सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
इकसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण द्वारा शिखण्डी की पराजय, धृष्टद्युम्न और दु:शासन का तथा वृषसेन और नकुल का युद्ध, सहदेव द्वारा उलूक की तथा सात्यकि द्वारा शकुनि की पराजय, कृपाचार्य द्वारा युधामन्यु एवं कृतवर्मा द्वारा उत्तमौज की पराजय तथा भीमसेन द्वारा दुर्योधन की पराजय, गजसेना का संहार और पलायन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जब भीमसेन और पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर लौट आये, पाण्डव और सृंजय मेरी सेना का वध करने लगे और मेरा सैन्य समुदाय आनन्द शून्य होकर बराबर भागने लगा, उस समय कौरवों ने क्या किया यह मुझे बताओ।
संजय कहते हैं ;- राजन! आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप उन कौरवों का महान संहार हुआ है। महाराज! प्रतापी सूतपुत्र महाबाहु भीमसेन को देखकर क्रोध से लाल आंखें किये उन पर टूट पड़ा। राजन! आपकी सेना को भीमसेन के भय से विमुख हुई देख बलवान कर्ण ने बड़े यत्न से उसे स्थिर किया। महाबाहु कर्ण आपके पुत्र की सेना को स्थिर करके रण दुर्मद पाण्डवों की ओर बढ़ा। उस समय पाण्डव महारथी भी राधापुत्र कर्ण का सामना करने के लिये अपने धनुष हिलाते और बाणों की वर्षा करते हुए रणभूमि में आगे बढ़े। भीमसने, सात्यकि, शिखण्डी, जनमेजय, बलवान धृष्टद्युम्न और समस्त प्रभद्रकगण- ये सभी पुरुषसिंह वीर समरांगण में विजय से उल्लसित होते हुए क्रोध में भरकर आपकी सेना को मार डालने की इच्छा, से चारों ओर से उसके ऊपर टूट पड़े। राजन! इसी प्रकार आपके महारथी वीर भी पाण्डव सेना का वध करने के लिये बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े। पुरुषसिंह! रथ, हाथी, घोड़े, पैदल योद्धा और ध्वजों से व्याप्त हुई वह सारी सेना अद्भुत दिखायी दे रही थी।
महाराज! शिखण्डी ने कर्ण पर और धृष्टद्युम्न ने विशाल सेना से घिरे हुए आपके पुत्र दु:शासन पर आक्रमण किया। राजन! नकुल ने वृषसेन पर, युधिष्ठिर ने चित्रसेन पर तथा सहदेव ने समरांगण में उलूक पर चढ़ाई की। सात्यकि ने शकुनि पर, द्रौपदी के पांचों पुत्रों ने अन्य कौरवों पर तथा युद्ध में सावधान रहने वाले महारथी अश्वत्थामा ने अर्जुन पर धावा किया। कृपाचार्य युद्धस्थल में महाधनुर्धर युधामन्यु पर टूट पड़े और बलवान कृतवर्मा ने उत्तमौजा पर आक्रमण किया। आर्य! महाबाहु भीमसेन अकेले ही सेनासहित समस्त कौरवों और आपके पुत्रों को आगे बढ़ने से रोक दिया।
महाराज! तदनन्तर भीष्महन्ता शिखण्डी ने निर्भय से विचरते हुए कर्ण को अपने बाणों के प्रहार से रोका। अपनी गति अवरुद्ध हो जाने पर रोष के मारे कर्ण के ओठ फड़कने लगे। उसने तीन बाणों द्वारा शिखण्डी को उसकी दोनों भौंहों के मध्य भाग में गहरी चोट पहुँचायी। उन बाणों को ललाट में धारण किये शिखण्डी तीन उठे हुए शिखरों से संयुक्त रजतमय पर्वत के समान बड़ी शोभा पाने लगा। युद्धस्थल में सूतपुत्र के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए महाधनुर्धर शिखण्डी ने नब्बे पैने बाणों द्वारा कर्ण को भी समर भूमि में घायल कर दिया। महारथी कर्ण ने शिखण्डी के घोड़ों को मारकर तीन बाणों द्वारा इसके सारथि को भी नष्ट कर दिया। फिर एक क्षुरप्र द्वारा उसकी ध्वजा को काट गिराया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 21-45 का हिन्दी अनुवाद)
उस अश्वहीन रथ से कूदकर कुपित हुए शत्रुसंतापी महारथी शिखण्डी ने कर्ण पर शक्ति चलायी। भारत! समरांगण में तीन बाणों द्वारा उस शक्ति को काट कर कर्ण ने नौ बाण से शिखण्डी को भी घायल कर दिया। तब अत्यन्त घायल हुआ नरश्रेष्ठ शिखण्डी कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों से बचने के लिये तुरंत वहाँ से भाग निकला। तदनन्तर महाबली कर्ण रुई के ढेर को वायु की भाँति पाण्डव-सेनाओं को तहस-नहस करने लगा। राजेन्द्र! आपके पुत्र दु:शासन से पीड़ित हो धृष्टद्युम्न ने तीन बाणों से उसकी छाती मे गहरी चोट पहुँचायी। आर्य! दु:शासन ने भी उसकी बायीं भुजाओं को बींध डाला। भारत! सुनहरे पंख और झुकी हुई गांठवाले भल्ल से घायल हुए अमर्षशील धृष्टद्युम्न अत्यन्त कुपित हो दु:शासन पर एक भयंकर बाण चलाया। प्रजानाथ! धृष्टद्युम्न के चलाये हुए उस भयंकर वेगशाली बाण को अपनी ओर आते देख आपके पुत्र ने तीन ही बाणों द्वारा उसे काट डाला तत्पश्चात धृष्टद्युम्न के पास पहुँचकर उसने सुवर्ण-भूषित दूसरे सत्रह भल्लों से उसकी दोनों भुजाओं और छाती में प्रहार किया। आर्य! तब कुपित हुए द्रुपद कुमार ने अत्यन्त तीखे क्षुरप्र से दु:शासन के धनुष को काट दिया। यह देख सब लोग कोलाहल कर उठे।
तदनन्तर आपके पुत्र ने हंसते हुए से दूसरा धनुष हाथ में लेकर अपने बाण समूहों द्वारा धृष्टद्युम्न को सब ओर से अवरुद्ध कर दिया। आपके महामनस्वी पुत्र का वह पराक्रम देखकर रणभूमि में सब योद्धा विस्मित हो गये तथा आकाश में सिद्धों और अप्सराओं के समूह भी आश्चर्य करने लगे। जैसे सिंह किसी महान गजराज को काबू में कर ले, उसी प्रकार दु:शासन से अवरुद्ध हो यथाशक्ति छूटने की चेष्टा करने वाले महाबली धृष्टद्युम्न को हम देख नही पाते थे। पाण्डु के ज्येष्ठ भ्राता राजन! तब सेनापति धृष्टद्युम्न की रक्षा के लिये रथों, हाथियों और घोड़ों सहित पांचालों ने आपके पुत्र को चारों ओर से घेर लिया। परंतप! फिर तो उस समय शत्रुओं के साथ आपके सैनिकों का घोर युद्ध होने लगा, जो समस्त प्राणियों के लिये भयंकर था।
अपने पिता के पास खड़े हुए वृषसेन ने लोहे के पांच बाणों से नकुल को घायल करके दूसरे तीन बाणों द्वारा पुन: बींध डाला। तब शूरवीर नकुल ने हंसते हुए से अत्यन्त तीखे नाराच द्वारा वृषसेन की छाती में गहरा आघात किया। शत्रुसूदन! बलवान शत्रु के द्वारा अत्यन्त घायल हुए वृषसेन ने अपने वैरी नकुल को बीस बाणों से बींध डाला फिर नकुल ने भी उसे पांच बाणों से घायल कर दिया। तदनन्तर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने सहस्त्रों बाणों द्वारा एक दूसरे को आच्छादित कर दिया। इसी समय कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। प्रजानाथ! दुर्योधन की सेना को भागती देख सूतपुत्र कर्ण ने बलपूर्वक पीछा करके उसे रोका। आर्य! कर्ण के लौट जाने पर नकुल कौरव-सैनिकों की ओर बढ़ चले और कर्ण का पुत्र नकुल को छोड़कर समरभूमि में शीघ्रता पूर्वक राधापुत्र कर्ण के पहियों की ही रक्षा करने लगा।
राजन! उसी प्रकार रणभूमि में कुपित हुए उलूक को सहदेव ने रोक दिया। प्रतापी सहदेव ने उलूक के चारों घोड़ों को मारकर उसके सारथि को भी यमलोक भेज दिया। प्रजानाथ! तदनन्तर पिता को आनन्द देने वाला उलूक उस रथ से कूदकर तुरंत ही त्रिगर्तों की सेना में चला गया। सात्यकि ने बीस पैने बाणों से शकुनि को घायल करके हंसते हुए से एक भल्ल द्वारा सुबलपुत्र के ध्वज को भी काट दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 46-63 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! समरांगण में कुपित हुए प्रतापी सुबलपुत्र ने सात्यकि के कवच को छिन्न-भिन्न करके उन सुवर्णमय ध्वज को भी काट दिया। महाराज! इसी प्रकार सात्यकि ने भी उसे पैने बाणों द्वारा घायल कर दिया और उसके सारथि पर भी तीन बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात उन्होंने शीघ्रतापूर्वक बाण मारकर शकुनि के घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया। भरतश्रेष्ठ! तब शकुनि भी सहसा अपने रथ से कूदकर महामनस्वी उलूक के रथ पर तुरंत जा चढ़ा। उलूक युद्ध में शोभा पाने वाले सात्यकि के निकट से अपने रथ को शीघ्र दूर हटा ले गया। राजन! तदनन्तर सात्यकि ने रणभूमि में आपके पुत्रों की सेना पर बड़े वेग से आक्रमण किया। इससे उस सेना में भगदड़ मच गयी। प्रजानाथ! सात्यकि के बाणों से ढकी हुई आपकी सेना शीघ्र ही दसों दिशाओं की ओर भाग चली और प्राणहीन सी होकर पृथ्वी पर गिरने लगी।
आपके पुत्र दुर्योधन ने युद्धस्थल में भीमसेन को रोका। भीमसेन ने दो ही घड़ी में इस जगत के स्वामी दुर्योधन को घोड़े, सारथि, रथ और ध्वज से वंचित कर दिया; इससे सब लोग बड़े प्रसन्न हुए। तब राजा दुर्योधन वहाँ भीमसेन के रास्ते से दूर हट गया। फिर तो सारी कौरव सेना भीमसेन पर टूट पड़ी। भीम सेन को मारने की इच्छा से आये हुए कौरवों का महान सिंहनाद सब ओर गूंज उठा। दूसरी ओर युधामन्यु ने कृपाचार्य को घायल करके तुरंत ही उनके धनुष को काट दिया। तदनन्तर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर युधामन्यु के ध्वज, सारथि और छत्र को धराशायी कर दिया। फिर तो महारथी युधामन्यु रथ के द्वारा ही वहाँ से पलायन कर गया।
दूसरी ओर उत्तमौजा ने भयंकर पराक्रमी और भयानक रुपवाले कृतवर्मा को अपने बाणों द्वारा सहसा उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे मेघ जल की वर्षा द्वारा पर्वत को ढक देता है। परंतप! उन दोनों का वह महान युद्ध बड़ा भयंकर था। प्रजानाथ! वैसा युद्ध मैंने पहले कभी नहीं देखा था। राजन! तदनन्तर कृतवर्मा ने युद्धस्थल में सहसा उत्तमौजा की छाती में गहरा आघात किया। उत्तमौजा अचेत-सा होकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। तब उसका सारथि रथियों में श्रेष्ठ उत्तमौजा को रथ के द्वारा वहाँ से दूर हटा ले गया। फिर तो सारी कौरव-सेना भीमसेन पर टूट पड़ी। दु:शासन और शकुनि ने विशाल गजसेना के द्वारा पाण्डुपुत्र भीमसेन को चारों ओर से घेरकर उन पर बाणों द्वारा प्रहार आरम्भ कर दिया। उस समय भीमसेन ने सैकड़ों बाणों की मार से अमर्षशील दुर्योधन को युद्ध से विमुख करके हाथियों की उस सेना पर वेगपूर्वक आक्रमण किया। सहसा अपनी ओर आती हुई उस गजसेना को देखते ही भीमसेन अत्यन्त कुपित हो उठे और दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 64-73 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे इन्द्र वज्र के द्वारा असुरों का संहार करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन ने हाथियों से ही हाथियों को मार डाला। तत्पश्चात हाथियों का संहार करते हुए भीमसेन ने समरभूमि में अपने बाण समूहों द्वारा सारे आकाश को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे टिड्डियों के दलों से वृक्ष आच्छादित हो जाता है। इसके बाद भीमसेन ने जैसे वायु मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार वहाँ एकत्र हुए हाथियों के सहस्रों समूहों को वेगपूर्वक नष्ट कर दिया। सोने और मणियों की जालियों से ढके हुए वे हाथी युद्धस्थल में बिजलियों सहित मेघों के समान अधिक प्रकाशित हो रहे थे।
राजन! भीमसेन की मार खाकर सारे हाथी भाग चले। कितने ही गजराज हृदय फट जाने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। गिरे और गिरते हुए सुवर्णभूषित हाथियों से ढकी हुई रणभूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो वहाँ ढेर के ढेर पर्वत खण्ड बिखरे पड़े हों। दीप्तिमती प्रभा तथा रत्नों के आभूषण धारण करके गिरे हुए हाथी सवारों से वह भूमि वैसी ही शोभा पा रही थी, मानो पुण्य क्षीण हो जाने पर स्वर्गलोक के ग्रह वहाँ भूतल पर गिर पड़े हो। तदनन्तर भीमसेन के बाणों से आहत हो फूटे गण्डस्थल, विदीर्ण कुम्भस्थल और छिन्न-भिन्न शुण्डदण्ड वाले सैकड़ों हाथी युद्धस्थल में भागने लगे। भय से पीड़ित हुए कितने ही पर्वताकार हाथी अपने सारे अंगों में बाणों से विद्ध होकर भय से पीड़ित हो रक्त वमन करते हुए भागे जा रहे थे। उस समय विभिन्न धातुओं के कारण विचित्र दिखायी देनेवाले पर्वतों के समान उनकी शोभा हो रही थी। धनुष खींचते हुए भीमसेन की चन्दन और अगुरु से चर्चित भुजाएं मुझे दो बड़े सर्पों के समान दिखायी देती थीं। बिजली की गड़गड़ाहट के समान उनकी प्रत्यच्चा की भयंकर टंकार सुनकर बहुत से हाथी मल मूत्र करते हुए बड़े जोर से भाग रहे थे। राजन! अकेले बुद्धिमान भीमसेन का वह कर्म समस्त प्राणियों का संहार करते हुए रुद्र के समान जान पड़ता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में संकुलयुद्ध विषयक इकसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
बासठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर पर कौरव सैनिकों का आक्रमण”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सावधानी से संचालित और श्वेत घोड़ों से युक्त उत्तम रथ पर खड़े हुए श्रीमान अर्जुन वहाँ आ पहुँचे। नृपश्रेष्ठ! जैसे प्रचण्ड वायु महासागर को विक्षुब्ध कर देती है, उसी प्रकार रणभूमि में स्थित प्रचण्ड अश्वों से युक्त आपकी सेना में अर्जुन ने हलचल मचा दी। जब श्वेतवाहन अर्जुन असावधान थे, उसी समय क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने सहसा आधी सेना के साथ आकर अपनी ओर आते हुए अमर्षशील पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को चारों ओर से घेर लिया। साथ ही तिहत्तर क्षुरप्रों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब वहाँ कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने आपके पुत्र पर तीस भल्लों का प्रहार किया। तदनन्तर कौरव-सैनिक युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये दौड़े। शत्रुओं की यह दुर्भावना जानकर एकत्र हुए पाण्डव महारथी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर की रक्षा के लिये वहाँ आ पहुँचे।
नकुल, सहदेव और द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न –ये एक अक्षौहिणी सेना साथ लेकर युधिष्ठिर के पास दौड़े आये। भीमसेन भी शत्रुओं से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर को बचाने के लिये समरांगण में आप के महारथियों को रौंदते हुए उनके पास दौड़े आये। नरेश्वर! वैकर्तन कर्ण ने वहाँ आये हुए सम्पूर्ण महाधनुर्धरों को अपने बाणों की भारी वर्षा से रोक दिया। वे सब महारथी प्रयत्नपूर्वक बाणसमूहों की वर्षा और तोमरों का प्रहार करते हुए भी राधापुत्र को देख न सके। सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के पारंगत विद्वान राधापुत्र कर्ण ने बड़ी भारी बाण वर्षा करके उन समस्त धनुर्धरों को आगे बढ़ने से रोक दिया। इसी समय प्रतापी सहदेव ने आकर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाते हुए तुरंत ही बीस बाणों से दुर्योधन को बींध डाला। सहदेव के बाणों से विद्ध होकर दुर्योधन अनेक शिखरों वाला पर्वत के समान सुशोभित हुआ। खून से लथपथ होकर वह मद की धारा बहाने वाले मदमत्त हाथी के समान जान पड़ता था। रथियों में श्रेष्ठ राधापुत्र कर्ण आपके पुत्र को तेज बाणों से अत्यन्त घायल हुआ देख कुपित होकर दौड़ा। दुर्योधन की वैसी अवस्था देख उसने शीघ्र अपना अस्त्र प्रकट किया और उसी के द्वारा युधिष्ठिर की सेना एवं द्रुपद पुत्र को घायल कर दिया। राजन! महामना सूतपुत्र कर्ण की मार खाकर उसके बाणों से पीड़ित हो युधिष्ठिर की सेना सहसा भाग चली। सूतपुत्र कर्ण के धनुष से छूटकर परस्पर गिरते हुए नाना प्रकार के बाण अपने फलों द्वारा पहले के गिरे हुए बाणों के पंखों में जुड़ जाते थे। महाराज! आकाश में परस्पर टकराते हुए बाण समूहों की रगड़ से आग प्रकट हो जाती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तदनन्तर कर्ण ने पतंगों की तरह चलकर शत्रुओं के शरीर में घुस जाने वाले बाणों द्वारा वेगपूर्वक दसों दिशाओं में प्रहार आरम्भ किया। दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन करता हुआ कर्ण मणि एवं सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित तथा लाल चन्दन से चर्चित दोनों भुजाओं को बारंबार हिला रहा था। राजन! तत्पश्चात अपने बाणों से सम्पूर्ण दिशाओं को मोहित करते हुए कर्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। महाराज! इससे कुपित हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने कर्ण पर पचास पैने बाणों का प्रहार किया। उस समय भयंकर दिखायी देने वाला वह युद्ध बाणों के अन्धकार से व्याप्त हो गया। माननीय प्रजानाथ! जब धर्मपुत्र युधिष्ठिर कौरव सेना का वध करने लगे, उस समय आपके योद्धाओं का महान हाहाकार सब ओर गूंज उठा। भरतश्रेष्ठ! धर्मात्मा युधिष्ठिर शिला पर तेज किये हुए कंकपत्रयुक्त एवं नाना प्रकार के पैने बाणों, भाँति-भाँति के बहुसंख्यक भल्लों तथा शक्ति, ऋष्टि एवं मूसलों द्वारा प्रहार करते हुए जहां-जहाँ क्रोधरुपी दोष से पूर्ण दृष्टि डालते थे, वहीं-वहीं आपके सैनिक छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते थे।
कर्ण भी अत्यन्त क्रोध में भरा हुआ था। वह अमर्षशील और क्रोधी तो था ही, रोष से उसका मुख फड़क रहा था। अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न उस वीर ने युद्धस्थल में नाराचों, अर्धचन्द्रों तथा वत्सदन्तों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर पर धावा किया। इसी प्रकार युधिष्ठिर ने भी कर्ण को सोने की पांखवाले पैने बाणों द्वारा घायल कर दिया। तब कर्ण ने हंसते हुए से शिला पर तेज किये गये कंकपत्रयुक्त तीन भल्लों द्वारा पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। उस प्रहार से अत्यन्त पीड़ित हो धर्मराज युधिष्ठिर रथ के पिछले भाग में बैठे गये और सारथि को आदेश देते हुए बोले ‘यहाँ से अन्यत्र रथ ले चलो,। उस समय राजा दुर्योंधन सहित आपके सभी पुत्र इस प्रकार कोलाहल करने लगे-‘राजा युधिष्ठिर को पकड़ लो’ ऐसा कहकर वे सभी ओर से उनकी ओर दौड़ पड़े। राजन! तब प्रहार कुशल सत्रहसौ केकय योद्धा पांचालों के साथ आकर आपके पुत्रों को रोकने लगे। जिस समय वह जनसंहारकारी भयंकर युद्ध चल रहा था, उस सय महाबलीम दुर्योधन और भीमसेन एक दूसरे से जूझने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में संकुलयुद्ध विषयक बासठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
तिरेसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण द्वारा नकुल-सहदेव सहित युधिष्ठिर की पराजय एवं पीडित होकर युधिष्ठिर का अपनी छावनी में जाकर विश्राम करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! कर्ण भी अपने बाण समूह से सामने खड़े हुए महाधनुर्धर केकय महारथियों का विनाश करने लगा। राधापुत्र कर्ण को रोकने के लिये प्रयत्न करने वाले पांच सौ रथियों को उसने यमलोक पहुँचा दिया। कर्ण के बाणों से अत्यन्त पीड़ित हुए पाण्डव योद्धा युद्ध स्थल में राधापुत्र कर्ण को असह्य देखकर भीमसेन के पास चले आये। तदनन्तर कर्ण ने अपने बाणों के समूह से पाण्डवों की रथ सेना को अनेक भागों में विदीर्ण करके एकमात्र रथ के द्वारा ही युधिष्ठिर पर धावा किया। उस समय वीर युधिष्ठिर बाणों से क्षत-विक्षत होकर अचेत से हो रहे थे और नकुल-सहदेव के बीच में होकर धीरे-धीरे छावनी की ओर जा रहे थे। उस अवस्था में राजा युधिष्ठिर के पास पहुँचकर सूतपुत्र कर्ण ने दुर्योधन के हित की इच्छा से परम उत्तम तीन तीखे बाणों द्वारा उन्हें पुन: घायल कर दिया। इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर ने भी राधापुत्र कर्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। फिर तीन बाणों से सारथि को और चार से चारों घोड़ों को घायल कर दिया।
शत्रुओं को संताप देने वाले माद्रीकुमार नकुल और सहदेव राजा युधिष्ठिर के चक्र रक्षक थे। वे दोनों भी यह सोचकर कर्ण की ओर दौड़े कि यह राजा युधिष्ठिर वध न कर डाले। नकुल और सहदेव दोनों भाई उत्तम प्रयत्न का सहारा लेकर राधापुत्र कर्ण पर पृथक-पृथक बाणों की वर्षा करने लगे। इसी प्रकार प्रतापी सूतपुत्र ने भी तेज धारवाले दो भल्लों द्वारा शत्रुओं का दमन करने वाले उन दोनों महामनस्वी वीरों को घायल कर दिया। जिनकी पूंछ और गर्दन के बल काले तथा शरीर का रंग श्वेत था और जो मन के समान तीव्र वेग से चलने वाले थे, युधिष्ठिर के उन उत्तम घोड़ों को संग्राम भूमि में राधा पुत्र कर्ण ने मार डाला। त्त्पश्चात महाधनुर्धर सूतपुत्र ने हंसते हुए से एक दूसरे भल्ल के द्वारा कुन्तीकुमार के शिरस्त्राण को नीचे गिरा दिया। इसी प्रकार प्रतापी कर्ण ने बुद्धिमान माद्रीकुमार नकुल के भी घोड़ों को मारकर ईषादण्ड और धनुष को भी काट दिया। घोड़ों एवं रथों के नष्ट हो जाने पर अत्यन्त घायल हुए वे दोनों भाई पाण्डव उस समय सहदेव के रथ पर जा चढ़े।
शत्रुवीरों का संहार करने वाले मामा मद्रराज शल्य ने उन दोनों भाइयों को रथहीन हुआ देख कृपापूर्वक राधापुत्र कर्ण से कहा ‘कर्ण! आज तुम्हें कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ युद्ध करना है। फिर अत्यन्त रोष में भरकर धर्मराज के साथ किस लिये जूझ रहे हो। ‘इनके अस्त्र शस्त्र और कवच नष्ट हो गये हैं। तीर और तरकस भी कट गये हैं। सारथि और घोड़े भी थके हुए हैं तथा शत्रुओं ने इन्हें अस्त्रों द्वारा आच्छादित कर दिया है। राधानन्दन! अर्जुन के सामने पहुँचकर तुम उपहास के पात्र बन जाओगे’। युद्धस्थल में मद्रराज शल्य के ऐसा कहने पर कर्ण पूर्वत रोष में भरकर युधिष्ठिर को बाणों द्वारा पीड़ित करता रहा। माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल- सहदेव को तीखे बाणों से घायल करके कर्ण ने हंसकर समरांगण में बाणों के प्रहार से युधिष्ठिर को युद्ध से विमुख कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
तब शल्य ने हंसकर युधिष्ठिर के वध का दृढ़ निश्चय किये अत्यन्त क्रोध में भरकर रथ पर बैठे हुए कर्ण से पुन: इस प्रकार कहा ‘राधापुत्र! दुर्योधन ने जिनसे जूझने के लिये तुम्हारा सदा सम्मान किया है, उन कुन्तीकुमार अर्जुन को मारो। युधिष्ठिर का वध करने से तुम्हें क्या मिलेगा। ‘इनके मारे जाने पर अर्जुन निश्चय ही हमारे सारे महारथियों को जीत लेंगे। परंतु अर्जुन के मारे जाने पर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की विजय अवश्यम्भावी है। ‘महाबाहो! अर्जुन का यह सूर्य के समान प्रकाशमान ध्वज दिखायी देता है। तुम इन्हीं को मारो, युधिष्ठिर का वध करने से तुम्हारा क्या लाभ है। ‘श्रीकृष्ण और अर्जुन शंख बजा रहे हैं, जिनका यह महान शब्द सुनायी पड़ता है। वर्षाकाल के मेघ की गर्जना के समान उनके धनुष का यह गम्भीर घोष कानों में पड़ रहा है। ‘कर्ण! ये अर्जुन अपने बाणों की वर्षा से बड़े-बड़े रथियों का संहार करते हुए हमारी सारी सेना को काल का ग्रास बना रहे हैं। युद्धस्थल में इनकी ओर तो देखो। ‘शूरवीर अर्जुन के पृष्ठभाग की रक्षा युधामन्यु और उत्तमौजा कर रहे हैं। शौर्यसम्पन्न सात्यकि उनके उत्तर (बायें) चक्र की रक्षा करते हैं और धृष्टद्युम्न दाहिने चक्र की।
‘भीमसेन राजा दुर्योधन के साथ युद्ध करते हैं। राधा नन्दन! हम सब लोगों के देखते-देखते आज भीमसेन जिस प्रकार उसे मार न डालें, वैसा प्रयत्न करो। जैसे भी सम्भव हो, हमारे राजा को भीमसेन से छूटकारा ही चाहिये। ‘देखो, युद्ध में शोभा पाने वाले दुर्योधन को भीमसेन ने ग्रस लिया है। यदि तुम्हें पाकर वह संकट से छूट जाय तो यह महान आश्चर्य की घटना होगी। ‘तुम चलकर जीवन के भारी संशय में पड़े हुए राजा दुर्योधन को बचाओ। आज माद्रीकुमार नकुल-सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर का वध करके क्या होगा। पृथ्वीनाथ! शल्य की यह बात सुनकर तथा महासमर में दुर्योधन को भीमसेन से ग्रस्त हुआ देखकर शल्य के वचनों से प्रेरित हो राजा को अधिक चाहने वाला पराक्रमी कर्ण अजात शत्रु युधिष्ठिर और माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव को छोड़कर आपके पुत्र की रक्षा करने के लिये दौड़ा।
माननीय नरेश! मद्रराज शल्य के द्वारा हांके हुए घोड़े ऐसे भाग रहे थे, मानो आकाश में उड़ रहे हों। कर्ण के चले जाने पर कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर और सहदेव तीव्रगामी घोड़ों द्वारा वहाँ से भाग गये। नकुल और सहदेव के साथ वे नरेश लज्जित होते हुए से तुरंत छावनी में पहुँचकर रथ से उतर पड़े और सुन्दर शय्या पर लेट गये। उस समय उनका सारा शरीर बाणों से क्षत विक्षत हो रहा था। वहाँ उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये तो भी हृदय में जो अपमान का कांटा गड़ गया था, उससे वे अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उस समय राजा दोनों भाई माद्रीकुमार महारथी नकुल-सहदेव से इस प्रकार बोले। युधिष्ठिर ने कहा- वीर पाण्डुकुमारों! तुम दोनों शीघ्रतापूर्वक जहाँ भीमसेन खड़े हैं, वहाँ उनकी सेना में जाओ। वहाँ भीमसेन मेघ के समान गम्भीर गर्जना करते हुए युद्ध कर रहे हैं। तदनन्तर दूसरे रथ पर बैठकर रथियों में श्रेष्ठ नकुल और तेजस्वी सहदेव वे दोनों शत्रुसूदन बन्धु तीव्र वेगवाले घोड़ों द्वारा भीमसेन के पास जा पहुँचे। फिर वे दोनों बलवान भाई भीमसेन के सैनिकों के साथ खड़े होकर युद्ध करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर का पलायन विषयक तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
चौसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा की पराजय, कौरव सेना में भगदड़ एवं दुर्योधन से प्रेरित कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र से पांचालों का संहार”
संजय कहते हैं ;- राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा विशाल रथ सेना से घिरा सहसा वहाँ आ पहुँचा, जहाँ अर्जुन खड़े थे। भगवान श्रीकृष्ण जिनके सहायक थे, उन शूरवीर कुन्तिकुमार अर्जुन ने सहसा अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को तत्काल उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोकती है। महाराज! तब क्रोध में भरे हुए प्रतापी द्रोणपुत्र ने अर्जुन और श्रीकृष्ण को अपने बाणों से ढक दिया। उस समय उन दोनों को बाणों द्वारा आच्छादित हुआ देख समस्त कौरव महारथी महान आश्चर्य में पड़कर उधर ही देखने लगे। भारत! तब अर्जुन ने हंसते हुए से दिव्यास्त्र प्रकट किया; परंतु ब्राह्मण अश्वत्थामा ने युद्धस्थल में उनके उस दिव्यास्त्र का निवारण कर दिया। रणभूमि में पाण्डुकुमार अर्जुन अश्वत्थामा के अस्त्रों को नष्ट करने के लिये जो-जो अस्त्र चलाते थे, महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उनके उस-उस अस्त्र को काट गिराता था। राजन! इस प्रकार महाभयंकर अस्त्र युद्ध आरम्भ होने पर हम लोगों ने रणक्षेत्र में द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को मुंह बाये हुए यमराज के समान देखा था। उसने सीधे जाने वाले बाणों के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं और कोणों को आच्छादित करके श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा में तीन बाण मारे।
तब अर्जुन ने उस महामनस्वी वीर के समस्त घोड़ों को मारकर समरभूमि में खून की नदी-सी बहा दी। वह रक्तमयी भयंकर सरिता परलोक वाहिनी थी और सब लोगों को अपने प्रवाह में बहाये लिये जाती थी। वहाँ खड़े हुए सब लोगों ने देखा कि अश्वत्थामा के सारे रथी अर्जुन के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा युद्ध भूमि में मारे गये। स्वयं अश्वत्थामा ने भी उनकी वह अवस्था देखी। उस समय उसने भी महाभयंकर परलोक वाहिनी नदी बहा दी। अश्वत्थामा और अर्जुन के उस भयंकर एवं घमासान युद्ध में सब योद्धा मर्यादारहित होकर युद्ध करते हुए आगे पीछे सब ओर भागने लगे। रथों के घोड़े और सारथि मार दिये गये। घोड़ों के सवार नष्ट हो गये। गजारोही मार डाले गये और हाथी बचे रहे एवं कहीं हाथी ही मार डाले गये तथा महावत बचे रहे। राजन! इस प्रकार समरांगण में अर्जुन ने घोर जनसंहार मचा दिया। उनके धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा मारे जाकर बहुत से रथी धराशायी हो गये। घोड़ों के बन्धन खुल गये और वे चारों ओर दौड़ लगाने लगे।
युद्ध में शोभा पाने वाले अर्जुन का वह पराक्रम देखकर पराक्रमी द्रोणकुमार अश्वत्थामा तुरंत उनके पास आ गया और अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को हिलाते हुए उसने विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन को पैने बाणों द्वारा सब ओर से ढक दिया। महाराज! तदनन्तर द्रोणकुमार ने धनुष खींचकर छोड़े हुए पंखयुक्त बाण से कुन्तीकुमार अर्जुन की छाती पर पुन: बड़े जोर से निर्दयतापूर्वक प्रहार किया। भारत! रणभूमि में द्रोणपुत्र के द्वारा अत्यन्त घायल किये गये उदार बुद्धि गाण्डीवधारी अर्जुन ने समरांगण में बलपूर्वक बाणों की वर्षा करके अश्वत्थामा को ढक दिया और उसके धनुष को भी काट डाला। धनुष कट जाने पर द्रोणपुत्र ने युद्धस्थल में एक ऐसा परिघ हाथ में लिया, जिसका स्पर्श वज्र के समान कठोर था। उसने उस परिघ को तत्काल ही किरीटधारी अर्जुन पर दे मारा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उस सुवर्णभूषित परिघ को सहसा अपने ऊपर आते देख पाण्डुपुत्र अर्जुन ने हंसते हुए से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। नरेश्वर! जैसे वज्र का मारा हुआ पर्वत टूट-फूटकर सब ओर बिखर जाता है, उसी प्रकार अर्जुन के बाणों से कटा हुआ वह परिघ उस समय पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! तब महारथी द्रोणपुत्र ने कुपित होकर अर्जुन पर ऐंद्रास्त्र द्वारा वेगपूर्वक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। राजन! अर्जुन ने अश्वत्थामा द्वारा किये हुए इन्द्रजाल का विस्तार देखकर बड़े वेग से गाण्डीव धनुष हाथ में लिया और महेन्द्र द्वारा निर्मित उत्तम अस्त्र का आश्रय लेकर उस इन्द्र जाल का संहार कर दिया। इस प्रकार इन्द्रास्त्र द्वारा छोड़े गये उस बाण-जाल को विदीर्ण करके अर्जुन ने निकटवर्ती होकर क्षणभर में अश्वत्थामा के रथ को ढक दिया। उस समय अश्वत्थामा अर्जुन के बाणों से अभिभूत हो गया था। तदनन्तर अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा अर्जुन की उस बाण-वर्षा का निवारण करके अपना नाम प्रकाशित करते हुए सहसा सौ बाणों से श्रीकृष्ण को घायल कर दिया और अर्जुन पर भी तीन सौ बाणों का प्रहार किया। इसके बाद अर्जुन ने सौ बाणों से गुरुपुत्र के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर दिया तथा आपके पुत्रों के देखते-देखते उसके घोड़ों, सारथि, धनुष और प्रत्यंचा पर बाणों की झड़ी लगा दी।
शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अश्वत्थामा के मर्मस्थानों में चोट पहुँचाकर एक भल्ल से उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। तब उसने स्वयं ही घोड़ों की बागडोर हाथ में लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों से ढक दिया। वहाँ हमने द्रोण पुत्र का शीघ्र प्रकट होने वाला वह अभ्दुत पराक्रम देखा कि वह घोड़ों को भी काबू में रखता था और अर्जुन के साथ युद्ध भी करता था। राजन! समरांगण में भी सभी योद्धाओं ने उसके इस कार्य की पुरि-पुरि प्रशंसा की। तदनन्तर विजयी अर्जुन ने हंसकर युद्धस्थल में द्रोणपुत्र के घोड़ों की वागडोरों को क्षुरप्रों द्वारा शीघ्रता पूर्वक काट दिया। भारत! इसके बाद बाणों के वेग से अत्यन्त पीड़ित हुए उसके घोड़े वहाँ से भाग चले। उस समय वहाँ आपकी सेना में भयंकर कोलाहल मच गया।
पाण्डव विजय पाकर आपकी सेना पर टूट पड़े और पुन: विजय की अभिलाषा ले चारों ओर से पैने बाणों का प्रहार करने लगे। महाराज! विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों ने दुर्योधन की विशाल सेना में बारंबार भगदड़ मचा दी। नरेश्वर! प्रजानाथ! विचित्र युद्ध करने वाले आपके पुत्रों के, सुबलपुत्र शकुनि के तथा कर्ण के देखते-देखते यह सब हो रहा था। जनेश्वर! सब ओर से पीड़ित हुई आपकी विशाल सेना आपके पुत्रों के बहुत रोकने पर भी युद्धभूमि में खड़ी न रह सकी। महाराज! सब ओर भागने वाले योद्धाओं के कारण आपके पुत्रों की वह विशाल सेना भयभीत और व्याकुल हो उठी। सूतपुत्र कर्ण ‘ठहरो, ठहरो, की पुकार करता ही रह गया; परंतु महामनस्वी पाण्डवों की मार खाती हुई वह सेना किसी तरह ठहर न सकी। महाराज! दुर्योधन की सेना को सब ओर भागती देख विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डव जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उस समय दुर्योधन ने कर्ण से प्रेमपूर्वक कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘कर्ण! देखो, पांचालों ने मेरी इस विशाल सेना को अत्यन्त पीड़ित कर दिया है। ‘शत्रुदमन महाबाहु वीर! तुम्हारे रहते हुए भय के कारण मेरी सेना भाग रही है; यह जानकर इस समय जो कर्त्तव्य प्राप्त हो उसे करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 42-70 का हिन्दी अनुवाद)
‘पुरुषोत्तम! वीर! पाण्डवों द्वारा खदेड़े जाने वाले सहस्रों कौरव सैनिक समरांगण में तुम्हें ही पुकार रहे हैं’। राजन! महावीर राधापुत्र कर्ण ने दुर्योधन की यह बात सुनकर मद्रराज शल्य से हंसते हुए से इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- ‘नरेश्वर! आज तुम मेरी दोनों भुजाओं और अस्त्रों का बल देखो। मैं रणभूमि में पाण्डवों सहित समस्त पांचालों का वध किये देता हूं, इसमें संशय नहीं है। पुरुषसिंह! आप कल्याण चिन्तनपूर्वक ही इन घोड़ों को आगे बढ़ाइये’। महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी वीर सूतपुत्र कर्ण ने अपने विजय नामक श्रेष्ठ एवं पुरातन धनुष को लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ायी; फिर उसे बारंबार हाथ में लेकर सत्य की शपथ दिलाते हुए समस्त योद्धाओं को रोका। इसके बाद अमेय आत्मबल से सम्पन्न उस महाबली वीर ने भार्गवास्त्र का प्रयोग किया। राजन! फिर तो उस महासमर में सहस्रों, लाखों, करोड़ों और अरबों तीखे बाण उस अस्त्र से प्रकट होने लगे। कंक और मोर की पांखवाले उन प्रज्वलित एवं भयंकर बाणों द्वारा पाण्डव-सेना आच्छादित हो गयी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। प्रजानाथ! प्रबल भार्गवास्त्र से समरांगण में पीड़ित होने वाले पांचालों का महान हाहाकार सब ओर गूंजने लगा।
राजन! गिरते हुए हाथियों, सहस्रों घोड़ों, रथों और मारे गये पैदल मनुष्यों के गिरने से सारी पृथ्वी सब ओर कम्पित होने लगी। पाण्डवों की सारी विशाल सेना व्याकुल हो गयी। नरव्याघ्र! शत्रुओं को तपाने वाला योद्धाओं में श्रेष्ठ एकमात्र कर्ण ही धूमरहित अग्नि के समान शत्रुओं को दग्ध करता हुआ शोभा पा रहा था। जैसे वन में आग लगने पर उसमें रहने वाले हाथी जहाँ-तहाँ दग्ध होकर मूर्च्छित हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्ण के द्वारा मारे जाने वाले पांचाल और चेदि योद्धा यत्र-तत्र मूर्च्छित होकर पड़े थे। पुरुषसिंह! वे श्रेष्ठ योद्धा व्याघ्रों के समान चीत्कार करते थे। राजन! युद्ध के मुहाने पर भयभीत हो चिल्लाते और डरकर सब ओर भागते हुए उन सैनिकों का महान आर्तनाद प्रलयकाल में समस्त प्राणियों के चीत्कार के समान जान पड़ता था।
आर्य! सूतपुत्र के द्वारा मारे जाते हुए उन योद्धाओं को देखकर समस्त प्राणी पशु-पक्षी भी भय से थर्रा उठे। सूतपुत्र द्वारा समरांगण मारे जाते हुए सृंजय बारंबार अर्जुन और श्रीकृष्ण को पुकारते थे। ठीक उसी तरह, जैसे प्रेतराज के नगर में क्लेश से अचेत हुए प्राणी प्रेतराज को ही पुकारते हैं। कर्ण के बाणों द्वारा मारे जाते हुए उन सैनिकों का आर्तनाद सुनकर तथा वहाँ महाभयंकर भार्गवास्त्र का प्रयोग हुआ देखकर कुन्तीपुत्र अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा।
अर्जुन ने कहा ;- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! यह भार्गवास्त्रर का पराक्रम देखिये। समरांगण में किसी तरह इस अस्त्र को नष्ट नहीं किया जा सकता। ‘श्रीकृष्ण! क्रोध में भरा हुआ सूतपुत्र, जो पराक्रम में यमराज के समान है, महासमर में कैसा दारुण कर्म कर रहा है। ‘वह निरन्तर घोड़ों को हांकता हुआ बारंबार मेरी ही ओर देख रहा है। समरभूमि में कर्ण के सामने से पलायन करना मैं उचित नहीं समझता। ‘मनुष्य जीवित रहे तो वह युद्ध में विजय और पराजय दोनों पाता है। हृषीकेश! मरे हुए मनुष्य का नो नाश ही हो जाता है; फिर उसकी विजय कहाँ से हो सकती है’। अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने बुद्धिमानों में श्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुन से यह समयोचित बात कही। ‘पार्थ! कर्ण ने राजा युधिष्ठिर को अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। उनसे मिलकर उन्हें धीरज बंधाकर फिर तुम कर्ण का वध करना’।
प्रजानाथ! ऐसा कहकर वे पुन: युधिष्ठिर से मिलने की इच्छा से तथा कर्ण को युद्ध में अधिक थकावट प्राप्त कराने के लिये वहाँ से चल दिये। तत्पश्चात अर्जुन श्रीकृष्ण की आज्ञा से बाण पीड़ित राजा युधिष्ठिर देखने के लिये रथ के द्वारा युद्धस्थल से शीघ्रता पूर्वक गये। भारत! कुन्तीकुमार अर्जुन ने द्रोणपुत्र के साथ युद्ध करके रणभूमि में वज्रधारी इन्द्र के लिये भी दु:सह उस गुरुपुत्र को पराजित करने के पश्चात जाते समय धर्मराज को देखने की इच्छा से सारी सेना पर दृष्टिपात किया। परंतु वहाँ कहीं भी अपने बड़े भाई को नहीं देखा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्ण पर्व में युधिष्ठिर की खोज विषयक चौसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
पैसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पच्चष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन को युद्ध का भार सौंपकर श्रीकृष्ण और अर्जुन का युधिष्ठिर के पास जाना”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर उत्तम धनुष धारण करने वाले तथा शत्रुओं के लिये अजेय अर्जुन ने दूसरों के लिये दुष्कर वीरोचित कर्म करके अश्वत्थामा को हराकर फिर अपनी सेना का निरीक्षण किया। सव्यसाची शूरवीर अर्जुन युद्ध के मुहाने पर खड़े होकर युद्ध करने वाले अपने शूरवीर सैनिकों का हर्ष बढ़ाते हुए तथा पहले के प्रहारों से क्षत-विक्षत हुए अपने रथियों की पुरी-पुरी प्रशंसा करते हुए उन सबको अपनी सेना में स्थिरतापूर्वक स्थापित किया।
परंतु वहाँ अपने भाई अजमीढकुल-नन्दन युधिष्ठिर को न देखकर किरीटधारी अर्जुन ने बड़े वेग से भीमसेन के पास जा उनसे राजा का समाचार पूछते हुए कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘भैया! इस समय हमारे महाराज कहाँ हैं।
भीमसेन ने कहा ;- धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर यहाँ से हट गये हैं। कर्ण के बाणों से उनके सारे अंग संतप्त हो रहे हैं। सम्भव है, वे किसी प्रकार जी रहे हों।
अर्जुन बोले ;- यदि ऐसी बात है तो आप कुरुश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर का समाचार लाने के लिये शीघ्र ही यहाँ से जायं। निश्चय ही कर्ण के बाणों से अत्यन्त घायल होकर राजा शिविर में चले गये हैं। भैया भीमसेन! जो वेगशाली वीर युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के द्वारा किये गये प्रहारों तथा अत्यन्त तीखे बाणों से अच्छी तरह घायल किये जाने पर भी विजय की प्रतीक्षा में तब तक युद्धस्थल में डटे रहे, जब तक कि आचार्य द्रोण मारे नहीं गये। वे महानुभाव पाण्डव शिरोमणि आज कर्ण के द्वारा संग्राम में संशयापन्न अवस्था में डाल दिये गये हैं; अत: आप शीघ्र ही उनका समाचार जानने के लिये जाइये, मैं यहाँ शत्रुओं को रोके रहूंगा।
भीमसेन ने कहा ;- महानुभाव! तुम्हीं जाकर भरत कुल-भूषण नरेश का समाचार जानो। अर्जुन! यदि मैं यहाँ से जाऊंगा तो मेरे वीर शत्रु मुझे डरपोक कहेंगे। तब अर्जुन ने भीमसेन से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘भैया! संशप्तक गण मेरे विपक्ष में खड़े हैं। इन्हें मारे बिना आज मैं इस शत्रु समुदायरुपी गोष्ठ से बाहर नहीं जा सकता’। यह सुनकर भीमसेन ने अर्जुन से कहा,
भीमसेन ने कहा ;- ‘कुरुकुल श्रेष्ठ वीर धनंजय! मैं अपने ही बल का भरोसा करके संग्राम-भूमि में सम्पूर्ण संशप्तकों के साथ युद्ध करुंगा, तुम जाओ,।
संजय कहते हैं ;- राजन! शत्रुओं की मण्डली में अपने भाई भीमसेन का यह अत्यन्त दुष्कर वचन सुनकर कि ‘मैं अकेला ही असह्य संशप्तक सेना का सामना करूँगा' उदार हृदय वाले महात्मा कपिध्वज अर्जुन ने सत्यपराक्रमी भाई भीम के उस सत्य वचन को श्रवणगोचर करके उसे अप्रमेय, वृष्णिवंशा वतंस नारायणावतार भगवान श्रीकृष्ण को बताया और उस समय कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर का दर्शन करने की इच्छा से जाने को उद्यत हो इस प्रकार कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पच्चष्टितम अध्याय के श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन बोले ;- हृषीकेश! अब आप इस शत्रुसेनारुपी समुद्र को छोड़कर घोड़ों को यहाँ से हांक ले चलें। केशव! मैं अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर का दर्शन करना चाहता हूँ।
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर सम्पूर्ण दाशार्ह वंशियों में प्रधान भगवान श्रीकृष्ण अपने घोड़े हांकते हुए वहाँ भीमसेन से इस प्रकार बोले कुन्तीनन्दन भीम! आज यह पराक्रम तुम्हारे लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैं जा रहा हूँ। तुम शत्रु-समूहों का संहार करो’। राजन! यह कहकर भगवान हृषीकेश गरुड़ के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा शीघ्र से शीघ्र वहाँ जा पहुँचे, जहाँ राजा युधिष्ठिर विश्राम कर रहे थे।
राजेन्द्र! शत्रुओं का सामना करने के लिये शत्रुदमन वृकोदर भीमसेन को स्थापित करके और युद्ध के विषय में उन्हें पूर्वोक्त संदेश देकर वे दोनों पुरुष-शिरोमणि अकेले सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास जा रथ से नीचे उतरे और उन्होंने धर्मराज के चरणों में प्रणाम किया। पुरुषसिंह पुरुषप्रवर श्रीकृष्ण एवं अर्जुन को सकुशल देखकर तथा दोनों कृष्णों को इन्द्र के पास गये हुए अश्विनी कुमारों के समान प्रसन्नतापूर्वक अपने समीप आया जान राजा युधिष्ठिर ने उनका उसी तरह अभिनन्दन किया, जैसे सूर्य दोनों अश्विनीकुमारों का स्वागत करते हैं। अथवा जैसे महान असुर जम्भ के मारे जाने पर बृहस्पति ने इन्द्र और विष्णु का अभिनन्दन किया था।
शत्रुओं को संताप देने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने कर्ण को मारा गया मानकर हर्षगद्गद वाणी से प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप आरम्भ किया। सेना के अग्रभाग में युद्ध करने वाले पुरुषों में प्रमुख वीर विशाल एवं लाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन जब समीप आये, तब उनके सारे अंगों में बाण धंसे हुए थे। वे खून से लथपथ हो रहे थे; उन्हें देखकर युधिष्ठिर ने निम्नाकित रुप से बातचीत आरम्भ की। एक साथ आये हुए महान शक्तिशाली श्रीकृष्ण और अर्जुन को देखकर उन्हें यह पक्का विश्वास हो गया था कि गाण्डीवधारी अर्जुन ने युद्धस्थल में अधिरथपुत्र कर्ण को मार डाला है। भरतश्रेष्ठ! यही सोचकर कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने मुस्कराकर शत्रुसूदन श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए परम मधुर और सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा उन दोनों का अभिनन्दन किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में यधिष्ठिर के पास श्रीकृष्ण और अर्जुन का आगमन विषयक पैंसठवां अध्याय पूरा हुआ)
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