सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरवों द्वारा मारे गये प्रधान - प्रधान पाण्डव - पक्ष के वीरों का परिचय”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- तात संजय! तुमने युद्ध में पाण्डवों द्वारा मारे गये मेरे पक्ष के वीरों के नाम बताये गये हैं। अब मेरे योद्धाओं द्वारा मारे गये पाण्डव योद्धाओं का परिचय दो।
संजय ने कहा ;- राजन अत्यन्त वीर, महान बलवान और पराक्रमी जो कुन्तीभोज देश के योद्धा थे, उन्हें गंगानन्दन भीष्म ने मार गिराया। पाण्डवों में अनुराग रखने वाले जो नारायण और बलभद्र नाम वाले सैंकड़ों शूरवीर थे, उन्हें भी वीरवर भीष्म ने युद्ध में धराशायी कर दिया। सत्यजित संग्राम में किरीटधारी अर्जुन के समान बल और पराक्रम से सम्पन्न था, जिसे युद्ध स्थल में सत्यप्रतिज्ञ द्रोणाचार्य ने मार डाला। युद्ध की कला में सम्पूर्ण पाञ्चाल धनुर्धर द्रोणाचार्य से टक्कर लेकर यमलोक में जा पहुँचे हैं। मित्र के लिये पराक्रम करने वाले बूढ़े राजा विराट और द्रुपद को अपने पुत्रों सहित द्रोणाचार्य के द्वारा रणभूमि में मारे गये हैं। जो बाल्यावस्था में ही दुर्धर्ष वीर था और सव्यसाची अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण अथवा बलदेव जी के समान समझा जाता था तथा जो महान रथ युद्ध में विशेष कुशल था, वह अभिमन्यु शत्रुओं का संहार करके छः बड़े-बड़े महारथियों द्वारा, जिनका अर्जुन पर वश नहीं चलता था, चारों ओर से घेरकर मार डाला गया।
महाराज! क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहने वाला वीर सुभद्राकुमार अभिमन्यु रथहीन कर दिया गया, उस अवस्था में दुःशासन के पुत्र ने उसे रणभूमि में मारा था। शत्रुकन्ता श्रीमान अम्बष्ठपुत्र अपनी विशाल सेना से घिरकर मित्रों के लिये पराक्रम दिखा रहा था। वह शत्रु सेना का महान संहार करके रणभूमि में दुर्योधन के वीर पुत्र लक्ष्मण से टक्कर ले यमलोक में जा पहुँचा। अस्त्रविद्या में विशेषज्ञ रणदुर्मद महाधनुर्धर बृहन्त को दुःशासन ने बलपूर्वक यमलोक पहुँचाया था। युद्ध में उन्मत्त होकर जूझने वाले राजा मणिमान और दण्डधार मित्रों के लिये पराक्रम दिखाते थे। उन दोनों को द्रोणाचार्य ने युद्ध में मार गिराया है। सेना सहित भोजराज महारथी अंशुमान को भरद्वाजनन्दन द्रोण ने पराक्रम करके यमलोक पहुँचाया है।
भारत समुद्र तटवर्ती राज्य के अधिपति चित्रसेन अपने पुत्र के साथ युद्ध में आकर समुद्रसेन के द्वारा बलपूर्वक यमलोक भेज दिये गये। समुद्र तटवर्ती नील और पराक्रमी व्याघ्रदत्त इन दोनों को क्रमशः अश्वत्थामा और विकर्ण ने यमलोक पहुँचा दिया। विचित्र युद्ध करने वाले चित्रायुध समर में विचित्र रीति से पराक्रम करते हुए कौरव सेना का महान संहार करके अन्त में विकर्ण के हाथ से मारे गये। केकयदेशीय योद्धाओं से घिरे हुए भीम के समान पराक्रमी केकय राजकुमार को उन्हीं के भाई दूसरे केकय राजकुमार ने बलपूर्वक मार गिराया। महाराज! प्रतापी पर्वतीय राजा जनमेजय गदायुद्ध में कुशल थे। उन्हें आपके पुत्र दुर्मुख ने धराशायी कर दिया। राजन! दो चमकते हुए ग्रहों के समान नरश्रेष्ठ रोचमान, जो एक ही नाम के दो भाई थे, द्रोणाचार्य के द्वारा बाणों से एक साथ ही स्वर्गलोक पहुँचा दिये गये। प्रजानाथ! और भी बहुत से पराक्रमी नरेश आपकी सेना का सामना करते हुए दुष्कर पराक्रम करके यमलोक में जा पहुँचे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुजित और कुन्तिभोज दोनों सव्यसाची अर्जुन के मामा थे, द्रोणाचार्य के सायकों ने उन्हें भी उन लोकों में पहुँचा दिया, जो संग्राम में मारे जाने वाले वीरों को प्राप्त होते हैं। काशिराज अभिभू बहुतेरे काशी निवासी योद्धाओं से घिरे हुए थे। वसुदान के पुत्र ने युद्ध स्थल में उनसे उनके शरीर का परित्याग करवा दिया। अमितौजा, युधामन्यु तथा पराक्रमी उत्तमौजा ये सैंकड़ों शूरवीरों का संहार करके हमारे सैनिकों द्वारा मारे गये। भारत! पाञ्चाल योद्धा मित्रवर्मा और क्षत्रधर्मा महाधनुर्धर थे। उन्हें भी द्रोणाचार्य ने यमलोक पहुँचा दिया। भरतवंशी नरेश! आपके पौत्र लक्ष्मण ने युद्ध में योद्धाओं के स्वामी क्षत्रदेव को, जो शिखण्डी का पुत्र था, मार डाला। सुचित्र और चित्रवर्मा से दो महावीर परस्पर पिता पुत्र थे। रणभूमि में विचरते हुए इन दोनों को द्रोणाचार्य ने मार डाला। महाराज! जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र उमड़ पड़ता है, उसी प्रकार वृद्धक्षेम का पुत्र भी युद्ध में उद्यत हो उठा था, परंतु उसके सारे अस्त्र शस्त्र नष्ट हो गये थे, इसलिये वह प्राण शून्य हो सदा के लिये परम शान्त हो गया। राजाधिराज! सेनाबिन्दु का श्रेष्ठपुत्र रणभूमि में शत्रुओं पर प्रहार कर रहा था।
उस समय कौरवेन्द्र बाह्लीक ने उसे मार गिराया। महाराज! चेदिराज का श्रेष्ठ रथी धृष्टकेतु भी युद्ध में दुष्कर कर्म करके यमलोक का पथिक हो गया। पाण्डवों के लिये पराक्रम प्रकट करने वाले वीर सत्यधृति ने रणभूमि में शत्रुओं का संहार करके यमलोक की राह ली। कुरुश्रेष्ठ! सेनाबिन्दु भी युद्ध में शत्रुओं का संहार करके यमलोक की राह ली। कुरुश्रेष्ठ! सेनाबिन्दु भी युद्ध में शत्रुओं का संहार करके काल के गाल में चला गया। शिशुपाल का पुत्र राजा सुकेतु भी युद्ध में शत्रु सैनिकों का वध करके स्वयं भी द्रोणाचार्य के हाथों मारा गया। इसी प्रकार वीर सत्यधृति, पराक्रमी मदिराश्व और बल विक्रमशाली सूर्यदत्त भी द्रोणाचार्य के बाणों से मारे गये हैं। महाराज! पराक्रम पूर्वक युद्ध करने वाले श्रेणिमान ने युद्ध में दुष्कर कर्म करके यमलोक का आश्रय लिया है।
राजन! इसी प्रकार शत्रुवीरों का संहार करने वाला और उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता पराक्रमी मागध वीर भी भीष्म जी के हाथ से मारा जाकर रणभूमि में सो रहा है। राजा विराट के पुत्र शंख और महारथी उत्तर ये दोनों युद्ध में महान कर्म करके यमलोक में जा पहुँचे हैं। वसुदान भी युद्ध स्थल में बड़ा भारी संहार मचा रहा था। परंतु भरद्वाज नन्दन द्रोण ने पराक्रम करके उसे यमलोक पहुँचा दिया। अपने बाहुबल से सुशोभित होने वाले अश्वत्थामा ने बलवान एवं पराक्रमी पाण्ड्यराज को मारकर यमलोक पहुँचा दिया। ये तथा और भी बहुत से पाण्डव महारथी, जिनके बारे में आप मुझसे पूछ रहे थे, द्रोणाचार्य के द्वारा बलपूर्वक मार डाले गाये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संजय वाक्य विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव पक्ष के जीवित योद्धाओं का वर्णन और धृतराष्ट्र की मूर्छा”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! प्रधान पुरुष भीष्म, द्रोण और कर्ण आदि के मारे जाने से मेरी सेना का घमंड चूर-चूर हो गया है। मैं देखता हूँ, अब यह बच नहीं सकेगी। वे दोनों कुरुश्रेष्ठ महाधनुर्धर वीर भीष्म और द्रोणाचार्य मेरे लिये मारे गये; यह सुन लेने पर इस अधम जीवन को रखने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। जिसकी दोनों भुजाओं में समान रूप से दस-दस हजार हाथियों का बल था, युद्ध में शोभा पाने वाले उस राधा पुत्र कर्ण के मारे जाने का समाचार सुनकर मैं इस शोक को सहन नहीं कर पाता हूँ। संजय! जैसा के तुम कह रहे हो कि मेरी सेना के प्रमुख वीर मारे जा चुके हैं, उसी प्रकार यह भी बताओ कि कौन-कौर वीर नहीं मारे गये हैं। इस सेना में जो कोई भी श्रेष्ठ वीर जीवित हैं, उनका परिचय दो। आज तुमने जिन लोगों के नाम लिखे हैं, उनकी मृत्यु हो जाने पर तो जो भी अब जीवित हैं वे सभी मरे हुए के ही समान हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।
संजय कहते हैं ;- राजन! द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने जिस वीर को चित्र (अद्भुत), शुभ्र (प्रकाशमान), दिव्य तथा धनुर्वेदोक्त चार प्रकार के महान अस्त्र समर्पित किये थे, जो सफल प्रयत्न करने वाला महारथी वीर है, जिसके हाथ बड़ी शीघ्रता से चलते हैं, जिसका धनुष, जिसकी मुट्ठी और जिसके बाण सभी सुदृढ़ हैं, वह वेगशाली तथा पराक्रमी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा आपके लिये युद्ध की इच्छा रखकर समर भूमि में डटा हुआ है। सात्वत कुल का श्रेष्ठ महारथी, आनर्त निवासी, भोजवंशी अस्त्रवेत्ता, हृदिक पुत्र कृतवर्मा भी आपके लिये युद्ध करने को दृढ़ निश्चय से डटा हुआ है। जिन्हें युद्ध में विचलित करना अत्यन्त कठिन है, जो आपके सैनिकों के प्रथम सेनापति एवं वेगशाली वीर हैं, जो अपनी बात सच्ची कर दिखाने के लिये अपने सगे भांजे पाण्डवों को छोड़कर तथा अज्ञात शत्रु युधिष्ठिर के सामने युद्ध स्थल में सूत पुत्र कर्ण के तेज और उत्साह को नष्ट करने की प्रतिज्ञा करके आपके पक्ष में चले आये थे, वे बलवान दुर्धर्ष तथा इन्द्र के समान पराक्रमी ऋतायन पुत्र शल्य आपके लिये युद्ध करने को तैयार हैं।
अच्छी नस्ल के सिंधी, पहाड़ी, दरियाई, काबुली और वनायु देश के बहुसंख्यक घोड़ों तथा अपनी सेना के साथ गान्धारराज शकुनि आपके लिये युद्ध करने को डटा हुआ है। राजन्! अनेक प्रकार के विचित्र अस्त्रों द्वारा युद्ध करने वाले, गौतम वंशीय शरद्वान के पुत्र महाबाहु कृपाचार्य भी महान भार सहन करने में समर्थ विचित्र धनुष हाथ में लेकर आपके लिये यु;द्ध करने को तैयार हैं। कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर! महारथी केकय राजकुमार भी सुन्दर घोड़ों से जुते हुए, ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित रथ पर आरुढ़ हो आपके लिये युद्ध करने की इच्छा से डटा हुआ है। नरेन्द्र! कुरुकुल का प्रमुख वीर आपका पुत्र पुरुमित्र अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान रथ पर आरूढ़ हो बिना बादलों के आकाश में सूर्य के समान प्रकाशित होता हुआ युद्ध के लिये खड़ा है। हाथियों की सेना के बीच जो अपने सुवर्ण भूषित रथ के द्वारा उपस्थित हो सिंह के समान सुशोभित होता हे, वह राजा दुर्योधन भी समरांगण में जूझने के लिये खड़ा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुषों में प्रधान वीर और कमल के समान कान्तिमान दुर्योधन सोने का बना हुआ विचित्र कवच धारण करके राजाों के समुदाय में अल्प धूमवाली अग्नि एवं बादलोें के बीच में सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। हाथ में ढाल-तलवार लिये हुए आपके वीर पुत्र सुषेण और सत्यसेन मन में हर्ष और उत्साह लिये समर में जूझने की इच्छा रखकर चित्रसेन के साथ खड़े हैं। भारत! लज्जाशील भयंकर आयुधों वाला शीघ्रभोजी और देखने में सुन्दर जरासंध का प्रथम पुत्र राजकुमार अदृढ़, चित्रायुध, श्रुतवर्मा, जय, शल, सत्यव्रत और दु:शल- ये सभी श्रेष्ठ पूरुष युद्ध के लिये अपनी सेनाओं के साथ खड़े हैं। प्रत्येक युद्ध में शत्रुओं का संहार करने वाला और अपने को शूरवीर मानने वाला एक राजकुमार, जो जुआरियों का सरदार है तथा रथ, घोड़े, हाथी और पैदलों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चलता है, आपके लिये युद्ध करने को तैयार खड़ा है। वीर श्रुतायु, धृतायुध, चित्रांगद और वीर चित्रसेन- ये सभी प्रहार कुशल स्वाभिमानी और सत्य प्रतिज्ञ नरश्रेष्ठ आपके लिये युद्ध करने को तैयार खड़े हैं। नरेन्द्र! कर्ण का महामना एवं सत्य प्रतिज्ञ पुत्र समरांगण में युद्ध की इच्छा से डटा हुआ है। इसके सिवा कर्ण के दो पुत्र और हैं, जो उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता और शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले हैं, वे भी आपकी ओर से युद्ध के लिये तैयार खड़े हैं। इन दोनों ने ऐसी विशाल सेना को अपने साथ ले रखा है, जिसका अल्प धैर्य वाले वीरों के लिये भेदन करना कठिन है। राजन! इनसे तथा अन्य अनन्त प्रभावशाली श्रेष्ठ एवं प्रणान योद्धाओं से घिरा हुआ कुरुराज दुर्योधन हाथियों के समूह में देवराज इन्द्र के समान विजय के लिये खड़ा है।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! अपने पक्ष के जो जीवित योद्धा हैं, एवं उनसे भिन्न जो मारे जा चुके हैं, उनका तुमने यथार्थ रूप से वर्णन कर दिया। इससे जो परिणाम होने वाला है, उसे अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा मैं स्पष्ट रूप से समझ रहा हूँ (मेरे पक्ष की हार सुनिश्चित है)।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन! यह कहते हुए ही अम्बिका नन्दन धृतराष्ट्र उस समय यह सुनकर कि अपनी सेना के प्रमुख वीर मारे गये, अधिकांश सेना नष्ट हो गयी और बहुत थोड़ी शेष रह गयी है, मूर्च्छित हो गये। उनकी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। वे अचेत होते-होते बोले- ‘संजय! दो घड़ी ठहर जाओ। तात! यह महान अप्रिय संवाद सुनकर मेरा मन व्याकुल हो गया है, चेतना लुप्त हो रही है और मैं अपने अंगों को धारण करने में असमर्थ हूँ। ऐसा कहकर अम्बिका नन्दन राजा धृतराष्ट्र भ्रान्तचित्त (मूर्च्छित) हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संजय वाक्य विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का विलाप”
जनमेजय बोले ;- द्विजश्रेष्ठ! युद्ध में कर्ण मारा गया और पुत्र भी धराशायी हो गये, यह सुनकर अचेत हुए राजा धृतराष्ट्र को जब पुनः कुछ चेत हुआ, जब उन्होंने क्या कहा? धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों के मारे जाने के कारण बड़ा भारी दुःख हुआ था, उस समय उन्होंने जो कुछ कहा, उसे मैं पूछ रहा हूँ; आप मुझे बताइये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! कर्ण का मारा जाना अद्भुत और अविश्वसनीय सा लग रहा था। वह भयंकर कर्म उसी प्रकार समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाला था, जैसे मेरु पर्वत का अपने स्थान से हटकर अन्यत्र चला जाना। परम बुद्धिमान भृगु नन्दन परशुराम जी के चित्त में मोह उत्पन्न होना जैसे सम्भव नहीं है, जैसे भयंकर कर्म करने वाले देवराज इन्द्र का अपने शत्रुओं से पराजित होना असम्भव है, जैसे महातेजस्वी सूर्य के आकाश से पृथ्वी पर गिरने और अक्षय जल वाले समुद्र के सूख जाने की बात मन में सोची नहीं जा सकती; पृथ्वी, आकाश, दिशा और जल का सर्वनाश होना एवं पाप तथा पुण्य- दोनों प्रकार के कर्मों का निष्फल हो जाना जैसे आश्चर्यजनक घटना है; उसी प्रकार समर में कर्ण-वध रूपी असम्भव कर्म को भी सम्भव हुआ सुनकर और उस पर बुद्धि द्वारा अच्छी तरह विचार करके राजा धृतराष्ट्र यह सोचने लगे कि ‘अब यह कौरव दल बच नहीं सकता। कर्ण की ही भाँति अन्य प्राणियों का भी विनाश हो सकता है।’ यह सब सोचते ही उनके हृदय में शोक की आग प्रज्वलित हो उठी और वे उससे तपने एवं दग्ध से होने लगे। एनके सारे अंग शिथिल हो गये। महाराज! वे अम्बिका नन्दन धृतराष्ट्र दीन भाव से लंबी साँस खींचने और अत्यन्त दुखी हो ‘हाय! हाय!’ कहकर विलाप करने लगे।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! अधिरथ का वीर पुत्र कर्ण सिंह और हाथी के समान पराक्रमी था। उसके कंधे साँड़ के कंधे के समान हृष्ट-पुष्ट थे। उसकी आँखें और चाल-ढाल भी साँड़ के ही सदृश थीं। वह स्वयं भी दान की वर्षा करने के कारण वृषभ स्वरूप था। रणभूमि में विचरता हुआ कर्ण इन्द्र जैसे शत्रु से पाला पड़ने पर भी साँड़ के समान कभी युद्ध से पीछे नहीं हटता था। उसकी युवा अवस्था थी। उसका शरीर इतना सुदृढ़ था, मानो वज्र से गढ़ा गया हो। जिसकी प्रत्यंचा की टंकार तथा बाण वर्षा के भयंकर शब्द से भयभीत हो रथी, घुड़सवार, गजारोही और पैदल सैनिक युद्ध में सामने नहीं ठहर पाते थे। जिस महाबाहु का भरोसा करके शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा रखते हुए दुर्योधन ने महारथी पाण्डवों के साथ वैर बाँध रखा था। जिसका पराक्रम शत्रुओं के लिये असह्य था, वह रथियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह कर्ण युद्ध स्थल में कुन्ती पुत्र अर्जुन के द्वारा बलपूर्वक कैसे मारा गया? जो अपने बाहुबल के घमंड में भरकर श्रीकृष्ण को, अर्जुन को तथा एक साथ आये हुए अन्यान्य वृष्णि वंशियों को भी कभी कुछ नहीं समझता था। जो राज्य की इच्छा रखने वाले तथा चिन्ता से आतुर हो मुँह लटकाये बैठे हुए मेरे लोभ मोहित मूर्ख पुत्र दुर्योधन से सदा यही कहा कहता था कि ‘मैं अकेला ही युद्ध स्थल में शांर्ग और गाण्डीव धनुष धारण करने वाले दोनों अपराजित वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन को उनके दिव्यरथ से एक साथ ही मार गिराऊँगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)
जिस वीर ने पहले समस्त काम्बोज, आवन्त्य, केकय, गान्धार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त, तंगण, शक, पांचाल, विदेह, कुलिन्द, काशी, कोसल, सुह्य, अंग, बंग, निषाद, पुण्ड्र, चीरक, वत्स, कलिंग, तरल, अश्मक तथा ऋषिक- इन सभी देशों तथा शबर, परहूण, प्रहूण और सरल जाति के लोगों, म्लेच्छ राज्य के अधिपतियों तथा दुर्ग एवं वनों में रहने वाले योद्धाओं को समर भूमि में जीतकर देने वाला बना दिया था। रथियों मे श्रेष्ठ जिस राणा पुत्र ने दुर्योधन की वृद्धि के लिये कंकपत्र युक्त, तीखी धार वाले पैने बाण समूहों द्वारा समस्त शत्रुओं को परास्त करके उनसे कर वसूल किया था, जो दिव्यास्त्रों का ज्ञाता, उत्तम अस्त्रों का जानकार और हमारी सेनाओं का रक्षक था, वह महातेजस्वी धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण अपने शूरवीर एवं बलशाली शत्रु पाण्डवों द्वारा कैसे मारा गया?
देवताओं में देवराज इन्द्र को वृष कहा गया है (क्योंकि वे जल की वर्षा करते हैं), इसी प्रकार मनुष्यों में भी कर्ण को वृष कहा जाता था (क्योंकि वह याचकों के लिये धन की वर्षा करता था); इन दो के सिवा किसी तीसरे पुरुष को तीनों लोकों में वृष नाम दिया गया हो, यह मैंने नहीं सुना। जैसे घोड़ों में उच्चैःश्रवा, राजाओं में कुबेर और देवताओं में महेन्द्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कर्ण योद्धाओं में ऊँचा स्थान रखता था। जो पराक्रमशाली, समर्थ एवं शूरवीर नरेशों द्वारा भी कभी जीता नहीं जा सका, जिसने दुर्योधन की वृद्धि के लिये समस्त भूमण्डल पर विजय पायी थी, जिसे अपना सहायक पाकर मगध नरेश जरासंध ने भी सौहार्दवश शानत हो यादवों और कौरवों को छोड़कर भूतल के अन्य नरेशों को ही अपने कारागार में कैद किया था; यह सुनकर मैं शोक के समुद्र में डूब गया हूँ, मानो मेरी नाव बीच समुद्र में जाकर टूट गयी हो। रथियों में श्रेष्ठ धर्मात्मा कर्ण को द्वैरथ युद्ध में मारा गया सुनकर मैं समुद्र में नौका रहित पुरुष की भाँति शोक सागर में निमग्न हो गया हूँ।
संजय! यदि ऐसे दुःखों से भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है तो मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरा यह हृदय वज्र से भी अणिक सुदृढ़ और दुर्भेद्य है। सूत! कुटुम्बीजनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों के पराभव का यह समाचार सुनकर संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवन का परित्याग न करे। संजय! मै विष खाकर, अग्नि में प्रविष्ट होकर तथा पर्वत के शिखर से नीचे गिरकर भी मृत्यु का वरण कर लूँगा। परंतु अब ये कष्टदायक दुःख नहीं सह सकूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में धृतराष्ट्र वाक्य विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का संजय से विलाप करते हुए कर्णवध विस्तार पूर्वक वृत्तान्त पूछना”
संजय ने कहा ;- महाराज! साधु पुरुष इस समय आपको धन सम्पत्ति, कुल मर्यादा, सुयश, तपस्या और शास्त्रज्ञान में नहुष नन्दन ययाति के समान मानते हैं। राजन! वेद शास्त्रों के ज्ञान में आप महर्षियों के तुल्य हैं। आपने अपने जीवन के सम्पूर्ण कर्त्तव्यों का पालन कर लिया है; अतः अपने मन को स्थिर कीजिये, उसे विषाद में न डुबाइये।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- मैं तो दैव को ही प्रधान मानता हूँ। पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसे धिक्कार हे, जिसका आरय लेकर शाल वृक्ष के समान ऊँचे शरीर वाला कर्ण भी युद्ध में मारा गया। युधिष्ठिर की सेना तथा पांचाल रथियों की सेना के समुदाय का संहार करके जिस महारथी वीर ने अपने बाणों की वर्षा से सम्पूर्ण दिशाओं को संतप्त कर दिया और वज्रधारी इन्द्र जैसे असुरों को अचेत कर देते हैं, उसी प्रकार जिसने रणभूमि में कुन्ती कुमारों को मोह में डाल दिया था, वही किस तरह मारा जाकर आँधी के उखाड़ते हुए वृक्ष के समान धरती पर पड़ा है? जैसे समुद का पार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार मैं इस शोक का अन्त नहीं देख पाता हूँ। मेरी चिन्ता अधिकाणिक बढ़ती जाती है और मरने की इच्छा प्रबल हो उठी है। संजय! मैं कर्ण की मृत्यु और अर्जुन की विजय का समाचार सुनकर भी कर्ण के वध को विश्वास के योग्य नहीं मानता। निश्चय ही मेरा हृदय वज्र के सारतत्त्व का बना हुआ है अतः दुर्भेद्य है; तभी तो पुरुषसिंह कर्ण को मारा गया सुनकर भी यह विदीर्ण नहीं हो रहा है। अवश्य ही पूर्व काल में देवताओं ने मेरी आयु बहुत बड़ी बना दी थी, जिसके अधीन होने के कारण मैं कर्ण वध का समाचार सुनकर अत्यन्त दुःखी होने पर भी यहाँ जी रहा हूँ। संजय! मेरे इस जीवन को धिक्कार है। आज मैं सुहृदों से हीन होकर इस घृणित दशा को पहुँच गया हूँ। अब मैं मन्द बुद्धि मानव सबके लिये शोचनीय होकर दीन दुखी मनुष्यों के समान जीवन बिताऊँगा।
सूत! मैं ही पहले सब लोगों के सम्मान का पात्र था; किंतु अब शत्रुओं से अपमानित होकर कैसे जीवित रह सकूँगा? संजय! भीष्म, द्रोण और महामना कर्ण के वध से मुझ पर लगातार एक से एक बढ़कर अत्यन्त दुःख तथा संकट आता गया है। युद्ध में सूत पुत्र कर्ण के मारे जाने पर मैं अपने पक्ष के किसी भी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो जीवित रह सके। संजय! कर्ण ही मेरे पुत्रों को पार उतारने वाला महान अवलम्ब था। शत्रुओं पर असंख्य बाणों की वर्षा करने वाला वह शूरवीर युद्ध में मार डाला गया। उस पुरुष शिरोमणि के बिना मेरे इस जीवन से क्या प्रयोजन है? जैसे वज्र के आघात से विदीर्ण किया हुआ पर्वत शिखर धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार बाणों से पीड़ित हुआ अणिरथ पुत्र कर्ण निश्चय ही रथ से नीचे गिर पड़ा होगा। जैसे मतवाले गजराज द्वारा गिराया हुआ हाथी पड़ा हो, उसी प्रकार कर्ण खून से लथपथ होकर अवश्य इस पृथ्वी की शोभा बढ़ाता हुआ सो रहा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
जो मेरे पुत्रों का बल था, पाण्डवों को जिससे सदा भय बना रहता था तथा जो धनुर्धर वीरों के लिये आदर्श था, वह कर्ण अर्जुन के हाथ से मारा गया। जैसे देवराज इन्द्र के द्वारा वज्र से मारा गया पर्वत पृथ्वी पर पड़ा हो, उसी प्रकार मित्रों को अभय दान देने वाला वह महाधनुर्धर वीर कर्ण अर्जुन के हाथ से मारा जाकर रणभूमि में सो रहा है। जैसे पंगु मनुष्य के लिये रास्ता चलना कठिन है, दरिद्र का मनोहर पूर्ण होना असम्भव अथवा सफलता से कोसों दूर है। किसी कार्य को अन्य प्रकार से सोचा जाता है, किन्तु वह देववश और ही प्रकार का हो जाता है। अहो! निश्चय ही दैप प्रबल और काल दुर्लंघ्य है।
सूत! क्या मेरा पुत्र दुःशासन दीन चित्त और पुरुषार्थ शून्य होकर कायर के समान भागता हुआ मारा गया। तात! उसने युद्ध स्थल में कोई दीनता पूर्ण बर्ताव तो नहीं किया था। जैसे अन्य क्षत्रिय शिरोमणि मारे गये हैं, क्या उसी प्रकार शूरवीर दुःशासन नहीं मारा गया है? युधिष्ठिर सदा यही कहते रहे कि ‘युद्ध न करो।’ परंतु मूर्ख दुर्योधन ने हितकारक औषध के समान उनके उस वचन को ग्रहण नहीं किया। बाण शय्या पर सोये हुए महात्मा भीष्म ने अर्जुन से पानी माँगा और उन्होंने इसके लिये पृथ्वी को छेद दिया। इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन के द्वारा प्रकट की हूई उस जलधारा को देखकर महाबाहु भीष्म ने दुर्योधन से कहा,
भीष्म बोले ;- ‘तात! पाण्डवों के साथ संधि कर लो। संधि से वैर की शान्ति हो जायगी, तुम लोगों का यह युद्ध मेरे जीवन के साथ ही समाप्त हो जाय। तुम पाण्डवों के साथ भ्रातृभाव बनाये रखकर पृथ्वी का उपभोग करो’। उनकी उस बात को न मानने के कारण अवश्य ही मेरा पुत्र शोक कर रहा है। दूरदर्शी भीष्म जी की यह बात आज सफल होकर सामने आयी है। संजय! मेरे मन्त्री और पुत्र मारे गये। मैं तो पंख कटे हुए पक्षी के समान जूए के कारण भारी संकट में पड़ गया हूँ। सूत! जैसे खेलते हुए बालक किसी पक्षी को पकड़कर उसकी दोनों पाँखें काट लेते और प्रसन्नतापूर्वक उसे छोड़ देते हैं। फिर पंख कट जाने के कारण उसका उड़कर कहीं जाना सम्भव नहीं हो पाता। उसी कटे हुए पंख वाले पक्षी के समान मैं भी भारी दुर्दशा में पड़ गया हूँ। मैं शरीर से दुर्बल, सारी धन-सम्पत्ति से वंचित तथा कुटुम्बजनों और बन्धुजनों से रहित हो शत्रु के वश में पड़कर दीनभाव से किस दिशा को जाऊँगा?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इस प्रकार विलाप करके अत्यन्त दुखी और शोक से व्याकुलचित्त हो धृतराष्ट्र ने पुनः संजय से इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! जिसने हमारे कार्य के लिये युद्ध स्थल में सम्पूर्ण काम्बोज निवासियों, अम्बष्ठों, केकयों, गान्धारों और विदेहों पर विजय पायी। इन सबको जीतकर जिसने दुर्योधन की वृद्धि के लिये समस्त भूमण्डल को जीत लिया था। वही सामर्थ्यशाली कर्ण अपने बाहुबल से सुशोभित होने वाले शूरवीर पाण्डवों द्वारा समरांगण में परास्त हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)
संजय! युद्ध स्थल में किरीटधारी अर्जुन के द्वारा उस महाधनुर्धर कर्ण के मारे जाने पर कौन-कौन से वीर ठहर सके। यह मुझे बताओ। तात! कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि कर्ण को अकेला छोड़ दिया गया हो और समस्त पाण्डवों ने मिलकर उसे मार डाला हो; क्योंकि तुम पहले बता चुके हो कि वीर कर्ण मारा गया। समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस दशा में शिखण्डी ने अपने उत्तम बाणों द्वारा उन्हें समरांगण में मार गिराया। इसी प्रकार जब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य युद्ध स्थल में अपने सारे अस्त्र-शस्त्रों को नीचे डालकर ब्रह्म का ध्यान लगाते हुए बैठे थे, उस अवस्था में द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न ने उन्हें बहुसंख्यक बाणों से ढक दिया और तलवार उठाकर उनका सिर काट लिया।
संजय! इस प्रकार ये दोनों वीर छिद्र मिल जाने से विशेषतः छल पूर्वक मारे गये। मैंने यह समाचार भी सुना था कि भीष्म और द्रोणाचार्य मार गिराये गये, परंतु मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ कि ये भीष्म और द्रोण यदि समरभूमि में न्याय पूर्वक युद्ध करते होते तो इन्हें साक्षात इन्द्र भी नहीं मार सकते थे। मैं पूछता हूँ कि युद्ध में दिव्यास्त्रों की वर्षा करते हुए इन्द्र के समान पराक्रमी वीर कर्ण को मृत्यु कैसे छू सकी? जिसे देवराज इन्द्र ने दो कुण्डलों के बदले में विद्युत के समान प्रकाशित होने वाली तथा शत्रुओं का नाश हरने में समर्थ सुवर्ण भूषित दिव्य शक्ति प्रदान की थी, जिसके तूणीर में सर्प के समान मुख वाला दिव्य, सुवर्ण भूषित, कंकपत्र युक्त एवं युद्ध में शत्रुसंहारक तीखा बाण शयन करता था, जो भीष्म, द्रोण आदि महारथी वीरों की भी अवहेलना करता था, जिसने जमदग्नि नन्दन परशुराम जी से अत्यन्त घोर ब्रह्मास्त्र की शिक्षा पायी थी और जिस महाबाहु वीर ने सुभद्रा कुमार के बाणों से पीड़ित हुए द्रोणाचार्य आदि को युद्ध से विमुख हुआ देख अपने तीखो बाणों से उसका धनुष काट डाला था, जिसने दस हजार हाथियों के समान बलशाली, वज्र के समान तीव्र वेग वाले, अपराजित वीर भीमसेन को सहसा रथहीन करके उनकी हँसी उड़ायी थी, जिसने सहदेव को जीतकर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उन्हें रथहीन करके भी धर्म के विचार से दयावश उनके प्राण नहीं लिये; जिसने सहस्रों मायाओं की सृष्टि करने वाले विजयाभिलाषी राक्षसराज घटोत्कच को इन्द्र की दी हुई शक्ति से मार डाला तथा इतने दिनों तक अर्जुन जिससे भयभीत होकर उसके साथ द्वैरथ युद्ध में सम्मिलित नहीं हो सके, वही वीर कर्ण उसके साथ द्वैरथ युद्ध में मारा कैसे गया?
‘संशप्तकों में से जो योद्धा सदा मुझे दूसरी ओर युद्ध के लिये बुलाया करते हैं, इन्हें पहले मारकर पीछे वैकर्तन कर्ण का रणभूमि में वध करूँगा।’ ऐसा बहाना बनाकर अर्जुन जिस सूत पुत्र को युद्ध स्थल में छोड़ दिया करते थे, उसी शत्रुवीरों के संहारक वीरवर कर्ण को अर्जुन ने किस प्रकार मारा? यदि उसका रथ नहीं टूट गया था, धनुष के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गये थे और अस्त्र नहीं नष्ट हुए थे, तब शत्रुओं ने उसे किस प्रकार मार दिया?
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 53-71 का हिन्दी अनुवाद)
सिंह के समान वेगशाली पुरुषसिंह कर्ण जब अपना विशाल धनुष कँपाता हुआ युद्ध स्थल में दिव्यास्त्र तथा भयंकर बाण छोड़ रहा हो, उस समय उसे कौन जीत सकता था? निश्चय ही उसका धनुष कट गया होगा या रथ धरती में धँस गया होगा अथवा उसके अस्त्र नष्ट हो गये होंगे, तभी जैसा तुम मुझे बता रहे हो, वह मारा गया होगा। उसके नष्ट होने में और कोई कारण मुझे नहीं दिखायी देता है, जिस महामना वीर का यह भयंकर व्रत था कि ‘मैं जब तक अर्जुन को मार नहीं लूँगा, तब तक दूसरों से अपने पैर नहीं धुलवाऊँगा’।
रणभूमि में जिसके भय से डरे हुए पुरुष शिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर ने तेरह वर्षों तक कभी अच्छी नींद नहीं ली, जिस महामनस्वी बलवान सूत पुत्र के बल का भरोसा करके मेरा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों की पत्नी को बलपूर्वक सभा में घसीट लाया और वहाँ भी भरी सभा में उसने पाण्डवों के देखते देखते समस्त कुरुवंशियों के समीप पांचाल राजकुमारी को दास पत्नी बतलाया, साथ ही जिसने उसे सम्बोधित करके कहा,- ‘कृष्णे! तेरे पति अब नहीं के बराबर हैं। सुन्दरि! अब तू दूसरे किसी पति का आश्रय ले’ पूर्वकाल में जिस सूत पुत्र ने सभा में रोष पूर्वक द्रौपदी को ये कठोर बातें सुनायी थीं, वह स्वयं शत्रुओं द्वारा कैसे मारा गया? जिसने मेरे पुत्र से कहा था कि ‘दुर्योधन! यदि युद्ध की श्लाघा रखने वाले भीष्म अथवा रणदुर्मद द्रोणाचार्य पक्षपात करने के कारण कुन्ती पुत्रों को नहीं मारेंगे तो मैं उन सबको मार डालूँगा। तुम्हारी मानसिक चिंता दूर हो जानी चाहिये। ‘गाण्डीव धनुष अथवा दोनों अक्षय तरकस मेरे उस बाण का क्या कर लेंगे, जो चिकने चन्दन से चर्चित हो शत्रुओं पर बड़े वेग से धावा करते हैं’ ऐसी बातें कहने वाला कर्ण, जिसके कंधे बैलों के समान हृष्ट-पुष्ट थे, निश्चय ही अर्जुन के हाथ से कैसे मारा गया?
संजय! जिसने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों के आघात की तनिक भी परवा न करके ‘कृष्णे! अब तू पतिहीना हो गयी’ ऐसा कहते हुए कुन्ती पुत्रों की ओर देखा था, जिसे अपने बाहुबल के भरोसे से कभी दो घड़ी के लिये भी पुत्रों सहित पाण्डवों और भगवान श्रीकृष्ण से भी भय नहीं हुआ। तात! यदि शत्रु पक्ष की ओर से इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी धावा करें तो उनके द्वारा भी कर्ण के वध होने का मुझे विश्वास नहीं हो सकता था, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है?जब अधिरथ पुत्र कर्ण अपने धनुष की प्रत्यन्चा स्पर्श कर रहा हो अथवा दस्ताने पहने चुका हो, उस समय कोई पुरुष उसके सामने नहीं ठहर सकता था। सम्भव है यह पृथ्वी चन्द्रमा और सूर्य की प्रकाशमयी किरणों से वंचित हो जाय, परंतु युद्ध में पीठ न दिखाने वाले पुरुषशिरोमणि कर्ण के वध की कदापि सम्भावना नहीं थी। जिस कर्ण और भाई दुःशासन को अपना सहायक पाकर मूर्ख एवं दुर्बुद्धि दुर्योधन ने श्रीकृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा देना ही उचित समझा था, मैं समझता हूँ, आज बैलों के समान पुष्ट कंधे वाले कर्ण को गिरा हुआ तथा दुःशासन को भी मारा गया देख मेरा वह पुत्र निश्चय ही शोक में मग्न हो गया होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 72-90 का हिन्दी अनुवाद)
द्वैरथ युद्ध में सव्यसाची अर्जुन के हाथ से कर्ण को मारा गया सुनकर और पाण्डवों की विजय होती देखकर दुर्योधन ने क्या कहा था? दुर्मर्षण और वृषसेन भी युद्ध में मारे गये, महारथी पाण्डवों की मार खाकर सेना में भगछड़ मच गयी, सहायक नरेश युद्ध से विमुख हो पलायन करने लगे और रथियों ने पीठ दिखा दी। यह सब देखकर मेरा बेटा शोक कर रहा होगा; ऐसा मुझे मालूम हो रहा है। जो किसी की सीख नहीं मानता है, जिसे अपनी विद्वत्ता और बुद्धिमत्ता का अभिमान है, उस दुर्बुद्धि, अजितेन्द्रिय दुर्योधन ने अपनी सेना को हतोत्साह देखकर क्या कहा? हितैषी सुहृदों के मना करने पर भी पाण्डवों के साथ स्वयं बड़ा भारी बैर ठानकर दुर्योधन ने, जब संग्राम में उसके अधिकांश सैनिक मारे डाले गये, तब क्या कहा? युद्ध स्थल में अपने भाई दुःशासन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख जबकि उसका रक्त पीया जा रहा था, दुर्योधन ने क्या कहा? गान्धारराज शकुनि के साथ सभा में दुर्योधन ने जो यह कहा था कि ‘कर्ण अर्जुन को मार डालेगा’, उसके विपरीत जब कर्ण स्वयं मारा गया तब उसने क्या कहा? तात! पहले द्यूतक्रीड़ा का आयोजन करके पाण्डवों को ठग लेने के बाद जिसे बड़ा हर्ष हुआ था, वह सुबल पुत्र शकुनि कर्ण के मारे जाने पर क्या बोला? वैकर्तन कर्ण को मारा गया देख सात्वत वंश के महाधनुर्धर महारथी हृदिक पुत्र कृतवर्मा ने क्या कहा?
संजय! धनुर्वेद प्राप्त करने की इच्छा वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिन बुद्धिमान द्रोणाचार्य के पास आकर शिक्षा ग्रहण करते हैं, जो सुन्दर रूप से सम्पन्न, युवक, दर्शनीय तथा महायशस्वी है, उस अश्वत्थामा ने कर्ण के मारे जाने पर क्या कहा? तात! धनुर्वेद के आचार्य एवं रथियों में श्रेष्ठ गौतम वंशी शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने कर्ण के मारे जाने पर क्या कहा? युद्ध में शोभा पाने वाले, रथियों में श्रेष्ठ मद्र देश के अधिपति, बलवान वीर, महाधनुर्धर मद्रराज शल्य ने अपने सारथित्व में कर्ण को मारा गया देखकर क्या कहा? संजय! भूमण्डल के जो कोई भी नरेश युद्ध के लिये आये थे, वे समसत रण दुर्जय योद्धा वैकर्तन कर्ण को मारा गया देखकर क्या बातें करते रहे? संजय! रथियों में सिंह नरश्रेष्ठ वीरवर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कौन-कौन वीर सेनाओं के मुख (अग्र भाग) की रक्षा करते रहे? संजय! रथियों में श्रेष्ठ मद्रराज शल्य को कर्ण के सारथि के कार्य में कैसे नियुक्त किया गया? यह मुझे बताओ। युद्ध करते समय भी वीर सूत पुत्र के दाहिने पहिये की रक्षा कौन कौन कर रहे थे , अथवा उसके बायें पहिये या पृष्ठ भाग की रक्षा में कौन-कौन वीर नियुक्त थे? किन शूरवीरों ने कर्ण का साथ नहीं छोड़ा? और कौन-कौन से नीच सैनिक वहाँ से भाग गये? तुम सब लोग जब एक साथ होकर लड़ रहे थे, तब महारथी कर्ण कैसे मारा गया?
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 91-97 का हिन्दी अनुवाद)
संजय! जिस समय शूरवीर महारथी पाण्डव पानी की धारा बरसाने वाले बादलों के समान स्वयं ही बाणों की वृष्टि करते हुए आगे बढ़ने लगे, उस समय महान बाणों में सर्वश्रेष्ठ दिव्य सर्वमुख बाण व्यर्थ कैसे हो गया? यह मुझे बताओ। संजय! मेरी इस सेना का उत्कर्ष अथवा उत्साह नष्ट हो गया है। इसके प्रमुख वीर कर्ण के मारे जाने पर अब यह बच सकेगी, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता है। मेरे लिये प्राणों का मोह छोड़ देने वाले महाधनुर्धर वीर भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये, यह सुनकर मेरे जीवित रहने का क्या प्रयोजन है? जिसकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल था, वह कर्ण पाण्डवों द्वारा मारा गया, यह बारंबार सुनकर मुझसे सहा नहीं जाता। संजय! द्रोणाचार्य के मारे जाने पर संग्राम में नरवीर कौरवों का शत्रुओं के साथ जैसा बर्ताव हुआ, वह मुझे बताओ। शत्रुहन्ता कर्ण ने कुन्ती पुत्रों के साथ जिस प्रकार युद्ध का आयेाजन किया और जिस प्रकार वह रण भूमि में शान्त हो गया, वह सारा वृत्तान्त मुझे बताओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में धृतराष्ट्र का प्रश्न विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण को सेनापति बनाने के लिये अश्वत्थामा का प्रस्ताव और सेनापति के पद पर उसका अभिषेक”
संजय ने कहा ;- भरतनन्दन महाराज! उस दिन जब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य मारे गये, महारथी द्रोण पुत्र का संकल्प व्यर्थ हो गया और समुद्र के समान विशाल कौरव सेना भागने लगी, उस समय कुन्ती कुमार अर्जुन अपनी सेना का व्यूह बनाकर अपने भाइयों के साथ रणभूमि में डटे रहे। भरत श्रेष्ठ! उन्हें युद्ध के लिये डटा हुआ जान आपके पुत्र ने अपनी सेना को भागती देख उसे पराक्रम पूर्वक रोका। भारत! इस प्रकार अपनी सेना को स्थापित करके, जिन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया था और इसलिये जो बड़े हर्ष के साथ परिश्रम पूर्वक युद्ध कर रहे थे, उन विपक्षी पाण्डवों के साथ दुर्योधन ने अपने ही बाहुबल के भरोसे दीर्घकाल तक युद्ध करके संध्याकाल आने पर सैनिकों को शिविर में लौटने की आज्ञा दे दी।
सेना को लौटाकर अपने शिविर में प्रवेश करने के पश्चात समस्त कौरव परस्पर अपने हित के लिये गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय वे सब लोग बहुमूल्य बिछौनों से युक्त मूल्यवान पलंगों तथा श्रेष्ठ सिंहासनों पर बैठे हुए थे, मानो सुचाद शय्याओं पर विराज रहे हों। उस समय राजा दुर्योधन ने सान्त्वना पूर्ण परम मधुर वाणी द्वारा उन महाधनुर्धर नरेशों को सम्बोधित करके यह समयोचित बात कही- ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश्वरों! तुम सब लोग शीघ्र बोलो, विलम्ब न करो, इस अवस्था में हम लोगों को क्या करना चाहिये और सबसे अधिक आवश्यक कर्तव्य क्या है?’
संजय कहते हैं ;- राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर वे सिंहासन पर बैठे हुए पुरुषसिंह नरेश युद्ध की इच्छा से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे। युद्ध में प्राणों की आहुति देने की इच्छा रखने वाले उन नरेशों की चेष्टाएँ देखकर राजा दुर्योधन के प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी मुख की ओर दृष्टिपात करके वाक्य विशारद, मेधावी आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने यह बात कही,
अश्वत्थामा ने कहा ;- विद्वानों अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाले चार उपाय बताये हैं - राग (राजा के प्रति सैनिको की भक्ति), योग (साधन-सम्पत्ति), दक्षता (उत्साह, बल एवं कौशल), तथा नीति; परंतु वे सभी दैव के अधीन हैं। ‘हमारे पक्ष में जो देवताओं के समान पराक्रमी, विश्वविख्यात महारथी वीर, नीतिमान, साधन सम्पन्न, दक्ष और स्वामी के प्रति अनुरक्त थे, वे सब के सब मारे गये, तथापि हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये। यदि सारे कार्य उत्तम नीति के अनुसार किये जायँ तो उनके द्वारा दैव को भी अलुकूल किया जा सकता है; अतः भारत! हम लोग सर्वगुण सम्पन्न नरश्रेष्ठ कर्ण का ही सेनापति के पद पर अभिषेक करेंगे और इन्हें सेनापति बनाकर हम लोग शत्रुओं को मथ डालेंगे। ‘ये अत्यन्त बलवान, शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, रण दुर्मद और सूर्यपुत्र यमराज के समान शत्रुओं के लिये असह्य हैं। इसलिये ये रणभूमि में हमारे विपक्षियों पर विजय पा सकते हैं’। राजन! उस समय आचार्य पुत्र अश्वत्थामा के मुख से यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण के प्रति विशेष आशा बाँध ली। भरतनन्दन! भीष्म और द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, इस आशा को हृदय में रखकर दुर्योधन को बड़ी सान्त्वना मिली। महाराज! वह अश्वत्थामा के उस प्रिय वचन को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात अपने बाहुबल का आश्रय ले मन को सुस्थिर करके दुर्योधन ने राधा पुत्र कर्ण से बड़े प्रेम और सत्कार के साथ अपने लिये हितकर यथार्थ और मंगलकारक वचन इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘कर्ण! मैं तुम्हारे पराक्रम को जानता हूँ और यह भी अनुभव करता हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारा स्नेह बहुत अधिक है। महाबाहो! तथापि मैं तुमसे अपने हित की बात कहना चाहता हूँ। ‘वीर! मेरी यह बात सुनकर तुम अपनी इच्छा के अनुसार जो तुम्हें अच्छा लगे, वह करो। तुम बहुत बड़े बुद्धिमान तो हो ही, सदा के लिये मेरे सबसे बड़े सहारे भी हो। ‘मेरे दो सेनपति पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण, जो अतिरथी थे, युद्ध में मारे गये। अब तुम मेरे सेना नायक बनो; क्योंकि तुम उन दोनों से भी अधिक शक्तिशाली हो। ‘वे दोनों महाधनुर्धर होते हुए भी बूढ़े थे और अर्जुन के प्रति उनके मन में पक्षपात था। राधा नन्दन! मैंने तुम्हारे करने से ही उन दोनों वीरों को सेनापति बनाकर सम्मानित किया था। ‘तात! भीष्म ने पितामह के नाते की ओर दृष्टिपात करके उस महासमर में दस दिनों तक पाण्डवों की रक्षा की है। ‘उन दिनों तुमने हथियार रख दिया था; इसलिये महासमर में अर्जुन ने शिखण्डी को आगे करके पितामह भीष्म को मार डाला था। ‘पुरुषसिंह! उन महाधनुर्धर भीष्म के घायल होकर बाण शय्या पर सो जाने के बाद तुम्हारे कहने से ही द्रोणाचार्य हमारी सेना के अगुआ बनाये गये थे। मेरा विश्वास है कि उन्होंने भी अपना शिष्य समझकर कुन्ती के पुत्रों की रक्षा की है। वे बूढ़े आचार्य भी शीघ्र ही धृष्टद्युम्न के हाथ से मारे गये। ‘अमित पराक्रमी वीर! उन प्रधान सेनापतियों के मारे जाने के पश्चात मैं बहुत सोचने पर भी समरांगण में तुम्हारे समान दूसरे किसी योद्धा को नहीं देखता। ‘हम लोगों में से तुम्हीं शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ हो, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुमने पहले, बीच में और पीछे भी हमारा हित ही किया है।
‘तुम धुरन्धर पुरुष की भाँति युद्ध स्थल में सेना संचालन का भार वहन करने के योग्य हो; इसलिये स्वयं ही अपने आपको सेनापति के पद पर अभिषिक्त कराओ। ‘जैसे अविनाशी भगवान स्कन्द देवताओं की सेना का संचालन करते हैं, उसी प्रकार तुम भी धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना को अपनी अध्यक्षता में ले लो। ‘जैसे देवता इन्द्र ने दानवों का संहार किया था, उसी प्रकार तुम भी समस्त शत्रुओं का वध करो। जैसे दानव भगवान विष्णु को देखते ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार पाण्डव तथा पाञ्चाल महारथी तुम्हें रणभूमि में सेनापति के रूप में उपस्थित देखकर भाग खड़े होंगे; अतः पुरुषसिंह! तुम इस विशाल सेना का संचालन करो। ‘तुम्हारे सावधानी के साथ खड़े होते ही मूर्ख पाण्डव, पांचाल और सृंजय अपने मन्त्रियों सहित भाग जायँगे। ‘जैसे उदित हुआ सूर्य अपने तेज से तपकर घोर अंधकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं को संतप्त एवं नष्ट करो’।
संजय कहते हैं ;- राजन! आपके पुत्र के मन में जो यह प्रबल आशा हो गयी थी कि भीष्म और द्रोण के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, वही आशा मन में लेकर उस समय उसने कर्ण से इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘सूत पुत्र! अर्जुन तुम्हारे सामने खड़े होकर कभी युद्ध करना नहीं चाहते हैं’।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 40-56 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण ने कहा ;- गान्धारी नन्दन! मैंने तुम्हारे समीप पहले ही यह बात कह दी है कि मैं पाण्डवों को, उनके पुत्रों और श्रीकृष्ण के साथ ही परास्त कर दूँगा। महाराज! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारा सेनापति बनूँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अब पाण्डवों को पराजित हुआ ही समझो।
संजय कहते हैं ;- महाराज! कर्ण के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन अन्य सामन्त नरेशा के के साथ उसी प्रकार उठकर खड़ा हो गया, जैसे देवताओं के साथ इन्द्र खड़े होते हैं। जैसे देवताओं ने स्कन्द को सेनापति बनाकर उनका सत्कार किया था, उसी प्रकार समस्त कौरव कर्ण को सेनापति बनाकर उसका सत्कार करने के लिये उद्यत हुए। राजन! विजयाभिलाषी दुर्योधन आदि राजाओं ने शास्त्रोक्त विधि के द्वारा कर्ण का अभिषेक किया। अभिषेक के लिये सोने तथा मिट्टी के घड़ों में अभिमंत्रित जल रखे गये थे। हाथी के दाँत तथा गैंडे और बैलों के सींगों के बने हुए पात्रों में भी पृथक-पृथक जल रखा गया था। उन पात्रों में मणि और मोती भी थे। अन्यान्य पवित्र गन्धशाली पदार्थ और औषध भी डाले गये थे। कर्ण गूलर काठ की बनी हुई चैकी पर, जिसके ऊपर रेशमी कपड़ा बिछा हुआ था, सुख पूर्वक बैठा था। उस अवस्था में शास्त्रीय विधि के अनुसार पूर्वोक्त सुसज्जित सामग्रियों द्वारा ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा सम्मानित शूद्रों ने उसका अभिषेक किया और अभिषेक हो जाने पर श्रेष्ठ आसन पर बैठे हुए महामना कर्ण की उन सब लोगों ने स्तुति की। राजेन्द्र! इस प्रकार अभिषेक कार्य सम्पनन हो जाने पर शत्रु वीरों का संहार करने वाले राधा पुत्र कर्ण ने स्वर्ण मुद्राएँ गौएँ तथा धन देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों से स्वस्ति वाचन कराया।
उस समय सूत, मागध और वन्दीजनों द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनता हुआ राधा पुत्र कर्ण वेद वादी ब्राह्मणों द्वारा अभिमन्त्रित उदय कालीन सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था। तत्पश्चात पुण्याह वाचन के शब्द से, वाद्यों की गंभीर ध्वनि से तथा शूरवीरों के जय-जयकार से मिली जुली हुई भयंकर आवाज वहाँ सब ओर गूँज उठी। उस स्थान पर एकत्र हुए सभी राजाओं ने ‘राधा पुत्र कर्ण की जय’ के नारे लगाये। वन्दीजनों तथा ब्राह्मणों ने उस समय पुरुष शिरोमणि कर्ण को आशीर्वाद देते हुए कहा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘राणा पुत्र! तुम कुन्ती के पुत्रों को, उनके सेवकों तथा श्रीकृष्ण के साथ महासमर में जीत लो और हमारी विजय के लिये कुन्ती कुमारों को पांचालों सहित मार डालो। ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अपनी उग्र किरणों द्वारा सदा उदय होते ही अन्धकार का विनाश कर देता है। ‘जैसे उल्लू सूर्य की प्रज्वलित किरणों की ओर देखने में असमर्थ होते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे छोड़े हुए बाणों की ओर श्रीकृष्ण सहित समस्त पाण्डव नहीं देख सकते। ‘जैसे हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र के सामने दानव नहीं खड़े हो सकते, उसी प्रकार समरांगण में तुम्हारे सामने पांचाल और पाण्डव नहीं ठहर सकते हैं।
राजन! इस प्रकार अभिषेक सम्पन्न हो जाने पर अमित तेजस्वी राधा पुत्र कर्ण अपनी प्रभा तथा रूप से दूसरे सूर्य के समान अधिक प्रकाशित होने लगा। काल से प्रेरित हुआ आपका पुत्र दुर्योधन राधा कुमार कर्ण को सेनापति के पद पर अभिषिक्त करके अपने आपको कृतार्थ मानने लगा। राजन! शत्रुदमन कर्ण ने भी सेनापति का पद प्राप्त करके सूर्योदय के समान सेना को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा दे दी। भारत! वहाँ आपके पुत्रों से घिरा हुआ कर्ण तारकामय संग्राम में देवताओं से घिरे हुए स्कन्द के समान सुशोभित हो रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण का अभिषेक विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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