सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 25 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि द्वारा क्षेमधूर्ति का वध, कृतवर्मा का युद्ध और उसकी पराजय और कौरव सेना का पलायन”

     संजय कहते हैं ;- राजन! युद्ध में शोभा पाने वाले शूरवीर शाल्व को मारे जाने पर आपकी सेना के पाँव उखड़ गये। जैसे वेगपूर्वक चली हुई वायु के झोंके से कोई विशाल वृक्ष उखड़ गया हो। अपनी सेना का व्यूह भंग हुआ देखकर महाबलवान महारथी शूरवीर कृतवर्मा ने समरांगण शत्रु की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। राजन! कृतवर्मा को युद्धस्थल में डटा हुआ देख वे भागे हुए शूरमा भी लौट आये। युद्धस्थल में बाणों की वर्षा से आच्छादित होने पर भी वह सात्वतवंशी वीर पर्वत के समान अविचल भाव से खड़ा था। महाराज! तदनन्तर लौटे हुए कौरवों का पाण्डवों के साथ मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्ति की सीमा नियत करके घोर संग्राम होने लगा। वहाँ कृतवर्मा का शत्रुओं के साथ होने वाला युद्ध अत्यन्त आश्चर्यजनक प्रतीत होता था; क्योंकि उसने अकेले ही दुर्जय पाण्डव-सेना की प्रगति रोक दी थी।

     एक दूसरे हित चाहने वाले कौरव सैनिक कृतवर्मा के द्वारा यह दुष्कर पराक्रम किये जाने पर अत्यन्त हर्ष में भर गये। उनका महान सिंहनाद आकाश में गूँज उठा। भरतश्रेष्ठ! उनकी उस गर्जना से पांचाल सैनिक थर्रा उठे। उस समय शिनि पौत्र महाबाहु सात्यकि उन शत्रुओं का सामना करने के लिये आये। उन्होंने आते ही महाबली राजा क्षेमधूर्ति को सात पैने बाणों से मारकर यमलोक पहुँचा दिया।

     राजन! तीखें बाणों की वर्षा करते हुए शिनि-पौत्र महाबाहु सात्यकि को आते देख बुद्धिमान कृतवर्मा बड़े वेग से उनका सामना करने के लिये आ पहुँचा। फिर तो उत्तम अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले, रथियों में श्रेष्ठ, महापराक्रमी, धनुर्धर वीर सात्वतवंशी सात्यकि और कृतवर्मा एक दूसरे पर धावा करने लगे। उन दोनों के घोर संग्राम में पांचालों सहित पाण्डव और दूसरे नृपश्रेष्ठ योद्धा दर्शक होकर तमाशा देखने लगे। वृष्णि और अंधकवंश के वे दोनों वीर महारथी हर्ष में भरकर लड़ते हुए दो हाथियों के समान एक दूसरे पर नाराचों और वत्सदन्तों का प्रहार करने लगे। कृतवर्मा और सात्यकि दोनों नाना प्रकार के पैंतरे दिखाते हुए विचरते थे और बारंबार बाणों की वर्षा करके वे एक दूसरे को अदृश्य कर देते थे। वृष्णिवंश के उन दोनों सिंहों के धनुष के वेग और बल से चलाये हुए शीघ्रगामी बाणों को हम आकाश में छिपाये हुए टिड्डीदलों के समान देखते थे। कृतवर्मा अद्वितीय वीर सत्यपराक्रमी सात्यकि के पास पहुँचकर चार पैने बाणों से उनके चारों घाड़ों को घायल कर दिया। तब महाबाहु सात्यकि ने अंकुशों की चोट खाये हुए गजराज के समान अत्यन्त क्रोध में भरकर आठ उत्तम बाणो द्वारा कृतवर्मा को घायल कर दिया। यह देख कृतवर्मा ने धनुष को पूर्णतः खींचकर छोडे़ गये और शिला पर तेज किये हुए तीन बाणों से सात्यकि को घायल करके एक से उनके धनुष को काट डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)

     उस कटे हुए श्रेष्ट धनुष को फेंककर शिनिप्रवर सात्यकि ने बाणसहित दूसरे धनुष को वेगपूर्वक हाथ में ले लिया। सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ महाबली एवं महापराक्रमी युयुधान ने उस उत्तम धनुष को लेकर शीघ्र ही उस पर बाण चढ़ाया और कृतवर्मा के द्वारा अपने धनुष का काटा जाना सहन न करके उन अतिरथी वीर ने कुपित हो शीघ्रतापूर्वक उस पर आक्रमण किया। तत्पश्चात शिनिप्रवर सात्यकि ने अत्यन्त तीखें दस बाणों के द्वारा कृतवर्मा के ध्वज, सारथि और घोड़ों को नष्ट कर दिया। राजन! महधनुर्धर महारथी कृतवर्मा अपने सुवर्णभूषित रथ को घोडे़ और सारथि से रहित देख महा रोष से भर गया।

       मान्यवर! फिर उसने शिनिप्रवर सात्यकि को मार डालने की इच्छा से एक शूल उठाकर उसे अपनी भुजाओं के सम्पूर्ण वेग-से चला दिया। परंतु सात्यकि ने युद्धस्थल में अपने बाणों द्वारा उस शूल को काटकर चकनाचूर कर दिया और कृतवर्मा को मोह में डालते हुए से उस चूर-चूर हुए शूल को पृथ्वी पर गिरा दिया। इसके बाद उन्होंने कृतवर्मा की छाती में एक भल्ल द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। तब वह युयुधान द्वारा घोड़ों और सारथि से रहित किया हुआ कृतवर्मा रथ छोड़कर युद्धस्थल में पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उस द्वैरथ युद्ध में सात्यकि द्वारा वीर कृतवर्मा के रथहीन हो जाने पर आपके सारे सैनिक के मन में महान भय समा गया। जब कृतवर्मा के घोड़े और सारथि मारे गये तथा वह रथ हीन हो गया, तब आपके पुत्र दुर्योधन के मन में बड़ा खेद हुआ।

      शत्रुदमन नरेश! कृतवर्मा के घोड़ों और सारथि को मारा गया देख कृपाचार्य सात्यकि को मार डालने की इच्छा से वहाँ दौडे़ हुए आये। फिर सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते महाबाहु कृतवर्मा को अपने रथ पर बिठाकर वे उसे तुरन्त ही युद्ध से दूर हटा ले गये। राजन! जब सात्यकि युद्ध के लिये डटे रहे और कृतवर्मा रथहीन होकर भाग गया, तब दुर्योधन की सारी सेना पुनः युद्ध से विमुख हो वहाँ से पलायन करने लगी। परन्तु सेनाद्वारा उड़ायी हुई धूल से आच्छादित होने के कारण शत्रुओं के सैनिक कौरव-सेना के भागने की बात न जान सके।

     राजन! राजा दुर्योधन के सिवा, आपके सभी योद्धा वहाँ से भाग गये। दुर्योधन अपनी सेना को निकट से भागती देख बड़े वेग से शत्रुओं पर टूट पड़ा और उन सबको अकेले ही शीघ्रतापूर्वक रोकने लगा। माननीय नरेश! उस समय क्रोध में भरा हुआ आपका महाबली पुत्र दुर्धर्ष दुर्योधन सावधान हो बिना किसी घबराहट के समस्त पाण्डवों, द्रुपदपुत्र धृष्‍टद्युम्‍न, शिखण्डी, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, पांचालों, केकयों, सोमकों और सृंजयों- पर पैने बाणों की वर्षा करने लगा तथा निर्भय होकर युद्धभूमि में डटा रहा। जैसे यज्ञ में मन्त्रों द्वारा पवित्र हुए महान अग्निदेव प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार संग्राम में राजा दुर्योधन सब ओर से देदीप्यमान हो रहा था। जैसे मरणधर्मा मनुष्य अपनी मृत्यु का उल्लंघन नहीं कर सकते, उसी प्रकार युद्धभूमि में शत्रुसैनिक राजा दुर्योधन का सामना न कर सके। इतने ही में कृतवर्मा दूसरे रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आ पहुँचा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में सात्यकि और कृतवर्मा का युद्धविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का पराक्रम और उभयपक्ष की सेनाओं का घोर संग्राम”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! रथ पर बैठा हुआ रथियों में श्रेष्ठ आपका प्रतापी पुत्र दुर्योधन रुद्रदेव के समान युद्ध में शत्रुओं के लिये दुःसह प्रतीत होने लगा। उसके सहस्रों बाणों से वहाँ की सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी। जैसे मेघ जल की धाराओं से पर्वत को सींचते हैं, उसी प्रकार वह शत्रुओं को अपनी बाणधारा से नहलाने लगा। पाण्डवों के सैन्यसागर में कोई भी ऐसा मनुष्य, घोड़ा, हाथी सवार रथ नहीं था, जो दुर्योधन के बाणों से क्षत-विक्षत न हुआ हो। प्रजानाथ! भरतनन्दन! मैं समरांगण में जिस-जिस योद्धा को देखता था, वही-वही आपके पुत्र के बाणों से व्याप्त हुआ दिखायी देता था। जैसे सैनिकों द्वारा उड़ायी हुई धूल से सारी सेना आच्छादित हो गयी थी, उसी प्रकार वह महामनस्वी दुर्योधन के बाणों से ढकी हुई दिखायी देती थी। पृथ्वीपते! हमने देखा कि शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले धनुर्धर वीर दुर्योधन ने सारी रणभूमि को बाणमयी कर दिया है। आपके या शत्रुपक्ष के सहस्रों योद्धाओं में मुझे एकमात्र दुर्योधन ही वीर पुरुष जान पड़ता था। भारत! हमने वहाँ आपके पुत्र का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि समस्त पाण्डव एक साथ मिलकर भी उस एकाकी वीर का सामना नहीं कर सके। भरतश्रेष्ठ! उसने युद्धस्थल में युधिष्ठिर को सौ, भीमसेन को सत्तर, सहदेव को पांच, नकुल को चौसठ, धृष्टद्युम्न को पांच, द्रौपदी के पुत्रों को सात तथा सात्यकि को तीन बाणों से घायल कर दिया।

      मान्यवर! साथ ही उसने एक भल्ल मारकर सहदेव का धनुष भी काट डाला। प्रतापी माद्रीपुत्र सहदेव ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा विशाल धनुष हाथ में ले राजा दुर्योधन पर धावा किया और युद्धस्थल में दस बाणों से उसे घायल कर दिया। इसके बाद महाधर्नुधर वीर नकुल ने नौ भयंकर बाणों द्वारा राजा दुर्योधन को बींध डाला और उच्चस्वर से गर्जना की। फिर सात्यकि ने भी झुकी हुई गाँठवाले एक बाण से राजा को घायल कर दिया। तदनन्तर द्रौपदी के पुत्रों ने राजा दुर्योधन को तिहत्तर, धर्मराज ने पांच और भीमसेन ने अस्सी बाण मारे। महाराज! वे महामनस्वी वीर सारी सेना के देखते-देखते दुर्योधन पर चारों ओर से बाण-समूहों की वर्षा कर रहे थे तो भी वह विचलित नहीं हुआ। उस महामनस्वी वीर की फुर्ती, अस्त्र संचालन का सुन्दर ढंग तथा पराक्रम- इन सबको सब लोगों ने सम्पूर्ण प्राणियों से बढ़-चढ़कर देखा। राजेन्द्र! आपके योद्धा थोड़ा-सा भी अन्तर न देखकर कवच आदि से सुसज्जित हो राजा दुर्योधन को चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये। जैसे वर्षाकाल में विक्षुब्ध हुए समुद्र की भीषण गर्जना सुनायी देती है, उसी प्रकार उन आक्रमणकारी कौरवों का घोर एवं भयंकर कोलाहल प्रकट होने लगा। वे महाधर्नुधन कौरव योद्धा रणभूमि में अपराजित राजा दुर्योधन के पास पहुँचकर आततायी पाण्डवों पर जा चढे़। महाराज! रणक्षेत्र में कुपित हुए द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने सम्पूर्ण दिशाओं में छोडे़ गये अनेक बाणों द्वारा भीमसेन को आगे बढ़ने से रोक दिया। उस समय संग्राम में न तो वीरों की पहचान होती थी और न दिशाओं की, फिर अवान्तर दिशाओं (कोणों) की तो बात ही क्या है?

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 22-49 का हिन्दी अनुवाद)

      भारत! वे दोनों वीर क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले और शत्रुओं के लिये दुःसह थे। अतः एक दूसरे के प्रहार का भरपूर जवाब देने की इच्छा रखकर वे घोर युद्ध करने लगे। प्रत्यंचा खींचने से उनके हाथों की त्वचा बहुत कठोर हो गयी थी और वे सम्पूर्ण दिशाओं को आतंकित कर रहे थे। दूसरी ओर वीर शकुनि रणभूमि में युधिष्ठिर को पीड़ा देने लगा। प्रभो! सुबल के उस पुत्र ने युधिष्ठिर के चारों घोड़ों को मारकर सम्पूर्ण सेनाओं का क्रोध बढ़ाते हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। इसी बीच में प्रतापी सहदेव युद्ध में किसी से परास्त न होने वाले वीर राजा युधिष्ठिर को अपने रथ पर बिठाकर दूर हटा ले गये। तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने दूसरे रथ पर आरूढ़ हो पुनः धावा किया और शकुनि को पहले नौ बाणों से घायल करके फिर पांच बाणों से बींध डाला। इसके बाद सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। मान्यवर! उसका वह युद्ध विचित्र, भयंकर, सिद्धों और चारणों द्वारा सेवित तथा दर्शकों का हर्ष बढ़ाने वाला था।

      दूसरी ओर अमेय आत्मबल से सम्पन्न उलूक ने महाधनुर्धर रणदुर्भद नकुल पर चारों ओर से बाणों की वर्षा करते हुए धावा किया। इसी प्रकार शूरवीर नकुल ने रणभूमि में शकुनि के पुत्र को बड़ी भारी बाण वर्षा के द्वारा सब ओर से अवरुद्ध कर दिया।। वे दोनों वीर महारथी उत्तम कुल में उत्पन्न हुए थे! अतः समरांगण में एक-दूसरे के प्रहार का प्रतीकार करने की इच्छा रखकर जूझते दिखायी देते थे। राजन! इसी तरह शत्रुसंतापी सात्यकि कृतवर्मा के साथ युद्ध करते हुए युद्धस्थल में उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे इन्द्र बलि के साथ।

      दुर्योधन ने युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न का धनुष काट दिया और धनुष कट जाने पर उन्हें पैने बाणों से बींध डाला। तब धृष्टद्युम्न भी दूसरा उत्तम धनुष लेकर समरभूमि मे सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते राजा दुर्योधन के साथ युद्ध करने लगे। भरतश्रेष्ठ! रणभूमि में उन दोनों का महान युद्ध ऐसा जान पड़ता था, मानों मद की धारा बहाने वाले दो उत्तम मतवाले हाथी आपस में जूझ रहे हों। दूसरी ओर शूरवीर कृपाचार्य ने रणभूमि में कुपित हो महाबली द्रौपदी के पुत्रों को झुकी हुई गाँठवाले बहुत-से बाणों द्वारा घायल कर दिया। जैसे देहधारी जीवात्मा का पाँचों इन्द्रियों के साथ युद्ध हो रहा हो, उसी प्रकार उन पाँचों भाईयों के साथ कृपाचार्य का युद्ध हो रहा था। धीरे-धीरे वह युद्ध अत्यन्त घोर, अनिवार्य और अमर्यादित हो गया। जैसे इन्द्रियाँ मूढ़ मनुष्य को पीड़ा देती हैं, उसी प्रकार वे पाँचों भाई कृपाचार्य को पीड़ित करने लगे। कृपाचार्य भी अत्यन्त रोष में भरकर रणक्षेत्र में उन सबके साथ युद्ध कर रहे थे।। भारत! उनका उन द्रौपदी पुत्रों के साथ ऐसा विचित्र युद्ध होने लगा, जैसे बारंबार उठ-उठकर विषयों की ओर प्रवृत होने वाली इन्द्रियों के साथ देहधारियों का युद्ध होता रहता है।

      प्रजानाथ! उस समय मनुष्य मनुष्यों से, हाथी हाथियों से, घोडे़ घोड़ों से और रथी रथियों से भिड़ गये थे। फिर उनमें अत्यन्त घोर घमासान युद्ध होने लगा। प्रभो! महाराज! यह विचित्र, यह घोर, यह रौद्र युद्ध इस प्रकार बहुत से भीषण युद्ध चलने लगे। राजन! उनके वाहनों से, हवा से और दौड़ते हुए घुड़सवारों से उड़ायी गयी भयंकर धूल सब ओर व्याप्त दिखायी देती थी। रथ के पहियो और हाथियों के उच्छ्वासों से ऊपर उठायी हुई धूल संध्याकाल के मेघों के समान सूर्य के मार्ग में छा गयी थी। उस धूल के सम्पर्क में आकर सूर्य प्रभावहीन हो गये थे तथा पृथ्वी और वे महारथी शूरवीर भी ढक गये थे। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर दो ही घड़ी में वीरों के रक्त से धरती सिंच उठी और सब ओर की धूल बैठ जाने के कारण रणक्षेत्र निर्मल हो गया। वह भयंकर दिखायी देनेवाली तीव्र धूलि सर्वथा शांत हो गयी। भारत! राजेन्द्र! तब मैं फिर उस दारुण मध्याहृकाल में अपने बल और श्रेष्ठता के अनुसार अनेक द्वन्द्वयुद्ध देखने लगा। योद्धाओं के कवचों की प्रभा वहाँ अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थी। जैसे पर्वत पर जलते हुए विशाल बाँसों के वन से प्रकट होने वाला चटचट शब्द सुनायी देता है, उसी प्रकार युद्ध स्थल में बाणों के गिरने का भयंकर शब्द वहाँ गूँज रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्ध विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरवपक्ष के सात सौ रथियों का वध, उभयपक्ष की सेना का मर्यादाशून्य घोर संग्राम तथा शकुनि का कूट युद्ध और उसकी पराजय”

    संजय कहते हैं ;- राजन! जब भयानक घोर युद्ध होने लगा, उस समय पाण्डवों ने आपके पुत्र की सेना के पाँव उखाड़ दिये। उन भागते हुए महारथियों को महान प्रयत्न से रोककर आपका पुत्र पाण्डवों की सेना के साथ युद्ध करने लगा। यह देख आपके पुत्र की विजय चाहने वाले योद्धा सहसा लौट पड़े। इस प्रकार उनके लौटने पर उन सब में अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा। आपके और शत्रुओं के योद्धाओं का वह युद्ध देवासुर संग्राम के समान भयंकर था। उस समय शत्रुओं की अथवा आपकी सेना में भी कोई युद्ध से विमुख नहीं होता था। सब लोग अनुमान से और नाम बताने से शत्रु तथा मित्र की पहचान करके परस्पर युद्ध करते थे। परस्पर जूझते हुए उन वीरों का वहाँ बड़ा भारी विनाश हो रहा था।

     उस समय राजा युधिष्ठिर महान क्रोध से युक्त संग्राम में राजा दुर्योधन सहित आपके पुत्रों को जीतना चाहते थे। उन्होंने शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले तीन बाणों से कृपाचार्य को घायल करके चार नाराचों से कृतवर्मा के घोड़ों को मार डाला। इसके बाद दुर्योधन ने रणभूमि में सात सौ रथियों को वहाँ भेजा, जहाँ धर्मयुद्ध युधिष्ठिर खडे़ थे। रथियों से युक्त और मन तथा वायु के समान वेगशाली वे रथ रणभूमि में कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के रथ की ओर दौडे़। महाराज! जैसे बादल सूर्य को ढक देते हैं, उसी प्रकार उन रथियों ने युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर अपने बाणों द्वारा उन्हें अदृश्य कर दिया। धर्मराज युधिष्ठिर को कौरवों द्वारा वैसी दशा में पहुँचाया गया देख अत्यन्त क्रोध में भरे हुए शिखण्डी आदि रथी सहन न कर सके। वे छोटी-छोटी घंटियों की जाली से ढके और श्रेष्ठ अश्वों से जुते हुए रथों द्वारा कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर की रक्षा के लिये वहाँ आ पहुँचे। तदनन्तर कौरवों और पाण्डवों का अत्यन्त भयंकर संग्राम आरम्भ हो गया, जिसमें पानी की तरह खून बहाया जाता था। वह युद्ध यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला था। उस समय पांचालों सहित पाण्डवों ने आततायी कौरवों के उन सात सौ रथियों को मारकर पुनः अन्य योद्धाओं को आगे बढ़ने से रोका। वहाँ आपके पुत्र का पाण्डवों के साथ बड़ा भारी युद्ध हुआ। वैसा युद्ध मैंने न तो कभी देखा था न मेरे सुनने में ही आया था।

      माननीय नरेश! जब सब ओर से वह मर्यादा शून्य युद्ध होने लगा, आपके और शत्रुपक्ष के योद्धा मारे जाने लगे, युद्ध परायण वीरों की गर्जना और श्रेष्ठ शंखों की ध्वनि होने लगी। धनुर्धरों की ललकार, सिंहनाद और गर्जनाओं के साथ जब वह युद्ध औचित्य की सीमा को पार कर गया, योद्धाओं के मर्मस्थल विदीर्ण किये जाने लगे, विजयाभिलाषी योद्धा इधर-उधर दौड़ने लगे, रणभूमि में सब ओर शोकजनक संहार होने लगा बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के सीमन्त सिन्दूर मिटाने जाने लगे तथा सारी मर्यादाओं को तोड़कर अत्यन्त भयंकर महायुद्ध चलने लगा, उस समय विनाश की सूचना देनेवाले अति दारुण उत्पात प्रकट होने लगे। राजन! पर्वत और वनोंसहित पृथ्वी भयानक शब्द करती हुई डोलने लगी और आकाश से दण्ड तथा जलते हुए काष्ठों सहित बहुत-सी उल्काएँ सूर्यमण्डल से टकरा कर सम्पूर्ण दिशाओं में बिखरी पड़ती थीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 23-46 का हिन्दी अनुवाद)

      चारों ओर नीचे बालू और कंकड़ बरसाने वाली हवाएँ चलने लगी। हाथी आँसू बहाने और थरथर काँपने लगे। इन घोर एवं दारुण उत्पातों की अवहेलना करके क्षत्रिय वीर मन में व्यथा से रहित हो पुनः युद्ध के लिये तैयार हो गये और स्वर्ग में जाने की अभिलाषा ले रमणीय एवं पुण्यमय कुरुक्षेत्र में उत्साहपूर्वक डटे गये। राजन! जब दोनों पक्ष की सेनाओं के मध्य मर्यादा शून्य घोर संग्राम हो रहा था। उस समय गान्धारराजा के पुत्र शकुनि ने कौरव योद्धाओं से कहा,

      शकुनि ने कहा ;- वीरों! तुम लोग सामने से युद्ध करो और मैं पीछे से पाण्डवों का संहार करता हूँ। इस सलाह के अनुसार जब हम लोग चले तो मद्रदेश के वेगशाली योद्धा तथा अन्य सैनिक हर्ष से उल्लसित हो किलकारियाँ भरने लगे। इतने ही में दुर्धर्ष पाण्डव पुन: हमारे पास आ पहुँचे और हमें अपने लक्ष्य के रूप में पाकर धनुष हिलाते हुए हम लोगों पर बाणों की वर्षा करने लगे। थोड़ी ही देर में शत्रुओं ने वहाँ मद्रराज की सेना का संहार कर डाला। यह देख दुर्योधन की सेना पुन: पीठ दिखाकर भागने लगी।

     तब बलवान गान्धारराज शकुनि ने पुनः इस प्रकार कहा,

    शकुनि ने कहा ;- अपने धर्म को न जानने वाले पापियो! इस तरह तुम्हारे भागने से क्या होगा? लौटो और युद्ध करो। भरतश्रेष्ठ! उस समय गान्धारराज शकुनि के पास विशाल प्रास लेकर युद्ध करने वाले घुड़सवारों की दस हजार सेना मौजूद थी। उसी को साथ लेकर वह उस जन-संहारकारी युद्ध में पाण्डव-सेना के पिछले भाग की ओर गया और वे सब मिलकर पैने बाणों से उस सेना पर चोट करने लगे। महाराज! जैसे वायु के वेग से मेघों का दल सब ओर से छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार इस आक्रमण से पाण्डवों की विशाल सेना का व्यूह भंग हो गया। तब युधिष्ठिर ने पास ही अपनी सेना में भगदड़ मची देख शांतभाव से महाबली सहदेव को पुकारा। और कहा-पाण्डनन्दन! कवच धारण करके आया हुआ वह सुबलपुत्र शकुनि हमारी सेना के पिछले भाग को पीड़ा देकर सारे सैनिकों का संहार कर रहा है; इस दुर्बुद्धि को देखो तो सही। निष्पाप वीर! तुम द्रौपदी के पुत्रों को साथ लेकर जाओ और सुबलपुत्र शकुनि को मार डालो। मैं पांचाल योद्धाओं के साथ यहीं रहकर शत्रु की रथसेना को भस्म कर डालूँगा। तुम्हारे साथ सभी हाथीसवार, घुड़सवार और तीन हजार पैदल सैनिक भी जाय तथा उन सबसे घिरे रहकर तुम शकुनि का नाश करो।

     तदनन्तर धर्मराज की आज्ञा के अनुसार हाथ में धनुष लिये बैठे हुए सवारों से युक्त सात सौ हाथी, पांच हजार घुड़सवार, पराक्रमी सहदेव, तीन हजार पैदल योद्धा और द्रौपदी के सभी पुत्र- इन सबने रणभूमि में युद्ध-दुर्भद शकुनि पर धावा किया। राजन! उधर विजयाभिलाषी प्रतापी सुबलपुत्र शकुनि पाण्डवों का उल्लंघन करके पीछे की ओर से उनकी सेना का संहार कर रहा था। वेगशाली पाण्डवों के घुड़सवारों ने अत्यन्त कुपित होकर उन कौरव रथियों का उल्लंघन करके सुबलपुत्र की सेना में प्रवेश किया। वे शूरवीर घूड़सवार वहाँ जाकर रणभूमि के मध्यभाग में खडे़ हो गये और शकुनि की उस विशाल सेना पर बाणों की वर्षा करने लगे।

      राजन! फिर तो आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप वह महान युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरों से नहीं, वीर पुरुषों से सेवित था। उस सयम सभी योद्धाओं के हाथों में गदा अथवा प्रास उठे रहते थे। धनुष की प्रत्यंचा के शब्द बंद हो गये। रथी योद्धा दर्शक बनकर तमाशा देखने लगे। उस समय अपने या शत्रुपक्ष के योद्धाओं में पराक्रम की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। भरतश्रेष्ठ! शूरवीरों की भुजाओं से छूटी हुई शक्तियाँ शत्रुओं पर इस प्रकार गिरती थीं, मानों आकाश से तारे टूटकर पड़ रहे हों। कौरव-पाण्डव योद्धा ने इसे प्रत्यक्ष देखा था। प्रजानाथ! वहाँ गिरती हुई निर्मल ऋष्टियों से व्याप्त हुए आकाश की बड़ी शोभा हो रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद)

       भरतकुलभूषण नरेश! उस समय सब ओर गिरते हुए प्रासों का स्वरूप आकाश में छाये हुए टिड्डीदलों के समान जान पड़ता था। सैकड़ों और हजारों घोड़ें अपने घायल सवारों के साथ सारे अंगों में लहू-लुहान होकर धरती पर गिर रहे थे। बहुत-से सैनिक परस्पर टकराकर एक दूसरे से पिस जाते और क्षत-विक्षत हो मुखों से रक्त वमन करते हुए दिखायी देते थे। शत्रुदमन नरेश! तत्पश्चात जब सेना द्वारा उठी हुई धूल से सब ओर घोर अन्धकार छा गया, उस समय हमने देखा कि बहुत-से योद्धा वहाँ से भागे जा रहे हैं।

     राजन! धूल से सारा रणक्षेत्र भर जाने के कारण अँधेरे-में बहुत-से घोड़ों और मनुष्यों को भी हमने भागते देखा था। कितने ही योद्धा पृथ्वी पर गिरकर मुँह से बहुत-सा रक्त वमन कर रहे थे। बहुत-से मनुष्य परस्पर केश पकड़कर इतने सट गये थे कि कोई चेष्टा नहीं कर पाते थे। कितने ही महाबली योद्धा एक दूसरे को घोड़ों की पीठों से खींच रहे थे। बहुत-से सैनिक पहलवानों की भाँति परस्पर भिड़कर एक दूसरे पर चोट करते थे। कितने ही प्राणशून्य होकर अश्वों द्वारा इधर-उधर घसीटे जा रहे थे। बहुतेरे विजयाभिलाषी तथा अपने को शूरवीर मानने वाले हजारों रक्तरंजित शरीरों से रणभूमि आच्छादित दिखायी देती थी। सवारों सहित घोड़ों की लाशों से पटे हुए भूतल पर किसी के लिये भी घोड़े द्वारा दूर तक जाना असम्भव हो गया था। योद्धाओं के कवच रक्त से भीग गये थे। वे सब हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये धनुष उठाये नाना प्रकार के भयंकर आयुधों द्वारा एक दूसरे के वध की इच्छा रखते थे। उस संग्राम में सभी योद्धा अत्यन्त निकट होकर युद्ध करते थे और उनमें से अधिकांश सैनिक मार डाले गये थे।

      प्रजानाथ! शकुनि वहाँ दो घड़ी युद्ध करके शेष बचे हुए छः हजार घुड़सवारों के साथ भाग निकला। इसी प्रकार खून से नहायी हुई पाण्डव सेना भी शेष छःहजार घुड़सवारों के साथ युद्ध से निवृत हो गयी। उसके सारे वाहन थक गये थे। उस समय उस निकटवर्ती महायुद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर जूझने वाले पाण्डव सेना के रक्तरंजित घुड़सवार इस प्रकार बोले- यहाँ रथों द्वारा भी युद्ध नहीं किया जा सकता। फिर बड़े-बड़े़ हाथियों की तो बात ही क्या है? रथ रथों का सामना करने के लिये जाय हाथी हाथियों का। शकुनि भागकर अपनी सेना में चला गया। अब फिर राजा शकुनि युद्ध में नहीं आयेगा।

       उनकी यह बात सुनकर द्रौपदी के पाँचों पुत्र और वे मतवाले हाथी वहीं चल गये, जहाँ पांचाल राजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न थे। कुरुनन्दन! वहाँ धूल का बादल-सा घिर आया था। उस समय सहदेव भी अकेले ही, जहाँ राजा युधिष्ठिर थे, वहीं चले गये। उन सबके चले जाने पर सुबलपुत्र शकुनि पुनः कुपित हो पाश्र्वभाग से आकर धृष्टद्युम्न की सेना का संहार करने लगा। फिर तो परस्पर वध की इच्छा वाले आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में प्राणों का मोह छोड़कर भयंकर युद्ध होने लगा। राजन! शूरवीरों के उस संघर्ष में सब ओर से सैकड़ों हजारों योद्धा टूट पड़े और वे एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उस लोकसंहारकारी संग्राम में तलवारों से काटे जाते हुए मस्तक जब पृथ्वी पर गिरते थे, तब उनसे ताड़ के फलों के गिरने की-सी धमाके की आवाज होती थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 69-92 का हिन्दी अनुवाद)

      प्रजानाथ! छिन्न-भिन्न होकर धरती पर गिरने वाले कवचशून्य शरीरों, आयुधों सहित भुजाओं और जाँघों का अत्यन्त भयंकर एवं रोमांचकारी कट-कट शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे पक्षी मांस के लिये एक-दूसरे पर झपटते हैं, उसी प्रकार वहाँ योद्धा अपने तीखे शस्त्रों द्वारा भाईयों, मित्रों और पुत्रों का भी संहार करते हुए एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे। दोनों पक्षों के योद्धा एक दूसरे से भिड़कर परस्पर अत्यन्त कुपित हो पहले में, पहले में ऐसा कहते हुए सहस्रों सैनिकों का वध करने लगे। शत्रुओं के आघात से प्राणशून्य होकर आसन से भ्रष्ट हुए अश्वारोहियों के साथ सैकड़ों और हजारों घोड़े धराशायी होने लगे। प्रजापालक नरेश! आपकी खोटी सलाह के अनुसार बहुत-से शीघ्रगामी अश्व गिरकर छटपटा रहे थे। कितने ही पिस गये थे और बहुत से कवचधारी मनुष्य गर्जना करते हुए शत्रुओं के मर्म विदीर्ण कर रहे थे। उन सबके शक्ति, ऋष्टि और प्रासों का भयंकर शब्द वहाँ गूजँने लगा था।

      आपके सैनिक परिश्रम से थक गये थे, क्रोध में भरे हुए थे, उनके वाहन भी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और वे सब-के-सब प्यास से पीड़ित थे। उनके सारे अंग तीक्ष्ण शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो गये थे। वहाँ बहते हुए रक्त की गन्ध से मतवाले हो बहुत-से सैनिक विवेक-शक्ति खो बैठे थे और बारी-बारी अपने पास आये हुए शत्रुपक्ष के तथा अपने पक्ष के सैनिकों का भी वध कर डालते थे। राजन! बहुत से विजयभिलाषी क्षत्रिय बाणों की वर्षा से आच्छादित हो प्राणों का परित्याग करके पृथ्वी पर पड़े। भेडि़यो, गींधों और सियारों का आनंद बढ़ाने वाले उस भयंकर दिन में आपके पुत्र की आँखों के सामने कौरव सेना का घोर संहार हुआ। प्रजानाथ! वह रणभूमि मनुष्यों और घोड़ों की लाशों से पट गयी थी तथा पानी की तरह बहाये जाते हुए रक्त विचित्र शोभा धारण करके कायरों का भय बढ़ा रही थी। भारत! खड्गों पट्टिशों और शूलों से एक दूसरे को बारंबार घायल करते हुए आपके और पाण्डवों के योद्धा युद्ध से पीछे नहीं हटते थे। जब तक प्राण रहते, तब तक यथा शक्ति प्रहार करते हुए योद्धा अन्ततोगत्वा अपने घावों से रक्त बहाते हुए धराशायी हो जाते थे। वहाँ कोई-कोई कबन्ध (धड़) ऐसा दिखायी दिया, जो एक हाथ में शत्रु के कटे हुए मस्तक को केशसहित पकडे़ हुए और दूसरे हाथ में खून से रँगी हुई तीखी तलवार उठाये खड़ा था। नरेश्वर! फिर उस तरह के बहुत-से स्कन्ध उठे दिखायी देने लगे तथा रूधिर की गन्ध से प्रायः सभी योद्धाओं पर मोह छा गया था।

     तत्पश्चात जब उस युद्ध का कोलाहल कुछ कम हुआ, तब सुबलपुत्र शकुनि थोडे़-से बचे हुए घुड़सवारों के साथ पुनः पाण्डवों की विशाल सेना पर टूट पड़ा। तब विजयाभिलाषी पाण्डवों ने भी तुरन्त उस पर धावा कर दिया। पाण्डव युद्ध से पार होना चाहते थे; अतः उनके पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार सभी हथियार उठाये आगे बढे़ तथा शकुनि को सब ओर से घेरकर उसे कोष्ठबद्ध करके नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा घायल करने लगे पाण्डव सैनिकों को सब ओर से आक्रमण करते देख आपके रथी, घुड़सवार, पैदल और हाथीसवार भी पाण्डवों पर टूट पड़े। कुछ शूरवीर पैदल योद्धा समरांगण में पैदलों के साथ भिड़ गये और अस्त्र-शस्त्रों के क्षीण हो जाने पर एक दूसरे को मुक्कों से मारने लगे। इस प्रकार लड़ते-लड़ते वे पृथ्वी पर गिर पड़े। जैसे सिद्ध पुरुष पुण्यक्षय होने पर स्वर्गलोक के विमानों से नीचे गिर जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ रथी रथों से और हाथी सवार हाथियों से पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार उस महायुद्ध में दूसरे-दूसरे योद्धा परस्पर विजय के लिये प्रयत्नशील हो पिता, भाई, मित्र और पुत्रों का भी वध करने लगे। भरतश्रेष्ठ! प्रास, खड्ग और बाणों से व्याप्त हुए उस अत्यन्त भयंकर रणक्षेत्र में इस प्रकार मर्यादा शून्य युद्ध हो रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्धविषयक तेईसवा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण के सम्मुख अर्जुन द्वारा दुर्योधन के दुराग्रह की निंदा और रथियों की सेना का संहार”

     संजय कहते हैं ;- राजन! जब पाण्डव-योद्धाओं ने अधिकांश सेना का संहार का डाला और युद्ध का कोलाहल कम हो गया, तब सुबलपुत्र शकुनि शेष बचे हुए सात सौ घुड़सवारों के साथ कौरव सेना के समीप चला गया। वह तुरन्त कौरव सेना में पहुँचकर सब को युद्ध के लिये शीघ्रता करने की प्रेरणा देता हुआ बोला,

    शकुनि बोला ;- शत्रुओं का दमन करने वाले वीरों! तुम हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध करो! ऐसा कहकर उसने वहाँ बारम्बार क्षत्रियों से पूछा-महाबली राजा दुर्योधन कहाँ है? भरतश्रेष्ठ! शकुनि की वह बात सुनकर उन क्षत्रियों ने उसे यह उत्तर दिया-प्रभो! महाबली कुरुराज रणक्षेत्र के मध्यभाग में वहाँ खडे़ हैं, जहाँ यह पूर्ण चन्द्रमा के समान कांतिमान विशाल छत्र तना हुआ है तथा जहाँ वे शरीर-रक्षक आवरणों एवं कवचों से सुसज्ज्ति रथ खड़े हैं। राजन! जहाँ यह मेघों की गम्भीर गर्जना के समान भयानक शब्द गूँज रहा है, वहीं शीघ्रतापूर्वक चले जाइये, वहाँ आप कुरुराज का दर्शन कर सकेंगे। नरेश्वर! तब उन योद्धाओं के ऐसा कहने पर सुबलपुत्र शकुनि वहीं गया, जहाँ आपका पुत्र दुर्योधन समरांगण में विचित्र युद्ध करने वाले वीरों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ खड़ा था।

     प्रजानाथ! तदनन्तर दुर्योधन को रथसेना में खड़ा देख आपके सम्पूर्ण रथियों का हर्ष बढ़ाता हुआ शकुनि अपने को कृतार्थ-सा मानकर बड़े हर्ष के साथ राजा दुर्योधन से इस प्रकार बोला,

      शकुनि ने कहा ;- राजन! शत्रु की रथसेना का नाश कीजिये। समस्त घुड़सवारों को मैंने जीत लिया है। राजा युधिष्ठिर अपने प्राणों का परित्याग किये बिना जीते नहीं जा सकते। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के द्वारा सुरक्षित इस रथ-सेना का संहार हो जाने पर हम इन हाथीसवारों, पैदलों और घुड़सवारों का भी वध कर डालेंगे। विजयाभिलाषी शकुनि की यह बात सुनकर आपके सैनिक अत्यन्त प्रसन्न हो बड़े वेग से पाण्डव-सेना पर टूट पड़े। सबके तरकसों के मुँह खुल गये, सब ने हाथ में धनुष ले लिये और सभी धनुष हिलाते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। प्रजानाथ! तदनन्तर फिर प्रत्यंचा की टंकार और अच्छी तरह छोडे़ हुए बाणों की भयानक सनसनाहट प्रकट होने लगी।

      उन सबको बड़े वेग से धनुष उठाये पास आया देखकर कुन्तीकुमार अर्जुन ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,

      अर्जुन ने कहा ;- जनार्दन! आप स्वस्थचित्त होकर इन घोड़ों को हाँकिये और इस सैन्यसागर में प्रेवश कीजिये। आज में तीखें बाणों से शत्रुओं का अन्त कर डालूँगा। परस्पर भिड़कर इस महान संग्राम के आरम्भ हुए आज अठारह दिन हो गये। इन महामनस्वी कौरवों के पास अपार सेना थी; परन्तु युद्ध में इस समय तक प्रायः नष्ट हो गयी। देखिये, प्रारब्ध का कैसा खेल है? माधव! अच्युत! दुर्योधन की समुद्र जैसी अनन्त सेना हम लोगों से टक्कर लेकर आज गाय की खुरी के समान हो गयी है। माधव! यदि भीष्म के मारे जाने पर दुर्योधन संधि कर लेता तो यहाँ सबका कल्याण होता; परन्तु उस अज्ञानी मूर्ख ने वैसा नहीं किया। मधुकुलभूषण! भीष्म जी ने जो सच्ची और हितकर बात बतायी थी, उसे भी उस बुद्धिहीन दुर्योधन ने नहीं माना। तदनन्तर घमासान युद्ध प्रारम्भ हुआ और उसमें भीष्म जी पृथ्वी पर मार गिराये गये। फिर भी न जोन क्या कारण था, जिससे युद्ध चालू ही रह गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 23-50 का हिन्दी अनुवाद)

     मैं धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को सर्वथा मूर्ख और नादान समझता हूँ, जिन्होंने शान्तनुनन्दन भीष्म जी के धराशायी होने पर भी पुनः युद्ध जारी रखा। तत्पश्चात वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, राधापुत्र कर्ण और विकर्ण मारे गये तो भी मार-काट बंद नहीं हुई।। पुत्रसहित नरश्रेष्ठ सूतपुत्र के मार गिराये जाने पर जब कौरव सेना थोड़ी-सी ही बच रही थी तो भी यह युद्ध की आग नहीं बुझी। श्रुतायु, वीर जलसन्ध पौरव तथा राजा श्रुतायुध के मारे जाने पर भी यह संहार बंद नहीं हुआ। जर्नादन! भूरिश्रवा, शल्य, शाल्व तथा अवन्ति देश के वीर मारे गये तो भी यह युद्ध की ज्वाला शांत न हो सकी। जयद्रथ, बाह्लीक, सोमदत्त तथा राक्षस अलायुध - ये सभी परलोक वासी हो गये तो भी यह युद्ध की प्यास न बुझ सकी। भगदत्त, शूरवीर काम्बोजराज सुदक्षिण तथा अत्यन्त दारुण दुःशासन के मारे जाने पर भी कौरवों की युद्ध पिपासा शांत नहीं हुई।

      श्रीकृष्ण! विभिन्न मण्डलों के स्वामी शूरवीर बलवान नरेशों को रणभूमि में मारा गया देखकर भी यह युद्ध की आग बुझ न सकी। भीमसेन के द्वारा धराशायी किये गये अक्षौहिणी पतियों को देखकर भी मोहवश अथवा लोभ के कारण युद्ध बन्द न हो सका। राजा के कुल में उत्पन्न होकर विशेषत; कुरूकुल की संतान होकर दुर्योधन के सिवा दूसरा कौन ऐसा था, जो व्यर्थ ही (अपने बन्धुओं के साथ) महान वैर बाँधे। दूसरों को गुण से, बल से अथवा शौर्य से भी अपनी अपेक्षा महान जानकर भी अपने हित और अहित को समझने वाला मूढ़ताशून्य कौन ऐसा बुद्धिमान पुरुष होगा? जो उनके साथ युद्ध करेगा। आपके द्वारा हितकारक वचन कहे जाने पर भी जिसका पाण्डवों के साथ संधि करने का मन नहीं हुआ, वह दूसरे की बात कैसे सुन सकता है? जिसने संधि के विषय में वीर शान्तनुनन्दन भीष्म, द्रोणाचार्य और विदुर जी की भी बात मानने से इन्कार कर दी, उसके लिये अब कौन-सी दवा है? जर्नादन! जिसने मूर्खतावश अपने वृद्ध पिता की भी बात नहीं मानी और हित की बात बताने वाली अपने हितैषीणी माता का भी अपमान करके उनकी आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया, उसे दूसरे किसी की बात क्यों रूचेगी? जर्नादन! निश्चय ही यह अपने कुल का विनाश करने वाला पैदा हुआ है। प्रजानाथ! इसकी नीति और चेष्टा ऐसी ही दिखायी देती है। अच्युत! मैं समझता हूँ, यह अब भी हमें अपना राज्य नहीं देगा।

      तात! महात्मा विदुर ने मुझसे अनेक बार कहा है कि मानद! दुर्योधन जीते-जी राज्य का भाग नहीं लौटायेगा। दुर्बुद्धि दुर्योधन के प्राण जब तक शरीर में स्थित रहेंगे, तब तक तुम निष्पाप बन्धुओं पर भी वह पापपूर्ण बर्ताव ही करता रहेगा। माधव! युद्ध के सिवा और किसी उपाय से दुर्योधन को जीतना सम्भव नहीं है। यह बात सत्यदर्शी विदुर जी सदा से मुझे कहते आ रहे हैं। महात्मा विदुर ने जो बात कही है, उसके अनुसार में उस दुरात्मा के सम्पूर्ण निश्चय को आज जानता हूँ। जिस दुर्बुद्धि ने यमदग्निनन्दन परशुराम जी के मुख से यथार्थ एवं हितकारक वचन सुनकर भी उसकी अवहेलना कर दी, वह निश्चय ही विनाश के मुख में स्थित है। दुर्योधन के जन्म लेते ही सिद्ध पुरुषों ने बारंबार कहा था कि इस दुरात्मा को पाकर क्षत्रिय जाति का विनाश हो जायगा। जनार्दन! उसकी यह बात यथार्थ हो गयी; क्योंकि दुर्योधन के कारण बहुत-से राजा नष्ट हो गये। माधव! आज में रणभूमि में शत्रुपक्ष के समस्त योद्धाओं को मार गिराऊँगा। इस क्षत्रियों का शीघ्र ही संहार हो जाने पर जब सारा शिविर सूना हो जायगा, तब वह अपने वध के लिये हम लोगों के साथ जूझना पंसद करेगा। माधव! मेरे अनुमान से उसका वध होने पर ही इस वैर का अन्त होगा। वृष्णिनन्दन! मैं अपनी बुद्धि से, विदुर जी के वाक्य से और दुरात्मा दुर्योधन की चेष्टा भी सोच-विचारकर ऐसा ही होता देखता हूँ। अतः वीर! महाबाहो! आप कौरव-सेना की ओर चलिये, जिससे मैं पैने बाणों द्वारा युद्धस्थल में दुर्योधन और उनकी सेना का संहार करूँ। माधव! आज में दुर्योधन के देखते-देखते इस दुर्बल सेना का नाश करके धर्मराज का कल्याण करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 51-66 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय कहते हैं ;- राजन! सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर घोड़ों की बागडोर हाथ में लिये दशार्ह कुलनन्दन श्रीकृष्ण ने निर्भय हो शत्रुओं के उस सैन्य-सागर में बलपूर्वक प्रवेश किया। वह सेना एक वन के समान थी। वह वन कुन्त, खग और बाणों से अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था, शक्तिरूपी काँटो से भरा हुआ था, गदा और परिघ उसमें जाने के मार्ग थे, रथ और हाथी उसमें रहने वाले बडे़-बड़े वृक्ष थे, घोडे़ और पैदलरूपी लताओं से यह व्याप्त हो रहा था, महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ऊँची पताका वाले रथ के द्वारा उस सैन्य वन में प्रवेश करके सब ओर विचरने लगे। राजन! श्रीकृष्ण के द्वारा हाँके गये वे सफेद घोडे़ युद्ध स्थल में अर्जुन को ढ़ोते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में दिखायी पड़ते थे। फिर तो जैसे बादल पानी की धारा बरसाता है, उसी प्रकार शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन युद्धस्थल में सैकड़ों पैने बाणों की वर्षा करते हुए रथ के द्वारा आगे बढे़। उस समय झुकी हुई गाँठ वाले बाणों का महान शब्द प्रकट होने लगा।

     सव्यसाची अर्जुन द्वारा समरभूमि में बाणों से आच्छादित होने वाले सैनिकों के कवचों पर उनके बाण अटकते नहीं थे। वे चोट करके पृथ्वी पर गिर जाते थे। प्रजानाथ! इन्द्र के वज्र की भाँति कठोर स्पर्श वाले बाण गाण्डीव से प्रेरित हो मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों का भी संहार करके शब्द करने वाले टिड्डी दलों के समान रणभूमि में गिर पड़ते थे गाण्डीव धनुष से छुटे हुए बाणों द्वारा उस रणभूमि की सारी वस्तुएँ आच्छादित हो गयी थीं। दिशाओं अथवा विदिशाओं का भी ज्ञान नहीं हो पाता था। अर्जुन के नाम से अंकित, तेल के धोये और कारीगर के साफ किये सुवर्णमय पंखवाले बाणों द्वारा वहाँ का सारा जगत व्याप्त हो रहा था।

     दावानल के आगे से जलने वाले हाथियों के समान पार्थ के पैने, बाणों की मार खाकर दग्ध होते हुए वे घोर कौरव-योद्धा अर्जुन को छोड़कर हटते नहीं थे। जैसे जलती हुई आग घास-फूस के ढेर को जला देती है, उसी प्रकार सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला धनुष-बाणधारी अर्जुन ने समरांगण में आपके योद्धाओं को दग्ध कर दिया। जैसे वनचरों द्वारा वन के भीतर लगायी हुई आग धीरे-धीरे बढ़कर प्रज्वलित एवं महान ताप से युक्त हो घास-फूस के ढेर को, बहुसंख्यक वृक्षों को और सुखी हुई लतावल्लरियों को भी जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार नाराच समूहों द्वारा ताप देने वाले, बाणरूपी ज्वालाओं से युक्त, वेगवान, प्रचण्ड तेजस्वी और अमर्ष में भरे हुए अर्जुन ने समरांगण में आपके पुत्र की सारी रथ सेना को शीघ्रतापर्वूक भस्म कर डाला। उनके अच्छी तरह छोडे़ हुए सुवर्णमय पंखवाले प्राणान्तकारी बाण कवचों पर नहीं अटकते थे। उन्हें छेदकर भीतर घुस जाते थे। वे मनुष्य, घोडे़ अथवा विशालकाय हाथी पर दूसरा बाण नहीं छोड़ते थे (एक ही बाण से उसका काम तमाम कर देते थे)। जैसे वज्रधारी इन्द्र दैत्यों का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार एकमात्र अर्जुन ने ही रथियों की विशाल सेना में प्रवेश करके अनेक रूप-रंगवाले बाणों द्वारा आपके पुत्र की सेना का विनाश कर दिया

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्धविषयक चैबिसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और भीमसेन द्वारा कौरवों की रथसेना एवं गजसेना का संहार, अश्वत्थामा आदि के द्वारा दुर्योधन की खोज, कौरव सेना का पलायन और सात्यकि द्वारा संजय का पकड़ा जाना”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! यद्यपि कौरव योद्धा युद्ध से पीछे न हटने वाले शूरवीर थे और विजय के लिये पूरा प्रयत्न कर रहे थे तो भी उनके देखते-देखते अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से उनके संकल्प को व्यर्थ कर दिया। जैसे बादल पानी की धारा गिराता है, उसी प्रकार वे बाणों की वर्षा करते दिखायी देते थे। उन बाणों का स्पर्श इन्द्र के वज्र की भाँति कठोर था। वे बाण असह्य एवं महान शक्तिशाली थे। भरतश्रेष्ठ! किरीटधारी अर्जुन की मार खाकर वह बची हुई सेना आपके पुत्र के देखते-देखते रणभूमि से भाग चली। कुछ लोग अपने पिता और भाईयों को छोड़कर भागे तो दूसरे लोग मित्रों को। कितने ही रथों के घोडे़ मारे गये थे और कितनों के सारथि। प्रजानाथ! किन्हीं के रथों के जूए, धुरे, पहिये और हरसे भी टूट गये थे, दूसरे योद्धाओं के बाण नष्ट हो गये और अन्य योद्धा अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो गये। कुछ लोग घायल न होने पर भी भय से पीड़ित हो एक साथ ही भागने लगे और कुछ लोग अधिकांश बन्धु-बान्धवों के मारे जाने पर पुत्रों को साथ लेकर भागे। नरव्याघ्र! कोई पिता को पुकारते थे, कोई सहायकों को।

      प्रजानाथ! कुछ लोग अपने भाई बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों को जहाँ-के-तहाँ छोड़कर भाग गये। बहुत से महारथी पार्थ के बाणों से अत्यन्त घायल हो मूर्च्छित हो रहे थे। अर्जुन के बाणों से आहत हो कितने ही मनुष्य रणभूमि में ही पड़े-पड़े उच्छ्वास लेते दिखायी देते थे। उन्हें दूसरे लोग अपने रथ पर बिठाकर घड़ी-दो-घड़ी आश्वासन दे स्वयं भी विश्राम करके प्यास बुझाकर पुनः युद्ध के लिये जाते थे। रणभूमि में उन्मत्त होकर लड़ने वाले कितने ही युद्धाभिलाषी उन घायलों को वैसे ही छोड़कर आपके पुत्र की आज्ञा का पालन करते हुए पुनः युद्ध के लिये चल देते थे। भरतश्रेष्ठ! दूसरे लोग स्वयं पानी पीकर घोड़ों की भी थकावट दूर करते। उसके बाद कवच धारण करके लड़ने के लिये जाते थे। अन्य बहुत से सैनिक अपने घायल बन्धुओं, पुत्रों और पिताओं को आश्वासन दे उन्हें शिविर में रख आते। उसके बाद युद्ध में मन लगाते थे। प्रजानाथ! कुछ लोग अपने रथ को रणसामग्री से सुसज्जित करके पाण्डव-सेना पर चढ़ आते और अपनी प्रधानता के अनुसार किसी श्रेष्ठ वीर के साथ जूझना पंसद करते थे। वे शूरवीर कौरव-सैनिक रथ में लगे हुए किंकिणीसमूह से आच्छादित हो तीनों लोकों पर विजय पाने के लिये उद्यत हुए दैत्यों और दानवों के समान सुशोभित होते थे।

     कुछ लोग अपने सुवर्णभूषित रथों के द्वारा सहसा आकर पाण्डव सेनाओं में धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध करने लगे। पांचालराजपुत्र धृष्टद्युम्न, महारथी शिखण्डी और नकुलपुत्र शतानीक-ये आपकी रथसेना के साथ युद्ध कर रहे थे। तदनन्तर आपके सैनिकों का वध करने के लिये उद्यत हो विशाल सेना से घिरे हुए धृष्टद्युम्न ने अत्यन्त क्रोधपूर्वक आक्रमण किया। नरेश्वर! भरतनन्दन! उस समय आपके पुत्र ने आक्रमण करने वाले धृष्टद्युम्न पर बहुत-से बाणसमूहों का प्रहार किया। राजन! आपके धनुर्धर पुत्र ने बहुत-से नाराच, अर्धनाराच, शीघ्रकारी वत्सदन्त और कारीगर द्वारा साफ किये हुए बाणों से धृष्टद्युम्न के चारों घोड़ों को मारकर उसकी दोनों भुजाओं और छाती में भी चोट पहुँचायी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद)

      दुर्योधन के प्रहार से अत्यन्त घायल हुए महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न अंकुश से पीड़ित हुए हाथी के समान कुपित हो उठे और उन्होंने अपने बाणों द्वारा उसके चारों घोड़ों को मौत के हवाले कर दिया तथा एक भल्ल से उसके सारथि का भी सर धड़ से काट दिया। इस प्रकार रथ के नष्ट हो जाने पर शत्रुदमन राजा दुर्योधन एक घोड़े की पीठ पर सवार हो वहाँ से कुछ दूर हट गया।

      महाराज! अपनी सेना का पराक्रम नष्ट हुआ देख आपका महाबली पुत्र दुर्योधन वहीं चला गया, जहाँ सुबलपुत्र शकुनि खड़ा था। रथसेना के भंग हो जाने पर तीन हजार विशालकाय गजराजों ने समस्त पाण्डव रथियों को चारों ओर से घेर लिया। भरतनन्दन! महाराज! समरांगण में गजसेना से घिरे हुए पाँचों पाण्डव मेघों से आवृत हुए पांच ग्रहों के समान शोभा पाते थे। राजेन्द्र! तब भगवान श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन महाबाहु अर्जुन अपने बाणों का लक्ष्य पाकर रथ के द्वारा आगे बढ़े। उन्हें चारों ओर से पर्वताकार हाथियों ने घेर रखा था। वे तीखी धारवाले निर्मल नाराचों द्वारा उस गजसेना के साथ युद्ध करने लगे। वहाँ हमने देखा कि सव्यसाची अर्जुन के एक ही बाण की चोट खाकर बड़े-बड़े़ हाथियों के शरीर विदीर्ण होकर गिर गये हैं और लगातार गिराये जा रहे हैं।

       मतवाले हाथी के समान पराक्रमी बलवान भीमसेन उन गजराजों को आते देख तुरन्त ही रथ से कूदकर हाथ में विशाल गदा लिये दण्डधारी यमराज के समान उन पर टूट पड़े। पाण्डव महारथी भीमसेन को गदा उठाये देख आपके सैनिक भय से थर्रा उठे और मल-मूत्र करने लगे। भीमसेन के गदा हाथ में लेते ही सारी कौरव सेना उद्विग्न हो उठी। हमने देखा, भीमसेन की गदा से उन धूलिधूसर पर्वताकार हाथियों के कुम्भस्थल फट गये हैं और वे इधर-उधर भाग रहे हैं। भीमसेन की गदा से घायल हो वे हाथी भाग चले और आर्तनाद करके पंख कटे हुए पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े। कुम्भस्थल फट जाने के कारण इधर-उधर भागते और गिरते हुए बहुत-से हाथियों को देखकर आपके सैनिक संत्रस्त हो उठे।

      युधिष्ठिर तथा माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव भी अत्यन्त कुपित हो गीध की पाँखों से युक्त पैने बाणों द्वारा उन हाथियों को यमलोक भेजने लगे। उधर धृष्टद्युम्न ने समरांगण में राजा दुर्योधन को पराजित कर दिया था। महाराज! जब आपका पुत्र घोड़े की पीठ पर सवार हो वहाँ से भाग गया, तब समस्त पाण्डवों को हाथियों से घिरा हुआ देखकर धृष्टद्युम्न ने सहसा उस गजसेना पर धावा किया। पांचाल राज के पुत्र धृष्टद्युम्न उन हाथियों को मार डालने के लिये वहाँ से चल दिये।

     इधर रथसेना में शत्रुदमन दुर्योधन को न देखकर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा ने समस्त क्षत्रियों से पूछा-राजा दुर्योधन कहाँ चले गये? वर्तमान जलसंहार में राजा को न देखकर वे महारथी आप के पुत्र को मारा गया मान बैठे और मुँह उदास करके सब से आपके पुत्र का पता पूछने लगे। कुछ लोगों ने कहा- सारथि के मारे जाने पर पांचालराज की उस दुःसह सेना को त्यागकर राजा दुर्योधन वहीं रह गये हैं, जहाँ शकुनि हैं। दूसरे अत्यन्त घायल हुए क्षत्रिय वहाँ इस प्रकार कहने लगे-अरे! दुर्योधन से यहाँ क्या काम है? यदि वे जीवित होंगे तो तुम सब लोग उन्हें देख ही लोगे। इस समय तो सब लोग एक साथ होकर केवल युद्ध करो। राजा तुम्हारी क्या (सहायता) करेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 45-63 का हिन्दी अनुवाद)

      वहाँ जो क्षत्रिय युद्ध कर रहे थे, उनके अधिकांश वाहन नष्ट हो गये थे। शरीर क्षत-विक्षत हो रहे थे। वे बाणों से पीड़ित होकर कुछ अस्पष्ट वाणी में बोले-हम लोग जिससे घिरे हैं, इस सारी सेना को मार डालें। ये सारे पाण्डव गज सेना का संहार करके हमारे समीप चले आ रहे हैं, उनकी बात सुनकर महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा- ये सभी दृढ़ धनुर्धर शूरवीर पांचाल राज की उस दुःसह सेना का व्यूह तोड़कर, रथसेना का परित्याग करके जहाँ शकुनि था वहीं जा पहुँचे।

      उस सब के आगे बढ़ जाने पर धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव आपकी सेना का संहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे। हर्ष और उत्साह में भरे हुए उन महारथियों को आक्रमण करते देख आपके पराक्रमी वीर उस समय जीवन से निराश हो गये। आपकी सेना के अधिकांश योद्धाओं का मुख उदास हो गया। उन सब के आयुध नष्ट हो गये थे और वे चारों ओर से घिर गये थे। राजन! उन सबकी वैसी अवस्था देख मैं जीवन का मोह छोड़कर अन्य चार महारथियों को साथ ले हाथी और घोड़े दो अंगोवाली सेना से मिलकर धृष्टद्युम्न की सेना के साथ युद्ध करने लगा। मैं उसी स्थान में स्थित होकर युद्ध कर रहा था, जहाँ कृपाचार्य मौजूद थे; परन्तु किरीटधारी अर्जुन के बाणों से पीड़ित होकर हम पाँचों वहाँ से भागकर महाभयंकर धृष्टद्युम्न के पास जा पहुँचे।

     वहाँ उनके साथ हम लोगों का बड़ा भारी युद्ध हुआ। उन्होंने हम सबको परास्त कर दिया। तब हम वहाँ से भी भाग निकले। इतने ही में मैंने महारथी सात्यकि को अपने पास आते देखा। वीर सात्यकि ने युद्धस्थल में चार सौ रथियों के साथ मुझ पर धावा किया। थके हुए वाहनों वाले धृष्टद्युम्न से किसी प्रकार छूटा तो मैं सात्यकि की सेना में आ फँसा; जैसे कोई पापी नरक में गिर गया हो। वहाँ दो घड़ी तक बड़ा भयंकर एवं घोर युद्ध हुआ। महाबाहु सात्यकि ने मेंरी सारी युद्ध साम्रगी नष्ट कर दी और जब मैं मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, तब मुझे जीवित ही पकड़ लिया।

     तदनन्तर दो ही घड़ी में भीमसेन ने गदा से और अर्जुन ने नाराचों से उस गजसेना का संहार कर डाला। चारों ओर पर्वताकार विशालकाय हाथी पड़े थे, जो भीमसेन और अर्जुन के आघातों से पिस गये थे। उनके कारण पाण्डवों का आगे बढ़ना अत्यन्त दुष्कर हो गया था। महाराज! तब महाबली भीमसेन ने बड़े-बड़े़ हाथियों को खींचकर हटाया और पाण्डवों के लिये रथ जाने का मार्ग बनाया। इधर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा ये रथसेना में आपके महारथी पुत्र शत्रुदमन राजा दुर्योधन को न देखकर उसकी खोज करने लगे। वे धृष्टद्युम्न का सामना करना छोड़कर जहाँ शकुनि था, वहाँ चले गये। वर्तमान नरसंहार में राजा दुर्योधन को न देखने के कारण वे उद्विग्न हो उठे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में दुर्योधन का पलायन विषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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