सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डव सैनिकों और कौरव सैनिकों का द्वन्द्वयुद्ध, भीमसेन द्वारा दुर्योधन की तथा युधिष्ठिर द्वारा शल्य की पराजय”
संजय कहते हैं ;- प्रभो! तदनन्तर आपके सभी सैनिक रणभूमि में मद्रराज को आगे करके पुनः बड़े वेग से पाण्डवों पर टूट पड़े। युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले आपके सभी योद्धा यद्यपि पीड़ित हो रहे थे, तथापि संख्या में अधिक होने के कारण उन सबने धावा बोलकर क्षणभर में पाण्डव योद्धाओं को मथ डाला। समरांगण में कौरवों की मार खाकर पाण्डव योद्धा श्रीकृष्ण और अर्जुन के देखते-देखते भीमसेन के रोकने पर भी वहाँ ठहर न सके। तदनन्तर दूसरी ओर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने सेवकों सहित कृपाचार्य और कृतवर्मा को अपने बाणसमूहों से ढक दिया। सहदेव ने सेना सहित शकुनि को बाणों से आच्छादित कर दिया। नकुल पास ही खडे़ होकर मद्रराज शल्य की ओर देख रहे थे। द्रौपदी के पुत्रों ने बहुत-से राजाओं को आगे बढ़ने से रोक रखा था। पांचाल राजकुमार शिखण्डी ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को रोक दिया।
भीमसेन ने हाथ में गदा लेकर राजा दुर्योधन को रोका और सेना सहित कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने शल्य को। तत्पश्चात संग्राम में मैंने राजा शल्य का बहुत बड़ा पराक्रम यह देखा कि वे अकेले ही पाण्डवों की सम्पूर्ण सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। उस समय शल्य युधिष्ठिर के समीप रणभूमि में ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो चन्द्रमा के समीप शनैश्वर नामक ग्रह हो। वे विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा राजा युधिष्ठिर को पीड़ित करके पुनः भीमसेन की ओर दौडे़ और उन्हें अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करने लगे। उनकी वह फुर्ती और अस्त्रविद्या का ज्ञान देखकर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। शल्य के द्वारा पीड़ित एवं अत्यन्त घायल हुए पाण्डव सैनिक युधिष्ठिर के पुकारने पर भी युद्ध छोड़कर भाग चले।। अब मद्रराज के द्वारा इस प्रकार पाण्डव-सैनिक का संहार होने लगा, तब पाण्डव पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर अमर्ष के वशीभूत हो गये।
तदनन्तर उन्होंने अपने पुरुषार्थ का आश्रय ले मद्रराज पर प्रहार आरम्भ किया। महारथी युधिष्ठिर ने यह निश्चय कर लिया कि आज या तो मेरी विजय होगी अथवा मेरा वध हो जायेगा। उन्होंने अपने समस्त भाईयो तथा श्रीकृष्ण और सात्यकि को बुलाकर इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- बन्धुओं! भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा अन्य जो-जो राजा दुर्योधन के लिये पराक्रम दिखाये थे, वे सब-के-सब संग्राम में मारे गये। तुम लोगों ने पुरुषार्थ करके उत्साहपूर्वक अपने-अपने हिस्से का कार्य पूरा कर लिया। अब एकमात्र महारथी शल्य शेष रह गये हैं, जो मेरे हिस्से में पड़ गये हैं। अतः आज मैं इन मद्रराज शल्य को युद्ध में जीतने की आशा करता हूँ। इसके सम्बन्ध में मेरे मन में जो संकल्प है, वह सब तुम लोगों से बता रहा हूँ, सुनो।
जो समरांगण में इन्द्र के लिये भी अजेय तथा शूरवीरों द्वारा सम्मानित हैं, वे दोनों माद्रीकुमार वीर नकुल और सहदेव मेरे रथ के पहियों की रक्षा करें। क्षत्रिय-धर्म को सामने रखते हुए ये सम्मान पाने के योग सत्यप्रतिज्ञ नकुल और सहदेव मेरे लिये समरांगण में अपने मामा के साथ अच्छी तरह युद्ध करें। फिर या तो शल्य रणभूमि में मुझे मार डालें या मैं उनका वध कर डालूँ। आप लोगों का कल्याण हो। विश्वविख्यात वीरों! तुम लोग मेरा यह सत्य वचन सुन लो। राजाओं! मैं क्षत्रिय धर्म के अनुसार अपने हिस्से का कार्य पूर्ण करने का संकल्प लेकर अपनी विजय अथवा वध के लिये मामा शल्य के साथ आज युद्ध करूँगा। अतः रथ जोतने वाले लोग शीघ्र ही मेरे रथ पर शास्त्रीय विधि के अनुसार अधिक-से-अधिक शस्त्र तथा अन्य सब आवश्यक सामग्री सजाकर रख दे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)
(नकुल-सहदेव अतिरिक्त) सात्यकि मेरे दाहिने चक्र की रक्षा करें और धृष्टद्युम्न बायें चक्र की। आज कुन्ती कुमार अर्जुन मेरे पृष्ठभाग की रक्षा में तत्पर रहें और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीमसेन मेरे आगे-आगे चलें। ऐसी व्यवस्था होने पर मैं इस महायुद्ध में शल्य से अधिक शक्तिशाली हो जाऊँगा। उसके ऐसा कहने पर राजा का प्रिय करने की इच्छा वाले भाईयों ने उस समय वैसा ही किया।
तदनन्तर उस युद्धस्थल में पुनः पाण्डव सैनिक विशेषतः पांचालों, सोमकों और मत्स्य देशीय योद्धाओं के मन में महान हर्षोल्लास छा गया। राजा युधिष्ठिर ने उस समय पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके मद्रराज शल्य पर चढ़ाई की। फिर तो पांचाल योद्धा शंख, भेरी आदि सैकड़ों प्रकार के प्रचुर रणवाद्य बजाने और सिंहनाद करने लगे। उन कुरुकुल के श्रेष्ठ वीरों ने रोष में भरकर महान हर्षनाद के साथ वेगशाली वीर मद्रराज शल्य पर धावा किया। वे हाथियों के घण्टों की आवाज, शंखों की ध्वनि तथा वाद्यों के महान घोष से पृथ्वी को गुँजा रहे थे। उस समय आपके पुत्र दुर्योधन तथा पराक्रमी मद्रराज शल्य ने उन सबको आगे बढ़ने से रोका। ठीक, उसी तरह, जैसे अस्ताचल और उदयाचल दोनों बहुसंख्यक महामेघों को रोक देते हैं। इसी प्रकार महामना कुरुराज युधिष्ठिर ने भी सुन्दर धनुष हाथ में लेकर द्रोणाचार्य के दिये हुए नाना प्रकार के उपदेशों का प्रदर्शन करते हुए शीघ्रतापूर्वक सुन्दर एवं विचित्र रीति के बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। रण में विचरते हुए युधिष्ठिर की कोई भी त्रुटि किसी ने नहीं देखी। मांस के लोभ से पराक्रम प्रकट करने वाले दो सिंहों के समान वे दोनों वीर युद्धस्थल में नाना प्रकार के बाणों द्वारा एक दूसरे को घायल करने लगे।
राजन! भीमसेन तो आपके युद्धकुशल पुत्र दुर्योधन के साथ भिड़ गये और धृष्टद्युम्न, सात्यकि तथा पाण्डुपुत्र माद्री कुमार नकुल-सहदेव सब ओर से शकुनि आदि वीरों का सामना करने लगे। नरेश्वर! फिर विजय की अभिलाषा रखने वाले आपके शत्रुपक्ष के योद्धाओं में उस समय घोर संग्राम छिड़ गया, जो आपकी कुमन्त्रणा का परिणाम था। दुर्योधन ने घोषण करके झुकी हुई गाँठ वाले बाण से संग्राम भीमसेन के स्वर्णभूषित ध्वज को काट डाला। वह देखने में मनोहर और सुन्दर ध्वज भीमसेन के देखते- देखते छोटी-छोटी घंटियों के महान समूह के साथ युद्धस्थल में गिर पड़ा। तत्पश्चात राजा दुर्योधन ने तीखी धारवाले क्षुरप्र से भीमसेन के विचित्र धनुष को भी, जो हाथी की सूँड़ के समान था, काट डाला। धनुष कट जाने पर तेजस्वी भीमसेन पराक्रमपूर्वक आपके पुत्र की छाती में रथशक्ति का प्रहार किया। उसकी चोट खाकर दुर्योधन रथ के पिछले भाग में मूर्च्छित होकर बैठ गया। उसके मूर्च्छित हो जाने पर भीमसेन फिर क्षुरप्र के द्वारा उसके सारथि का ही सिर धड़ से अलग कर दिया। भरतवंशी नरेश! सारथि के मारे जाने पर उसके घोडे़ रथ लिये चारों दिशाओं मे दौड़ लगाने लगे। उस समय आपकी सेना में हाहाकार मच गया। तब महारथी द्रोणपुत्र दुर्योधन की रक्षा के लिये दौड़ा। कृपाचार्य और कृतवर्मा भी आपके पुत्र को बचाने के लिये आ पहुँचे। इस प्रकार जब सारी सेना में हलचल मच गयी, तब दुर्योधन के पीछे चलने वाले सैनिक भय से थर्रा उठे। उस समय गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने धनुष को खींचकर छोडे़ हुए बाणों द्वारा उन सबको मार डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर अमर्ष में भरकर दाँतों के समान श्वेत वर्णवाले और मन के तुल्य वेगशाली घोड़ों को स्वयं ही हाँकते हुए मद्रराज शल्य पर धावा किया। वहाँ हमने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर में एक आश्चर्य की बात देखी। वे पहले से जितेन्द्रिय और कोमल स्वभाव के होकर भी उस समय कठोर हो गये। क्रोध से काँपते तथा आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए कुन्तीकुमार ने अपने पैने बाणों द्वारा सैकड़ों और हजारों शत्रुसैनिकों का संहार कर डाला। राजन! जैसे इन्द्र ने उत्तम वज्रों के प्रहार से पर्वतों को धराशायी कर दिया था, उसी प्रकार वे ज्येष्ठ पाण्डव जिस-जिस सेना की ओर अग्रसर हुए, उसी-उसी को अपने बाणों द्वारा मार गिराया। जैसे प्रबल वायु मेघों को छिन्न-भिन्न करती हुई उनके साथ खेलती है, उसी प्रकार बलवान युधिष्ठिर अकेले ही घोडे़, सारथि, ध्वज और रथों सहित बहुत से रथियों को धराशायी करते हुए उनके साथ खेल-सा करने लगे। जैसे क्रोध में भरे हुए रुद्रदेव पशुओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिर ने इस संग्राम में कुपित हो घुड़सवारों, घोड़ों और पैदलों के सहस्रों टुकडे़ कर डाले। उन्होंने अपने बाणों की वर्षा द्वारा चारों ओर से युद्धस्थल को सूना करके मद्रराज पर धावा किया और कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- शल्य! खडे़ रहो, खडे़ रहो। भयंकर कर्म करने वाले युधिष्ठिर का युद्ध में वह पराक्रम देखकर आपके सारे सैनिक थर्रा उठे।
परन्तु शल्य ने इन पर आक्रमण कर दिया। फिर वे दोनों वीर अत्यन्त कुपित हो शंख बजाकर एक दूसरे को ललकारते और फटकारते हुए परस्पर भिड़ गये। शल्य ने बाणों की वर्षा करके पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को पीड़ित कर दिया तथा कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भी बाणों की वर्षा द्वारा मद्रराज शल्य को आच्छादित कर दिया। राजन! उस समय शूरवीर मद्रराज और युधिष्ठिर दोनों कंकपत्र युक्त बाणों से व्याप्त हो खून बहाते दिखायी देते थे। जैसे वसन्त ऋतु में फूले हुए दो पलाश के वृक्ष शोभा पाते हों, वैसे ही उन दोनों की शोभा हो रही थी। प्राणों की बाजी लगाकर युद्ध का जूआ खेलते हुए उन मदमत्त महामनस्वी एवं दीप्तिमान वीरों को देखकर सारी सेनाएँ यह निश्चय नहीं कर पाती थीं कि इन दोनों में किसकी विजय होगी। भरतनन्दन! आज कुन्तीकुमार युधिष्ठिर मद्रराज को मारकर इस भूतल का राज्य भोगेंगे अथवा शल्य ही पाण्डुकुमार युधिष्ठिर को मारकर दुर्योधन को भूमण्डल का राज्य सौंप देंगे। इस बात का निश्चय वहाँ योद्धाओं को नहीं हो पाता था। युद्ध करते समय युधिष्ठिर के लिये सब कुछ प्रदक्षिण (अनुकूल) हो रहा था तदनन्तर शल्य ने युधिष्ठिर पर सौ बाणों का प्रहार किया तथा तीखी धार वाले बाण से उनके धनुष को भी काट दिया। तब युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष लेकर शल्य को तीन सौ बाणों से घायल कर दिया और एक क्षुर के द्वारा उनके धनुष के भी दो टुकडे़ कर दिये। इसके बाद झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से उनके चारों घोड़ों को मार डाला। फिर तो अत्यन्त तीखें बाणों से दोनों पार्श्व रक्षकों को यमलोक भेज दिया। तदनन्तर एक चमकते हुए पानीदार पैने भल्ल के सामने खडे़ हुए शल्य के ध्वज को भी काट गिराया।
शत्रुदमन नरेश! फिर तो दुर्योधन की वह सेना वहाँ से भाग खड़ी हुई। उस समय मद्रराज शल्य की ऐसी अवस्था हुई देख अश्वत्थामा दौड़ा और उन्हें अपने रथ पर बिठाकर तुरन्त वहाँ से भाग गया। युधिष्ठिर दो घड़ी तक उनका पीछा करके सिंह के समान दहाड़ते रहे। तत्पश्चात मद्रराज शल्य मुस्कराकर दूसरे रथ पर जा बैठे। उनका वह उज्ज्वल रथ विधिपूर्वक सजाया गया था। उससे महान मेघ के समान गम्भीर ध्वनि होती थी। उसमें यंत्र आदि आवश्यक उपकरण सजाकर रख दिये गये थे और वह रथ शत्रुाओं के रोंगटे खडे़ कर देने वाला था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में शल्य और युधिष्ठिर का युद्धविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन द्वारा शल्य के घोड़े और सारथि का तथा युधिष्ठिर द्वारा राजा शल्य और उनके भाई का वध एवं कृतवर्मा की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर बलवान मद्रराज शल्य दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष हाथ में लेकर युधिष्ठिर को घायल करके सिंह की तरह गर्जने लगे। तत्पश्चात अमेय आत्मबल से सम्पन्न क्षत्रिय शिरोमणि शल्य वर्षा करने वाले मेघ के समान क्षत्रियवीरों पर बाणों की वृष्टि करने लगे। उन्होंने सात्यकि को दस, भीमसेन को तीन तथा सहदेव को भी तीन बाणों से घायल करके युधिष्ठिर को भी पीड़ित कर दिया। जैसे शिकारी जलते हुए काष्ठों से हाथियों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार वे दूसरे-दूसरे महाधनुर्धर वीरों को भी घोड़े, रथ और कूबरोंसहित अपने बाणों द्वारा पीड़ित करने लगे। रथियों में श्रेष्ठ शल्य ने हाथियों और हाथीसवारों, घोड़ों और घुड़सवारों तथा रथों और रथियों को एक साथ ही नष्ट कर दिया। उन्होंने आयुधों सहित भुजाओं और ध्वजों को वेगपूर्वक काट डाला और पृथ्वी पर उसी प्रकार योद्धाओं की लाशें बिछा दीं, जैसे वेदी पर कुश बिछाये जाते हैं।
इस प्रकार मृत्यु और यमराज के समान शत्रुसेना का संहार करने वाले राजा शल्य को अत्यन्त क्रोध में भरे हुए पाण्डव, पांचाल तथा सोमक योद्धाओं ने चारों ओर से घेर लिया। भीमसेन, शिनिपौत्र सात्यकि और माद्री के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव-ये भयंकर बलशाली राजा युधिष्ठिर के साथ भिडे़ हुए सामर्थ्यशाली वीर शल्य को परस्पर युद्ध के लिये ललकारने लगे। नरेन्द्र! तत्पश्चात वे शौर्यशाली नरवीर योद्धाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर शल्य को रोककर समरभूमि में भयंकर वेगशाली बाणों द्वारा घायल करने लगे। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन, नकुल-सहदेव तथा सात्यकि से सुरक्षित हो मद्रराज शल्य की छाती में उग्र वेगशाली बाणों द्वारा प्रहार किया। तब रणभूमि में मद्रराज को बाणों से पीड़ित देख आपके श्रेष्ठ रथी योद्धा दुर्योधन की आज्ञा से सुसज्जित हो उन्हें घेरकर युधिष्ठिर के आगे खडे़ हो गये। इनके बाद मद्रराज ने संग्राम में तुरन्त ही सात बाणों से युधिष्ठिर को बींध डाला।
राजन! उस तुमुल युद्ध में महात्मा युधिष्ठिर ने भी नौ बाणों से शल्य को घायल कर दिया। मद्रराज शल्य और युधिष्ठिर दोनों महारथी कान तक खींचकर छोड़े गये और तेल में धोये हुए बाणों द्वारा उस समय युद्ध में एक-दूसरे को आच्छादित करने लगे। वे दोनों महारथी समरभूमि में एक दूसरे पर प्रहार करने का अवसर देख रहे थे। दोनों ही शत्रुओं के लिये अजेय, महाबलवान तथा राजाओं में श्रेष्ठ थे। अतः बड़ी उतावली के साथ बाणों द्वारा एक-दूसरे को गहरी चोट पहुँचाने लगे। परस्पर बाणों की वर्षा करते हुए महामना मद्रराज तथा पाण्डववीर युधिष्ठिर के धनुष की प्रत्यंचा का महान शब्द इन्द्र के वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था। उन दोनों का घमण्ड बढ़ा हुआ था। वे दोनों मांस के लोभ के महान वन में जूझते हुए व्याघ्र के दो बच्चों के समान तथा दाँतों वाले दो बड़े-बड़े़ गजराजों की भाँति युद्धस्थल में परस्पर आघात करने लगे। तत्पश्चात महामना मद्रराज शल्य ने सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी बाण के अत्यन्त वेगवान भयंकर बलशाली वीर युधिष्ठिर की छाती में चोट पहुँचायी। राजन! उससे अत्यन्त घायल होने पर भी कुरुकुल शिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर ने अच्छी तरह चलाये हुए बाण के द्वारा मद्रराज शल्य को आहत (एवं मूर्च्छित) कर दिया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
तब इन्द्र के समान प्रभावशाली राजा शल्य ने दो ही घड़ी में होश में आकर क्रोध से लाल आँखें करके बड़ी उतावली के साथ युधिष्ठिर को सौ बाण मारे। इसके बाद धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर ने कुपित हो शीघ्रतापूर्वक नौ बाण मारकर राजा शल्य की छाती और उनके सुवर्णमय कवच को विदीर्ण कर दिया। फिर छः बाण और मारे। तदनन्तर मद्रराज ने अपने उत्तम धनुष को खींचकर बहुत-से बाण छोडे़। उन्होंने दो बाणों से कुरुकुल शिरोमणि राजा युधिष्ठिर के धनुष को काट दिया। तब महात्मा राजा युधिष्ठिर ने समरांगण में दूसरे नये और अत्यन्त भयंकर धनुष को हाथ में लेकर तीखी धार वाले बाणों से शल्य को उसी प्रकार सब ओर से घायल कर दिया, जैसे देवराज इन्द्र ने नमुचि को। तब महामनस्वी शल्य ने नौ बाणों से भीमसेन तथा राजा युधिष्ठिर के सोने के सुदृढ़ कवचों को काटकर उन दोनों की भुजाओं को विदीर्ण कर डाला। इसके बाद अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी क्षुर के द्वारा उन्होंने राजा युधिष्ठिर के धनुष को मथित कर दिया। फिर कृपाचार्य ने छः बाणों से उन्हीं के सारथि को मार डाला।
सारथि उनके सामने ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात मद्रराज ने चार बाणों से युधिष्ठिर के चारों घोड़ों का भी संहार कर डाला। घोड़ों को मारकर महामनस्वी शल्य ने धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के योद्धाओं का विनाश आरम्भ कर दिया। जो अद्भुत एंव दुःसह कार्य दूसरे किसी से नहीं हो सकता, वही एकमात्र शल्य ने राजा युधिष्ठिर के प्रति कर दिखाया। इससे मृदंगचिहिृत ध्वज वाले युधिष्ठिर विषादग्रस्त हो इस प्रकार चिन्ता करने लगे- क्या आज दैवबल से इन्द्र के छोटे भाई भगवान श्रीकृष्ण की बात झुठी हो जायगी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आज युद्ध में शल्य को मार डालिये उन जगदीश्वर का कथन व्यर्थ तो नहीं होना चाहिये।
जब मद्रराज शल्य ने राजा युधिष्ठिर की ऐसी दशा कर दी, तब महामनस्वी भीमसेन ने एक वेगवान बाण द्वारा उनके धनुष को काट दिया और दो बाणों से उन नरेश को भी अत्यन्त घायल कर दिया। तत्पश्चात अधिक क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने दूसरे बाण से शल्य के सारथि का मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया और उनके चारों घोड़ों को भी शीघ्र ही मार डाला। इसके बाद सम्पूर्ण धनुर्धरों में अग्रगण्य भीमसेन तथा माद्रीकुमार सहदेव ने समरांगण में बड़े वेग से एकाकी विचरने वाले शल्य पर सैकड़ों बाणों की वर्षा की।
राजन! उन बाणों से शल्य को मोहित हुआ देख भीमसेन ने उनके कवच को भी काट डाला। भीमसेन के द्वारा अपना कवच कट जाने पर भयंकर बलशाली महामनस्वी मद्रराज शल्य सहस्र तारों के चिह्न से सुशोभित ढाल और तलवार लेकर उस रथ से कूद पड़े और कुन्तीपुत्र की ओर दौडे़। उन्होंने नकुल के रथ का हरसा काटकर युधिष्ठिर पर धावा किया। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उछलकर आने वाले राजा शल्य को धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र, शिखण्डी तथा सात्यकि ने सहसा चारों ओर से घेर लिया। महामना भीम ने नौ बाणों से उनकी अनुपम ढाल के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। फिर आपकी सेना के बीच में बड़े हर्ष के साथ गर्जना करते हुए उन्होंने अनेक भल्लों द्वारा उनकी तलवार मुट्ठी भी काट डाली। भीमसेन का एक अद्भुत कर्म देखकर पाण्डव दल के श्रेष्ठ रथी बड़े प्रसन्न हुए और वे हँसते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल शंख बजाने लगे। उस भयानक शब्द के संतप्त हो अजेय कौरव सेना विषाद ग्रस्त एवं अचेत-सी हो गयी। वह खून से लथपथ हो अज्ञात दिशाओं की ओर भागने लगी। भीम जिनके अगुआ थे, उन पाण्डव पक्ष के प्रमुख वीरों द्वारा बाणों से आच्छादित किये गये मद्रराज शल्य सहसा बड़े वेग से युधिष्ठिर की ओर दौडे़, मानों कोई सिंह किसी मृग को पकड़ने के लिये झपटा हो। धर्मराज युधिष्ठिर के घोडे़ और सारथि मारे गये थे, इसलिये वे क्रोध से उदीप्त हो प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने शत्रु मद्रराज शल्य को देखकर उन पर बलपूर्वक आक्रमण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय श्रीकृष्ण के वचन को स्मरण करके उन्होंने शीघ्र ही शल्य को मार डालने का निश्चय किया। धर्मराज के घोडे़ और सारथि तो मारे ही जा चुके थे केवल रथ शेष था, अतः उसी पर खडे़ होकर उन्होंने शल्य पर शक्ति के ही प्रयोग का विचार किया। महात्मा युधिष्ठिर ने महामना शल्य के पूवोक्त कर्म को देख सुनकर और उन्हें अपना ही भाग अवशिष्ट जानकर, जैसा श्रीकृष्ण ने कहा था उसके अनुसार शल्य के वध का संकल्प किया। धर्मराज ने मणि और सुवर्णमय दण्ड से युक्त तथा सोने के समान प्रकाशित होने वाली शक्ति हाथ में ली और मन-ही-मन कुपित हो सहसा रोष से जलती हुई आँखें फाड़कर मद्रराज शल्य की ओर देखा। नरदेव! पापरहित, पवित्र अन्तःकरण वाले, राजा युधिष्ठिर के रोषपूर्वक देखने पर भी मद्रराज शल्य जलकर भस्म नहीं हो गये, यह मुझे अद्भुत बात जान पड़ती है। तदनन्तर कौरव-शिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर ने सुन्दर एवं भयंकर दण्डवाली तथा उत्तम मणियों से जटित होने के कारण प्रज्वलित दिखायी देनेवाली उस देदीप्मान शक्ति को मद्रराज शल्य के ऊपर बड़े वेग से चलाया। बलपूर्वक फेंकी जाने से प्रज्वलित हुई तथा आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई उस शक्ति को, वहाँ आये हुए समस्त कौरवों ने प्रलयकाल में आकाश से गिरने वाली बड़ी भारी उल्का के समान सहसा शल्य पर गिरती देखा।
वह शक्ति पाश हाथ में लिये हुए कालरात्रि के समान उग्र, यमराज की धाय के समान भयंकर तथा ब्रह्मदण्ड के समान अमोघ थी। धर्मराज ने बड़े यत्न और सावधानी के साथ युद्ध में उसका प्रयोग किया था। पाण्डवों गन्ध (चन्दन), माला, उत्तम आसन, पेय-पदार्थ और भोजन आदि अर्पण करके सदा प्रयत्नपूर्वक उसकी पूजा की थी। वह प्रलयकालिक संवर्तक नामक अग्नि के समान प्रज्वलित होती और अर्थर्वांगिरस मन्त्रों से प्रकट की गयी कृत्या के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थी। त्वष्टा प्रजापति (विश्वकर्मा) ने भगवान शंकर के लिये उस शक्ति का निर्माण किया था। वह शत्रुओं के प्राण और शरीर को अपना ग्रास बना लेने वाली थी तथा जल, थल एवं आकाश आदि में रहने वाले प्राणियों को भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ थी। उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ और पताकाएँ लगी थीं, मणि और हीरे जडे़ गये थे, वैदूर्यमणि के द्वारा उसे चित्रित किया गया था। विश्वकर्मा ने नियमपूर्वक रहकर बड़े प्रयत्न से उसको बनाया था। वह ब्रह्मद्रोहियों का विनाश करने वाली तथा लक्ष्य वेधने में अचूक थी। बल और प्रयत्न के द्वारा उसका वेग बहुत बढ़ गया था,
युधिष्ठिर ने उस समय मद्रराज का वध करने के लिये उसे घोर मंत्रों से अभिमंत्रित करके उत्तम मार्ग के द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़ा था। जैसे रुद्र ने अन्धकासुर पर प्राणन्तकारी बाण छोड़ा था, उसी प्रकार क्रोध से नृत्य-सा करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने सुन्दर हाथवाली अपने सुदृढ़ बाँह फैलाकर वह शक्ति शल्य पर चला दी और गरजते हुए कहा- ओ पापी! तू मारा गया। पूर्वकाल में त्रिपुरों का विनाश करते समय भगवान महेश्वर का जैसा स्वरूप प्रकट हुआ था, वैसा ही शल्य के संहारकाल में उस समय धर्मात्मा युधिष्ठिर का रूप जान पड़ता था। वे अपने किरण समूहों से प्रभा का पुंज बिखेर रहे थे।। युधिष्ठिर ने उस उत्तम शक्ति को अपना सारा बल लगाकर चलाया था। इसके सिवा, उसके बल और प्रभाव को रोकना किसी के लिये असम्भव था तो भी उसकी चोट सहने के लिये मद्रराज शल्य गरज उठे, मानो हवन की हुई धृतधारा को ग्रहण करने के लिये अग्निदेव प्रज्वलित हो उठे हों। परन्तु वह शक्ति राजा शल्य के मर्मस्थानों को विदीर्ण करके उनके उज्ज्वल एवं विशाल वक्षःस्थल को चीरती तथा विस्तृत यश को दग्ध करती हुई जल की भाँति धरती में समा गयी। उसकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं नहीं होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 51-68 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे कार्तिकेय की शक्ति से आहत हुआ महापर्वत क्रौंच गेरूमिश्रित झरनों के जल से भीग गया था, उसी प्रकार नाक, आँख, कान और मुख से निकले तथा घावों से बहते हुए खून से शल्य का सारा शरीर नहा गया।
कुरूनन्दन! भीमसेन ने जिन के कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला था, वे इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान विशालकाय राजा शल्य दोनों बाहें फैलाकर वज्र के मारे हुए पर्वत-शिखर की भाँति रथ से पृथ्वी पर गिर पड़े। मद्रराज शल्य धर्मराज युधिष्ठिर के सामने ही अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर ऊँचे इन्द्रध्वज के समान धराशायी हो गये। उनके सारे अंग विदीर्ण हो गये थे तथा वे खून से नहा उठे थे। जैसे प्रियतमा कामिनी अपने वक्षःस्थल पर गिरने की इच्छा वाले प्रियतम का प्रेमपूर्वक स्वागत करती है, उसी प्रकार पृथ्वी ने अपने ऊपर गिरते हुए नरश्रेष्ठ शल्य को मानों प्रेमपूर्वक आगे बढ़कर अपनाया था। प्रियतमा कान्ता की भाँति इस वसुधा का चिरकाल तक उपभोग करने के पश्चात राजा शल्य मानों अपने सम्पूर्ण अंगों से उसका आलिंगन करके सो गये थे। उस धर्मानुकूल युद्ध में धर्मात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर के द्वारा मारे गये राजा शल्य यज्ञ में विधिपूर्वक घी की आहुति पाकर शांत होने वाली स्विष्ट कृत अग्नि के समान सर्वथा शांत हो गये। शक्ति ने राजा शल्य के वक्षःस्थल को विदीर्ण कर डाला था, उनके आयुध तथा ध्वज छिन्न-भिन्न हो बिखरे पड़े थे और वे सदा के लिये शांत हो गये थे तो भी मद्रराज को लक्ष्मी (शोभा या कांति) छोड़ नहीं रही थी। तदनन्तर युधिष्ठिर ने इन्द्रधनुष के समान कांतिमान दूसरा धनुष लेकर सर्पों का संहार करने वाले गरुड़ की भाँति युद्धस्थल में तीखे भल्लों द्वारा शत्रुओं के शरीरों का नाश करते हुए क्षणभर में उन सबका विध्वंस कर दिया।
राजन! युधिष्ठिर के बाणसमूहों से आच्छादित हुए आपके सैनिकों ने आँखें मीच लीं और आपस में ही एक-दूसरे को घायल करके वे अत्यन्त पीड़ित हो गये। उस समय शरीरों से रक्त की धारा बहाते हुए वे अपने अस्त्र-शस्त्र और जीवन से भी हाथ धो बैठे। तदनन्तर, मद्रराज शल्य के मारे जाने पर उनका छोटा भाई, जो अभी नवयुवक था और सभी गुणों में अपने भाई की ही समानता करता था, रथ पर आरूढ़ हो पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर चढ़ आया। मारे गये भाई का प्रतिशोध लेेने की इच्छा से वह रणदुर्भद नरश्रेष्ठ वीर बड़ी उतावली के साथ उन्हें बहुत-से नाराचों द्वारा घायल करने लगा। तब धर्मराज ने उसे शीघ्रतापूर्वक छः बाणों से बींध डाला तथा दो क्षुरों से उसके धनुष और ध्वज को काट दिया।
तत्पश्चात एक चमकीले, सुदृढ़ और तीखे भल्ल से सामने खडे़ हुए उस राजकुमार के मस्तक को काट गिराया। पुण्य समाप्त होने पर स्वर्ग से भ्रष्ट हो नीचे गिरने वाले जीव की भाँति उनका वह कुण्डलसहित मस्तक रथ से भूतल पर गिरता देखा गया। फिर खून से लथपथ हुआ उसका शरीर भी, जिसका सिर काट लिया गया था, रथ से नीचे गिर पड़ा। उसे देखकर आपकी सेना में भगदड़ मच गयी। मद्रनरेश का वह भाई विचित्र कवच से सुशोभित था, उसके मारे जाने पर समस्त कौरव हाहाकार करते हुए भाग चले। शल्य के भाई को मारा गया देख धूलिधूसरित हुए आप के सारे सैनिक पाण्डुपुत्र के भय से जीवन की आशा छोड़कर अत्यन्त त्रस्त हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 69-91 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार भागते हुए उन कौरव योद्धाओं पर बाणों की वर्षा करते हुए शिनि-पौत्र सात्यकि उनका पीछा करने लगे। राजन! दुःसह एवं दुर्जय महाधनुर्धर सात्यकि को आक्रमण करते देख कृतवर्मा ने शीघ्रतापूर्वक एक निर्भय वीर की भाँति उन्हें रोका। श्रेष्ठ घोड़ों वाले वे महामनस्वी वृष्णिवंशी वीर सात्यकि और कृतवर्मा दो बलोन्मत्त सिंहों के समान एक दूसरे से भिड़ गये। सूर्य के समान तेजस्वी वे दोनों वीर दिनकर की किरणों के सदृश निर्मल कांतिवाले बाणों द्वारा एक दूसरे को आच्छादित करने लगे। वृष्णि वंश के उन दोनों सिंहों के धनुष द्वारा बलपूर्वक चलाये हुए शीघ्रगामी बाणों को हमने टिड्डीदलों के समान आकाश में व्याप्त हुआ देखा था। कृतवर्मा ने दस बाणों से सात्यकि को तथा तीन से उनके घोड़ों को घायल करके झुकी हुई गाँठ वाले एक बाण से उनके धनुष को काट दिया। उस कटे हुए श्रेष्ठ धनुष को फेंककर शिनिप्रवर सात्यकि ने उससे भी अत्यन्त बलशाली दूसरा धनुष शीघ्रतापूर्वक हाथ में लिया। उस श्रेष्ठ धनुष को लेकर सम्पूर्ण धनुर्धरों में अग्रगण्य सात्यकि ने कृतवर्मा की छाती में दस बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी।। तत्पश्चात सुसंयत भल्लों के प्रहार से उसके रथ, जूए और ईषादण्ड (हरसे) को काटकर शीघ्र ही घोड़ों तथा दोनों पाश्वरक्षकों को भी मार डाला। प्रभो! कृतवर्मा को रथहीन हुआ देख शरद्वान के पराक्रमी पुत्र कृपाचार्य उसे शीघ्र ही अपने रथ पर बिठाकर वहाँ से दूर हटा ले गये।
राजन! जब मद्रराज मारे गये और कृतवर्मा भी रथहीन हो गया, तब दुर्योधन की सारी सेना पुनः युद्ध से मुँह मोड़कर भागने लगी। परन्तु वहाँ सब ओर धूल छा गयी थी, इसलिये शत्रुओं को इस बात का पता न चला। अधिकांश योद्धाओं के मारे जाने पर उस समय वह सारी सेना युद्ध से विमुख हो गयी थी। पुरुषप्रवर! तदनन्तर दो ही घड़ी में उन सब ने देखा कि धरती की जो धूल ऊपर उड़ रही थी, वह नाना प्रकार के रक्त का स्त्रोत बहने से शांत हो गयी है। उस समय दुर्योधन ने यह देखकर कि मेरी सेना मेरे पास से भाग गयी है, वेग से आक्रमण करने वाले समस्त पाण्डव योद्धाओं को अकेले ही रोका। रथसहित पाण्डवों को, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न को तथा दुर्जय वीर आनर्त नरेश को सामने देखकर उसने तीखें बाणों द्वारा उन सबको आगे बढ़ने से रोक दिया। जैसे मरणधर्मा मनुष्य पास आयी हुई अपनी मौत को नहीं टाल सकते, उसी प्रकार वे शत्रुपक्ष सैनिक दुर्योधन को लाँघकर आगे न बढ़ सके।
इसी समय कृतवर्मा भी दूसरे रथ पर आरूढ़ हो पुनः वहीं लौट आया। तब महारथी राजा युधिष्ठिर ने बड़ी उतावली के साथ चार बाण मारकर कृतवर्मा के चारों घोड़ों का संहार कर डाला तथा छ: तेज धारवाले भल्लों से कृपाचार्य को भी घायल कर दिया। इसके बाद अश्वत्थामा अपने रथ के द्वारा घोड़े के मारे जाने से रथहीन हुए कृतवर्मा को राजा युधिष्ठिर के पास से दूर हटा ले गया। तब कृपाचार्य ने छः बाणों से राजा युधिष्ठिर को बींध डाला और आठ पैने बाणों से उनके घोड़ों को भी घायल कर दिया। महाराज! भरतवंशी नरेश! इस प्रकार पुत्रसहित आपकी कुमन्त्रणा से इस युद्ध का अन्त हुआ।
कुरुकुल शिरोमणि युधिष्ठिर के द्वारा युद्ध में श्रेष्ठ महाधनुर्धर शल्य के मारे जाने पर कुन्ती के सभी पुत्र एकत्र हो अत्यन्त हर्ष में भर गये और शल्य को मारा गया देख शंख बजाने लगे। जैसे पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध करने पर देवताओं ने इन्द्र की स्तुति की थी, उसी प्रकार सब पाण्डवों ने रणभूमि में युधिष्ठिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए वे सब लोग नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि फैलाने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में शल्य का वधविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
अठारहवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
बीसवाँ अध्याय
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