सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का अपने सारथी विशोक से संवाद”
संजय कहते हैं ;– राजन! उस समय उस घमासान युद्ध में बहुत से शत्रुओं द्वारा अकेले घिरे हुए भीमसेन महासमर में अपने सारथी से बोले,
भीमसेन बोले ;– 'सारथे! अब तुम रथ को धृतराष्ट्रपुत्रों की सेना की ओर ले चलो। सूत! तुम अपने वाहनों द्वारा वेगपूर्वक आगे बढ़ो। जिससे इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मैं यमलोक भेज सकूँ।' भीमसेन के इस प्रकार आदेश देने पर सारथी तुरंत ही भयंकर वेग से युक्त हो आपके पुत्रों की सेना की ओर, जिधर भीमसेन जाना चाहते थे, चल दिया। तब अन्यान्य कौरवों ने हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों की विशाल सेना साथ ले सब ओर से उन पर आक्रमण किया। वे भीमसेन के अत्यन्त वेगशाली श्रेष्ठ रथ पर चारों ओर से बाण समूहों द्वारा प्रहार करने लगे। परंतु महामनस्वी भीमसेन ने अपने ऊपर आते हुए उन बाणों को सुवर्णमय पंखवाले बाणों द्वारा काट डाला। वे सोने की पाँख वाले बाण भीमसेन के बाणों से दो-दो तीन-तीन टुकड़ों में कटकर गिर गये।
राजन! नरेन्द्र! तत्पश्चात श्रेष्ठ राजाओं की मण्डली में भीमसेन के द्वारा मारे गये हाथियों, रथों, घोड़ों और पैदल युवकों का भयंकर आर्तनाद प्रकट होने लगा, मानो वज्र के मारे हुए पहाड़ फट पड़े हों। जैसे जिनके पंख निकल आये हैं, वे पक्षी सब ओर से उड़कर किसी वृक्ष पर चढ़ बैठते हैं, उसी प्रकार भीमसेन के उत्तम बाणों से आहत और विदीर्ण होने वाले प्रधान-प्रधान नरेश समरांगण में सब ओर से भीमसेन पर ही चढ़ आये। आपकी सेना के आक्रमण करने पर अनन्त वेगशाली भीमसेन ने अपना महान वेग प्रकट किया। ठीक उसी तरह, जैसे प्रलयकाल में समस्त प्राणियों का संहार करने वाला काल हाथ में दण्ड लिये सबको नष्ट और दग्ध करने की इच्छा से असीम वेग प्रकट करता है। अत्यन्त वेगशाली भीमसेन के महान वेग को आपके सैनिक रणभूमि में रोक न सके। जैसे प्रलयकाल में मुँह बाकर आक्रमण करने वाले प्रजा संहारकारी काल के वेग को कोई नहीं रोक सकता। भारत! तदनन्तर समरांगण में महामना भीमसेन के द्वारा दग्ध होती हुई कौरव सेना भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओं में बिखर गयी। जैसे आँधी बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने आपके सेनिकों को मार भगाया था।
तत्पश्चात बलवान और बुद्धिमान भीमसेन हर्ष से उल्लसित हो अपने सारथि से पुन: इस प्रकार बोले,
भीमसेन ने कहा ;– 'सूत! ये जो बहुत से रथ और ध्वज एक साथ इधर बढ़ आ रहे हैं, उन्हें पहचानों तो सही। वे अपने पक्ष के हैं या शत्रु पक्ष के? क्योंकि युद्ध करते समय मुझे अपने-पराये का ज्ञान नहीं रहता, कहीं ऐसा न हो कि अपनी ही सेना को बाणों से आच्छादित कर डालूँ। विशोक! सम्पूर्ण दिशाओं में शत्रुओं को देखकर उठी हुई चिन्ता मेरे हृदय को अत्यन्त संतप्त कर रही है; क्योंकि राजा युधिष्ठिर बाणों से आघात से पीड़ित हैं और किरीटधारी अर्जुन अभी तक उनका समाचार लेकर लौटे नहीं। सूत! इन सब कारणों से मुझे बहुत दु:ख हो रहा है। सारथे! पहले तो इस बात का दु-ख हो रहा है कि धर्मराज मुझे छोड़कर स्वयं ही शत्रुओं के बीच में चले गये। पता नहीं, वे अब तक जीवित हैं या नहीं? अर्जुन का भी कोई समाचार नहीं मिला; इससे आज मुझे अधिक दु:ख अच्छा, अब मैं अत्यन्त विश्वस्तहोकर शत्रुओं की प्रचण्ड सेना का विनाश करूँगा। यहाँ एकत्र हुई इस सेना को युद्धस्थल में नष्ट करके मैं तुम्हारे साथ ही आज प्रसन्नता का अनुभव करूँगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)
सूत! तुम मेरे रथ पर रखे हुए बाणों के सारे तरकसों की देखभाल करके ठीक-ठीक समझकर मुझे स्पष्ट रूप से बताओ कि अब उनमें कितने बाण अवशिष्ट रह गये हैं? किस-किस जाति के बाण बचे हैं और उनकी संख्या कितनी है? सारथे! शीघ्र बताओ, कौन बाण कितने हजार और कितने सौ शेष हैं'?
विशोक ने कहा ;– 'वीर! मैं आज सब कुछ पता लगा कर आपके मनोरथ की सिद्धि करने वाली बात बता रहा हूँ, कैकेय, काम्बोज, सौराष्ट्र, बाह्लिक, म्लेच्छ, सुह्म, परतंगण, मद्र, वंग, मगध, कुलिन्द, आनर्त, आवर्त और पर्वतीय सभी योद्धा हाथों में श्रेष्ठ आयुध लिये आपको चारों ओर से घेरकर युद्धस्थल में शत्रुओं का सामना करने के लिये गरज रहे हैं। वीरवर! अभी अपने पास साठ हजार मार्गण हैं, दस-दस हजार क्षुर और मल्ल हैं, दो हजार नारच शेष हैं तथा पार्थ! तीन हजार प्रदर बाकी रह गये हैं।
पाण्डुनन्दन! अभी इतने आयुध शेष हैं कि छ: बैलों से जुता हुआ छकड़ा भी उन्हें नहीं खींच सकता। विद्वन! इन सहस्रों अस्त्रों का आप प्रयोग कीजिये। अभी तो आपके पास बहुत यी गदाएँ, तलवारें और बाहुबल की सम्पत्ति हैं। इसी प्रकार बहुतेरे प्रास, मुद्गर, शक्ति और तोमर बाकी बचे हैं। आप इन आयुधों के समाप्त हो जाने के डर में न रहिये'।
भीमसेन बोले ;– 'सूत! आज इस युद्धस्थल की ओर दृष्टिपात करो। भीमसेन के छोड़े हुए अत्यन्ती वेगशाली बाणों ने राजाओं का विनाश करते हुए सारे रणक्षेत्र को आच्छादित कर दिया है, जिससे सूर्य भी अदृश्य हो गये हैं और यह भूमि यमलोक के समान भयंकर प्रतीत होती है। सूत! आज बच्चों से लेकर बूढ़ों तक समस्त भूपालों को यह विदित हो जायेगा कि भीमसेन समरसागर में डूब गये अथवा उन्होंने अकेले ही समस्त कौरवों को युद्ध में जीत लिया। आज युद्धस्थल में समस्त कौरव धराशायी हो जायँ अथवा बालकों से लेकर वृद्धों तक सब लोग मुझ भीमसेन को ही रणभूमि में गिरा हुआ बतावें! मैं अकेला ही उन समस्त कौरवों को मार गिराऊँगा अथवा वे ही सब लोग मुझ भीमसेन को पीड़ित करें। जो उत्तम कर्मों का उपदेश देने वाले हैं, वे देवता लोग मेरा केवल एक कार्य सिद्ध कर दें। जैसे यज्ञ में आवाहन करने पर इन्द्र देव तुरंत पदार्पण करते हैं, उसी प्रकार शत्रुघाती अर्जुन यहाँ शीघ्र ही आ पहुँचे।
विशोक! देखो, देखो, मेरा बल। मेरे आघातों से शत्रुओं की सेना विदीर्ण हो उठी हैं। देखो, धृतराष्ट्र के सभी बलवान पुत्र नाना प्रकार के आर्तनाद करते हुए भागने लगे हैं। सारथे! इस कौरव सेना पर तो दृष्टिपात करो। इसमें भी दरार पड़ती जा रही हैं। ये राजा लोग क्यों भाग रहे हैं? इससे तो स्पष्ट जान पड़ता है कि बुद्धिमान नरश्रेष्ठ अर्जुन आ गये। वे ही अपने बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक इस सेना को आच्छादित कर रहें है। विशोक! युद्धस्थल में भागते हुए रथों की ध्वजाओं, हाथियों, घोड़ों और पैदल समूहों को देखो। सूत! बाणों और शक्तियों से प्रताड़ित होकर बिखरे पड़े हुए इन रथों और रथियों पर भी दृष्टिपात करो। अर्जुन के बाण वज्र के समान वेगशाली हैं। उनमें सोने और मयूरपिच्छ के पंख लगे हैं। उन बाणों द्वारा आक्रान्त हुई वह कौरव सेना अत्यन्त मार पड़ने के कारण बारंबार आर्तनाद कर रही है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 26-40 का हिन्दी अनुवाद)
ये रथ, घोड़े और हाथी पैदल समूहों को कुचलते हुए भागे जा रहे हैं। प्राय: सभी कौरव अचेत से होकर दावानल के दाह से डरे हुए हाथियों के समान पलायन कर रहे हैं। विशोक! रणभूमि में सब ओर हाहाकार मचा हुआ है। बहुसंख्यक गजराज बड़े जोर-जोर से चीत्कार कर रहे हैं।
विशोक ने कहा ;– 'भीमसेन! क्रोध में भरे हुए अर्जुन के द्वारा खींच जाते हुए गाण्डीव धनुष की यह अत्यन्त भयंकर टंकार क्या आज आपको सुनायी नहीं दे रही है? आपके ये दोनों कान बहरे तो नहीं हो गये हैं? पाण्डुनन्दन! आपकी सारी कामनाएँ सफल हुई। हाथियों की सेना में अर्जुन के रथ की ध्वजा का वह वानर दिखायी दे रहा है। काले मेघ से प्रकट होने वाली बिजली के समान चमकती हुई गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा को देखिये। अर्जुन की ध्वजा के अग्रभाग पर आरूढ़ हो वह वानर सब ओर देखता और युद्धस्थल में शत्रुओं को भयभीत करता है। मैं स्वयं भी देखकर उससे डर रहा हूँ। धनंजय का यह विचित्र मुकुट अत्यन्त प्रकाशित हो रहा है। इस मुकुट में लगी हुई वह दिव्यमणी दिवाकर के समान देदीप्यमान होती है।
वीर! अर्जुन के पार्श्वभाग में श्वेत बादल के समान प्रकाशित होने वाला और गंभीर घोष करने वाला देवदत्त नामक भयानक शंख रखा हुआ है, उस पर दृष्टिपात कीजिये। साथ ही हाथों में घोड़ों की बागडोर लिये शत्रुओं की सेना में घुसे जाते हुए भगवान श्रीकृष्ण की बगल में सूर्य के समान प्रकाशमान चक्र विद्यमान हैं, जिसकी नाभि में वज्र और किनारे के भागों में छुरे लगे हुए हैं। भगवान केशव का वह चक्र उनका यश बढ़ाने वाला है। सम्पूर्ण यदुवंशी सदा उसकी पूजा करते हैं। आप उस चक्र को भी देखिये। अर्जुन के छुर नामक बाणों से कटे हुए बड़े-बड़े हाथियों के समान शुण्डदण्ड देवदारू के समान गिर रहे हैं। फिर उन्हीं किरीट के बाणों से छिन्न-भिन्न हो वज्र के मारे हुए पर्वतों के समान वे हाथी सवारों सहित धराशायी हो रहे हैं। कुन्तीनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण के इस बहुमूल्य पांचजन्य शंख को, जो चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण है, देखिये। साथ ही उनके वक्ष:स्थल पर अपनी प्रभा से प्रज्जवलित होने वाली कौस्तुभमणि तथा वैजयन्ती माला पर भी दृष्टिपात कीजिये। निश्चय ही रथियों में श्रेष्ठ कुन्तीनन्दन अर्जुन शत्रुओं की सेना को खदेड़ते हुए इधर ही आ रहे हैं।
सफेद बादलों के समान श्वेतकान्ति वाले उनके महामूल्यवान अश्व श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण द्वारा संचालित हो रहे हैं। देखिये, जैसे गरुड़ के पंख से उठी हुई वायु के द्वारा बड़े-बड़े़ जंगल धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार देवराज इन्द्र के तुल्य तेजस्वी आपके छोटे भाई अर्जुन बाणों द्वारा शत्रुओं के रथों, घोड़ों और पैदल समूहों को विदीर्ण कर रहे हैं और वे सब के सब पृथ्वी पर गिरते जा रहे हैं। वह देखिये, किरीटधारी अर्जुन ने समरांगण में सारथि और घोड़ों सहित इन चार सौ रथियों को मार डाला तथा अपने विशाल बाणों द्वारा सात सौ हाथियों, बहुत से पैदलों, घुड़सवारों और रथों का संहार कर डाला। विचित्र ग्रह के समान ये बलवान अर्जुन कौरवों का संहार करते हुए आपके निकट आ रहे हैं। अब आपकी कामना सफल हुई। आपके शत्रु मारे गये। इस समय चिरकाल के लिये आपका बल और आयु बढे़'।
भीमसेन ने कहा ;– 'विशोक! तुम अर्जुन के आने का समाचार सुना रहे हो। सारथे! इस प्रिय संवाद से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है; अत: मैं तुम्हें चौदह बडे़-बड़े गाँव की जागीर देता हूँ। साथ ही सौ दासियाँ तथा बीस रथ तुम्हें पारितोषिक के रूप में प्राप्त होंगे'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में भीमसेन और विशोक का संवाद विषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन और भीमसेन द्वारा कौरव सेना का संहार तथा भीमसेन से शकुनि की पराजय एवं दुर्योधनादि धृतराष्ट्र पुत्रों का सेना सहित भागकर कर्ण का आश्रय लेना”
संजय कहते हैं ;- राजन! उधर युद्धस्थल में शत्रुओं के रथों की घर्घराहट और सिंहनाद सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा,
अर्जुन ने कहा ;– प्रभो! घोड़ों को जल्दी-जल्दी हाँकियों। अर्जुन बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;– यह लो, मैं बहुत जल्दी उस स्थान पर जा पहुँचता हूँ , जहाँ भीमसेन खडे़ हैं। जैसे देवराज इन्द्र हाथ में वज्र लेकर जम्भासुर को मार डालने की इच्छा से मन में भयानक क्रोध भरकर चले थे, उसी प्रकार अर्जुन भी शत्रुओं को जीतने के लिये भयंकर क्रोध से युक्त हो सुवर्ण, मुक्ता और मणियों के जाल से आबद्ध हुए हिम और शंख के समान श्वेतकान्ति वाले अश्वों द्वारा यात्रा कर रहे थे। उस समय क्रोध में भरे हुए शत्रुपक्ष के पुरुषसिंह वीर, रथी, घुड़सवार, हाथीसवार और पैदलों के समूह अपने बाणों की सनसनाहट, पहियों की घर्घराहट तथा टापों के टप-टप की आवाज से सम्पूर्ण दिशाओं और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़े। मान्यवर! फिर तो त्रिलोकी के राज्य के लिये जैसे असुरों के साथ भगवान विष्णु का युद्ध हुआ था, उसी प्रकार विजयी वीरों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार अर्जुन का उन योद्धाओं के साथ घोर संग्राम होने लगा, जो उनके शरीर, प्राण और पापों का विनाश करने वाला था। उनके चलाये हुए छोटे-बडे़ समान अस्त्र-शस्त्रों को अकेले किरीटमाली अर्जुन ने छुर, अर्धचन्द्र तथा तीखे भल्लों से काट डाला। साथ ही उनके मस्तकों, भुजाओं, छत्रों, चँवरों, ध्वजाओं, अश्वों, रथों, पैदल समूहों तथा हाथियों के भी टुकडे़-टुकडे़ कर डाले।
वे सब अनेक टुकड़ों में बँटकर विरूप हो आँधी के उखाडे़ हुए वनों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े। सोने की जालियों से आच्छादित, वैजयन्ती ध्वजा से सुशोभित तथा योद्धाओं द्वारा सुसज्जित किये हुए बड़े-बड़े़ हाथी सुवर्णमय पंख वाले बाणों से व्याप्त हो प्रज्वलित पर्वतों के समान प्रकाशित हो रहे थे। जैसे पूर्वकाल में इन्द्र ने बलासुर का विनाश करने के लिये बड़े वेग से यात्रा की थी, उसी प्रकार अर्जुन कर्ण को मार डालने की इच्छा से इन्द्र के वज्रसदृश उत्तम बाणों द्वारा शत्रुओं के हाथी, घोड़ों और रथों को विदीर्ण करते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढे़। तदनन्तर जैसे मगर समुद्र में घुस जाता है, उसी प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह महाबाहु अर्जुन ने आपकी सेना के भीतर प्रवेश किया। राजन! उस समय हर्ष में भरे हुए आपके रथियों और पैदलों सहित हाथीसवार तथा घुड़सवार सैनिक जिनकी संख्या बहुत अघिक थी, पाण्डुपुत्र अर्जुन पर टूट पड़े। पार्थ पर आक्रमण करते हुए उन सैनिकों का महान कोलाहल विक्षुब्ध समुद्र के जल की गम्भीर ध्वनि के समान सब ओर गूँज उठा। वे महारथी संग्राम में प्राणों का भय छोड़कर बाघ के समान पुरुषसिंह अर्जुन की ओर दौडे़। परंतु जैसे आँधी बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन बाणों की वर्षापूर्वक आक्रमण करने वाले उन समस्त योद्धाओं का संहार कर डाला। तब वे महाधनुर्धर योद्धा संगठित हो रथसमूहों के साथ चढ़ाई करके अर्जुन को तीखे बाणों से घायल करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)
उन हर्ष भरे योद्धाओं ने शक्ति, तोमर, प्रास, कुणप, कूट, मुद्गर, शूल, त्रिशूल, परिघ, भिन्दिपाल, परशु, खड्ग, हेमदण्ड, डंडे, मुसल और हल आदि आयुधों द्वारा अर्जुन को सब ओर से ढक दिया। तब अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा शत्रु पक्ष के सहस्रों रथों, हाथियों और घोड़ों को यमलोक भेजना आरम्भ किया। अर्जुन के धनुष से छुटे हुए बाणों द्वारा समरांगण में मारे जाते हुए कौरव महारथी भय के मारे इधर उधर छिपने लगे। उनमें से चार सौ वीर महारथी यत्नपूर्वक लड़ते रहे, जिन्हें अर्जुन अपने पैने बाणों से यमलोक पहुँचा दिया। संग्राम में नाना प्रकार के चिह्नों से युक्त तीखे बाणों की मार खाकर वे सैनिक अर्जुन को छोड़कर दसों दिशाओं में भाग गये। युद्ध के मुहाने पर भागते हुए उन योद्धाओं का महान कोलाहल वैसा ही जान पड़ता था, जैसा कि समुद्र के महान जल प्रवाह के पर्वत से टकराने पर होता है। मान्यवर नरेश! उस सेना को अपने बाणों से अत्यन्त घायल करके भगा देने के पश्चात कुन्तीकुमार अर्जुन कर्ण की सेना के सामने चले। शत्रुओं की ओर उन्मुख हुए उन के रथ का महान शब्द वैसा ही प्रतीत होता था, जैसा कि पहले किसी सर्प को पकड़ने के लिये झपटते हुए गरुड़ के पंख से प्रकट हुआ था। उस शब्द को सुनकर महाबली भीमसेन अर्जुन के दर्शन की लालसा से बड़े प्रसन्न हुए।
महाराज! पार्थ का आना सुनते ही प्रतापी भीमसेन प्राणों का मोह छोड़कर आपकी सेना का मर्दन करने लगे। प्रतापी वायुपुत्र भीमसेन वायु के समान वेगशाली थे। बल और पराक्रम में भी वायु की ही समानता रखते थे। वे उस रणभूमि में वायु के समान विचरण करने लगे। महाराज! प्रजानाथ! राजेन्द्र! उनसे पीड़ित हुई आपकी सेना समुद्र में टूटी हुई नाव के समान पथभ्रष्ट होने लगी। उस समय भीमसेन अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए आपकी उस सेना को यमलोक भेजने के लिये भंयकर बाणों द्वारा छिन्न भिन्न करने लगे। भारत! उस समय प्रलयकालीन काल के समान भीमसेन के अलौकिक बल को देखकर रणभूमि में सारे योद्धा इधर-उधर भटकने लगे। भारतनन्दन! भंयकर बलशाली अपने सैनिकों को भीमसेन के द्वारा इस प्रकार देखकर राजा दुर्योधन ने उन से निम्नांकित वचन कहा। भरतश्रेष्ठ! उसने अपने महाधनुर्धर समस्त सैनिकों और योद्धाओं को रणभूमि में इस प्रकार आदेश देते हुए कहा-तुम सब लोग मिलकर भीमसेन को मार डालो। उनके मारे जाने मैं सारी पाण्डव सेना को मरी हुई ही मानता हूँ। आपके पुत्र की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके समस्त राजाओं ने चारों ओर से बाण वर्षा करके भीमसेन को ढक दिया। राजन! राजेन्द्र! बहुत से हाथियों, विजयाभिलाषी पैदल मनुष्यों तथा रथियों ने भी भीमसेन को घेर लिया था।
नरेश्वर! उन शूरवीरों द्वारा सब ओर से घिरे हुए शौर्यसम्पन्न भरतश्रेष्ठ भीम नक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित होने लगे। जैसे घेरे से घिरे हुए पूर्णिमा के चन्द्रमा प्रकाशित होते हों, उसी प्रकार युद्ध स्थल में दर्शनीय नरश्रेष्ठ भीमसेन शोभा पा रहा थे। महाराज! वे अर्जुन के समान ही प्रतीत होते थे। उनमें और अर्जुन में कोई अन्तर नहीं रह गया था। तदनन्तर क्रोध से लाल आँखें किये वे समस्त शूरवीर भूपाल भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद)
यह देखकर भीमसेन झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से उस विशाल सेना को विदीर्ण करके उसी प्रकार उस के घेरे से बाहर निकल आये, जैसे कोई-कोई मत्स्य पानी में डाले हुए जाल को छेदकर बाहर निकल जाता है। भारत! युद्ध से पीछे न हटने वाले दस हजार गजराजों, दो लाख और दो सौ पैदल मनुष्यों, पाँच हजार घोड़ों और सौ रथों को नष्ट करके भीमसेन ने वहाँ रक्त की नदी बहा दी। रक्त ही उस नदी का जल था, रथ भँवर के समान जान पड़ते थे, हाथी रूपी ग्राहों से वह नदी भरी हुई थी, मनुष्य, मत्स्य और घोड़े नाकों के समान जान पड़ते थे, सिर के बाल उसमें सवार और घास के समान थे। कटी हुई भुजाएँ बड़े-बड़े़ सर्पों का भ्रम उत्पन्न करती थीं। वह बहुत से रत्नों को बहाये लिये जाती थी। उसके भीतर पड़ी हुई जाँघें ग्राहों के समान जान पड़ती थीं। मज्जा पक्का काम देती थी, मस्तक पत्थर के टुकड़ों के समान वहाँ छा रहे थे, धनुष किनारे उगे हुए कास के समान जान पड़ते थे, बाण ही वहाँ के अंकुर थे, गदा और परिध सर्पों के समान प्रतीत होते थे। छत्र और ध्वज उसमें हंस के सदृश दिखायी पड़ते थे। पगड़ी फेन का भ्रम उत्पन्न करती थी। हार कमलवन के समान प्रतीत होते थे।
धरती की धूल तरंगमाला बनकर शोभा दे रही थी। योद्धा ग्राह आदि जल जन्तुओं से प्रतीत होते थे। युद्धस्थल में बहने वाली वह रक्त नदी यमलोक की ओर जा रही थी, वैतरणी के समान वह सदाचारी पुरुषों के लिये सुगमता से पार होने योग्य और कायरों के लिये दुस्तर थी। पुरुषसिंह भीमसेन ने क्षणभर में वैतरणी के समान भयंकर रक्त की नदी बहा दी थी। वह अकृतात्मा पुरुषों के लिये दुस्तर, घोर एवं भीरू पुरुषों का भय बढ़ाने वाली थी। रथियों में श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन भीमसेन जिस-जिस ओर घुसते, उसी ओर लाखों योद्धाओं का संहार कर डालते थे। महाराज! युद्धस्थल में भीमसेन के द्वारा किये गये ऐसे कर्म को देखकर दुर्योधन ने शकुनि से कहा- मामा जी! आप संग्राम में महाबली भीमसेन को मार डालिये। यदि इनको जीत लिया गया तो मैं समझूँगा कि पाण्डवों की विशाल सेना ही जीत ली गयी।
महाराज! तब भाइयों से घिरा हुआ प्रतापी सुबलपुत्र शकुनि महान युद्ध के लिये उद्यत हो आगे बढ़ा। संग्राम में भयानक पराक्रमी भीमसेन के पास पहुँचकर उस वीर ने उन्हें उसी तरह रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को रोक देती है। राजेन्द्र! उसके तीखे बाणों से रोके जाते हुए भीमसेन उसी की ओर लौट पड़े! उस समय शकुनि ने उनकी बायीं पसली और छाती में सोने के पंख वाले और शिला पर तेज किये हुए कई नाराच मारे। महाराज! कंक और मयूर के पंख वाले वे भयंकर नाराच महामनस्वी पाण्डुपुत्र भीमसेन का कवच छेदकर उनके शरीर में डूब गये। भारत! तब रणभूमि में अत्यन्त घायल हुए भीमसेन ने कुपित हो शकुनि की ओर एक सुवर्णभूषित बाण चलाया। राजन! शत्रुओं को संताप देने वाला महाबली शकुनि सिद्धहस्त था। उसने अपनी ओर आते हुए उस भंयकर बाण के सात टुकड़े कर डाले।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 55-79 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उस बाण के धराशायी हो जाने पर भीमसेन ने क्रोधपूर्वक हँसते हुए-से एक भल्ल मारकर शकुनि के धनुष को काट दिया। प्रतापी सुबलपुत्र शकुनि ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर बड़े वेग से दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और उसके द्वारा सोलह भल्ल चलाये। महाराज! झुकी हुई गाँठ वाले उन भल्लों में से दो के द्वारा शकुनि ने भीमसेन के सारथि को और सात से स्वयं भीमसेन को भी घायल कर दिया। प्रजानाथ! फिर सुबलपुत्र ने एक बाण से ध्वज को, दो बाणों से छत्र को और चार बाणों से उनके चारों घोड़ो को भी घायल कर दिया। महाराज! तब क्रोध में भरे हुए प्रतापी भीमसेन ने समरांगण में शकुनि पर सुवर्णमय दण्ड वाली एक लोहे की शक्ति चलायी। भीमसेन के हाथों से छूटी हुई सर्प की जिह्वा के समान वह चंचल शक्ति रणभूमि में तुरंत ही महामना शकुनि पर जा पड़ी। राजन! क्रोध में भरे हुए शकुनि ने उस सुवर्णभूषित शक्ति को हाथ से पकड़ लिया और उसी को भीमसेन पर दे मारा। आकाश से गिरी हुई बिजली के समान वह शक्ति महामनस्वी पाण्डुपुत्र भीमसेन की बायीं भुजा को विदीर्ण करके तत्काल भूमि पर गिर पड़ी।
महाराज! यह देखकर धृतराष्ट्र के पुत्रों ने चारों ओर से गर्जना की; परंतु भीमसेन उन वेगशाली वीरों का वह सिंहनाद नहीं सह सके। राजेन्द्र! महाबली भीम ने बड़ी उतावली के साथ दूसरा धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ायी और युद्ध में अपने जीवन का मोह छोड़कर सुबलपुत्र की सेना को उसी समय बाणों द्वारा ढक दिया। प्रजानाथ! पराक्रमी भीमसेन ने फुर्ती दिखाते हुए शकुनि के चारों घोड़ों और सारथि को मारकर एक भल्ल के द्वारा उसके ध्वज को भी काट दिया। उस समय नरश्रेष्ठ शकुनि उस अश्वहीन रथ को छोड़कर क्रोध से लाल आँखें किये लंबी साँस खीचता और धनुष की टंकार करता हुआ तुरंत भूमि पर खड़ा हो गया। राजन! उस ने अपने बाणों द्वारा भीमसेन पर सब ओर से बारंबार प्रहार किया, किंतु प्रतापी भीमसेन ने बड़े वेग से उसके बाणें को नष्ट करके अत्यन्त कुपित हो उसका धनुष काट डाला और पैने बाणों से उसे घायल कर दिया। बलवान शत्रु के द्वारा अत्यन्त घायल किया हुआ शत्रुसूदन राजा शकुनि तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय उस में जीवन का कुछ-कुछ लक्षण शेष था। प्रजानाथ! उसे विह्बल जानकर आपका पुत्र दुर्योधन रणभूमि में रथ के द्वारा भीमसेन के देखते-देखते अन्यत्र हटा ले गया।
संजय बोले ;- राजन! पुरुषसिंह भीमसेन रथ पर ही बैठे रहे। उनसे महान भय प्राप्त होने के कारण धृतराष्ट्र के सभी पुत्र युद्ध से मुँह मोड़, डरकर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। राजन! धनुर्धर भीमसेन के द्वारा शकुनि के परास्त हो जाने पर आपके पुत्र दुर्योधन को बड़ा भय हुआ। वह मामा के जीवन की रक्षा चाहता हुआ वेगशाली घोड़ों द्वारा वहाँ से भाग निकला। भारत! राजा दुर्योधन को युद्ध से विमुख हुआ देख सारी सेनाएँ सब ओर से द्वैरथ युद्ध छोड़कर भाग चली। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को युद्ध से विमुख होकर भागते देख भीमसेन कई सौ बाणों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से उन पर टूट पड़े। राजन! समरांगण में भीमसेन की मार खाकर युद्ध से विमुख हुए धृतराष्ट्र के पुत्र सब ओर से कर्ण के पास जाकर खड़े हुए। उस समय महापराक्रमी महाबली कर्ण ही उन भागते हुए कौरवों के लिये द्वीप के समान आश्रयदाता हुआ। पुरुषसिंह! नरेश्वर! जैसे टूटी हुई नौका वाले नाविक कुछ काल के पश्चात किसी द्वीप की शरण लेकर संतुष्ट होते हैं, उसी प्रकार आपके सैनिक कर्ण के पास पहुँचकर परस्पर आश्वासन पाकर निर्भय खड़े हुए। फिर मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्त होने की सीमा निश्रित करके वे युद्ध के लिये आगे बढ़े।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में शकुनि की पराजय विषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के द्वारा पांडव सेना का संहार और पलायन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! युद्धस्थल में भीमसेन के द्वारा जब कौरव सेनाएँ भगा दी गयीं, तब दुर्योधन, शकुनि, विजयी वीरों में श्रेष्ठ कर्ण, मेरे अन्य योद्धा कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा अथवा दुःशासन ने क्या कहा? मैं पाण्डुनन्दन भीमसेन का पराक्रम बड़ा अद्भुत मानता हूँ कि उन्होंने अकेले ही समरांगण में मेरे समस्त योद्धाओं के साथ युद्ध किया। शत्रुसूदन राधापुत्र कर्ण ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सारा कार्य किया। संजय! वही समस्त कौरव योद्धाओं का कल्याणकारी आश्रय, कवच के समान संरक्षक, प्रतिष्ठा और जीवन की आशा था। अमित तेजस्वी कुन्तीपुत्र भीमसेन के द्वारा अपनी सेना को भगायी गयी देख अधिरथ और राधा के पुत्र कर्ण ने युद्ध में कौन-सा पराक्रम किया? संजय! यह सब वृतान्त मुझे बताओ, क्योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो।
संजय बोला ;- महाराज! प्रतापी सूतपुत्र ने अपराह्न काल में भीमसेन के देखते-देखते समस्त सोमकों का संहार कर डाला। इसी प्रकार भीमसेन ने भी कौरवों की अत्यन्त बलवती सेना को मार गिराया। तत्पश्चात कर्ण ने शल्य से कहा,
कर्ण ने कहा ;- मुझे पांचालों के पास ले चलो। बुद्धिमान भीमसेन के द्वारा कौरव सेना को भगायी जाती देख रथी कर्ण ने सारथि शल्य से कहा,- मुझे पांचालों की ओर ही ले चलो। तब महाबली मद्रराज शल्य ने महान वेगशाली श्वेत अश्वों को चेदि, पांचाल और करूषों की ओर हाँक दिया। शुत्र सेना को पीड़ित करने वाले शल्य ने उस विशाल सेना में प्रवेश करके जहाँ सेनापति की इच्छा हुई, वहीं बड़े हर्ष के साथ घोड़ों को रोक दिया।
प्रजानाथ! व्याघ्रचर्म से आच्छादित और मेघ गर्जन के समान गम्भीर घोष करने वाले उस रथ को देखकर पाण्डव तथा पांचाल सैनिक त्रस्त हो उठे। तदनन्तर उस महायुद्ध में फटते हुए पर्वत और गर्जते हुए मेघ के समान उस के रथ का गम्भीर घोष प्रकट हुआ। तत्पश्चात कर्ण ने कान तक खींचकर छोड़े गये सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा पांडव सेना के सैकड़ों और हजारों वीरों का संहार कर डाला। संग्राम में ऐसा पराक्रम प्रकट करने वाले उस अपराजित वीर को महाधनुर्धर पाण्डव महारथियों ने चारों ओर से घेर लिया। शिखण्डी, भीमसेन, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, नकुल-सहदेव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र और सात्यकि ने अपने बाणों की वर्षा द्वारा राधापुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा से उसे सब ओर से घेर लिया। उस समय शूरवीर नरश्रेष्ठ सात्यकि ने रणभूमि में बीस पैने बाणों द्वारा कर्ण के गले की हँसली पर प्रहार किया।
शिखण्डी ने पच्चीस, धृष्टद्युम्न ने सात, द्रौपदी के पुत्रों ने चौसठ, सहदेव ने सात और नकुल ने सौ बाणों द्वारा कर्ण को युद्ध में घायल कर दिया। तदनन्तर महाबली भीमसेन ने समरभूमि में कुपित हो राधापुत्र कर्ण के गले की हँसली पर झुकी हुई गाँठ वाले नब्बे बाणों का प्रहार किया। तब अधिरथपुत्र महाबली कर्ण ने हँसकर अपने उत्तम धनुष की टंकार की और उन सबको पीड़ा देते हुए उन पर पैने बाणों का प्रहार आरम्भ किया। भरत श्रेष्ठ! राधापुत्र कर्ण ने पाँच-पाँच बाणों से उन सब को घायल कर दिया। फिर सात्यकि का ध्वज और धनुष काटकर उनकी छाती में नौ बाणों का प्रहार किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद)
आर्य! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए कर्ण ने भीमसेन को तीस बाणों से घायल किया और एक भल्ल से सहदेव की ध्वजा काट डाली। इतना ही नहीं, शत्रुओं को संताप देने वाले कर्ण ने तीन बाणों से सहदेव के सारथि को भी मार डाला औेर पलक मारते-मारते द्रौपदी के पुत्रों को रथहीन कर दिया! भरतश्रेष्ठ! वह अद्भुत-सा कार्य हुआ। उसने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से उन समस्त वीरों को युद्ध से विमुख करके पांचाल वीरों और चेदि-देशीय महारथियों को मारना आरम्भ किया। प्रजानाथ! समर में घायल होते हुए भी चेदि औेर मत्स्य देश के वीरों ने एकमात्र कर्ण पर धावा करके उसे बाण-समूहों से ढक दिया। महारथी सूतपुत्र ने पैने बाणों से उन सब को घायल कर दिया। प्रजानाथ! समर में मारे जाते हुए चेदि और मत्स्य देश के वीर सिंह से डरे हुए मृगों के समान रणभूमि में कर्ण से भयभीत होकर भागने लगे। भारत! महाराज! यह अद्भुत पराक्रम मैनें अपनी आँखों देखा था कि अकेले प्रतापी सूतपुत्र ने समरांगण में पूरी शक्ति लगाकर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने वाले पाण्डव पक्षीय धनुर्धर वीरों को अपने बाणों द्वारा रणभूमि में आगे बढ़ने से रोक दिया।
भरतनन्दन! वहाँ महामनस्वी कर्ण की फुर्ती देखकर चारणों सहित सिद्धगण और सम्पूर्ण देवता बहुत संतुष्ट हुए। धृतराष्ट्र के महाधनुर्धर पुत्र सम्पूर्ण धनुर्धरों तथा रथियों में श्रेष्ठ नरोत्तम कर्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। महाराज जैसे ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त प्रज्वलित हुई आग सूखे काठ एवं घास-फूस को जला देती है, उसी प्रकार कर्ण शत्रुसेना को दग्ध करने लगा। कर्ण के द्वारा मारे जाते हुए पाण्डव सैनिक रणभूमि में उस महारथी वीर को देखते ही भयभीत हो जहाँ-तहाँ से भागने लगे। कर्ण के धनुष से छूटे हुए तीखे बाणों द्वारा मारे जाने वाले पांचालों का महान आर्तनाद उस महासमर में गूँजने लगा। उस घोर शब्द से पाण्डवों की विशाल सेना भयभीत हो उठी। शत्रुओं के सभी सैनिक रणभूमि में एकमात्र कर्ण को ही सर्वश्रेष्ठ योद्धा मानने लगे। शत्रुसूदन राधापुत्र ने पुनः वहाँ अद्भुत पराक्रम प्रकट किया, जिससे समस्त पाण्डव-योद्धा उसकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सके। जैसे जल का महान प्रवाह किसी ऊँचे पर्वत से टकराकर कई धाराओं में बँट जाता है, उसी प्रकार पाण्डव सेना कर्ण के पास पहुँचकर तितर-बितर हो जाती थी।
राजन! समरांगण में धूमरहित अग्नि के समान प्रज्वलित होने वाला महाबाहु कर्ण भी पाण्डवों की विशाल सेना को दग्ध करता हुआ स्थिर भाव से खड़ा रहा। महाराज! वीर कर्ण ने बाणों द्वारा पाण्डव-पक्ष के वीरों के मस्तक, कुण्डल सहित कान तथा भुजाएँ शीघ्रतापूर्वक काट डाली। राजन! योद्धाओं के व्रत का पालन करने वाले कर्ण ने हाथी-दाँत की बनी हुई मूँठ वाले खड्गों, ध्वजों, शक्तियों, हाथियों, नाना प्रकार के रथों, पताकाओं, व्यजनों, धुरों, जूओं, जोतों, और भाँति-भाँति के पहियों के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। भारत! वहाँ कर्ण द्वारा मारे गये हाथियों और घोड़ों की लाशों से पृथ्वी पर चलना असम्भव हो गया। रक्त औेर मांस की कीच जम गयी। मरे हुए घोड़ों, पैदलों, रथों और हाथियों से पट जाने के कारण वहाँ की ऊँची-नीची भूमि का कुछ पता नहीं लगता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 45-64 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण का अस्त्र जब वेगपूर्वक बढ़ने लगा तो वहाँ बाणों से घोर अन्धकार छा गया। उसमें अपने और शत्रुपक्ष के योद्धा परस्पर पहचाने नहीं जाते थे। महाराज! राधापुत्र के धनुष से छूटे हुए सुवर्णभूषित बाणों द्वारा समस्त पाण्डव महारथी आच्छादित हो गये। महाराज! समरभूमि में प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने वाले पाण्डव पक्ष के महारथी राधापुत्र कर्ण के द्वारा बारंबार भागने को विवश कर दिये जाते थे। जैसे वन में कुपित हुआ सिंह मृग समूहों को खदेड़ता रहता है, उसी प्रकार शत्रुपक्ष के पांचाल महारथियों को भगाता हुआ महायशस्वी कर्ण समरांगण में समस्त योद्धाओं को त्रास देने लगा। जैसे भेड़िया पशु समूहों को भयभीत करके भगा देता है, उसी प्रकार कर्ण ने पाण्डव सेना को खदेड़ दिया। पाण्डव सेना को युद्ध से विमुख हुई देख आपके महाधनुर्धर पुत्र भीषण गर्जना करते हुए वहाँ आ पहुँचे।
राजेन्द्र! उस समय दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह हर्ष में भरकर सब ओर नाना प्रकार बाजे बजवाने लगा। उस समय वहाँ भगे हुए महाधनुर्धर नरश्रेष्ठ पांचाल मृत्यु को ही युद्ध से लौटने की अवधि निश्चित करके पुन: सूतपुत्र कर्ण से जूझने के लिये लौटे हुए आये। महाराज! शत्रुओं को संताप देने वाला पुरुषश्रेष्ठ राधापुत्र कर्ण उन लौटे हुए शूरवीरों को रणभूमि में बारंबर भगा देता था। भरतनन्दन! कर्ण ने वहाँ बाणों द्वारा बीस पांचाल रथियों और सौ से भी अधिक चेदिदेशीय योद्धाओं को क्रोधपूर्वक मार डाला। भारत! उसने रथ की बैठकें सूनी कर दीं, घोड़ों की पीठें खाली कर दीं, हाथियों के पीठों और कंधों पर कोई मनुष्य नहीं रहने दिये और पैदलों को भी मार भगाया। इस प्रकार शत्रुओं को तपाने वाला कर्ण मध्याह्नकाल के सूर्य की भाँति तप रहा था। उस समय उसकी ओर देखना कठिन हो गया था।
शूरवीर सूतपुत्र का शरीर काल और अन्तक के समान सुशोभित हो रहा था। महाराज! इस प्रकार शत्रुसूदन महाधनुर्धर कर्ण शत्रुपक्ष के पैदल, घोड़े, रथ और हाथियों का संहार करके काल खड़ा हो, उसी प्रकार महाबली महारथी कर्ण सोमकों का विनाश करके युद्धभूमि में अकेला ही डटा रहा। वहाँ हम लोगों ने पांचाल वीरों का यह अदुभत पराक्रम देखा कि वे मारे जाने पर भी युद्ध के मुहाने पर कर्ण को छोड़कर पीछे न हटे। राजा दुर्योधन, दुःशासन, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा और महाबली शकुनि ने भी पाण्डव सेना के सैकड़ों-हजारों वीरों का संहार का डाला। राजेन्द्र! कर्ण के दो सत्यपराक्रमी पुत्र शेष रह गये थे। वे दोनों भाई क्रोधपूर्वक इधर-उधर से पाण्डव सेना का विनाश करते थे। इस प्रकार वहाँ महान संहारकारी एवं क्रूरतापूर्ण भारी युद्ध हुआ। इसी तरह पाण्डववीर धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और द्रौपदी के पांचों पुत्र आदि ने भी कुपित होकर आपकी सेना का संहार किया। इस प्रकार कर्ण को पाकर जहाँ-तहाँ पाण्डव योद्धाओं का संहार हुआ और महाबली भीमसेन को पाकर रणभूमि मैं आपके योद्धाओं का भी महान विनाश हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का कौरव सेना को विनाश करके खून की नदी बहा देना और अपना रथ कर्ण के पास ले चलने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण से कहना तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन को आते देख शल्य और कर्ण की बातचीत तथा अर्जुन द्वारा कौरव सेना का विध्वंस”
संजय कहते है ;- महाराज! उस महासागर मैं शत्रुवीरो का संहार करने वाले अर्जुन ने क्रोध मैं भरे हुए सूतपुत्र को देखकर कौरवों की चतुरंगिणी सेना का विनाश करके वहाँ रक्त की नदी बहा दी। जिसमें जल के स्थान मैं इस पृथ्वी पर रक्त ही बह रहा था; मांस-मज्जा और हड्डियां कीचड़ का काम दे रही थी। मनुष्यों के कटे हुए मस्तक पत्थरों के टुकडों के समान जान पडते थे, हाथी और घोड़ों की लाशें कगार बनी हुई थी, शूरवीरों की हड्डियों के ढेर वहाँ वहाँ हर सब और बिखरे हुए थे, कौए और गीध वहाँ अपनी बोली बोल रहे थे, छत्र ही हंस और छोटी नौका का काम कर देते थे, वीरों के शरीररूपी वृक्ष को वह नदी बहाये लिये जाती थी, उसमें हार ही कमलवन और सफेद पगड़ी की फेन थी, धनुष और बाण वहाँ मछली के समान जान पड़ते थे, मनुष्यों की छोटी-छोटी खोपड़ियां वहाँ बिखरी पड़ी थी, ढाल और कवच ही उसमें भंवर के समान प्रतीत होते थे, रथरूपी छोटी नौका से व्याप्त वह नदी विजयाभिलाशी वीरों के लिये सुगमतापूर्वक पार होने योग्य और कायरों के लिये अत्यन्त दुस्तर थी। उस नदी को बहाकर पुरुषप्रवर अर्जुन ने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा।
अर्जुन बोले ;- श्रीकृष्ण! रणभूमि मैं वह सूतपुत्र कर्ण की ध्वजा दिखायी देती है। ये भीमसेन आदि महारथी कर्ण से युद्ध करते हैं। जर्नादन! ये पांचाल योद्धा कर्ण से डरकर भाग रहे थे, यह राजा दुर्योधन है, जिसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ है और कर्ण ने जिनके पांव उखाड़ दिये हैं उन पांचालों को खदेड़ता हुआ यह बड़ी शोभा पा रहा है।
कृपाचार्य, कृतवर्मा और महारथी अश्वत्थामा- ये सूतपुत्र से सुरक्षित जो राजा दुर्योधन की रक्षा करते हैं। यदि हम इन तीनों को नहीं मारते हैं तो ये सोमकों का संहार कर डालेंगे। श्रीकृष्ण! घोड़ों की बागडोर संचालन करने की कला मैं कुशल ये राजा शल्य रथ के निचले भाग मैं बैठकर सूतपुत्र का रथ हांकते बड़ी शोभा पाते हैं। जनार्दन! यहाँ मेरा ऐसा विचार हो रहा है कि आप मेरे इस विशाल रथ को वहीं हांक ले चलें (जहाँ कर्ण खड़ा है)। मैं समरांगण मैं कर्ण का वध किये बिना किसी प्रकार पीछे नहीं लौटूंगा। अन्यथा राधापुत्र हमारे देखते-देखते पाण्डव तथा सृंजय महारथियों को समरभूमि मैं निःशेष कर देगा-किसी को जीवित नहीं छोड़ेगा।
तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण रथ के द्वारा शीघ्र ही सव्यसाची अर्जुन के साथ कर्ण का द्वैरथ युद्ध कराने के लिये आपकी सेना मैं महाधनुर्धर कर्ण की और चले। अर्जुन की अनुमति से महाबाहु श्रीकृष्ण रथ के द्वारा ही पाण्डव-सेनाओं को सब ओर से आश्वासन देते हुए आगे बढे़। मान्यवर नरेश! संग्राम मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन के रथ का वह घर्घर घोष इन्द्र के वज्र की गड़गड़ाहट तथा मेघसमूहों की गर्जना के समान प्रतीत होता था। सत्यपराक्रमी पाण्डव अर्जुन अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न थे। वे महान रथघोष द्वारा आपकी सेना को परास्त करते हुए आगे बढ़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
संजय बोले ;- राजन! श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन श्वेतावाहन अर्जुन को आते देख और उन महात्मा की ध्वजा पर दृष्टिपात करके मद्रराज शल्य ने कर्ण से कहा,
शल्य ने कहा ;- ‘कर्ण! तुम जिसके विषय मैं पूछ रहे थे, वही यह श्वेत घोड़ों वाला रथ, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं, समरांगण में शत्रुओं का संहार करता हुआ इधर ही आ रहा है। ये कुन्तीकुमार अर्जुन हाथ मैं गाण्डीव धनुष लिये हुए खडे़ हैं। यदि तुम आज उनको मार डालागे तो वह हम लोगों के लिये श्रेयस्कर होगा। कर्ण! देखो, अर्जुन के धनुष की यह प्रत्यंचा तथा चन्द्रमा और तारों से चिह्नित यह रथ की पताका है, जिसमें छोटी-छोटी घंटिया लगी हैं, वह आकाश मैं बिजली के समान चमक रही है। कुन्तीकुमार अर्जुन की ध्वजा के अग्रभाग मैं एक भयंकर वानर दिखायी देता है, जो सब और देखता हुआ कौरव वीरों का भय बढ़ा रहा है। पाण्डुपुत्र के रथ पर बैठकर घोडे़ हांकते हुए भगवान श्रीकृष्ण के ये चक्र, गदा, शंख तथा शांर्ग धनुष दष्टिगोचर हो रहे हैं। यह युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते, उन राजाओं के कटे हुए मस्तकों से यह रणभूमि पटी जा रही है। उन मस्तकों के नेत्र बड़े-बड़े़ और लाल हैं तथा मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर है।
रणवीरों की ये अस्त्र-शस्त्रों सहित उठी हुई भुजाएं, जो परिघों के समान मोटी तथा पवित्र सुगन्धयुक्त चन्दन से चर्चित हैं, काटकर गिरायी जा रही हैं। ये कौरवपक्ष के सवारों सहित घोडे़ क्षत-विक्षत हो, अर्जुन के द्वारा गिराये जा रहे हैं। इनकी जीभें और आंखें बाहर निकल आयी हैं। ये गिरकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। ये हिमाचल प्रदेश के हाथी, जो पर्वत-शिखरों के समान जान पड़ते हैं, पर्वतों के समान धराशायी हो रहे हैं। अर्जुन ने इसके कुम्भस्थल काट डाले हैं। ये गन्धर्व-नगर के समान विशाल रथ हैं, जिनसे ये मारे गये राजा लोग उसी प्रकार नीचे गिर रहे हैं, जैसे पुण्य समाप्त होने पर स्वर्गवासी प्राणी विमान से नीचे गिर जाते हैं। किरीटधारी अर्जुन ने शत्रुसेना को उसी प्रकार अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, जैसे सिंह नाना जाति के सहस्रों मृगों के झुंड को व्याकुल कर देता हैं। राधापुत्र कर्ण! अर्जुन बड़े-बडे़ राथियों का संहार करते हुए तुम्हें ही प्राप्त करने के लिये इधर आ रहे हैं। ये शत्रुओं के लिये असह्य हैं। तुम इन भरतवंशी वीर का सामना करने करने के लिये आगे बढ़ो।
कर्ण! तुम दया और प्रमाद छोड़कर भृगुवंशी परशुराम जी के दिये हुए अस्त्र का स्मरण करो, उनके उपदेश के अनुसार लक्ष्य की ओर दृष्टि रखना, धनुष को अपनी मुट्ठी से दृढ़तापूर्वक पकडे़ रहना और बाणों का संधान करना आदि बातें याद करके मन मैं विजय पाने की इच्छा लिये महारथी अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ो। अर्जुन थोड़ी ही देर मैं बहुत-से शत्रुओं का संहार कर डालते हैं, इसलिये उनके भय से दुर्योधन की यह सेना चारों ओर से छिन्न-भिन्न होकर भागी जा रही है। इस समय अर्जुन का शरीर जैसा उत्तेजित हो रहा है उससे मैं समझता हूँ कि वे सारी सेनाओं को छोड़कर तुम्हारे पास पहुँचने के लिये जल्दी कर रहे हैं। भीमसेन के पीड़ित होने से अर्जुन क्रोध से तमतमा उठे हैं, इसलिये आज तुम्हारे सिवा और किसी से युद्ध करने के लिये वे नहीं रुक सकेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद)
तुमने धर्मराज युधिष्ठिर को अत्यन्त घायल करके रथहीन कर दिया है। शिखण्डी, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्रों, उत्तमौजा, युधामन्यु तथा दोनों भाई नकुल-सहदेव को भी तुम्हारे हाथों बहुत चोट पहुँची है। यह सब देखकर शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त कुपित-हो उठे हैं। उनके नेत्र रोष से रक्तवर्ण हो गये हैं, अतः वे समस्त राजाओं का संहार करने की इच्छा से एकमात्र रथ के साथ सहसा तुम्हारे ऊपर चढे़ आ रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि वे सारी सेनाओं को छोड़कर बड़ी उतावली के साथ हम लोगों पर टूट पड़े हैं; अतः कर्ण! अब तुम भी इनका सामना करने के लिये आगे बढ़ो, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई धनुर्धर ऐसा करने मैं समर्थ नहीं है। इस संसार में मैं तुम्हारे सिवा दूसरे किसी धनुर्धर को ऐसा नहीं देखता, जो समुद्र मैं उठे हुए ज्वार के समान समरांगण में कुपित हुए अर्जुन को रोक सके। मैं देखता हूँ कि अलग-अलग से या पीछे की ओर से उनकी रक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया है। वे अकेले ही तुम पर चढ़ाई कर रहे हैं; अतः देखो, तुम्हें अपनी सफलता के लिये कैसा सुन्दर अवसर हाथ लगा है।
राधापुत्र! रणभूमि में तुम्हीं श्रीकृष्ण और अर्जुन को परास्त करने की शक्ति रखते हो, तुम्हारे ऊपर ही यह भार रखा गया है; इसलिये तुम अर्जुन को रोकने के लिये आगे बढ़ो। तुम भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के समान पराक्रमी हो, अतः इस महासमर मैं आक्रमण करते हुए सव्यसाची अर्जुन को रोको। कर्ण! जीभ लपलपाते हुए सर्प, गर्जते हुए सांड़ और वनवासी व्याघ्र के समान भयंकर अर्जुन का तुम वध करो। देखो! समरभूमि में दुर्योधन की सेना के ये महारथी नरेश अर्जुन के भय से आत्मीयजनों की भी अपेक्षा न रखकर बड़ी उतावली के साथ भागे जा रहे हैं। सूतनन्दन! इस युद्धस्थल मैं तुम्हारे सिवा ऐसा कोई भी वीर पुरुष नहीं है, जो उन भागते हुए नरेशों का भय दूर कर सके। पुरुषसिंह! इस समुद्र- जैसे युद्धस्थल मैं तुम द्वीप के समान हो। ये समस्त कौरव तुमसे शरण पाने की आशा रखकर, तुम्हारे ही आश्रम मैं आकर खड़े हुए हैं।
राधानन्दन! तुमने जिस धैर्य से पहले अत्यन्त दुर्जय विदेह, अम्बष्ठ, काम्बोज, नग्नजित तथा गान्धारगणों को युद्ध में पराजित किया था, उसी को पुनः अपनाओ और पाण्डुपुत्र अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ो। महाबाहो! तुम महान पुरुषार्थ में स्थित होकर अर्जुन से सतत प्रसन्न रहने वाले वृष्णिवंशी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का भी सामना करो। जैसे पूर्वकाल में तुमने अकेले ही सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पायी थी, इन्द्र की दी हुई शक्ति से भीमपुत्र घटोत्कच का वध किया था, उसी तरह इस सारे बल-पराक्रम आश्रय ले कुन्तीपुत्र अर्जुन को मार डालो।
कर्ण ने कहा ;- शल्य! इस समय तुम अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो और मुझसे सहमत जान पड़ते हो। महाबाहो! तुम अर्जुन से डरो मत। आज मेरी इन दोनों भुजाओं का बल देखो और मेरी शिक्षा की शक्ति पर भी दृष्टिपात करो। आज में अकेला ही पाण्डवों की विशाल सेना का संहार कर डालूंगा। पुरुषसिंह! में तुमसे सच्ची बात कहता हूँ कि युद्धस्थल में उन दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध किये बिना में किसी तरह पीछे नहीं हटूँगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 52-65 का हिन्दी अनुवाद)
अथवा उन्हीं दोनों के हाथों मारा जाकर सदा के लिये सो जाऊंगा; क्योंकि रण में विजय अनिश्चित होती है। आज में उन दोनों को मारकर अथवा मारा जाकर सर्वथा कृतार्थ हो जाऊँगा।
शल्य ने कहा ;- कर्ण! रथियों में प्रमुख वीर अर्जुन अकेले भी हों तो महारथी योद्धा उन्हें युद्ध में अजेय बताते हैं, फिर इस समय तो वे श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; ऐसी दशा में कौन इन्हें जीतने का साहस कर सकता है?
कर्ण बोला ;- शल्य! मैंने जहाँ तक सुना है, वहाँ तक संसार में ऐसा श्रेष्ठ महारथी वीर कभी नहीं उत्पन्न हुआ, ऐसे कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ में महासमर में युद्ध करूंगा, मेरा पुरुषार्थ देखो। ये रथियों में प्रधान वीर कौरवराजकुमार अर्जुन अपने श्वेत अश्वों द्वारा रणभूमि में विचर रहे हैं। ये आज मुझे मृत्यु के संकट में डाल देंगे और मुझ कर्ण का अन्त होने पर कौरव दल के अन्य समस्त योद्धाओं का विनाश भी निश्चित ही है। राजकुमार अर्जुन के दोनों विशाल हाथों में कभी पसीना नहीं होता, उसमें धनुष की प्रत्यंचा के चिह्न बन गये हैं और वे दोनों हाथ कांपते नहीं हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र भी सृदढ़ हैं। वे विद्वान एवं शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले हैं।
पाण्डुपुत्र अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा नहीं हैं। वे कंकपत्रयुक्त अनेक बाणों को इस प्रकार हाथ में लेते हैं, मानो एक ही बाण हो और उन सबको शीघ्रतापूर्वक धनुष पर रखकर चला देते हैं। वे अमोघ बाण एक कोस दूर जाकर गिरते हैं; अतः इस पृथ्वी पर उनके समान दूसरा योद्धा कौन है? उन वेगशाली और अतिरथी वीर अर्जुन ने अपने दूसरे साथी श्रीकृष्ण के साथ जाकर खाण्डववन में अग्निदेव को तृप्त किया था, जहाँ महात्मा श्रीकृष्ण को तो चक्र मिला और पाण्डुपुत्र सव्यसाची अर्जुन ने गाण्डीव धनुष प्राप्त किया। उदार अन्तःकरण वाले महाबाहु अर्जुन ने अग्निदेव से श्वेत घोड़ों से जुता हुआ गम्भीर घोष करने वाला एवं भयंकर रथ, दो दिव्य विशाल और अक्षय तरकस तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। उन्होंने इन्द्रलोक में जाकर असंख्य कालकेष नामक सम्पूर्ण दैत्यों का संहार किया और वहाँ देवदत्त नामक शंख प्राप्त किया; अतः इस पृथ्वी पर उनसे अधिक कौन है? जिस महानुभाव ने अस्त्रों द्वारा उत्तम युद्ध करके साक्षात महादेव जी को संतुष्ट किया और उनसे त्रिलोकी का संहार करने में समर्थ अत्यन्त भयंकर पाशुपत नामक महान अस्त्र प्राप्त कर लिया। भिन्न-भिन्न लोकपालों ने आकर उन्हें ऐसे महान अस्त्र प्रदान किये, जो युद्धस्थल में अपना सानी नहीं रखते। उन पुरुषसिंह ने रणभूमि में उन्हीं अस्त्रों द्वारा संगठित होकर आये हुए कालकेय नामक असुरों का शीघ्र ही संहार कर डाला।
इसी प्रकार विराटनगर में एकत्र हुए हम सब लोगों को एकमात्र रथ के द्वारा युद्ध में जीतकर अर्जुन ने उस विराट का गोधन लौटा जिया और महारथियों के शरीरों से वस्त्र भी उतार लिये। शल्य! इस प्रकार जो पराक्रम सम्बन्धी गुणों से सम्पन्न, श्रीकृष्ण की सहायता से युक्त और क्षत्रियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्हें युद्ध के लिये ललकारना सम्पूर्ण जगत के लिये बहुत बड़े साहस का काम है; इस बात को में स्वयं ही जानता हूँ। अर्जुन उन अनन्त पराक्रमी, उपमारहित, नारायणावतार, हाथों में शंख, चक्र और खड्ग धारण करने वाले, विष्णुस्वरूप, विजयशील, वसुदेवपुत्र महात्मा भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; जिनके गुणों का वर्णन सम्पूर्ण जगत के लोग मिलकर दस हजार वर्षों में भी नहीं कर सकते।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 66-79 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक रथ पर मिले हुए देखकर मुझे बड़ा भय लगता है, मेरा हृदय घबरा उठता है। अर्जुन युद्ध में समस्त धनुर्धरों से बढ़कर हैं और नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण भी चक्र-युद्ध में अपना सानी नहीं रखते। पाण्डुपुत्र अर्जुन और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण दोनों ऐसे ही पराक्रमी हैं। हिमालय भले ही अपने स्थान से हट जाये; किंतु दोनों कृष्ण अपनी मर्यादा से विचलित नहीं हो सकते। वे दोनों ही शौर्यसम्पन्न, बलवान, सुदढ़ आयुघों वाले और महारथी हैं, उसके शरीर सुगठित एवं शक्तिशाली हैं। शल्य! ऐसे अर्जुन और श्रीकृष्ण का सामना करने के लिये मेंरे सिवा दूसरा कौन जा सकता है?
मद्रराज! अर्जुन के साथ युद्ध के विषय में जो आज मेरा मनोरथ है, वह अविलम्ब और शीघ्र सफल होगा। यह युद्ध अत्यन्त अद्भुत, विचित्र और अनुपम होगा। में युद्धस्थल में इन दोनों को मार गिराऊँगा अथवा वह दोनों ही कृष्ण मुझे मार डालेंगे। राजन! शत्रुहन्ता कर्ण शल्य से ऐसा कहकर रणभूमि में मेघ के समान उच्चस्वर से गर्जना करने लगा। उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने निकट आकर उसका अभिनन्दन किया। उससे मिलकर कर्ण ने कुरुकुल के उस प्रमुख वीर से, महाबाहु कृपाचार्य और कृतवर्मा से, भाईयों सहित गान्धारराज शकुनि से, गुरुपुत्र अश्वत्थामा से, अपने छोटे भाई से तथा पैदल और गजारोही सैनिकों से इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- वीरों! श्रीकृष्ण और अर्जुन पर धावा करो, उन्हें आगे बढ़ने से रोको तथा शीघ्र ही सब प्रकार से प्रयत्न करके उन्हें परिश्रम से थका दो। भूमिपालों! ऐसा करो, जिससे तुम्हारे द्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत हुए उन दोनों कृष्णों को आज में सुखपूर्वक मार सकूं।
तब 'बहुत अच्छा' कहकर वे अत्यन्त वीर सैनिक बड़ी उतावली के साथ अर्जुन को मार डालने के लिये एक साथ आगे बढ़े। कर्ण की आज्ञा का पालन करने वाले वे महारथी योद्धा युद्धस्थल में बाणों द्वारा अर्जुन को चोट पहुँचाने लगे। परंतु जैसे प्रचुर जल से भरा हुआ महासागर नदियों और नदों के जल को आत्मसात कर लेता है, उसी प्रकार अर्जुन ने समरांगण में उन सब वीरों को ग्रस लिया। वे कब धनुष पर उत्तम बाणों का संधान करते और कब उन्हें छोड़ते हैं, यह शत्रुओं को नहीं दिखायी देता था; किंतु अर्जुन के बाणों से विदीर्ण हुए हाथी, घोडे़ और मनुष्य प्राणशून्य हो धड़ाधड़ गिरते जा रहे थे। उस समय अर्जुन प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी जान पड़ते थे। उनके बाण किरण-समूहों के समान सब ओर छिटक रहे थे। खींचा हुआ गाण्डीव धनुष सूर्य के मनोहर मण्डल-सा प्रतीत होता था। जैसे रोगी नेत्रों वाले मनुष्य सूर्य की ओर नहीं देख सकते, उसी प्रकार कौरव अर्जुन की ओर देखने में असमर्थ हो गये थे।
कौरव महारथियों के चलाये हुए उत्तम बाणों को कुन्तीकुमार ने अपने शरसमूहों द्वारा हँसते-हँसते काट दिया। उनका गाण्डीव धनुष खींचा जाकर पूरा मण्डलाकार बन गया था और उसके द्वारा वे उन शत्रु-सैनिकों पर बारंबार बाण समूहों का प्रहार करते थे। राजेन्द्र! जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़ के मध्यवर्ती प्रचण्ड किरणों वाले सूर्यदेव धरती के जलसमूहों को अनायास ही सोख लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणसमूहों का प्रहार करके आपकी सेना को भस्म करने लगे। उस समय कृपाचार्य उन पर बाण-समूहों की वर्षा करते हुए उनकी ओर दौड़े। इसी प्रकार कृतवर्मा, आपके पुत्र स्वयं राजा दुर्योधन और महारथी अश्वत्थामा भी पर्वत पर वर्षा करने वाले बादलों के समान अर्जुन पर बाणों की वृष्टि करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 80-95 का हिन्दी अनुवाद)
वध की इच्छा से आक्रमण करने वाले उन सब योद्धाओं द्वारा प्रयत्नपूर्वक चलाये गये उन उत्तम बाणों को महासमर में युद्धकुशल पाण्डुपुत्र अर्जुन ने तुरन्त ही अपने बाणों द्वारा काट डाला और उन सबकी छाती में तीन-तीन बाण मारे। खींचे हुए गाण्डीव धनुषरूपी पूर्ण मण्डल से युक्त अर्जुनरूपी सूर्य अपनी बाणरूपी प्रचण्ड किरणों से प्रकाशित हो शत्रुओं को संताप देते हुए ज्येष्ठ और आषाढ़ के मध्यवर्ती उस सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे, जिस पर घेरा पड़ा हुआ हो। तदनन्तर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने दस बाणों से अर्जुन को, तीन से भगवान श्रीकृष्ण को और चार से उनके चारों घोड़ों को घायल कर दिया। तत्पश्चात वह ध्वजा पर बैठे हुए वानर के ऊपर बाणों तथा उत्तम नाराचों की वर्षा करने लगा। तब अर्जुन ने तीन बाणों से चमकते हुए उसके धनुष को, एक छुर के द्वारा सारथि के मस्तक को, चार बाणों से उसके चारों घोड़ों को तथा तीन से उसके ध्वज को भी अश्वत्थामा के रथ से नीचे गिरा दिया। फिर अश्वत्थामा ने रोष में भरकर मणि, हीरा और सुवर्ण अलंकृत तथा तक्षक के शरीर की भाँति अरुण कांति वाले दूसरे बहुमूल्य धनुष को हाथ में लिया, मानो पर्वत के किनारे से विशाल अजगर को उठा लिया हो। अपने टूटे हुए धनुष को पृथ्वी पर फेंक कर अधिक गुणशाली अश्वत्थामा ने उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और किसी से पराजित न होने वाले उन दोनों नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन को उत्तम बाणों द्वारा निकट से पीड़ित एवं घायल करना आरम्भ किया।
युद्ध के मुहाने पर खडे़ हुए कृपाचार्य, कृतवर्मा और आपके पुत्र दुर्योधन- ये तीन महारथी युद्धस्थल में अनेक बाणों द्वारा पाण्डवप्रवर अर्जुन को चोट पहुँचाने लगे, मानो बहुत-से मेघ सूर्यदेव पर टूट पड़े हों। सहस्र भुजाओं वाले कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा कृपाचार्य के बाण-सहित धनुष, घोडे़, ध्वज और सारथि को भी उसी प्रकार बींध डाला, जैसे पूर्वकाल में वज्रधारी इन्द्र ने राजा बलि के धनुष आदि को क्षतिग्रस्त कर दिया था। उस महासमर में अर्जुन के बाणों द्वारा जब कृपाचार्य के आयुध नीचे गिरा दिये गये और ध्वज खण्डित कर दिया गया, उस समय किरीटधारी अर्जुन ने जैसे पहले भीष्म जी को सहस्रों बाणों से आवेष्टित कर दिया था, उसी प्रकार कृपाचार्य को हजारों बाणों से बांध-सा लिया। तत्पश्चात प्रतापी अर्जुन ने गर्जना करने वाले आपके पुत्र दुर्योधन के ध्वज और धनुष को अपने बाणों द्वारा काट दिया। फिर कृतवर्मा के सुन्दर घोड़ों को मार डाला और उसकी ध्वजा के भी टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। इसके बाद अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ घोडे़, सारथि, धनुष और ध्वजाओं सहित रथों, हाथियों और अश्वों को भी मारना आरम्भ किया। फिर तो पानी में टूटे हुए पुल के समान आपकी वह विशाल सेना सब ओर बिखर गयी। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने व्याकुल हुए समस्त शत्रुओं को अपने रथ के द्वारा शीघ्र ही दाहिने कर दिया।
फिर वृत्रासुर को मारने की इच्छा से आगे बढ़ने वाले इन्द्र के समान वेगपूर्वक आगे जाते हुए धनंजय पर दूसरे योद्धाओं ने ऊँचे किये ध्वज वाले सुसज्जित रथों द्वारा पुनः धावा किया। अर्जुन के सम्मुख जाते हुए उन शत्रुओं के सामने पहुँच का महारथी शिखण्डी, सात्यकि, नकुल और सहदेव ने उन्हें रोका और पैने बाणों द्वारा उन सबको विदीर्ण करते हुए भयंकर गर्जना की। तत्पश्चात सृंजयों के साथ भिडे़ हुए कौरव वीर कुपित हो शीघ्रगामी और तेज बाणों द्वारा एक दूसरे पर उसी प्रकार चोट करने लगे, जैसे पूर्वकाल में देवताओं के साथ युद्ध करने वाले असुरों ने संग्राम में परस्पर प्रहार किया था। शत्रुओं को तापने वाले नरेश! हाथीसवार, घुड़सवार तथा रथी योद्धा विजय चाहते हुए स्वर्गलोक में जाने के लिये उत्सुक हो शत्रुओं पर टूट पड़ते, उस स्वर से गर्जते और अच्छी तरह छोडे़ हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को पृथक-पृथक गहरी चोट पहुँचाते थे। महाराज! उस महासमर में महामनस्वी श्रेष्ठ योद्धाओं ने परस्पर छोडे़ हुए बाणों द्वारा घोर अन्धकार फैला दिया। चारों दिशाएं, विदिशाएं तथा सूर्य की प्रभा भी उस अन्धकार से आच्छादित हो गयीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वं में संकुल युद्ध विषयक उन्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का कौरव सेना को नष्ट करके आगे बढ़ना”
संजय कहते हैं ;- राजन! कौरव सेना के प्रमुख वीरों ने कुन्तीपुत्र भीमसेन पर धावा किया था और वे उस सैन्य सागर में डूबते-से जान पड़ते थे। भारत! उस समय उनका उद्धार करने के लिये अर्जुन ने सूतपुत्र की सेना को छोड़कर उधर ही आक्रमण किया और बाणों द्वारा शत्रुपक्ष के बहुत-से वीरों को यमलोक भेज दिया। तदनन्तर अर्जुन के बाणजाल आकाश के विभिन्न भागों में छा गये। वे तथा और भी बहुत-से बाण आपकी सेना का संहार करते दिखायी दिये। जहाँ पक्षियों के झुंड उड़ा करते थे, उस आकाश को बाणों से भरते हुए महाबाहु धनंजय वहाँ कौरव-सैनिकों के काल बन गये। पार्थ ने भल्लों, क्षुरप्रों तथा निर्मल नाराचों द्वारा शत्रुओं का अंग-अंग काट डाला और उनके मस्तक भी धड़ से अलग कर दिये। जिनके शरीरों के टुकड़े-टुकडे़ हो गये थे, कवच कटकर गिर गये थे और मस्तक भी काट डाले गये थे, ऐसे बहुत-से योद्धा वहाँ पृथ्वी पर गिरे थे और गिरते जा रहे थे, उन सबकी लाशों से वहाँ की भूमि सब ओर से पट गयी थी। जिन पर अर्जुन के बाणों की बारंबार मार पड़ी थी, वे रथ के घोड़े, रथ और हाथी छिन्न-भिन्न और विध्यस्त हो गये थे; उनका एक-एक अंग अथवा अवयव कटकर अलग हो गया था। इन सबके द्वारा वहाँ की भूमि आच्छादित हो गयी थी। राजन! उस समय रणभूमि महावैतरणी नदी के समान अत्यन्त दुर्गम, बहुत ऊॅची-नीची और भयंकर हो गयी थी, उसकी ओर देखना भी अत्यन्त कठिन जान पड़ता था। योद्धाओं के टूटे-फूटे रथों से रणभूमि ढक गयी थी। उन रथों के ईषादण्ड, पहिये और धुरे खण्डित हो गये थे। कुछ रथों के घोड़े और सारथि जीवित थे और कुछ के अश्व एवं सारथि मार डाले गये थे।
किरीटधारी अर्जुन के उत्तम बाणों से आहत होकर नित्य मद बहाने वाले, कवचधारी एवं मंगलमय लक्षणों से युक्त चार सौ रोषभरे हाथी धराशायी हो गये। उन हाथियों पर सुवर्णमय कवच और सोने के आभूषण धारण करने वाले योद्धा बैठे थे और क्रूर स्वभाव वाले महावत उन्हें अपने पैरों की एड़ियों तथा अंगूठों से आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे थे। उन सबके साथ गिरे हुए वे हाथी जीव-जन्तुओं सहित धराशायी हुए महान पर्वत के शिखरों के समान सब और पड़े थे। अर्जुन के बाणों से विशेष घायल होकर गिरे हुए उन गजराजों के शरीरों से रणभूमि ढक गयी थी। जैसे अंशुमाली सूर्य बादलों को छिन्न-भिन्न करते हुए प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार अर्जुन का रथ सब ओर से मेघों की घटा के समान काले मदस्त्रावी गजराजों को विदीर्ण करता हुआ वहाँ आ पहुँचा था। मारे गये हाथियों, मनुष्यों और घोड़ों से; टूट-फूटकर बिखरे हुए अनेकानेक रथों से; शस्त्र, यन्त्र तथा कवचों से रहित हुए युद्धकुशल प्राणशून्य योद्धाओं से और इधर-उधर फेंके हुए आयुधों से अर्जुन ने वहाँ के मार्ग को आच्छादित कर दिया था। उन्होंने आकाश में मेघ के समान भयानक वज्रपात के शब्द को तिरस्कृत करने वाले भयंकर स्वर में अपने विशाल गाण्डीव धनुष की टंकार की। तदनन्तर अर्जुन के बाणों से आहत हुई कौरव सेना समुद्र में उठे तूफ़ान से टकराये हुए जहाज़ के समान विदीर्ण हो उठी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)
गाण्डीव धनुष से छूटे हुए प्राण लेने वाले नाना प्रकार के बाण जो अलात, उल्का और बिजली के समान प्रकाशित हो रहे थे, आपकी सेना को दग्ध करने लगे। जैसे रात्रिकाल में किसी महान पर्वत पर बांसों का वन जल रहा हो, उसी प्रकार अर्जुन के बाणों से पीड़ित हुई आपकी विशाल सेना आग की लपटों से घिरी हुई-सी प्रतीत हो रही थी। किरीटधारी अर्जुन ने आपकी सेना को पीस डाला, जला दिया, विध्वस्त कर दिया, बाणों से बींध डाला और सम्पूर्ण दिशाओं में भगा दिया। जैसे विशाल वन में दावानल से डरे हुए मृगों के समूह इधर-उधर भागते हैं, उसी प्रकार सव्यसांची अर्जुन के बाण रूपी अग्नि से जलते हुए कौरव सैनिक चारों और चक्कर काट रहे थे। रणभूमि में उद्विग्न हुई सारी कौरव सेना ने महाबाहु भीमसेन को छोड़कर युद्ध से मुंह मोड़ लिया। इस प्रकार कौरव सैनिकों के भाग जाने पर कभी पराजित न होने वाले अर्जुन भीमसेन के पास पहुँचकर दो घड़ी तक रुके रहे। फिर भीम से मिलकर उन्होंने कुछ सलाह की और यह बताया कि राजा युधिष्ठिर के शरीर से बाण निकाल दिये गये हैं, अतः वे इस समय स्वस्थ हैं।
रथ की घर्घराहट से पृथ्वी और आकाश को गुंजाते हुए वहाँ से चल दिये। इसी समय आपके दस वीर पुत्रों ने, जो योद्धाओं में श्रेष्ठ और दुःशासन से छोटे थे, अर्जुन को चारों और से घेर लिया। भरतनन्दन! जैसे शिकारी लुआठों से हाथी को मारते हैं, उसी प्रकार अपने धनुष को ताने हुए उन शूरवीरों ने नाचते हुए-से वहाँ अर्जुन को बाणों द्वारा व्यथित कर डाला। उस समय भगवान श्रीकृष्ण यह सोचकर कि अर्जुन द्वारा इन सबको यमलोक में भेज देना उचित नहीं है, रथ के द्वारा उन्हें शीघ्र ही अपने दाहिने भाग में कर दिया। जब अर्जुन का रथ दूसरी ओर जाने लगा, तब दूसरे मूढ़ कौरव योद्धा लोग उन पर टूट पड़े।
उस समय कुन्तीकुमार अर्जुन ने उन आक्रमणकारियों के ध्वज, अश्व, धनुष और बाणों को नाराचों और अर्धचन्द्रों द्वारा शीघ्र ही काट गिराया। तदनन्तर अन्य बहुत-से भल्लों द्वारा उन सबके मस्तक काट डाले। वे मस्तक रोष से लाल हुए नेत्रों से युक्त थे और उनके ओठ दांतो तले दबे हुए थे। पृथ्वी पर गिरे हुए उनके वे मुख बहुसंख्यक कमल पुष्पों के समान सुशोभित हो रहे थे। भारत! शत्रुओं का संहार करने वाले अर्जुन सुवर्णमय पंख वाले महान वेगशाली दस भल्लों द्वारा सोने के अंगदों से विभूषित उन दसों वीरों को बींधकर आगे बढ़ गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वं में संकुल युद्ध विषयक अस्सीवां अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें