सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 11th chapter to the 15th chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण के सेनापतित्व में कौरव-सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान और मकर व्यूह का निर्माण तथा पाण्डव सेना के अर्धचन्द्राकार व्यूह की रचना और युद्ध का आरम्भ”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! सेनापति का पद पाकर जब परम बुद्धिमान वैकर्तन कर्ण युद्ध के लिये तैयार हुआ और जब स्वयं राजा दुर्योधन ने उससे भाई के समान स्नेह पूर्ण वचन कहा, उस समय सूर्योदय काल में सेना को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा देकर उसने क्या किया? यह मुझे बताओ। 

      संजय ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! कर्ण का मत जानकर आपके पुत्रों ने आनन्दमय वाद्यों के साथ सेना को तैयार होने का आदेश दिया। माननीय नरेश! अत्यन्त प्रातःकाल से ही आपकी सेना में सहसा ‘तैयार हो जाओ, तैयार हो जाओ’ का शब्द गूँज उठा। प्रजानाथ! सजाये हुए बड़े-बड़े गजराजों, आवरण युक्त रथों, कवच धारण करते हुए मनुष्यों, कसे जाते हुए घोड़ों तथा उतावली पूर्वक एक दूसरे को पुकारते हुए योद्धाओं का महान तुमुलनाद आकाश में बहुत ऊँचे तक गूँज रहा था।

     तदनन्तर सूत पुत्र कर्ण निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी और सब ओर से पताकाओं द्वारा सुशोभित रथ के द्वारा रणयात्रा के लिये उद्यत दिखायी दिया। उस रथ में श्वेत पताका फहरा रही थी। बगुलों के समान सफेद रंग के घोड़े जुते हुए थे। उस पर एक ऐसा धनुष रखा हुआ था, जिसके पृष्ठ भाग पर सोना मढ़ा गया था। उस रथ की पताका पर हाथी के रस्से का चिह्न बना हुआ था। उसमें गदा के साथ ही सैंकड़ों तरकस रखे गये थे। रथ की रक्षा के लिये ऊपर से आवरण लगाया गया था। उसमें शतघ्नी, किंकणी, शक्ति, शूल और तोमर संचित करके रखे गये थे तथा वह रथ अनेक धनुषों से सम्पन्न था। राजन! कर्ण सोने की जालियों से विभूषित शंख को बजाता हुआ अपने सुवर्ण सज्जित विशाल धनुष की टंकार कर रहा था। पुरुषसिंह! माननीय नरेश! रथियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर दुर्जय वीर कर्ण रथ पर बैठकर उदय कालीन सूर्य के समान तम ( दुःख या अन्धकार ) का निवारण कर रहा था।

      उसे देखकर कोई भी कौरव भीष्म, द्रोण तथा दूसरे महारथियों के मारे जाने के दुःख को कुछ नहीं समझते थे। मान्यवर! तदनन्तर शंख ध्वनि के द्वारा योद्धाओं को जल्दी करने का आदेश देते हुए कर्ण ने कौरवों की विशाल वाहिनी को शिविरों से बाहर निकाला। तत्पश्चात शत्रुओं को संताप देने वाला महाधनुर्धर कर्ण पाण्डवों को जीत लेने की इच्छा से अपनी सेना का मकर-व्यूह बनाकर आगे बढ़ा। राजन! उस मकर व्यूह के मुख भाग में स्वयं कर्ण खड़ा हुआ, नेत्रों के स्थान में शूरवीर शकुनि तथा महारथी उलूक खड़े किये गये। शीर्ष स्थान में द्रोण कुमार अश्वत्थामा और ग्रीवा भाग में दुर्योधन के समस्त भाई स्थित हुए। मध्य स्थान (कटि प्रदेश) में विशाल सेना से घिरा हुआ राजा दुर्योधन खड़ा हुआ। राजेन्द्र! उस मकर व्यूह के बायें पैर की जगह नारायणी सेना के रणदुर्मद गोपालों के साथ कृतवर्मा खड़ा किया गया था। राजन! व्यूह के दाहिने पैर के स्थान में महाधनुर्धर त्रिगर्तों और दक्षिणात्यों से घिरे हुए सत्य पराक्रमी कृपाचार्य खड़े थे। बायें पैर के पिछले भाग में मद्र नरेश की विशाल सेना के साथ स्वयं राजा शल्य उपस्थित थे। महाराज! दाहिने पैर के पिछले भाग में एक सहस्र रथियों और तीन सौ हाथियों से घिरे हुए सत्यप्रतिज्ञ सुषेण खड़े किये गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

      व्यूह के पुच्छ भाग में महा पराक्रमी दोनों भाई राजा चित्र और चित्रसेन अपनी विशाल सेना के साथ उपस्थित हुए। राजेन्द्र! मनुष्यों में श्रेष्ठ कर्ण के इस प्रकार यात्रा करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखकर इस प्रकार कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘वीर पार्थ! देखो, इस समय युद्धस्थल में धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना कैसी स्थिति में है? कर्ण ने वीर महारथियों द्वारा इसे किस प्रकार सुरक्षित कर दिया है? ‘महाबाहो! कौरवों की इस विशाल सेना के प्रमुख वीर तो मारे जा चुके हैं। अब इसके तुच्छ सैनिक ही शेष रह गये हैं। इस समय तो यह मुझे तिनकों के समान जान पड़ती है। ‘इस सेना में एकमात्र महाधनुर्धर सूत पुत्र कर्ण विराजमान हैं, जो रथियों में श्रेष्ठ है तथा जिसे देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर, बड़े-बड़े नाग एवं चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों के उसी कर्ण को मारकर तुम्हारी विजय होगी और मेरे हृदय में बारह वर्षों से जो सेल कसक रहा है, वह निकल जायेगा। महाबाहो! ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसे व्यूह की रचना करो’।

      भाई की यह बात सुनकर श्वेत वाहन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने इस कौरव सेना के मुकाबले में अपनी सेना के अर्द्ध चन्द्राकार व्यूह की रचना की। उस व्यूह के वाम पार्श्व में भीमसेन और दाहिने पार्श्व में महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न खड़े हुए। उसके मध्य भाग में राजा युधिष्ठिर और पाण्डु पुत्र धनंजय खड़े थे। धर्मराज के पृष्ठ भाग में नकुल और सहदेव थे। पाञ्चाल महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुन के चक्र रक्षक थे। किरीटधारी अर्जुन से सुरक्षित होकर उन दोनों ने युद्ध में कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। भारत! शेष वीर नरेश कवच धारण करके व्यूह के विभिन्न भागों में अपने उत्साह और प्रयत्न के अनुसार खड़े हुए थे।

      भरतनन्दन! इस प्रकार इस महाव्यूह की रचना करके पाण्डवों तथा आपके महाधनुर्धरों ने युद्ध में ही मन लगाया। युद्ध स्थल में सूत पुत्र कर्ण के द्वारा व्यूह रचना पूर्वक खड़ी की गयी आपकी सेना को देखकर भाइयों सहित दुर्योधन ने यह मान लिया कि ‘अब तो पाण्डव मारे गये’। उसी प्रकार पाण्डव सेना का व्यूह देखकर राजा युधिष्ठिर ने भी कर्ण सहित आपके सभी पुत्रों को मारा गया ही समझ लिया। राजन! तदनन्तर दोनों सेनाओं में चारों ओर महान शब्द करने वाले शंख, भेरी, पणव, आनक, दुन्दुभि और झाँझ आदि बाजे बज उठे। नगाड़े पीटे जाने लगे। साथ ही विजय की अभिलाषा रखने वाले शूरवीरों का सिंहनाद भी होने लगा। जनेश्वर! घोड़ों के हींसने, हाथियों के चिग्घाड़ने तथा रथ के पहियों के घरघराने के भयंकर शब्द प्रकट होने लगे। भारत! व्यूह के मुख्य द्वार पर कवच धारण किये महाधनुर्धर कर्ण को खड़ा देख कोई भी सैनिक द्रोणाचार्य के मारे जाने के दुःख का अनुभव न कर सका। महाराज! वे दोनों सेनाएँ हर्षोत्फुल्ल मनुष्यों से भरी थीं। राजन्! वे बलपूर्वक परस्पर चोट करने और जूझने की इच्छा से मैदान में आकर खड़ी हो गयीं। राजेन्द्र! वहाँ रोष में भरकर सावधानी के साथ खड़े हुए कर्ण और पाण्डव अपनी-अपनी सेना में विचरने लगे। वे दोनों सेनाएँ परस्पर नृत्य करती हुई सी भिड़ गयीं। युद्ध की अभिलाषा रखने वाले वीर उन दोनों व्यूहों के पक्ष और प्रपक्ष से निकलने लगे। महाराज! तदनन्तर एक दूसरे पर आघात करने वाले मनुष्य, हाथी, घोडों और रथों का वह महान युद्ध आरम्भ हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में व्यूह निर्माण विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का घोर युद्ध और भीमसेन के द्वारा क्षेमधूर्ति का वध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! उन दोनों सेनाओं के हाथी, घोड़े और मनुष्य बहुत प्रसन्न थे। देवताओं तथा असुरों के समान प्रकाशित होने वाली वे दोनों विशाल सेनाएँ परस्पर भिड़कर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगीं। तत्पश्चात भयंकर पराक्रमी रथी, हाथी सवार, घुड़सवार और पैदल सैनिक शरीर, प्राण और पापों का विनाश करने वाले घोर प्रहार बड़े जोर-जोर से करने लगे। मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी वीरों ने विपक्षी पुरुष सिंहों के मस्तकों को काट-काटकर उनके द्वारा धरती को पाटने लगे। उनके वे मस्तक पूर्ण चन्द्रमा और सूर्य के समान कान्तिमान तथा कमलों के समान सुगंधित थे। अर्द्धचन्द्र, भल्ल, क्षुरप्र, खड्ग, पट्टिश और फरसों द्वारा वे योद्धाओं के मस्तक काटने लगे। हृष्ट-पुष्ट और लंबी भुजाओं वाले वीरों ने हृष्ट-पुष्ट और लंबी भुजाओं वाले योद्धाओं की बाँहें पृथ्वी पर काट गिरायीं। जिनके तलवे और अंगुलियाँ लाल रंग की थीं, उन तड़पती हुई भुजाओं से रणभूमि की वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो वहाँ गरुड़ के गिराये हुए भयंकर पन्चमुख सर्प छटपटा रहे हों।

      शत्रुओं द्वारा मारे गये वीर हाथी, रथ और घोड़ों से उसी प्रकार गिर रहे थे, जैसे स्वर्गवासी जीव पुण्य क्षीण होने पर वहाँ के वमानों से नीचे गिर पड़ते हैं। अन्य सैंकड़ों वीर बड़े-बड़े वीरों द्वारा भारी गदाओं, परिघों और मूसलों से कुचले जाकर रणभूमि में गिर रहे थे। उस भारी घमासान युद्ध में रथों ने रथों को मथ डाला, मतवाले हाथियों ने मदमत्त गजराजों को धराशायी कर दिया और घुड़सवारों ने घुड़सवारों को कुचल डाला। रथियों द्वारा मारे गये पैदल मनुष्य, हाथियों द्वारा कुचले गये रथ और रथी, पैदलों द्वारा मारे गये घुड़सवार और घुड़सवारों द्वारा काल के गाल में भेजे गये पैदल सिपाही उस युद्ध भूमि में सो रहे थे। गजों और गजारोहियों ने रथियों, घुड़सवारों और पैदलों को मार गिराया, पैदलों ने रथियों, घुड़सवारों और हाथी सवारों को धराशायी कर दिया, घुड़सवारों ने रथियों, पैदलों और गजारोहियों को मार डाला तथा रथियों ने भी पैदल मनुष्यों और गजारोहियों को मार गिराया। पैदल, घुड़सवार, हाथी सवार तथा रथियों ने रथियों, घुड़सवारों, हाथी सवारों और पैदलों का हाथों, पैरों, अस्त्र-शस्त्रों एवं रथों द्वारा महान संहार कर डाला।

      इस प्रकार जब शूरवीरों द्वारा वह सेना मारी जाने लगी और मारी गयी, तब कुन्ती के पुत्रों ने भीमसेन को आगे रखकर हम लोगों पर आक्रमण किया। धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रक, सात्यकि, चेकितान, द्राविड़ से सैनिकों सहित महान व्यूह से घिरे हुए पाण्ड्य, चोल तथा केरल योद्धाओं ने धावा किया। इन सबकी छाती चौड़ी और भुजाएँ तथा आँखें बड़ी थीं। वे सब के सब ऊँचे कद के थे। उन्होंने भाँति-भाँति के शिरोभूषण एवं हार धारण किये थे। उनके दाँत लाल थे और वे मतवाले हाथी के समान पराक्रमी थे। उन्होंने अनेक प्रकार के रंगीन वस्त्र पहन रखे थे और अपने अंगों में सुगंधित चूर्ण लगा रखा था। उनकी कमर में तलवार बँधी थी, वे हाथ में पाश लिये हुए थे और हाथियों को भी रोक देने की शक्ति रखते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! वे सभी सैनिक समान रूप से मृत्यु को वरण करने की प्रतिज्ञा करके एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते थे। वे मस्तक पर मोर पंख धारण किये हुए थे। उनके हाथों में धनुष शोभा पाता था। उनके केश बहुत बड़े थे और वे प्रिय वचन बोलते थे। अन्यान्य पैदल और घुड़सवार भी बड़े भयंकर पराक्रमी थे। तदनन्तर पुनः दूसरे शूरवीर चेदि, पांचाल, केकय, कारूप, कोसल, कान्ची निवासी और मागध सैनिक भी हमी लोगों पर चढ़ आये। उनके रथ, घोड़े और हाथी उत्तम काटि के थे। पैदल सैनिक भी बड़े भयंकर थे। वे नाना प्रकार के बाजे-बजाने वालों के साथ हर्ष में भरकर नाचते कूदते और हँसते थे।

      उस विशाल सेना के मध्य भाग में हाथी की पीठ पर बड़े-बड़े महावतों से घिरकर बैठे हुए भीमसेन आपके सैनिकों की ओर बढ़ रहे थे। उसका लोहे का बना हुआ उत्तम कवच श्रेष्ठ रत्नों से विभूषित होकर ताराओं से भरे हुए शरत्कालीन आकाश के समान प्रकाशित हो रहा था। उस समय सुन्दर मुकुट और आभूषणों से विभूषित हो हाथ में तोमर लेकर शरत्काल के मध्यान्ह सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले भीमसेन अपने तेज से शत्रुओं को दग्ध करने लगे। उनके उस हाथी को दूर से ही देखकर हाथी पर बैठे हुए महामना क्षेमधूर्ति ने महामनस्वी भीमसेन को ललकारते हुए उन पर धावा किया। जैसे वृक्षों से भरे हुए दो महान पर्वत दैवेच्छा से परस्पर टकरा रहे हों, उसी प्रकार उन भयानक रूपधारी दोनों गजराजों में भारी युद्ध छिड़ गया। जिनके हाथी एक दूसरे से उलझे हुए थे, वे दोनों वीर क्षेमधूर्ति और भीमसेन सूर्य की किरणों के समान चमकीले तोमरों द्वारा एक दूसरे को बलपूर्वक विदीर्ण करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। फिर हाथियों द्वारा ही पीछे हटकर वे दोनों मण्डलाकार विचरने लगे और धनुष लेकर एक दूसरे पर बाणों का प्रहार करने लगे। वे गर्जने, ताल ठोंकने और बाणों के शब्द से चारों ओर के योद्धाओं को हर्ष प्रदान करते हुए सिंहनाद कर रहे थे। वे दोनों महाबली और विद्या योद्धा उन सूँड़ उठाये हुए दोनों हाथियों द्वारा युद्ध कर रहे थे। उस समय उन हाथियों के ऊपर लगी हुई पताकाएँ हवा के वेग से फहरा रही थीं।

      जैसे वर्षाकाल के दो मेघ पानी बरसा रहे हों, उसी प्रकार शक्ति और तोमरों की वर्षा से एक दूसरे के धनुष को काटकर वे दोनों ही परस्पर गर्जन-तर्जन करने लगे। उस समय क्षेमधूर्ति ने भीमसेन की छाती में बड़े वेग से एक तोमर धँसा दिया। फिर गर्जना करते हुए उसने छः तोमर और मारे। अपने शरीर में धँसे हुए उन तोमरों द्वारा क्रोध से उद्दीप्त शरीर वाले भीमसेन मेघों द्वारा सात घोड़ों वाले सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। तब भीमसेन ने सूर्य के समान प्रकाशमान तथा सीधी गति से जाने वाले एक लोहमय तोमर को अपने शत्रु पर प्रयत्न पूर्वक छोड़ा। यह देख कुलूत देश के राजा क्षेमधूर्ति ने अपने धनुष को नवाकर दस सायकों से उस तोमर को काट डाला और साठ बाण मारकर भीमसेन को भी घायल कर दिया। तत्पश्चात गर्जते हुए पाण्डु पुत्र भीमसेन ने मेघ गर्जना के समान गम्भीर घोष करने वाले धनुष को लेकर अपने बाणों द्वारा शत्रु के हाथी को पीड़ित कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)

      युद्धस्थल में भीमसेन के बाण समूहों से पीड़ित हुआ वह गजराज हवा के उड़ाये हुए बादलों के समान रोकने पर भी वहाँ रुक न सका। जैसे आँधी के उड़ाये हुए मेघ के पीछे वायु प्रेरित दूसरा मेघ जा रहा हो, उसी प्रकार भीमसेन का भयंकर गजराज क्षेमधूर्ति के उस हाथी का पीछा करने लगा। उस समय प्रतापी क्षेमधूर्ति ने अपने हाथी को किसी प्रकार रोककर सामने आते हुए भीमसेन के हाथी को बाणों से बींध डाला। इसके बाद अच्छी तरह छोड़े हुए झुकी हुई गाँठ वाले क्षुर नामक बाण से भीमसेन ने शत्रु के धनुष को काटकर उसके हाथी को पुनः अच्छी तरह पीड़ित किया। तब क्षेमधूर्ति ने कुपित होकर रणभूमि में भीमसेन को गहरी चोट पहुँचायी और अनेक नाराचों द्वारा उनके हाथी के सम्पूर्ण मर्मस्थानों में आघात किया।

      भारत! इससे भीमसेन का महान गजराज पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके गिरने से पहले ही भीमसेन कूदकर भूमि पर खड़े हो गये। तदनन्तर भीम ने भी अपने गदा से क्षेमधूर्ति के हाथी को मार डाला। फिर जब उस मरे हुए हाथी से कूदकर क्षेमधूर्ति तलवार उठाये हुए सामने आने लगा, उस समय भीमसेन ने उस पर भी गदा से प्रहार किया। गदा की चोट खाकर उसके प्राध पखेरू उड़ गये और वह तलवार लिये हुए अपने हाथी के पास गिर पड़ा। भरतश्रेष्ठ! जैसे वजग के आघात से टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वत के समीप वज्र का मारा हुआ सिंह गिरा हो, उसी प्रकार उस हाथी के समीप क्षेमधूर्ति धराशायी हो रहे थे। कूलूतों का यश बढ़ाने वाले राजा क्षेमधूर्ति को मारा गया देख आपकी सेना व्यथित होकर भागने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में क्षेमधर्ति का वध विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध तथा सात्यकि के द्वारा विन्द और अनुविन्द का वध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! भीमसेन द्वारा क्षेमधूर्ति का वध करने के बाद महाधनुर्धर शूरवीर कर्ण ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा समरांगण में पांडव सेना का संहार आरम्भ किया। राजन! इसी प्रकार क्रोध में भरे हुए महारथी पांडव भी कर्ण के सामने ही आपके बेटे की सेना का विनाश करने लगे। महाराज! कर्ण के नाराच कारीगरों द्वारा धोकर साफ किये गये थे, इसलिए सूर्य की किरणों के समान चमक रहे थे। उनके द्वारा वह भी रणभूमि में पांडव सेना का वध करने लगा। भरतनन्दन! वहाँ कर्ण के चलाये हुए नाराचों की मार खाकर झुंड के झुंड हाथी चिंघाड़ने, पीड़ा से कराहने, मलिन होने और दसों दिशाओं में चक्कर काटने लगे। माननीय! नरेश सूतपुत्र के द्वारा उस महासमर में जब अपनी सेना मारी जाने लगी, तब नकुल ने तुरंत ही कर्ण पर धावा किया। भीमसेन ने दुष्कर कर्म करते हुए अश्वत्थामा को तथा सात्यकि ने केकक देशीय विन्द और अनुविन्द को रोका। सामने आते हुए श्रुतकर्मा को राजा चित्रसेन ने रोका तथा प्रतिविंध्य विचित्र ध्वज और धनुषवाले चित्र का सामना किया। दुर्योधन ने धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर और क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने संशप्तकगणों पर धावा किया। बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाले उक्त संग्राम में धृष्टद्युम्न, कृपाचार्य के साथ युद्ध करने लगे और शिखण्डी कभी पीछे न हटने वाले कृतवर्मा से भिड़ गया। महाराज! श्रुतकीर्ति ने शल्य पर और प्रतापी माद्रीकुमार सहदेव ने आपके पुत्र दुःशासन पर आक्रमण किया।

     भरतनन्दन! केकय राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने युद्ध में चमकीले बाणों की वर्षा करके सात्यकि को और सात्यकि ने दोनों केकय राजकुमारों को आच्छादित कर दिया। जैसे विशाल वन में दो हाथी अपने विरोधी हाथी पर दोनों दाँतों से प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर भ्राता विन्द और अनुविन्द सात्यकि की छाती में गहरी चोट पहुँचाने लगे। राजन! उन दोनों के कवच बाणों से छिन्न-भिन्न हो गये थे, तो भी उन दोनों भाइयों ने रणभूमि में सत्यकर्मा सात्यकि को बाणों से घायल कर दिया। महाराज! भरतनन्दन! सात्यकि ने हँसते-हँसते सम्पूर्ण दिशाओं को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करके उन दोनों भाइयों को रोक दिया। सात्यकि की बाण वर्षा से रोके जाते हुए उन दोनों राजकुमारों ने तुरंत ही उनके रथ को बाणों से आच्छादित कर दिया। तब महायशस्वी सात्यकि अपने तीखे बाणों से उन दोनों के विचित्र धनुषों को काटकर उन्हें युद्धस्थल में आगे बढ़ने से रोक दिया। फिर वे दोनों भाई दूसरे विचित्र धनुष और उत्तम बाण लेकर सात्यकि को आच्छादित करते हुए सुन्दर एवं शीघ्र गति से सब ओर विचरने लगे। उन दोनों के छोड़े हुए स्वर्णभूषित महान बाण, जो कंक और मोर के पंखों से सुशोभित थे, सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए गिरने लगे। राजन! उस महासमर में उन दोनों के बाणों से अन्धकार छा गया। फिर उन तीनों महारथियों ने एक दूसरे के धनुष काट डाले।

    महाराज! फिर तो रणदुर्मद सात्यकि कुपित हो उठे। उन्होंने युद्ध स्थल में दूसरा धनुष लेकर उसकी प्रत्युचा चढ़ायी और एक अत्युत तीखे क्षुरप्र के द्वारा अनुविन्द का सिर काट लिया। राजन! उस महासागर में मारे गये अनुविन्द का कुण्डलमण्डित महान मस्तक शम्बरासुर के सिर के समान कट कर गिरा और समसत केकयों को शोक में डालता हुआ शीघ्र पृथ्वी पर जा पड़ा।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 23-37 का हिन्दी अनुवाद)

      शूरवीर अनुविन्द को मारा गया देख उसके महारथी भाई विन्द ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर सात्यकि को चारों ओर से रोका। उसने शिला पर तेज किये गये सुवर्ण पंख युक्त साठ बाणों द्वारा सात्यकि को घायल करके बड़े जोर की गर्जना की और कहा,

    विन्द ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह ‘। तदनन्तर केकय महारथी विन्द ने तुरन्त ही सात्यकि की दोनों भुजाओं और छाती में कई हजार बाण मारे। राजन! उन बाणें से समरांगण में सत्यपराक्रमी सात्यकि के सारे अंग क्षत-विक्षत हो लहुलुहान हो गये और वे खिले हुए पलाश के समान सुशोभित होने लगे। महामना कैकय (विन्द) के द्वारा समरांगण में घायल हुए सात्यकि ने हँसते हुए ने पच्चीस बाण मारकर कैकय को भी घायल कर दिया। उन दोनों महारथियों ने युद्धस्थल में एक दूसरे के सुन्दर धनुष काटकर तुरंत ही सारथि और घोड़े भी मार डाले। फिर वे सुन्दर भुजाओं वाले दोनों वीर रथहीन होकर सौ चन्द्राकार चिह्नों से युक्त ढाल और तलवार लिये खड्ग युद्ध के लिये उद्यत हो युद्धस्थल में एक दूसरे के सामने आये। जैसे देवासुर-संग्राम महाबली इन्द्र और जम्भासुर शोभा पाते थे, उसी प्रकार युद्ध के उस महान रंगस्थल में उत्तम खड्ग धारण किये हुए वे दोनों योद्धा सुशोभित हो रहे थे। उस महासागर में मण्डलाकार विचरते और पैंतरे दिखाते हुए वे दोनों वीर तुरंत ही एक दूसरे के समीप आ गये। फिर वे एक दूसरे के वध के लिए भारी यत्न करने लगे। तदनन्तर सात्यकि ने विन्द की ढाल के दो टुकड़े कर दिये। इसी प्रकार राजकुमार विन्द ने भी सत्यकि की ढाल टूक-टूक कर दी। सैंकड़ों तारक-चिन्‍होंसे भरी हुई सात्यकि की ढाल काटकर विन्द गत और प्रत्यागत आदि पैंतरे बदलने लगा।

     युद्ध में उस महान रंगस्थल में श्रेष्ठ-खड्ग धारण करके विचरते हुए विन्द को सात्यकि ने तिरछे हाथ से शीघ्रतापूर्वक काट डाला। राजन! इस प्रकार महायुद्ध में दो टुकड़ों में कटा हुआ कवचसहित महाधनुर्धर केकयराज वज्र के मारे हुए पर्वत के समान गिर पड़ा। रथियों में श्रेष्ठ शत्रुदमन रणशूर सात्यकि विन्नद का वध करके तुरंत ही युधामन्यु के रथ पर चढ़ गये। तत्पश्चात विधिपूर्वक सजाकर लाये हुए दूसरे रथ पर आरूढ़ हो सात्यकि अपने बाणों द्वारा केकयों की विशाल सेना का संहार करने लगे। समरभूमि में मारी जाती हुई केकयों की वह विशाल सेना रण में शत्रु को त्यागकर दसों दिशाओं में भाग गई।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में विन्द और अनुविन्द का वधविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

चौदहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदीपुत्र श्रुतकर्मा और प्रतिविन्ध्य द्वारा क्रमशः चित्रसेन एवं चित्र का वध,कौरव सेना का पलायन तथा अश्वत्थामा का भीमसेन पर आक्रमण”


     संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर श्रुतकर्मा ने समरांगण में कुपित हो राजा चित्रसेन को पचास बाण मारे। नरेश्वर! अभिसार के राजा चित्रसेन ने झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणों से श्रुतकर्मा को घायल करके पाँच से उसके सारथि को भी बींध डाला। तब क्रोध में भरे हुए श्रुतकर्मा ने सेना के मुहाने पर तीखे नाराच से चित्रसेन के मर्मस्थल पर आघात किया। महामना श्रुतकर्मा के नाराच से अत्यन्त घायल होने पर वीर चित्रसेन को मूर्छा आ गयी। वे अचेत हो गये। इसी बीच में महायशस्वी श्रुतकीर्ति ने नब्बे बाणों से भूपाल चित्रसेन को आच्छादित कर दिया। तदनन्तर होश में आकर महारथी चित्रसेन ने एक भल्ल से श्रुतकर्मा का धनुष काट डाला और उसे भी सात बाणों से घायल कर दिया।
      तब श्रुतकर्मा ने शत्रुओं के वेग को नष्ट करने वाला दूसरा सुवर्णभूषित धनुष लेकर चित्रसेन को अपने बाणों की लहरों से विचित्र रूपधारी बना दिया। विचित्र माला धारण करने वाले नवयुवक राजा चित्रसेन उन बाणों से चित्रित हो युद्ध के महान रंगस्थल में काँटों से भरे हुए साही के समान सुशोभित होने लगे। तब शूरवीर नरेश ने श्रुतकर्मा की छाती में बड़े वेग से नाराच का प्रहार किया और कहा- ‘खड़ा रह, खड़ा रह ‘। उस समय नाराच से घायल हुआ श्रुतकर्मा समरांगण में उसी प्रकार रक्त बहाने लगा, जैसे गेरू से भीगा हुआ पर्वत लाल रंग की जलधारा बहाता। तत्पश्चात खून से लथपथ अंगों वाला वीर श्रुतकर्मा समरांगण में उस रुधिर से अभिनव शोभा धारण करके खिले हुए पलाश वृक्ष के समान सुशोभित हुआ।
      राजन! शत्रु के द्वारा इस प्रकार आक्रान्त होने पर श्रुतकर्मा कुपित हो उठा और उसने राजा चित्रसेन के शत्रु-निवारक धनुष के दो टुकड़े कर डाले। महाराज! धनुष कट जाने पर चित्रसेन को आच्छादित करते हुए श्रुतकर्मा ने सुन्दर पंख वाले तीन सौ नाराचों द्वारा उसे घायल कर दिया। तदनन्तर एक पैनी धार वाले तीखे भल्ल से उसने महामना चित्रसेन के शिरस्त्राण सहित मस्तक को काट लिया। चित्रसेन का वह दीप्तिशाली मस्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो चन्द्रमा दैवेच्छावश स्वर्ग से भूतल पर आ गिरा हो।

       माननीय नरेश! अभिसार देश के अधिपति राजा चित्रसेन को मारा गया देख उनके सैनिक बड़े वेग से भाग चले। तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए महाधनुर्धर श्रुतकर्मा ने अपने बाणों द्वारा उस सेना पर आक्रमण किया, मानो प्रलयकाल में कुपित हुए यमराज समस्त प्राणियों पर धावा बोल रहे हों। युद्ध में आपके धनुर्धर पौत्र श्रुतकर्मा द्वारा मारे जाते हुए वे सैनिक दावानल से झुलसे हुए हाथियों के समान तुरंत ही सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। शत्रुओं पर विजय पाने का उत्साह छोड़कर भागते हुए उन सैनिकों को देखकर अपने तीखे बाणों से उन्हें खदेड़ते हुए श्रुतकर्मा की अपूर्व शोभा हो रही थी। दूसरी ओर प्रतिविन्ध्य ने पाँच बाणों द्वारा चित्र को क्षत-विक्षत करके तीन बाणों से सारथि को घायल कर दिया और एक बाण से उसके ध्वज को भी बींध डाला। तब चित्र ने कंक और मयूर की पंखों से युक्त स्वच्छ धार और सुनहरे पंखवाले नौ भल्लों से प्रतिविन्ध्य की दोनों भुजाओं और छाती में गहरी चोट पहुँचायी।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद)

     भारत! प्रतिविन्ध्य ने अपने बाणों द्वारा उसके धनुष को काटकर पाँच तीखे बाणों से चित्र को भी घायल कर दिया। महाराज! तदनन्तर चित्र ने आपके पौत्र पर घोर अग्निशिखा के समान सुवर्णमय घंटों से सुशोभित एक दुर्धर्ष शक्ति चलाई। समरांगण में बड़ी भारी उल्का के समान सहसा आती हुई उस शक्ति को प्रतिविन्ध्य ने हँसते हुए से दो टुकड़ों में काट डाला। प्रतिविन्ध्य के तीखे बाणों से दो टूक होकर वह शक्ति प्रलयकाल में सम्पूर्ण प्राणियों को भयभीत करने वाली अशनि के समान गिर पड़ी। उस शक्ति को नष्ट हुई देख चित्र ने सेना की जालियों से विभूषित एक विशाल गदा हाथ में ली और उसे प्रतिविन्ध्य पर छोड़ दिया। उस गदा ने महासमर में प्रतिविन्ध्य के घोड़ों और सारथि को मार डाला और रथ भी चूर-चूर करती हुई वह बड़े वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ी।
        भारत! इसी बीच में रथ से कूदकर प्रतिविन्ध्य ने चित्र पर एक सुवर्णमयदण्ड वाली सुसज्जित शक्ति चलायी। राजन! महामना राजा चित्र ने अपनी ओर आती हुई उस शक्ति को हाथ से पकड़ लिया और फिर उसी को प्रतिविन्ध्य पर दे मारा। वह अत्यन्त कान्तिमती शक्ति रणभूमि में शूरवीर प्रतिविन्ध्य को जा लगी और उसकी दाहिनी भुजा को विदीर्ण करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। वह जहाँ गिरी, उस स्थान को बिजली के समान प्रकाशित करने लगी। राजन! तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए प्रतिविन्ध्य ने चित्र के वध की इच्छा से उसके ऊपर एक तोमर का प्रहार किया। वह तोमर उसके कवच और वक्षस्थल को विदीर्ण करता हुआ तुरंत धरती में समा गया, जैसे कोई बड़ा सर्प बिल में घुस गया हो। तोमर से अत्यन्त आहत हो राजा चित्र अपनी परिघ के समान मोटी और विशाल भुजाओं को फैलाकर तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा।
       चित्र को मारा गया देख संग्राम में शोभा पाने वाले आपके योद्धा प्रतिविन्ध्य पर चारों ओर से वेगपूर्वक टूट पड़े। जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओं ने नाना प्रकार के बाणों और छोटी-छोटी घंटियों सहित शतघ्नियों का प्रकार करके उसे आच्छादित कर दिया। जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों की सेना को खदेड़ते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थल में महाबाहु प्रतिविन्ध्य ने अपने बाणसमूहों से उन अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट करके आपकी सेना को मार भगाया। नरेश्वर! समरभूमि में पाण्डवों की मार खाकर आपके सैनिक हवा के उड़ाये हुए बादलों के समान सहसा छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये। उनके द्वारा मारी जाती हुई आपकी वह सेना जब चारों ओर भागने लगी, तब अकेले अश्वत्थामा ने तुरंत ही महाबली भीमसेन पर आक्रमण कर दिया। फिर तो देवासुर-संग्राम में वृत्रासुर और इन्द्र के समान उन दोनों वीरों में सहसा घोर युद्ध छिड़ गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में चित्रसेन और चित्र का वध विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

पन्द्रहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्थामा और भीमसेन का अद्भुत युद्ध तथा दोनों का मूर्च्छित हो जाना”


    संजय कहते हैं ;- राजन! प्रतिविन्ध्य द्वारा मारी जाती हुई आपकी वह सेना जब चारों ओर भागने लगी, तब अकेले अश्वत्थामा ने तुरंत ही महाबली भीमसेन पर आक्रमण कर दिया। फिर तो देवासुर-संग्राम में वृत्रासुर और इन्द्र के समान उन दोनों वीरों में सहसा घोर युद्ध छिड़ गया। तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने बड़ी उतावली के साथ अस्त्र चलाने में अपनी फुर्ती दिखाते हुए एक बाण से भीमसेन को बींध डाला। फिर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले कुशल योद्धा के समान मर्मज्ञ अश्वत्थामा ने भीमसेन के सारे मर्मस्थलों को लक्ष्य करके पुनः उन पर नब्बे तीखे बाणों का प्रहार किया। राजन! अश्वत्थामा के तीखे बाणों से समरांगण में आच्छादित हुए भीमसेन किरणों वाले सूर्य के समान सुशोभित होने लगे। तदनन्तर पाण्डुपुत्र भीम ने अच्छी तरह चलाये हुए एक हजार बाणों से द्रोणपुत्र को आच्छादित करके घोर सिंहनाद किया। राजन! अश्वत्थामा ने अपने बाणों से भीमसेन के बाणों का निवारण करके युद्धस्थल में उन पाण्डुपुत्र के ललाट में मुस्कराते हुए से एक नाराच का प्रहार किया।
        नरेश्वर! जैसे वन में बलोन्मत्त गेंडा सींग धारण करता है, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र भीम ने अपने ललाट में धंसे हुए उस बाण को धारण कर रखा था। तत्पश्चात पराक्रमी भीमसेन ने रणभूमि में विजय के लिए प्रयत्नशील अश्वत्थामा के ललाट में भी मुस्कराते हुए तीन नाराचों का प्रहार किया। ललाट में धंसे हुए उन तीनों बाणों द्वारा वह ब्राह्मण वर्षाकाल में भीगे हुए तीन शिखरों वाले उत्तम पर्वत के समान अद्भुत शोभा पाने लगा। तब अश्वत्थामा ने सैकड़ों बाणों से पाण्डुपुत्र भीमसेन को पीड़ित कियाः परन्तु जैसे हवा पर्वत को नहीं हिला सकती उसी प्रकार वह उन्हें कम्पित न कर सका। इसी प्रकार हर्ष और उत्साह में भरे हुए पाण्डुपुत्र भीमसेन भी युद्ध में सैंकड़ों तीखे बाणों का प्रहार करके द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को विचलित न कर सके। ठीक उसी तरह, जैसे जल का महान प्रवाह किसी पर्वत को हिला-डुला नहीं सकता। वे दोनों बलोत्मत्त महारथी वीर श्रेष्ठ रथों पर बैठकर एक दूसरे को भयंकर बाणों द्वारा आच्छादित करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। जैसे सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिए उगे हुए दो तेजस्वी सूर्य अपनी किरणों द्वारा परस्पर साथ दे रहे हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर अपने उत्तम बाणों द्वारा एक दूसरे को संतप्त कर रहे थे।
        उस महासमर में बदला लेने का यत्न करते हुए वे दोनों योद्धा निर्भय से होकर अपने बाण समूहों द्वारा परस्पर अस्त्रों के घात-प्रतिघात के लिए प्रयत्नशील थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ संग्राम भूमि में दो व्याघ्रो के समान विचर रहे थे, धनुष ही उन व्याघ्रो के मुख और बाण ही उनकी दाढ़ें थी। वे दोनों ही दुर्धर्ष एवं भयंकर प्रतीत होते थे। आकाश में मेघों की घटा से आच्छादित हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान वे दोनों वीर सब ओर से बाण समूहों द्वारा ढक कर अदृश्य हो गये थे। फिर दो ही घड़ी में मेघों के आवरण से मुक्त हुए मंगल और बुध नामक ग्रहों के समान वे दोनों शत्रुदमन वीर एक दूसरे के बाणों को नष्ट करके प्रकाशित होने लगे।
       इस प्रकार चलने वाले उस भयंकर संग्राम में वहीं द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भीमसेन को अपने दाहिने भाग में कर दिया। फिर जैसे मेघ जल की धाराओं से पर्वत को ढक-सा देता है, उसी प्रकार भयंकर एवं सैंकड़ों बाणों द्वारा वह भीमसेन को आच्छादित करने लगा; परंतु भीमसेन शत्रु के इस विजय सूचक लक्षण को सहन न कर सके। राजन! पाण्डुपुत्र भीम ने भी गत-प्रत्यागत आदि मण्डल भागों (विभिन्न पैंतरों) में अश्वत्थामा को दाहिने करके बदला चुका लिया। उन दोनों पुरुषसिंहों में मण्डलाकार घूमकर भाँति-भाँति के पैंतरे दिखाते हुए भयंकर युद्ध होने लगा। वे कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से परस्पर चोट पहुँचाने और एक दूसरे के वध के लिए भारी यत्न करने लगे। दोनों ही युद्धस्थल में एक दूसरे को रथहीन कर देने की इच्छा करने लगे। तदनन्तर महारथी अश्वत्थामा ने बड़े-बड़े अस्त्र प्रकट किये; परंतु पाण्डुपुत्र भीमसेन ने समरांगण में अपने अस्त्रों द्वारा ही उन सबको नष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद)

      महाराज! फिर तो जैसे प्रजा के संहार काल में ग्रहों का घोर युद्ध होने लगता है, उसी प्रकार उन दोनों में भयंकर अस्त्र युद्ध छिड़ गया। भारत! उन दोनों के छोड़े हुए वे बाण सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए आपकी सेना के चारों ओर गिरने लगे। नरेश्वर! उस समय बाण-समूहों से व्याप्त हुआ आकाश बड़ा भयंकर प्रतीत होने लगा; ठीक उसी तरह, जैसे प्रजा के संहारकाल में होने वाला युद्ध उल्कापात से व्याप्त होने के कारण अत्यन्त भयानक दिखाई देता है। भरतनन्दन! वहाँ बाणों के परस्पर टकराने से चिंगारियों तथा प्रज्वलित लपटों के साथ आग प्रकट हो गयी, जो दोनों सेनाओं को दग्ध किये देती थी। प्रभो! महाराज! उस समय वहाँ उड़कर आते हुए सिद्ध परस्पर इस प्रकार कहने लगे- ‘यह युद्ध तो सभी युद्धों से बढ़कर हो रहा है, अन्य सब युद्ध तो इसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं थे। ‘ऐसा युद्ध फिर कभी नहीं होगा। ये ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही अद्भुत ज्ञान से सम्पन्न हैं। ‘भयंकर पराक्रम दिखाने वाले ये दोनों योद्धा अद्भुत शौर्यशाली हैं। अहो! भीमसेन का बल भयंकर है। इनका अस्त्रज्ञान अद्भुत है! ‘अहो! इनके वीर्य की सारता विलक्षण है। इन दोनों का युद्ध सौन्दर्य आश्चर्यजनक है। ये दोनों समरांगण में कालान्तक एवं यम के समान जान पड़ते हैं। 'ये भयंकर रूपधारी दोनों पुरुषसिंह रणभूमि में दो रुद्र, दो सूर्य अथवा दो यमराज के समान प्रकट हुए हैं'।
       इस प्रकार सिद्धों की बातें वहाँ बारंबार सुनाई देती थीं। आकाश में एकत्र हुए देवताओं का सिंहनाद भी प्रकट हो रहा था। रणभूमि में उन दोनों के अद्भुत एवं अचिन्त्य कर्म को देखकर सिद्धों और चारणों के समूहों को बड़ा विस्मय हो रहा था। उस समय देवता, सिद्ध और महर्षिगण उन दोनों की प्रशंसा करते हुए कहने लगे,
      महर्षिगण ने कहा ;- ‘महाबाहु द्रोणकुमार! तुम्हें साधुवाद! भीमसेन! तुम्हारे लिये भी साधुवाद?
      ‘राजन! परस्पर अपराध करने वाले वे दोनों शूरवीर समरांगण में क्रोध से आँखें फाड़-फाड़ कर एक दूसरे की ओर देख रहे। क्रोध से उन दोनों की आँखें लाल हो गयी थीं। क्रोध से उनके ओठ फड़क रहे थे और क्रोध से ही वे ओठ चबाते एवं दाँत पीसते थे। वे दानों महारथी धनुष रूपी विद्युत से प्रकाशित होने वाले मेघ के समान हो बाणरूपी जल धारण करते थे और समरांगण में बाण-वर्षा करके एक दूसरे को ढक देते थे। वे उस समासमर में परस्पर के ध्वज, सारथि और घोड़ों को बींधकर ऐक दूसरे को क्षत-विक्षत कर रहे थे। महाराज! तदनन्तर उस महासमर में कुपित हो उन दोनों ने एक दूसरे के वध की इच्छा से तुरंत दो बाण लेकर चलाये। राजेन्द्र! वे दोनों बाण सेना के मुहाने पर चमक उठे। उन दोनों का वेग वज्र के समान था। उन दुर्जय बाणों ने दोनों के पास पहुँचकर उन्हें घायल कर दिया। परस्पर के वेग से छूटे हुए उन बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो वे महापराक्रमी वीर अपने-अपने रथ की बैठक में तत्काल गिर पड़े। राजन! तत्पश्चात सारथि द्रोणपुत्र को अचेत जानकर सारी सेना के देखते-देखते उसे रणक्षेत्र से बाहर हटा ले गया। महाराज! इसी प्रकार बारंबार विह्वल होते हुए शत्रुतापन पाण्डुपुत्र भीमसेन को भी रथ द्वारा उनका सारथि विशोक युद्धस्थल से अन्यत्र हटा ले गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में अश्वत्थामा और भीमसेन का युद्ध विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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