सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकाेेशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन और भीमसेन के द्वारा कौरव वीरों का संहार तथा कर्ण का पराक्रम”
संजय कहते हैं ;- राजन! जिनकी ध्वजा में श्रेष्ठ कपि का चिह्न है, उन वीर अर्जुन को महावेगशाली अश्वों द्वारा आगे बढ़ते देख कौरव दल के नब्बे वीर रथियों ने युद्ध के लिये धावा किया। उन नरव्याघ्र संशप्तक वीरों ने परलोक सम्बन्धी घोर शपथ खाकर पुरुषसिंह अर्जुन को रणभूमि में चारों ओर से घेर लिया। श्रीकृष्ण ने सोने के आभूषणों से विभूषित तथा मोती की जालियों से आच्छादित श्वेत रंग के महान वेगशाली अश्वों को कर्ण के रथ की ओर बढ़ाया। तत्पश्चात कर्ण के रथ की ओर जाते हुए शत्रुसूदन धनंजय को बाणों की वर्षा से घायल करते हुए संशप्तक रथियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। सारथि, धनुष और ध्वजसहित उतावली के साथ आक्रमण करने वाले उन सभी नब्बे वीरों को अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा मार गिराया। किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए नाना प्रकार के बाणों से मारे जाकर वे संशक्त रथी पुण्यक्षय होने पर विमानसहित स्वर्ग से गिरने वाले सिद्धों के समान रथ से नीचे गिर पड़े।
तदनन्तर रथ, हाथी और घोड़ों सहित बहुत-से कौरव वीर निर्भय हो भरतभूषण कुरुश्रेष्ठ अर्जुन का सामना करने के लिये चढ़ आये। आपके पुत्रों की उस विशाल सेना में मनुष्य और अश्व तो थक गये थे, परंतु बड़े-बड़े़ हाथी उद्धत होकर आगे बढ़ रहे थे। उस सेना ने अर्जुन की गति रोक दी। उन महाधनुर्धर कौरवों ने कुरुकुलनन्दन अर्जुन को शक्ति, ऋष्टि, तोमर, प्रास, गदा, खड्ग और बाणों के द्वारा ढक दिया। परन्तु जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन ने आकाश में सब और फैली हुई उस बाणवर्षा को छिन्न-भिन्न कर डाला। तब आपके पुत्र दुर्योधन की आज्ञा से म्लेच्छ सैनिक तेरह सौ मतवाले हाथियों के साथ आ पहुँचे और पार्श्व भाग में खडे़ हो अर्जुन को घायल करने लगे। उन्होंने रथ पर बैठे हुए अर्जुन को कर्णी, नालीक, नाराच, तोमर, मूसल, प्रास, भिंदिपाल और शक्तियों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। हाथियों की सूंडों द्वारा की हुई उस अनुपम शस्त्र वर्षा को अर्जुन ने तीखे भल्लों तथा अर्धचन्द्रों से नष्ट कर दिया। फिर नाना प्रकार के चिह्न वाले उत्तम बाणों द्वारा पताका, ध्वज और सवारों सहित उन सभी हाथियों को उसी तरह मार गिराया, जैसे इन्द्र ने वज्र के आघातों से पर्वतों को धराशायी कर दिया था। सोने के पंख वाले बाणों से पीड़ित हुए वे सुवर्ण मालाधारी बड़े-बड़े़ गजराज मारे जाकर आग की ज्वालाओं से युक्त पर्वतों के समान धरती पर गिर पड़े।
प्रजानाथ! तदनन्तर गाण्डीव धनुष की टंकारध्वनि बड़े जोर-जोर से सुनायी देने लगी। साथ ही चिंघाड़ते और आर्तनाद करते हुए मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ों की आवाज भी वहाँ गूंज उठी। राजन! घायल हाथी सब ओर भागने लगे। जिनके सवार मार दिये गये थे, वे घोडे़ भी दसों दिशाओं में दौड़ लगाने लगे। महाराज! गन्धर्व नगरों के समान सहस्रों विशाल रथ रथियों और घोड़ों से हीन दिखायी देने लगे। राजेन्द्र! अर्जुन के बाणों से घायल हुए अश्वारोही भी जहाँ-तहाँ इधर-उधर भागते दिखाये दे रहे थे। उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन की भुजाओं का बल देखा गया, उन्होंने अकेले ही युद्ध में रथों, सवारों और हाथियों को भी परास्त कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकाेेशीतितम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! तदनंतर पृथक्-पृथक् वे हाथी, घोड़े और रथ पुन: युद्धस्थल में लौटे आये और अर्जुन के सामने गर्जना करए हुए डट गये। नरेश्वर! भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अर्जुन को तीन अंगों वाली विशाल सेना से घिरा देख भीमसेन मरने से बचे हुए आपके कतिपय रथियों को छोड़कर बड़े वेग से धनंजय के रथ की ओर दौडे़। उस समय आपके अधिकांश सैनिक मारे जा चुके थे, बहुत-से घायल होकर आतुर हो गये थे। फिर तो कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। यह सब देखते हुए भीमसेन अपने भाई अर्जुन के पास आ पहुँचे। भीमसेन अभी थके नहीं थे, उन्होंने हाथ में गदा ले उस महासमर में अर्जुन द्वारा मारे जाने से बचे हुए महाबली घोड़ों और सवारों का संहार कर डाला। मान्यवर नरेश! तदनन्तर भीमसेन ने कालरात्रि के समान अत्यन्त भयंकर, मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों को काल का ग्रास बनाने वाली, परकोटों, अट्टालिकाओं और नगर द्वारों को भी विदीर्ण कर देने वाली अपनी अति दारुण गदा का वहाँ मनुष्यों, गजराजों तथा अश्वों पर तीव्र वेग से प्रहार किया। उस गदा ने बहुत से घोड़ों और घुड़सवारों का संहार कर डाला।
पाण्डुपुत्र भीम ने काले लोहे का कवच पहने हुए बहुत-से मनुष्यों और अश्वों को भी गदा से मार गिराया। वे सब-के-सब आर्तनाद करते हुए प्राणशून्य होकर गिर पड़े। घायल हुए कौरव सैनिक खून से नहाकर दांतों से ओठ चबाते हुए धरती पर सो गये थे, किन्हीं का माथा फट गया था, किन्हीं की हड्डियां चूर-चूर हो गयी थीं और किन्हीं के पांव उखड़ गये थे। वे सब-के-सब मांसभक्षी पशुओं के भोजन बन गये थे। दस हजार घोड़ों और बहुसंख्यक पैदलों का संहार करके क्रोध में भरे हुए भीमसेन हाथ में गदा लेकर इधर-उधर दौड़ने लगे। भरतनन्दन! भीमसेन को गदा हाथ में लिये देख आपके सैनिक कालदण्ड लेकर आया हुआ यमराज मानने लगे। मतवाले हाथी के समान अत्यन्त क्रोध में भरे हुए पाण्डुनन्दन भीमसेन ने शत्रुओं की गजसेना में प्रवेश किया, मानों मगर समुद्र में जा घूसा हो। विशाल गदा हाथ में ले अत्यन्त कुपित हो भीमसेन ने हाथियों की सेना में घूसकर उसे क्षणभर में यमलोक पहुँचा दिया। कवचों, सवारों और पताकाओं सहित मतवाले हाथियों को हमने पंखधारी पर्वतो के समान धराशायी होते देखा था। महाबली भीमसेन उस गजसेना का संहार करके पुनः अपने रथ पर आ बैठे और अर्जुन के पीछे-पीछे चलते रहे।
महाराज! उस समय भीमसेन और अर्जुन के अस्त्र-शस्त्रों से घिरी हुई आपकी अधिकांश सेना उत्साहशून्य-विमुख और जड़वत हो गयी। उस सेना को जड़वत, उद्योग शून्य हुई देख अर्जुन ने प्राणों को संतप्त कर देने वाले बाणों द्वारा उसे आच्छादित कर दिया। युद्धस्थल में गाण्डीवधारी अर्जुन के बाणों से छिदे हुए मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथी केसरयुक्त कदम्ब पुष्पों के समान सुशोभित हो रहे थे। नरेश्वर! तदनन्तर मनुष्यों, घोड़ों, और हाथियों के प्राण लेने वाले अर्जुन के बाणों द्वारा हताहत होते हुए कौरवों का महान आर्तनाद प्रकट होने लगा। महाराज! उस समय अत्यन्त भयभीत हो हाहाकार मचाती और दूसरे की आड़ में छिपती हुई आपकी सेना अलातचक्र के समान वहाँ चक्कर काटने लगी। तत्पश्चात कौरवों की सेना के साथ महान युद्ध होने लगा। उसमें कोई भी ऐसा रथ, सवार, घोड़ा अथवा हाथी नहीं था, जो अर्जुन के बाणों से विदीर्ण न हो गया हो। उस समय सारी सेना जलती हुई सी दिखायी देती थी। बाणों से उसके कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे तथा वह खून से लथपथ हो खिले हुए अशोकवन के समान प्रतीत होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत) कर्ण पर्व के एकाेेशीतितम अध्याय के श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! शत्रुओं को तपने वाले अर्जुन को सामने पाकर तीखे बाणों से मारी जाती हुई आपकी उस सेना ने युद्ध नहीं छोड़ा। भरतभूषण! वहाँ हम लोगों ने कौरव योद्धाओं का यह अदभुत पराक्रम देखा कि वे मारे जाने पर भी अर्जुन को छोड़ नहीं रहे थे। सव्यसाची अर्जुन को इस प्रकार पराक्रम प्रकट करते देख समस्त कौरव सैनिक कर्ण के जीवन से निराश हो गये। गाण्डीवधारी अर्जुन के द्वारा परास्त हुए कौरव योद्धा समरांगण में उनकी बाण वर्षा को अपने लिये असह्य मानकर युद्ध से पीछे हटने लगे। बाणों से बिंध जाने के कारण वे भयभीत हो रणभूमि में कर्ण को अकेला ही छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चले; किंतु अपनी रक्षा के लिये सूतपुत्र कर्ण को ही पुकारते रहे। कुन्तीकुमार अर्जुन सैकड़ो बाणों की वर्षा करते और भीमसेन आदि पाण्डव-योद्धाओं का हर्ष बढ़ाते हुए आपके उन सैनिको को खदेड़ने लगे। महाराज! इसके बाद आपके पुत्र भागकर कर्ण के रथ के पास गये। वे संकट के अगाध समुद्र में डूबे रहे थे। उस समय कर्ण ही द्वीप के समान उनका रक्षक हुआ। महाराज! कौरव विषरहित सर्पों के समान-गाण्डीवधारी अर्जुन के भय से कर्ण के ही पास छिपने लगे।
माननीय नरेश! जैसे कर्म करने वाले सब जीव मृत्यु से डरकर धर्म की ही शरण लेते हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र महामना पाण्डुपुत्र अर्जुन के भय से महाधनुर्धर कर्ण की ही ओट में छिपने लगे थे। कर्ण ने उन्हें खून से लथपथ, संकट में मग्न और बाणों की चोट से व्याकुल देखकर कहा- वीरों! डरो मत। तुम सब लोग निर्भय होकर मेरे पास आ जाओ। अर्जुन ने बलपूर्वक आप की सेना को भगा दिया है यह देख-कर कर्ण शत्रुओं का वध करने की इच्छा से धनुष तानकर खड़ा हो गया। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण ने कौरव सैनिकों को भागते देख खूब सोच-विचार कर लम्बी सांस लेते हुए मन-ही-मन अर्जुन के वध का निश्चय किया। तत्पश्चात धर्मात्मा अधिरथपुत्र कर्ण ने अपने विशाल धनुष को फैलाकर अर्जुन के देखते-देखते पुनः पांचाल योद्धाओ पर धावा किया। यह देख पांचाल नरेशों के नेत्र रोष से लाल हो गये। जैसे बादल पर्वत पर पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे क्षणभर में कर्ण पर बाणसमूहों की वर्षा करने लगे। प्राणधारियों में श्रेष्ठ मान्यवर नरेश! तदनन्तर कर्ण के छोड़े हुए सहस्रों बाण पांचालों को प्राणहीन करने लगे। महामते! वहाँ मित्र का हित चाहने वाले सूतपुत्र कर्ण के द्वारा मित्र की ही भलाई के लिये मारे जाने वाले पांचालों का महान आर्तनाद होने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि के द्वारा कर्णपुत्र प्रसेन का वध, कर्ण का पराक्रम एवं दुःशासन एवं भीमसेन का युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन! जब कौरव सैनिक बड़े वेग से भागने लगे, उस समय जैसे वायु मेंघों के समूह को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार सूतपुत्र कर्ण ने श्वेत घोड़ों वाले रथ के द्वारा आक्रमण करके अपने विशाल बाणों से पांचाल राजकुमारों का संहार आरम्भ किया। उसने अंजलिक नाम वाले बाणों से जनमेजय के सारथि को रथ से नीचे गिराकर उसके घोड़ों को भी मार डाला। फिर शतानीक तथा सुतसोम को भल्लों से ढक दिया और उन दोनों के धनुष भी काट डाले। तत्पश्चात छः बाणों से युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न को घायल कर दिया और उनके घोड़ों को भी वेगपूर्वक मार डाला। इसके बाद सूतपुत्र ने सात्यकि के घोड़ों को नष्ट करके केकय राजकुमार विशोक का भी वध कर डाला। केकय राजकुमार के मारे जाने पर वहाँ के सेनापति उग्रकर्मा ने कर्ण पर धावा किया। उसने धनुष को तीव्र वेग से संचालित करते हुए भयंकर वेग वाले बाणों द्वारा कर्ण के पुत्र प्रसेन को भी घायल कर दिया। तब कर्ण ने हँसकर तीन अर्धचन्द्राकार बाणों से उग्रकर्मा की दोनों भुजाएं और मस्तक काट डाले। वह प्राणशून्य होकर कुल्हाड़ी से काटे हुए शाखू के पेड़ के समान रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।
उधर कर्ण ने जब सात्यकि के घोडे़ मार डाले, तब कर्णपुत्र प्रसेन ने तीव्रगामी पैने बाणों द्वारा शिनिप्रवर सात्यकि को ढक दिया। इसके बाद सात्यकि के बाणों से चोट खाकर वह नाचता हुआ-सा पृथ्वी पर गिर पडा। पुत्र के मारे जाने पर क्रोध से व्याकुलचित्त हुए कर्ण ने शिनिप्रवर सात्यकि का वध करने के लिये उन पर एक शत्रु नाशक बाण छोड़ा और कहा,
कर्ण ने कहा ;- सात्यके! अब तू मारा गया। परन्तु उसके उस बाण को शिखण्डी ने तीन बाणों द्वारा काट दिया और उसे भी तीन बाणों से पीड़ित कर दिया। तब कर्ण ने दो छुरों से शिखण्डी की ध्वजा और धनुष काट कर नीचे गिरा दिये। फिर भयंकर वीर कर्ण ने छः बाणों से शिखण्डी को घायल कर दिया और धृष्टद्युम्न के पुत्र का मस्तक काट डाला। साथ ही महामनस्वी अधिरथ पुत्र ने अत्यन्त तीखे बाण से सुतसोम को भी क्षत-विक्षत कर दिया।
राजसिंह! इस प्रकार जब वह भयंकर घमासान युद्ध चलने लगा और धृष्टद्युम्न का पुत्र मारा गया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ अर्जुन से कहा- पार्थ! कर्ण पांचालों का संहार कर रहा है, अतः आगे बढ़ो और उसे मार डालो। तदनन्तर सुन्दर भुजाओं वाले नरवीर अर्जुन हँसकर भय के अवसर पर घायल सैनिकों की रक्षा के लिये रथ समुहों के अधिपति विशाल रथ के द्वारा सूतपुत्र के रथ की ओर शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े। उन्होंने भयानक टंकार करने वाले गाण्डीव धनुष को फैलाकर उसकी प्रत्यंचा द्वारा अपनी हथेली में आघात करते हुए सहसा बाणों द्वारा अन्धकार फैला दिया और शत्रुपक्ष के हाथी, घोडे़, रथ एवं ध्वज नष्ट कर दिये। उस भयंकर मुहूर्त में गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा को मण्डलाकार करके जब किरीटधारी अर्जुन शत्रुसेना पर टूट पड़े तथा बल और प्रताप में बढ़ने लगे, उस समय धनुष की टंकार की प्रतिध्वनि आकाश में गूँठी, जिससे डरे हुए पक्षी पर्वतों की कन्दराओं में छिप गये। प्रमुख वीर भीमसेन पीछे से पाण्डु नन्दन अर्जुन की रक्षा करते हुए रथ के द्वारा उनका अनुसरण करने लगे। वे दोनों पाण्डव राजकुमार बड़ी उतावली के साथ शत्रुओं से जूझते हुए कर्ण की ओर बढ़ने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)
इसी बीच में सूतपुत्र कर्ण ने सोमकों का संहार करते हुए उनके साथ महान युद्ध किया। उनके बहुत-से घोड़े, रथ और हाथियों का वध कर डाला और बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। उस समय धृष्टद्युम्न के साथ गर्जते हुए उत्तमौजा, जनमेजय, कुपित युधामन्यु और शिखण्डी ये सब संगठित होकर अपने बाणों द्वारा कर्ण को घायल करने लगे। पांचाल रथियों में प्रमुख ये पाँचों वीर वैकर्तन कर्ण पर आक्रमण करके भी उसे उस रथ से नीचे न गिरा सके। ठीक उसी तरह, जैसे जिसने अपने मन को वश में कर रखा है उस योगी को शब्द, स्पर्श आदि विषय धैर्य से विचलित नहीं कर पाते हैं। कर्ण ने अपने बाणों द्वारा तुरन्त ही उनके धनुष, ध्वज, घोड़े, सारथि और पताकाएँ काट डालीं और पाँच बाणों से पाँचों वीरों को भी घायल कर दिया। तत्पश्चात वह सिंह के समान दहाड़ने लगा। कर्ण बाण छोड़ता और शत्रुओं का संहार करता जा रहा था। उसके हाथ में धनुष की प्रत्यंचा और बाण सदा मौजूद रहते थे। उसके धनुष की टंकार से पर्वतों और वृक्षों सहित यह सारी पृथ्वी विदीर्ण हो जायगी, ऐसा समझकर सब लोग अत्यन्त खिन्न हो उठे थे। इन्द्रधनुष के सामन खींचे हुए मण्डलाकार विशाल धनुष के द्वारा बाणों की वर्षा करता हुआ अधिरथ पुत्र कर्ण रणभूमि में प्रकाशमान किरणों वाले परिधि युक्त अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पा रहा था। उसने शिखण्डी को बारह, उत्तमौजा को छः, युधामन्यु को तीन तथा जनमेजय और धृष्टद्युम्न को भी तीन-तीन पैने बाणों से अत्यन्त घायल कर दिया।
आर्य! जैसे मन को वश में रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष के द्वारा पराजित हुए विषय उसे आकृष्ट नहीं कर पाते, उसी प्रकार महासमर में सूतपुत्र कर्ण के द्वारा परास्त हुए वे पाँचों पांचाल वीर निश्चेष्ट भाव से खड़े हो गये और शत्रुओं का आनंद बढ़ाने लगे। जैसे समुद्र में जिनकी नाव डूब गयी हो, उन डूबते हुए व्यापारियों को दूसरी नौकाओं द्वारा लोग बचा लेते हैं, उसी प्रकार द्रौपदी के पुत्रों ने कर्णरूपी सागर में डूबने वाले अपने उन मामाओं को रण-सामग्री सजे-सजाये रथों द्वारा बचाया। तत्पश्चात शिनिप्रवर सात्यकि ने कर्ण के छोड़े हुए बहुत से बाणों को अपने तीखे बाणों से काटकर लोहे के पैने बाणों से कर्ण को घायल करने के पश्चात आपके ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को आठ बाण मारकर बींध डाला। तब कृपाचार्य, कृतवर्मा, आपका पुत्र दुर्योधन तथा स्वयं कर्ण भी सात्यकि को तीखे बाणों से घायल करने लगे। यदुकुल तिलक सात्यकि ने अकेले ही उन चारों वीरों के साथ उसी प्रकार युद्ध किया, जैसे दैत्यराज हिरणकशिपु ने चारों दिक्पालों के साथ किया था।
जैसे शरद ऋतु के आकाश मण्डल के बीच में आये हुए मध्याह्न कालिक सूर्य प्रचण्ड हो उठते हैं, उसी प्रकार असंख्य बाणों की वर्षा करने वाले तथ कान तक खींचे जाने के कारण गम्भीर टंकार करने वाले अपने विशाल धनुष के द्वारा सात्यकि उस समय शत्रुओं के लिये अत्यन्त दुर्जय हो उठे। तदनन्तर शत्रुओं को तपाने वाले पूवोक्त पांचाल महारथी कवच पहन रथों पर आरूढ़ हो पुनः आकर शिनिप्रवर सात्यकि की रणभूमि में उसी तरह रक्षा करने लगे, जैसे मरुद्रण शत्रुओं के दमनकाल में देवराज इन्द्र की रक्षा करते हैं। इसके बाद आपके शत्रुओं का आपके सैनिकों के साथ अत्यन्त दारुण युद्ध होने लगा, जो रथों, घोड़ों और हाथियों का विनाश करने वाला था। वह युद्ध प्राचीन काल के देवासुर संग्राम के समान जान पड़ता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! बहुत-से रथी, सवारों सहित हाथी, घोडे़ तथा पैदल सैनिक नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से आच्छादित हो एक दूसरे से टकराकर लड़खड़ाने लगते, आर्तनाद करते और प्राणशून्य होकर गिर पड़ते थे। राजन! इस प्रकार जब वह भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय राजा का छोटा भाई आपका पुत्र दुःशासन निर्भय हो बाणों की वर्षा करता हुआ भीमसेन पर चढ़ आया। उसे देखते ही भीमसेन भी बड़े उतावले होकर उसकी और दौडे़ और जिस प्रकार सिंह महारू नामक मृग पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उसके पास जा पहुँचे। उन दोनों के मन में एक दूसरे के प्रगति महान रोष भरा हुआ था। दोनों ही प्राणों की बाजी लगाकर अत्यन्त भयंकर युद्ध का जूआ खेल रहे थे। उन प्रचण्ड वीरों का वह संग्राम शम्बरासुर और इन्द्र के समान हो रहा था। शरीर को पीड़ा देने वाले अत्यन्त पैने बाणों द्वारा वे दोनों वीर एक दूसरे को गहरी चोट पहुँचाने लगे; मानो मेंथुन की इच्छावाली हथिनी के लिये कामासक्त चित्त होकर दो मदस्त्रावी गजराज परस्पर आघात करते हों।
सारथि सहित उन दोनों शूरवीरों ने जब वहाँ एक दूसरे को एक साथ देखा, तब भीम ने अपने सारथि से कहा-दुःशासन की ओर चलो और दुःशासन ने अपने सारथि से कहा,
भीम ने कहा ;- भीमसेन की ओर चलो। साथियों द्वारा एक साथ हाँके गये उन दोनों के रथ रणभूमि में दोनों के पास सहसा जा पहुँचे। वे दोनों ही रथ नाना प्रकार के आयुधों से सम्पन्न तथा विचित्र पताकाओं और ध्वजाओं से सुशोभित थे। जैसे पूर्वकाल में स्वर्ग के निमित्त होने वाले युद्ध में बलासुर और इन्द्र के रथ थे, उसी प्रकार दुःशासन और भीमसेन के भी थे।
भीमसेन बोले ;- दुःशासन! बड़े सौभाग्य की बात है कि तू आज मुझे दिखायी दिया है। कौरव-सभा में द्रौपदी का स्पर्श करने के कारण दीर्घकाल से जो तेरा ऋण मेरे ऊपर चढ़ गया है, उसे में आज ब्याज और मूलसहित चुकाना चाहता हूँ। तू मुझसे वह सब ग्रहण कर।
संजय कहते हैं ;- राजन! भीमसेन के ऐसा कहने पर महामनस्वी वीर दुःशासन ने इस प्रकार कहा।
दुःशासन बोला ;- भीमसेन! मुझे सब कुछ याद है। मैं भूलता नहीं हूँ। तुम मेरी कहीं हुई बात सुनो। मैं अपनी की हुई सारी बातों को चिरकाल से याद रखता हूँ। पहले तुम लोग लाक्षागृह में रात-दिन सशंक होकर निवास करते थे। फिर वहाँ से निकाले जाकर वन में सर्वत्र शिकार खेलते हुए रहने लगे। रात-दिन महान भय में डूबे रहकर तुम चिन्ता में पड़े रहते और सुख एवं उपभोग से वंचित हो जंगलो तथा पर्वत की कन्दराओं में घूमते थे। इसी अवस्था में तुम सब लोग एक दिन पांचालराज के नगर में जा घुसे। वहाँ तुम लोगों ने किसी माया में प्रविष्ट होकर अपने स्वरूप को छिपा लिया था; इसलिये द्रौपदी ने तुम लोगों से अर्जुन का वरण कर लिया। परंतु तुम सब पापियों ने मिलकर उसके साथ वह नीचों का -सा बर्ताव किया, जो तुम्हारी माता की करनी के अनुरूप था। द्रौपदी ने तो एक हीं का वरण किया, परंतु तुम पांचों ने उसे अपनी पत्नी बनाया और इस कार्य में तुम्हें एक दूसरे से तनिक भी लज्जा नहीं हुई। मुझे यह भी याद है कि कौरव सभा में शकुनि ने द्रौपदी सहित तुम सब लोगों को दास बना लिया था।
संजय कहते हैं ;- राजन! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर पाण्डुकुमार भीमसेन क्रोध के वशीभूत हो गये। वृकोदर ने बड़ी उतावली के साथ दो क्षुरों के द्वारा आपके पुत्र दुःशासन के धनुष और ध्वज को काट दिया, एक बाण से उसके ललाट में घाव कर दिया और दूसरे से उसके सारथि का मस्तक भी धड़ से अलग कर दिया। तब राजकुमार दुःशासन भी दूसरा धनुष लेकर भीमसेन को बारह बाणों से बींध डाला और स्वयं ही घोड़ों को काबू में रखते हुए उसने पुनः उनके ऊपर सीधे जाने वाले बाणों की झड़ी लगा दी। इसके बाद दुःशासन ने सूर्य की किरणों के समान कांतिमान, सुवर्ण और हीरे आदि उत्तम रत्नों से विभूषित तथा देवराज इन्द्र के वज्र एवं विद्युत-पात के समान दुःसह एक ऐसा भयंकर बाण छोड़ा, जो भीमसेन के अंगों को विदीर्ण कर देने में समर्थ था। उससे भीमसेन का शरीर छिद गया। वे बहुत शिथिल हो गये और प्राणहीन के समान दोनों बाँहें फैलाकर अपने श्रेष्ठ रथ पर लुढ़क गये। फिर थोडी ही देर में होश में आकर भीमसेन सिंह के समान दहाड़ने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में दुःशासन और भीमसेन युद्धविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमद्वारा दुःशासन का रक्तपान और उसका वध, युधामन्यु द्वारा चित्रसेन का वध तथा भीम का हर्षोद्गार”
संजय कहते हैं ;- राजन! वहाँ तुमुल युद्ध करते हुए राजकुमार दुःशासन ने दुष्कर पराक्रम प्रकट किया। उसने एक बाण से भीमसेन का धनुष काट डाला और साठ बाणों से उनके सारथि को भी घायल कर दिया। ऐसा करके उस वेगशाली राजपुत्र ने भीमसेन पर नौ बाणों का प्रहार किया। इसके बाद महामना दुःशासन ने बड़ी फुर्ती के साथ बहुत-से उत्तम बाणों द्वारा भीमसेन को अच्छी तरह बींध डाला। तब क्रोध में भरे हुए वेगशाली भीमसेन ने आपके पुत्र पर एक भयंकर शक्ति छोड़ी। प्रज्वलित उल्का के समान उस अत्यन्त भयानक शक्ति को सहसा अपने ऊपर आती देख आपके महामनस्वी पुत्र ने कान तक खींचकर छोडे़ हुए दस बाणों के द्वारा उसे काट डाला। उसके इस अत्यन्त दुष्कर कर्म को देखकर सभी योद्धा बड़े प्रसन्न हुए और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। फिर आपके पुत्र ने तुरंत ही एक बाण मारकर भीमसेन को गहरी चोट पहुँचायी।
इससे फिर उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वे उसकी ओर देखकर शीघ्र ही रोष से प्रज्वलित हो उठे। और बोले-वीर! तूने तो आज मुझे शीघ्रतापूर्वक बाण मारकर बहुत घायल कर दिया; किंतु अब स्वयं भी मेंरी गदा का प्रहार सहन-कर उच्चस्वर से ऐसा कहकर कुपित हुए भीमसेन ने दुःशासन के वध के लिये एक भयंकर गदा हाथ में ली। फिर वे इस प्रकार बोले-दुरात्मन! आज इस संग्राम में मैं तेरा रक्त पान करूँगा। भीम के ऐसा कहते ही आपके पुत्र ने उनके ऊपर बड़े वेग से एक भयंकर शक्ति चलायी, जो मृत्युरूप जान पड़ती थी। इधर से रोष में भरे हुए भीमसेन ने भी अपनी अत्यन्त घोर गदा घुमाकर फेंकी। वह गदा रणभूमि में दुःशासन की उस शक्ति को टूट-टूट करती हुई सहसा उसके मस्तक में जा लगी। मदस्त्रावी गजराज के समान अपने घावों से रक्त बहाते हुए भीमसेन ने उस तुमुल युद्ध में दुःशासन पर जो गदा चलायी थी, उसके द्वारा उन्होंने उसे बलपूर्वक दस धनुष (चालीस हाथ) पीछे हटा दिया। दुःशासन उस वेगवती गदा के आघात से धरती पर गिरकर काँपने और अत्यन्त वेदना से व्याकुल हो छटपटाने लगा। उसका कवच टूट गया, आभूषण और हार बिखर गये तथा कपड़े फट गये थे। नरेन्द्र! उस गदा ने गिरते ही दुःशासन के रथ को चूर-चूर कर डाला और सारथि सहित उसके घोड़ों को भी मार डाला। दुःशासन को उस अवस्था में देखकर समस्त पाण्डव और पांचाल योद्धा हर्ष में भरकर सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार वृकोदर भीम दुःशासन को धराशायी करके हर्ष से उल्लसित हो सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। अजमीढ़वंशी नरेश! उस समय सिंहनाद से भयभीत हो आसपास खडे़ हुए समस्त योद्धा मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
फिर भीमसेन भी शीघ्रतापूर्वक रथ से उतरकर बड़े वेग से दुःशासन की ओर दौडे़। उस समय वेगशाली भीमसेन को आपके पुत्रों द्वारा किये गये शत्रुतापूर्ण बर्ताव याद आने लगे थे। राजन! वहाँ चारों ओर जब प्रधान-प्रधान वीरों का वह अत्यन्त घोर तुमुल युद्ध चल रहा था, उस समय अचिन्त्यपराक्रमी महाबाहु भीमसेन दुःशासन को देखकर पिछली बातें याद करने लगे,- देवी द्रौपदी रजस्वला थी। उसने कोई अपराध नहीं किया था। उसके पति भी उसकी सहायता से मुँह मोड़ चुके थे तो भी इस दुःशासन ने द्रौपदी के केश कपड़े और भरी सभी में उसके वस्त्रों का अपहरण किया। उसने और भी जो-जो दुःख दिये थे, उन सबको याद करके भीमसेन घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान क्रोध से जल उठे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयशीतितम अध्याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)
उन्होंने वहाँ कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा को सम्बोधित करके कहा-आज में पापी दुःशासन को मार डालता हूँ। तुम समस्त योद्धा मिलकर उसकी रक्षा कर सको तो करो। ऐसा कहकर अत्यन्त बलवान वेगशाली अद्वितीय वीर भीमसेन अपने रथ से कूदकर पृथ्वी पर आ गये और दुःशासन को मार डालने की इच्छा से सहसा उसकी ओर दौडे़। उन्होंने युद्ध में पराक्रम करके दुर्योधन और कर्ण के सामने ही दुःशासन को उसी प्रकार धर दबाया, जैसे सिंह किसी विशाल हाथी पर आक्रमण कर रहा हो। वे यत्नपूर्वक उसी की ओर दृष्टि जमाये हुए थे। उन्होंने उत्तम धारवाली सफेद तलवार उठा ली और उसके गले पर लात मारी। उस समय दुःशासन थरथर काँप रहा था। वे उससे इस प्रकार बोले,
भीमसेन बोले ;- दुयात्मन! याद है न वह दिन, जब तुमने कर्ण और दुर्योधन के साथ बड़े हर्ष में भरकर मुझे बैल कहा था। राजसूय यज्ञ में अवभृथ स्नान से पवित्र हुए महारानी द्रौपदी के केश तूने किस हाथ से खींचे थे? बता, आज भीमसेन तुझसे यह पूछता और इसका उत्तर चाहता है। भीमसेन का यह अत्यन्त भयंकर वचन सुनकर दुःशासन ने उनकी ओर देखा। देखते ही वह क्रोघ से जल उठा। युद्धस्थल में उनके वैसा कहने पर उसकी त्यौरी बदल गयी थी; अतः वह समस्त कौरवों तथा सोमकों के सुनते-सुनते मुस्कराकर रोषपूर्वक बोला,
दुःशासन ने कहा ;- यह है हाथी की सूँड़ के समान मोटा मेरा हाथ, जो रमणी के ऊँचे उरोजों का मर्दन, सहस्रों गोदान तथा क्षत्रियों का विनाश करने वाला है। भीमसेन! इसी हाथ से मैंने सभा में बैठे हुए कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुषों और तुम लोगों के देखते-देखते द्रौपदी के केश खींचे थे।
युद्धस्थल में ऐसी बात कहते हुए राजकुमार दुःशासन की छाती पर चढ़कर भीमसेन ने उसे दोनों हाथों से बलपूर्वक पकड़ लिया और उच्चस्वर में सिंहनाद करते हुए समस्त योद्धाओं से कहा,
भीमसेन ने कहा ;- आज दुःशासन की बाँह उखाड़ी जा रही है। यह अब अपने प्राणों को त्यागना ही चाहता है। जिसमें बल हो, वह आकर इसे मेरे हाथ से बचा ले। इस प्रकार समस्त योद्धाओं को ललकार कर महाबली, महामनस्वी, कुपित भीमसेन ने एक ही हाथ से वेगपूर्वक दुःशासन की बाँह उखाड़ ली। उसकी वह बाँह वज्र के समान कठोर थी। भीमसेन समस्त वीरों के बीच उसी के द्वारा उसे पीटने लगे। इसके बाद पृथ्वी पर पड़े हुए दुःशासन की छाती फाड़कर वे उसका नरम-नरम रक्त पीने का उपक्रम करने लगे। राजन! उठने की चेष्टा करते हुए दुःशासन को पुनः गिराकर बुद्धिमा भीमसेन ने अपनी प्रतिज्ञा सत्य करने के लिये तलवार से आपके पुत्र का मस्तक काट डाला और उसके कुछ-कुछ गरम रक्त को वे स्वाद ले-लेकर पीने लगे।
फिर क्रोध में भरकर उसकी और देखते हुए इस प्रकार बोले-मेंने माता के दूध का, मधु और घी का, अच्छी तरह तैयार किये हुए मधूक पुष्प-निर्मित पेय पदार्थ का, दिव्य जल के रस का, दूध और दही से बिलाये हुए ताजे माखन का भी पान या रसास्वादन किया है; इन सबसे तथा इनके अतिरिक्त भी संसार में जो अमृत के समान स्वादिष्ट पीने योग्य पदार्थ हैं, उन सबसे भी मेरे इस शत्रु के रक्त का स्वाद अधिक है। तदनन्तर भयानक कर्म करने वाले भीमसेन क्रोध से व्याकुलचित्त हो दुःशासन को प्राणहीन हुआ देख जोर-जोर से अट्टहास करते हुए बोले-क्या करूँ! मृत्यु ने तुझे दुर्दशा से बचा लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयशीतितम अध्याय के श्लोक 33-52 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा कहते हुए वे बारंबार अत्यन्त प्रसन्न हो उसके रक्त का आस्वादन करने और उछलने-कूदने लगे। उस समय जिन्होंने भीमसेन की ओर देखा, वे भी भय से पीड़ित हो पृथ्वी पर गिर गये। जो लोग भयसे व्याकुल नहीं हुए, उनके हाथों से भी हथियार तो गिर ही पड़ा। वे भय से मन्द स्वर में सहायकों को पुकारने लगे और आँखे कुछ-कुछ बंद किये ही सब ओर देखने लगे। जिन लोगों ने भीमसेन को दुःशासन का रक्त पीते देखा, वे सभी भयभीत हो यह कहते हुए सब ओर भागने लगे कि यह मनुष्य नहीं राक्षस है!
भीमसेन के वैसा भयानक रूप बना लेने पर उनके द्वारा रक्त पीया जाना देखकर सब लोग भय से आतुर हो भीम को राक्षस बताते हुए चित्रसेन के साथ भाग चले। चित्रसेन को भागते देख राजकुमार युधामन्यु ने अपनी सेना के साथ उसका पीछा किया और निर्भय होकर शीघ्र छोडे़ हुए सात पैने बाणों द्वारा उसे घायल कर दिया। तब जिसका शरीर पैरों से कुचल गया हो, अतएव जो क्रोध जनित विष का वमन करना चाहता हो, उस जीभ लपलपानेवाले महान् सर्प के समान चित्रसेन ने पुनः लौटकर उस पांचाल राजकुमार को तीन और उसके सारथि को छः बाण मारे। तत्पश्चात् शुरवीर युधामन्यु ने धनुष को कानतक खींचकर ठीक से संधान करके छोडे़ हुए सुन्दर पंख और तीखी धारवाले सुनियन्त्रित बाणद्वारा चित्रसेन का मस्तक काट दिया। अपने भाई चित्रसेन के मारे जाने पर कर्ण क्रोध में भर गया और अपना पराक्रम दिखाता हुआ पाण्डवसेना को खदेड़ने लगा।
उस समय अमितबलशाली नकुल ने आगे आकर उसका सामना किया। इधर भीमसेन भी अमर्ष में भरे हुए दुःशासन का वहीं वध करके पुनः उसके खून से अंजलि भरकर भयंकर गर्जना करते और विश्वविख्यात वीरों के सुनते हुए इस प्रकार बोले,
भीमसेन ने कहा ;- नराधम दुःशासन! यह देख, में तेरे गले का खून पी रहा हूँ। अब इस समय पुनः हर्ष में भरकर मुझे बैल-बैल कहकर पुकार तो सही। जो लोग उस दिन कौरव सभा में हमें बैल-बैल कहकर खुशी के मारे नाच उठते थे, उन सब को आज बारंबार बैल-बैल कहते हुए हम भी प्रसन्नतापूर्वक नृत्य कर रहे हैं। मुझे प्रमाणकोटितीर्थ में विष पिलाकर नदीं में डाल दिया गया, कालकूट नामक विष खिलाया गया, काले सर्पों से डसाया गया, लाक्षागृह में जलाने की चेष्टा की गयी, जूए के द्वारा हमारे राज्य का अपहरण किया गया और हम सब लोगों को वनवास दे दिया गया। द्रौपदी के केश खींचे गये, जो अत्यन्त दारुण कर्म था। संग्राम में हमपर बाणों तथा अन्य घातक अस्त्रों का प्रयोग किया गया।
राजा विराट के भवन में हमें जो महान् क्लेश उठाना पड़ा, वह तो सबसे विलक्षण है। शकुनि, दुर्योधन और कर्ण की सलाह से हमें जो-जो दुःख भोगने पड़े, उन सबकी जड तू ही था। पुत्रोंसहित धृतराष्ट्र की दुष्टता से हमें ये दुःख भोगने पड़े हैं। इन दुःखों को तो हम जानते हैं, किंतु हमें कभी सुख मिला हो, इसका स्मरण नहीं है। महाराज! ऐसी बात कहकर खून से भीगे और रक्त से लाल मूँह वाले, अत्यन्त क्रोधी, वेगशाली और भीमसेन युद्ध में विजय पाकर मुस्कराते हुए पुनः श्रीकृष्ण और अर्जुन से बोले-वीरों! दुःशासन के विषय में मेंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे आज यहाँ रणभूमि में सत्य कर दिखाया।यही दूसरे यज्ञपुत्र दुर्योधन को काटकर उसकी बलि दूंगा और समस्त कौरवों की आँखों के सामने उस दुरात्मा मस्तक को पैर से कुचलकर शांति प्राप्त करूंगा। ऐसा कहकर खून से भीगे शरीरवाले अत्यन्त बलशाली महामना भीम वृत्रासुर का वध करके गर्जनेवाले सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान उच्चस्वर से गर्जन और सिंहनाद करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में दुःशासनवधविषयक तिरासीवां अध्याय पूरा हुआ)
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