सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

इक्यावनवाँ अध्याय  

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन के द्वारा धृतराष्ट्र के छ: पुत्रों का वध, भीम और कर्ण का युद्ध, भीम के द्वारा गजसेना, रथ सेना और घुड़सवारों का संहार तथा उभयपक्ष की सेनाओं का घोर युद्ध”

     धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! भीमसेन ने तो यह अत्यन्त दुष्कर्म कर डाला कि महाबाहु कर्ण को रथ की बैठक में गिरा दिया। सूत! दुर्योधन मुझसे बारंबार कहा करता था कि ‘कर्ण अकेला ही रणभूमि में सृंजयों सहित समस्त पाण्डवों का वध कर सकता हैं। परंतु उस दिन युद्धस्थल में राधापुत्र कर्ण को भीमसेन के द्वारा पराजित हुआ देखकर मेरे पुत्र दुर्योधन ने क्या किया।

     संजय ने कहा ;- महाराज सूतपुत्र राधाकुमार कर्ण को महासमर में पराड़्मुख हुआ देख आपका पुत्र अपने भाइयों से बोला। 'तुम्हारा कल्याण हो। तुम लोग शीघ्र जाओ और राधा पुत्र कर्ण की रक्षा करो। वह भीमसेन के भय से भरे हुए संकट के अगाध महासागर में डूब रहा है।' राजा दुर्योधन की आज्ञा पाकर आपके पुत्र अत्यन्त कुपित हो भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनके सामने गये, मानो पतंग आग के समीप जा पहुँचे हों। श्रुतर्वा, दुर्धर, क्राथ (क्रथन), विवित्सु, विकट (विकटानन), सम, निषंगी, कवची, पाशी, नन्द, उपनन्द, दुष्प्रधर्षण, सुबाहु, वातवेग, सुवर्चा, धनुर्ग्राह, दुर्मद, जलसन्ध, शल और सह ये महाबली और पराक्रमी आपके पुत्रगण, बहुसंख्यपक रथों से घिरकर भीमसेन के पास जा पहुँचे और उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। वे चारों ओर से नाना प्रकार के चिह्नों से युक्त बाणसमूहों की वर्षा करने लगे। नरेश्वर उनसे पीड़ित होकर महाबली भीमसेन ने पचास रथों के साथ आये हुए आपके पुत्रों के उन पचासों रथियों को शीघ्र ही नष्ट कर दिया। महाराज! तत्पश्चात कुपित हुए भीमसेन ने एक भल्ल से विवित्सु का सिर काट लिया। उसका वह कुण्डल और शिरस्त्राण सहित मस्तक पूर्ण चन्द्रमा के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।

     प्रभो! उस शूरवीर को मारा गया देख उसके भाई समरभूमि में भयंकर पराक्रमी भीमसेन पर सब ओर से टूट पड़े। तब भयानक पराक्रम से सम्पन्न भीमसेन ने उस महायुद्ध में दूसरे दो भल्लों द्वारा रणभूमि में आपके दो पुत्रों के प्राण हर लिये। नरेश्वर! वे दोनों थे विकट (विकटानन) और सम। देवपुत्रों के समान सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर आंधी के उखाड़े हुए दो वृक्षों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर लगे हाथ भीमसेन ने क्राथ (क्रथन) को भी एक तीखे नाराच से मारकर यमलोक पहुँचा दिया। वह राजकुमार प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जनेश्वर! फिर आपके वीर धनुर्धर पुत्रों के इस प्रकार वहाँ मारे जाने पर भयंकर हाहाकार मच गया। उनकी सेना चंचल हो उठी। फिर महाबली भीमसेन ने समरांगण में नन्द और उपनन्द को भी यमलोक भेज दिया। तदनन्तर आपके शेष पुत्र रणभूमि में काल, अन्तक और यम के समान भयानक भीमसेन को देखकर भय से व्यााकुल हो वहाँ से भाग गये। आपके पुत्रों को मारा गया देख सूतपुत्र कर्ण के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसने हंस के समान अपने श्वेत घोड़ों को पुन: वही हंकवाया, जहाँ पाण्डुपुत्र भीमसेन मौजूद थे। महाराज! मद्रराज के हांके हुए वे घोड़े वेग से भीमसेन के रथ के पास जाकर उनसे सट गये। प्रजानाथ! महाराज! युद्धस्थल में कर्ण और भीमसेन का वह संघर्ष घोर, रौद्र और अत्यन्त भयंकर था।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद)

     राजेन्द्र! वे दोनों महारथी जब परस्पर भिड़ गये, उस समय वह देखकर मेरे मन में यह विचार उठने लगा कि न जाने यह युद्ध कैसा होगा। महाराज! तदनन्तर युद्ध का हौसला रखने वाले भीमसेन ने अपने बाणों से आपके पुत्रों के देखते-देखते कर्ण को आच्छादित कर दिया। तब उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता कर्ण ने अत्यन्त‍ कुपित हो लोहे के बने हुए और झुकी हुई गांठ वाले नौ भल्लों से भीमसेन को घायल कर दिया। उन भल्लों से आहत हो भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमसेन ने कर्ण को भी कान तक खींचकर छोड़े गये सात बाणों से पीट दिया। महाराज! तब विषधर सर्प के समान फुफकारते हुए कर्ण ने बाणों की भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र भीमसेन को आच्छादित कर दिया। महाबली भीमसेन ने भी कौरववीरों के देखते देखते महारथी कर्ण को बाणसमूहों से आच्छातदित करके विकट गर्जना की। तब कर्ण ने अत्यतन्त कुपित हो सुदृढ़ धनुष हाथ में लेकर सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए कंकपत्रयुक्त दस बाणों द्वारा भीमसेन को घायल कर दिया। साथ ही एक तीखे भल्ल से उनके धनुष को भी काट डाला। तब अत्यन्त बलवान महाबाहु भीमसेन ने कर्ण के वध की इच्छा से द्वितीय मृत्युदण्ड के समान एक भयंकर स्वर्णपत्र जटित परिघ हाथ में ले उसे गरजकर कर्ण पर दे मारा। वज्र और बिजली के समान गड़गड़ाहट पैदा करने वाले उस परिघ को अपने ऊपर आते देख कर्ण ने विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा उसके बहुत से टुकड़े कर डाले।

      तत्पश्चात भीमसेन ने अत्यन्त सुदृढ़ धनुष हाथ में लेकर अपने बाणों द्वारा शत्रु सैन्यसंतापी कर्ण को आच्छानदित कर दिया। फिर तो एक दूसरे के वध की इच्छा वाले दो सिंहों के समान कर्ण और भीमसेन में वहाँ अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! उस समय कर्ण ने अपने सुदृढ़ धनुष को कान के पास तक खींचकर तीन बाणों से भीमसेन को क्षत-विक्षत कर दिया। कर्ण के द्वारा अत्यनन्त घायल होकर बलवानों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर भीमसेन ने एक भयंकर बाण हाथ में लिया, जो कर्ण के शरीर को विदीर्ण करने में समर्थ था। राजन। जैसे सांप बांबी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह बाण कर्ण के कवच और शरीर को छेदकर धरती में समा गया। उस प्रबल प्रहार से व्यथित और विह्वल-सा होकर कर्ण रथ पर ही कांपने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे भूकम्प के समय पर्वत हिलने लगता है। महाराज! तब रोष और अमर्ष में भरे हुए कर्ण ने पाण्डुपुत्र भीमसेन पर पच्चीस नाराचों का प्रहार किया। साथ ही अन्य बहुत से बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया और एक बाण से उनकी ध्वजा काट डाली। राजेन्द्र! फिर एक भल्ल से उनके सारथि को यमलोक भेज दिया और तुरंत ही एक बाण से उनके धनुष को भी काटकर बिना विशेष कष्ट के ही मुहूर्त भर में हंसते हुए से कर्ण ने भयंकर पराक्रमी भीमसेन को रथहीन कर दिया। भरतश्रेष्ठ! रथहीन होने पर वायु के समान बलशाली महाबाहु भीमसेन गदा हाथ में लेकर हंसते हुए उस उत्तम रथ से कूद पड़े। प्रजानाथ! जैसे वायु शरत्काल के बादलों को शीघ्र ही उड़ा देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने बड़े वेग से कूदकर अपनी गदा की चोट से आपकी सेना का विध्वंस आरम्भ किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 45-63 का हिन्दी अनुवाद)

      शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन ने क्रुद्ध होकर प्रहार करने में कुशल और ईषादण्ड के समान दांतों वाले सात सौ हाथियों का सहसा संहार कर डाला। मर्मस्थलों को जानने वाले बलवान भीमसेन ने उन गजराजों के मर्मस्थानों, ओठों, नेत्रों, कुम्भस्थलों और कपोलों पर भी गदा से चोट पहुँचायी। फिर तो वे हाथी भयभीत होकर भागने लगे। तत्पश्चात महावतों ने जब उन्हें पीछे लौटाया, तब वे भीमसेन को घेरकर खड़े हो गये, मानो बादलों ने सूर्यदेव को ढक लिया हो। जैसे इन्द्र अपने वज्र के द्वारा पर्वतों पर आघात करते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर खड़े हुए भीमसेन ने सवारों, आयुधों और ध्वजाओं सहित उन सात सौ गजराजों को गदा से ही मार डाला। तत्पश्चात शत्रुओं का दमन करने वाले कुन्तीेकुमार भीमसेन ने सुबलपुत्र शकुनि के अत्यन्त बलवान बावन हाथियों को मार गिराया। इसी प्रकार उस युद्धस्थल में आपकी सेना को संताप देते हुए पाण्डुकुमार भीमसेन ने सौ से भी अधिक रथों और दूसरे सैकड़ों पैदल सैनिकों का संहार कर डाला। ऊपर से सूर्य तपा रहे थे और नीचे महामन्सवी भीमसेन संतप्त कर रहे थे। उस अवस्था में आपकी सेना आग पर रखे हुए चमड़े के समान सिकुड़कर छोटी हो गयी।

      भरतश्रेष्ठ! भीम के भय से डरे हुए आपके समस्त सैनिक समरांगण में उनका सामना करना छोड़कर दसों दिशाओं में भागने लगे। तदनन्तर चर्मय आवरणों से युक्त पांच सौ रथ घर्घराहट की आवाज फैलाते हुए चारों ओर से भीमसेन पर चढ़ आये और बाणसमूहों द्वारा उन्हें घायल करने लगे। जैसे भगवान विष्णु असुरों का संहार करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन ने पताका, ध्वज और आयुधों सहित उन पांच सौ रथी वीरों को गदा के आघात से चूर-चूर कर डाला। तदनन्तर शकुनि के आदेश से शूरवीरों द्वारा सम्मानित तीन हजार घुड़सवारों ने हाथों में शक्ति, ऋष्टि और प्रास लेकर भीमसेन पर धावा बोल दिया। यह देख शत्रुओं का संहार करने वाले भीमसेन ने बड़े वेग से आगे जाकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदलते हुए अपनी गदा से उन घोड़ों और घुड़सवारों को मार गिराया। भारत। जैसे वृक्षों पर पत्थरों से चोट की जाय, उसी प्रकार गदा से ताड़ित होने वाले उन अश्वारोहियों के शरीर से सब ओर महान शब्द प्रकट होता था। इस प्रकार शकुनि के तीन हजार घुड़सवारों को मारकर क्रोध में भरे हुए भीमसेन दूसरे रथ पर आरुढ़ हो राधापुत्र कर्ण के सामने आ पहुँचे।

     संजय कहते हैं ;- राजन! कर्ण ने भी समरांगण में शत्रुओं का दमन करने वाले धर्मपुत्र युधिष्ठिर को बाणों से आच्छादित कर दिया और सारथि को भी मार गिराया। फिर महारथी कर्ण युधिष्ठिर के सारथि रहित रथ को रणभूमि में इधर-उधर घूमते देख कंकपत्रयुक्त सीधे जाने वाले बाणों की वर्षा करता हुआ उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। कर्ण को राजा युधिष्ठिर धावा करते देख वायुपुत्र भीमसेन कुपित हो उठे। उन्होंने बाणों से कर्ण को ढककर पृथ्वी और आकाश को भी शरसमूह से आच्छादित कर दिया। तब शत्रुसूदन राधापुत्र कर्ण ने तुरंत ही लौटकर सब ओर से पैने बाणों की वर्षा करके भीमसेन को ढक दिया। भारत! तत्पश्चात अमेय आत्मबल से सम्पन्न सात्यकि ने भीमसेन के रथ से उलझे हुए कर्ण को पीड़ा देना आरम्भ किया, क्योंकि वे भीमसेन के पृष्ठ भाग की रक्षा कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 64-79 का हिन्दी अनुवाद)

     कर्ण सात्यकि के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी भीमसेन का सामना करने के लिये डटा रहा। वे दोनों ही सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ एवं मनस्वी वीर थे और एक दूसरे से भिड़कर चमकीले बाणों की वर्षा करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। राजेन्द्र! उन दोनों ने आकाश में बाणों का भयंकर जाल सा बिछा दिया, जो क्रौंच पक्षी के पृष्ठभाग के समान लाल और भयानक दिखायी देता था। राज! वहाँ छूटे हुए सहस्रों बाणों से न तो सूर्य की प्रभा दिखायी देती थी, न दिशाएं और न विदिशाएं ही दृष्टिगोचर होती थीं। हम या हमारे शत्रु भी पहचाने नहीं जाते थे।

       नरेश्वर! कर्ण और भीमसेन के बाण समूहों से मध्याह्न काल में तपते हुए सूर्य की सारी प्रचण्ड किरणें भी फीकी पड़ गयी थीं। उस समय शकुनि, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य को पाण्डवों के साथ जूझते देख भागे हुए कौरव सैनिक फिर लौट आये प्रजानाथ! उस समय उनके आने से बड़ा भारी कोलाहल होने लगा, मानो वर्षा से बढ़े हुए समुद्रों की भयानक गर्जना हो रही हो। उस महासमर में दूसरी से उलझी हुई दोनों सेनाएं परस्पर दृष्टिपात करके बड़े हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध करने लगीं। तदनन्तर सूर्य के मध्याह्न की वेला में आ जाने पर अत्यन्त घोर युद्ध आरम्भ हुआ। वैसा न तो पहले कभी देखा गया था और न सुनने में ही आया था। जैसे जल का प्रवाह वेग के साथ समुद्र में जाकर मिलता है, उसी प्रकार रणभूमि में एक सैन्य समुदाय दूसरे सैन्य समुदाय से सहसा जा मिला और परस्पर टकराने वाले बाणसमूहों का महान शब्द उसी प्रकार प्रकट होने लगा, जैसे गरजते हुए सागर समुदायों का गम्भीर नाद प्रकट हो रहा है। जैसे दो नदियां परस्पर संगम होने पर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार वे वेगवती सेनाएं परस्पर मिलकर एकीभाव को प्राप्त हो गयीं।

      प्रजानाथ! फिर महान यश पाने की इच्छा वाले कौरवों और पाण्डवों में घोर युद्ध आरम्भ। हो गया। भरतवंशी नरेश! उस समय नाम ले लेकर गरजते हुए शूरवीरों की भाँति-भाँति की बातें अविच्छिन्न रूप से सुनायी पड़ती थीं। रणभूमि में जिसकी जो कुछ पिता-माता, कर्म अथवा शील स्वभाव के कारण विशेषता थी, वह युद्धस्थल में उसको सुनाता था। राजन। समरागण में एक दूसरे को डांट बताते हुए उन शूरवीरों को देखकर मेरे मन में यह विचार उठता था कि अब इनका जीवन नहीं रहेगा। क्रोध में भरे हुए उन अमिततेजस्वी वीरों के शरीर देख कर मुझे बड़ा भारी भय होता था कि यह युद्ध कैसा होगा। राजन! तदनन्तर पाण्डव और कौरव महारथी तीखे बाणों से प्रहार करते हुए एक-दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक इक्यावनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

बावनवाँ अध्याय  

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का घोर युद्ध और कौरवसेना का व्य‍थित होना”

     संजय कहते है ;- महाराज! एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वे क्षत्रिय परस्पर वैरभाव रखकर समरांगण में एक दूसरे को मारने लगे। राजेन्द्र रथसमूह, अश्वसमूह, हाथियों के झुंड और पैदल मनुष्यों के समुदाय सब ओर एक दूसरे से उलझे हुए थे। उस अत्यन्त‍ दारुण संग्राम में हम लोग निरन्तंर चलाये जाने वाले परिघों, गदाओं, कणपों, प्रासों, भिन्दिपालों और भुशुण्डियों की धारा सी गिरती देख रहे थे। सब ओर टिड्डी-दलों के समान बाणों की वर्षा हो रही थी। हाथी हाथियों से भिड़कर एक-दूसरे को संताप देने लगे। उस समरांगण में घोड़े घोड़ों, रथी रथियों एवं पैदल पैदल-समूहों, अश्व समुदायों तथा रथों और हाथियों का भी मर्दन कर रहे थे। नरेश्वर! इस प्रकार रथी हाथी और घोड़ों का तथा शीघ्रगामी हाथी उस युद्धस्थल में हाथी सेना के अन्य तीन अंगों को रौंदने लगे। वहाँ मारे जाते और एक दूसरे को कोसते हुए शूरवीरों के आर्तनाद से वह युद्धस्थल वैसा ही भयंकर जान पड़ता था, मानो वहाँ पशुओं का वध किया जा रहा हो। भारत! खून से ढकी हुई यह पृथ्वी वर्षाकाल में वीरबहूटी नामक लाल रंग के कीड़ों से व्याप्त हुई भूमि के समान शोभा पाती थी। अथवा जैसे कोई श्यामवर्णा युवती श्वेत रंग के वस्त्रों को हल्दी के गाढ़े रंग में रंगकर पहले, वैसी ही वह रणभूमि प्रतीत होती थी। मांस और रक्त से चित्रित सी जान पड़ने वाली वह भूमि सुवर्णमयी सी प्रतीत होती थी।

      भारत! वहाँ भूतल पर कटे हुए मस्तकों, भुजाओं, जांघों, बड़े-बड़े कुण्डलों, अन्यान्य आभूषणों, निष्कों धनुर्धर शूरवीरों के शरीरों के, ढालों और पताकाओं के ढेर के ढेर पड़े थे। नरेश्वर! हाथी हाथियों से भिड़कर अपने दांतों से परस्पर पीड़ा दे रहे थे। दांतों की चोट से घायल हो खून से भीगे शरीर वाले हाथी गेरु के रंग से मिले हुए जल का स्त्रोत बहाने वाले झरनों से युक्त धातुमण्डित पर्वतों के समान शोभा पाते थे। कितने ही हाथी घुड़सवारों के छोड़े हुए तोमरों तथा अनेक विपक्षियों को भी सूंड़ों से पकड़कर रणभूमि में विचरते थे तथा दूसरे उनको टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे। राजन! नाराचों से कवच छिन्न-भिन्न होने के कारण गजराजों की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे हेमन्त ऋतु में बिना बादलों के पर्वत शोभित होते हैं। भरतनन्दन! विचित्र प्रकार से सजे हुए उत्तम हाथी सुवर्णमय पंख वाले बाणों के लगने से उल्काओं द्वारा उद्वीप्त शिखरों वाले पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। उस संग्राम में पर्वतों के समान प्रतीत होने वाले कितने ही हाथी हाथियों से घायल हो पंखधारी शैलसमूहों के समान नष्ट हो गये। दूसरे बहुत से हाथी बाणों से व्यथित और घावों से पीड़ित हो भाग चले और कितने ही उस महासमर में दोनों दांतों और कुम्भस्थलों को धरती पर टेककर धराशायी हो गये। राजन दूसरे अनेक गजराज भयंकर गर्जना करते हुए सिंह के समान दहाड़ रहे थे और दूसरे बहुतेरे हाथी इधर उधर चक्कर काटते और चीखते-चिल्लाते थे। सोने के आभूषणों से विभूषित बहुसंख्यक घोड़े बाणों द्वारा घायल होकर बैठ जाते, मलिन हो जाते और दसों दिशाओं में भागने लगते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)

       बाणों और तोमरों द्वारा ताड़ित होकर कितने ही अश्व धरती पर लोट जाते और हाथियों द्वारा खींचे जाने पर छटपटाते हुए नाना प्रकार के भाव व्यक्त करते थे। आर्य! वहाँ घायल होकर पृथ्वी पर पड़े हुए कितने ही मनुष्य अपने बान्धव-जनों को देखकर कराह उठते थे। कितने ही अपने बाप दादों को देखकर कुछ अस्फुट स्वर में बोलने लगते थे। भरतनन्दन! दूसरे बहुत से मनुष्य अन्यान्य लोगों को दौड़ते देख एक दूसरे से अपने प्रसिद्ध नाम और गौत्र बताने लगते थे। महाराज मनुष्यों की कटी हुई सहस्रों सुवर्णभूषित भुजाएं कभी टेढ़ी होकर किसी शरीर से लिपट जाती, कभी छटपटातीं, गिरतीं, ऊपर को उछलतीं, नीचे आ जातीं और तड़पने लगती थीं। प्रजानाथ! सर्पों के शरीरों के समान प्रतीत होने वाली कितनी ही चन्दनचर्चित भुजाएं रणभूमि में पांच मुंह वाले सर्पों के समान महान वेग प्रकट करतीं तथा रक्तरंजित होने के कारण सुवर्णमयी ध्वंजाओं के समान अधिकाधिक शोभा पाती थीं। उस घोर घमासान युद्ध के चालू होने पर सम्पूर्ण योद्धा एक दूसरे पर चोट करते हुए बिना जाने पहचाने ही युद्ध करते थे। राजन! शस्त्रों की धारावाहिक वृष्टि से व्याप्त! तथा धरती की धूल से आच्छादित हुए उस प्रदेश में अपने और शत्रुपक्ष के सैनिक अन्धकार से आच्छादित होने के कारण पहचान में नहीं आते थे। वह युद्ध ऐसा घोर एवं भयानक हो रहा था कि वहाँ बारंबार खून की बड़ी-बड़ी नदियां बह चलती थीं। योद्धाओं के कटे हुए मस्तक शिलाखण्डों के समान उन नदियों को आच्छादित किये रहते थे।

      उनके केश ही सेवा और घास के समान प्रतीत होते थे, हड्डियां ही उनमें मछलियों के समान व्याप्त हो रही थीं, धनुष, बाण और गदाएं नौका के समान जान पड़ती थीं। उनके भीतर मांस और रक्त की ही कीचड़ जमी थी। रक्त के प्रवाह को बढ़ाने वाली उन घोर एवं भयंकर नदियों को वहाँ योद्धाओं ने प्रवाहित किया था। वे भयानक रुप वाली नदियां कायरों को डराने और शूर वीरों का हर्ष बढ़ाने वाली थीं तथा प्राणियों को यमलोक पहुँचाती थीं। जो उनमें प्रवेश करते, उन्हें वे डुबो देती थीं और क्षत्रियों के मन में भय उत्पन्न करती थी। नरव्याघ्र! वहाँ गरजते हुए मांसभक्षी जन्तुओं के शब्द वह युद्धस्थल प्रेतराज की नगरी के समान भयानक जान पड़ता था। वहाँ चारों ओर उठे हुए अगणित कबन्ध और रक्त मांस से तृप्त हुए भूतगण नृत्य़ कर रहे थे। भारत! ये सब के सब रक्त तथा वसा पीकर छके हुए थे। मेदा, वसा, मज्जा और मांस से तृप्त एवं मतवाले कौए, गीध और बक सब ओर उड़ते दिखायी देते थे। राजन! उस समर में योद्धाओं के व्रत का पालन करने में विख्यात शूरवीर जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, उस भय को छोड़कर निर्भय के समान पराक्रम प्रकट करते थे। बाण और शक्तियों से व्याप्त तथा मांसभक्षी जन्तुओं से भरे हुए उस रणक्षेत्र में शूरवीर अपने पुरुषार्थ की ख्याति बढ़ाते हुए विचर रहे थे। भारत! प्रभो! रणभूमि में कितने ही योद्धा एक दूसरे को अपने और पिता के नाम तथा गोत्र सुनाते थे। प्रजानाथ! नाम और गोत्र सुनाते हुए बहुतेरे योद्धा शक्ति, तोमर और पट्टिशों द्वारा एक दूसरे को धूल में मिला रहे थे। इस प्रकार वह दारुण एवं भयंकर युद्ध चल ही रहा था कि समुद्र में टूटी हुई नौका के समान कौरव-सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और विषाद करने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक बावनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

तिरपनवाँ अध्याय  

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन द्वारा दस हजार संशप्‍तक योद्धाओं और उनकी सेना का संहार”

     संजय कहते हैं ;- आर्य! जब क्षत्रियों का संहार करने वाला वह भयानक युद्ध चल रहा था, उसी समय दूसरी ओर बड़े जोर-जोर से गाण्डीव धनुष की टंकार सुनायी देती थी राजन! वहाँ पाण्डुनन्दन अर्जुन संशप्तकों का, कोसल देशीय योद्धाओं का तथा नारायणी सेना का संहार कर रहे थे। समरांगण में विजय की इच्छा रखने वाले संशप्तकों ने अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन के मस्तक पर चारों ओर से बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। राजन! उस बाण वर्षा को सहसा वेगपूर्वक सहते और श्रेष्ठ रथियों का संहार करते हुए शक्तिशाली अर्जुन रणभूमि में विचरने लगे। सान पर चढ़ाकर तेज किय हुए कंकड़पत्रयुक्त बाणों द्वारा प्रहार करते हुए कुन्‍तीपुत्र अर्जुन रथियों की सेना में घुसकर श्रेष्ठ आयुध धारण करने वाले सुशर्मा के पास जा पहुँचे। रथियों में श्रेष्‍ठ सुशर्मा उनके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगा तथा अन्‍य संशप्‍तकों ने भी अर्जुन को अनेक बाण मारे। सुशर्मा ने दस बाणों से अर्जुन को घायल करके श्रीकृष्‍ण की दाहिनी भुजा पर तीन बाण मारे। मान्‍यवर! तदनन्‍तर दूसरे भल्ल उनकी ध्‍वजा को बींध डाला। राजन! उस समय विश्वकर्मा का बनाया हुआ वह महान वानर सबको भयभीत करता हुआ बड़े जोर जोर से गर्जना करने लगा। वानर की वह गर्जना सुनकर आपकी सेना संत्रस्‍त हो उठी और मन में महान भय लेकर निश्चेष्‍ट हो गयी।

       नरेश्वर! फिर वहाँ निश्चेष्‍ट खड़ी हुई आपकी वह सेना भाँति-भाँति पुष्‍पों से भरे हुए चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पाने लगे। कुरुश्रेष्ठ! तदनन्‍तर होश में आकर आपके योद्धा अर्जुन पर उसी प्रकार बाणों की बौछार करने लगे, जैसे बादल पर्वत पर जल की वर्षा करते हैं। उन सबने मिलकर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के उस विशाल रथ को घेर लिया। यद्यपि उन पर तीखे बाणों की मार पड़ रही थी, तो भी वे उस रथ को पकड़कर जोर-जोर से चिल्‍लाने लगे। माननीय नरेश! क्रोध में भरे हुए संशप्‍तकों ने सब ओर से आक्रमण करके अर्जुन के रथ को घोड़ों, दोनों पहियों तथा ईषादण्ड को भी पकड़ना आरम्‍भ किया। इस प्रकार वे सब हजारों योद्धा रथ को जबरदस्‍ती पकड़कर सिंहनाद करने लगे। महाराज! कई योद्धाओं ने भगवान श्रीकृष्ण की दोनों विशाल भुजाएं पकड़ ली। दूसरों ने रथ पर बैठे हुए अर्जुन को भी प्रसन्नतापूर्वक पकड़ लिया। तब जैसे दुष्ट हाथी महावतों को नीचे गिरा देता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपनी दोनों बांहें झटककर उन सब लोगों को युद्ध के मुहाने पर नीचे गिरा दिया। फिर उन महारथियों से घिरे हुए अर्जुन अपने रथ को पकड़ा गया और श्रीकृष्ण पर भी आक्रमण हुआ देख रणभूमि में कुपित हो उठे। उन्‍होंने अपने रथ पर चढ़े हुए बहुत से पैदल सैनिकों को धक्‍के देकर नीचे गिरा दिया और आसपास खड़े हुए संशप्‍तक योद्धाओं को निकट से युद्ध करने में उपयोगी बाणों द्वारा ढक दिया एवं समरांगण में भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा,

    अर्जुन ने कहा ;- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! देखिये, ये क्रुरतापूर्ण कर्म करने वाले बहुसंख्‍यक संशप्‍तक योद्धा किस प्रकार सहस्‍त्रों की संख्‍या में मारे जा रहे हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-46 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘यदुपुंगव! जगत में इस भूतल पर मेरे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस भयानक रथबन्धु (रथ की पकड़ अथवा रथों के घेरे) का सामना कर सके। ऐसा कहकर अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने भी पृथ्वी और आकाश को गुंजाते हुए से पांचजन्य नामक शंख की ध्वनि फैलायी। महाराज! उस शंखनाद को सुनकर संशप्तकों की सेना कांप उठी और भयभीत होकर जोर-जोर से भागने लगी। नरेश्वर! तदनन्‍तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्‍डु-नन्दन अर्जुन ने बारंबार नागास्‍त्र का प्रयोग करके उन सबके पैर बांध लिये।। राजन! उन महात्‍मा पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के द्वारा पैर बांध दिये जाने के कारण वे संशप्‍तक योद्धा लोहे के बने हुए पुतलों के समान निश्चेष्‍ट हो गये। फिर पूर्वकाल में इन्द्र ने तारकासुर के वध के समय समरांगण में जिस प्रकार दैत्यों का वध किया था, उसी प्रकार पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने निश्चेष्‍ट हुए संशप्‍तक योद्धाओं का संहार आरम्‍भ किया। समरांगण में बाणों की मार पड़ने पर उन्‍होंने अर्जुन के उस उत्तम रथ को छोड़ दिया और उनके ऊपर अपने समस्‍त अस्त्र-शस्त्रों को छोड़ने का प्रयास किया। नरेश्वर! उस समय पैर बंधे होने के कारण वे हिल भी न सके। तब अर्जुन झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा उनका वध करने लगे। रणभूमि में कुन्तीकुमार अर्जुन ने जिन-जिन योद्धाओं को लक्ष्‍य करके पादबन्‍धास्‍त्र का प्रयोग किया, वे समस्‍त योद्धा समरांगण में नागों द्वारा जकड़ लिये गये थे।

     राजेन्‍द्र! महारथी सुशर्मा ने अपनी सेना को नागों द्वारा बंधी हुई देख तुरंत ही गरुड़ास्त्र प्रकट किया। फिर तो गरुड़ पक्षी प्रकट होकर उन नागों पर टूट पड़े और उन्‍हें खाने लगे। नरेश्वर! उन पक्षियों को प्रकट हुआ देख वे सारे नाग भाग चले। प्रजानाथ! जैसे सूर्यदेव मेघों की घटा से मुक्त होकर सारी प्रजा को ताप देते हुए प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार पैरों के बन्‍धन से छुटकारा पाकर वह सारी सेना बड़ी शोभा पाने लगी। आर्य! बन्‍धनमुक्त होने पर संशप्‍तक योद्धा अर्जुन के रथ को लक्ष्‍य करके बाणों तथा अस्त्र-शस्‍त्रों को सब ओर से काटने लगे। तदनन्‍तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले इन्‍द्रपुत्र अर्जुन ने अपने बाणों की वर्षा से उनकी भारी अस्‍त्र-वृष्टि का निवारण करके उन योद्धाओं का संहार आरम्‍भ कर दिया। राजन! इसी समय सुशर्मा ने झुकी हुई गांठ वाले बाण से अर्जुन की छाती में चोट पहुँचाकर अन्‍य तीन बाणों द्वारा भी उन्‍हें घायल कर दिया। उन बाणों की गहरी चोट खाकर अर्जुन व्‍यथित हो रथ के पिछले भाग में बैठ गये। फिर तो सब लोग जोर-जोर से चिल्‍लाकर कहने लगे कि ‘अर्जुन मारे गये।' उस समय शंख बजने लगे, भेरियों की गम्‍भीर ध्‍वनि फैलने लगी तथा नाना प्रकार के वाद्यों ध्‍वनि के साथ ही योद्धाओं की सिंहगर्जना भी होने लगी। तदनन्‍तर भगवान श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्न श्वेतवाहन अर्जुन ने होश में आकर बड़ी उतावली के साथ ऐन्द्रास्त्र का प्रयोग किया।

      मान्‍यवर! उससे सम्‍पूर्ण दिशाओं में सहस्‍त्रों बाण प्रकट हो-होकर आपकी सेना का संहार करते दिखायी दिये। समरागण में शस्त्रों द्वारा सैकड़ों और हजारों घोड़े तथा रथ मारे जाने लगे। भारत! इस प्रकार जब सेना का संहार होने लगा, तब संशप्‍तकगणों और नारायणी सेना के ग्‍वालों को बड़ा भय हुआ। उस समय वहाँ कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो अर्जुन पर चोट कर सके। वहाँ सब वीरों के देखते-देखते आपकी सेना का वध होने लगा। सारी सेना स्‍वयं निश्चेष्ट हो गयी थी। उससे पराक्रम करते नहीं बनता था और उस अवस्‍था में वह मारी जा रही थी। मैंने यह सब अपनी आंखों देखा था। महाराज! पाण्‍डु-पुत्र अर्जुन रणभूमि में वहाँ दस हजार योद्धाओं का संहार करके धूमरहित अग्रि के समान प्रकाशित हो रहे थे। भारत! उस समय संशप्‍तकों के चौदह हजार पैदल, दस हजार रथ और तीन हजार हाथी शेष रह गये थे। संशप्‍तकों ने पुन: यह निश्चय करके कि ‘मर जायंगे अथवा विजय प्राप्‍त करेंगे, किंतु युद्ध से पीछे नहीं हटेंगे’ अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया। प्रजानाथ! फिर तो वहाँ किरीटधारी बलवान शूरवीर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के साथ आपके सैनिकों का बड़ा भारी युद्ध हुआ। उसमें कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने उन शत्रुओं को जीतकर उनका उसी प्रकार संहार कर डाला, जैसे देवराज इन्‍द्र ने असुरों का किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक तिरपनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

चौवनवाँ अध्याय  

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कृपाचार्य के द्वारा शिखण्‍डी की पराजय और सुकेतु का वध तथा धृष्‍टद्युम्‍न के द्वारा कृतवर्मा का परास्‍त होना”

      संजय कहते हैं ;- मान्‍यवर! नरेश! कृतवर्मा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, सूतपुत्र कर्ण, उलूक, शकुनि तथा भाइयों सहित राजा दुर्योधन ने समुद्र में टूटी हुई नाव की भाँति आपकी सेना को पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के भय से पीड़ित और शिथिल होती देख बड़े वेग से आकर उसका उद्धार किया। भारत! तदनन्‍तर दो घड़ी तक वहाँ घोर युद्ध होता रहा, जो कायरों के लिये त्रासजनक और शूरवीरों का हर्ष बढ़ाने वाला था। कृपाचार्य ने युद्धस्‍थल में बाणों की बड़ी भारी वर्षा की। उन बाणों ने टिड्डीदलों के समान सृंजयों को आच्‍छादित कर दिया। इससे शिखण्‍डी को बड़ा क्रोध हुआ। वह तुरंत ही विप्रवर गौतमगोत्रीय कृपाचार्य पर चढ़ आया और उनके ऊपर सब ओर से बाणों की वर्षा करने लगा। महान अस्त्रवेत्ता कृपाचार्य ने शिखण्‍डी की उस बाण वर्षा का निवारण कर‍के कुपित हो उसे दस बाणों द्वारा घायल कर दिया।

     राजन! समर-भूमि में कुपित हुए राम और रावण के समान उन दोनों वीरों में दो घड़ी तक बड़ा भयंकर युद्ध चलता रहा। तत्‍पश्चात शिखण्‍डी ने क्रोध में भरकर युद्धस्‍थल में कंकड़-पत्रयुक्त सात सीधे बाणों द्वारा कुपित कृपाचार्य को क्षत-विक्षत कर दिया। उन तीखे बाणों से अत्‍यन्‍त घायल हुए महारथी विप्रवर कृपाचार्य ने शिखण्‍डी को घोड़े, सारथि एवं रथ से रहित कर दिया। तब महारथी शिखण्‍डी उस अश्वहीन रथ से कूदकर हाथों में ढाल और तलवार ले तुरंत ही ब्राह्मण कृपाचार्य की ओर चला। उसे अपने ऊपर सहसा आक्रमण करते देख कृपाचार्य ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा समरांगण में शिखण्‍डी को ढक दिया, यह अद्भुत-सी बात हुई। राजन! रणक्षेत्र में शिखण्‍डी निश्चेष्‍ट होकर रहा, यह वहाँ पत्‍थर के तैरने के समान हम लोगों ने अद्भुत बात देखी। नृपश्रेष्‍ठ! शिखण्‍डी को कृपाचार्य के बाणों से आच्‍छादित हुआ देख महारथी धृष्टद्युम्न तुरंत ही उनका सामना करने के लिये आये।

         धृष्टद्युम्न को कृपाचार्य के रथ की ओर जाते देख महारथी कृतवर्मा ने वेगपूर्वक उन्‍हें रोक दिया। इसी प्रकार पुत्र और सेनासहित युधिष्ठिर को कृपाचार्य के रथ पर चढ़ाई करते देख द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने रोका। महारथी नकुल और सहदेव भी बड़ी उतावली के साथ चढ़े आ रहे थे, उन्‍हें भी आपके पुत्र ने बाण-वर्षा से रोक दिया। भारत! भीमसेन को तथा करुष, केकय और सृंजय योद्धाओं को वैकर्तन कर्ण ने युद्ध में आगे बढ़ने से रोका। मान्‍यवर! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य युद्धस्‍थल में, मानो वे शिखण्‍डी को दग्‍ध कर डालना चाहते हों, बड़ी उतावली के साथ उसके ऊपर बाण चलाये। उनके चलाये हुए उन सुवर्ण भूषित बाणों को शिखण्‍डी ने बारंबार तलवार घुमाकर सब ओर से काट डाला। भरतनन्‍दन! तब कृपाचार्य ने अपने बाणों से शिखण्‍डी की सौ चन्‍द्राकार चिह्नों से युक्त ढाल को तुरंत ही छिन्न-भिन्न कर डाला। इससे सब लोग कोलाहल करने लगे। महाराज! जैसे रोगी मौत के मुंह में पहुँच गया हो, उसी प्रकार कृपाचार्य के वश में पड़ा हुआ शिखण्‍डी अपनी ढाल कट जाने पर केवल तलवार हाथ में लिये उनकी ओर दौड़ा।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुःपंचाशतम (54) अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! शिखण्‍डी को कृपाचार्य के बाणों का ग्रास बनकर पीड़ित होते देख चित्रकेतु का पुत्र महाबली सुकेतु उसकी सहायता कि लिये तुरंत आगे बढ़ा। सुकेतु अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्न था। वह युद्धस्‍थल में बहुसंख्‍यक पैने बाणों द्वारा कृपाचार्य को आच्‍छादित करता हुआ उनके रथ के समीप आ पहुँचा। नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण कृपाचार्य को सुकेतु के साथ युद्ध में तत्‍पर देख शिखण्‍डी तुरंत वहाँ से भाग निकला। राजन! तदनन्तर सुकेतु ने कृपाचार्य को पहले नौ बाणों से बींधकर फिर तिहत्तर तीरों से उन्हें घायल कर दिया। आर्य! तत्पश्चात बाणसहित उनके धनुष को काट दिया और एक बाण द्वारा उनके सारथि के मर्मस्थानों में गहरी चोट पहुँचायी। इससे कृपाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने दूसरा नूतन सुदृढ़ धनुष लेकर सुकेतु के सम्पूर्ण मर्मस्थानों में तीस बाणों द्वारा प्रहार किया। इससे सुकेतु का सारा शरीर विह्बल होकर उस उत्तम रथ पर कांपने लगा; मानो भूकम्प आने पर कोई वृक्ष जोर जोर से कांपने और झूमने लगा हो। उसी अवस्था में कृपाचार्य ने एक क्षुरप्र द्वारा सुकेतु के जगमगाते हुए कुण्डलों से युक्त पगड़ी और शिरस्त्राणसहित मस्तक को उसकी कांपती हुई काया से काट गिराया। राजन! वह सिर बाज के लाये हुए मांस के टुकड़े के समान पृथ्वीे पर गिर पड़ा। उसके बाद सुकेतु का धड़ भी धराशायी हो गया। महाराज! सुकेतु के मारे जाने पर उसके अग्रगामी सैनिक भयभीत हो समरांगण में कृपाचार्य को छोड़कर दसों दिशाओं की ओर भाग निकले।

     भारत! दूसरी ओर महारथी कृतवर्मा ने समरांगण में धृष्टद्युम्न को रोककर बड़े हर्ष के साथ कहा,

      कृतवर्मा ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह।' नरेश्वर! जैसे मांस के टुकड़े के लिये दो बाज क्रोधपूर्वक लड़ रहे हों, उसी प्रकार उस रणक्षेत्र में कृतवर्मा और धृष्टद्युम्न घोर युद्ध होने लगा। धृष्टद्युम्न कुपित होकर कृतवर्मा को पीड़ा देते हुए उसकी छाती में नौ बाण मारे। धृष्टद्युम्न का गहरा आघात पाकर समर-भूमि में कृतवर्मा ने बाणों की वर्षा करके घोड़ों और रथ सहित धृष्टद्युम्न को आच्छादित कर दिया। राजन! जैसे जल की धारा गिरने वाले मेघों से आच्छ्न्न हुए सूर्य का दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार कृतवर्मा के बाणों से रथसहित आच्छादित हुए धृष्टद्युम्न दिखायी नहीं देते थे। महाराज! यद्यपि धृष्टद्युम्न घायल हो गये थे तो भी अपने सुवर्ण-भूषित बाणों द्वारा कृतवर्मा के शरसमूह को छिन्न-भिन्न करके प्रकाशित होने लगे।

       फिर क्रोध में भरे हुए सेनापति धृष्टद्युम्न ने कृतवर्मा के निकट जाकर उसके ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की भयंकर वर्षा आरम्भ कर दी। अपने ऊपर सहसा आती हुई उस भयंकर बाणवर्षा को युद्धस्थल में कृतवर्मा ने कई हजार बाण मारकर रोक दिया। रणभूमि में उस दुर्जय शस्त्र वर्षा को रोकी गयी देख धृष्टद्युम्न ने कृतवर्मा पर आक्रमण करके उसे आगे बढ़ने से रोक दिया और उसके सारथि को तीखी धार वाले भल्ल से वेगपूर्वक मारकर यमलोक भेज दिया। मारा गया सारथि रथ से नीचे गिर पड़ा। कृतवर्मा अत्यान्तक क्रोध में भरकर जलाने को उद्यत हुई आग के समान धृष्टद्युम्न गदा हाथ में लेकर पुन: बड़े वेग से महाधनुर्धर कृतवर्मा पर शीघ्र ही आघात किया। उस बलवान वीर के गहरे आघात से अत्यन्त पीड़ित एवं मूर्च्छित हो कृतवर्मा गिर पड़ा। तब श्रुतर्वा उसे अपने रथ पर बिठाकर रणभूमि से दूर हटा ले गया। इस प्रकार बलवान धृष्टद्युम्न ने उस महाबली शत्रु को जीतकर बाणों की वर्षा करके समरांगण में समस्त कौरवों को तुरंत आगे बढ़ने से रोक दिया। तब आपके समस्त योद्धा सिंहनाद करके धृष्टद्युम्न पर टूट पड़े। फिर वहाँ घोर युद्ध होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्ध विषयक चौवनवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

पचपनवाँ अध्याय  

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचपंचाशत्तम (55) अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्थामा का घोर युद्ध, सात्यकि के सारथि का वध एवं युधिष्ठिर का अश्वत्थामा को छोड़कर दूसरी ओर चले जाना”

      संजय कहते है ;- राजन! सात्यकि तथा शूरवीर द्रौपदी-पुत्रों द्वारा सुरक्षित युधिष्ठिर को देखकर अश्वत्‍थामा बड़े हर्ष के साथ उनका सामना करने के लिये गया। वह बड़े-बड़े अस्त्रों का ज्ञाता था; इसलिये शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले योद्धा के समान चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखों से युक्त भयंकर शरसमूहों की वर्षा करता और नाना प्रकार के मार्ग एवं शिक्षा का प्रदर्शन करता हुआ दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा समरांगण में युधिष्ठिर को अवरुद्ध करके आकाश को उन बाणों से भरने लगा। द्रोणपुत्र के बाणों आच्‍छन्न हो जाने के कारण वहाँ कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। युद्ध का वह सारा विशाल मैदान बाणमय हो रहा था। भरतश्रेष्ठ! स्‍वर्णजाल-विभूषित वह बाणों का जाल आकाश में फैलकर वहाँ तने हुए वितान (चंदोवे) के समान सुशोभित होता था। राजन! उन प्रकाशमान बाणसमूहों से सारा आकाश मण्‍डल ढक गया था। बाणों से रुंधे हुए आकाश में मेघों की छाया सी बन गयी थी। इस प्रकार आकाश के बाणमय हो जाने पर हम लोगों ने वहाँ यह आश्चर्य की बात देखी कि आकाशचारी कोई भी प्राणी उधर से उड़कर नीचे नहीं आ सकता था। उस समय प्रयत्‍नशील सात्‍यकि, धर्मराज पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर यथा अन्‍यान्‍य सैनिक कोई पराक्रम न कर सके। महाराज! द्रोणपुत्र की वह फुर्ती देखकर वहाँ खड़े हुए सभी महारथी नरेश आश्चर्यचकित हो उठे और तपते हुए सूर्य के समान तेजस्‍वी अश्वत्‍थामा की ओर आंख उठाकर देख भी न सके।

      तदनन्‍तर जब पांडव सेना मारी जाने लगी, तब महारथी द्रौपदीपुत्र और सात्‍यकि तथा धर्मराज युधिष्ठिरऔर पांचाल सैनिक संगठित हो घोर मृत्‍यु भय को छोड़कर द्रोणकुमार पर टूट पड़े। सात्‍यकि ने सत्ताईस बाणों से अश्वत्थामा को घायल करके पुन: सात स्‍वर्णभूषित नाराचों द्वारा उसे बींध डाला। युधिष्ठिर ने तिहत्तर, प्रतिविन्ध्य ने सात, श्रुतकर्मा तीन’ श्रुतकीर्ति ने सात, सुतसोम ने नौ और शतानीक ने उसे सात बाण मारे तथा दूसरे बहुत से शूरवीरों ने भी अश्वत्‍थामा को चारों ओर से घायल कर दिया। राजन! तब क्रोध में भरकर विषधर सर्प के समान फुफकारते हुए अश्वत्थामा ने सात्‍यकि को पच्चीस बाणों से घायल करके बदला चुकाया। फिर श्रुतकीर्ति को नौ, सुतसोम को पांच, श्रुतकर्मा को आठ, प्रतिविन्‍ध्‍य को तीन, शतानीक को नौ, धर्मपुत्र युधिष्ठिर को पांच तथा अन्‍य शूरवीरों को दो दो बाणों से पीट दिया। इसके सिवा उसने पैने बाणों द्वारा श्रुतकीर्ति के धनुष को भी काट दिया। तब महारथी श्रुतकीर्ति ने दूसरा धनुष लेकर द्रोणकुमार को पहले तीन बाणों से घायल करके फिर दूसरे-दूसरे पैने बाणों द्वारा बींध डाला। मान्‍यवर भरतभूषण महाराज! तत्‍पश्चात द्रोणकुमार ने अपने बाणों की वर्षा से युधिष्ठिर की उस सेना को सब ओर से ढक दिया। उसके बाद अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्न द्रोणकुमार ने धर्मराज के धनुष को काट डाला और हंसते-हंसते तीन बाणों द्वारा पुन: उन्‍हें घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! तब धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर अश्वत्थामा को बींध दिया एवं उसकी दोनों भुजाओं और छाती में सत्तर बाण मारे। इसके बाद कुपित हुए सात्‍यकि ने रणभूमि में प्रहार करने वाले अश्वत्थामा के धनुष को तीखे अर्धचन्‍द्र से काटकर बड़े जोर से गर्जना की। धनुष कट जाने पर शक्तिशालियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा ने शक्ति चलाकर शिनिपौत्र सात्‍यकि के सारथि को शीघ्र ही रथ से नीचे गिरा दिया। भारत! तत्पश्चात प्रतापी द्रोणपुत्र ने दूसरा धनुष लेकर सात्‍यकि को शरसमूहों की वर्षा द्वारा आच्‍छादित कर दिया। भरतनन्‍दन! उनके रथ का सारथि धराशायी हो चुका था, इसलिये उनके घोड़े युद्धस्‍थल में बेलगाम भागने लगे। वे विभिन्‍न स्‍थानों में भागते हुए दिखायी दे रहे थे। युधिष्ठिर आदि पाण्‍डव महारथी शस्‍त्रधारियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा पर बड़े वेग से पैने बाणों की वर्षा करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने उस महासमर में उन पाण्‍डव महारथियों को क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख हंसते हुए उनका सामना किया। जैसे आग वन में सूखे काठ और घास-फूंस को जला देती है, उसी प्रकार महारथी अश्वत्थामा ने समरांगण में सैकड़ों बाणरुपी ज्‍वालाओं से प्रज्‍वलित हो पांडव सेनारुपी सूखे काठ एवं घास-फूंस को जलाना आरम्‍भ किया। भरतश्रेष्ठ! जैसे तिमि नामक मत्स्य नदी के प्रवाह को विक्षुब्‍ध कर देता है, उसी प्रकार द्रोणपुत्र के द्वारा संतप्‍त की हुई पांडव सेना में हलचल मच गयी। महाराज! द्रोणपुत्र का पराक्रम देखकर सब लोगों ने यही समझा कि द्रोणकुमार अश्वत्थामा के द्वारा सारे पाण्‍डव मार डाले जायंगे। तदनन्‍तर रोष और अमर्ष में भरे हुए द्रोणशिष्‍य महारथी युधिष्ठिर ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा से कहा।

      युधिष्ठिर बोले ;- 'द्रोणकुमार! मैं जानता हूँ कि तुम युद्ध में पराक्रमी, महाबली, अस्त्रवेत्ता, विद्वान और शीघ्रतापूर्वक पुरुषार्थ प्रकट करने वाले श्रेष्ठ वीर हो। परंतु यदि तुम अपना यह सारा बल द्रुपदपुत्र पर दिखा सको तो हम समझेंगे कि तुम बलवान तथा अस्त्र-विद्या के विद्वान हो। शत्रुसूदन धृष्टद्युम्न को समरभूमि में देखकर तुम्‍हारा बल कुछ भी काम न करेगा। (तुम्‍हारे कर्म को देखते हुए) मैं तुम्‍हें ब्राह्मण नहीं कहूंगा। पुरुषसिंह! तुम जो आज मुझे ही मार डालना चाहते हो, यह न तो तुम्‍हारा प्रेम है और न कृतज्ञता। ब्राह्मण को तप, दान और वेदाध्‍ययन करना चाहिये। धनुष झुकाना तो क्षत्रिय का काम है; तुम नाम मात्र के ब्राह्मण हो। महाबाहो! आज मैं तुम्‍हारे देखते-देखते युद्ध में कौरवों को जीतूंगा। तुम समर में पराक्रम प्रकट करो। निश्चय ही तुम एक स्‍वधर्म भ्रष्‍ट ब्राह्मण हो।' महाराज! उनके ऐसा कहने पर द्रोणपुत्र मुस्‍कराने सा लगा। इनका कथन युक्तियुक्त तथा यथार्थ है, ऐसा सोचकर उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसने कोई जवाब न देकर समरांगण में कुपित हो बाणों की वर्षा से पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे प्रलयकाल में क्रुद्ध यमराज सारी प्रजा को अदृश्‍य कर देता है। आर्य! द्रोणपुत्र के बाणों से आच्‍छादित हो कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर उस समय अपनी विशाल सेना को छोड़कर शीघ्र ही वहाँ से पलायन कर गये। राजन! तत्‍पश्चात धर्मपुत्र युधिष्ठिर के हट जाने पर फिर महामना द्रोणपुत्र अश्वत्‍थामा दूसरी ओर चला गया। नरेश्वर! फिर उस महायुद्ध में अश्वत्थामा को छोड़कर युधिष्ठिर पुन: क्रूरतापूर्ण कर्म करने के लिये आपकी सेना की ओर बढ़े।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर का लायनविषयक पचपनवां अध्याय पूरा हुआ)

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