सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“नकुल-सहदेव के साथ दुर्योधन का युद्ध, धृष्टद्युम्न से दुर्योधन की पराजय, कर्ण द्वारा पांचाल सेना सहित योद्धाओं का संहार, भीमसेन द्वारा कौरव योद्धाओं का सेना सहित विनाश, अर्जुन द्वारा संशप्तकों का वध तथा अश्वत्थामा का अर्जुन के साथ घोर युद्ध करके पराजित होना”
संजय कहते हैं ;- राजन! पांचालों, चेदियों और केकयों से घिरे हुए भीमसेन को स्वयं वैकर्तन कर्ण ने बाणों द्वारा अवरुद्ध करके उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। तदनन्तर समरांगण में कर्ण ने भीमसेन के देखते-देखते चेदि, कारुष और सृंजय महारथियों का संहार आरम्भ कर दिया। तब भीमसेन ने भी रथियों में श्रेष्ठ कर्ण को छोड़कर जैसे आग घास फूंस को जलाती है, उसी प्रकार कौरव-सेना को दग्ध करने के लिये उस पर आक्रमण किया। सूतपुत्र कर्ण ने समरांगण में सहस्रों पांचाल, केकय तथा सृंजय योद्धाओं को, जो महाधनुर्धर थे, मार डाला। अर्जुन संशप्तकों की, भीमसेन कौरवों तथा कर्ण पांचालों की सेना में घुसकर युद्ध करते थे। इन तीनों महारथियों ने बहुत से शत्रुओं का संहार कर डाला। अग्नि के समान तेजस्वी इन तीनों वीरों द्वारा दग्ध होते हुए क्षत्रिय समरांगण में विनाश को प्राप्त हो रहे थे। राजन! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का फल है। भरतश्रेष्ठ तब दुर्योधन ने कुपित होकर नौ बाणों से नकुल तथा उनके चारों घोड़ों को घायल कर दिया। जनेश्वर! इसके बाद अमेय आत्मबल से सम्पन्न आपके पुत्र ने एक क्षुरप्र के द्वारा सहदेव की सुवर्णमयी ध्वजा काट डाली। राजन! तत्पश्चात समर-भूमि में आपके पुत्र को क्रोध में भरे हुए नकुल ने सात और सहदेव ने पांच बाण मारे। वे दोनों श्रेष्ठ वीर समस्त धनुर्धारियों में प्रधान थे। दुर्योधन ने कुपित होकर उन दोनों की छाती में पांच-पांच बाण मारे।
राजन! फिर सहसा उसने दो भल्लों से नकुल और सहदेव के धनुष काट डाले तथा उन दोनों को भी इक्कीस बाणों से घायल कर दिया। फिर वे दोनों वीर इन्द्रधनुष के समान सुन्दर दूसरे श्रेष्ठ धनुष लेकर युद्धस्थल में देवकुमारों के समान सुशोभित होने लगे। तत्पश्चात जैसे दो महामेघ किसी पर्वत पर जल की वर्षा करते हों, उसी प्रकार दोनों वेगशाली बन्धु नकुल और सहदेव भाई दुर्योधन पर युद्ध में भयंकर बाणों की वृष्टि करने लगे। महाराज! तब आपके महारथी पुत्र ने कुपित होकर उन दोनों महाधनुर्धर पाण्डुपुत्रों को बाणों द्वारा आगे बढ़ने से रोक दिया। भारत! उस समय केवल मण्डलाकार धनुष ही दिखायी देता था और उससे चारों ओर छूटने वाले बाण सूर्य की किरणों के समान सम्पूर्ण दिशाओं को ढके हुए दृष्टिगोचर होते थे। उस समय जब आकाश आच्छादित होकर बाणमय हो रहा था, तब नकुल और सहदेव ने आपके पुत्र का स्वरुप काल, अन्तक एवं यमराज के समान भयंकर देखा। आपके पुत्र का वह पराक्रम देखकर सब महारथी ऐसा मानने लगे कि माद्री के दोनों पुत्र मृत्यु के निकट पहुँच गये। राजन! तब पाण्डव-सेनापति द्रुपदपुत्र महारथी धृष्टद्युम्न जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ जा पहुँचे। महारथी शूरवीर माद्रीकुमार नकुल-सहदेव को लांघकर धृष्टद्युम्न ने अपने बाणों की मार से आपके पुत्र को रोक दिया। तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न आपके अमर्षशील पुत्र पुरुष-रत्न दुर्योधन ने हंसते हुए पच्चीस बाण मारकर धृष्टद्युम्न को घायल कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-45 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर अमेय आत्मबल से सम्पन्न आपके अमर्षशील पुत्र ने पैंसठ बाणों से धृष्टद्युम्न को घायल करके बड़े जोर से गर्जना की। आर्य! फिर राजा दुर्योधन ने युद्धस्थल में एक तीखे क्षुरप्र से धृष्टद्युम्न के बाणसहित धनुष और दस्ताने को भी काट दिया। शत्रुसूदन धृष्टद्युम्न ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर वेगपूर्वक दूसरा धनुष हाथ में ले लिया, जो भार सहने में समर्थ और नवीन था। उस समय उनकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थी। सारे शरीर में घाव हो रहे थे; अत: वे महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न वेग से जलते हुए अग्नि देव के समान शोभा पा रहे थे। धृष्टद्युम्न ने भरतश्रेष्ठ दुर्योधन को मार डालने की इच्छा से उसके ऊपर फुफकारते हुए सर्पों के समान पंद्रह नाराच छोड़े। शिला पर तेज किये हुए कंकड और मयूर के पंखों से युक्त वे बाण राजा दुर्योधन के सुवर्णमय कवच को छेदकर बड़े वेग से पृथ्वी में समा गये। महाराज! उस समय अत्यन्त घायल हुआ आपका पुत्र वसन्त ऋतु में खिले हुए महान पलाश वृक्ष के समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। उसका कवच कट गया था और शरीर नाराचों के प्रहार से जर्जर कर दिया गया था। उस अवस्था में उसने कुपित होकर एक भल्ल से धृष्टद्युम्न के धनुष को काट डाला।
राजन! धनुष कट जाने पर धृष्टद्युम्न की दोनों भौहों के साथ मध्य भाग में राजा दुर्योधन ने तुरंत ही दस बाणों का प्रहार किया। कारीगर के द्वारा साफ किये गये वे बाण धृष्टद्युम्न के मुख की ऐसी शोभा बढ़ाने लगे, मानो मधुलो भी भ्रमर प्रफुल्ल कमल-पुष्प का रसास्वादन कर रहे हों। महामना धृष्टद्युम्न ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर बड़े वेग से दूसरे धनुष और सोलह भल्ल हाथ में ले लिये। उनमें पांच भल्लों द्वारा दुर्योधन के सारथि और घोड़ों को मारकर एक भल्ल से उसके सुवर्ण-भूषित धनुष को काट डाला। तत्पश्चात दस भल्लों से द्रुपदकुमार ने आपके पुत्र के सब सामग्रियों सहित रथ, छत्र, शक्ति, खड्ग, गदा और ध्वज काट दिये। समस्त राजाओं ने देखा कि कुरुराज दुर्योधन का सोने के अंगदों से विभूषित नाग-चिह्न युक्त विचित्र, मणिमय एवं सुन्दर ध्वज कटकर धराशायी हो गया है। भरतश्रेष्ठ! रणभूमि में जिसके कवच और आयुध छिन्न भिन्न हो गये थे, उस रथहीन दुर्योधन की उसके सगे भाई सब ओर से रक्षा करने लगे। राजन! इसी समय दण्डधार धृष्टद्युम्न के देखते-देखते राजा दुर्योधन को अपने रथ पर बिठाकर बिना किसी घबराहट के रणभूमि से दूर हटा ले गया। राजा दुर्योधन का हित चाहने वाला महाबली कर्ण सात्यकि को परास्त करके रणभूमि में भयंकर बाण धारण करने वाले द्रोणहन्ता धृष्टद्युम्न के सामने गया।
उस समय शिनिपौत्र सात्यकि अपने बाणों से कर्ण को पीड़ा देते हुए तुरंत उसके पीछे-पीछे गये, मानो कोई गजराज अपने दोनों दांतों से दूसरे गजराज की जांघों में चोट पहुँचाता हुआ उसका पीछा कर रहा था। भारत! कर्ण और धृष्टद्युम्न के बीच में खड़े हुए आपके महामनस्वी योद्धाओं का पाण्डव सैनिकों के साथ महान संग्राम हुआ। उस समय पाण्डवों तथा हम लोगों में से कोई भी योद्धा युद्ध से मुंह फेर कर पीछे हटता नहीं दिखायी दिया। तब कर्ण ने तुरंत ही पांचालों पर आक्रमण किया। नरश्रेष्ठ नरेश्वर! मध्याह्न की वेला में दोनों पक्षों के हाथी, घोड़ों और मनुष्यों का संहार होने लगा। महाराज! विजय की इच्छा रखने वाले समस्त पांचाल योद्धा कर्ण पर उसी प्रकार टूट पड़े, जैसे पक्षी वृक्ष की ओर उड़े जाते हैं। अधिरथपुत्र कर्ण कुपित हो विजय के लिये प्रयत्नशील, मनस्वी एवं अग्रगामी वीरों को मानो चुन-चुनकर बाण- समूहों द्वारा मारने लगा। वह व्याघ्रकेतु, सुशर्मा, चित्र, उग्रायुध, जय, शुक्ल, रोचमान और दुर्जय वीर सिंहसेन पर जा चढ़ा। उन सभी वीरों ने रथ-मार्ग से आकर युद्धभूमि में शोभा पाने तथा कुपित होकर बाणों की वर्षा करने वाले नरश्रेष्ठ कर्ण को चारों ओर से घेर लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय सम्पूर्ण श्लोक 46-70 का हिन्दी अनुवाद)
नरेन्द्र! प्रतापी राधापुत्र कर्ण ने दूर से युद्ध करने वाले उन आठों वीरों को आठ पैने बाणों से घायल कर दिया। महाराज! तदनन्तर प्रतापी सूतपुत्र ने कई हजार युद्ध कुशल योद्धओं को मार डाला। राजन! तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए कर्ण ने समरांगण में जिष्णु, जिष्णुकर्मा, देवापि, भद्र, दण्ड, चित्र, चित्रायुध, हरि, सिंहकेतु, रोचमान तथा महारथी शलभ- इन चेदिदेशीय महारथियों का संहार कर डाला। इन वीरों के प्राण लेते समय रक्त से भीगे अंगों वाले सूतपुत्र कर्ण का शरीर प्राणियों का संहार करने वाले भगवान रुद्र के विशाल शरीर की भाँति देदीप्यमान हो रहा था। भारत! वहाँ कर्ण के बाणों से घायल हुए हाथी विशाल सेना को व्याकुल करते हुए भयभीत ही चारों ओर भागने लगे। कर्ण के बाणों से आहत होकर समरांगण में नाना प्रकार के आर्तनाद करते हुए वज्र के मारे हुए पर्वतों के समान धराशायी हो रहे थे। सूतपुत्र कर्ण के रथ के मार्ग में सब ओर गिरते हुए हाथियों, घोड़ों मनुष्यों और रथों के द्वारा वहाँ सारी पृथ्वी वहाँ सारी पृथ्वी पट गयी थी। कर्ण ने उस समय रणभूमि में जैसा पराक्रम किया था, वैसा न तो भीष्म, न द्रोणाचार्य और न आपके दूसरे कोई योद्धा ही कर सके थे।
महाराज! सूतपुत्र ने हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल मनुष्यों दल में घुसकर बड़ा भारी संहार मचा दिया था। जैसे सिंह मृगों के झुंड में निर्भय विचरता दिखायी देता है, उसी प्रकार कर्ण पांचालों की सेना में निर्भीक के समान विचरण करता था। जैसे भयभीत हुए मृगसमूहों को सिंह सब ओर खदेड़ता है, उसी प्रकार कर्ण पांचालों के रथसमूहों को भगा रहा था। जैसे मृग सिंह के मुख के समीप पहुँचकर जीवित नहीं बचते, उसी प्रकार पांचाल महारथी कर्ण के निकट पहुँचकर जीवित नहीं रह पाते थे। भरतनन्दन! जैसे जलती आग में पड़ जाने पर सभी मनुष्य दग्ध हो जाते है, उसी प्रकार सृंजय-सैनिक रणभूमि में से कर्णरुपी अग्नि से जलकर भस्म हो गये। भारत! कर्ण ने चेदि, केकय और पांचाल योद्धाओं में से बहुत से शूरसम्मत रथियों को नाम सुनाकर मार डाला। राजन! कर्ण का पराक्रम देखकर मेरे मन में यही निश्चय हुआ कि युद्धस्थल में एक पांचाल योद्धा सूतपुत्र के हाथ से जीवित नहीं छूट सकता; क्योंकि सूतपुत्र बारंबार युद्धस्थल में पांचालों का ही विनाश कर रहा था।
उस महासमर में कर्ण को पांचालों का संहार करते देख धर्मराज युधिष्ठिर ने अत्यन्त कुपित होकर उस पर धावा बोल दिया। आर्य! धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र तथा दूसरे सैकड़ों मनुष्य शत्रुनाशक राधापुत्र कर्ण को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। शिखण्डी, सहदेव, नकुल, शतानीक, जनमेजय, सात्यकि तथा बहुत से प्रभद्रकगण ये सभी अमित तेजस्वी वीर युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न के आगे होकर बाण बरसाने वाले कर्ण पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए विचरने लगे। सूतपुत्र ने समरांगण में अकेला होने पर भी जैसे गरुड़ अनेक सर्पों पर एक साथ आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार बहुसंख्यक, चेदि, पांचाल और पाण्डवों पर आक्रमण किया। प्रजानाथ! उन सबके साथ कर्ण का वैसा ही भयानक युद्ध हुआ, जैसा पूर्वकाल में देवताओं का दानवों के साथ हुआ था। जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण अन्धकार-राशि को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार एक ही कर्ण ने ढेर-के-ढेर बाण-वर्षा करने वाले उन समस्त महाधनुर्धरों को बिना किसी व्यग्रता के नष्ट कर दिया। जिस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डवों के साथ उलझा हुआ था, उसी समय महाधनुर्धर भीमसेन क्रोध में भरकर यमदण्ड के समान भयंकर बाणों द्वारा बाह्लीक, केकय, मत्स्य, वसातीय, मद्र तथा सिंधुदेशीय सैनिकों का सब ओर से संहार कर रहे थे। वे युद्धभूमि में अकेले ही इन सबके साथ युद्ध करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 71-90 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ भीमसेन के नाराचों द्वारा मर्मस्थानों में घायल हुए हाथी सवारों हित धराशायी हो इस पृथ्वी को कम्पित कर देते थे। जिनके सवार मारे गये थे, वे घोड़े और पैदल सैनिक भी युद्धस्थल में छिन्न-भिन्न हो मुंह से बहुत सा रक्त वमन करते हुए प्राणशून्य होकर पड़े थे। सहस्त्रों रथी रथ से नीचे गिरा दिये गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र भी गिर चुके थे। वे सब के सब क्षत-विक्षत ही भीमसेन के भय से भीत एवं प्राणहीन दिखायी दे रहे थे। भीमसेन के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए रथियों, घुड़सवारों, सारथियों, पैदलों,घोड़ों और हाथियों की लाशों से वहाँ की धरती आच्छादित हो गयी थी। उस महासमर में दुर्योधन की सारी सेना भीमसेन के भय से पीड़ित हो स्तब्ध सी खड़ी थी। उत्साह शून्य, घायल, निश्चेष्ट, भयंकर और अत्यन्त दीन सी प्रतीत होती थी। नरेश्वर! जिस समय ज्वार न उठने से जल स्वच्छ एवं शान्त हो, उस समय जैसे समुद्र निश्चल दिखायी देता है, उसी प्रकार आपकी सारी सेना निश्चेष्ट खड़ी थी।
यद्यपि आपके सैनिकों में क्रोध, पराक्रम और बल की कमी नहीं थी तो भी घमंड चूर-चूर हो गया था; इसलिये उस समय आपके पुत्र की वह सारी सेना तेजोहीन-सी प्रतीत होती थी। भरतश्रेष्ठ। परस्पर मार खाती हुई वह सेना रक्त के प्रवाह में डूबकर खून से लथपथ हो गयी थी और एक दूसरे की चोट खाकर विनाश को प्राप्त हो रही थी। सूतपुत्र कर्ण रणभूमि में कुपित हो पाण्डव सेना को और भीमसेन कौरव-सैनिकों को खदेड़ते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। जब इस प्रकार अद्भुत दिखायी देने वाला वह भंयकर संग्राम चल ही रहा था, उस समय दूसरी और विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन सेना के मध्य भाग में बहुत से संशप्तकों का संहार करके भगवान श्रीकृष्ण से बोले,
अर्जुन ने कहा ;- ‘जनार्दन! युद्ध करती हुई इस संशप्तक-सेना के पांव उखड़ गये हैं। ये संशप्तक महारथी अपने-अपने दल के साथ भागे जा रहे हैं। जैसे मृग सिंह की गर्जना सुनकर हतोत्साह हो जाते हैं, उसी प्रकार ये लोग मेरे बाणों की चोट सहन करने में असमर्थ हो गये हैं।
उधर वह सृंजयों की विशाल सेना भी महासमर में विदीर्ण हो रही है। श्रीकृष्ण वह हाथी की रस्सी के चिह्न से युक्त बुद्धिमान कर्ण का ध्वज दिखायी दे रहा है। वह राजाओं की सेना के बीच सानन्द विचरण कर रहा है। जनार्दन! आप तो जानते ही हैं कि कर्ण कितना बलवान तथा पराक्रम प्रकट करने में समर्थ हैं। अत: रणभूमि में दूसरे महारथी उसे जीत नहीं सकते हैं। श्रीकृष्ण! जहाँ यह कर्ण हमारी सेना को खदेड़ रहा है, वहीं चलिये। रणभूमि में संशप्तकों को छोड़कर अब महारथी सूतपुत्र के ही पास रथ ले चलिये। मुझे यही ठीक जान पड़ता है अथवा आपको जैसा जंचे, वैसा कीजिये'। अर्जुन की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे हंसते हुए से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पाण्डुनन्दन! तुम शीघ्र ही कौरव सैनिकों का संहार करो’ राजन! तदनन्तर श्रीकृष्ण के द्वारा हांके गये हंस के समान श्वेत रंग वाले घोड़े श्रीकृष्ण और अर्जुन को लेकर आपकी विशाल सेना में घुस गये। श्रीकृष्ण द्वारा संचालित हुए उन सुवर्णभूषित श्वेत अश्वों के प्रवेश करते ही आपकी सेना में चारों ओर भगदड़ मच गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 91-110 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
जैसे कोई विमान स्वर्गलोक में प्रवेश कर रहा हो, उसी प्रकार चंचल पताकाओं से युक्त वह कपिध्वज रथ मेघों की गर्जना के समान घोष करता हुआ उस सेना में जा घुसा। उस विशाल सेना को विदीर्ण करके उसके भीतर प्रविष्ट हुए वे दोनों श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने महान तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उनके मन में शत्रुओं के प्रति क्रोध भरा हुआ था और उनकी आंखें रोष से लाल हो रही थीं। जैसे यज्ञ में ऋुत्विजों द्वारा विधिपूर्वक आवाहन किये जाने पर दोनों अश्विनीकुमार नामक देवता पदार्पण करते हैं, उसी प्रकार युद्धनिपुण वे श्रीकृष्ण और अर्जुन भी मानो आह्वान किये जाने पर रणयज्ञ में पधारे थे। जैसे विशाल वन में ताली की आवाज से कुपित हुए दो हाथी दौड़े आ रहे हों, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए वे दोनों पुरुषसिंह बड़े वेग से बढ़े आ रहे थे।
अर्जुन रथसेना और घुड़सवारों के समूह में घुसकर पाशधारी यमराज के समान कौरव-सेना के मध्य भाग में विचरने लगे। भारत! युद्ध मे पराक्रम प्रकट करने वाले अर्जुन को आपकी सेना में घुसा हुआ देख आपके पुत्र दुर्योधन ने पुन: संशप्तगणों को उन पर आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया। महाराज! तब एक हजार रथ, तीन सौ हाथी, चौदह हजार घोड़े और लक्ष्य वेध में निपुण, सर्वत्र विख्यात एवं शौर्यसम्पन्न दो लाख पैदल सैनिक साथ लेकर संशप्तक महारथी कुन्तीकुमार पाण्डुनन्दन अर्जुन को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करते हुए उन पर चढ़ आये। उस समय समरांगण में उनके बाणों से आच्छादित होते हुए शत्रुसैन्यसंहारक कुन्तीकुमार अर्जुन पाशधारी यमराज के समान अपना भंयकर रुप दिखाते और संशप्तकों का वध करते हुए अत्यन्त दर्शनीय हो रहे थे। तदनन्तर किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए विद्युत के समान प्रकाशमान सुवर्णभूषित बाणों द्वारा आच्छादित हो आकाश ठसाठस भर गया।
प्रभो! किरीटधारी अर्जुन की भुजाओं से छूटकर सब ओर गिरने वाले बड़े-बड़े बाणों से आवृत होकर वहाँ का सारा प्रदेश सर्पों से व्याप्त सा प्रतीत हो रहा था। अमेय आत्मबल से सम्पन्न पाण्डुनन्दन अर्जुन सम्पूर्ण दिशाओं में सुवर्णमय पंख, स्वच्छ धार और झुकी हुई गांठ वाले बाणों की वर्षा कर रहे थे। वहाँ सब लोग यही समझने लगे कि ‘अर्जुन के तल शब्द (हथेली की अवाज) से पृथ्वी, आकाश, सम्पूर्ण दिशाएं समुद्र और पर्वत भी फटे जा रहे हैं। महारथी कुन्तीकुमार अर्जुन सबके देखते-देखते दस हजार संशप्तक नरेशों का वध करके तुरंत आगे बढ़ गये। जैसे इन्द्र ने दानवों का विनाश किया था, उसी प्रकार अर्जुन ने हमारी आंखों के सामने काम्बोजराज के द्वारा सुरक्षित सेना के पास पहुँचकर अपने बाणों द्वारा उसका संहार कर डाला। वे अपने भल्ल के द्वारा आततायी शत्रुओं के शस्त्र, हाथ, भुजा तथा मस्तकों को बड़ी फुर्ती से काट रहे थे। जैसे सब ओर से उठी हुई आंधी के उखाड़े हुए अनेक शाखाओं वाले वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार अपने शरीर का एक-एक अवयव कट जाने से शस्त्रहीन शत्रु भूतल पर गिर पड़ते थे। तब हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों के समूहों का संहार करने वाले अर्जुन पर काम्बोजराज सुदक्षिण का छोटा भाई अपने बाणों की वर्षा करने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 111-147 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय अर्जुन ने बाण-वर्षा करने वाले उस वीर की परिघ के समान मोटी और सुदृढ़ भुजाओं को दो अर्धचन्द्राकार बाणों से काट डाला और एक छुरे के द्वारा पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाले उसके मस्तक को भी धड़ से अलग कर दिया। फिर तो वह रक्त का झरना-सा बहाता हुआ अपने वाहन से नीचे गिर पड़ा, मानो मैनसिल के पहाड़ का शिखर वज्र से विदीर्ण होकर भूतल पर आ गिरा हो। उस समय सब लोगों ने देखा कि सुदक्षिण का छोटा भाई काम्बोजदेशीय वीर जो देखने में अत्यन्त प्रिय, कमल-दल के समान नेत्रों से सुशोभित तथा सोने के खम्भे के समान ऊंचा कद का था, मारा जाकर विदीर्ण हुए सुवर्णमय पर्वत के समान धरती पर पड़ा है। तदनन्तर पुन: अत्यन्त घोर एवं अद्भुत युद्ध होने लगा। वहाँ युद्ध करते हुए योद्धाओं की विभिन्न अवस्थाएं प्रकट होने लगीं।
प्रजानाथ! अर्जुन के एक-एक बाण से मारे गये रक्तरंजित काबुली घोड़ों, यवनों और शकों के खून से वह सारा युद्धस्थल लाल हो गया था। रथों के घोड़े और सारथि, घोड़ों के सवार, हाथियों के आरोही, महावत और स्वयं हाथी भी मारे गये। महाराज! इन सबने परस्पर प्रहार करके घोर जनसंहार मचा दिया था। उस युद्ध में जब सव्यसाची अर्जुन ने शत्रुओं के पक्ष और प्रपक्ष दोनों को मार गिराया, तब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को हिलाता और अपनी किरणों को धारण करने वाले सूर्यदेव के समान भयंकर बाण हाथ में लेता हुआ तुरंत विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन के सामने आ पहुँचा। उस समय क्रोध और अमर्ष से उसका मुंह खुला हुआ था, नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे तथा वह बलवान अश्वत्थामा अन्तकाल में किंकर नामक दण्ड धारण करने वाले कुपित यमराज के समान जान पड़ता था। महाराज! तत्पश्चात वह समूह-के-समूह भयंकर बाणों की वर्षा करने लगा। उसके छोड़े हुए बाणों से व्यथित हो पाण्डव सेना भागने लगी। माननीय प्रजानाथ! वह रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण की ओर देखकर ही पुन: उनके ऊपर भयानक बाणों की वृष्टि करने लगे। महाराज अश्वत्थामा के हाथों से छूटकर सब ओर गिरने वाले उन बाणों से रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही ढक गये। तत्पश्चात प्रतापी अश्वत्थामा ने सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को युद्धस्थल में निश्चेष्ट कर दिया। चराचर जगत की रक्षा करने वाले उन दोनों वीरों को बाणों से आच्छादित हुआ देख स्थावर-जगम समस्त प्राणी हाहाकार कर उठे। सिद्धों और चारणों के समुदाय सब ओर से वहाँ आ पहुँचे और यह चिन्तन करने लगे कि ‘आज सम्पूर्ण जगत् का कल्याण हो’।
राजन! समरांगण में श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों द्वारा आच्छादित करने वाले अश्वत्थामा का जैसा पराक्रम उस दिन देखा गया, वैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। महाराज! मैंने रणभूमि में अश्वत्थामा के धनुष की शत्रुओं को भयभीत कर देने वाली टंकार बारंबार सुनी, मानो किसी सिंह के दहाड़ने की आवाज हो रही हो। जैसे मेघों की घटा के बीच में बिजली चमकती है, उसी प्रकार युद्ध में दायें-बायें बाण वर्षापूर्वक विचरते हुए अश्वत्थामा के धनुष की प्रत्यंचा भी प्रकाशित हो रही थी। युद्ध में फुर्ती करने और दृढ़तापूर्वक हाथ चलाने वाले महायशस्वी पाण्डुनन्दन अर्जुन द्रोणकुमार की ओर देखकर भारी मोह में पड़ गये और अपने पराक्रम को प्रतिहत हुआ मानने लगे। राजन! उस समरांगण में अश्वत्थामा के शरीर की ओर देखना भी अत्यन्त कठिन हो रहा था। राजेन्द्र! इस प्रकार अश्वत्थामा और अर्जुन में महान युद्ध आरम्भ होने पर जब महाबली द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्तीकुमार अर्जुन का पराक्रम मन्द पड़ने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण को बड़ा क्रोध हुआ। राजन! वे रोष से लंबी सांस खींचते और अपने नेत्रों द्वारा दग्ध सा करते हुए युद्धस्थल में अश्वत्थामा और अर्जुन की ओर बारंबार देखने लगे। तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए श्रीकृष्ण उस समय अर्जुन से प्रेमपूर्वक बोले- ‘पार्थ! युद्धस्थल में तुम्हारा यह अपेक्षायुक्त अद्भुत बर्ताव देख रहा हूँ। भारत! आज द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तुम से सर्वथा बढ़ता जा रहा है। अर्जुन! तुम्हारी शारीरिक शक्ति पहले के समान ही ठीक है न अथवा तुम्हारी भुजाओं में पूर्ववत बल तो है न तुम्हारे हाथ में गाण्डीव धनुष तो है न और तुम रथ पर ही खड़े हो न। क्या तुम्हारी दोनों भुजाएं सकुशल हैं तुम्हारी मुट्टी तो ढीली नहीं हो गयी है अर्जुन! मैं देखता हूँ कि युद्ध स्थल में अश्वत्थामा तुम से बढ़ा जा रहा है। भरतश्रेष्ठ! कुन्तीनन्दन! यह मेरे गुरु का पुत्र है, ऐसा मानकर तुम इसके प्रति उपेक्षा भाव न करो। यह समय उपेक्षा करने का नहीं है’
भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन के चौदह भल्ल हाथ में लेकर शीघ्रता करने के अवसर पर फुर्ती दिखायी और अश्वत्थामा के धनुष को काट डाला। साथ ही उसके ध्वज, छत्र, पताका, खड्ग, शक्ति और गदा के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तदनन्तर अश्वत्थामा के गले की हंसली पर ‘वत्सदन्त’ नामक बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! उस आघात से भारी मूर्छा में पड़कर अश्वत्थामा ध्वजदण्ड के सहारे लुढ़क गया। शत्रु से अत्यन्त पीड़ित एवं अचेत हुए अश्वत्थामा को उसका सारथि अर्जुन से उसकी रक्षा करता हुआ रणभूमि से दूर हटा ले गया। भारत! इसी समय शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने आपकी सेना के सैकड़ों और हजारों योद्धाओं को आपके वीर पुत्र के देखते-देखते मार डाला। राजन! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरुप शत्रुओं के साथ आपके योद्धाओं का यह विनाशकारी, भयंकर एवं क्रूरतापूर्ण संग्राम हुआ। उस समय रणभूमि में कुन्तीकुमार अर्जुन ने संशप्तकों का, भीमसेन ने कौरवों का और कर्ण ने पांचाल सैनिकों का क्षणभर में संहार कर डाला। राजन! जब बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला वह भीषण संग्राम हो रहा था, उस समय चारों ओर असंख्य कबन्ध खड़े दिखायी देते थे। भरतश्रेष्ठ! संग्राम में युधिष्ठिर पर बहुत अधिक प्रहार किये गये थे, जिससे उन्हें गहरी वेदना हो रही थी। वे रणभूमि से एक कोस दूर हटकर खड़े थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्ध विषयक छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का सैनिकों को प्रोत्साहन देना और अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा”
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठा! तदनन्तर दुर्योधन कर्ण के पास जाकर मद्रराज शल्य तथा अन्य राजाओं से बोला,
दुर्योधन बोला ;- ‘कर्ण! यह स्वर्ग का खुला हुआ द्वाररुप युद्ध बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुआ है। ऐसे युद्ध को सुखी क्षत्रिय-गण ही पाते हैं। ‘राधानन्दन! अपने समान बलवाल शूरवीर क्षत्रियों के साथ रणभूमि में जूझने वाले शूरवीरों को जो अभीष्ट होता है, वही यह संग्राम हमारे सामने उपस्थित है। ‘तुम सब लोग युद्धस्थल में पाण्डवों का वध करके भूतल का समृद्धिशाली राज्य प्राप्त करोगे अथवा शत्रुओं द्वारा युद्ध में मारे जाकर वीरगति पाओगे’। दुर्योधन की वह बात सुनकर क्षत्रिय शिरोमणि वीर हर्ष में भरकर सिंहनाद करने और सब प्रकार के बाजे बजाने लगे।
तदनन्तर आनन्द मग्न हुई दुर्योधन की उस सेना में अश्वत्थामा ने आपके योद्धाओं का हर्ष बढ़ाते हुए कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘समस्त सैनिकों के सामने आप लोगों के देखते-देखते जिन्होंने हथियार डाल दिया था, उन मेरे पिता को धृष्टद्युम्न ने मार गिराया था। ‘राजाओ! उससे होने वाले अमर्ष के कारण तथा मित्र दुर्योधन के कार्य की सिद्धि के लिये मैं आप लोगों से सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, आप लोग मेरी यह बात सुनिये। ‘मैं धृष्टद्युम्न को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारुंगा। यदि यह मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो जाय तो मुझे स्वर्गलोक की प्राप्ति न हो। ‘अर्जुन और भीमसेन आदि जो योद्धा रणभूमि में धृष्टद्युम्न की रक्षा करेगा, उसे मैं युद्धस्थल में अपने बाणों द्वारा मार डालूंगा।
अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर सारी कौरव सेना एक साथ होकर कुन्तीपुत्रों के सैनिकों पर टूट पड़ी तथा पाण्डवों ने भी कौरवों पर धावा बोल दिया। राजन! रथ यूथपतियों का वह संघर्ष बड़ा भयंकर था। कौरवों और सृंजयों के आगे प्रलयकाल के समान जनसंहार आरम्भ हो गया था। तदनन्तर युद्धस्थल में जब भीषण मार-काट होने लगी, उस समय देवताओं तथा अप्सराओं सहित समस्त प्राणी उन नरवीरों को देखने की इच्छा से एकत्र हो गये थे। रणभूमि में अपने कर्म का ठीक-ठीक भार वहन करने वाले मनुष्यों में श्रेष्ठ प्रमुख वीरों पर हर्ष में भरी हुई अप्सराएं दिव्य हारों, भाँति-भाँति के सुगन्धित पदार्थों एवं नाना प्रकार के दिव्य रत्नों की वर्षा करती थीं। वायु उन सुगन्धों को ग्रहण करके समस्त श्रेष्ठ योद्धाओं की सेवा में लग जाती थी और उस वायु से सेवित योद्धा एक दूसरे को मारकर धराशायी हो जाते थे। दिव्य मालाओं तथा सुवर्णमय पंखवाले विचित्र बाणों से आच्छादित और श्रेष्ठ योद्धाओं से विचित्र शोभा को प्राप्त हुई वह रणभूमि नक्षत्र समूहों से चित्रित आकाश के समान सुशोभित हो रही थी। तत्पश्चात आकाश से भी साधुवाद एवं वाद्यों की ध्वनि आने लगी, जिससे प्रत्यंचा की टंकारों और रथों के पहियों के घर्घर शब्दों से युक्त वह संग्राम अधिक कोलाहलपूर्ण हो उठा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वत्थाेमा की प्रतिज्ञाविषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अट्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर के पास चलने का आग्रह तथा श्रीकृष्ण का उन्हें युद्धभूमि दिखाते और वहाँ का समाचार बताते हुए रथ को आगे बढ़ाना”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार अर्जुन, कर्ण एवं पाण्डुपुत्र भीमसेन के कुपित होने पर राजाओं का वह संग्राम उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। नरेश्वर! द्रोणपुत्र तथा अन्यान्य महारथियों को हराकर और उन पर विजय पाकर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! देखिये, वह पाण्डव सेना भागी जा रही है तथा कर्ण समरांगण में बड़े-बड़े महारथियों को काल के गाल में भेज रहा है। ‘दशार्ह! इस समय मुझे धर्मराज युधिष्ठिर नहीं दिखायी दे रहे है। योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! धर्मराज के ध्वज का भी दर्शन नहीं हो रहा है। ‘जनार्दन! इस सम्पू्र्ण दिन के ये तीन भाग ही शेष रह गये हैं। दुर्योधन की सेनाओं में से कोई भी मेरे साथ युद्ध नहीं कर रहा है। ‘अत: आप मेरा प्रिय करने के लिये वहीं चलिये, जहाँ राजा युधिष्ठिर हैं। वार्ष्णेय! भाइयों सहित धर्मपुत्र यधिष्ठिर को युद्ध में सकुशल देखकर मैं पुन: समरांगण में शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा’।
तदनन्तर अर्जुन ने कथनानुसार श्रीकृष्ण तुरंत ही रथ के द्वारा उसी ओर चल दिये, जहाँ राजा युधिष्ठिर और सृंजय महारथी मौजूद थे। वे मृत्यु को ही युद्ध से निवृत होने का निमित्त बनाकर आपके योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। तदनन्तर जहाँ वह भारी जनसंहार हो रहा था, उस संग्रामभूमि को देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण सव्यसाची अर्जुन ने इस प्रकार बोले ‘कुन्तीे नन्दन! देखो, दुर्योधन के कारण भरतवंशियों का तथा भूमण्डल के अन्य क्षत्रियों का महाभयंकर विनाश हो रहा है। ‘भरत नन्दणन! देखो, मरे हुए धनुर्धरों के ये सोने के पृष्ठ भागवाले धनुष और बहुमूल तरकस फेंके पड़े हैं। ‘सुवर्णमय पंखों से युक्त झुकी हुई गांठवाले बाण तथा तेल में धोये हुए नाराच केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान दिखायी दे रहे हैं। ‘भारत! हाथी के दांत की बनी हुई मूँठवाले सुवर्ण जटित खड्ग तथा स्वर्णभूषित कवच भी फेंके पड़े हैं। ‘देखो, ये सुवर्णमय प्रास, स्वर्णभूषित शक्तियाँ तथा सोने के बने हुए पत्रों से मढ़ी हुई विशाल गदाएं पड़ी हैं। ‘स्वर्णमयी ऋष्टि, हेमभूषित पट्टिश तथा सुवर्णजटित दण्डों से युक्त फरसे फेंके हुए हैं। ‘लोहे के कुन्तु (भाले), भारी मूसल, विचित्र शतघ्नियां और विशाल परिघ इधर-उधर पड़े हैं। ‘इस महासमर में फेंके गये इन चक्रों और तोमरों को भी देखो। विजय की अभिलाषा रखने वाले वेगशाली योद्धा नाना प्रकार के शस्त्रों को हाथ में लिये हुए ही अपने प्राण खो बैठे हैं; तथापि जीवित से दिखायी देते हैं। ‘देखो, सहस्रों के शरीर गदाओं के आघात से चूर-चूर हो रहे हैं। मूसलों की मार से उनके मस्तक फट गये हैं तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से वे कुचल दिये गये हैं।
‘शत्रुसूदन! बाण, शक्ति, ऋष्टि, पदिृश, लोहमय परिघ, भयंकर लोह निर्मित कुन्त और फरसों से मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के बहुसंख्यक शरीर छिन्न-भिन्न होकर खून से लथपथ और प्राणशून्य हो गये हैं और उनके द्वारा रणभूमि आच्छादित दिखायी देती हैं। ‘भारत! चन्दन चर्चित, अंगदों और केयूरों से अलंकृत, सोने के अन्य आभूषणों से विभूषित तथा दस्तानों से युक्त वीरों की कटी हुई भुजाओं से युद्ध भूमि की अद्भुत शोभा हो रही है। ‘सांड के समान नेत्रों वाले वेगशाली वीरों के दस्ताजनों सहित आभूषण-भूषित हाथ कटकर गिरे हैं। हाथियों के शुण्डा दण्डों के समान मोटी जांघें खण्डित होकर पड़ी हैं तथा श्रेष्ठ चूड़ामणि धारण किये कुण्डल-मण्डित मस्तक भी धड़ से अलग होकर पड़े हैं। इन सबके द्वारा रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 24--52 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! जिनकी गर्दन कट गयी है, विभिन्न अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं तथा जो खून से लथपथ होकर लाल दिखायी देते हैं, उन कबन्धों (धड़ों) से रणभूमि ऐसी जान पड़ती हैं, मानो वहाँ जगह-जगह बुझी हुई लपटों वाले आग के अंगारे पड़े हों। ‘देखो, जिनमें सोने की छोटी-छोटी घंटियां लगी हैं, ऐसे बहुत-से सुन्दंर रथ टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े हैं। वे बाणों से घायल हुए घोड़े भरे पड़े हैं और उनकी आंतें बाहर निकल आयी हैं। ‘अनुकर्ष, उपासग, पताका, नाना प्रकार के ध्वज तथा रथियों के बड़े-बड़े श्वेत शंख बिखरे पड़े हैं। ‘जिनकी जीभें बाहर निकल आयी हैं, ऐसे अगणित पर्वताकार हाथी धरती पर सदा के लिये सो गये हैं। विचित्र वैजयन्ती पताकांए खण्डित होकर पड़ी हैं तथा हाथी और घोड़े मारे गये हैं। ‘हाथियों के विचित्र झूल, मृगचर्म और कम्बाल चिथड़े-चिथड़े होकर गिरे हैं। चांदी के तारों से चित्रित झूल, अंकुश और अनेक टुकड़ों में बंटे हुए बहुत से घंटे महान गजराजों के साथ ही धरती पर गिर पड़े हैं। ‘जिनमें वैदूर्यमणि के डंडे लगे हुए हैं, ऐसे बहुत से सुन्दर अंकुश पृथ्वी पर पड़े हैं। सवारों के हाथों में सटे हुए कितने ही सुवर्णनिर्मित कोड़े कटकर गिरे हैं। ‘विचित्र मणियों से जटित और सोने के तारों से विभूषित रकुमृग के चमड़े के बने हुए, घोड़ों की पीठ पर बिछाये जाने वाले बहुत से झूल भूमि पर पड़े हैं। ‘नरपतियों के मणिमय मुकुट, विचित्र स्वर्णमय हार, छत्र, चंवर और व्यजन फेंके पड़े हैं। ‘देखो, चन्द्रमा और नक्षत्रों के समान कान्तिमान, मनोहर कुण्डलों से विभूषित तथा दाढ़ी-मूंछ से युक्त वीरों के आभूषण-भूषित मुखों से रणभूमि अत्यन्त आच्छादित हो गयी है और इस पर रक्त की कीच जम गयी है।
‘प्रजापालकअर्जुन! उन दूसरे योद्धाओं पर दृष्टिपात करो, जिनके प्राण अभी तक शेष हैं और जो चारों ओर कराह रहे हैं। उनके बहुसंख्यक कुटुम्बी जन हथियार डालकर उनके निकट आ बैठे हैं और बारंबार रो रहे हैं। ‘जिनके प्राण निकल गये हैं, उन योद्धाओं को वस्त्र आदि से ढककर विजयाभिलाषी वेगशाली वीर पुन: अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्ध के लिये जा रहे हैं। ‘दूसरे बहुत से सैनिक रणभूमि में गिरे हुए अपने शूरवीर कुटुम्बीजनों के पानी मांगने पर वहीं इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ‘अर्जुन! कितने ही योद्धा पानी लाने के लिये गये, इसी बीच में पानी चाहने वाले बहुत से वीरों के प्राण निकल गये। वे शूरवीर जब पानी लेकर लौटे हैं, तब अपने उन सम्बान्धियों को चेतनारहित देखकर पानी को वहीं फेंक परस्पर चीखते-चिल्लाेते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं। ‘श्रेष्ठवीर अर्जुन! उधर देखो, कुछ लोग पानी पीकर मर गये और कुछ पीते-पीते ही अपने प्राण खो बैठे। कितने ही बान्धीजनों के प्रेमी प्रिय बान्धवों को छोड़कर उस महासमर में जहाँ-तहाँ प्राणशून्य हुए दिखायी देते हैं। ‘नरश्रेष्ठ! उन दूसरे योद्धाओं को देखा, जो दांतों से ओठ चबाते हुए टेढ़ी भौंहों से युक्त मुखों द्वारा चारों ओर दृष्टिपात कर रहे हैं।
इस प्रकार बातें करते हुए भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन उस महासमर में राजा का दर्शन करने के लिये उस स्थान की ओर चल दिये, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से बारंबार कहते थे, चलिये, चलिये’। भगवान श्रीकृष्ण बड़ी उतावली के साथ अर्जुन को युद्धभूमि का दर्शन कराते हुए आगे बढ़े और धीरे-धीरे उनसे इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘पाण्डुनन्दन! देखो, राजा के पास बहुत से भूपाल जा पहुँचे हैं। ‘उधर दृष्टिपात करो। कर्ण युद्ध के महान रंगमच पर प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा है और महाधनुर्धर भीमसेन युद्धस्थल की ओर लौट पड़े हैं। ‘पांचालों, सृंजयों और पाण्डवों के जो धृष्टद्युम्न आदि प्रमुख वीर हैं, वे भी भीमसेन के साथ ही युद्ध के लिये लौट रहे हैं। ‘अर्जुन! वह देखो, लौटे हुए पाण्डव योद्धाओं ने शत्रुओं की विशाल वाहिनी के पावं उखाड़ दिये। भागते हुए कौरव वीरों को यह कर्ण रोक रहा है। ‘कुरुनन्दन! जो वेग में यमराज और पराक्रमी में इन्द्र के समान है, वह शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा उधर ही जा रहा है। ‘महारथी धृष्टद्युम्न युद्धस्ल में बड़े वेग से जाते हुए अश्वत्थामा का ही पीछा कर रहे हैं। वह देखो, संग्राम में बहुत से सृंजय वीर मार डाले गये’। राजन! अत्यन्त दुर्जय वीर भगवान श्रीकृष्ण ने किरीटधारी अर्जुन से ये सारी बातें बतायीं। तत्पश्चात वहाँ अत्यन्त भयंकर महायुद्ध होने लगा। नरेश्वर! दोनों सेनाओं में मृत्यु् को ही युद्ध से निवृत्त होने की अवधि नियत करके संघर्ष छिड़ गया और वीरों के सिंहनाद होने लगे। पृथ्वीनाथ! इस प्रकार इस भूतल पर आपकी और शत्रुओं की सेनाओं का महान संहार हुआ है। राजन! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का ही फल है
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण का वाक्य विषयक अट्ठावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“धृष्टद्युम्न और कर्ण का युद्ध, अश्वत्थामा धृष्टद्युम्न पर आक्रमण तथा अर्जुन के द्वारा धृष्टद्युम्र की रक्षा और अश्वत्थामा की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर पुन: कौरव और सृंजय योद्धा निर्भय होकर एक दूसरे से भिड़ गये। एक ओर युधिष्ठिर आदि पाण्डव-दल के लोग थे और दूसरी ओर कर्ण आदि हम लोग उस समय कर्ण और पाण्डवों का बड़ा भयंकर और रोमांचकारी संग्राम आरम्भ हुआ, जो यमराज राज्य की वृद्धि करने वाला था। भारत! जहाँ खून पानी के समान बहाया जाता था, उस भयंकर संग्राम के छिड़ जाने पर तथा थोड़े-से ही संशप्तक वीरों के शेष रह जाने पर समस्त राजाओं सहित धृष्टद्युम्न ने कर्ण पर ही आक्रमण किया। महाराज! अन्य पाण्डव महारथियों ने भी उन्हीं का साथ दिया। युद्धस्थल में विजय की अभिलाषा लेकर हर्ष और उल्लास के साथ आते हुए उन वीरों को रणभूमि में अकेले कर्ण ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे जल के प्रवाहों को पर्वत रोक देता है।
कर्ण के पास पहुँचकर वे सब महारथी बिखर गये, ठीक वैसे ही, जैसे जल के प्रवाह किसी पर्वत के पास पहुँचकर सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाते हैं। महाराज! उस समय उन दोनों में रोमांचकारी युद्ध होने लगा। धृष्टद्युम्न ने समरांगण में झुकी हुई गांठवाले बाण से राधापुत्र कर्ण को चोट पहुँचायी और कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह। तब महारथी कर्ण ने अपने विजय नामक श्रेष्ठ धनुष को कम्पित करके धृष्टद्युम्न के धनुष और विषधर सर्प के समान विषैले बाणों को भी काट डाला। फिर क्रोध में भरकर नौ बाणों से धृष्टद्युम्न को भी घायल कर दिया। निष्पाप नरेश! वे बाण महामना धृष्टद्युम्न सुवर्ण निर्मित कवच को छेदकर उनके रक्त से रचित हो इन्द्र गोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ों के समान सुशोभित होने लगे। महारथी धृष्टद्युम्न उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा धनुष और विषधर सर्प के समान विषेले बाण हाथ में लेकर झुकी हुई गांठवाले सत्तर बाणों से कर्ण को बींध डाला। राजन! इसी प्रकार कर्ण ने समरांगण में विषधर सर्पों के समान विषैले बाणों द्वारा शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न को आच्छादित कर दिया। फिर द्रोणशत्रु महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न ने भी कर्ण को पैने बाणों से घायल कर दिया। तब कर्ण ने अत्यन्त कुपित हो धृष्टद्युम्न पर द्वितीय मृत्युदण्ड के समान एक सुवर्णभूषित बाण चलाया। प्रजानाथ! नरेश! सहसा आते हुए उस भयंकर बाण से सात्यकि ने सिद्धहस्त योद्धा की भाँति सौ टुकड़े कर डाले। प्रजापालक नरेश! सात्यकि के बाणों से अपने बाण को नष्ट हुआ देख कर्ण ने चारों ओर से बाण बरसाकर सात्यकि को ढक दिया। साथ ही समरांगण में सात नाराचों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब सात्यकि ने भी सुवर्णभूषित बाणों से कर्ण को घायल करके बदला चुकाया।
जब सात्यकि और कर्ण का आमना-सामना हो रहा था, तब नेत्रों से देखने और कानों से सुनने पर भी भय उत्पन्न करने वाला घोर एवं विचित्र युद्ध छिड़ गया, जो सब ओर से देखने ही योग्य था। नरेश्वर! समरभूमि में कर्ण और सात्यकि का वह कर्म देखकर समस्त प्राणियों के रोंगटे खड़े हो गये। इसी समय शत्रुओं के बल और प्राणों का नाश करने वाले शत्रुसूदन महाबली धृष्टद्युम्न के पास द्रोणकुमार अश्वत्थामा आ पहुँचा। शत्रुओं की राजधानी विजय पाने वाला द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वहाँ पहुँचते ही अत्यन्त कुपित होकर बोला ‘ब्रह्महत्या करने वाले पापी। खड़ा रह, खड़ा रह, आज तू मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा। ऐसा कहकर शीघ्रता करने वाले प्रयत्नशील महारथी अश्वत्थामा ने अत्यन्त तेज, घोर एवं पैने बाणों द्वारा यथाशक्ति विजय के लिये प्रयत्न करने वाले वीर धृष्टद्युम्न को ढक दिया। आर्य! जैसे द्रोणाचार्य समरभूमि में धृष्टद्युम्न को देखकर मन ही मन खिन्नं हो उसे अपनी मृत्यु मानते थे, उसी प्रकार शत्रुवीरों का संहार करने वाले धृष्टद्युम्न भी रणक्षेत्र में अश्वत्थामा को देखकर अप्रसन्न हो उसे अपनी मृत्यु समझते थे। वे अपने आपको समरभूमि में शस्त्र द्वारा अवघ्य मानकर बड़े वेग से अश्वत्थामा के सामने आये, मानो प्रलय के समय काल ही काल पर टूट पड़ा हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 26-50 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! वीर अश्वत्थामा ने द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न को सामने खड़ा देख क्रोध से लंबी सांस खींचते हुए उन पर आक्रमण किया। महाराज! वे दोनों एक दूसरे को देखते ही अत्यन्त क्रोध में भर गये। प्रजानाथ! फिर प्रतापी द्रोणपुत्र ने बड़ी उतावली के साथ अपने पास ही खड़े हुए धृष्टद्युम्न से कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘पांचाल कुल-कलंक! आज मैं तुझे मौत के मुंह में भेज दूंगा। तुम्हें पूर्वकाल में द्रोणाचार्य का वध करके जो पापकर्म किया है, वह एक अमंगलकारी कर्म की भाँति आज तुझे संताप देगा। ‘ओ मूर्ख! यदि तू अर्जुन से आरक्षित रहकर युद्धभूमि में खड़ा रहेगा, भाग नहीं जायगा तो अवश्य तुझे मार डालूंगा, यह मैं तुझसे सत्य कहता हूँ। अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर प्रतापी धृष्टद्युम्न उसे इस प्रकार उत्तर दिया-‘अरे! तेरी इस बात का जवाब तुझे मेरी वही तलवार देगी, जिसने युद्धस्थल में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले तेरे पिता को दिया था। ‘यदि मैंने नाम मात्र के ब्राह्मण द्रोणाचार्य को पहले मार डाला था, तो इस समय पराक्रम करके तुझे भी मैं कैसे नहीं मार डालूंगा।
महाराज! ऐसा कहकर अमर्षशील सेनापति द्रुपद कुमार ने अत्यन्त तीखे बाण से द्रोणपुत्र को बींध डाला। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ़ गया। राजन! उसने झुकी हुई गांठवाले बाणों से युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न की सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। महाराज! उस समय सब ओर से बाणों द्वारा आच्छादित होने के कारण न तो आकाश दिखायी देता था, न दिशाएं दीखती थीं और न सहस्रों योद्धा ही दृष्टिगोचर होते थे। राजन! उसी प्रकार युद्ध में शोभा पाने वाले अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न ने भी कर्ण के देखते-देखते बाणों से ढक दिया। महाराज! सब ओर से दर्शनीय राधापुत्र कर्ण ने भी पाण्डवों सहित पांचालों, द्रौपदी के पांचों पुत्रों, युधामन्यु और महारथी सात्यकि को अकेले ही आगे बढ़ने से रोक दिया था। धृष्टद्युम्न ने समरांगण में अश्वत्थामा के धनुष को काट डाला। राजेन्द्र! तब वेगवान अश्वत्थामा ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा धनुष और विषधर सर्पों के समान भयंकर बाण हाथ में लेकर उनके द्वारा पलक मारते-मारते धृष्टद्युम्न के धनुष, शक्ति, गदा, ध्वज, अश्व, सारथि एवं रथ को तहस-नहस कर दिया। धनुष कट जाने और घोड़ों तथा सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए धृष्टद्युम्न ने विशाल खण्ड और सौ चन्द्राकार चिह्नों से युक्त चमकती हुई ढाल हाथ में ले ली। राजेन्द्र! शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले सुदृढ़ आयुध-धारी वीर महारथी अश्वत्थामा ने समरांगण में अनेक भल्लों द्वारा रथ से उतरने के पहले ही धृष्टद्युम्न की उस ढाल-तलवार को भी काट दिया। वह एक अद्भुत सी बात हुई। भरतश्रेष्ठा! यद्यपि धृष्टद्युम्न रथहीन हो गये थे, उनके घोड़े मारे जा चुके थे, धनुष कट गया था तथा वे बाणों से बारंबार घायल और अस्त्र शस्त्रों से जर्जर हो गये थे तो भी महारथी अश्वत्थामा लाख प्रयत्न करने पर भी उन्हें मार न सका।
राजन! जब वीर द्रोणकुमार अश्वत्थामा बाणों द्वारा धृष्टद्युम्न का वध न कर सका, तब वह धनुष फेंककर तुरंत ही उसकी की ओर दौड़ा। नरेश्वर! रथ से उछलकर दौड़ते हुए महामना अश्वत्थामा का वेग बहुत बड़े सर्प को पकड़ने के लिये झपटे हुए गरुड़ के समान प्रतीत हुआ। इसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पार्थ वह देखो, द्रोणकुमार अश्वत्थामा धृष्टद्युम्नके वध के लिये कैसा महान प्रयत्न कर रहा है वह इन्हें मार सकता है, इसमें संशय नहीं है। ‘महाबाहो! शत्रुसूदन! जैसे कोई मौत के मुख में पड़ गया हो, उसी प्रकार अश्वत्थामा के मुख में पहुँचे हुए धृष्टद्युम्न को छुड़ाओ’। महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण ने अपने घोड़ों को उसी ओर हांका, जहाँ द्रोणकुमार अश्वत्थामा खड़ा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 51-67 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हांके गये वे चन्द्रमा के समान श्वेत रंग वाले घोड़े अश्वत्थामा के रथ की ओर इस प्रकार दौड़े, मानो आकाश को पीते जा रहे हों। राजन! महापराक्रमी श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को आते देख महाबली अश्वत्थामा धृष्टद्युम्न के वध के लिये विशेष प्रयत्न करने लगा। नरेश्वर! धृष्टद्युम्न को खींचे जाते देख महाबली अर्जुन ने अश्वत्थामा पर बहुत से बाण चलाये। गाण्डीव धनुष से वेगपूर्वक छूटे हुए वे सुवर्ण निर्मित बाण अश्वत्थामा के पास पहुँचकर उसके शरीर में उसी प्रकार घुस गये, जैसे सर्प बांबी में प्रवेश करते हैं।
राजन! उन भयंकर बाणों से घायल हुआ प्रतापी वीर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा समरांगण में अमित बलशाली धृष्टद्युम्न को छोड़कर अपने रथ पर जा चढ़ा। वह धनंजय के बाणों से अत्यन्त पीड़ित हो चुका था; इसलिये उसने भी श्रेष्ठ धनुष हाथ में लेकर बाणों द्वारा अर्जुन को घायल कर दिया। नरेश्वर! इसी बीच में सहदेव शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न को अपने रथ के द्वारा रणभूमि में अन्यत्र हटा ले गये। महाराज! अर्जुन ने अपन बाणों से अश्वत्थामा को घायल कर दिया। तब द्रोणपुत्र ने अत्यन्त कुपित हो अर्जुन की छाती और दोनों भुजाओं में प्रहार किया। रण में कुपित हुए कुन्ती कुमार ने द्रोणपुत्र पर द्वितीय कालदण्ड के समान साक्षात कालस्वतरुप नाराच चलाया। महाराज! वह महातेजस्वी नाराच उस ब्राह्मण के कंधे पर जा लगा। अश्वत्थामा युद्धस्थल में उस बाण के वेग से व्याकुल हो रथ की बैठक में धम्म से बैठ गया और अत्यंत मूर्च्छित हो गया।
राजराजेश्वर! तत्पश्चात कर्ण ने समरांगण में कुपित हो अर्जुन की ओर बारंबार देखते हुए विजय नामक धनुष की टकार की। वह महासमर में अर्जुन के साथ द्वैरथ युद्ध की अभिलाषा करता था। द्रोणकुमार को विह्वल देखकर उसका सारथि बड़ी उतावली के साथ उसे रथ के द्वारा समरांगण से दूर हटा ले गया। महाराज! धृष्टद्युम्न को संकट से मुक्त और द्रोणपुत्र को पीड़ित देख विजय से उल्लसित होने वाले पांचालों ने बड़े जोर से गर्जना की। उस समय सहस्रों दिव्यत वाद्य बजने लगे। वे पांचाल सैनिक युद्धस्थल में वह अद्भुत कार्य देखकर सिंहनाद करने लगे। ऐसा पराक्रम करके कुन्ती पुत्र धनंजय ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘श्रीकृष्ण! अब संशप्तकों की ओर चलिये। इस समय यही मेरा सबसे प्रधान कार्य है। श्रीकृष्ण अर्जुन का वह कथन सुनकर मन और वायु के समान वेगशाली तथा अत्यन्त ऊंची पताका वाले रथ के द्वारा वहाँ से चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वकत्थाीमा का पलायन विषयक उनसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का अर्जुन से दुर्योधन और कर्ण के पराक्रम का वर्णन करके कर्ण को मारने के लिये अर्जुन को उत्साहित करना तथा भीमसेन के दुष्कर पराक्रम का वर्णन करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! इसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्मराज युधिष्ठिर का दर्शन कराते हुए-से इस प्रकार कहा ‘पाण्डु नन्दन! ये तुम्हारे भाई कुंतीकुमार युधिष्ठिर हैं, जिन्हें मार डालने की इच्छा से महाबली महाधनुर्धर धृतराष्ट्र पुत्र शीघ्रता पूर्वक इनका पीछा कर रहे हैं। ‘रणदुर्मद महाबली पांचाल-सैनिक महात्मा युधिष्ठिर की रक्षा करते हुए बड़े रोष और आवेश में भरकर उनके साथ जा रहे हैं। ‘पार्थ! यह सम्पूर्ण जगत का राजा दुर्योधन कवच धारण करके रथसेना के साथ राजा युधिष्ठिर का पीछा कर रहा है। ‘पुरुषसिंह! जिनका स्पर्श विषधर सर्पो के समान भयंकर है तथा जो सम्पूर्ण युद्ध-कला में निपुण हैं, उन भाइयों के साथ बली दुर्योधन राजा युधिष्ठिर को मार डालने की इच्छा से उनके पीछे लगा हुआ है। ‘जैसे याचक किसी श्रेष्ठ पुरुष को पाना चाहते है, उसी प्रकार हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों सहित ये दुर्योधन के सैनिक युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये उन पर चढ़ाई करते हैं। ‘देखो, जैसे अमृत का अपहरण करने की इच्छावाले दैत्यों को इन्द्र और अग्नि ने बारंबार रोका था, उसी प्रकार ये दुर्योधन के सैनिक सात्यकि और भीमसेन के द्वारा अवरुद्ध होकर पुन: खड़े हो गये हैं। ‘जैसे वर्षाकाल में जल के प्रवाह अधिक होने के कारण समुद्र तक चले जाते हैं, उसी प्रकार ये कौरव महारथी बहुसंख्यक होने के कारण पुन: बड़ी उतावली के साथ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर चढ़े जा रहे हैं।
‘वे बलवान और महाधनुर्धर कौरव सिंहनाद करते, शंख बजाते और अपने धनुष को कंपाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। ‘मैं तो समझता हूँ कि इस समय कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर दुर्योधन के अधीन हो मृत्यु के मुख में चले गये हैं अथवा प्रज्वलित अग्नि की आहुति बन गये हैं। ‘पाण्डु नन्दन! दुर्योधन की सेना का जैसा व्यूह दिखायी दे रहा है, उससे यह जान पड़ता है कि उसके बाणों के मार्ग में आ जाने पर इन्द्र भी जीवित नहीं छूट सकते। ‘क्रोध में भरे हुए यमराज के समान शीघ्रतापूर्वक बाण समूहों की वर्षा करने वाले वीर दुर्योधन का वेग इस युद्ध में कौन सह सकता है।
‘वीर दुर्योधन, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कर्ण के बाणों का वेग पर्वतों को भी विदीर्ण कर सकता है। ‘कर्ण ने शत्रुओं को संताप देने वाले, शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले, बलवान विद्वान और युद्धकुशल राजा युधिष्ठिर को युद्ध से विमुख कर दिया है। ‘धृतराष्ट्र के महाबली शूरवीर पुत्रों के साथ रहकर राधा पुत्र कर्ण रणभूमि में पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर को अवश्य पीड़ा दे सकता है। ‘संग्राम में जूझते हुए संयतचित्त कुन्तीकुमार युधिष्ठिर के कवच को इन दुर्योधन आदि कुन्तीकुमार युधिष्ठिर के कवच को इन दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र-पुत्रों तथा अन्य महारथियों ने नष्ट कर दिया है। ‘भरतकुल शिरोमणि राजा युधिष्ठिर उपवास करने से अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। ये ब्राह्मबल में स्थित हैं, क्षात्रबल प्रकट करने में समर्थ नहीं हैं। ‘शत्रुओं को तपाने वाले ये पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर कर्ण के साथ युद्ध करके प्राण संकट की अवस्था में पहुँच गये हैं। ‘पार्थ! मुझे जान पड़ता है कि महाराज युधिष्ठिर जीवित नहीं है क्योंकि अमर्षशील शत्रुदमन भीमसेन संग्राम में विजय से उल्लसित हो बड़े-बड़े शंख बजाते और बारंबार गर्जते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों का सिंहनाद चुपचाप सहन करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
‘भरतश्रेष्ठ! वह कर्ण महाबली धृतराष्ट्र पुत्रों को यह प्रेरणा दे रहा है कि तुम सब लोग मिलकर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को मार डालो। ‘पार्थ! कौरव महारथी स्थूणाकर्ण, इन्द्रजाल, पाशुपत तथा अन्य प्रकार के शस्त्र समूहों से राजा युधिष्ठिर को आच्छादित कर रहे हैं। ‘भारत! राजा युधिष्ठिर आतुर एवं सेवा के योग्य कर दिये गये है; जैसा कि पाण्डवों सहित पांचाल उनके पीछे-पीछे सेवा के लिये जा रहे हैं। ‘शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करने वाले सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ बलवान पाण्डव योद्धा युधिष्ठिर का ऐसी अवस्था में उद्धार करने के लिये उत्सुक दिखायी देते हैं, मानो वे पाताल में डूब रहे हों। ‘पार्थ! राजा का ध्वज नहीं दिखायी देता है। कर्ण ने अपने बाणों द्वारा उसे काट डाला है। भरत नन्दन! प्रभो! यह कार्य उसने नकुल-सहदेव, सात्यकि, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, भीमसेन, शतानीक, समस्त पांचाल-सैनिक तथा चेदिदेशीय योद्धाओं के देखते-देखते किया है ‘कुन्तीनन्दन! जैसे हाथी कमलों से भरी हुई पुष्करिणी को मथ डालता है, उसी प्रकार यह कर्ण रणभूमि में अपने बाणों द्वारा पाण्डव सेना का विध्वंस कर रहा है।
‘पाण्डु नन्दन! ये तुम्हारे रथी भागे जा रहे हैं। पार्थ! देखो, देखो, ये महारथी भी कैसे खिसके जा रहे हैं। ‘भारत! कर्ण के बाणों से मारे गये ये मतवाले हाथी आती नाद करते हुए दसों दिशाओं में भाग रह हैं। ‘कुन्ती कुमार! रणभूमि में शत्रुसूदन कर्ण के द्वारा खदेड़ा हुआ यह रथियों का समूह सब ओर पलायन कर रहा है। ‘ध्वज धारण करने वाले रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन! देखो, सूतपुत्र के रथ पर कैसी ध्वजा फहरा रही है हाथी की रस्सी़ के चिह्न से युक्त उसकी पताका रणभूमि में यत्र-तत्र कैसे विचरण कर रही है। ‘वह राधापुत्र कर्ण सैकड़ों बाणों की वर्षा करके तुम्हारी सेना का संहार करता हुआ भीमसेन के रथ पर धावा कर रहा है। ‘जैसे देवराज इन्द्र दैत्यों को खदेड़ते और मारते हैं, उसी प्रकार महासमर में कर्ण के द्वारा खदेड़े और मारे जाने वाले इन पांचाल महारथियों को देखो। ‘यह कर्ण रणभूमि में पांचालो, पाण्डवों और सृंजयों को जीतकर अब तुम्हें परास्त करने के लिये सारी दिशाओं में दृष्टि पात कर रहा है; ऐसा मेरा मत है। ‘अर्जुन! देखो, जैसे देवराज इन्द्र शत्रु पर विजय पाकर देवसमूहों से घिरे हुए शोभा पाते हैं, उसी प्रकार यह कर्ण कौरवों के बीच में अपने धनुष को खींचता हुआ सुशोभित हो रहा है। ‘कर्ण का पराक्रम देखकर ये कौरव योद्धा रणभूमि में पाण्डवों और सृंजयों को सब ओर से डराते हुए जोर-जोर से गर्जना करते हैं। ‘मानद! यह राधापुत्र कर्ण महासमर में पाण्डव सैनिकों को सर्वथा भयभीत करके अपनी सम्पूर्ण सेनाओं से इस प्रकार कह रहा है। ‘कौरवो! तुम्हारा कल्याण हो। दौड़ो और वेगपूर्वक धावा करो। आज युद्धस्थल में कोई सृंजय तुम्हारे हाथ से जिस प्रकार भी जीवित न छूटने पावे, सावधान होकर वैसा ही प्रयत्न करो। हम सब लोग तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे। ‘ऐसा कहकर यह कर्ण पीछे से बाण-वर्षा करता हुआ गया है। पार्थ! रणभूमि में श्वेतच्छत्र से विराजमान कर्ण को देखो। वह चन्द्रमा से सुशोभित उदयाचल के समान जान पड़ता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 41-65 का हिन्दी अनुवाद)
‘भारत! प्रजानाथ! समरांगण में जिसके मस्तक पर सौ तेजस्वीन शलाकाओं से युक्त और पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशमान श्वेत छत्र तना हुआ है, वही यह कर्ण तुम्हारी ओर कटाक्ष पूर्वक देख रहा है। निश्चय ही यह युद्धस्थल में उत्तम वेग का आश्रय लेकर तुम्हारे सामने आयेगा। ‘महाबाहो! इसे देखो, यह अपना विशाल धनुष, हिलाता हुआ महासमर में विषधर सर्पों के समान विषैले बाणों की वृष्टि कर रहा है। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार! वह देखो, तुम्हारे वानर ध्वज को देखकर समर में तुम्हारे साथ द्वैरथ युद्ध चाहता हुआ राधापुत्र कर्ण इधर लौट पड़ा है। ‘जैसे पतंग प्रज्वलित आग के मुख में आ पड़ता है, उसी प्रकार यह कर्ण अपने वध के लिये ही तुम्हारे पास आ रहा है। भारत! कर्ण को अकेला देख उसकी रक्षा के लिये धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन भी रथसेना से घिरा हुआ इधर ही लौट रहा है। ‘तुम यश, राज्य और उत्तम सुख की अभिलाषा रखकर इन सबके साथ दुष्टात्मा कर्ण का प्रयत्नपूर्वक वध कर डालो। ‘पार्थ! जैसे देवासुर संग्राम में देवताओं और दानवों का युद्ध हुआ था, उसी प्रकार जब तुम दोनों विश्वविख्यात वीरों में सोत्साह युद्ध होने लगे, उस समय समस्त कौरव तुम्हारा पराक्रम देखें। ‘भरतश्रेष्ठ! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए तुमको और कर्ण को देखकर उस क्रोधी दुर्योधन को कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ेगा। ‘भरतभूषण कुन्तीकुमार! तुम अपने को पुण्यात्मा तथा राधापुत्र कर्ण को धर्मात्मा युधिष्ठिर का अपराधी समझकर अब समयोचित कर्तव्य पालन करो। ‘युद्ध विषयक श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर तुम रथयूथ पति कर्ण पर चढ़ाई करो।
रथियों में श्रेष्ठ वीर! देखो, समर-भूमि में ये प्रचण्ड तेजस्वी, महाबली एवं मुख्य-मुख्य पांच सौ रथी आ रहे हैं। कुन्तीनन्दिन! ये सब के सब संगठित हो दस लाख पैदल योद्धाओं को साथ ले आ रहे हैं। ‘वीर! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को आगे करके एक दूसरे के द्वारा सुरक्षित यह सेना तुम पर आक्रमण कर रही है। तुम शीघ्र ही इसका संहार कर डालो। ‘इस रथ सेना का संहार करके विश्वविख्यात महाधनुर्धर बलवान सूतपुत्र कर्ण के सामने स्वयं ही अपने आपको प्रकट करो। ‘भरतभूषण! तुम उत्तम वेग का आश्रय लेकर शत्रुदल पर आक्रमण करो। वह क्रोध में भरा हुआ कर्ण पांचालों पर धावा बोल रहा है। मैं उसकी ध्वजा को धृष्टद्युम्न के रथ के पास देख रहा हूँ। ‘परंतप! मैं समझता हूँ कर्ण पांचालों पर अवश्य ही आक्रमण करेगा।
भरतश्रेष्ठ पार्थ! मैं तुम से एक प्रिय समाचार कह रहा हूं- धर्मपुत्र श्रीमान राजा युधिष्ठिर सकुशल है; क्योंकि वे महाबाहु भीमसेन सेना के मुहाने पर लौट रहे हैं। ‘भारत! उनके साथ सृंजयों की सेना और सात्यकि भी हैं। कुन्तीकुमार! भीमसेन तथा महामनस्वी पांचाल वीर समरांगण में अपने तीखे बाणों द्वारा इन कौरवों का वध कर रहे हैं। ‘वीर के बाणों से घायल हो दुर्योधन की सेना युद्ध से मुंह फेरकर बड़े वेग से भाग रही है। उसके घावों से रक्त की धारा बह रही है। ‘भरतश्रेष्ठ! खून से लथपथ हुई कौरव-सेना, जहाँ की खेती नष्ट हो गयी है उस भूमि के समान अत्यन्त दयनीय दिखायी देती है। कुंतीनंदन! देखो, योद्धाओं के अधिपति भीमसेन लौटकर विषधर सर्प के समान कुपित हो कौरव सेना को खदेड़ रहे हैं। 'अर्जुन! तारों और सूर्य-चंद्रमा के चिह्नों से अलंकृत ये लाल, पीली, काली और सफेद पताकाएँ तथा ये श्वेत छत्र बिखरे पड़े हैं। सोने, चाँदी तथा पीतल आदि तैजस द्रव्यों के बने हुए नाना प्रकार के ध्वज काट-काटकर गिराये जा रहे हैं। हाथी और घोड़े तितर-बितर हो गये हैं। युद्ध में पीठ न दिखाने वाले पांचाल-वीरों के विभिन्न रंगों वाले बाणों से मारे जाकर ये प्राणशून्य रथी रथों से नीचे गिर रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 66-92 का हिन्दी अनुवाद)
‘धनंजय ये वेगशाली पुरुषसिंह पांचाल योद्धा भीमसेन के बल का आश्रय लेकर मनुष्यों से रहित हाथियों, घोड़ों, रथों और वेगशाली धृतराष्ट्र-सैनिकों पर आक्रमण करते और उन्हें धूल में मिलाते जा रहे हैं। ‘शत्रुदमन वीर! दुर्जय पांचाल सैनिक प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं की सेना को नष्ट करते हुए गरजते और शंख बजाते हैं। ‘अर्जुन! देखो, इन वीरों की कैसी महिमा है जैसे क्रोध में भरे सिंह हाथियों को मार डालते हैं, उसी प्रकार ये पांचाल योद्धा पराक्रम करके अपने बाणों द्वारा शत्रुओं को रौदते हुए रणभूमि सब ओर दौड़ रहे हैं। ‘वे स्वयं अस्त्र-शस्त्रों से रहित होने पर भी आयुधधारी शत्रुओं के शस्त्र छीनकर उसी से उन्हें मार डालते और गर्जना करते हैं; उनके अस्त्रों का निशाना कभी ख़ाली नहीं जाता। ‘ये शत्रुओं के मस्तक, भुजाएं, रथ, हाथी, घोड़े और समस्त यशस्वीं वीर धरती पर गिराये जा रहे हैं। ‘जैसे वेगशाली हंस मानसरोवर से निकलकर गंगा जी पर सब ओर से छा जाते हैं, उसी प्रकार पांचाल-सैनिकों द्वारा दुर्योधन की यह विशाल सेना चारों ओर से आक्रान्त हो रही है। ‘कृपाचार्य और कर्ण आदि वीर इन पांचालों को रोकने के लिये अत्यन्त पराक्रम दिखा रहे हैं। ठीक उसी तरह, जैसे सांड़ दूसरे सांड़ों को दबाने की चेष्टा करते हैं।
‘भीमसेन के बाणों से हतोत्साह होकर भागने वाले कौरव महारथियों तथा सहस्रों को धृष्टद्युम्न आदि वीर मार रहे हैं। ‘शत्रुओं द्वारा पांचालों के पराजित होने पर वायुपुत्र भीमसेन निर्भय गर्जना करते हुए शत्रुदल पर आक्रमण करके बाणों की वर्षा कर रहे हैं। ‘दुर्योधन की विशाल सेना के अधिकांश वीर अत्यन्त खिन्न हो उठे हैं और ये रथी भीमसेन के भय से पीड़ित हो संत्रस्त हो गये हैं। ‘देखो, इन्द्र के वज्र के आहत होकर गिरने वाले पर्वत शिखरों के समान ये बड़े-बड़े हाथी भीमसेन के चलाये हुए नाराचों से विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर रहे हैं। ‘भीमसेन के झुकी हुई गांठवाले बाणों से अत्यन्त घायल हुए ये विशालकाय हाथी अपनी सेनाओं को कुचलते हुए भागते हैं। ‘ये भीमसेन के भय से पीड़ित हुए कौरव-योद्धा अपने सहस्रों हाथियों, रथों और घोड़ों, रथ और पैदलों का वह आर्तनाद तथा कौरवों को खदेड़ते हुए भीमसेन की यह गर्जना सुन लो। ‘अर्जुन! विजय श्री से सुशोभित हो गर्जना करने वाले वीर भीमसेन का संग्राम में जो अत्यन्त दु:सह सिंहनाद हो रहा है, उसे पहचानो।
‘यह निषादपुत्र श्रेष्ठ गजराज पर आरुढ़ हो तोमरों द्वारा भीमसेन को मार डालने की इच्छा से क्रोध में भरे हुए दण्डपाणि यमराज के समान उन पर आक्रमण कर रहा है। ‘देखो, भीमसेन ने गरजते हुए निषादपुत्र की तोमर सहित दोनों भुजाओं को काट दिया और अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वीभ दस तीखे नाराचों द्वारा उसे मार डाला। ‘इस निषादपुत्र का वध करके वे पुन: प्रहार करने वाले दूसरे-दूसरे हाथियों पर आक्रमण कर रहे हैं। देखो, भीमसेन शक्ति और तोमरों के समूहों से काले मेघों की घटा के समान हाथियों को, जिनके कंधों पर महावत बैठे हैं, मार रहे हैं। ‘पार्थ! तुम्हारे बड़े भाई भीमसेन ने अपने पैने बाणों से ध्वजसहित वैजयन्ती पताकाओं को नष्ट करके उनचास हाथियों को काट गिराया है। ‘उन्होंने दस-दस नाराचों से एक-एक हाथी का वध किया है। भरत भूषण! इन्द्र के समान पराक्रमी भीमसेन के क्रोधपूर्वक लौटने पर धृतराष्ट्र पुत्रों का वह सिंहनाद अब नहीं सुनायी दे रहा है। ‘कुपित हुए पुरुषसिंह भीमसेन दुर्योधन की संगठित हुई तीन अक्षौहिणी सेनाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया है। ‘जैसे दुर्बल नेत्रों वाले प्राणी दोपहर के सूर्य की ओर नहीं देख सकते, उसी प्रकार राजा लोग कुन्ती कुमार भीमसेन की ओर आंख उठाकर देख नहीं पा रहे हैं। ‘जैसे सिंह से डरे हुए दूसरे मृग चैन नहीं पाते हैं, उसी प्रकार ये भीमसेन के बाणों से भयभीत हुए कौरव सैनिक युद्धस्थल में कहीं सुख नहीं पा रहे हैं। ‘पाण्डव-सैनिक क्रोध में भरकर महाबाहु दुर्योधन को पीड़ा दे रहे हैं। बलशाली राधापुत्र कर्ण भीमसेन को छोड़कर बगल में धनुष लिये महाराज दुर्योधन की रक्षा के लिये बहुतेरे सैनिकों के साथ वेगपूर्वक उसके पास जा रहा है।
संजय कहते हैं ;- राजन! वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण के मुख से यह सब सुनकर और भीमसेन के द्वारा किये हुए उस अत्यन्त दुष्कर कर्म को अपनी आंखों से देखकर महाबाहु अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा शेष शत्रुओं को मार भगाया। प्रभो! समरांगण में मारे जाते हुए महाबली संशप्तक गण हतोत्साह एवं भयभीत हो दसों दिशाओं में भाग गये और कितने ही वीर इन्द्र के अतिथि बनकर तत्काल शोक से छुटकारा पा गये। पुरुषसिंह पार्थ ने झुकी हुई गांठवाले बाणों द्वारा दुर्योधन की चतुरंगिणी सेना का संहार कर डाला।
(इस प्रकार श्री महाभारत कर्ण पर्व में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद विषयक साठवां अध्याय पूरा हुआ)
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