हुए बहुत से व्याध उस स्थान पर पानी पीने के लिये अकस्मात आ पहुँचे। उन्होंने वहाँ खड़े होकर उनकी एकान्त में होने वाली सारी बातें सुन लीं। परस्पर मिले हुए उन व्याधों ने दुर्योधन की भी बात सुनी। कुरुराज दुर्योधन युद्ध नहीं चाहता था तो भी युद्ध की अभिलाषा रखने वाले वे सभी महाधनुर्धर योद्धा उससे युद्ध छेड़ने के लिये बड़ा आग्रह कर रहे थे। राजन! उन कौरव महारथियों की वैसी मनोवृत्ति जानकर जल में ठहरे हुए राजा दुर्योधन के मन में युद्ध का उत्साह न देखकर और सलिल निवासी नरेश के साथ उन तीनों का संवाद सुनकर व्याध यह समझ गये कि ‘दुर्योधन इसी सरोवर के जल में छिपा हुआ है’।

      पहले राजा दुर्योधन की खोज करते हुए पाण्डुकुमार युधिष्ठिर ने दैववश अपने पास पहुँचे हुए उन व्याघों से आपके पुत्र का पता पूछा था। राजन! उस समय पाण्डुपुत्र की कही हुई बात याद करके वे व्याध आपस में धीरे-धीरे बोले,

    व्याध बोले ;- ‘यदि हम दुर्योधन का पता बता दे तो पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हमें धन देंगे। हमें तो यहाँ यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो गया कि राजा दुर्योधन इसी सरोवर में छिपा हुआ है। अतः जल में सोये हुए अमर्षशील दुर्योधन का पता बताने के लिये हम सब लोग उस स्थान पर चलें, जहाँ राजा युधिष्ठिर मौजूद हैं। ‘बुद्धिमान धनुर्धर भीमसेन को हम सब यह बता दें कि धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन जल में सो रहा है। ‘इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर वे हमें बहुत धन देंगे। फिर हमें शरीर का रक्त सुखा देने वाले इस सूखे मांस को ढोकर व्यर्थ कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है?’।

      इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके धन की अभिलाषा रखने वाले वे व्याध बड़े प्रसन्न हुए और मांस के बोझ उठाकर पाण्डव-शिविर की ओर चल दिये। महाराज! प्रहार करने में कुशल पाण्डवों ने अपना लक्ष्य सिद्ध कर लिया था; उन्होंने दुर्योधन को समरांगण में खड़ा न देख उस पापी के किये हुए छल-कपट का बदला चुकाकर वैर के पार जाने की इच्छा से उस संग्रामभूमि में चारों ओर गुप्तचर भेज रखे थे। धर्मराज के उन सभी गुप्तचर सैनिकों ने एक साथ लौट कर यह निवेदन किया कि ‘राजा दुर्योधन लापता हो गया है’। भरतश्रेष्ठ! उन गुप्तचरों की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर घोर चिन्ता में पड़ गये और लंबी सांस खींचने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 39-60 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतभूषण! नरेश! तदनन्तर जब पाण्डव खिन्न होकर बैठे हुए थे, उसी समय वे व्याध राजा दुर्योधन को अपनी आंखों देखकर तुरंत ही उस स्थान से हट गये और बड़े हर्ष के साथ पाण्डव-शिबिर में जा पहुँचे। द्वारपालों के रोकने पर भी वे भीमसेन के देखते-देखते भीतर घुस गये। महाबली पाण्डुपुत्र भीमसेन के पास जाकर उन्होंने सरोवर के तट पर जो कुछ हुआ था और जो कुछ सुनने में आया था, वह सब कह सुनाया।

     राजन! तब शत्रुओं को संताप देने वाले भीम ने व्याधों को बहुत धन देकर धर्मराज से सारा समाचार कहा। 

    वे बोले (भीमसेन) ;- ‘धर्मराज! मेरे व्याधों ने राजा दुर्योधन का पता लगा लिया है। आप जिसके लिये संतप्त हैं, वह माया से पानी बांध कर सरोवर में सो रहा है’। प्रजानाथ! भीमसेन का वह प्रिय वचन सुनकर अजात शत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ बड़े प्रसन्न हुए। महाधनुर्धर दुर्योधन को पानी से भरे सरोवर में घुसा सुन कर राजा युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके शीघ्र ही वहाँ से चल दिये।

     प्रजानाथ! फिर तो हर्ष में भरे हुए पाण्डव और पाञ्चालों की किलकिलाहट का शब्द सब ओर गूंजने लगा। भरतभूषण नरेश! वे सभी क्षत्रिय सिंहनाद एवं गर्जना करने लगे तथा तुरंत ही द्वैपायन नामक सरोवर के पास जा पहुँचे। हर्ष में भरे हुए सोमक वीर रणभूमि में सब ओर पुकार-पुकार कर कहने लगे ‘धृतराष्ट्र के पापी पुत्र का पता लग गया और उसे देख लिया गया’। पृथ्वीनाथ! वहाँ शीघ्रतापूर्वक यात्रा करने वाले उनके वेगशाली रथों का घोर घर्घर शब्द आकाश में व्याप्त हो गया। भारत! उस समय अर्जुन, भीमसेन, माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव, पाञ्चालराज कुमार धृष्टद्युम्न, अपराजित वीर शिखण्डी, उत्तमौजा, युधामन्यु, महारथी सात्यकि, द्रौपदी के पांचो पुत्र तथा पाञ्चालों में से जो जीवित बच गये थे, वे वीर दुर्योधन को पकड़ने की इच्छा से अपने वाहनों के थके होने पर भी बड़े उतावली के साथ राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे गये। उनके साथ सभी घुड़सवार, हाथीसवार और सैकड़ों पैदल सैनिक भी थे। महाराज! तत्पश्चात प्रतापी धर्मराज युधिष्ठिर उस भयंकर द्वैपायनह्रद के तट पर जा पहुँचे, जिसके भीतर दुर्योधन छिपा हुआ था। उसका जल शीतल और निर्मल था। वह देखने में मनोरम और दूसरे समुद्र के समान विशाल था। भारत! उसी के भीतर मायाद्वारा जल को स्तम्भित करके दैवयोग एवं अदभुत विधि से आपका पुत्र विश्राम कर रहा था।

     प्रभो! नरेन्द्र! हाथ में गदा लिये राजा दुर्योधन जल के भीतर सोया था। उस समय किसी भी मनुष्य के लिये उसको देखना कठिन था। तदनन्तर पानी के भीतर बैठे हुए राजा दुर्योधन ने मेघ की गर्जना के समान भयंकर शब्द सुना। राजेन्द्र! महाराज! आपके पुत्र का वध करने के लिये राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ उस सरोवर के तट पर आ पहुँचे। वे महान शंखनाद तथा रथ के पहियों की घर्घराहट से पृथ्वी को कंपाते और धूल का महान ढेर ऊपर उड़ाते हुए वहाँ आये थे। युधिष्ठिर की सेना का कोलाहल सुन कर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा तीनों महारथी राजा दुर्योधन से इस प्रकार बोले-

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 61-67 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘ये विजय से उल्लासित होने वाले पाण्डव बड़े हर्ष में भरकर इधर ही आ रहे हैं। अतः हम लोग यहाँ से हट जायंगे। इसके लिये तुम हमें आज्ञा प्रदान करो’। प्रभो! उन वेगशाली वीरों की वह बात सुनकर दुर्योधन ने ‘तथास्तु’ कहकर उस सरोवर के जल को पुनः माया द्वारा स्तम्भित कर दिया।

     महाराज! राजा की आज्ञा लेकर अत्यन्त शोक में डूबे हुए कृपाचार्य आदि महारथी वहाँ से दूर चले गये। मान्यवर! दूर के मार्ग पर जाकर उन्हें एक बरगद का वृक्ष दिखायी दिया। वे अत्यन्त थके होने के कारण राजा दुर्योधन के विषय में चिन्ता करते हुए उसी के नीचे बैठ गये। इधर महाबली धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन पानी बांधकर सो गया। इतने ही में युद्ध की अभिलाषा रखने वाले पाण्डव भी वहाँ आ पहुँचे। राजन! उधर कृपाचार्य आदि महारथी रथों से घोड़ों को खोल कर यह सोचने लगे कि ‘अब युद्ध किस तरह होगा? राजा दुर्योधन की क्या दशा होगी और पाण्डव किस प्रकार कुरुराज दुर्योधन का पता पायेंगे’ ऐसी चिन्ता करते हुए वे वहाँ बैठ कर आराम करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्व में तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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