सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-सेना की व्यूहरचना, युधिष्ठिर के आदेश से अर्जुन का आक्रमण, शल्य के द्वारा पाण्डवसेना के प्रमुख वीरों का वर्णन तथा अर्जुन की प्रशंसा”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर यह देखकर कि कुन्ती कुमारों की सेना का अनुपम व्यूह बनाया गया है, जो शत्रुदल के आक्रमण को सह सकने में समर्थ और धृष्टद्युम्न द्वारा सुरक्षित है, शत्रुओं को संताप देने वाला युद्ध कुशल कर्ण रथ की घर्घराहट, सिंह की-सी गर्जना तथा वाद्यों की गम्भीर ध्वनि से पृथ्वी को कांपता और स्वयं भी क्रोध से कांपता हुआ-सा आगे बढ़ा। उस महातेजस्वी वीर ने शत्रुओं के मुकाबले में अपनी सेना की यथोचित व्यूहरचना करके, जैसे इन्द्र आसुरी सेना का संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्डव-सेना का विनाश आरम्भ का दिया और युधिष्ठिर को भी घायल करके दाहिने कर दिया। प्रजानाथ! (उस समय) आपके सभी सैनिक कर्ण को देखकर युद्ध की इच्छा से हर्ष और उत्साह में भर गये। राजन! उस समय आपके योद्धाओं की कही हुई बातें सुनायी देने लगीं।।
सैनिक बोले ;- आज यह कर्ण और अर्जुन का महान युद्ध होगा। आज राजा दुर्योधन के सारे शत्रु मार डाले जायंगे। आज अर्जुन रणभूमि में कर्ण को देखते ही भाग खड़े होंगे। आज युद्ध में हम लोग कर्ण के ही अनुगामी होकर समरांगण में कर्ण के बाणों से भरा हुआ भीषण संग्राम देखेंगे। दीर्घकाल से जिसकी सम्भावना की जाती थी, वह आज इसी समय उपस्थित होगा। आज हमलोग देवासुर-संग्राम के समान भयंकर युद्ध देखेंगे। आज अभी बड़ा भयानक युद्ध छिड़ने वाला है। आज रणभूमि में इन दोनों में से एक न एक की विजय अवशय होगी। निश्चय ही राधापुत्र कर्ण इस महायुद्ध में अर्जुन का वध कर डालेगा अथवा इस जगत में किस मनुष्य के अंदर बड़े-बड़े मनसूबे नहीं उठते हैं।
संजय कहते हैं ;- कुरुनन्दजन! इस तरह नाना प्रकार की बातें कहकर कौरवों ने सहस्रों नगाड़े पीटे और दूसरे-दूसरे बाजे भी बजवाये। भाँति-भाँति की भेरी-ध्वनि हुई और बारंबार सैनिकों द्वारा सिंहनाद किये गये। गम्भीर ध्वनि करने वाले ढोल और मृदंग के महान शब्द वहाँ सब ओर गूंजने लगे। मान्यवर नरेश। युद्ध के रंगभूमि में उतरे हुए बहुसंख्यक मनुष्य नृत्य तथा गर्जन-तर्जन करते हुए एक दूसरे का सामना करने के लिये आगे बढ़े। उनमें शूरवीर पैदल सैनिक चारों ओर से पट्टिश, खड्ग, धनुष-बाण, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, त्रिशूल और चक्र हाथ में लेकर हाथियों के पैरों की रक्षा कर रहे थे। उनमें देवासुर संग्राम के समान भयंकर युद्ध छिड़ गया।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! राधापुत्र कर्ण ने देवताओं के लिये भी अजेय तथा भीमसेन द्वारा सुरक्षित धृष्टद्युम्न आदि सम्पूर्ण महाधनुर्धर पाण्डव वीरों के जवाब में किस प्रकार व्यूह का निर्माण किया संजय! मेरी सेना के दोनों पक्ष और प्रपक्ष के रुप में कौन-कौन से वीर थे। वे किस प्रकार यथोचित रुप से योद्धाओं का विभाजन करके खड़े हुए थे पाण्डवों ने भी मेरे पुत्रों के मुकाबले में कैसे व्यूह का निर्माण किया था। यह अत्यन्त भयंकर महायुद्ध किस प्रकार आरम्भ हुआ? अर्जुन कहाँ थे कि कर्ण ने युधिष्ठिर पर आक्रमण कर दिया। जिन्होंने पूर्वकाल में अकेले ही खाण्डव वन में समस्त प्राणियों को परास्त कर दिया था, उन अर्जुन के समीप रहते हुए युधिष्ठिर पर कौन आक्रमण कर सकता था? राधापुत्र कर्ण के सिवा दूसरा कौन है, जो जीवित रहने की इच्छा रखते हुए भी अर्जुन के सामने युद्ध कर सके।
संजय कहते हैं ;- राजन! व्यूह की रचना किस प्रकार हुई थी, अर्जुन कैसे और कहाँ चले गये थे और अपने-अपने राजा को सब ओर से घेरकर दोनों दलों के योद्धाओं ने किस प्रकार संग्राम किया था यह सब बताता हूं, सुनिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 11-30 का हिन्दी अनुवाद)
नरेश्वर! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वेगशाली मागध वीर और सात्वतवंशी कृतवर्मा- ये व्यूह के दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर खड़े थे। महारथी शकुनि और उलूक चमचमाते हुए प्रासों से सुशोभित घुड़सवारों के साथ उनके प्रपक्ष में स्थित हो आपके व्यूह की रक्षा कर रहे थे। उनके साथ कभी घबराहट में पड़ने वाले गान्धार देशीय सैनिक और दुर्जय पर्वतीय वीर भी थे। पिशाचों के समान उन योद्धाओं की ओर देखना कठिन हो रहा था और वे टिड्डी दलों के समान यूथ बनाकर चलते थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालने की इच्छावाले युद्ध निपुण संशप्तक योद्धा युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले रथी वीर थे। उनकी संख्या चौंतीस हजार थी। वे आपके पुत्रों के साथ रहकर व्यूह वाम पाशर्व की रक्षा करते थे। उनके प्रपक्ष स्थान में सूतपुत्र की आज्ञा से रथों, घुड़सवारों और पैदलों सहित काम्बोज, शक तथा यवन महाबली श्रीकृष्ण और अर्जुन को ललकारते हुए खड़े थे।
कर्ण भी विचित्र कवच, अंगद और हार धारण करके सेना के मुख भाग की रक्षा करता हुआ व्यूह के मुहाने पर ठीक बीच-बीच में खड़ा था। सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी और शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ महाबाहु कर्ण रोष और जोश में भरकर सेनापति की रक्षा में तत्पर हुए आपके पुत्रों के साथ प्रमुख भाग में स्थित हो कौरव सेना को अपने साथ खींचता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था, वह शत्रुओं के सामने डटा हुआ था। व्यूह के पृष्ठ भाग में पिगंल नेत्रों वाला प्रियदर्शन दु:शासन सेनाओं से घिरा हुआ खड़ा था। वह एक विशाल गजराज की पीठ पर विराजमान था। महाराज! विचित्र अस्त्र और कवच धारण करने वाले सहोदर भाइयों तथा एक साथ आये हुए मद्र और केकय देश के महापराक्रमी योद्धाओं द्वारा सुरक्षित साक्षात राजा दुर्योधन दु:शासन के पीछे-पीछे चल रहा था। महाराज! उस समय देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र के समान उसकी शोभा हो रही थी। अश्वत्थामा, कौरव पक्ष के प्रमुख महारथी वीर, शौर्य सम्पन्न म्लेच्छ सैनिकों से युक्त नित्य मतवाले हाथी वर्षा करने वाले मेघों के समान मद की धारा बहाते हुए उस रथ सेना के पीछे-पीछे चल रहे थे। वे हाथी ध्वजों, वैजयन्ती- पताकाओं, प्रकाशमान अस्त्र-शस्त्रों तथा सवारों से सुशोभित हो वृक्ष समूहों से युक्त पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। पट्टिश और खड्ग धारण किये तथा युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले सहस्रों शूर सैनिक उन पैदलों एवं हाथियों के पादरक्षक थे। अधिकाधिक सुसज्जित हाथियों, रथों और घुड़सवारों से सम्पन्न वह व्यूहराज देवताओं और असुरों की सेना के समान सुशोभित हो रहा था। विद्वान सेनापति कर्ण के द्वारा बृहस्पति की बतायी हुई रीति के अनुसार भली-भाँति रचा गया वह महान व्यू्ह शत्रुओं के मन में भय उत्पन्न करता हुआ नृत्य सा कर रहा था। उसके पक्ष और प्रपक्षों से युद्ध के इच्छुक पैदल, घुड़सवार, रथी और गजारोही योद्धा उसी प्रकार निकल पड़ते थे, जैसे वर्षाकाल में मेघ प्रकट होते हैं।
तदनन्तर सेना के मुहाने पर कर्ण को खड़ा देख राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं का संहार करने वाले अद्वितीय वीर धनंजय से इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘अर्जुन! रणभूमि में कर्ण द्वारा रचित उस महाव्यूह को देखो। पक्षों और प्रपक्षों से युक्त शत्रु की वह व्यूहबद्ध सेना कैसी प्रकाशित हो रही है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद)
'अत: इस विशाल शत्रुसेना की ओर देखकर तुम ऐसी नीति का निर्माण करो, जिससे वह हमें परास्त न कर सके। राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन हाथ जोड़कर उनसे बोले,
अर्जुन बोले ;- ‘भारत! आप जैसा कहते हैं वह सब वैसा ही है। उसमें थोड़ा सा भी अन्तर नहीं है। ‘युद्धशास्त्र में इस व्यूह के विनाश के लिये जो उपाय बताया गया है, उसी का सम्पादन करुंगा। प्रधान सेनापति का वध होने पर ही इसका विनाश हो सकता है; अत: मैं वही करुंगा’।
युधिष्ठिर बोले ;- अर्जुन! तब तुम्हें राधा पुत्र कर्ण के साथ भिड़ जाओ। भीमसेन दुर्योधन से, नकुल वृषसेन से, सहदेव शकुनि से, शतानीक दु:शासन से, सात्यकि कृतवर्मा से और धृष्टद्युम्न अश्वत्थामा से युद्ध करे तथा स्वयं मैं कृपाचार्य के साथ युद्ध करुंगा। द्रौपदी के पुत्र शिखण्डी के साथ रहकर धृतराष्ट्र के शेष बचे हुए पुत्रों पर धावा करें। इसी प्रकार हमारे विभिन्न सैनिक हमलोगों के उन-उन शत्रुओं का विनाश करें। धर्मराज के ऐसा कहने पर अर्जुन ने ‘तथास्तु’ कहकर अपनी सेनाओं को युद्ध के लिये आदेश दे दिया और स्वयं वे सेना के मुहाने पर जा पहुँचे।
महाराज! अर्जुन दाहिने पक्ष में खड़े हुए और महाबाहु भीमसेन बायें पक्ष का आश्रय लिया। सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र तथा स्वयं राजा युधिष्ठिर अपनी सेना से घिरकर व्यूह के मुहाने पर खड़े हुए। युधिष्ठिर ने अपनी सेना द्वारा प्रतिरोध करके शत्रु की उस सेना को ठहर जाने के लिये विवश कर दिया और धृष्टद्युम्र तथा शिखण्डी को आगे करके उसके मुकाबले में अपनी सेना का व्यूह बनाया। घुड़सवारों, हाथियों, पैदलों और रथों से भरा हुआ वह प्रबल व्यूह, जिसके प्रमुख भाग में धृष्टद्युम्र थे, बड़ी शोभा पा रहा था। वेद-मन्त्रों द्वारा प्रज्वलित और सबसे पहले प्रकट हुए सम्पूर्ण विश्व के नेता अग्नि देव, जो ब्रह्मा जी के सुख से सर्वप्रथम उत्पन्न हैं और इसी कारण देवता जिन्हें ब्राह्मण मानते हैं, अर्जुन के उस दिव्यी रथ के अश्व बने हुए थे। जो प्राचीन काल में क्रमश: ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र और वरुण की सवारी में आ चुका था, उसी आदि रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन शत्रुओं की ओर बढ़े चले जा रहे थे।
अत्यन्त अ्द्भुत दिखायी देने वाले उस रथ को आते देख शल्य ने रणदुर्मद सूतपुत्र कर्ण से पुन: इस प्रकार कहा ‘कर्ण! तुम जिन्हें बारंबार पूछ रहे थे, वे ही ये कुन्ती कुमार अर्जुन शत्रुओं का संहार करते हुए रथ के साथ आ पहुँचे। उनके घोड़े श्वेत रंग के हैं, श्रीकृष्ण उनके सारथि हैं और वे कर्मों के फल की भाँति तुम्हारी सम्पूर्ण सेनाओं के लिये दुर्निवार्य हैं। ‘उनके रथ का भयंकर शब्द ऐसा सुनायी दे रहा है, मानो महान मेघ की गर्जना हो रही हो। निश्चय ही वे महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ही आ रहे हैं। ‘कर्ण! यह ऊपर उठी हुई धूल आकाश को आच्छादित करके स्थित हो रही है और पृथ्वी अर्जुन के रथ के पहियों द्वारा संचालित सी होकर कांपने लगी है ‘तुम्हारी सेना के सब ओर यह प्रचण्ड। वायु बह रही है, ये मांसभक्षी पशु-पक्षी बोल रहे हैं और मृगगण भयंकर क्रन्दन कर रहे हैं। ‘कर्ण! वह देखो, रोंगटे खड़े कर देने वाला भयदायक मेघसदृश महाघोर कबन्धाकार केतु नामक ग्रह सूर्यमण्डल को घेरकर खड़ा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 46-65 का हिन्दी अनुवाद)
‘देखो’ चारों दिशाओं में नाना प्रकार के पशुसमुदाय तथा बलवान एवं स्वाभिमानी सिंह सूर्य की ओर देख रहे हैं। 'देखो' सहस्रों घोर कंक और गीध एकत्र होकर सामने खड़े हैं और आपस में कुछ बोल भी रहे हैं। ‘कर्ण! तुम्हारे विशाल रथ में बंधे हुए ये रंगीन और श्रेष्ठ चंवर सहसा प्रज्वलित हो उठे हैं और तुम्हारी ध्वजा भी जोर-जोर से हिलने लगी है। 'देखो, ये तुम्हारे विशालकाय, महान वेगशाली, दर्शनीय तथा आकाश में गरुड़ के समान उड़ने वाले घोड़े थर्थर कांप रहे हैं। 'कर्ण जब ऐसे अपशकुन प्रकट हो रहे हैं तो निश्चय ही आज सैकड़ों और हजारों नरेश मारे जाकर रणभूमि में शयन करेंगे। ‘राधानन्दन! सब ओर शंखों, ढोलों और मृदंगों की रोमाचंकारी तुमुल-ध्वनि सुनायी दे रही है। ‘कर्ण! बाणों के भाँति-भाँति के शब्द, मनुष्यों, घोड़ों और रथों के कोलाहल तथा महामनस्वीं वीरों की प्रत्यंचा और दस्तानों के शब्द सुनो। रथों की ध्वजाओं पर सोने और चांदी के तारों से खचित वस्त्रों की बनी हुई शिल्पियों द्वारा निर्मित बहुरंगी पताकाएं हवा के झोंक से हिलती हुई कैसी शोभा पा रही हैं।
‘कर्ण! देखो, अर्जुन के रथ की इन पताकाओं में सुवर्णमय चन्द्रमा, सूर्य और तारों के चिह्न बने हुए हैं और छोटी-छोटी घंटियां लगी हुई हैं। रथ पर फहराती हुई ये पताकाएं मेघों की घटा में बिजली के समान प्रकाशित हो रही हैं। ‘कर्ण! देवताओं के विमान जैसे रथ पर ये ध्वंज हवा के झोंके खा-खाकर कड़कड़ शब्द करते हुए शोभा पा रहे हैं। ‘ये महामनस्वीे पांचाल वीरों के रथ हैं, जिन पर पताकाएं फहरा रही है। यह देखो, श्रेष्ठओ वानरयुक्त ध्वजावाले अपराजित वीर कुन्तीकुमार अर्जुन आक्रमण करने के लिये इधर ही आ रहे हैं। ‘अर्जुन के ध्वज के अग्रभाग पर यह सब ओर से देखने योग्य भयंकर वानर दृष्टिगोचर होता है, जो शत्रुओं का दु:ख बढ़ाने वाला है। ‘ये बुद्धिमान श्रीकृष्ण के शंख, चक्र, गदा, शांर्ग धनुष अत्यन्त शोभा पा रहे हैं। उनके वक्ष:स्थनल पर कौस्तुभमणि सबसे अधिक प्रकाशित हो रही है। ‘हाथों में शंख और गदा धारण करने वाले ये अत्यैन्त पराक्रमी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण वायु के समान वेगशाली श्वेत घोड़ों को हांकते हुए इधर ही आ रहे हैं।
‘सव्यसाची अर्जुन के हाथ से खींचे गये गाण्डीव धनुष की यह टंकार होने लगी। उनके कुशल हाथों से छोड़े गये ये पैने बाण शत्रुओं के प्राण ले रहे हैं। युद्ध छोड़कर पीछे न हटने वाले राजाओं के मस्तकों से रणभूमि पटती जा रही है। वे मस्तक पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख और लाल-लाल विशाल नेत्रों से सुशोभित हैं। ‘अस्त्र उठाये हुए युद्ध-कुशल वीरों की ये परिघ जैसी मोटी और पवित्र सुगन्धयुक्त चन्दंन से चर्चित भुजाएं आयुधों सहित काटकर गिरायी जाने लगी हैं। ‘जिनके नेत्र’ जीभ और आंतें बाहर निकल आयी हैं, वे गिरे और गिराये जाते हुए घुड़सवारों सहित घोड़े क्षत-विक्षत होकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। ‘ये पर्वत शिखरों के समान विशालकाय हाथी अर्जुन के द्वारा मारे जाकर छिन्न-भिन्न हो पर्वतों के समान धराशायी हो रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 66-87 का हिन्दी अनुवाद)
जिनके नरेश मारे गये हैं, वे गन्धर्वनगर के समान विशाल रथ स्वर्गवासियों के पुण्यमय विमानों के समान नीचे गिर रहे हैं। ‘देखो, किरीटधारी अर्जुन ने कौरव सेना को उसी प्रकार अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, जैसे सिंह नाना जाति के सहस्रों मृगों को भयभीत कर देता है। ‘तुम्हारे सैनिकों के आक्रमण करने पर ये वीर पाण्डव योद्धा अपने ऊपर प्रहार करने वाले राजाओं तथा हाथी, घोड़े, रथ और पैदल समूहों को मार रहे हैं। ‘जैसे सूर्य बादलों से ढक जाते हैं, उसी प्रकार आड़ में पड़ जाने के कारण ये अर्जुन नहीं दिखायी देते हैं; परंतु इनके ध्वज का अग्रभाग दीख रहा है और प्रत्यंचाकी टंकार भी सुनायी पड़ती है।
‘कर्ण तुम जिन्हें पूछ रहे थे, युद्धस्थल में शत्रुओं का संहार करते हुए उन कृष्ण सारथि श्वेतवाहन वीर अर्जुन को अभी देखोगे। ‘कर्ण! लाल नेत्रोंवाले उन शत्रुसंतापी पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन को आज तुम एक रथ पर बैठे हुए देखोगे। ‘राधापुत्र! श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं और गाण्डीव जिनका धनुष है, उन अर्जुन को यदि तुमने मार लिया तो तुम हमारे राजा हो जाओगे। ‘यह देखो’ संशप्तकों की ललकार सुनकर महाबली अर्जुन उन्हीं की ओर चल पड़े और अब संग्राम में उन शत्रुओं का संहार कर रहे हैं’। ऐसी बातें कहते हुए मद्रराज शल्यं से कर्ण ने अत्यन्त क्रोधपूर्वक कहा ‘तुम्हींं देखो न, रोष में भरे हुए संशप्तकों ने उन पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया है। ‘यह लो, बादलों से ढके हुए सूर्य के समान अर्जुन अब नहीं दिखायी देते हैं। शल्य अब अर्जुन का यहाँ अन्त हुआ समझो। वे योद्धाओं के समुद्र में डूब गये’।
शल्य ने कहा ;- कर्ण! कौन ऐसा वीर है, जो जल से वरुण को और ईधन से अग्निे को मार सके? वायु को कौन कैद कर सकता है अथवा महासागर को कौन पी सकता है? मैं युद्ध में अर्जुन के स्वरूप को ऐसा ही समझता हूँ। संग्राम भूमि में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों के द्वारा भी अर्जुन नहीं जीते जा सकते। अथवा यदि तुम्हें इसी से संतोष होता है तो वाणीमात्र से अर्जुन के वध की चर्चा करके मन ही मन प्रसन्न हो लो। परंतु वास्तव में युद्ध के द्वारा कोई भी अर्जुन को जीत नहीं सकता। अत: अब तुम कोई और ही मनसूबा बांधो। जो समरांगण में अर्जुन को जीत ले, वह मानो अपनी दोनों भुजाओंसे पृथ्वी को उठा सकता है, कुपित होने पर इस सारी प्रजा को दग्ध कर सकता है तथा देवताओं को भी स्वर्ग से नीचे गिरा सकता है। लो देख लो, अनायास ही महान कर्म करने वाले भयंकर वीर महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुन दूसरे मेरु पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हुए प्रकाशित हो रहे हैं।
सदा क्रोध में भरे रहकर दीर्घकाल तक बैर को याद रखने वाले ये अमर्षशील पराक्रमी भीमसेन विजय की अभिलाषा लेकर युद्ध के लिये खड़े हैं। शत्रुनगररी पर विजय पाने वाले, ये धर्मात्मायओं में श्रेष्ठ। धर्मराज युधिष्ठिर भी युद्ध भूमि में खड़े हैं। शत्रुओं के लिये इन्हें पराजित करना आसान नहीं है। ये अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर दोनों भाई पुरुष प्रवर नकुल और सहदेव भी युद्ध स्थल में खड़े हैं। इन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है। ये द्रौपदी के पांचों पुत्र पांच पर्वतों के समान अविचल भाव से युद्ध के लिये खड़े हैं। रणभूमि में ये सब के सब अर्जुन के समान पराक्रमी हैं। ये समृद्धिशाली, सत्ययविजयी तथा परम बलवान द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न आदि वीर युद्ध के लिये डटे हुए हैं। वह सामने सात्वतवंश के श्रेष्ठ वीर सात्यकि, जो शत्रुओं के लिये इन्द्र के समान असह्य हैं, क्रोध भरे हुए यमराज के समान युद्ध की इच्छा लेकर सामने से हम लोगों की ओर आ रहे हैं। राजन! वे दोनों पुरुषसिंह शल्य और कर्ण इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि कौरव और पाण्डव की दोनों सेनाएं गंगा और यमुना के समान एक दूसरे से वेगपुर्वक जा मिलीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण और शल्यन का संवाद विषयक छियालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सैतालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तमचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का भयंकर युद्ध तथा अर्जुन और कर्ण का पराक्रम”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! इस प्रकार जब सारी सेनाओं की व्यूहरचना हो गयी और दोनों दलों के योद्धा परस्पपर युद्ध करने लगे, तब कुन्ती पुत्र अर्जुन ने संशप्तकों पर और कर्ण ने पाण्डव-योद्धाओं पर कैसे धावा किया? सूत! तुम युद्ध सम्बन्धी इस समाचार का विस्तांरपूर्वक वर्णन करो, क्योंकि तुम इस कार्य में कुशल हो। रणभूमि में वीरों के पराक्रम का वर्णन सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है।
संजय कहते हैं ;- महाराज! आपके पुत्र की दुर्नीति के कारण शत्रुओं की उस विशाल सेना को युद्ध में उपस्थित जानकर अर्जुन ने अपनी सेना का भी व्यूह बनाया। घुड़सवारों, हाथियों, रथों तथा पैदलों से भरे हुए उस व्यूह के मुख भाग में धृष्टद्युम्न खड़े थे, जिससे उस विशाल सेना की बड़ी शोभा हो रही थी। कबूतर के समान रंगवाले घोड़ों से युक्त और चन्द्रमा तथा सूर्य के समान तेजस्वी धनुर्धर वीर द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न वहाँ मूर्तिमान काल के समान जान पड़ते थे। दिव्य कवच और आयुध धारण किये, सिंह के समान पराक्रमी सेवकों सहित समस्त द्रौपदी पुत्र युद्ध के लिये उत्सुध हो धृष्टद्युम्न की रक्षा करने लगे, मानो तेजस्वी शरीरवाले नक्षत्र चन्द्रमा का संरक्षण कर रहे हों।
इस प्रकार सेनाओं की व्यूह-रचना हो जाने पर रणभूमि में संशप्तकों की ओर देखकर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए उन पर आक्रमण किया। तब विजय का दृढ़ संकल्प लेकर मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्त होने का निमित्त बनाकर अर्जुन के वध की इच्छावाले संशप्तकों ने भी उन पर धावा बोल दिया। संशप्तकों की सेना में पैदल मनुष्यों और घुड़सवारों की संख्या बहुत अधिक थी। मतवाले हाथी और रथ भी भरे हुए थे। पैदलों सहित शूरवीरों के उस समुदाय ने तुरंत ही अर्जुन को पीड़ा देना आरम्भ किया। किरीटधारी अर्जुन के साथ संशप्तकों का वह संग्राम वैसा ही भयानक था, जैसा कि निवातकवच नामक दानवों के साथ अर्जुन का युद्ध हमने सुन रखा है। तदनन्तर कुन्ती कुमार अर्जुन ने रणस्थल में आये हुए शत्रुपक्ष के रथों, घोड़ों, ध्वजों, हाथियों और पैदलों को भी काट डाला, उन्होंने शत्रुओं के धनुष, बाण, खड्ग, चक्र, फरसे, आयुधों सहित उठी हुई भुजा, नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र तथा सहस्रों मस्तक काट गिराये। सेनाओं की उस विशाल भंवर में जो पाताल तल के समान प्रतीत होता था, अर्जुन के उस रथ को निमग्न हुआ मानकर संशप्तक सैनिक प्रसन्न हो सिंहनाद करने लगे। तत्पश्चात उन शत्रुओं का वध करके पुन: अर्जुन ने कुपित हो उत्तर, दक्षिण और पश्चिम की ओर से आपकी सेना का उसी प्रकार संहार आरम्भ किया, जैसे प्रलयकाल में रुद्र देव पशुओं (जगत के प्राणियों) का विनाश करते हैं।
माननीय नरेश! फिर आपके सैनिकों के साथ पांचाल, चेदि और सृजंय वीरों का अत्यन्त, भयंकर संग्राम होने लगा। रथियों की सेना में प्रहार करने में कुशल कृपाचार्य, कृतवर्मा और सुबलपुत्र शकुनि ये रणदुर्मद वीर अत्यन्त कुपित हो हर्ष में भरी हुई सेना साथ लेकर कोसल, काशि, मत्स्य, करुष, केकय तथा शूरसेनदेशीय शूरवीरों के साथ युद्ध करने लगे। उनका वह युद्ध क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रवीरों के शरीर, पाप और प्राणों का विनाश करने वाला, संहारकारी, धर्मसंगत, स्वर्गदायक तथा यश वृद्धि करने वाला था। भरतश्रेष्ठ! भाइयों सहित कुरुवीर दुर्योधन कौरव वीरों तथा मद्रदेशीय महारथियों से सुरक्षित हो रणभूमि में पाण्डवों, पांचालों, चेदि देश के वीरों तथा सात्यकि के साथ जूझते हुए कर्ण की रक्षा करने लगा। कर्ण भी अपने पैने बाणों से विशाल पाण्डव सेना को हताहत करके बड़े-बड़े रथियों को धूल में मिलाकर युधिष्ठिर को पीड़ा देने लगा। वह सहस्रों शत्रुओं को वस्त्र, आयुध, शरीर और प्राणों से शून्य करके उन्हें स्वर्ग और सुयश से संयुक्त करता हुआ आत्मीयजनों की आनन्द प्रदान करने लगा। मान्यवर! इस प्रकार मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों का विनाश करने वाला वह कौरवों तथा सृंजयों का युद्ध देवासुर संग्राम के समान भयंकर था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्ध विषयक सैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के द्वारा बहुत-से योद्धाओं सहित पाण्डव सेना का संहार, भीमसेन के द्वारा कर्णपुत्र भानुसेन का वध, नकुल और सात्यकि के साथ वृषसेन का युद्ध तथा कर्ण का राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! कर्ण कुन्ती पुत्रों की सेना में प्रवेश करके राजा युधिष्ठिर के पास पहुँचकर जो जनसंहार कर रहा था, उसका समाचार मुझे सुनाओ। उस समय पाण्डव पक्ष के किन-किन प्रमुख वीरों ने युद्धस्थल में कर्ण को आगे बढ़ने से रोका और किन-किन को रौंदकर सूतपुत्र कर्ण ने युधिष्ठिर को पीड़ित किया।
संजय ने कहा ;- राजन! कर्ण ने धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव वीरों को खड़ा देख बड़ी उतावली के साथ शत्रुसंहारकारी पांचालों पर धावा किया। विजय से उल्लासित होने वाले पांचाल वीर शीघ्रता पूर्वक आक्रमण करते हुए महामना कर्ण की अगवानी के लिये उसी प्रकार आगे बढ़े, जैसे हंस महासागर की ओर बढ़ते हैं। तदनन्तर दोनों सेनाओं में सहसा सहस्रों शंखों की ध्वनि प्रकट हुई, जो हृदय को कम्पित कर देती थी। साथ ही भयंकर भेरीनाद भी होने लगा। उस समय नाना प्रकार के बाणों के गिरने, हाथियों के चिंग्घाहड़ने, घोड़ों के हींसने, रथ के घर्घराने तथा वीरों के सिंह-नाद करने का दारुण शब्द वहाँ गूंज उठा। पर्वत, वृक्ष और समुद्रों सहित पृथ्वी, वायु तथा मेघों सहित आकाश एवं सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों सहित स्वर्ग स्पष्ट, ही घुमते-से जान पड़े। इस प्रकार समस्त प्राणियों ने उस तुमुल नाद को सुना और सब-के-सब व्यथित हो उठे। उनमें जो दुर्बल प्राणी थे, वे प्राय: मर गये।
तत्पश्चात जैसे इन्द्र असुरों की सेना का विनाश करते हैं, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए कर्ण ने शीघ्रतापूर्वक् अस्त्र चलाकर पाण्डव सेना का संहार आरम्भ किया। पाण्डवों की सेना में प्रवेश करके बाणों की वर्षा करते हुए कर्ण ने प्रभद्रकों के सतहत्तर प्रमुख वीरों को मार डाला। तदनन्तर रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने सुन्दर पंखवाले पच्चीस पैने बाणों द्वारा पच्चीस पांचालों को काल के गाल में भेज दिया। वीर कर्ण ने शत्रुओं के शरीर को विदीर्ण कर देने वाले सुवर्णमय पंखयुक्त नाराचों द्वारा सैकड़ों और हजारों चेदि देशीय वीरों का वध कर डाला। महाराज! इस प्रकार समरांगण में अलौकिक कर्म करने वाले कर्ण को पांचाल रथियों ने चारों ओर से घेर लिया। भारत! तब उस रणक्षेत्र में धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण ने पांच दु:सह बाणों का संधान करके भानुदेव, चित्रसेन, सेना बिन्दु, तपन तथा शूरसेन इन पांच पांचाल वीरों का संहार कर दिया। उस महासमर में बाणों द्वारा उन शूरवीर पांचालों के मारे जाने पर पांचालों की सेना में महान हाहाकार मच गया। महाराज! फिर दस पांचाल महारथियों ने आकर कर्ण को घेर लिया, परंतु कर्ण ने अपने बाणों द्वारा पुन: उन सबको तत्काल मार डाला।
माननीय नेरश! कर्ण के दो दुर्जय पुत्र सुषेण और चित्रसेन उसके पहियों की रक्षा में तत्पर हो प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते थे। कर्ण का ज्येष्ठ पुत्र महारथी वृषसेन पृष्ठरक्षक था। वह स्वयं ही कर्ण के पृष्ठभाग की रक्षा कर रहा था। उस समय प्रहार करने वाले राधा पुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा से धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पांचों पुत्र, भीमसेन, जनमेजय, शिखण्डी, प्रमुख प्रभद्रक वीर, चेदि, केकय और पांचाल देश के योद्धा, नकुल-सहदेव तथा मत्स्य देशीय सैनिकों ने कवच से सुसज्जित हो उस पर धावा बोल दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे वर्षा ऋतु में बादल पर्वत पर जल की धारा गिराते हैं, उसी प्रकार उन पाण्डव वीरों ने अपनी सेना का मर्दन करने वाले कर्ण पर नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों और बाण धाराओं की वृष्टि की। राजन! उस समय अपने पिता की रक्षा चाहने वाले प्रहार कुशल कर्ण पुत्र तथा आपकी सेना के दूसरे-दूसरे वीर पुर्वोंक्त पाण्डव वीरों का निवारण करने लगे। सुषेण ने एक भल्ल से भीमसेन के धनुष को काटकर उनकी छाती में सात नाराचों का प्रहार करके भंयकर गर्जना की। तदनन्तर भीषण पराक्रम प्रकट करने वाले भीमसेन ने दूसरा सुदृढ़ धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ायी और सुषेण के धनुष को काट डाला। साथ ही कुपित हो नृत्य से करते हुए भीमसेन ने दस बाणों द्वारा उसे घायल कर दिया और तिहत्तर पैने बाणों से तुरंत ही कर्ण को भी पीट दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हितैषी सुहृदों के बीच में उनके देखते-देखते कर्ण के पुत्र भानुसेन को दस बाणों से घोड़े, सारथि, आयुध और ध्वजों सहित मार गिराया। भीमसेन के क्षुर से कटा हुआ चन्द्रोपम मुख से युक्त भानुसेन का वह मस्तक नाल से काटकर गिरे हुए कमल पुष्प के समान सुन्दर ही दिखायी दे रहा था।
कर्ण के पुत्र का वध करके भीमसेन ने पुन: आपके सैनिकों का मर्दन आरम्भ किया। कृपाचार्य और कृतवर्मा के धनुषों को काटकर उन दोनों को भी गहरी चोट पहुँचायी। तीन बाणों से दु:शासन को और छ: लोहे के बाणों से शकुनि को भी घायल करके उलूक और पतत्रि दोनों वीरों को रथहीन कर दिया। फिर सुषेण से यह कहते हुए बाण हाथ में लिया कि ‘अब तू मारा गया’। किंतु कर्ण ने भीमसेन के उस बाण को काट डाला और तीन बाणों से उन्हें भी घायल कर दिया। तब भीमसेन ने सुन्दर गांठ और तेज धारवाले दूसरे बाण को हाथ में लिया और उसे सुषेण पर चला दिया किंतु कर्ण ने उसको भी काट डाला। फिर पुत्र के प्राण बचाने की इच्छा से कर्ण ने क्रूर भीमसेन को मार डालने की अभिलाषा लेकर उन पर तिहत्तर बाणों का प्रहार किया।
तब सुषेण ने महान भार को सहलेने वाले श्रेष्ठ धनुष को हाथ में लेकर नकुल की दोनों भुजाओं और छाती में पांच बाणों का प्रहार किया। नकुल ने भी भार सहन करने में समर्थ बीस सुदृढ़ बाणों द्वारा सुषेण को घायल करके कर्ण के मन में भय उत्पन्न करते हुए बड़े जोर से गर्जना की। महाराज! महारथी सुषेण ने दस बाणों से नकुल को चोट पहुँचाकर शीघ्र ही एक क्षुरप्र के द्वारा उनका धनुष काट दिया। तब क्रोध से अचेत-से होकर नकुल ने दूसरा धनुष हाथ में लिया और सुषेण को नौ बाण मारकर उसे युद्धस्थल में आगे बढ़ने से रोक दिया। राजन! शत्रुवीरों का संहार करने वाले नकुल ने अपने बाणों से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके फिर तीन बाणों से सुषेण और उसके सारथि को भी घायल कर दिया। साथ ही तीन भल्ल मारकर उसके सुदृढ़ धनुष के तीन टुकड़े कर डाले। तब क्रोध से मूर्च्छित हुए सुषेण ने दूसरा धनुष लेकर नकुल को साठ और सहदेव को सात बाणों से घायल कर दिया। बाणों द्वारा शीघ्रता पूर्वक एक दूसरे के वध के लिये चोट करते हुए वीरों का वह महान युद्ध देवासुर-संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 41-67 का हिन्दी अनुवाद)
सात्यकि ने लोहे के बने हुए सात बाणों से वृषसेन को घायल करके फिर सत्तर बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। साथ ही तीन बाणों से उसके सारथि को भी बींध डाला। महाराज! वृषसेन ने झुकी हुई गांठवाले बाण से महारथी सात्यकि के कपाल में आघात किया। महाराज! वृषसेन के उस बाण से अत्यन्त पीड़ित होने पर वीर सात्यकि को बड़ा क्रोध हुआ। क्रुद्ध होने पर उन्होंने भयंकर वेग प्रकट किया और शीघ्र ही पंद्रह श्रेष्ठ बाण हाथ में ले लिये। उनमें से तीन बाणों द्वारा सात्यकि ने वृषसेन के सारथि को मारकर एक से उसका धनुष काट दिया और सात बाणों से उसके घोड़ों को मार डाला। फिर एक बाण से उसके ध्वजा को खण्डित करके तीन बाणों से वृषसेन की छाती में भी चोट पहुँचायी। इस प्रकार रणक्षेत्र में युयुधान के द्वारा सारथि, अश्व एवं रथी की ध्वजा से रहित किया हुआ वृषसेन दो घड़ी तक अपने रथ पर शिथिल-सा होकर बैठा रहा। फिर उठकर सात्यकि को मार डालने की इच्छा से ढाल और तलवार लेकर उनकी ओर बढ़ा। इस प्रकार आक्रमण करते हुए वृषसेन की तलवार और ढाल को सात्यकि ने वाराहकर्ण नामक दस बाणों द्वारा शीघ्र ही खण्डित कर दिया।
तब दु:शासन ने वृषसेन को रथ और अस्त्र-शस्त्रों से हीन हुआ देख उसे रण से व्याकुल हुआ मानकर तुरंत ही अपने रथ पर बिठा लिया और वहाँ से दूर हटा दिया। तदनन्तर महारथी वृषसेन ने दूसरे रथ पर बैठकर तिहत्तर बाणों से द्रौपदी के पुत्रों को, पांच से युयुधान को, चौंसठ से भीमसेन को, पांच से सहदेव को, तीस बाणों से नकुल को, सात से शतानीक को, दस बाणों से शिखण्डी को और सौ बाणों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को घायल कर दिया। राजेन्द्र! प्रजानाथ! महाधनुर्धर कर्णपुत्र ने विजय की अभिलाषा रखने वाले इन सभी प्रमुख वीरों को तथा दूसरों को भी अपने बाणों से पीड़ित कर दिया। तत्पवश्चात वह दुर्धर्ष वीर युद्धस्थल में पुन: कर्ण के पृष्ठभाग की रक्षा करने लगा। सात्यकि ने लोहे के बने हुए नौ नूतन बाणों से दु:शासन को सारथि, घोड़ों और रथ से वंचित करके उसके ललाट में तीन बाण मारे। दु:शासन विधिपूर्वक सजाये हुए दूसरे रथ पर बैठकर कर्ण के बल को बढ़ाता हुआ पुन: पाण्डवों के साथ युद्ध करने लगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर धृष्टद्युम्न ने कर्ण को दस बाणों से बींध डाला। फिर द्रौपदी के पुत्रों ने तिहत्तर, सात्यकि ने सात, भीमसेन ने चौंसठ, सहदेव ने सात, नकुल ने तीस, शतानीक ने सात, शिखण्डी ने दस और वीर धर्मराज युधिष्ठिर ने सौ बाण कर्ण को मारे। राजेन्द्र! विजय की अभिलाषा रखने वाले इन प्रमुख वीरों तथा दूसरों ने भी उस महासमर में महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्ण को बाणों द्वारा पीड़ित कर दिया। रथ से विचरने वाले शत्रुदमन वीर सूतपुत्र कर्ण ने भी उन सबको दस-दस बाणों से घायल कर दिया। महाभाग! हमने महामना कर्ण के अस्त्र बल और फुर्ती को वहाँ अपनी आंखों देखा था। वह सब कुछ अद्भुत सा प्रतीत होता था। वह कब तरकस से बाण निकालता है, कब धनुष पर रखता है और कब क्रोध पूर्वक शत्रुओं पर छोड़ देता है, यह सब किसी ने नहीं देखा। सब लोग मारे जाते हुए शत्रुओं को ही देखते थे। राजेन्द्र! हमलोग एक ही क्षण में कर्ण को पश्चिम दिशा में देखकर उसकी फुर्ती के कारण उसे पूर्व दिशा में भी देखते थे। इस समय कर्ण कहाँ खड़ा है, यह हम लोग नहीं देख पाते थे। राजन! सब ओर बिखरे हुए उसके बाण ही हमें दिखायी देते थे, जो टिड्डीदलों के समान सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित किये रहते थे। द्युलोक, आकाश, भूमि और सम्पूर्ण दिशाएं पैने बाणों से खचाखच भर गयीं थी। उस प्रदेश में आकाश अरुण रंग के बादलों से ढका हुआ सा जान पड़ता था। प्रतापी राधापुत्र कर्ण हाथ में धनुष लेकर नृत्य सा कर रहा था। जिन-जिन योद्धाओं ने उसे एक बाण से घायल किया, उनमें से प्रत्येक को उसने तीन गुने बाणों से बींध डाला। फिर दस-दस बाणों से घोड़ों, सारथि, रथ और छत्रों सहित इन सबको घायल करके कर्ण ने सिंह के समान दहाड़ना आरम्भ किया। फिर तो उन शत्रुओं ने उसे आगे बढ़ने के लिये जगह दे दी।
शत्रुओं का संहार करने वाले राधापुत्र कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा द्वारा उन महाधनुर्धरों को रौंदकर राजा युधिष्ठिर की सेना में बेरोक-टोक प्रवेश किया। उसने युद्ध से पीछे न हटने वाले तीन सौ चेदिदेशीय रथियों को अपने पैने बाणों द्वारा मारकर युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। राजन! तब पाण्डवों, शिखण्डी और सात्यकि ने राधापुत्र कर्ण से राजा युधिष्ठिर की रक्षा करने के लिये उन्हें चारों ओर से घेर लिया। इसी प्रकार आपके सभी महाधनुर्धर शूरवीर योद्धा रण में अनिवार्य गति से विचरने वाले कर्ण की सब ओर से प्रयत्न पूर्वक रक्षा करने लगे। प्रजानाथ! उस समय नाना प्रकार के रणवाद्यों की ध्वनि होने लगी और सब ओर से गर्जना करने वाले शूरवीरों का सिंहनाद सुनायी देने लगा। तदनन्तर पुन: कौरव और पाण्डव योद्धा निर्भय होकर एक दूसरे भिड़ गये। एक ओर युधिष्ठिर आदि कुन्ती पुत्र थे और दूसरी और कर्ण आदि हम लोग।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण और युधिष्ठिर का संग्राम, कर्णकी मूर्छा, कर्णद्वारा युधिष्ठिर की पराजय और तिरस्कार तथा पाण्डवों के हजारों योद्धाओं का वध और रक्त-नदी का वणर्न तथा पाण्डव महारथियों द्वारा कौरव-सेना का विध्वंस और उसका पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन! सहस्रों रथ, हाथी, घोड़े और पैदलों से घिरे हुए कर्ण ने उस सेना को विदीर्ण करके युधिष्ठिर धावा किया। हजारों अस्त्र-शस्त्रों को काटकर उन सबको सैकड़ों उग्र बाणों द्वारा बिना किसी घबराहट के बींध डाला। सूतपुत्र ने पाण्डव सैनिकों के मस्तकों, भुजाओं और जांघों को काट डाला। वे मरकर पृथ्वी पर गिर पड़े और दूसरे बहुत से योद्धा घायल होकर भाग गये। तब सात्यकि से प्रेरित द्रविड और निषाद देशों के पैदल सैनिक कर्ण को युद्ध में मार डालने की इच्छा से पुन: उस पर टूट पड़े। पंरतु कर्ण के बाणों से घायल होकर बाहु, मस्तक और कवच आदि से रहित हो वे कटे हुए शालवन के समान एक साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार युद्धस्थल में मारे गये सैकड़ों, हजार और दस हजार योद्धा शरीर से तो इस पृथ्वी पर गिर पड़े, किंतु अपने यश से उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं को पूर्ण कर दिया। तदनन्तर रणक्षेत्र में कुपित हुए यमराज के समान वैकर्तन कर्ण को पाण्डवों और पांचालों ने अपने बाणों द्वारा उसी प्रकार रोक दिया, जैसे चिकित्सक मन्त्रों और औषधों से रोगों की रोक थाम कर लेते हैं। परंतु मन्त्र और औषधियों की क्रिया से असाध्यं भयानक रोग की भाँति कर्ण ने उन सबको रौंदकर पुन: युधिष्ठिर पर ही आक्रमण किया। राजा की रक्षा चाहने वाले पाण्डवों, पांचालों और केकयों ने पुन: कर्ण को रोक दिया। जैसे मृत्यु ब्रह्मवेत्ताओं को नहीं लांघ सकती, उसी प्रकार कर्ण उन सबको लांघकर आगे न बढ़ सका।
उस समय युधिष्ठिर ने क्रोध से लाल आंखें करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले कर्ण से, जो पास ही रोक दिया गया था, इस प्रकार कहा।
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘कर्ण! कर्ण! मिथ्यादर्शी सूतपुत्र! मेरी बात सुनो। तुम संग्राम में वेगशाली वीर अर्जुन के साथ सदा डाह रखते और दुर्योधन के मत में रहकर सर्वदा हमें बाधा पहुँचाते हो। ‘परंतु आज तुम्हारे पास जितना बल हो, जो पराक्रम हो तथा पाण्डवों के प्रति तुम्हारे मन में जो विद्वेष हो, वह सब महान पुरुषार्थ का आश्रय लेकर दिखाओ। आज महासमर में मैं तुम्हारा युद्ध का हौसला मिटा दूंगा।
महाराज! ऐसा कहकर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ने लोहे के बने हुए सुवर्ण पंखयुक्त दस बाणों द्वारा कर्ण को बींध डाला। भारत। तब शत्रुओं का दमन करने वाले महाधनुर्धर सूतपुत्र ने हंसते हुए से वत्सं दन्त नामक दस बाणों द्वारा युधिष्ठिर को घायल कर दिया। माननीय नरेश! सुतपुत्र के द्वारा अवज्ञापूर्वक घायल किये जाने पर फिर राजा युधिष्ठिर घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान क्रोध से जल उठे। ज्वालामालाओं से घिरा हुआ युधिष्ठिर का शरीर प्रलय काल में जगत को दग्ध करने की इच्छावाले द्वितीय संवर्तक अग्नि के समान दिखायी देता था। तदनन्तर उन्होंने अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को फैलाकर उस पर पर्वतों को भी विदीर्ण कर देनेवाले तीखे बाण का संधान किया। तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर ने सूतपुत्र को मार डालने की इच्छा से तुरंत ही धनुष को पूर्णरुप से खींचकर वह यमदण्डि के समान बाण उसके ऊपर छोड़ दिया। वेगवान युधिष्ठिर का छोड़ा हुआ व्रज और बिजली के समान शब्द करने वाला वह बाण सहसा महारथी कर्ण की बायीं पसली में घुस गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)
उस प्रहार से पीड़ित हो महाबाहु कर्ण धनुष छोड़कर रथ पर ही मूर्च्छित हो गया। उसका सारा शरीर शिथिल हो गया था। वह शल्य के सामने ही अचेत होकर ऐसे गिर पड़ा, मानो उसके प्राण निकल गये हों। राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन के हित की इच्छा से कर्ण पर पुन: प्रहार नहीं किया। तब कर्ण को उस अवस्था में देखकर दुर्योधन की सारी विशाल सेना में हाहाकार मच गया और अधिकांश सैनिकों के मुख का रंग विषाद से फीका पड़ गया। राजन! राजा युधिष्ठिर का पराक्रम देखकर पाण्डव-सैनिकों में सिंहनाद, आनन्द, कलरव और किलकिल शब्दर होने लगा। तब क्रूर पराक्रमी राधापुत्र कर्ण ने थोड़ी ही देर में होश में आकर राजा युधिष्ठिर को मार डालने का विचार किया। उस अमेय आत्मबल से सम्पन्न वीर ने विजय नामक अपने विशाल सुवर्ण-जटित धनुष को खींचकर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को पैने बाणों से ढक दिया। तत्पश्चात क्षुरों से महात्मा युधिष्ठिर के चक्र रक्षक दो पांचाल वीर चन्द्र देव और दण्डधार को युद्धस्थल में मार डाला। धर्मराज के रथ के समीप पार्श्व भागों में वे दोनों प्रमुख पांचाल वीर चन्द्रमा के पास रहने वाले दो पुनर्वसु नामक नक्षत्रों के समान प्रकाशित हो रहे थे। युधिष्ठिर ने पुन: तीस बाणों से कर्ण को बींध डाला तथा सुषेण और सत्यसेन को भी तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। उन्होंने शल्य को नब्बे और सूतपुत्र कर्ण को तिहत्तर बाण मारे। साथ ही उनके रक्षकों को सीधे जाने वाले तीन-तीन बाणों से बेंध दिया। तब अधिरथपुत्र कर्ण ने अपने धनुष को हिलाते हुए हंसकर एक भल्ल द्वारा युधिष्ठिर के धनुष को काट दिया और उन्हें भी साठ बाणों से घायल करके सिंह के समान गर्जना की।
तदनन्तर अमर्ष में भरे हुए प्रमुख पाण्डव वीर युधिष्ठिर की रक्षा के लिये दौड़े आये और कर्ण को अपने बाणों से पीड़ित करने लगे। सात्यकि, चेकितान, युयुत्सु, पाण्डव, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पांचों पुत्र, प्रभद्रक गण, नकुल-सहदेव, भीमसेन और शिशुपाल पुत्र एवं करुष, मत्स्य, केकय, काशि और कोसल-देशों के योद्धा-ये सभी वीर सैनिक तुरंत ही वसुषेण (कर्ण) को घायल करने लगे। पांचाल वीर जनमेजय ने रथ, हाथी और घुड़सवारों की सेना साथ लेकर सब ओर से कर्ण पर धावा किया और उसे मार डालने की इच्छा से घेरकर बाण, वाराहकर्ण, नाराच, नालीक, पैने बाण, वत्सदन्त, विपाठ, क्षुरप्र, चटकामुख तथा नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा चोट पहुँचाना आरम्भ किया।
पाण्डव पक्ष के प्रमुख वीरों द्वारा सब ओर से आक्रान्ता होने पर कर्ण ने ब्रह्मास्त्र प्रकट करके बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न वैकर्तन कर्ण ने चेदिदेश के दस प्रधान वीरों को पुन: मार डाला। माननीय नरेश! कर्ण के गिरते हुए सहस्रों बाण सम्पूर्ण दिशाओं में टिड्डीदलों के समान दिखायी देते थे। उसके नाम से अंकित सुवर्णमय पंखवाले तेज बाण मनुष्यों और घोड़ों के शरीरों को विदीर्ण करके सब ओर से पृथ्वी पर गिरने लगे। समरांगण में अकेले कर्ण ने चेदिदेश के प्रधान रथियों का तथा सम्पूर्ण सृंजयों के सैकड़ों योद्धाओं का भी संहार कर डाला। कर्ण के बाणों से सारी दिशाएं ढक जाने के कारण वहाँ महान अन्धकार छा गया। उस समय शत्रु पक्ष की तथा अपने पक्ष की भी कोई वस्तु पहचानी नहीं जाती थी। शत्रुओं के लिये भयदायक उस घोर अन्धकार में महाबाहु कर्ण बहुसंख्यक राजपूतों को दग्ध करता हुआ विचरने लगा। उस समय वीर कर्ण अग्नि के समान हो रहा था। बाण भी उसके ऊंचे तक उठती हुई ज्वालाओं के समान थे, पराक्रम ही उसका ताप था और वह पाण्डव रुपी वन को दग्ध करता हुआ रणभूमि में विचर रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तब सम्पूर्ण सृंजयों और पाण्डवों के सैकड़ों हजारों महारथियों ने महाधनुर्धर कर्ण पर बाणों की वर्षा करते हुए उसे चारों ओर से घेर लिया। महाधनुर्धर महामना कर्ण ने हंसकर महान अस्त्रों का संधान किया और अपने बाणों से महाराज युधिष्ठिर का धनुष काट दिया। तत्पश्चात पलक मारते-मारते झुकी हुई गांठवाले नब्बे बाणों का संधान करके कर्ण ने उन पैने बाणों द्वारा रणभूमि में राजा युधिष्ठिर के कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला। उनका वह सुवर्णभूषित रत्नजटित कवच गिरते समय ऐसी शोभा पा रहा था, मानो सूर्य से सटा हुआ बिजली सहित बादल वायु का आघात पाकर नीचे गिर रहा हो। जैसे रात्रि में बिना बादल का आकाश नक्षत्र मण्डल से विचित्र शोभा धारण करता है, उसी प्रकार युधिष्ठिर के शरीर से गिरा हुआ वह कवच विचित्र रत्नों से अलंकृत होने के कारण अद्भुत शोभा पा रहा था। बाणों से कवच कट जाने पर कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर रक्त से भीग गये। उस समय युद्धस्थल में पुरुष श्रेष्ठ युधिष्ठिर उगते हुए सूर्य के समान लाल दिखायी देते थे। उनके सारे अंगों में बाण धंसे हुए थे और कवच छिन्न-भिन्न हो गया था, तो भी वे क्षत्रिय धर्म का आश्रय लेकर वहाँ सिंह के समान दहाड़ रहे थे। उन्होंने अधिरथपुत्र कर्ण पर सम्पूर्णत: लोहे की बनी हुई शक्ति चलायी, परंतु उसने सात बाणों द्वारा उस प्रज्वलित शक्ति को आकाश में ही काट डाला। महाधनुर्धर कर्ण के सायकों से कटी हुई वह शक्ति पृथ्वी पर गिर पड़ी। तत्पश्चात युधिष्ठिर ने कर्ण की दोनों भुजाओं, ललाट और छाती में चार तोमरों का प्रहार करके सिंहनाद किया। कर्ण के शरीर से रक्त बहने लगा। फिर तो क्रोध में भरे हुए सर्प के समान फुफकारते हुए कर्ण ने एक भल्ल से युधिष्ठिर की ध्वजा काट डाली और तीन बाणों से उन पाण्डुुपुत्र को भी घायल कर दिया। उनके दोनों तरकस काट दिये और रथ के भी तिल-तिल करके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। भारत! इसी बीच में शूरवीर पाण्डव महारथी राधापुत्र कर्ण पर बाणों की वर्षा करने लगे।
महाराज! सात्यकि ने शत्रुसूदन राधापुत्र पर पच्चीस और शिखण्डी ने नौ बाणों की वर्षा की। राजन! तब क्रोध में भरे हुए कर्ण ने समरांगण में सात्यकि को पहले लोहे के बने हुए पांच बाणों से घायल करके फिर दूसरे तीन बाणों द्वारा उन्हें बींध डाला। इसके बाद कर्ण ने सात्यकि की दाहिनी भुजा को तीन, बायीं भुजा को सोलह और सारथि को सात बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। तदनन्तर चार पैने बाणों से सूतपुत्र ने सात्यकि के चारों घोड़ों को भी तुरंत ही यमलोक पहुँचा दिया। फिर दूसरे भल्ल से महारथी कर्ण ने उनका धनुष काटकर उनके सारथि के सिर सहित मस्तक को शरीर से अलग कर दिया। जिसके घोड़े और सारथि मारे गये थे, उसी रथ पर खड़े हुए शिनिप्रवर सात्यकि ने कर्ण के ऊपर वैदूर्यमणि से विभूषित शक्ति चलायी।
भारत। धनुर्धरों में श्रेष्ठ कर्ण ने अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति के सहसा दो टुकड़े कर डाले और उन सब महारथियों को आगे बढ़ने से रोक दिया, फिर अमेय आत्मबल से सम्पन्न कर्ण ने अपनी शिक्षा और बल के प्रभाव से तीखे बाणों द्वारा उन सभी पाण्डव-महारथियों की गति अवरुद्ध कर दी। जैसे सिंह छोटे मृगों को पीड़ा देता है, उसी प्रकार राधापुत्र कर्ण ने उन महारथियों को बाणों से पीड़ित करके झुकी हुई गांठवाले तीखे बाणों से चोट पहुँचाते हुए वहाँ धर्मराज धर्मपुत्र युधिष्ठिर पर पुन: आक्रमण किया। उस समय दांतों के समान सफेद रंग और काली पूंछवाले जो घोड़े युधिष्ठिर की सवारी में थे, उन्हींं से जुते हुए दूसरे रथ पर बैठकर राजा युधिष्ठवर रण-भूमि से विमुख हो शिबिर की ओर चल दिये। युधिष्ठिर का पृष्ठ रक्षक पहले ही मार दिया गया था। उनका मन बहुत दुखी था, इसलिये वे कर्ण के सामने ठहर न सके और युद्धस्थल से हट गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 50-69 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर का पीछा करके वज्र, छत्र, अंकुश, मत्स्य, ध्वज, कर्म और कमल आदि शुभ लक्षणों से सम्पन्न गोरे हाथ से उनका कंधा छूकर, मानो अपने आपको पवित्र करने के लिये उन्हें बलपूर्वक पकड़ने की इच्छा करने लगा। उसी समय उसे कुन्ती देवी को दिये हुए अपने वचन का स्मरण हो आया। उस समय राजा शल्य ने कहा 'कर्ण! इन नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर को हाथ न लगाना, अन्यथा वे पकड़ते ही तुम्हारा वध करके अपनी क्रोधाग्नि से तुम्हें भस्म कर डालेंगे।
राजन! तब कर्ण जोर-जोर से हंस पड़ा और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की निन्दा सा करता हुआ बोला ‘युधिष्ठिर! जो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हो, क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहता हो, वह महासमर में प्राणों की रक्षा के लिये भयभीत हो युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता है मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुम क्षत्रिय धर्म में निपुण नहीं हो। ‘कुन्ती कुमार! तुम ब्राह्मबल, स्वाध्याय एवं यज्ञ-कर्म में ही कुशल हो; अत: न तो युद्ध किया करो और न वीरों के सामने ही जाओ। ‘माननीय नरेश! न इन वीरों से कभी अप्रिय वचन बोलो और न महान युद्ध में पैर ही रखो। यदि अप्रिय वचन बोलना ही हो तो दूसरों से बोलना; मेरे जैसे वीरों से नहीं। ‘युद्ध में मेरे जैसे लोगों से अप्रिय वचन बोलने पर तुम्हें यही तथा दूसरा कुफल भी भोगना पड़ेगा। अत: कुन्ती नन्दन! अपने घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों वही पधारो। राजन! कर्ण समरांगण में किसी तरह भी तुम्हारा वध नहीं करेगा।
महाबली कर्ण ने युधिष्ठिर से ऐसा कहकर फिर उन्हें छोड़ दिया और जैसे वज्रधारी इन्द्र असुर सेना का संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्डव सेना का विनाश आरम्भ कर दिया। राजन! तब राजा युधिष्ठिर लजाते हुए से तुरंत रणभूमि से भाग गये। राजा को रणक्षेत्र से हटा हुआ जानकर चेदि, पाण्डव और पांचाल वीर, महारथी सात्यकि, द्रौपदी के शूरवीर पुत्र तथा पाण्डु नन्दन माद्रीकुमार नकुल-सहदेव भी धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चल दिये। तदनन्तर युधिष्ठिर सेना को युद्ध से विमुख हुई देख हर्ष में भरे हुए वीर कर्ण ने कौरव सैनिकों को साथ लेकर कुछ दूर तक उसका पीछा किया। उस समय भेर, शखं, मृदंग और धनुषों की ध्वनि सब ओर फैल रही थी तथा दुर्योधन के सैनिक सिंह के समान दहाड़ रहे थे।
कुरुवंशी महाराज! युधिष्ठिर के घोड़े थक गये थे; अत: उन्होंने तुरंत ही श्रुतकीर्ति के रथ पर आरुढ़ हो कर्ण के पराक्रम को देखा। अपनी सेना को खदेड़ी जाती हुई देख धर्मराज युधिष्ठिर ने कुपित हो अपने पक्ष के योद्धाओं से कहा ‘अरे! क्यों चुप बैठे हो इन शत्रुओं को मार डालो’। राजा की यह आज्ञा पाते ही भीमसेन आदि समस्त पाण्डव महारथी आपके पुत्रों पर टूट पड़े। भारत! फिर तो वहाँ इधर-उधर सब ओर रथी, हाथी सवार, घुड़सवार और पैदल योद्धाओं एवं अस्त्र शस्त्रों का भयंकर शब्द गूंजने लगा। 'उठो, मारो, आगे बढ़ो, टूट पड़ो' इत्यादि वाक्य बोलते हुए सब योद्धा उस महासमर में एक दूसरे को मारने लगे। उस समय वहाँ अस्त्रों से आवृत हो परस्पर करने वाले नरश्रेष्ठ वीरों के चलाये हुए बाणों की वृष्ठि से आकाश में मेघों की छाया-सी छा रही थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 70-92 का हिन्दी अनुवाद)
कितने ही घायल नरेश पताका, ध्वज, छत्र, अश्व, सारथि, आयुध, शरीर तथा उसके अवयवों से रहित हो रणभूमि में गिर पड़े। जैसे पर्वतों के शिखर टूटकर निम्न देश से लुढकते हुए नीचे गिर पड़ते हैं तथा जैसे वज्र से विदीर्ण किये हुए पर्वत धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ मारे गये हाथी अपने सवारों सहित पृथ्वी पर गिर पड़े। टूटे-फूटे और अस्त-व्यस्त हुए कवच, अलंकार एवं आभूषणों सहित सहस्रों घोड़े अपने बहादुर सवारों के मारे जाने पर उनके साथ ही गिर पड़ते थे। उस संघर्ष में विपक्षी वीरों, हाथियों, घोड़ों तथा रथों द्वारा मारे गये सहस्रों पैदल योद्धाओं के समुदाय रणभूमि में होकर बिखर गये थे।
युद्धकुशल वीरों के विशाल, विस्तृपत एवं लाल-लाल आंखों और कमल तथा चन्द्रमा के समान मुखवाले मस्तकों से सारी युद्धभूमि सब ओर से ढक गयी थी। भूतल पर जैसा कोलाहल हो रहा था, वैसा ही आकाश में भी लोगों को सुनायी देता था। वहाँ विमानों पर बैठी हुई झुंड की झुंड अप्सराएं गीत और वाद्यों की मधुर ध्वनि फैला रही थी। वीरों के द्वारा सम्मुख लड़कर मारे गये लाखों वीरों को अप्सराएं विमानों पर बिठा-बिठाकर स्वर्गलोक में ले जाती थीं। यह महान आश्चर्य की बात प्रत्यक्ष देखकर हर्ष और उत्साह में भरे हुए शूरवीर स्वर्ग की लिप्सा से एक दूसरे को शीघ्रता पूर्वक मारने लगे। युद्धस्थल में रथियों के सारथी, पैदलों के साथ पैदल, हाथियों के साथ हाथी और घोड़ों के साथ घोड़े विचित्र युद्ध करते थे। इस प्रकार हाथी, घोड़ों और मनुष्यों का संहार करने वाले उस संग्राम के आरम्भ होने पर सैनिकों द्वारा उड़ायी हुई धूल से वहाँ का सारा प्रदेश आच्छादित हो जाने पर अपने और शत्रुपक्ष के योद्धा अपने ही पक्षवालों का संहार करने लगे। दोनों दलों के सैनिक एक दूसरे के केश पकड़कर खींचते, दांतों से काटते, नखों से बखोटते, मुक्कोंं से मारते और परस्पर मल्ल युद्ध करने लगते थे। इस प्रकार वह युद्ध सैनिकों के शरीर, प्राण और पापों का विनाश करने वाला हो रहा था।
हाथी, घोड़े और मनुष्यों का विनाश करने वाला वह संग्राम उसी रुप में चलने लगा। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शरीरों से खून की नदी बह चली, जो अपने भीतर पड़े हुए हाथी, घोड़े और मनुष्यों की बहुसंख्यक लाशों को बहाये जा रही थी। मनुष्य, घोड़े और हाथियों से भरे हुए युद्धस्थल में मनुष्य, अश्व, हाथी और सवारों के रक्त ही उस नदी के जल थे। उनका मांस और गाढ़ा खून उस नदी की कीचड़ के समान जान पड़ता था। मनुष्य, घोड़े और हाथियों के शरीरों को बहाती हुई वह महाभयंकर नदी भीरु मनुष्यों को भयभीत कर रही थी। विजय की अभिलाषा रखने वाले कितने ही वीर जहाँ थोड़ा रक्तमय जल था वहाँ तैरकर और जहाँ अथाह था, वहाँ गोते लगा-लगाकर उसके दूसरे पार पहुँच जाते थे। उन सबके शरीर रक्त से रंग गये थे। कवच, आयुध और वस्त्र भी रक्त रंजित हो गये थे। भरतश्रेष्ठ! कितने ही योद्धा उसमें नहा लेते, कितनों के मुंह में रक्त की घूँट चली जाती और कितने ही ग्लानि से भर जाते थे। मारे गये तथा मारे जाते हुए हाथी, घोड़े, रथ मनुष्य, अस्त्र शस्त्र , आभूषण, वस्त्र , कवच, पृथ्वी, आकाश, द्युलोक और सम्पूर्ण दिशाएं-ये सब हमें प्राय: लाल ही लाल दिखायी देते थे।
भारत! सब ओर फैली और बढ़ी हुई उस रक्त-राशि की गन्ध से, स्पर्श, रस से, रुप से और शब्द से भी प्राय: सारी सेना के मन में बड़ा विषाद हो रहा था। भीमसेन तथा सात्यकि आदि वीरों ने विशेष रुप से विनष्ट हुई उस कौरव सेना पर पुन: वेग से आक्रमण किया। राजन! उन आक्रमणकारी वीरों के असह्य वेग को देखकर आपके पुत्रों की विशाल सेना युद्ध से विमुख होकर भाग चली। जैसे जंगल में सिंह से पीड़ित हुआ हाथियों का यूथ व्याकुल होकर भागता है, उसी प्रकार शत्रुओं द्वारा सब ओर से रौंदी जाती हुई मनुष्यों और घोड़ों से परिपूर्ण आपकी विशाल सेना भाग चली। उनके रथ, हाथी और घोड़े तितर-बितर हो गये, आवरण और कवच नष्ट हो गये तथा अस्त्र शस्त्र और धनुष छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर पड़े थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्ध विषयक अनचासवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण और भीमसेन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन”
संजय कहते हैं ;- महाराज! पाण्डवों को आपकी सेना पर आक्रमण करते देख दुर्योधन ने सब ओर से सब प्रकार के प्रयत्नों द्वारा उन योद्धाओं को रोकने तथा अपनी सेना को भी स्थिर करने का प्रयत्न किया। भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! आपके पुत्र के बहुत चीखने-चिल्लाने पर भी भागती हुई सेना पीछे न लौटी। तदनन्तर व्यूह के पक्ष और प्रपक्ष भाग में खड़े हुए सैनिक, सुबलपुत्र शकुनि तथा सशस्त्र कौरव वीर उस समय रणक्षेत्र में भीमसेन पर टूट पड़े। उधर कर्ण ने भी राजा दुर्योधन और उसके सैनिकों को भागते देख मद्रराज शल्य ने कहा-‘भीमसेन के रथ के समीप चलो’। कर्ण के ऐसा कहने पर मद्रराज शल्य ने हंस के समान श्वेेत वर्णवाले श्रेष्ठ घोड़ों को उधर ही हांक दिया, जहाँ भीमसेन खड़े थे।
महाराज! संग्राम में शोभा पाने वाले शल्य से संचालित हो वे घोड़े भीमसेन के रथ के समीप जाकर पाण्डव सेना में मिल गये। भरतश्रेष्ठ! कर्ण को आते देख क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने उसके विनाश का विचार किया। उन्होंने वीर सात्यकि तथा द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न ने कहा ‘तुम लोग धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। वे अभी-अभी मेरे देखते-देखते किसी प्रकार महान प्राण संकट से मुक्त हुए हैं। ‘दुरात्मा राधापुत्र कर्ण ने दुर्योधन की प्रसन्नता के लिये मेरे सामने ही धर्मराज की समस्त युद्ध सामग्री को छिन्न-भिन्न कर डाला है। ‘द्रुपद कुमार! इससे मुझे बड़ा दु:ख हुआ है; अत: अब मैं उसका बदला लूंगा। आज रणभूमि में अत्यन्त घोर संग्राम करके या तो मैं ही कर्ण को मार डालूंगा या वही मेरा वध करेगा; यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। ‘इस समय राजा को धरोहर के रुप में मैं तुम्हेंत सौंप रहा हूँ। तुम सब लोग निश्चित होकर इनकी रक्षा के लिये पूर्ण प्रयत्न करना’। ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन अपने महान सिंहनाद से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए सूत पुत्र कर्ण की ओर बढ़े।
युद्ध का अभिनन्दरन करने वाले भीमसेन को बड़ी उतावली के साथ आते देख मद्रदेश के स्वामी शक्तिशाली शल्य ने सूत पुत्र कर्ण से कहा।
शल्य बोले ;- कर्ण! क्रोध में भरे हुए पाण्डुनन्ददन महाबाहु भीमसेन को देखो, जो दीर्घकाल से संचित किये हुए क्रोध को आज तुम्हारे ऊपर छोड़ने का दृढ़ निश्चय किये हुए हैं। कर्ण! अभिमन्यु तथा घटोत्कच राक्षस के मारे जाने पर भी पहले कभी मैंने इनका ऐसा रुप नहीं देखा था। ये इस समय कुपित हो समस्त त्रिलोकी को रोक देने में समर्थ हैं; क्योंकि प्रलयकाल के अग्नि के समान तेजस्वी रुप धारण कर रहे हैं।
संजय कहते हैं ;- नरेश्वर! मद्रराज शल्य राधापुत्र कर्ण से ऐसी बातें कह ही रहे थे कि क्रोध से प्रज्वलित हुए भीमसेन उसके सामने आ पहुँचे। युद्ध का अभिनन्दन करने वाले भीमसेन को सामने आया देख हंसते हुए से राधापुत्र कर्ण ने शल्य से इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- ‘मद्रराज! प्रभो! आज तुमने भीमसेन के विषय में मेरे सामने जो बात कही है, वह सर्वथा सत्य है- इसमें संशय नहीं है। ‘ये भीमसेन शूरवीर, क्रोधी, अपने शरीर और प्राणों का मोह न करने वाले तथा अधिक बलशाली हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-44 का हिन्दी अनुवाद)
‘विराट नगर में अज्ञातवास करते समय इन्होंने द्रौपदी का प्रिय करने की इच्छा से छिपे-छिपे जाकर केवल बाहुबल से कीचक को उसके साथियों सहित मार डाला था। ‘वे ही आज क्रोध से आतुर हो कवच बांधकर युद्ध के मुहाने पर उपस्थित हैं; परंतु क्या ये दण्ड धारण किये यमराज के साथ भी युद्ध के लिये रणभूमि में उतर सकते हैं। ‘मेरे हृदय में दीर्घकाल से यह अभिलाषा बनी हुई है कि समरांगण में अर्जुन का वध करुं अथवा वे ही मुझे मार डालें। कदाचित भीमसेन के साथ समागम होने से मेरी वह इच्छा आज ही पूरी हो जाय। ‘यदि भीमसेन मारे गये अथवा रथहीन कर दिये गये तो अर्जुन अवश्य मुझ पर आक्रमण करेंगे, जो मेरे लिये अधिक अच्छा होगा। तुम जो यहाँ उचित समझते हो, वह शीघ्र निश्चय करके बताओ। अमित शक्तिशाली राधापुत्र कर्ण का यह वचन सुनकर राजा शल्य ने सूत पुत्र से उस अवसर के लिये उपयुक्त वचन कहा,
शल्य ने कहा ;- ‘महाबाहो! तुम महाबली भीमसेन पर चढ़ाई करो। भीमसेन को परास्त कर देने पर निश्चय ही अर्जुन को अपने सामने पा जाओगे ‘कर्ण! तुम्हाारे हृदय में चिरकाल से जो अभीष्ट मनोरथ संचित है, वह निश्चय ही सफल होगा, यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने शल्य से फिर कहा 'मद्रराज! मैं युद्ध में अर्जुन को मारुं या अर्जुन ही मुझे मार डालें। इस उद्देश्य से युद्ध में मन लगाकर जहाँ भीमसेन हैं, उधर ही चलो'।
संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! तदनन्तर शल्य रथ के द्वारा तुरंत ही वहाँ जा पहुँचे, जहाँ महाधनुर्धर भीमसेन आपकी सेना को खदेड़ रहे थे। राजेन्द्र! कर्ण और भीमसेन का संघर्ष उपस्थित होने पर फिर तूर्य और भेरियों की गम्भीर ध्वनि होने लगी। बलवान भीमसेन ने अत्यन्त कुपित होकर चमचमाते हुए तीखे नाराचों आपकी दुर्जय सेना को सम्पूर्ण दिशाओं में खदेड़ दिया। प्रजानाथ! महाराज! कर्ण और भीमसेन के उस युद्ध में बड़ी भयंकर, भीषण और मार-काट हुई। राजेन्द्र! पाण्डु पुत्र भीमसेन ने दो ही घड़ी में कर्ण पर आक्रमण कर दिया। उन्हें अपनी ओर आते देख अत्यन्त क्रोध में भरे हुए धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण ने एक नाराच द्वारा उनकी छाती में प्रहार किया। फिर अमेय आत्मबल से सम्पन्न उस वीर ने उन्हे अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया। सूतपुत्र के द्वारा घायल होने पर उन्होंने भी उसे बाणों से आच्छादित कर दिया और झुकी हुई गांठ वाले नौ तीखे बाणों से कर्ण को बींध डाला। तब कर्ण ने कई बाण मारकर भीमसेन के धनुष के बीच से ही दो टुकड़े कर दिये। धनुष कट जाने पर उनकी छाती में समस्त आवरणों का भेदन करने वाले अत्यन्त तीखे नाराच से गहरी चोट पहुँचायी।
राजन! भीमसेन ने दूसरा धनुष लेकर सूतपुत्र कर्ण के मर्मस्थानों में पैने बाणों द्वारा प्रहार किया और पृथ्वी तथा आकाश को कंपाते हुए से उन्होंने बड़े जोर से गर्जना की। कर्ण ने भीमसेन को पच्चीस नाराच मारे, मानो किसी शिकारी ने वन में दर्पयुक्त मदोन्मत्त गजराज पर उल्काओं द्वारा प्रहार किया हो। फिर कर्ण के बाणों से सारा शरीर घायल हो जाने के कारण पाण्डुपुत्र भीमसेन क्रोध से मुर्छित हो उठे। रोष और अमर्ष से उनकी आंखें लाल हो गयीं। उन्होंने सूतपुत्र के वध की इच्छा से अपने धनुष पर एक अत्यन्त वेगशाली, भार साधन में समर्थ, उत्तम और पर्वतों को भी विदीर्ण कर देने वाले बाण का संधान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 45-49 का हिन्दी अनुवाद)
फिर हनुमान जी भी अधिक पराक्रम प्रकट करने वाले महाधनुर्धर भीमसेन ने धनुष को जोर-जोर से कान तक खींचकर कर्ण को मार डालने की इच्छा से उस बाण को क्रोध पूर्वक छोड़ दिया। बलवान भीमसेन के हाथ से छूटकर वज्र और विद्युत के समान शब्द करने वाले उस बाण ने रणभूमि में कर्ण को चीर डाला, मानो वज्र के वेग ने पर्वत को विदीर्ण कर दिया हो। कुरुश्रेष्ठ! भीमसेन की गहरी चोट खाकर सेनापति सूतपुत्र कर्ण अचेत हो रथ की बैठक में धम्म से बैठ गया। उसका सारा शरीर रक्त से सिंच गया। शत्रुओं का दमन करने वाला वह वीर प्राणहीन सा हो गया था। इसी समय भीमसेन को कर्ण की जीभ काटने के लिये आते देख मद्रराज शल्य ने उन्हें सान्वना देते हुए इस प्रकार कहा-
शल्य बोले ;- महाबाहु भीमसेन! मैं तुमसे जो युक्ति युक्त वचन कह रहा हूं, उसे सुनो और सुनकर उसका पालन करो। अर्जुन ने पराक्रमी कर्ण के वध की प्रतिज्ञा की है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम सव्यसाची अर्जुन के उस प्रतिज्ञा को सफल करो।
भीमसेन ने कहा ;- नृपश्रेष्ठर! मैं अर्जुन की दृढ़ प्रतिज्ञ को जानता हूं; परंतु इस पापी कर्ण ने मेरे समीप ही राजा युधिष्ठिर का तिरस्कार किया है, अत: क्रोध के वशीभूत होकर मैंने और किसी बात की परवा नहीं की है। यद्यपि राधापुत्र कर्ण गिर गया है तो भी मेरा क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ है। मैं तो इस समय इसकी जीभ खींच लेना ही उचित समझता हूँ। मामाजी! इस नीच नृशंस ने जहाँ बहुत-से राजा एकत्र हुए थे, वहाँ हमारे सुनते हुए द्रौपदी के प्रति बहुत से असह्य कटुवचन सुनाये थे। राजन! आप दूर होने पर भी निश्चय ही यह समझ गये हैं कि मेरे द्वारा इसकी जीभ काटी जाने वाली है। वास्तव में इस समय मैंने इसकी जीभ काटने की ही इच्छा की थी। केवल राजा युधिष्ठिर का प्रिय करने के लिये मैंने आज तक प्रतीक्षा की है। महाराज! अपने जो युक्तियुक्त बात मुझसे कही है, उसे कड़वी दवा के समान मैंने ग्रहण कर लिया है। क्योंकि यदि अर्जुन की प्रतिज्ञा भंग हो जायगी तो वे कभी जीवित नहीं रह सकेंगे। उनके नष्ट होने पर श्रीकृष्ण सहित हम सब लोग भी नष्ट ही हो जायंगे। आज किरीटधारी अर्जुन की दृष्टि पड़ते ही पापाचारियों में श्रेष्ठ पापात्मा क्रूर कर्ण पराभव को प्राप्त हो जायगा। यह नृशंस कर्ण महाराज युधिष्ठिर के क्रोध से पहले ही दग्ध हो चुका था। आज आपने उचित उपाय द्वारा मेरे निकट से इसकी रक्षा कर ली है।
तदनन्तर मद्रराज शल्य संग्राम में शोभा पाने वाले सूतपुत्र कर्ण को अचेत हुआ देख रथ के द्वारा युद्धस्थल से दूर हटा ले गये। कर्ण के पराजित हो जाने पर भीमसेन दुर्योधन की विशाल सेना को पुन: खदेड़ने लगे। ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में इन्द्र ने दानवों को मार भगाया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में कर्ण का पलायन विषयक पचासवां अध्याय पूरा हुआ)
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