सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का अर्जुन से भ्रमवश कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त पूछना”
युधिष्ठिर बोले ;- देवकीनन्दन! तुम्हारा स्वागत हो! धनंजय! तुम्हारा भी स्वागत है। श्रीकृष्ण और अर्जुन! इस समय तुम दोनों का दर्शन मुझे अत्यन्त प्रिय लगा है; क्योंकि तुम दोनों ने स्वयं किसी प्रकार की क्षति न उठाकर सकुशल रहते हुए महारथी कर्ण को मार डाला है।
कर्ण युद्ध में विषधर सर्प के समान भयंकर, सम्पूर्ण शस्त्र विद्याओं में निपुण तथा कौरवों का अगुआ था। वह शत्रुपक्ष में सबका कल्याण साधक और कवच बना हुआ था। वृषसेन और सुषेण जैसे धनुर्धर उसकी रक्षा करते थे। परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्रों ज्ञान प्राप्त करके वह महान शक्तिशाली और अत्यन्त दुर्जय हो गया था। समस्त संसार का सर्वश्रेष्ठ रथी एवं विश्वविख्यात वीर था। धृतराष्ट्र पुत्रों का रक्षक, सेना के मुहाने पर जाकर युद्ध करने वाला, शत्रु सैनिकों का संहार करने में समर्थ तथा विरोधियों का मान मर्दन करने वाला था। वह सदा दुर्योधन के हित में संलग्न रहकर हम लोगों को दु:ख देने के लिये अद्यत रहता था। महायुद्ध में इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे परास्त नहीं कर सकते थे। वह तेज में अग्रि, बल में वायु और गम्भीरता में पाताल के समान था। अपने मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाला और मेरे मित्रों के लिये यमराज के समान था। किसी असुर को जीतकर आये हुए दो देवताओं के समान तुम दोनों मित्र महासमर में कर्ण को मारकर यहाँ आ गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है। श्रीकृष्ण और अर्जुन! सम्पूर्ण प्रजा का संहार करने की इच्छा रखने वाले काल के समान उस कर्ण ने आज मेरे साथ घोर युद्ध किया था। फिर भी मैंने उसमें दीनता नहीं दिखायी। उसने सात्यकि, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, वीर शिखण्डी, द्रौपदीपुत्र तथा पांचालों के देखते-देखते मेरी ध्वजा काट डाली, पार्श्वरक्षकों को मार डाला और मेरे घोड़ों का भी संहार कर डाला था।
महाबाहो! महायुद्ध में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले महापराक्रमी कर्ण ने इन बहुसंख्यक शत्रुगणों को परास्त करके मुझ पर विजय पायी थी। योद्धाओं में श्रेष्ठ वीर! उसने युद्ध में मेरा पीछा करके जहाँ-तहाँ मुझे अपमानित करते हुए बहुत से कटुवचन सुनाये हैं- इसमें संशय नहीं है। धनंजय! मैं इस समय भीमसेन के प्रभाव से ही जीवित हूँ। यहाँ अधिक कहने से क्या लाभ मैं उस अपमान को किसी प्रकार सह नहीं सकता। अर्जुन! मैं जिससे भयभीत होकर तेरह वर्षों तक न तो रात में अच्छी तरह नींद ले सका और न दिन में ही कहीं सुख पा सका। धनंजय! मैं उसके द्वेष से निरन्तर जलता रहा। जैसे वाध्रीणस नामक पशु अपनी मौत के लिये ही वध स्थान में पहुँच जाय, उसी प्रकार मैं भी अपनी मृत्यु के लिये कर्ण का समाना करने चला गया था। मैं कर्ण को युद्ध में कैसे मार सकता हूं, यही सोचते हुए मेरा यह दीर्घकाल व्यतीत हुआ है। कुन्तीनन्दन! मैं जागते और सोते समय सदा कर्ण को ही देखा करता था। यह सारा जगत मेरे लिये जहाँ-तहाँ कर्णमय हो रहा था। धनंजय! मैं जहां-जहाँ भी जाता, कर्ण से भयभीत होने के कारण सदा उसी को अपने सामने खड़ा देखता था। पार्थ। मैं समरभूमि में कभी पीठ न दिखाने वाले उसी वीर कर्ण के द्वारा रथ और घोड़ों सहित परास्त करके केवल जीवित छोड़ दिया गया हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 21-36 का हिन्दी अनुवाद)
अब मुझे इस जीवन से तथा राज्य से क्या प्रयोजन है जबकि आज युद्ध में शोभा पाने वाले कर्ण ने मुझे इस प्रकार क्षत-विक्षत कर डाला है। पहले कभी भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य से भी मुझे युद्ध स्थल में जो अपमान नहीं प्राप्त हुआ था, वही आज महारथी सूत पुत्र से युद्ध में प्राप्त हो गया है।
कुन्तीनन्दन! इसीलिये मैं तुमसे पूछता हूँ कि आज जिस प्रकार सकुशल रहकर तुमने कर्ण को मारा है, वह सारा समाचार मुझे पूर्ण रुप से बताओ। जो युद्ध में इन्द्र के समान बलवान यमराज के समान पराक्रमी और परशुराम जी के समान अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता था, वह कर्ण कैसे मारा गया। जो सम्पूर्ण युद्ध की कला में कुशल, विख्यात महारथी, धनुर्धरों में श्रेष्ठ तथा सब शत्रुओं में प्रधान पुरुष था, जिसे पुत्रसहित धृतराष्ट्र ने तुम्हारा सामना करने के लिये ही सम्मान पूर्वक रखा था, वह महाबली राधापुत्र कर्ण तुम्हारे द्वारा कैसे मारा गया। पुरुषप्रवर अर्जुन! दुर्योधन रणक्षेत्र में सम्पूर्ण योद्धाओं में से कर्ण को ही तुम्हारी मृत्यु मानता था। कुन्तीपुत्र! पुरुषसिंह! तुमने कैसे युद्ध में उस कर्ण को मारा है कर्ण जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा मारा गया है, वह सब समाचार मुझे बताओ। पुरुषसिंह। जैसे सिंह रुरु नामक मृग का मस्तक काट लेता है, उसी प्रकार तुमने समस्त सुहृदों के देखते-देखते जो जूझते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया है, वह किस प्रकार सम्भव हुआ। अर्जुन! समरांगण में जो सूतपुत्र कर्ण सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं में तुम्हें पाने के लिये चक्कर लगाता था और तुम्हारा पता बताने वाले को हाथी के समान छ: बैल देना चाहता था, वही दुरात्मा सूतपुत्र क्या इस समय रणभूमि में तुम्हारे द्वारा कंकपत्रयुक्त तीखे बाणों से मारा जाकर पृथ्वी पर सो रहा है आज रणक्षेत्र में सूतपुत्र को मारकर तुमने मेरा यह परम प्रिय कार्य पूर्ण किया।
जो सदा सम्मानित होकर घमंड में भरा हुआ सूतपुत्र तुम्हारे लिये सब ओर धावा किया करता था, अपने को शूरवीर मानने वाले उस कर्ण को समरांगण में उसके साथ युद्ध करके क्या तुमने मार डाला है। तात! जो रणक्षेत्र में तुम्हारा पता बताने के लिये दूसरों को हाथी-घोड़ों से युक्त सोने का बना हुआ सुन्दर रथ देने का हौसला रखता और सदा तुमसे होड़ लगाता था, वह पापी क्या युद्ध स्थल में तुम्हारे द्वारा मार डाला गया। जो शौर्य के मद से उन्मत्त हो कौरवों की सभा में सदा बढ़-बढ़कर बातें बनाया करता था और दुर्योधन का अत्यन्त प्रिय था, क्या उस पापी कर्ण को तुमने आज मार डाला। क्या आज युद्ध में तुम से भिड़कर तुम्हारे द्वारा धनुष से छोड़े गये लाल अंगों वाले आकाशचारी बाणों से सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण वह पापी कर्ण आज पृथ्वी पर पड़ा है? क्या उसके मरने से दुर्योधन की दोनों बांहे टूट गयीं? जो राजाओं के बीच में दुर्योधन का हर्ष बढ़ाता हुआ घमंड में भरकर सदा मोहवश यह डींग हांकता था कि मैं अर्जुन का वध कर सकता हूँ। क्या उसकी वह बात आज निष्फल हो गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 37-48 का हिन्दी अनुवाद)
इन्द्रकुमार! उस मन्दबुद्धि कर्ण ने सदा के लिये यह व्रत ले रखा था कि जब तक कुन्तीकुमार अर्जुन जीवित हैं, तब तक मैं दूसरों से पैर नहीं धुलाऊंगा। क्या उस कर्ण को तुमने आज मार डाला। जिस दुष्ट बुद्धिवाले कर्ण ने कौरव-वीरों के बीच भरी सभा में द्रौपदी से कहा था कि ‘कृष्णे! तू इन अत्यन्त दुर्बल, पतित और शक्तिहीन पाण्डवों को छोड़ क्यों नहीं देती। ‘जिस कर्ण ने तुम्हारे लिये यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘आज मैं श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को मारे बिना यहाँ नहीं लौटूंगा’ क्या वह पापात्मा तुम्हारे बाणों से छिन्न-भिन्न होकर धरती पर पड़ा है। क्या तुम्हें आज के संघर्ष में सृंजयों और कौरवों का जो यह संग्राम हुआ था, उसका समाचार ज्ञात हुआ है, जिसमें मैं ऐसी दुर्दशा को पहुँचा दिया गया। क्या तुमने आज उस दुरात्मा कर्ण को मार डाला।
सव्यसाची अर्जुन! क्या तुमने युद्धस्थल में गाण्डीव धनुष से छोड़े गये प्रज्वलित बाणों द्वारा उस मन्दबुद्धि कर्ण के कुण्डमण्डित तेजस्वी मस्तक को धड़ से काट गिराया? वीर! जिस समय मैं बाणों से घायल कर दिया गया, उस समय कर्ण के वध के लिये मैंने तुम्हारा चिन्तन किया था। क्या तुमने कर्ण को धराशायी करके मेरे उस चिन्तन को आज सफल बना दिया? कर्ण का आश्रय लेकर दुर्योधन जो बड़े घमंड में भरकर हम लोगों की ओर देखा करता था। क्या तुमने दुर्योधन के उस महान आश्रय को आज पराक्रम करके नष्ट कर दिया? जिसने पूर्वकाल में सभा-भवन के भीतर कौरवों की आंखों के सामने हमें थोथे तिलों के समान नपुंसक बताया था वह अमर्षशील दुर्बुद्धि सूतपुत्र क्या आज युद्ध में आकर तुम्हारे हाथ से मारा गया? जिस दुरात्मा सूतपुत्र कर्ण ने हंसते-हंसते पहले दु:शासन से यह बात कही थी कि ‘सुबलपुत्र के द्वारा जीती हुई द्रुपद कुमारी को तुम स्वयं जाकर बलपूर्वक यहाँ ले आओ, क्या तुमने आज उसे मार डाला? महात्मन! जो पृथ्वी पर समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठतम समझा जाता था जिस मूर्ख ने अर्धरथी गिना जाने पर पितामह भीष्म के ऊपर महान् आक्षेप किया था, उस अधि रथपुत्र को क्या तुमने आज मार डाला। फाल्गुन! मेरे हृदय में जिस कर्ण की शठतारुपी वायु से प्रेरित हो अमर्ष आग सदा प्रज्वलित रहती है ‘उस कर्ण को आज युद्ध में पाकर मैंने मार डाला’ ऐसा कहते हुए क्या तुम आज मेरी उस आग को बुझा दोगे? बोलो, मेरे लिये यह समाचार अत्यन्त दुर्लभ है। वीरवर! तुमने सूतपुत्र को कैसे मारा मैं वृत्रासुर के मारे जाने पर भगवान इन्द्र के समान सदा तुम्हारे विजयी स्वरुप का चिन्तन करता हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में युधिष्ठिरवाक्य विषयक छाछठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का युधिष्ठिर से अब तक कर्ण को न मार सकने का कारण बताते हुए उसे मारने के लिये प्रतिज्ञा करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! क्रोध में भरे हुए धर्मात्मा नरेश की वह बात सुनकर अनन्त पराक्रमी अतिरथी महात्मा विजयशील अर्जुन ने उदारचित एवं दुर्जय राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा,
अर्जुने ने कहा ;- 'राजन! आज जब मैं संशप्तकों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय कौरव सेना का अगुआ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों का प्रहार करता हुआ सहसा मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। भूपाल शिरोमणे! इधर कौरवों की सारी सेना मेघ के समान गम्भीर घर्घर ध्वनि करने वाले मेरे रथ को देखकर युद्ध के लिये डटकर खड़ी हो गयी, तब मैंने उस सेना में से पांच सौ वीरों का वध करके आचार्यपुत्र पर आक्रमण किया। नरेन्द्र! जैसे गजराज सिंह की ओर दौड़े, उसी प्रकार अश्वत्थामा ने मुझे सामने पाकर विजय के लिये प्रयत्नशील हो मुझ पर आक्रमण किया। महाराज! उसने मारे जाते हुए कौरव रथियों का उद्धार करने की इच्छा की। भारत! तदनन्तर कौरवों के प्रधान वीर दुर्धर्ष आचार्य पुत्र ने रणक्षेत्र में विष और अग्नि के समान भयंकर तीखे बाणों द्वारा मुझे और श्रीकृष्ण को पीड़ित करना प्रारम्भ किया। मेरे साथ युद्ध करते समय अश्वत्थामा के लिये आठ-आठ बैलों से जुते हुए आठ छकड़े सैकड़ों हजारों बाण ढोते रहते थे। उसके चलाये हुए उन सभी बाणों को मैंने अपने बाणों से मारकर उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे वायु मेघों के समूह को छिन्न-भिन्न कर देती है। तत्पश्चात जैसे वर्षाकाल में मेघों की काली घटा जल की वर्षा करती है, उसी प्रकार शिक्षा, अस्त्र, बल और प्रयत्नों द्वारा धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये बहुत से बाणसमूह उसने बरसाये।
द्रोणपुत्र अश्वत्थामा समरभूमि में चारों ओर चक्कर लगाने लगा। वह कब बाण लेता, कब उसे धनुष रखता और कब किस हाथ से बायें अथवा दायें से छोड़ता था, यह हम लोग नहीं जान पाते थे। केवल प्रत्यंचासहित तना हुआ उस द्रोणपुत्र का मण्डलाकार धनुष ही दिखायी देता था। उसने पांच तीखे बाणों से मुझको और पांच से श्रीकृष्ण को भी घायल कर दिया। तब मैंने पलक मारते-मारते वज्र के समान तीस सुदृढ़ बाणों द्वारा उसे क्षणभर में पीड़ित कर दिया। मेरे छोड़े हुए बाणों से घायल होने पर उसका स्वरुप कांटों से भरे साही के समान दिखायी देने लगे। तब वह सारे शरीर से खून की धारा बहाता हुआ मेरे द्वारा पीड़ित हुए समस्त सैनिक शिरोमणियों को खून से लथपथ देखकर सूतपुत्र कर्ण की रथसेना में घुस गया। तत्पश्चात युद्धस्थल में अपनी सेना के योद्धाओं को भय से आक्रान्त और हाथी घोड़ों को भागते देख पचास मुख्य-मुख्य रथियों को साथ ले शत्रुओं को मथ डालने वाला कर्ण बड़ी उतावली के साथ मेरे पास आया। उन पचासों रथियों का संहार करके कर्ण को छोड़कर मैं बड़ी उतावली के साथ आपका दर्शन करने के लिये चला आया हूँ। जैसे गौएं सिंह को देखकर डर जाती हैं, उसी प्रकार सारे पांचाल सैनिक कर्ण को देखकर उद्विग्न हो उठते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! मृत्यु के फैले हुए मुंह के समान कर्ण के पास पहुँचकर प्रभद्रकगण भारी संकट में पड़ गये। कर्ण ने युद्ध के समुद्र में डूबे हुए उन सात सौ रथियों को तत्काल मृत्यु के लोक में भेज दिया था। अचिन्त्यकर्मा नरेश्वर! जब तक सूतपुत्र ने हम लोगों को नहीं देखा था, तब तक उसके मन में उद्वेग या खेद नहीं हुआ था। मैंने जब सुना कि उसने पहले आप पर दृष्टिपात किया था और आप से उसका युद्ध भी हुआ था, साथ ही उससे भी पहले अश्वत्थामा ने आपको क्षत-विक्षत कर दिया था, तब क्रूरकर्मा कर्ण के सामने से आपका यहाँ चला आना ही मुझे समयोचित प्रतीत हुआ।
पाण्डुनन्दन! मैंने युद्ध में अपने सामने कर्ण के इस विचित्र अस्त्र को देखा था। सृंजयों में दूसरा कोई ऐसा योद्धा नहीं है, जो आज महारथी कर्ण का सामना कर सके। राजन! शिनिपौत्र सात्यकि और धृष्टद्युम्न मेरे चक्र रक्षक हों; युधामन्यु और उत्तमौजा, ये दोनों शूरवीर राजकुमार मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करें। महानुभाव! भरतवंशी नृपश्रेष्ठ! शत्रुसेना में विद्यमान रथियों में प्रमुख वीर दुर्जय सूतपुत्र कर्ण के साथ, यदि इस संग्राम में आज वह मुझे दीख जाय तो युद्धस्थल में मिलकर मैं उसी तरह युद्ध करुंगा, जैसे वज्रधारी इन्द्र ने वृत्रासुर के साथ किया था। आइये, देखिये, आज मैं रणभूमि में सूतपुत्र पर विजय पाने के लिये युद्ध करना चाहता हूँ। प्रभद्रकगण कर्ण पर धावा कर रहे हैं, ऐसा करके वे मानो अजगर के मुख में पड़ गये हैं।
भारत! छ: हजार राजकुमार स्वर्गलोक में जाने के लिये युद्ध के सागर में मग्न हो गये हैं। राजन राजसिंह! यदि आज मैं बन्धुओं सहित युद्ध में तत्पर हुए कर्ण को हठपूर्वक न मार डालूं तो प्रतिज्ञा करके उसका पालन न करने वाले को जो दु:खदायी गति प्राप्त होती है, उसी को मैं भी पाऊंगा। मैं आप से आज्ञा चाहता हूँ। आप रणभूमि में मेरी विजय का आशीर्वाद दीजिये। नरेन्द्रसिंह! धृतराष्ट्र के पुत्र भीमसेन को ग्रस लेने की चेष्टा कर रहे हैं। मैं इसके पहले ही सूतपुत्र कर्ण को, उसकी सेना को तथा सम्पूर्ण शत्रुओं को मार डालूंगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में अर्जुनवाक्य विषयक सरसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का अर्जुन के प्रति अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन”
संजय कहते हैं ;- राजन! कर्ण के बाणों से संतप्त हुए अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर अधिक बलशाली कर्ण को सकुशल सुनकर अर्जुन पर कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘तात! तुम्हारी सारी सेना भाग चली है। तुमने आज उसकी ऐसी उपेक्षा की है, जो किसी प्रकार अच्छी नहीं कही जा सकती। जब तुम कर्ण को जीत नहीं सके तो भयभीत हो भीमसेन को वहीं छोड़कर यहाँ चले आये। पार्थ! तुमने कुन्ती के गर्भ में निवास करके भी अपने सगे भाई के प्रति ऐसा स्नेह निभाया, जिसे कोई अच्छा नहीं कह सकता; क्योंकि जब तुम सूतपुत्र कर्ण को मारने में समर्थ न हो सके, तब भीमसेन को अकेले रणभूमि में छोड़कर स्वयं वहाँ से चले आये। तुमने द्वैतवन में जो यह सत्य वचन कहा था कि ‘मैं एक मात्र रथ के द्वारा युद्ध करके कर्ण को मार डालूंगा’ उस प्रतिज्ञा को तोड़कर कर्ण से भयभीत हो भीमसेन को छोड़कर आज तुम रणभूमि से लौट कैसे आये?
पार्थ! यदि तुमने द्वैतवन में यह कह दिया होता कि ‘राजन! मैं कर्ण के साथ युद्ध नहीं कर सकूंगा’ तो हम सब लोग समयोचित कर्त्तव्य का निश्चय करके उसी के अनुसार कार्य करते। वीर! तुमने मुझसे कर्ण के वध की प्रतिज्ञा करके उसका उसी रुप में पालन नहीं किया। यदि ऐसा ही करना था तो हमें शत्रुओं के बीच में लाकर पत्थर की वेदी पर पटककर पीस क्यों डाला। राजकुमार अर्जुन! हमने बहुत से मंगलमय अभीष्ट पदार्थ प्राप्त करने की इच्छा रखकर तुम पर आशा लगा रखी थी; परंतु फल चाहने वाले मनुष्यों को अधिक फूलों वाला फलहीन वृक्ष जैसे निराश कर देता है, उसी प्रकार तुम से हमारी सारी आशा निष्फल हो गयी। मैं राज्य पाना चाहता था; किंतु तुमने मांस के ढके हुए वंशी के कांटे और भोजन सामग्री से आच्छादित हुए विष के समान मुझे राज्य के रुप में अनर्थकारी विनाश का ही दर्शन कराया है।
धनंजय! जैसे बोया हुआ बीज समय पर मेघ द्वारा की हुई वर्षों की प्रतीक्षा में जीवित रहता है, उसी प्रकार हमने तेरह वर्षों तक सदा तुम पर ही आशा लगाकर जीवन धारण किया था; परंतु तुमने हम सब लोगों को नरक में डुबो दिया (भारी संकट में डाल दिया)। मन्दबुद्धि अर्जुन! तुम्हारे जन्म लिये सात ही दिन बीते थे कि माता कुन्ती से आकाशवाणी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया,- ‘देवि! तुम्हारा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी पैदा हुआ है। यह अपने समस्त शूरवीर शत्रुओं को जीत लेगा। यह उत्तम शक्ति से सम्पन्न बालक खाण्डववन में देवताओं के समूहों तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर भी विजय प्राप्त करेगा। यह मद्र, कलिंग और केकयों को जीतेगा तथा राजाओं की मण्डली में कौरवों का भी विनाश कर डालेगा। इससे बढ़कर दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा। कोई भी प्राणी कभी भी इसे जीत नहीं सकेगा। यह अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखता हुआ सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त कर लेगा और इच्छा करते ही सभी प्राणियों को अपने अधीन कर सकेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)
यह चन्द्रमा की कान्ति, वायु के वेग, मेरु की स्थिरता, पृथ्वी की क्षमा, सूर्य की प्रभा, कुबेर की लक्ष्मी, इन्द्र के शौर्य और भगवान विष्णु के बल से सम्पन्न होगा। कुन्ति! तुम्हारा यह महामनापुत्र अदिति के गर्भ से प्रकट हुए शत्रुहन्ता भगवान विष्णु के समान उत्पन्न हुआ है। यह अमितबलशाली बालक स्वजनों की विजय और शत्रुओं के वध के लिये प्रसिद्ध एवं अपनी कुलपरम्परा का प्रवर्तक होगा’।
शतश्रृंग पर्वत के शिखर तपस्वी महात्माओं के सुनते हुए आकाशवाणी ने ये बातें कही थी; परंतु उसका यह कथन सफल नहीं हुआ। निश्चय ही देवतालोग भी झूठ बोलते हैं। इसी प्रकार दूसरे महर्षि भी सदा तुम्हारी प्रशंसा करते हुए ऐसी बातें कहा करते थे। उनकी बातें सुनकर ही मैं दुर्योधन के सामने कभी नतमस्तक न हो सका; परंतु मैं यह नहीं जानता था कि तुम अधिरथपुत्र कर्ण के भय से पीड़ित हो जाओगे। दुर्योधन ने पहले ही जो यह बात कह दी थी कि ‘अर्जुन युद्ध में महाबली कर्ण के सामने नहीं खड़े हो सकेंगे', उसके इस कथन पर मैंने मूर्खतावश विश्वास नहीं किया था। इसलिये आज संतप्त हो रहा हूँ। शत्रुओं के समुदाय में फंसकर असीम नरक-तुल्य संकट में पड़ गया हूँ। अर्जुन! तुम्हें पहले ही यह कह देना चाहिये था कि ‘मैं सूत पुत्र कर्ण के साथ किसी प्रकार युद्ध नहीं करुंगा’। वैसी दशा में मैं सृंजयों, केकयों तथा अन्यान्य सुहृदों को युद्ध के लिये आमन्त्रित नहीं करता।
आज जब ऐसी परिस्थिति है, तब सूतपुत्र कर्ण, राजा दुर्योधन तथा अन्य जो लोग मेरे साथ युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए हैं, उन सबके साथ छिड़े हुए इस संग्राम में मैं कौन-सा कार्य कर सकता हूँ। श्रीकृष्ण! मैं कौरवों, सुहृदों तथा अन्य जो लोग युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए हैं, उन सबके बीच में आज सूतपुत्र कर्ण के अधीन हो गया। मेरे जीवन को धिक्कार है। आज एकमात्र भीमसेन ही मेरे रक्षक हैं, जिन्होंने महान भयदायक संग्राम में सब ओर से मेरी रक्षा की है। उन्होंने मुझे संकट से मुक्त करके अपने पैने बाण से कर्ण को बींध डाला था। भीमसेन का शरीर खून से नहा उठा था। फिर भी वे हाथ में गदा लेकर प्रलयकाल के यमराज की भाँति रणभूमि में विचरते थे और प्राणों का मोह छोड़कर समरांगण में एकत्र हुए कौरवों के साथ युद्ध करते थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ युद्ध करते हुए भीमसेन का वह महान सिंहनाद बारंबार सुनायी दे रहा है। पार्थ! यदि महारथियों में श्रेष्ठ और उत्तम रथी तुम्हारा पुत्र अभिमन्यु जीवित होता तो वह शत्रुओं का वध अवश्य करता। फिर तो समरभूमि में मुझे ऐसा अपमान नहीं उठाना पड़ता। यदि समरांगण में घटोत्कच भी जीवित होता तो भी मुझे वहाँ से मुंह फेरकर भागना नहीं पड़ता।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 22-30 का हिन्दी अनुवाद)
भीमसेन का वह पुत्र समरभूमि में आगे चलने वाला, महान अस्त्रवेत्ता और तुम्हारे समान ही पराक्रमी था। उसके होने पर हमारे शत्रुओं की सेना यत्न करके भी सफल न होती और भय से व्याकुल होकर आंखें बंद कर लेती। उस महानुभाव वीर ने अकेले ही रात्रि में युद्ध किया था, जिससे शत्रुसैनिक भय से मारे रणभूमि छोड़कर भागने लगे थे। उसने कर्ण पर आक्रमण करके रणभूमि में अपने बाण समूहों द्वारा सबको मोह में में डाल दिया था; परंतु धैर्य में स्थित हुए सूतपुत्र कर्ण ने इन्द्र की दी हुई उस शक्ति के द्वारा उसे मार डाला। निश्चय ही मेरे अभाग्य और पूर्वकृत पाप इस युद्ध में प्रबल हो रहे हैं।
दुरात्मा कर्ण ने संग्राम में तुम्हें तिनके के समान समझकर मेरा ऐसा अपमान किया है। किसी शक्तिहीन तथा बन्धु-बान्धवों से रहित असहाय मनुष्य के साथ जैसा बर्ताव किया जाता है, कर्ण ने वैसा ही मेरे साथ किया है। जो कोई पुरुष आपति में पड़े हुए मनुष्य को संकट से छुड़ा देता है, वही बन्धु है और वही स्नेही सुदृढ़। प्राचीन महर्षि ऐसा ही कहते हैं। यही सत्पुरुषों द्वारा सदा से पालित होने वाला धर्म है। कुन्तीनन्दन! तुम्हारा रथ साक्षात विश्वकर्मा का बनाया हुआ है, उसके धुरे से कोई आवाज नहीं होती। उस पर वानरध्वजा फहराती रहती है, ऐसे शुभलक्षण रथ पर आरुढ़ हो सुवर्णजटित खंड और चार हाथ के श्रेष्ठ धनुष गाण्डीव को लेकर तथा भगवान श्रीकृष्ण जैसे सारथि के द्वारा संचालित होकर भी तुम कर्ण से भयभीत होकर कैसे भाग आये। तुम अपना गाण्डीव धनुष भगवान श्रीकृष्ण को दे दो तथा रणभूमि में स्वयं इनके सारथि बन जाओ। फिर जैसे इन्द्र ने हाथ में वज्र लेकर वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार ये श्रीकृष्ण भयंकर वीर कर्ण को मार डालेंगे।
यदि तुम आज रणभूमि में विचरते हुए इस भयानक वीर राधापुत्र कर्ण का सामना करने की शक्ति नहीं रखते तो अब यह गाण्डीव धनुष दूसरे किसी ऐसे राजा को दे दो, जो अस्त्र-बल में तुमसे बढ़कर हो। पाण्डुनन्दन! ऐसा हो जाने पर संसार के मनुष्य हमें फिर इस प्रकार स्त्री-पुत्रों के संयोग से रहित, राज्य नष्ट होने के कारण सुख से वंचित तथा पापियों द्वारा सेवित अगाध नरक-तुल्य कष्ट में गिरा हुआ नहीं देखेंगे। दुरात्मा राजपुत्र! यदि तुम पांचवें महीने में माता के गर्भ से गिर गये होते अथवा माता कुन्ती के अष्टदायक गर्भ में आये ही नहीं होते तो वह तुम्हारे लिये अच्छा होता; क्योंकि उस दशा में तुम्हें युद्ध से भाग आने का कलंक तो नहीं प्राप्त होता। धिक्कार है तुम्हारे इस गाण्डीव धनुष को, धिक्कार है तुम्हारी भुजाओं के पराक्रम को, धिक्कार है तुम्हारे इन असंख्य बाणों को, धिक्कार है हनुमान जी के द्वारा उपलक्षित तुम्हारी इस ध्वजा को तथा धिक्कार है अग्रिदेव के दिये हुए इस रथ को’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर क्रोधपूर्ण वचनविषयक अड़सठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का वध करने के लिये उद्यत हुए अर्जुन को मगवान् श्रीकृष्ण का बलाकव्याध और कौशिक मुनि की कथा सुनाते हुए धर्म का तत्त्व बताकर समझाना”
संजय कहते हैं ;- राजन! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर श्वेतवाहन कुन्तीकुमार अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर को मार डालने की इच्छा से तलवार उठा ली। उस समय उनका क्रोध देखकर सबके मन की बात जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- पार्थ! यह क्या तुमने तलवार कैसे उठा ली। धनंजय! यहाँ तुम्हें किसी के साथ युद्ध करना हो, ऐसा तो नहीं दिखायी देता; क्योंकि धृतराष्ट्रपुत्रों को बुद्धिमान भीमसेन ने काल का ग्रास बना रखा है। कुन्तीनन्दन! तुम तो यह सोचकर युद्ध से हट आये थे कि राजा युधिष्ठिर का दर्शन कर लूं। सो तुमने राजा का दर्शन कर लिया। राजा युधिष्ठिर सब प्रकार से सकुशल हैं। सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर को स्वस्थ देखकर जब तुम्हारे लिये हर्ष का अवसर आया है, ऐसे समय में यह मोहकारित कौन-सा कृत्य होने जा रहा है। कुन्तीनन्दन! मैं किसी ऐसे मनुष्यों को भी यहाँ नहीं देखता, जो तुम्हारे द्वारा वध करने योग्य हो। फिर तुम प्रहार क्यों करना चाहते हो तुम्हारे चित्त में भ्रम तो नहीं हो गया हैं।
पार्थ! तुम क्यों इतने उतावले होकर विशाल खंड हाथ में ले रहे हो। अद्भुत पराक्रमी वीर मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, इस समय तुम्हें यह क्या करने की इच्छा हुई है, जिससे कुपित होकर तलवार उठा रहे हो'। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछने पर अर्जुन ने क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान युधिष्ठिर की ओर देखकर श्रीकृष्ण से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'जो मुझसे यह कह दे कि तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे को दे दो, उसका मैं सिर काट लूंगा। मैंने मन ही मन यह प्रतिज्ञा कर रखी है। अनन्त पराक्रमी गोविन्द! आप के सामने ही इन महाराज ने मुझसे वह बात कही है, अत: मैं इन्हें क्षमा नहीं कर सकता; इन धर्मभीरु नरेश का वध करुंगा। यदुनन्दन! इन नरश्रेष्ठ का वध करके मैं अपनी प्रतिज्ञा का पालन करुंगा; इसीलिये मैंने यह खड़ग हाथ में लिया है। जनार्दन! मैं युधिष्ठिर का वध करके उस सच्ची प्रतिज्ञा के भार से उऋण हो शोक और चिन्ता से मुक्त हो जाऊंगा। तात! आप इस अवसर पर क्या करना उचित समझते हैं आप ही इस जगत के भूत और भविष्य को जानते हैं, अत: आप मुझे जैसी आज्ञा देंगे, वैसा ही करुंगा’।
संजय कहते हैं ;- राजन! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ‘धिक्कार है। धिक्कार है। ऐसा कहकर पुन: इस प्रकार बोले।
श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'पार्थ! इस समय मैं समझता हूँ कि तुमने वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है। पुरुषसिंह! इसीलिये तुम्हें बिना अवसर के ही क्रोध आ गया है। पाण्डुपुत्र धनंजय! जो धर्म के विभाग को जानने वाला है, वह कभी ऐसा नहीं कर सकता, जैसा कि यहाँ आज तुम करना चाहते हो। वास्तव में तुम धर्मभीरु होने के साथ ही बुद्धिहीन भी हो। पार्थ! जो करने योग्य होने पर भी असाध्य हों तथा जो साध्य होने पर भी निषिद्ध हों ऐसे कर्मों से जो सम्बन्ध जोड़ता है, वह पुरुषों में अधम माना गया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
जो स्वयं धर्म का अनुसरण एवं आचरण करके शिष्यों द्वारा उपासित होकर उन्हें धर्म का उपदेश देते है; धर्म के संक्षेप एवं विस्तार को जानने वाले उन गुरुजनों का इस विषय में क्या निर्णय है, इसे तुम नहीं जानते। पार्थ! उस निर्णय को न जानने वाला मनुष्य कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के निश्चय में तुम्हारे ही समान असमर्थ, विवेक शून्य एवं मोहित हो जाता है। कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का ज्ञान किसी तरह भी अनायास ही नहीं हो जाता है। वह सब शास्त्र से जाना जाता है और शास्त्र का तुम्हें पता ही नहीं है। कुन्तीनन्दन! तुम अज्ञानवश अपने को धर्मज्ञ मानकर जो धर्म की रक्षा करने चले हो, उसमें प्राणिहिंसा का पाप है, यह बात तुम्हारे जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती है। तात! मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है। किसी की प्राणरक्षा के लिये झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, किंतु उसकी हिंसा किसी तरह न होने दे। नरश्रेष्ठ! तुम दूसरे गवांर मनुष्य के समान अपने बड़े भाई धर्मज्ञ नरेश का वध कैसे करोगे। मानद! जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, संग्राम से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़कर आश्रय में आ पड़ा हो तथा असावधान हो, ऐसे मनुष्य का वध करना श्रेष्ठ पुरुष अच्छा नहीं समझते हैं। तुम्हारे बड़े भाई में उपर्युक्त सभी बातें हैं। पार्थ! तुमने नासमझ बालक के समान पहले कोई प्रतिज्ञा कर ली थी, इसलिये तुम मूर्खतावश अधर्मयुक्त कार्य करने को तैयार हो गये हो। कुन्तीकुमार! बताओ तो तुम धर्म के सूक्ष्म एवं दुर्बोध स्वरुप का अच्छी तरह विचार किये बिना ही अपने ज्येष्ठ भ्राता का वध करने के लिये कैसे दौड़ पड़े।
श्रीकृष्ण बोले ;- पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हें यह धर्म का रहस्य बता रहा हूँ। धनंजय! पितामह भीष्म, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, विदुर जी तत्व का उपदेश कर सकते हैं, उसी को मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। इसे ध्यान देकर सुनो। सत्य बोलना उत्तम है। सत्य से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है; परंतु यह समझ लो कि सत्पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्य के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान अत्यन्त कठिन होता है। जहाँ मिथ्या बोलने का परिणाम सत्य बोलने के समान मंगलकारक हो अथवा जहाँ सत्य बोलने का परिणाम असत्य भाषण के समान अनिष्टकारी हो, वहाँ सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ असत्य बोलना ही उचित होगा। विवाह काल में, स्त्रीप्रसंग के समय, प्राणों पर संकट आने पर, सर्वस्व का अपहरण होते समय तथा ब्राह्मण की भलाई के लिये आवश्यकता हो तो असत्य बोल दे; इन पांच अवसरों पर झूठ बोलने से पाप नहीं होता। जब किसी का सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्त्तव्य है। वहाँ असत्य ही सत्य और सत्य ही असत्य हो जाता है। जो मूर्ख है, वही यथाकथंचित व्यवहार में लाये हुए एक जैसे सत्य को सर्वत्र आवश्यक समझता है। केवल अनुष्ठान में लाया गया असत्यरुप सत्य बोलने योग्य नहीं होता, अत: वैसा सत्य न बोले। पहले सत्य और असत्य का अच्छी तरह निर्णय करके जो परिणाम में सत्य हो उसका पालन करे। जो ऐसा करता है, वही धर्म का ज्ञाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद)
जिसकी बुद्धि शुद्ध (निष्काम) है, वह पुरुष यदि अत्यन्त कठोर होकर भी, जैसे अंधे पशु को मार देने से बलाक नामक व्याध पुण्य का भागी हुआ था, उसी प्रकार महान पुण्य प्राप्त कर ले तो क्या आश्चर्य है। इसी तरह जो धर्म की इच्छा तो रखता है, पर मूर्ख और अज्ञानी, वह नदियों के संगम पर बसे हुए कौशिक मुनि की भाँति यदि अज्ञानपूर्वक धर्म करके भी महान पाप का भागी हो जाय तो क्या आश्चर्य है।
अर्जुन बोले ;- भगवन! बलाक नामक व्याध और नदियों के संगम पर रहने वाले कौशिक मुनि की कथा कहिये, जिससे मैं इस विषय को अच्छी तरह समझ सकूं।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- भारत! प्राचीनकाल में बलाक नाम से प्रसिद्ध एक व्याध रहता था, जो अपनी स्त्री और पुत्रों की जीवन रक्षा के लिये ही हिंसक पशुओं को मारा करता था, कामनावश नहीं। वह बूढ़े माता-पिता तथा अन्य आश्रितजनों का पालन पोषण किया करता था। सदा अपने धर्म में लगा रहता, सत्य बोलता और किसी की निन्दा नहीं करता था। एक दिन वह पशुओं को मारकर लाने के लिये वन में गया; किंतु कहीं किसी हिंसक पशु को न पा सका। इतने ही में उसे एक पानी पीता हुआ हिंसक जानवर दिखायी दिया, जो अंधा था, नाक से सूंघकर ही आंख का काम निकाला करता था। यद्यपि वैसे जानवर को व्याध ने पहले कभी नहीं देखा था, तो भी उसने मार डाला। उस अंधे पशु के मारे जाते ही आकाश से व्याध पर फूलों की वर्षा होने लगी। साथ ही उस हिंसक पशुओं को मारने वाले व्याध को ले जाने के लिये स्वर्ग से एक सुन्दर विमान उतर आया, जो अप्सराओं के गीतों और वाद्यों की मधुर ध्वनि से मुखरित होने के कारण बड़ा मनोरम जान पड़ता था। अर्जुन! लोग कहते हैं कि उस जन्तु ने पूर्वजन्म में तप करके सम्पूर्ण प्राणियों का संहार कर डालने के लिये वर प्राप्त किया था; इसीलिये ब्रह्मा जी ने उसे अन्धा बना दिया था। इस प्रकार समस्त प्राणियों का अन्त कर देने के निश्चय से युक्त उस जन्तु को मारकर बालक स्वर्गलोक में चला गया; अत: धर्म का स्वरुप अत्यन्त दुर्ज्ञेय है।
इस तरह कौशिक नाम का तपस्वी ब्राह्मण था, जो बहुत पढ़ा-लिखा या शास्त्रज्ञ नहीं था। वह गांव के पास ही नदियों के संगम पर निवास करता था। धनंजय! उसने यह नियम ले लिया था कि मैं सदा सत्य ही बोलूंगा। इसलिये उन दिनों वह सत्यवादी के नाम से विख्यात हो गया था। एक दिन की बात है, कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिये उस वन में घुस गये; परंतु वे लुटेरे कुपित हो वहाँ भी उन लोगों का यत्नपूर्वक अनुसंधान करने लगे। उन्होंने सत्यवादी कौशिक मुनि के पास आकर पूछा 'भगवन! बहुत से लोग जो इधर ही आये हैं, किस रास्ते से गये हैं मैं सत्य की साक्षी से पूछता हूँ। यदि आप उन्हें जानते हों तो बताइये। उनके इस प्रकार पूछने पर कौशिक मुनि ने उन्हें सच्ची बात बता दी- इस वन में जहाँ बहुत से वृक्ष, लताएं और झाड़ियां हैं, वहीं वे गये हैं। इस प्रकार कौशिक ने उन दस्युओं को यथार्थ बात बता दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 52-66 का हिन्दी अनुवाद)
तब उन निर्दयी डाकुओं ने उन सबका पता पाकर उन्हें मार डाला, ऐसा सुना गया है। इस तरह वाणी का दुरुपयोग करने से कौशिक को महान पाप लगा, जिससे उसे नरक का कष्ट भोगना पड़ा; क्योंकि वह धर्म के सूक्ष्म स्वरुप को समझने में कुशल नहीं था। जिसे शास्त्रों का बहुत थोड़ा ज्ञान है, जो विवेकशून्य होने के कारण धर्मों के विभाग को ठीक-ठीक नहीं जानता, वह मनुष्य यदि वृद्ध पुरुषों से अपने संदेह नहीं पूछता तो अनुचित कर्म कर बैठने के कारण वह महान नरक के सदृश कष्ट भोगने के योग्य हो जाता है। धर्माधर्म के निर्णय के लिये तुम्हें संक्षेप से कोई संकेत बताना पड़ेगा, जो इस प्रकार होगा। कुछ लोग परम ज्ञान रुप दुष्कर धर्म को तर्क के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं; परंतु एक श्रेणी बहुसंख्यक मनुष्य ऐसा कहते हैं कि धर्म का ज्ञान वेदों से होता है। किंतु मैं तुम्हारे निकट इन दोनों मतों के ऊपर कोई दोषारोपण नहीं करता; परंतु केवल वेदों के द्वारा सभी धर्म कर्मों का विधान नहीं होता; इसलिये धर्मज्ञ महर्षियों ने समस्त प्राणियों के अभ्युदय और नि:श्रेयस के लिये उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया है।
सिद्धान्त यह है कि जिस कार्य में हिंसा न हो, वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिये ही उत्तम धर्म का प्रवचन किया है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं। इसलिये जो धारण प्राण रक्षा से युक्त हो-जिसमें किसी भी जीव की हिंसा न की जाती हो, वह धर्म है। ऐसा ही धर्म-शास्त्रों का सिद्धान्त है। जो लोग अन्यायपूर्वक दूसरों के धन आदि का अपहरण कर लेना चाहते हैं, वे कभी अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये दूसरों से सत्यभाषण रुप धर्म का पालन कराना चाहते हो तो वहाँ उनके समक्ष मौन रहकर उनसे पिण्ड छुड़ाने की चेष्टा करे, किसी तरह कुछ बोले ही नहीं। किंतु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय अथवा न बोलने से लुटेरों को संदेह होने लगे तो वहाँ असत्य बोलना ही ठीक है। ऐसे अवसर पर उस असत्य को ही बिना विचारे सत्य समझो। जो मनुष्य किसी कार्य के लिये प्रतिज्ञा करके उसका प्रकारान्तर उपपादन करता है, वह दम्भी होने के कारण उसका फल नहीं पाता, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है।
प्राणसंकट काल में, विवाह में समस्त कुटुम्बियों के प्राणान्त का समय उपस्थित होने पर तथा हंसी-परिहास आरम्भ होने पर यदि असत्य बोला गया हो तो वह असत्य नहीं माना जाता। धर्म के तत्त्व को जानने वाले विद्वान उक्त अवसरों पर मिथ्य बोलने में पाप नहीं समझते। जो झूठी शपथ खाने पर लुटेरों के साथ बन्धन में पड़ने से छुटकारा पा सके, उसके लिये वहाँ असत्य बोलना ही ठीक है। उसे बिना विचारे सत्य समझना चाहिये। जहाँ तक वश चले, किसी तरह उन लुटेरों को धन नहीं देना चाहिये; क्योंकि पापियों को दिया हुआ धन दाता को भी दुख देता है। अत: धर्म के लिये झूठ बोलने पर मनुष्य असत्य भाषण के दोष का भागी नहीं होता। अर्जुन! मैं तुम्हारा हित चाहता हूं, इसलिये आज मैंने अपनी बुद्धि और धर्म के अनुसार संक्षेप से तुम्हारे लिये यह विधिपूर्वक धर्माधर्म के निर्णय का संकेत बताया है। यह सुनकर अब तुम्हीं बताओ, क्या अब भी राजा युधिष्ठिर तुम्हारे वध्य हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 67-78 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन बोले ;- प्रभो! कोई बहुत बड़ा विद्वान और परम बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण करने से हम लोगों का हित हो सकता है, वैसा ही आपका यह भाषण हुआ है। श्रीकृष्ण! आप हमारे माता-पिता के तुल्य हैं। आप ही परमगति और परम आश्रय हैं। तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो; अत: आप ही परम धर्म को सम्पूर्ण और यथार्थ रुप से जानते हैं। अब मैं पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर को वध के योग्य नहीं मानता। मेरी इस मानसिक प्रतिज्ञा के विषयक में आप ही कोई अनुग्रह (भाई का वध किये बिना ही प्रतिज्ञा की रक्षा का उपाय) बताइये। मेरे मन में यहाँ कहने योग्य उत्तम बात है, इसे पुन: सुन लीजिये। दशार्हकुलनन्दन! आप तो यह जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है मनुष्यों से जो कोई भी मुझसे यह कह दे कि ‘पार्थ! तुम अपना गाण्डीव धनुष किसी दूसरे ऐसे पुरुष को दे दो, जो अस्त्रों के ज्ञान अथवा बल में तुमसे बढ़कर हो तो केशव! मैं उसे बलपूर्वक मार डालूं।
इसी प्रकार भीमसेन को कोई ‘मूंछ दाढ़ीरहित’ कह दे तो वे उसे मार डालेंगे, वृष्णिवीर! राजा युधिष्ठिर ने आपके सामने ही बारंबार मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे दो’। केश्व! यदि मैं युधिष्ठिर को मार डालूं तो इस जीव जगत में थोड़ी देर भी मैं जीवित नहीं रह सकता। यदि किसी तरह पाप से छूट जाऊं तो भी राजा युधिष्ठिर के वध का चिन्तन करके जी नहीं सकता। निश्चय ही इस समय मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर पराक्रमशून्य और अचेत सा हो गया हूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण संसार के लोगों की समझ में जिस प्रकार मेरी प्रतिज्ञा सच्ची हो जाय और जिस प्रकार पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर और मैं दोनों जीवित रह सकें, वैसी कोई सलाह आप मुझे देने की कृपा करें'।
श्रीकृष्ण ने कहा ;- वीर! राजा युधिष्ठिर थक गये हैं। कर्ण ने युद्धस्थल में अपने तीखे बाण समूहों द्वारा इन्हें क्षत-विक्षत कर दिया है, इसलिये ये बहुत दुखी हैं। इतना ही नहीं, जब ये युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी सूतपुत्र ने इनके ऊपर लगातार बाणों की वर्षा करके इन्हें अत्यन्त घायल कर दिया था। इसीलिये दुखी होने के कारण इन्होंने तुम्हारे प्रति रोषपूर्वक ये अनुचित बातें कही हैं। इन्होंने यह भी सोचा है कि यदि अर्जुन को क्रोध न दिलाया गया तो ये युद्ध में कर्ण को नहीं मार सकेंगे, इस कारण से भी वैसी बातें कह दी हैं। ये पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर जानते हैं कि संसार में पापी कर्ण का सामना करना तुम्हारे सिवा दूसरों के लिये असम्भव है। पार्थ! इसीलिये अत्यन्त रोष में भरे हुए राजा ने मेरे सामने तुम्हें कटु वचन सुनाये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 79-88 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण नित्य-निरन्तर युद्ध के लिये उद्यत और शत्रुओं के लिये असह्य है। आज रणभूमि में हार-जीत का जूआ कर्ण पर ही अवलम्बित है। कर्ण के मारे जाने पर अन्य कौरव शीघ्र ही परास्त हो सकते हैं। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में ऐसा ही विचार काम कर रहा था। अर्जुन! इसलिये धर्मपुत्र युधिष्ठिर वध के योग्य नहीं हैं। इधर तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा का पालन भी करना है। अत: जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए भी मरे के समान हो जायं, वही तुम्हारे अनुरुप होगा। उसे बताता हूं, सुनो- इस जीवजगत में माननीय पुरुष जब तक सम्मान पाता है, तभी तक वह वास्तव में जीवित है। जब वह महान अपमान पाने लगता है, तब वह जीते-जी मरा हुआ कहलाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल-सहदेव ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने जगत में राजा युधिष्ठिर का सदा सम्मान किया है; किंतु इस समय तुम उनका थोड़ा सा अपमान कर दो। पार्थ! तुम युधिष्ठिर को सदा आप कहते आये हो, आज उन्हें ‘तू’ कह दो। भारत! यदि किसी गुरुजन को ‘तू’ कह दिया जाय तो यह साधु पुरुषों की दृष्टि में उसका वध ही हो जाता है।
कुन्तीनन्दन! तुम धर्मराज युधिष्ठिर के प्रति ऐसा ही बर्ताव करो कुरुश्रेष्ठ! उनके लिये इस समय अधर्मयुक्त वाक्य का प्रयोग करो। जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी श्रुति है, जो सब श्रुतियों में उत्तम है। अपनी भलाई चाहने वाले मनुष्यों को सदा बिना विचारे ही इस श्रुति के अनुसार बर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है- ‘गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। तुम धर्मज्ञ हो तो भी जैसा मैंने बताया है, उसके अनुसार धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। पाण्डुनन्दन! तुम्हारे द्वारा किये गये इस अनुचित शब्द के प्रयोग को सुनकर ये धर्मराज अपना वध हुआ ही समझेंगे। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके इन्हें सान्त्वना देते हुए क्षमा मांग लेना और इनके प्रति न्यायोचित वचन बोलना। कुन्तीनन्दन! तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं। ये धर्म का ख्याल करके भी तुम पर कभी क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार साथ मिथ्याभाषण और भ्रातृ-वध के पाप से मुक्त हो बड़े हर्ष के साथ सूतपुत्र कर्ण का वध करना।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका संवादविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूग हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा-भंग भ्रातृवध तथा आत्मघात से वचाना और युधिष्ठिर को सान्त्वना देकर संतुष्ट करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार अर्जुन ने हितैषी सखा के उस वचन की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कठोर वचन कहने लगे, जैसे उन्होंने पहले कभी नहीं कहे थे।
अर्जुन बोले ;- 'राजन! तू तो स्वयं ही युद्ध से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, अत: तू मुझसे न बोल, न बोल। हां, भीमसेन को मेरी निन्दा करने का अधिकार है, जो कि समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ अकेले ही जूझ रहे हैं। जो यथासमय शत्रुओं को पीड़ा देते हुए युद्धस्थल में उन समस्त शौर्यसम्पन्न भूपतियों, प्रधान-प्रधान रथियों, श्रेष्ठ गजराजों, प्रमुख अश्वारोहियों, असंख्य वीरों, सहस्र से भी अधिक हाथियों, दस हजार काम्बोज देशीय अश्वों तथा पर्वतीय वीरों का वध करके जैसे मृगों को मारकर सिंह दहाड़ रहा हो, उसी प्रकार भयंकर सिंहनाद करते हैं, जो वीर भीमसेन हाथ में गदा ले रथ से कूदकर उसके द्वारा रणभूमि में हाथी, घोड़ों एवं रथों का संहार करते हैं तथा ऐसा अत्यन्त दुष्कर पराक्रम प्रकट इन्द्र के समान हैं तथा ऐसा अत्यन्त दुष्कर पराक्रम प्रकट कर रहे हैं जैसा कि तू कभी नहीं कर सकता, जिनका पराक्रम इन्द्र के समान है, जो उत्तम खड्ग, चक्र और धनुष के द्वारा हाथी, घोड़ों, पैदल-योद्धाओं तथा अन्यान्य शत्रुओं को दग्ध किये देते हैं और जो पैरों से कुचलकर दोनों हाथों से वैरियों का विनाश करते हैं, वे महाबली, कुबेर और यमराज के समान पराक्रमी एवं शत्रुओं की सेना का बलपूर्वक संहार करने में समर्थ भीमसेन ही मेरी निन्दा करने के अधिकारी हैं।
तू मेरी निन्दा नहीं कर सकता; क्योंकि तू अपने पराक्रम से नहीं, हितैषी सुहृदों द्वारा सदा सुरक्षित होता है। जो शत्रुपक्ष के महारथियों, गजराजों, घोड़ों और प्रधान-प्रधान पैदल योद्धाओं को भी रौंदकर दुर्योधन की सेनाओं में घुस गये हैं, वे एकमात्र शत्रुदमन भीमसेन ही मुझे उलाहना देने के अधिकारी हैं। जो कलिंग, वंग, अंग, निषाद और मगध देशों में उत्पन्न सदा मदमत्त रहने वाले तथा काले मेघों की घटा के समान दिखायी देने वाले शत्रुपक्षीय अनेकानेक हाथियों का संहार करते हैं, वे शत्रुदमन भीमसेन ही मुझे उलाहना देने के अधिकारी हैं। वीरवर भीमसेन यथासमय जुते हुए रथ पर आरुढ़ हो धनुष हिलाते हुए मुट्ठीभर बाण निकालते और जैसे मेघ जल की धारा गिराते हैं, उसी प्रकार महासमर में बाणों की वर्षा करते हैं। मैंने देखा है आज भीमसेन ने युद्धस्थल में अपने बाणों द्वारा शत्रुपक्ष के आठ सौ हाथियों को उनके कुम्भस्थल, शुण्ड और शुण्डाग्र भाग काटकर मार डाला है, वे शत्रुहन्ता भीमसेन ही मुझ से कठोर वचन कहने के अधिकारी हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! नकुल ने समरभूमि में प्राणों का मोह छोड़कर सहसा आगे बढ़-बढ़कर बहुत से हाथी, घोड़े और शूरवीर योद्धाओं का वध किया है। युद्ध की अभिलाषा रखने वाला वह शत्रुदमन वीर भी उलाहना दे सकता है। सहदेव ने भी दुष्कर कर्म किया है। शत्रुसेना का मर्दन करने वाला वह बलवान वीर निरन्तर युद्ध में लगा रहता है। वह भी यहाँ आया था, किंतु कुछ भी न बोला। देख ले, तुझमें और उसमें कितना अन्तर है। धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र, युधामन्यु, उत्तमौजा और शिखण्डी- ये सभी वीर युद्ध में अत्यन्त पीड़ा सहन करते आये हैं; अत: ये ही मुझे उपालम्भ दे सकते हैं, तू नहीं। भरतनन्दन! ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों का बल उनकी वाणी में होता है और क्षत्रिय का बल उनकी दोनों भुजाओं में; परंतु तेरा बल केवल वाणी में है, तू निष्ठुर है; मैं जैसा बलवान हूँ उसे तू ही अच्छी तरह जानता है। मैं सदा स्त्री, पुत्र, जीवन और यह शरीर लगाकर तेरा प्रिय कार्य सिद्ध करने के लिये प्रयत्नशील रहता हूँ। ऐसी दशा में भी तू मुझे अपने वाग्बाणों से मार रहा है; हम लोग तुझसे थोड़ा सा भी सुख न पा सके। तू द्रौपदी की शय्या पर बैठा-बैठा मेरा अपमान न कर। मैं तेरे ही लिये बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर रहा हूँ। इसी से तू मेरे प्रति अधिक संदेह करके निष्ठुर हो गया है। तुझसे कोई सुख मिला हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है।
नरदेव! तेरा प्रिय करने के लिये सत्यप्रतिज्ञ भीष्म जी ने युद्ध में महामनस्वी वीर द्रुपदकुमार शिखण्डी को अपनी मृत्यु बताया था। मेरे ही द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्डी ने उन्हें मारा है। मैं तेरे राज्य का अभिनन्दन नहीं करता; क्योंकि तू अपना ही अहित करने के लिये जूए में आसक्त है। स्वयं नीच पुरुषों द्वारा सेवित पापकर्म करके सब तू हम लोगों के द्वारा शत्रुसेना रुपी समुद्र को पार करना चाहते है। जूआ खेलने में बहुत से पापमय दोष बताये गये हैं, जिन्हें सहदेव ने तुझ से कहा था और तूने सुना भी था, तो भी तू उन दुर्जनसेवित दोषों का परित्याग न कर सका; इसी से हम सब लोग नरकतुल्य कष्ट में पड़ गये। पाण्डुकुमार! तुझसे थोड़ा सा भी सुख मिला हो यह हम नहीं जानते हैं; क्योंकि तू जूआ खेलने के व्यसन में पड़ा हुआ है। स्वयं यह दुर्व्यसन करके अब तू हमें कठोर बातें सुना रहा है। हमारे द्वारा मारी गयी शत्रुओं की सेना अपने कटे हुए अंगों के साथ पृथ्वी पर पड़ी-पड़ी कराह रही है। तूने वह क्रूरतापूर्ण कर्म कर डाला है, जिससे पाप तो होगा ही; कौरव वंश का विनाश भी हो जायगा। उत्तर दिशा के वीर मारे गये, पश्चिम के योद्धाओं का संहार हो गया, पूर्वदेश के क्षत्रिय नष्ट हो गये और दक्षिण देशीय योद्धा काट डाले गये। शत्रुओं के और हमारे पक्ष के बड़े-बड़े योद्धाओं ने युद्ध में ऐसा पराक्रम किया है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। नरेन्द्र! तू भाग्यहीन जुआरी है। तेरे ही कारण हमारे राज्य का नाश हुआ और तुझसे ही हमें घोर संकट की प्राप्ति हुई। राजन! अब तू अपने वचनरुपी चाबुकों से हमें पीड़ा देते हुए फिर कुपित न कर।'
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद)
संजय कहते हैं ;- राजन! सव्यसाची अर्जुन धर्मवीरु हैं। उनकी बुद्धि स्थिर है तथा वे उत्तम ज्ञान से सम्पन्न हैं। उस समय राजा युधिष्ठिर को वैसी रूखी और कठोर बातें सुनाकर वे ऐसे अनमने और उदास हो गये, मानो कोई पातक करके इस प्रकार पछता रहे हों। देवराजकुमार अर्जुन को उस समय बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने लंबी सांस खींचते हुए फिर से तलवार खींच ली। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘अर्जुन! यह क्या तुम आकाश के समान निर्मल इस तलवार को पुन: क्यों ध्यान से बाहर निकाल रहे हो तुम मुझे मेरी बात का उत्तर दो। मैं तुम्हारा अभीष्ट अर्थ सिद्ध करने के लिये पुन: कोई योग्य उपाय बताऊंगा'।
पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार पूछने पर अर्जुन अत्यन्त दुखी हो उनसे इस प्रकार बोले,
अर्जुन बोले ;- 'भगवन! मैंने जिसके द्वारा हठपूर्वक भाई का अपमानरुप अहितकर कार्य कर डाला है, अपने उस शरीर को ही अब नष्ट कर डालूंगा'। अर्जुन का यह वचन सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उनसे कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- 'पार्थ! राजा युधिष्ठिर को 'तू' ऐसा कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये शत्रुसूदन! क्या तुम आत्मघात करना चाहते हो किरीटधारी वीर! साधुपुरुषों ने कभी ऐसा कार्य नहीं किया है। नरवीर! यदि आज धर्म से डरकर तुमने अपने बड़े भाई इन धर्मात्मा युधिष्ठिर को तलवार से मार डाला होता तो तुम्हारी कैसी दशा होती और इसके बाद तुम क्या करते। कुन्तीनन्दन! धर्म का स्वरुप सूक्ष्म है। उसको जानना या समझना बहुत कठिन है। विशेषत: अज्ञानी पुरुषों के लिये तो उसका जानना और भी मुश्किल है। अब मैं जो कुछ कहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो, भाई का वध करने से जिस अत्यन्त घोर नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें स्वयं ही अपनी हत्या करने से प्राप्त हो सकता है। अत: पार्थ! अब तुम यहाँ अपनी ही वाणी द्वारा अपने गुणों का वर्णन करो। ऐसा करने से यह मान लिया जायगा कि तुमने अपने ही हाथों अपना वध कर लिया'। सुनकर अर्जुन ने उनकी बात का अभिनन्दन करते हुए कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'श्रीकृष्ण! ऐसा ही हो'।
फिर इन्द्रकुमार अर्जुन अपने धनुष को नवाकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,
अर्जुन ने कहा ;- 'राजन! सुनिये। नरदेव! पिनाकधारी भगवान शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है। उन महात्मा महेश्वर ने मेरी वीरता का अनुमोदन किया है। मैं चाहूँ तो क्षणभर में चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत को नष्ट कर डालूं। राजन! मैंने सम्पूर्ण दिशाओं और दिक्पाल को जीतकर आपके अधीन कर दिया था। पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान तथा आपकी दिव्यसभा का निर्माण मेरे ही बल से सम्भव हुआ है। मेरी ही हाथ में तीखे तीर और बाण तथा प्रत्यंचासहित विशाल धनुष है। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मेरे-जैसा वीर यदि युद्धभूमि में पहुँच जाय तो उसे शत्रु जीत नहीं सकते। मेरे द्वारा उत्तर दिशा के वीर मारे गये, पश्चिम के योद्धाओं का संहार हो गया, पूर्वदेश के क्षत्रिय नष्ट हो गये और दक्षिणदेशीय योद्धा काट डाले गये। संशप्तकों का भी थोड़ा सा ही भाग शेष रह गया है। मैंने सारी कौरव सेना के आधे भाग को स्वयं ही नष्ट किया है। राजन! देवताओं की सेना के समान प्रकाशित होने वाली भरतवंशियों की यह विशाल वाहिनी मेरे ही हाथों मारी जाकर रणभूमि में सो रही है'।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 35-48 का हिन्दी अनुवाद)
जो अस्त्र विद्या के ज्ञाता हैं, उन्हीं को मैं अस्त्रों द्वारा मारता हूं; इसीलिये मैं यहाँ सम्पूर्ण लोकों को भस्म नहीं करता हूँ। श्रीकृष्ण! अब हम दोनों विजयशाली एवं भयंकर रथ पर बैठकर सूतपुत्र का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज ये राजा युधिष्ठिर संतुष्ट हों। मैं रणभूमि मे अपने बाणों द्वारा कर्ण का नाश कर डालूंगा'। यों कहकर अर्जुन पुन: धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से बोले- 'आज मेरे द्वारा सूतपुत्र की माता पुत्रहीन हो जायगी अथवा मेरी माता कुन्ती ही कर्ण के द्वारा मुझ एक पुत्र से हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, आज युद्धस्थल में अपने बाणों द्वारा कर्ण को मारे बिना मैं कवच नहीं उतारुंगा'।
संजय कहते है ;- महाराज! किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से पुन: ऐसा कहकर शस्त्र खोल, धनुष नीचे डाल और तलवार को तुरंत ही म्यान में रखकर लज्जा से नतमस्तक हो हाथ जोड़ पुन: उनसे इस प्रकार बोले,
अर्जुन ने कहा ;- ‘राजन! आप प्रसन्न हों। मैंने जो कुछ कहा है, उसके लिये क्षमा करें। समय पर आपको सब कुछ मालूम हो जायगा। इसलिये आपको मेरा नमस्कार है’। इस प्रकार शत्रुओं का सामना करने में समर्थ राजा युधिष्ठिर को प्रसन्न करके प्रमुख वीर अर्जुन खड़े होकर फिर बोले,
पुनः अर्जुन बोले ;- ‘महाराज। अब कर्ण के वध में देर नहीं है। यह कार्य शीघ्र ही होगा। वह इधर ही आ रहा है; अत: मैं भी उसी पर चढ़ाई कर रहा हूँ। राजन! मैं अभी भीमसेन को संग्राम से छुटकारा दिलाने और सब प्रकार से सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूँ। मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है। यह मैं सत्य कहता हूँ। आप इसे अच्छी तरह समझ लें'।
संजय कहते हैं ;- इस प्रकार जाने के लिये उद्यत हो राजा युधिष्ठिर के चरण छूकर उदीप्त तेज वाले किरीटधारी अर्जुन उठ खड़े हुए। इधर अपने भाई अर्जुन का पूर्वोक्त रुप से कठोर वचन सुनकर पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर दु:ख से व्याकुलचित्त होकर उस शय्या से उठ गये और अर्जुन से इस प्रकार बोले,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘कुन्तीनन्दन! अवश्य ही मैंने अच्छा कर्म नहीं किया है, जिससे तुम लोगों पर अत्यन्त भयंकर संकट आ पड़ा है। मैं कुलान्तकारी नराधम पापी, पापमय दुर्व्यसन में आसक्त, मूढ़बुद्धि, आलसी और डरपोक हूं: इसलिये आज तुम मेरा यह मस्तक काट डालो। मैं बड़े बूढ़ों का अनादर करने वाला और कठोर हूँ। तुम्हें मेरी रुखी बातों का दीर्घकाल तक अनुसरण करने की क्या आवश्यकता है। मैं पापी आज वन में ही चला जा रहा हूँ। तुम मुझ से अलग होकर सुख से रहो। महामनस्वी भीमसेन सुयोग्य राजा होंगे। मुझ कायर को राज्य लेने से क्या काम है अब पुन: मुझमें तुम्हारे रोषपूर्वक कहे हुए इन कठोर वचनों को सहने की शक्ति नहीं है। वीर! भीमसेन राजा हों। आज इतना अपमान हो जाने पर मुझे जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है'। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर सहसा पलंग छोड़कर वहाँ से नीचे कूद पड़े और वन में जाने की इच्छा करने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनके चरणों में प्रणाम करके इस प्रकार कहा-
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 49-58 का हिन्दी अनुवाद)
श्री कृष्ण ने कहा ;- 'राजन! आपको तो यह विदित ही है कि गाण्डीवधारी सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन ने गाण्डीव धनुष के विषय में कैसी प्रतिज्ञा कर रखी है उनकी वह प्रतिज्ञा प्रसिद्ध है। जो अर्जुन से यह कह दे कि 'तुम्हें अपना गाण्डीव धनुष दूसरे को दे देना चाहिये’ वह मनुष्य इस जगत में उनका वध्य है। आपने आज अर्जुन से ऐसी ही बात कह दी है। अत: भूपाल! अर्जुन ने अपनी उस सच्ची प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरी आज्ञा से आपका यह अपमान किया; क्योंकि गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहा जाता है।
इसलिये महाबाहो! राजन! मेरे और अर्जुन दोनों के सत्य की रक्षा के लिये किये गये इस अपराध को आप क्षमा करें। महाराज! हम दोनों आपकी शरण में आये हैं और मैं चरणों में गिरकर आप से क्षमा-याचना करता हूं; आप मेरे अपराध को क्षमा करें। आज पृथ्वी पापी राधापुत्र कर्ण के रक्त का पान करेगी। मैं आप से सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, समझ लीजिये कि अब सूतपुत्र कर्ण मार दिया गया। आप जिसका वध चाहते हैं, उसका जीवन समाप्त हो गया’।
भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने चरणों में पड़े हुए हृषीकेश को वेगपूर्वक उठाकर फिर दोनों हाथ जोड़कर यह बात कही,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘गोविन्द! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है। वास्तव में मुझसे यह नियम का उल्लघंन हो गया है। माधव! आपने अनुनय द्वारा मुझे संतुष्ट कर दिया और संकट के समुद्र में डूबने से बचा लिया। अच्युत! आज आपके द्वारा हम लोग घोर विपति से बच गये'। आज आपको अपना रक्षक पाकर हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हम दोनों ही अज्ञान से मोहित हो रहे थे; परंतु आपकी बुद्धिरूपी नौका का आश्रय लेकर दु:ख-शोक के समुद्र से मंत्रियोंसहित पार हो गये। अच्युत! हम आपसे ही सनाथ हैं,
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें युधिष्ठिरको आश्वासनविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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