सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश, अर्जुन और युधिष्ठिर का प्रसन्नतापूर्वक मिलन एवं अर्जुन द्वारा कर्णवध की प्रतिज्ञा, युधिष्ठिर का आशीर्वाद”
संजय कहते हैं ;- महाराज! धर्मराज के मुख से यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर यदुकुल को आनन्दित करने वाले धर्मात्मा गोविन्द अर्जुन से कुछ कहने लगे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के कहने से युधिष्ठिर के प्रति जो तिरस्कार पूर्ण वचन बोले थे, इसके कारण वे मन ही मन ऐसे उदास हो गये थे, मानो कोई पाप कर बैठे हों। उनकी यह अवस्था देख भगवान श्रीकृष्ण हँसते हुए से उन पाण्डुकुमार से बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;– ‘पार्थ! तुम तो राजा के प्रति केवल ‘तू’ कह देने मात्र से ही इस प्रकार शोक में डूब गये हो। फिर यदि धर्म में स्थित रहने वाले धर्मकुमार युधिष्ठिर को तीखी धार वाले तलवार से मार डालते, तब तुम्हारी दशा कैसी हो जाती? कुन्तीनन्दन तुम राजा का वध करने के पश्चात क्या करते?
इस तरह धर्म का स्वरूप सभी के लिये दुर्विज्ञेय है। विशेषत: उन लोगों के लिये, जिनकी बुद्धि मन्द है, उसके सूक्ष्म स्वरूप को समझना अत्यन्त कठिन है। अतः तु धर्मभीरू होने के कारण अपने ज्येष्ठ भाई के वध से निश्चय ही घोर नरकरूप महान अन्धकार (दु:ख) में डूब जाते। इसीलिये इस विषय में मेरा विचार यह है कि तुम धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्मपरायण कुरुश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर को प्रसन्न करो। राजा युधिष्ठिर को भक्ति भाव से प्रसन्न कर लो। जब वे प्रसन्न हो जायँ, तब हमलोग तुरंत ही युद्ध के लिये सूतपुत्र के रथ पर चढ़ाई करेंगे। मानद! आज तुम तीखे बाणों से समरभूमि में कर्ण का वध करके धर्मपुत्र युधिष्ठिर के हृदय में अत्यन्त हर्षोल्लास भर दो। महाबाहो! मुझे तो इस समय यहाँ यही करना उचित जान पड़ता है। ऐसा कर लेने पर तुम्हारा सारा कार्य सम्पन्न हो जायेगा।
संजय कहते हैं ;- महाराज! श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन लज्जित हो धर्मराज के चरणों में गिरकर मस्तक नवाकर उन भरतश्रेष्ठ नरेश से बारंबार बोले,
अर्जुन बोले ;- 'राजन! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये। मैंने धर्म पालन की इच्छा से भयभीत होकर जो अनुचित वचन कहा है, उसके लिये क्षमा कीजिये। भरतश्रेष्ठ! धर्मराज युधिष्ठिर ने शत्रुसूदन, भाई धनंजय को अपने चरणों पर गिरकर रोते देख बड़े स्नेह से उठाकर हृदय से लगा लिया। फिर वे भूपाल धर्मराज भी फूट-फूटकर रोने लगे। महाराज! वे दोनों महातेजस्वी भाई दीर्घकाल तक रोते रहे। इससे उनके मन की मैल धुल गयी और वे दोनो भाई परस्पर प्रेम से भर गये। तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न हो बारंबार मुस्कराते हुए पाण्डुकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने महाधर्नुधर धनंजय को बड़े प्रेम से हृदय से लगाकर उनका मस्तक सूँघा और उनसे इस प्रकार कहा।
महाधर्नुधर! महाबाहो! मैं युद्ध में यत्नपूर्वक लगा हुआ था, किंतु कर्ण ने सारी सेना के देखते देखते अपने बाणों द्वारा मेरे कवच, ध्वज, धनुष, शक्ति, घोड़े और बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डालें हैं। फाल्गुन! रणभूमि में उसके इस कर्म को देख और समझकर मैं दु:ख से पीड़ित हो रहा हूँ। मुझे अपना जीवन प्रिय नहीं रह गया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
यदि आज युद्धस्थल में तुम वीर कर्ण का वध नहीं करोगे, तो मैं अपने प्राणों का ही परित्याग कर दूँगा। फिर मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है?
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उत्तर दिया,
अर्जुन ने कहा ;- राजन! नरश्रेष्ठ महीपाल! मैं आप से सत्य की, आपके कृपापूर्ण प्रसाद की, भीमसेन की तथा नकुल और सहदेव की शपथ खाकर सत्य के द्वारा अपने धनुष को छूकर कहता हूँ कि आज समर में या तो कर्ण को मार डालूगाँ या स्वयं ही मारा जाकर पृथ्वी पर गिर जाऊँगा। राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से बोले,- श्रीकृष्ण! आज रणभूमि में मैं कर्ण का वध करूँगा, इसमें संशय नहीं है। आपका कल्याण हो। आपकी बुद्धि से ही उस दुरात्मा का वध होगा'।
नृपश्रेष्ठ! उनके ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! तुम महाबली कर्ण का वध करने में समर्थ हो। सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महारथी वीर! मेरे मन में भी सदा यही इच्छा बनी रहती है कि तुम रणभूमि में कर्ण को किसी तरह मार डालो। फिर बुद्धिमान भगवान माधव ने धर्मनन्दन युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने पुनः कहा ;- 'महाराज! आप अर्जुन को सांत्वना और दुरात्मा कर्ण के वध के लिये आज्ञा प्रदान करें। पाण्डुनन्दन! राजन! आप कर्ण के बाणों से बहुत पीड़ित हो गये हैं यह सुनकर मैं और ये अर्जुन दोनों आपका समाचार जानने के लिये यहाँ आये थे। निष्पाप नरेश! सौभाग्य की बात है कि (कर्ण के द्वारा) न तो आप मारे गये और न पकड़े ही गये। अब आप अर्जुन को सांत्वना दें और उन्हें विजय के लिये आशीर्वाद प्रदान करें।
युधिष्ठिर बोले ;- कुन्तीनन्दन! वीभत्सो! आओ, आओ! पाण्डुकुमार! मेरे हृदय से लग जाओ। तुमने तो मेरे प्रति कहने योग्य और हित की ही बात कही है तथा मैंने उसके लिये क्षमा भी कर दी। धनंजय! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, कर्ण का वध करो। पार्थ! मैंने जो तुमसे कठोर वचन कहा है, उसके लिये खेद न करना।
संजय कहते हैं ;- माननीय नरेश! तब धनंजय ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और दोनों हाथों से बड़े भाई के पैर पकड़ लिये। तत्पश्चात राजा ने मन ही मन पीड़ा का अनुभव करने वाले अर्जुन को उठाकर छाती से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर पुन: उनसे इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- महाबाहु धनंजय! तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया है; अत: तुम्हारी महिमा बढ़े और तुम्हें पुन: सनातन विजय प्राप्त हो।
अर्जुन बोले ;- महाराज! आज मैं अपने बल का घमंड रखने वाले उस पापाचारी राधापुत्र कर्ण को रणभूमि में पाकर उसके सगे सम्बन्धियों सहित मृत्यु के समीप भेज दूँगा। राजन! जिसने धनुष को दृढ़तापूर्वक खींचकर अपने बाणों द्वारा आपको पीड़ित किया है, वह कर्ण आज अपने उस पापकर्म का अत्यन्त भयंकर फल पायेगा। भूपाल! आज मैं कर्ण को मारकर ही आपका दर्शन करूँगा और युद्धस्थल से आपका अभिनन्दन करने के लिये आऊँगा। यह मैं आपसे सत्य कहता हूँ। पृथ्वीपते! आज मैं कर्ण को मारे बिना समरागंण से नहीं लौटूँगा। इस सत्य के द्वारा मैं आपके दोनों चरण छूता हूँ।
संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसी बातें कहने वाले किरीटधारी अर्जुन से युधिष्ठिर ने प्रसन्नचित्त होकर यह महत्त्वपूर्ण बात कही,
युधिष्ठिर ने कहा ;- वीर! तुम्हें अक्षय यश, पूर्ण आयु, मनोवांछित कामना, विजय तथा शत्रुनाशक पराक्रम- ये सदा प्राप्त होते रहें। जाओ, देवता तुम्हें अभ्युदय प्रदान करें। मैं तुम्हारे लिये जैसा चाहता हूँ, वैसा ही सब कुछ तुम्हें प्राप्त हो। आगे बढ़ो और युद्धस्थल में शीघ्र ही कर्ण को मार डालो। ठीक उसी तरह, जैसे देवराज इन्द्र ने अपने ही ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये वृत्रासुर का नाश किया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अर्जुन की प्रतिज्ञा विषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण और अर्जुन की रणयात्रा, मार्ग में शुभ शकुन तथा श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रोत्साहन”
संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर को प्रसन्न करके अर्जुन सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये उद्यत हो प्रसन्नचित्त होकर श्रीकृष्ण से बोले,
अर्जुन ने कहा ;- गोविन्द! अब मेरा रथ तैयार हो। उसमें पुन: उत्तम घोड़े जोते जायँ और मेरे उस विशाल रथ में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र सजाकर रख दिये जायँ। अश्वारोहियों द्वारा सिखलाये और टहलाये गये घोडे़ रथ सम्बन्धी उपकरणों से सुसज्जित हो शीघ्र यहाँ आवें और आप सूतपुत्र के वध की इच्छा से जल्दी ही यहाँ से प्रस्थान कीजिये। महाराज! महात्मा अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा,
श्री कृष्ण बोले ;– सारथे! समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ भरतभूषण अर्जुन ने जैसा कहा है, उसके अनुसार सारी तैयारी करो। नृपश्रेष्ठ! श्रीकृष्ण के इस प्रकार आदेश देने पर दारुक ने व्याघ्र चर्म से आच्छादित तथा शत्रुओं को तपाने वाले रथ को जोतकर तैयार कर दिया और महामना पाण्डुकुमार अर्जुन के पास आकर निवेदन किया कि आपका रथ सब सामग्रियों से सुसज्जित है। महामना दारुक के द्वारा जोतकर लाये हुए उस रथ को देखकर अर्जुन धर्मराज से आज्ञा ले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर कल्याण के आश्रयभूत उस परम मंगलमय उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए। उस समय महाबुद्धिमान धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन को आशीर्वाद दिये। तत्पश्चात उन्होंनें कर्ण के रथ की ओर प्रस्थान किया। भारत! महाधनुर्धर अर्जुन को आते देख समस्त प्राणियों को यह विश्वास हो गया कि अब कर्ण महामनस्वी पाण्डुपुत्र अर्जुन के हाथ से अवश्य मारा जायेगा। राजन! सम्पूर्ण दिशाएँ सब ओर से निर्मल हो गयी थी। नरेश्वर! नीलकण्ठ, सारस और क्रौंच पक्षी पाण्डुनन्दन अर्जुन को दाहिने रखते हुए जाने लगे। राजन! पुरुष जाति वाले बहुत से शुभकारक मंगलदायक पक्षी अर्जुन को युद्ध के लिये उतावले करते हुए बड़े हर्ष में भरकर चहचहा रहे थे।
प्रजानाथ! कंक, गृध, वक, बाज और कौए आदि भयानक पक्षी मांस के लिये उनके आगे आगे जा रहे थे। इस प्रकार बहुत से शुभ शकुन पाण्डुपुत्र अर्जुन को उनके शत्रुओं के विनाश तथा कर्ण के वध की सूचना दे रहे थे। युद्ध के लिये प्रस्थान करने पर कुन्तीकुमार अर्जुन के शरीर में बड़ी जोर से पसीना छूटने लगा तथा मन ही मन भारीचिन्ता होने लगी कि यह सब कैसे होगा? रथ में बैठकर चलते समय गाण्डीवधारी अर्जुन को चिन्तामग्न देख भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे इस प्रकार कहा-
श्रीकृष्ण बोले ;– गाण्डीवधारी अर्जुन! तुमने अपने धनुष से जिन जिन वीरों पर विजय पायी है, उन्हें जीतने वाला इस संसार में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य नहीं है। मैने देखा है इन्द्र के समान पराक्रमी बहुत से शूरवीर समरांगण में तुम शौर्यसम्पन्न वीर के पास आकर परमगति को प्राप्त हो गये। प्रभो! आर्य! जो तुम्हारे जैसा वीर न हो, ऐसा कौन पुरुष द्रोणाचार्य, भीष्म, भगदत्त, अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, महापराक्रमी श्रुतायु तथा अच्युतायु का सामना करके सकुशल रह सकता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)
तुम्हारे पास दिव्यास्त्र हैं, तुममें फुर्ती है, बल है, युद्ध के समय तुम्हें घबराहट नहीं होती, तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों का विस्तृत ज्ञान है तथा लक्ष्य को बेधने तथा गिराने की कला ज्ञात है। अर्जुन! लक्ष्य को वेधते समय तुम्हारा चित्त एकाग्र रहता है। गन्धर्वों सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा चराचर प्राणियों को तुम एक साथ मार सकते हो कुन्तीकुमार! इस भूमण्डल पर दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान योद्धा नहीं है। यहाँ से देवलोक तक धनुष धारण करने वाले जो कोई भी रणदुर्मद क्षत्रिय हैं, उनमें से किसी को भी मैं तुम्हारे समान न तो देखता हूँ और न सुनता ही हूँ। पार्थ! ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण प्रजा की सृष्टि की है और उन्होंने ही उस विशाल धनुष गाण्डीव की भी रचना की है, जिसके द्वारा तुम युद्ध करते हो; अत: तुम्हारी समानता करने वाला कोई नहीं है। पाण्डुनन्दन! तो भी जो बात तुम्हारे लिये हितकर हो, उसे बता देना मैं आवश्यक समझता हूँ।
महाबाहो! संग्राम में शोभा पाने वाले कर्ण की अवहेलना न करना। क्योंकि कर्ण बलवान, अभिमानी, अस्त्रविद्या का विद्वान, महारथी, युद्धकुशल, विचित्र रीति से युद्ध करने वाला तथा देशकाल को समझने वाला है। पाण्डुनन्दन! इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, संक्षेप से ही सुन लो। मैं महारथी कर्ण को तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर मानता हूँ। अत: महासमर में महान प्रयत्न करके तुम्हें उसका वध करना होगा। कर्ण तेज में अग्नि के सदृश, वेग में वायु के समान, क्रोध में यमराज के तुल्य, सुदृढ़, शरीर में सिंह के सदृश तथा बलवान है। उसके शरीर की ऊँचाई आठ रत्नि (एक सौ अड़सठ अंगुल) है। उसकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और छाती चौड़ी है। उसे जीतना अत्यन्त कठिन है। वह अभिमानी, शौर्यसम्पन्न, प्रमुख वीर और प्रियदर्शन (सुन्दर) है। उसमें योद्धाओं के सभी गुण हैं। वह अपने मित्रों को अभय देने वाला है तथा दुर्योधन के हित में तत्पर रहकर पाण्डवों से सदा द्वेष रखता है। मेरा तो ऐसा विचार है कि राधापुत्र कर्ण तुम्हें छोड़कर इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अवध्य है; अत: तुम आज सूतपुत्र का वध करो। समस्त देवता भी यदि रक्त-मांसयुक्त शरीर को धारण करके युद्ध की अभिलाषा लेकर विजय के लिये प्रयत्नशील हो रणभूमि में आ जाएँ तो उनके लिये रथसहित कर्ण को जीतना असम्भव है।
अत: आज तुम दुरात्मा, पापाचारी, क्रूर, पाण्डवों के प्रति सदा दुर्भावना रखने वाले और किसी स्वार्थ के बिना ही पाण्डव विरोध में तत्पर हुए कर्ण का वध करके सफल मनोरथ हो जाओ। रथियों में श्रेष्ठ सूतपुत्र अपने को काल के वश में नहीं समझता है। तुम उसे आज ही काल के अधीन कर दो। रथियों में श्रेष्ठ सूतपुत्र कर्ण को मारकर धर्मराज युधिष्ठिर को प्रसन्न करो। पार्थ! मैं तुम्हारे उस बल पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ, जिसका निवारण करना देवताओं और असुरों के लिये भी कठिन है। दुरात्मा सूतपुत्र कर्ण घमंड में आकर सदा पाण्डवों का अपमान करता है। धनंजय! जिसके साथ होने से पापी दुर्योधन अपने को वीर मानता है, वह सूतपुत्र कर्ण ही सारे पापों की जड़ है; अत: आज तुम उसे मार डालो अर्जुन! कर्ण पुरुषों में सिंह के समान है, तलवार ही उसकी जिह्वा है, धनुष ही उसका फैला हुआ मुख है, बाण उसकी दाढ़े हैं, वह अत्यन्त वेगशाली और अभिमानी है। तुम उसका वध करो। जैसे सिंह मतवाले हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार तुम भी अपने बल और पराक्रम से रणभूमि में शूरवीर कर्ण को मार डालो। इसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। पार्थ! जिसके बल से दुर्योधन तुम्हारे बल पराक्रम की अवहेलना करता है, उस वैकर्तन कर्ण को आज तुम युद्ध में मार डालो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद विषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
तिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और द्रोण के पराक्रम का वर्णन करते हुए अर्जुन के बल की प्रशंसा करके श्रीकृष्ण का कर्ण और दुर्योधन के अन्याय की याद दिलाकर अर्जुन को कर्णवध के लिये उत्तेजित करना”
संजय कहते हैं ;- भरतनन्दन! तदनन्तर कर्ण का वध करने के लिये कृतसंकल्प होकर जाते हुए अर्जुन से अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- भारत! मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों का जो यह अत्यन्त भयंकर विनाश चल रहा है, इसे आज सत्रह दिन हो गये। प्रजानाथ! शत्रुओं के साथ-साथ तुम लोगों के पास भी विशाल सेना जुट गयी थी; परंतु परस्पर युद्ध करके प्राय: नष्ट हो गयी, अब थोड़ी सी ही शेष रह गयी है। पार्थ! कौरव पक्ष के योद्धा बहुसंख्यक हाथी घोड़ों से सम्पन्न थे, परंतु तुम जैसे वीर शत्रु को पाकर युद्ध के मुहाने पर नष्ट हो गये। तुम शत्रुओं के लिये दुर्जय हो, तुम्हारे ही आश्रय में रह कर ये तुम्हारे पक्ष के भूमिपाल सृंजय और पाण्डव योद्धा युद्धस्थल में डटे हुए हैं। तुमसे सुरक्षित हुए इन पाण्डव, पांचाल, मत्स्य, करुष तथा चेदिदेशीय शत्रुनाशक वीरों ने शत्रु समूहों का संहार कर डाला है।
तात! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित पाण्डव महारथियों को छोड़कर दूसरा कौन नरेश युद्ध में कौरवों को परास्त कर सकता है। तुम तो युद्ध के लिये तैयार होकर आये हुए देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोकों को समरभूमि में जीत सकते हो, फिर कौरव सेना की तो बात ही क्या है? पुरुषसिंह! कोई इन्द्र के समान भी पराक्रमी क्यों न हो, तुम्हारे सिवा दूसरा कौन वीर राजा भगदत्त को जीत सकता था? निष्पाप कुन्तीकुमार! तुम जिसकी रक्षा करते हो, उस विशाल सेना की ओर सारे राजा आँख उठाकर देख भी नहीं सके हैं। पार्थ! इसी प्रकार रणक्षेत्र में सदा तुमसे सुरक्षित रहकर ही धृष्टद्युम्न और शिखण्डी ने द्रोणाचार्य और भीष्म को मार गिराया है। कुन्तीनन्दन! भरतवंशियों की सेना के दो महारथी इन्द्रतुल्य पराक्रमी भीष्म और द्रोण को रणभूमि में युद्ध करते समय कौन जीत सकता था। नरव्याघ्र! अक्षौहिणी सेना के अधिपति:, वीर, अस्त्रवेत्ता, भयंकर पराक्रमी, संगठित, रणोन्मत्त तथा कभी पीछे न हटने वाले भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, वैंकर्तन कर्ण, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य तथा राजा दुर्योधन जैसे समस्त महारथियों पर इस जगत में तुम्हारे सिवा, दूसरा कौन पुरुष विजय पा सकता है?
अमर्षशील क्षत्रियों के बहुत से दल थे, जो बड़े भयंकर और अनेक जनपदों के निवासी थे, वे सब के सब नष्ट हो गये, उनके घोड़े, रथ और हाथी भी धूल में मिल गये। भारत! गोवास, दासमीय, वसाति, प्राच्य, वाटधान और भोजदेश के निवासी अभिमानी वीरों की तथा सम्पूर्ण क्षत्रियों की सेना, जिसमें उद्दण्ड घोड़ों और उन्मत्त हाथियों की संख्या अधिक थी, तुम्हारे और भीमसेन के पास पहुँचकर नष्ट हो गयी। उग्र स्वभाव, भीषण पराक्रमी एवं भयंकर कर्म करने वाले तुषार, यवन, खश, दार्वाभिसार, दरद, शक, माठर, तंगण, आन्ध्र, पुलिंद, किरात, म्लेच्छ, पर्वतीय तथा समुद्रतटवर्ती योद्धा, जो युद्धकुशल, रोषावेश से युक्त, बलवान एवं हाथों में डंडे लिये हुए है, क्रोध में भरकर कौरव सैनिकों के साथ दुर्योधन की सहायता के लिये आये हैं; शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इन्हें नहीं जीत सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद)
यदि तुम रक्षक न होते तो व्यूहाकार में खड़ी हुई धृतराष्ट्रपुत्रों की प्रचण्ड एवं विशाल सेना को सामने देखकर कौन मनुष्य उस पर चढ़ाई कर सकता था? प्रभो! तुमसे सुरक्षित रहकर ही क्रोध भरे पाण्डव योद्धाओं ने धूल से आच्छादित और समुद्र के समान उमड़ी हुई कौरव सेना को छिन्न भिन्न करके मार डाला है। अभी सात दिन ही हुए हैं, अभिमन्यु ने मगध देश के राजा महाबली जयत्सेन को युद्ध में मार डाला था। तत्पश्चात भीमसेन ने राजा जयत्सेन के भयानक कर्म करने वाले दस हजार हाथियों को, जो उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े थे, गदा के आघात से नष्ट कर दिया। तदनन्तर और भी बहुत से हाथी तथा सैकड़ों रथ उनके द्वारा बलपूर्वक नष्ट किये गये। पाण्डुनन्दन! पार्थ! इस प्रकार महाभयंकर युद्ध आरम्भ होने पर तुम्हारे और भीमसेन के सामने आकर बहुत से कौरव सैनिक घोडे़, रथ और हाथियों सहित यहाँ से यमलोक पधार गये। माननीय कुन्तीनन्दन! पाण्डव वीरों ने जब वहाँ सेना के प्रमुख भाग का विनाश कर डाला, तब भीष्म जी भयंकर बाण समूहों की वृष्टि करने लगे। वे उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता तो थे ही, उन्होंने पाण्डव पक्ष के चेदि, काशी, पांचाल, करूष, मत्स्य और केकयदेशीय योद्धाओं को अपने बाणों से आच्छादित करके मौत के मुख में डाल दिया। उनके धनुष से छूटे हुए बाण शत्रुओं की काया को विदीर्ण कर देने वाले थे, उनमें सोने के पंख लगे थे और वे लक्ष्य की ओर सीधे पहुँचते थे। उन बाणों से सम्पूर्ण आकाश भर गया।
वे एक-एक मुट्ठी बाण से ही युद्धस्थल में एकत्र हुए लाखों महाबली पैदल मनुष्यों और हाथियों का संहार करके सहस्रों रथियों को मार सकते थे। भीष्म जी युद्धस्थल में दोषयुक्त आविद्ध आदि नौ गतियों को छोड़कर केवल दशवीं गति से बाण छोड़ते थे। वे बाण पाण्डव पक्ष के घोड़ों, रथों और हाथियों का संहार करने लगे। लगातार दस दिनों तक तुम्हारी सेना का विनाश करते हुए भीष्म जी ने असंख्य रथों की बैठकें सूनी कर दीं, बहुत से हाथी और घोड़े मार डाले। उन्होंने रणभूमि में भगवान रुद्र और विष्णु के समान अपना भयंकर रूप दिखाकर पाण्डव सेनाओं का बलपूर्वक विनाश कर डाला। मूर्ख दुर्योधन नौकारहित विपत्ति के सागर में डूब रहा था; अत: भीष्म जी उसका उद्धार करना चाहते थे, उन्होंने चेदि, पांचाल तथा केकय नरेशों का वध करते हुए, रथ, घोड़ों और रथियों से भरी हुई पाण्डव सेना को भस्म कर डाला। कोटि सहस्र पैदल तथा हाथों में उत्तम आयुध धारण किये हुए सृंजय सैनिक और दूसरे नरेश सूर्यदेव के समान ताप देते और समरांगण में विचरते हुए भीष्म की ओर आँख उठाकर देखने में भी समर्थ न हो सके।
उस समय संग्राम भूमि में विचरते तथा विजय से उल्लासित होते हुए भीष्म जी पर पाण्डव योद्धा अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े वेग से टूट पड़े। किंतु समरांगण में भीष्म जी अकेले ही पाण्डवों और सृंजयों को खदेड़कर युद्ध में अद्वितिय वीर के रूप में विख्यात हुए। अर्जुन! तुमसे सुरक्षित हुए शिखण्डी ने महान व्रतधारी पुरुष सिंह भीष्मजी पर चढ़ाई करके झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उन्हें मार गिराया, वे ही ये पितामह भीष्म तुम जैसे पुरुषसिंह को विपक्ष में पाकर धराशायी हो शरशय्या पर सो रहे है। ठीक उसी तरह, जैसे वृत्रासुर इन्द्र से टक्कर लेकर रणशय्या पर सो गया था। तत्पश्चात उग्रमूर्ति महारथी द्रोणाचार्य पाँच दिनों तक अभेद्यव्यूह का निर्माण, शत्रु सेना का विध्वंस, महारथियों का विनाश तथा समरांगण में जयद्रथ की रक्षा करने के अनन्तर रात्रि युद्ध में यमराज के समान प्रजा को दग्ध करने लगे। प्रतापी भारद्वाज नन्दन और द्रोणाचार्य अपने बाणों द्वारा शत्रु योद्धाओं को दग्ध करके धृष्टद्युम्न से भिड़कर परमगति को प्राप्त हो गये। उस समय यदि तुम युद्धस्थल में सूतपुत्र आदि रथियों को न रोकते तो रणभूमि में द्रोणाचार्य का नाश नहीं होता। धनंजय! तुमने दुर्योधन की सारी सेना को रोक रखा था; इसीलिये धृष्टद्युम्न संग्राम में द्रोणाचार्य का वध कर सके।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 47-66 का हिन्दी अनुवाद)
पार्थ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्हारे सिवा दूसरा कौन क्षत्रिय कर सकता है। तुमने अपने अस्त्रों के बल और तेज से शूरवीर राजाओं का वध करके दुर्योधन की विशाल सेना को रोककर सिन्धुराज जयद्रथ को मार गिराया। पार्थ! सब राजा जानते हैं कि सिंधुराज जयद्रथ का वध एक आश्चर्यभरी घटना है, किंतु तुमसे ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि तुम असाधारण महारथी हो। रणभूमि में तुम्हें पाकर सारा क्षत्रिय समाज एक दिन में नष्ट हो सकता है, ऐसा कहना मैं युक्तिसंगत मानता हूँ। मेरी तो ऐसी ही धारणा है। कुन्तीनन्दन! जब भीष्म और द्रोणाचार्य युद्ध में मार डाले गये, तभी से मानो दुर्योधन की इस भयंकर सेना के सारे वीर मारे गये– इसका सर्वस्व नष्ट हो गया। इसके प्रधान प्रधान योद्धा नष्ट हो गये। घोड़े, रथ और हाथी भी मार डाले गये। अब यह कौरव सेना सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों से रहित आकाश के समान श्रीहीन जान पड़ती है।
भयंकर पराक्रमी पार्थ! रणभूमि में विध्वंस को प्राप्त हुई यह कौरव सेना पूर्वकाल में इन्द्र के पराक्रम से नष्ट हुई असुरों की सेना के समान प्रतीत होती है। इन कौरव सैनिकों से अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्य और कृपाचार्य- ये पाँच प्रमुख महारथी मरने से बच गये हैं। नरव्याघ्र! आज इन पाँचों महारथियों को मारकर तुम शत्रुहीन हो द्वीपों और नगरों सहित यह सारी पृथ्वी राजा युधिष्ठिर को दे दो। अमित पराक्रम और कान्ति से सम्पन्न कुन्तीकुमार युधिष्ठिर आज आकाश, जल, पाताल, पर्वत और बड़े बड़े वनों सहित इस वसुधा को प्राप्त कर लें। जैसे पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने दैत्यों और दानवों को मारकर यह त्रिलोकी इन्द्र को दे दी थी, उसी प्रकार तुम यह पृथ्वी राजा युधिष्ठिर को सौंप दो। जैसे भगवान विष्णु के द्वारा दानवों के मारे जाने पर देवता प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार आज तुम्हारे द्वारा शत्रुओं का संहार हो जाने पर समस्त पांचाल आनन्दित हो उठें।
कमलनयन नरश्रेष्ठ अर्जुन! मनुष्यों में श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य का सम्मान करते हुए तुम्हारे हृदय में यदि अश्वत्थामा के प्रति दया है, अथवा आचार्योचित गौरव के कारण कृपाचार्य के प्रति कृपाभाव है, यदि माता कुन्ती के अत्यन्त पूजनीय बन्धु बान्धवों के प्रति आदर का भाव रखते हुए तुम कृतवर्मा पर आक्रमण करके उसे यमलोक भेजना नहीं चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रदेशीय जनता के अधिपति राजा शल्य को भी तुम दयावश मारने की इच्छा नहीं रखते तो न सही, किंतु पाण्डवों के प्रति सदा पापबुद्धि रखने वाले इस अत्यन्त नीच कर्ण को आज अपने पैने बाणों से मार ही डालो। यह तुम्हारे लिये पुण्य कर्म होगा। इस विषय में कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। मैं भी तुम्हें इसके लिये आज्ञा देता हूँ, अत: इसमें कोई दोष नहीं है। निष्पाप अर्जुन! रात्रि के समय पुत्रसहित तुम्हारी माता कुन्ती को जला देने और तुम सब लोगों के साथ जुआ खेलने के कार्य में जो दुर्योधन की प्रवृत्ति हुई थी, उन सब षड्यन्त्रों का मूल कारण यह दुष्टात्मा कर्ण ही था। दुर्योधन को सदा से ही यह विश्वास बना हुआ है कि कर्ण मेरी रक्षा कर लेगा; इसीलिये वह आवेश में आकर मुझे भी कैद करने की तैयारी करने लगा था। मानद! धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन का यह दृढ़ विचार है कि कर्ण रणभूमि में कुन्ती के सभी पुत्रों को नि:संदेह जीत लेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 67-86 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीनन्दन! तुम्हारे बल को जानते हुए भी दुर्योधन ने कर्ण का भरोसा करके ही तुम्हारे साथ युद्ध छेड़ना पसंद किया है। कर्ण सदा ही यह कहता रहता है कि मैं युद्ध में एक साथ आये हुए समस्त कुन्तीपुत्रों तथा वसुदेवनन्दन महारथी श्रीकृष्ण को भी जीत लूँगा। भारत! अत्यन्त खोटी बुद्धि वाले दुरात्मा दुर्योधन का उत्साह बढ़ाता हुआ कर्ण राजसभा में उपुर्यक्त बातें कहकर गर्जता रहता है, इसीलिये आज तुम उसे मार डालो। दुर्योधन ने तुम लोगों के साथ जो-जो पापपूर्ण बर्ताव किया है, उन सबमें पापबुद्धि दुष्टात्मा कर्ण ही प्रधान कारण है। सखे! सुभद्रा का वीरपुत्र अभिमन्यु साँड के समान बड़े-बड़े नेत्रों से सुशोभित तथा कुरुकुल एवं वृष्णिवंश के यश को बढ़ाने वाला था। उसके कंधे साँड के कंधों के समान मांसल थे। वह द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और कृपाचार्य आदि नरश्रेष्ठ वीरों को पीड़ा दे रहा था। हाथियों को महावतों और सवारों से, महारथियों को रथों से, घोड़ों को सवारों से तथा पैदल सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र एवं जीवन से वंचित कर रहा था।
सेनाओं का विध्वंस और महारथियों को व्यथित करके वह मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को यमलोक भोज रहा था। बाणों द्वारा शत्रुसेना को दग्ध सी करके आते हुए सुभद्राकुमार को जो दुर्योधन के छ: क्रूर महारथियों ने मार डाला और उस अवस्था में मारे गये अभिमन्यु को जो मैंने अपनी आँखों से देखा, वह सब मेरे अंगों को दग्ध किये देता है। प्रभो! मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि उसमें भी दुष्टात्मा कर्ण का ही द्रोह काम कर रहा था। रणभूमि में अभिमन्यु के सामने खड़े होने की शक्ति कर्ण में नहीं रह गयी थी। वह सुभद्राकुमार के बाणों से छिन्न-भिन्न हो खून से लथपथ एवं अचेत हो गया था। वह क्रोध से जलकर लम्बी साँस खींचता हुआ अभिमन्यु के बाणों से पीड़ित हो युद्ध से मुँह मोड़ चुका था। अब उसके मन में भाग जाने का ही उत्साह था।
वह जीवन से निराश को चुका था। युद्धस्थल में प्रहारों के कारण अधिक क्लान्त हो जाने से वह व्याकुल होकर खड़ा रहा। तदनन्तर समरांगण में द्रोणाचार्य का समयोचित क्रूर वचन सुनकर कर्ण ने अभिमन्यु के धनुष को काट डाला। उसके द्वारा धनुष कट जाने पर रणभूमि में शेष पाँच महारथी, जो शठतापूर्ण बर्ताव करने में प्रवीण थे, बाणों की वर्षा द्वारा अभिमन्यु को घायल करने लगे। उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्राय: सभी को बड़ा दु:ख हुआ। केवल दुष्टात्मा कर्ण और दुर्योधन ही जोर-जोर से हँसे थे। इसके सिवा, कर्ण ने भरी सभा में पाण्डवों और कौरवों के सामने एक क्रूर मनुष्य की भाँति द्रौपदी के प्रति इस तरह कठोर वचन कहे थे। 'कृष्णे! पाण्डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये। पृथुश्रोणा! अब तू दूसरा पति वरण कर ले। मृदुभाषिणी! आज से तू राजा धृतराष्ट्र की दासी हुई; अत: राजमहल में प्रवेश कर। टेढ़ी बरौनियों वाली कृष्णे! पाण्डव अब तेरे पति नहीं रहे। वे तुझ पर किसी तरह कोई अधिकार नहीं रखते। सुन्दरी पांचाल राजकुमारी! अब तू दासों की भार्या और स्वयं भी दासी है। आज एकमात्र राजा दुर्योधन समस्त भूमण्डल के स्वामी मान लिये गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 87-106 का हिन्दी अनुवाद)
अन्य सब नरेश इन्हीं के योग-क्षेम में लगे हुए हैं। भद्रे! देख, इस समय पाण्डव दुर्योधन के तेज से एक साथ ही नष्टप्राय होकर एक दूसरे का मुँह देख रहे हैं। निश्चय ही वे थोथे तिलों के समान नपुंसक हैं और नरक में डूब गये है। आज से दासों के समान कौरव नरेश की सेवा में उपस्थित होंगे'। भारत! उस समय अधर्म का ही ज्ञान रखने वाले परम दुर्बुद्धि पापी कर्ण ने तुम्हारे सुनते हुए ऐसे-ऐसे पापपूर्ण वचन कहे थे। आज तुम्हारे छोड़े हुए एवं शिला पर स्वच्छ किये हुए सुवर्ण निर्मित प्राणान्तकारी बाण पापी कर्ण के उन वचनों का उत्तर देते हुए उसे सदा के लिये शान्त कर दें। दुष्टात्मा कर्ण ने तुम्हारे प्रति और भी जो-जो पापपूर्ण बर्ताव किये हैं, उन सबको और इसके जीवन को भी आज तुम्हारे बाण नष्ट कर दें। आज दुष्टात्मा कर्ण अपने अंगों पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ द्रोणाचार्य और भीष्म के वचनों को याद करे। बिजली की सी प्रभा और सोने के पंख धारण करने वाले तुम्हारे चलाये हुए शत्रुनाशक नाराच कवच छेदकर कर्ण का रक्त पान करेंगे। आज तुम्हारे हाथों से छूटे हुए वेगशाली, भयंकर एवं विशाल बाण कर्ण का मर्मस्थल विदीर्ण करके उसे यमलोक भेज दें। आज तुम्हारे बाणों से पीड़ित हुए भूमिपाल दीन और विषादयुक्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता देखें। आज कर्ण रक्त में डूबकर पृथ्वी पर पड़ा सो रहा हो और उसके आयुध इधर-उधर फेंके पड़े हों।
इस अवस्था में उसके बन्धु-बान्धव दीन-दु:खी होकर उसे देखें। आज हाथी के रस्से के चिह्न से युक्त अधिरथपुत्र कर्ण का विशाल ध्वज तुम्हारे भल्ल से कटकर काँपता हुआ इस पृथ्वी पर गिर पड़े। आज राजा शल्य भी तुम्हारे सैंकड़ों बाणों से छिन्न-भिन्न उस सुवर्ण विभूषित रथ को, जिसके रथी और घोड़े मार डाले गये हों, छोड़कर भयभीत हो भाग जायें। माननीय पुरुषों को मान देने वाले पार्थ! यदि तुम सूतपुत्र कर्ण को देखते-देखते अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये उसके पुत्र वृषसेन को बाणों द्वारा मार डालो तो अपने प्रिय पुत्र को मारा गया देखकर वह दुरात्मा कर्ण द्रोणाचार्य, भीष्म और विदुर जी की कही हुई बातों को याद करे। तत्पश्चात आज तुम्हारे द्वारा अधिरथपुत्र कर्ण को मारा गया देख तुम्हारा शत्रु दुर्योधन अपने जीवन और राज्य दोनों से निराश हो जाए। भरतश्रेष्ठ! कर्ण के तीखे बाणों की मार खाते हुए भी वे पांचाल वीर पाण्डव सैनिकों का उद्धार करने की इच्छा से (कर्ण की ओर ही) दौड़े जा रहे हैं। अर्जुन! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि पांचाल योद्धा, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न के पुत्रगण, नकुलकुमार शतानीक, नकुल-सहदेव, दुर्मुख, जनमेजय, सुधर्मा और सात्यकि ये सब के सब कर्ण के वश में पड़ गये हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन! देखो, कर्ण के द्वारा घायल हुए तुम्हारे बान्धव पांचालों का वह घोर आर्तनाद रणभूमि में स्पष्ट सुनायी दे रहा है। पांचाल योद्धा किसी तरह भयभीत होकर युद्ध से विमुख नहीं हो सकते। वे महाधनुर्धर वीर महासमर में मृत्यु को कुछ नहीं गिनते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 107-125 का हिन्दी अनुवाद)
जो सारी पांडव सेना को अकेले ही अपने बाण समूहों द्वारा लपेट लेते थे, उन भीष्म जी का सामना करके भी पांचाल योद्धा कभी युद्ध से मुँह मोड़कर नहीं भागे। वे ही महारथी वीर कर्ण को सामने पाकर कैसे भाग सकते हैं? मित्रवत्सल! जो वीर द्रोणाचार्य प्रतिदिन अकेले ही सम्पूर्ण पांचालों का विनाश करते हुए पांचालों की रथ सेना में काल के समान विचरते थे, अस्त्रों की आग से प्रज्वलित होते थे, सम्पूर्ण धनुर्धरों के गुरु थे और समरांगण में शत्रु सेना को दग्ध किये देते थे, अपने बल और पराक्रम से दुर्घर्ष उन द्रोणाचार्य को भी संग्राम में सामने पाकर वे पांचाल अपने मित्र पांडवों के लिये सदा डटकर युद्ध करते रहे। शत्रुदमन अर्जुन! पांचाल सैनिक युद्ध में सदा शत्रुओं को जीतने के लिये उद्यत रहते हैं? वे सूतपुत्र कर्ण से भयभीत हो कभी युद्ध से मुँह नहीं मोड़ सकते। जैसे आग अपने पास आये हुए पतंगों के प्राण ले लेती है, उसी प्रकार शूरवीर कर्ण बाणों द्वारा अपने ऊपर आक्रमण करने वाले वेगशाली पांचालों के प्राण ले रहा है। भरतश्रेष्ठ! देखो, वे पांचाल योद्धा दौड़ रहे हैं। निश्चय ही कर्ण और दूसरे दूसरे योद्धा उन्हें दौड़ा रहे हैं। देखो, वे कैसी बुरी अवस्था में पड़ गये हैं। जो अपने मित्र के लिये प्राणों का मोह छोड़कर शत्रु के सामने खडे़ होकर जूझ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचालवीरों को कर्ण रणभूमि में नष्ट कर रहा है।
भारत! कर्णरूपी अगाध महासागर में महाधनुर्धर पांचाल बिना नाव के डूब रहे हैं। तुम नौका बनकर उनका उद्धार करो। कर्ण ने मुनिश्रेष्ठ भृगुनन्दन परशुराम जी से जो महाघोर अस्त्र प्राप्त किया है, उसी का रूप इस समय प्रकट हो रहा है। वह अत्यन्त भयंकर एवं घोर भार्गवास्त्र पाण्डवों की विशाल सेना को आच्छादित करके अपने तेज से प्रज्वलित हो सम्पूर्ण सैनिकों को संतप्त कर रहा है। ये संग्राम में कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाण भ्रमरों के समूहों की भाँति चलते और तुम्हारे योद्धाओं को संतप्त करते हैं। भरतनन्दन! जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं कर रखा है, उनके लिये कर्ण के अस्त्र को रोकना अत्यन्त कठिन है। समरांगण में इसकी चोट खाकर ये पांचाल सैनिक सम्पूर्ण दिशाओं में भाग रहे हैं।
पार्थ! दृढ़तापूर्वक क्रोध को धारण करने वाले ये भीमसेन सब ओर से सृंजयों द्वारा घिरकर कर्ण के साथ युद्ध करते हुए उसके पैने बाणों से पीड़ित हो रहे हैं। भारत! जैसे प्राप्त हुए रोग की चिकित्सा न की गयी तो वह शरीर को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार यदि कर्ण की उपेक्षा की गयी तो वह पाण्डवों, सृंजयों और पांचालों का भी नाश कर सकता है। युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा दूसरे किसी योद्धा को ऐसा नहीं देखता, जो राधापुत्र कर्ण का सामना करके कुशलपूर्वक घर लौट सके। नरश्रेष्ठ! पार्थ! आज तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तीखे बाणों से कर्ण का वध करके उज्जवल कीर्ति प्राप्त करो। योद्धाओं में श्रेष्ठ! केवल तुम्हीं संग्राम में कर्ण सहित सम्पूर्ण कौरवों को जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। पुरुषोत्तम पार्थ! अत: महारथी कर्ण को मारकर यह महान कार्य सम्पन्न करने के पश्चात तुम कृतसत्य, सफल मनोरथ एवं सुखी हो जाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में श्रीकृष्णवाक्य विषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
चौहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन के वीरोचित उद्गार”
संजय कहते हैं ;– भरतनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण का यह भाषण सुनकर अर्जुन एक ही क्षण में शोकरहित एवं हर्ष और उत्साह से सम्पन्न हो गये। तत्पश्चात धनुष की प्रत्यचां को साफ करके उन्होंने शीघ्र ही गाण्डीव धनुष की टंकार की और कर्ण के विनाश का दृढ़ निश्चय कर लिया। फिर वे भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले,
अर्जुन ने कहा ;– गोविन्द! जब आप मेरे स्वामी और संरक्षक हैं, तब युद्ध में मेरी विजय निश्चित ही है। संसार के भूत और भविष्य का निर्माण करने वाले आप ही हैं। जिसके ऊपर आप प्रसन्न हैं, उसकी (अर्थात मेरी) विजय में आज क्या संदेह है। श्रीकृष्ण! आपकी सहायता मिलने पर तो मैं युद्ध के लिये सामने आये हुए तीनों लोकों को भी परलोक का पथिक बना सकता हूँ, फिर इस महासमर में कर्ण को जीतना कौन बड़ी बात है। जनार्दन! मैं समरभूमि में निर्भय से विचरते हुए कर्ण को और भागती हुई पांचालों की सेना को भी देख रहा हूँ। श्रीकृष्ण! वार्ष्णेय! सब ओर से प्रज्वलित होने वाले भार्गवास्त्र पर भी मेरी दृष्टि है, जिसे कर्ण ने उसी तरह प्रकट किया है, जैसे इन्द्र वज्र का प्रयोग करते हैं। निश्चय ही यह वह संग्राम है, जहाँ कर्ण मेरे हाथ से मारा जाएगा और जब तक यह पृथ्वी विद्यमान रहेगी, तब तक समस्त प्राणी इसकी चर्चा करेंगे। श्रीकृष्ण! आज मेरे हाथ से प्रेरित और गाण्डीव धनुष से मुक्त हुए विकर्ण नामक बाण कर्ण को क्षत-विक्षत करते हुए उसे यमलोक पहुँचा देंगे।
आज राजा धृतराष्ट्र अपनी उस बुद्धि का अनादर करेंगे, जिसके द्वारा उन्होंने राज्य के अनधिकारी दुर्योधन को राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया था। महाबाहो! आज धृतराष्ट्र अपने राज्य से, सुख से, लक्ष्मी से, राष्ट्र से, नगर से और अपने पुत्रों से बिछुड़ जायेंगे। श्रीकृष्ण! जो गुणवान से द्वेष करता और गुणहीन को राजा बनाता है, वह नरेश विनाशकाल उपस्थित होने पर शोकमग्न हो पश्चाताप करता है। जनार्दन! जैसे कोई पुरुष आम के विशाल वन को काटकर उसके दुष्परिणाम को उपस्थित देख अत्यन्त दुखी हो जाता है, उसी प्रकार आज सूतपुत्र के मारे जाने पर राजा दुर्योधन निराश हो जायेगा। श्रीकृष्ण! मैं आपसे सच्ची बात करता हूँ। आज कर्ण का वध हो जाने पर दुर्योधन अपने राज्य और जीवन दोनों से निराश हो जाएगा। आज मेरे बाणों से कर्ण के शरीर को टूक-टूक हुआ देखकर राजा दुर्योधन सन्धि के लिये कहे हुए आपके वचनों का स्मरण करे। श्रीक़ृष्ण! आज सुबलपुत्र जुआरी शकुनि को यह मालूम हो जाए कि मेरे बाण ही दाँव हैं, गाण्डीव धनुष ही पासा है और मेरा रथ ही मण्डल (चौपड़ के खाने) हैं। गोविन्द! आज मैं अपने पैने बाणों से कर्ण को मारकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर के चिन्ता जनित जागरण के स्थायी रोग को दूर कर दूँगा। आज कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरे द्वारा सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर प्रसन्नचित्त हो दीर्घकाल के लिये संतुष्ट एवं सुखी हो जायेंगे। आज मैं ऐसा अनुपम और अजेय बाण छोडूँगा, जो कर्ण को उसके प्राणों से वंचित कर देगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)
मधुसूदन! जिस दुरात्मा ने मेरे वध के लिये यह व्रत लिया है कि जब तक अर्जुन को मार न दूँगा, तब तक दूसरों से पैर न धुलाऊँगा। उस पापी के इस व्रत को मिथ्या करके झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उसके इस शरीर को रथ से नीचे गिरा दूँगा। जो भूमण्डल में दूसरे किसी पुरुष को रणभूमि में अपने समान नहीं मानता है, आज वह पृथ्वी उस सूतपुत्र के रक्त का पान करेगी। सूतपुत्र कर्ण ने धृतराष्ट्र के मत में होकर अपने गुणों की प्रशंसा करते हुए द्रौपदी से यह कहा था कि 'कृष्णे! तू पतिहीन है उसके इस कथन को मेरे तीखे बाण असत्य कर दिखायेंगे और क्रोध में भरे हुए विषधर सर्पों के समान उसके रक्त का पान करेंगे। मैं बाण चलाने में सिद्धहस्त हूँ। मेरे द्वारा गाण्डीव धनुष से छोडे़ गये बिजली के समान चमकते हुए नाराच कर्ण को परमगति प्रदान करेंगे।
राधापुत्र कर्ण ने भरी सभा में पाण्डवों की निन्दा करते हुए द्रौपदी से जो क्रूरतापूर्ण वचन कहा था, उसके लिये उसे बड़ा पश्चाताप होगा। जो पाण्डव वहाँ थोथे तिलों के समान नपुंसक कहे गये थे, वे दुरात्मा सूतपुत्र वैकर्तन कर्ण के मारे जाने पर आज अच्छे तिल और शूरवीर सिद्ध होंगे। अपने गुणों की प्रशंसा करते हुए सूतपुत्र कर्ण ने धृतराष्ट्र के पुत्रों से जो यह कहा था कि मैं पाण्डवों से तुम्हारी रक्षा करूँगा उसके इस कथन को मेरे तीखे बाण असत्य कर देंगे और पाण्डवों का युद्ध विषयक उद्योग समाप्त हो जायेगा। जिसने यह कहा था कि मैं पुत्रों सहित समस्त पाण्डवों को मार डालूँगा उस कर्ण को आज समस्त धनुर्धरों के देखते देखते मैं नष्ट कर दूँगा। जिसके बल-पराक्रम का भरोसा करके महामनस्वी दुर्बुद्धि एवं दुरात्मा दुर्योधन सदा हम लोगों का अपमान करता आया है, उस कर्ण का आज युद्धस्थल में वध करके मैं अपने भाई युधिष्ठिर को संतुष्ट करूँगा। नाना प्रकार के बाणों का प्रहार करके मैं शत्रु सैनिकों को भयभीत कर दूँगा।
धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये यमराष्टवर्धक बाणों द्वारा धराशायी किये गये रथों और हाथियों से रणभूमि की शोभा बढ़ाऊँगा। मैं महासमर में शक्ति सम्पन्न रणदुर्भद एवं भयंकर कर्ण को आज अपने बाणों द्वारा मार डालूँगा। श्रीकृष्ण! आज कर्ण के मारे जाने पर राजासहित धृतराष्ट्र के सभी पुत्र सिंह से डरे हुए मृगों के समान भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग जायँ। आज युद्धस्थल में पुत्रों और सुहृदयों सहित कर्ण के मेरे द्वारा मारे जाने पर राजा दुर्योधन अपने लिये निरन्तर शोक करे। श्रीकृष्ण! अमर्षशील दुर्योधन आज कर्ण को रणभूमि में मारा गया देख मुझे सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ समझ ले। मैं आज ही पुत्र, पौत्र, मन्त्री और सेवकों सहित राजा धृतराष्ट्र को राज्य की ओर से निराश कर दूँगा। केशव! आज चक्रवाक तथा भिन्न-भिन्न मांस भोजी पक्षी बाणों से कटे हुए कर्ण के अंगों को उठा ले जायँगे। मधुसूदन आज संग्राम में समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते मैं राजापुत्र कर्ण का मस्तक काट डालूँगा। श्रीकृष्ण! आज तीखे विपाठों और क्षुरप्रों से रणभूमि में दुरात्मा राधापुत्र के अंगों को काट डालूँगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 40-58 का हिन्दी अनुवाद)
आज वीर राजा युधिष्ठिर महान कष्ट और अपने चिरसंचित मानसिक संताप से छुटकारा पा जायँगे। केशव! आज मैं बन्धु-बान्ध्वों सहित राधापुत्र को मारकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करूँगा। श्रीकृष्ण! आज मैं युद्धस्थल में कर्ण के पीछे चलने वाले दीन-हीन सैनिकों को सर्पविष और अग्नि के समान बाणों द्वारा भस्म कर डालूँगा। गोविन्द! आज मैं सुवर्णमय कवच और मणिमय कुण्डल धारण करने वाले भूपतियों की लाशों से रणभूमि को पाट दूँगा। मधुसूदन! आज पैने बाणों से मैं अभिमन्यु के समस्त शत्रुओं के शरीरों और मस्तकों को मथ डालूँगा। केशव! या तो आज इस पृथ्वी को धृतराष्ट्रपुत्रों से पार्थ! दृढ़तापूर्वक क्रोध को धारण करने वाले ये भीमसेन सब ओर से सृंजयों द्वारा घिरकर कर्ण के साथ सूनी करके अपने भाई के अधिकार में दे दूँगा या आप अर्जुन रहित पृथ्वी पर विचरेंगे। श्रीकृष्ण! आज मैं सम्पूर्ण धनुर्धरों के, क्रोध के, कौरवों के, बाणों के तथा गाण्डीव धनुष के भी ऋण से मुक्त हो जाऊँगा। श्रीकृष्ण! जैसे इन्द्र ने शम्बरासुर का वध किया था, उसी प्रकार मैं रणभूमि में कर्ण को मारकर आज तेरह वर्षों से संचित किये हुए दु:ख का परित्याग कर दूँगा। आज युद्ध में कर्ण के मारे जाने पर मित्र के कार्य की सिद्धि चाहने वाले सोमकवंशी महारथी अपने को कृतकार्य समझ लें। माधव! आज कर्ण के मारे जाने और विजय के कारण मेरी प्रतिष्ठा बढ़ जाने पर नजाने शिनिपौत्र सात्यकि को कितनी प्रसन्नता होगी। मैं रणभूमि में कर्ण और उसके महारथी पुत्र को मारकर भीमसेन, नकुल, सहदेव तथा सात्यकि को प्रसन्न करूँगा।
माधव! आज महासमर में कर्ण का वध करके मैं धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा पांचालों के ऋण से छुटकारा पा जाऊँगा। आज समस्त सैनिक देखें कि संग्राम भूमि में अमर्षशील धनंजय किस प्रकार कौरवों से युद्ध करता और सूतपुत्र कर्ण को मारता है। मैं आपके निकट पुन: अपनी प्रशंसा से भरी हुई बात कहता हूँ, धनुर्वेद में मेरी समानता करने वाला इस संसार में दूसरा कोई नहीं हैं। फिर पराक्रम में मेरे जैसा कौन है? मेरे समान क्षमाशील भी दूसरा कौन है तथा क्रोध में भी मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है। मैं धनुष लेकर अपने बाहुबल से एक साथ आये हुए देवताओं, असुरों तथा सम्पूर्ण प्राणियों को परास्त कर सकता हूँ। मेरे पुरुषार्थ को उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट समझो। मैं अकेला ही बाणों की ज्वाला से युक्त गाण्डीव धनुष के द्वारा समस्त कौरवों और बाह्लीकों को दल-बल सहित मारकर ग्रीष्म ऋतु में सूखे काठ में लगी हुई आग के समान सब को भस्म कर डालूँगा। मेरे एक हाथ में बाण के चिह्न हैं और दूसरे में फैले हुए बाण सहित दिव्य धनुष की रेखा है। इसी प्रकार मेरे पैरों में भी रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मेरे जैसे लक्षणों वाला योद्धा जब युद्ध में उपस्थित होता है, तब उसे शत्रु जीत नहीं सकते हैं। भगवान ने ऐसा कहकर अद्वितीय वीर शत्रुसूदन अर्जुन क्रोध से लाल आँखे किये समर भूमि में भीमसेन को संकट से छुड़ाने और कर्ण के मस्तक को धड़ से अलग करने के लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ से चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अर्जुनवाक्य विषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
पचहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“दोनों पक्षों की सेनाओं में द्वन्द्व युद्ध तथा सुषेण का वध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– तात संजय! मेरे पुत्रों तथा पाण्डवों और सृंजयों में पहले से ही अभाव एवं महाभयंकर संग्राम छिड़ा हुआ था। फिर जब धनंजय भी वहाँ कर्ण के साथ युद्ध के लिये जा पहुँचे, तब उस युद्ध का स्वरूप कैसा हो गया?
संजय कहते हैं ;– महाराज! ग्रीष्म ऋतु बीत जाने पर जैसे मेघ समूह गर्जना करने लगते हैं, उसी प्रकार दोनों पक्षों की सेनाएँ एकत्र हो रणभूमि में गर्जना करने लगीं। उनके भीतर बड़े-बड़े ध्वज फहरा रहे थे और सभी सैनिक अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न थे। रणभेरियों की ध्वनि उन्हें युद्ध के लिये उत्सुक किये हुए थी। क्रमश: वह क्रूरतापूर्ण युद्ध बिना ऋतु की अनिष्टकारी वर्षा के समान प्रजाजनों का संहार करने लगा। बड़े-बड़े़ हाथियों का समूह मेघों की घटा बनकर वहाँ छाया हुआ था। अस्त्र ही जल थे, वाद्यों और पहियों की घर्घराहट का शब्द ही मेघ-गर्जन के समान प्रतीत होता था। सुवर्णजटित विचित्र आयुध विद्युत के समान प्रकाशित होते थे। बाण, खड्ग और नाराच आदि बड़े-बडे़ अस्त्रों की धारावाहिक वृष्टि हो रही थी। धीरे-धीरे उस युद्ध का वेग बड़ा भयंकर हो उठा, रक्त का स्त्रोत बह चला। तलवारों की खचाखच मार होने लगी, जिससे क्षत्रियों के प्राणों का संहार होने लगा। बहुत से रथी एक साथ मिलकर किसी एक रथी को घेर लेते और उसे यमलोक पहुँचा देते थे।
इसी प्रकार एक रथी एक रथी को और अनेक श्रेष्ठ रथियों को भी यमलोक का पथिक बना देता था। किसी रथी ने किसी एक रथी को घोड़ों और सारथि सहित मौत के हवाले कर दिया तथा किसी दूसरे वीर ने एकमात्र हाथी के द्वारा बहुत से रथियों और घोड़ों को मौत का ग्रास बना दिया। उस समय अर्जुन ने सारथि सहित रथों, घोड़ों सहित हाथियों, समस्त शत्रुओं, सवारों सहित घोड़ों तथा पैदल समूहों को भी अपने बाण समूहों द्वारा मृत्यु के अधीन कर दिया। उस रणभूमि में कृपाचार्य और शिखण्डी एक दूसरे से भिड़े थे, सात्यकि ने दुर्योधन पर धावा किया था, श्रुतश्रवा द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के साथ जूझ रहा था और युधामन्यु चित्रसेन के साथ युद्ध कर रहे थे। सृंजयवंशी रथी उत्तमौजा ने अपने सामने आये हुए कर्णपुत्र सुषेण पर आक्रमण किया था। जैसे भूख से पीड़ित हुआ सिंह किसी साँड पर धावा करता है, उसी प्रकार सहदेव गान्धारराज शकुनि पर टूट पड़े थे।
नकुलपुत्र नवयुवक शतानीक ने कर्ण के नौजवान बेटे वृषसेन को अपने बाण समूहों से घायल कर दिया तथा शूरवीर कर्णपुत्र वृषसेन ने भी अनेक बाणों की वर्षा करके पांचालीकुमार शतानीक को गहरी चोट पहुँचायी। विचित्र युद्ध करने वाले, रथियों में श्रेष्ठ माद्रीकुमार नकुल ने कृतवर्मा पर चढ़ाई की। द्रुपदकुमार पांचालराज सेनापति धृष्टद्युम्न ने सेना सहित कर्ण पर आक्रमण किया। भारत! दु:शासन, कौरव सेना और संशप्तक की समृद्धिशालिनी वाहिनी ने असह्य वेगशाली, शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा युद्ध में भयंकर प्रतीत होने वाले भीमसेन पर चढ़ाई की। वीर उत्तमौजा ने हठपूर्वक वहाँ कर्णपुत्र सुषेण पर घातक प्रहार किया और उसका मस्तक काट डाला। सुषेण का वह मस्तक अपने आर्तनाद से आकाश और प्रतिध्वनित करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 14-17 का हिन्दी अनुवाद)
सुषेण के मस्तक को पृथ्वी पर पड़ा देख कर्ण शोक से आतुर हो उठा। उसने कुपित हो उत्तम धार वाले पैने बाणों से उत्तमौजा के रथ, ध्वज और घोड़ों को काट डाला। तब उत्तमौजा ने तीखे बाणों से कर्ण को बींध डाला और (जब कृपाचार्य ने बाधा दी तब) चमचमाती हुई तलवार से कृपाचार्य के पृष्ठरक्षकों और घोड़ों को मारकर वह शिखण्डी के रथ पर आरूढ़ हो गया।
कृपाचार्य को रथहीन देख रथ पर बैठे हुए शिखण्डी ने उन पर बाणों से आघात करने की इच्छा नहीं की। तब अश्वत्थामा ने शिखण्डी को रोककर कीचड़ में फँसी हुई गाय के समान कृपाचार्य के रथ का उद्धार किया। जैसे आषाढ़ में दोपहर का सूर्य अत्यन्त ताप प्रदान करता है, उसी प्रकार सुवर्ण कवचधारी वायुपुत्र भीमसेन आपके पुत्रों की सेना को तीखे बाणों द्वारा अधिक संताप देने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलद्वन्द युद्ध विषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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