सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा शल्य का कर्ण को एक हंस और कौए का उपाख्यान सुनाकर उसे श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए उनकी शरण में जाने की सलाह देना”
संजय कहते हैं ;- माननीय नरेश! युद्ध का अभिनन्दन करने वाले अधिरथपुत्र कर्ण की पूर्वोक्त बात सुनकर फिर शल्य ने उससे यह दृष्टान्तयुक्त बात कही,
शल्य ने कहा ;- सुतपुत्र! मैं युद्ध में पीठ न दिखाने वाले यज्ञपरायण, मूर्धाभिषिक्त नरेशों के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं भी धर्म में तत्पर रहता हूँ। किंतु वृषभ स्वरूप कर्ण! जैसे कोई मदिरा से मतवाला हो गया हो, उसी प्रकार तुम भी उन्मत्त दिखाई दे रहे हो; अतः मैं हितैषी सुहृद होने के नाते तुम-जैसे प्रमत्त की आज चिकित्सा करूँगा। ओ नीच कुलांकार कर्ण! मेरे द्वारा बताये जाने वाले कौए के इस दृष्टान्त को सुनो और सुनकर जैसी इच्छा हो वैसा करो। महाबाहु कर्ण! मुझे अपना कोई ऐसा अपराध नहीं याद आता है, जिसके कारण तुम मुझ निरपराध को भी मार डालने की इच्छा रखते हो। मैं राजा दुर्योधन का हितैषी हूँ और विशेषतः रथ पर सारथि बनकर बैठा हूँ; इसलिये तुम्हारे हिताहित को जानते हुए मेरा आवश्यक कर्त्तव्य है कि तुम्हें वह सब बता दूँ। सम और विषम अवस्था, रथी की प्रबलता और निर्बलता, रथी के साथ ही घोड़ों के सतत परिश्रत और कष्ट, अस्त्र हैं या नहीं, इसकी जानकारी, जय और पराजय की सूचना देने वाली पशु-पक्षियों की बोली, मार, अतिमार, शल्य-चिकित्सा, अस्त्रप्रयोग, युद्ध और शुभाशुभ निमित्त-इन सारी बातों का ज्ञान रखना मेरे लिये आवश्यक है; क्योंकि मैं इस रथ का एक कुटुम्बी हूँ। कर्ण इसीलिये मैं पुनः तुमसे इस दृष्टांत का वर्णन करता हूँ।
कहते हैं समुद्र के तट पर किसी धर्मप्रधान राजा के राज्य में एक प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ-यागादि करने वाला, दानपति, क्षमाशील, अपने वर्णनुकूल कर्म में तत्पर, पवित्र, बहुत-से पुत्र वाला, संतान प्रेमी और समस्त प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके जो बहुत-से अल्पवयस्क यशस्वी पुत्र थे, उन सबकी जूठन खाने वाला एक कौआ भी वहाँ रहा करता था। वैश्य के बालक उस कौए को सदा मांस, भात, दही, दूध, खीर, मधु और घी आदि दिया करते थे। वैश्य के बालकों द्वारा जूठन खिला-खिलाकर पाला हुआ वह कौआ बड़े घमंड में भरकर अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का भी अपमान करने लगा। एक दिन की बात है, उस समुद्र के तट पर गरुड़ के समान लंबी उड़ानें भरने वाले मानसरोवर निवासी राजहंस आये। उनके अंगों में चक्र के चिह्न थे और वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन हंसों को देखकर कुमारों ने कौए से इस प्रकार कहा,
कुमार बोले ;- 'विहंगम! तुम्हीं समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ हो। देखो, ये आकाशचारी हंस आकाश में जाकर बड़ी दूर की उड़ानें भरते हैं। तुम भी इन्हीं के समान दूर तक उड़ने में समर्थ हो। तुमने अपनी इच्छा से ही अब तक वैसी उड़ान नहीं भरी। उन सारे अल्पबुद्धि बालकों द्वारा ठगा गया वह पक्षी मूर्खता और अभिमान से उनकी बात को सत्य मानने लगा। फिर वह जूठन पर घमंड करने वाला कौआ इन हंसों में सबसे श्रेष्ठ कौन है? यह जानने की इच्छा से उड़कर उनके पास गया और दूर तक उड़ने वाले उन बहुसंख्यक हंसों में से जिस पक्षी को उसने श्रेष्ठ समझा, उसी को उस दुर्बुद्धि ने ललकारते हुए कहा,
कौआ बोला ;- चलो, हम दोनों उड़ें।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
बहुत काँव-काँव करने वाले उस कौए की वह बात सुनकर वहाँ आते हुए व पक्षियों में श्रेष्ठ आकाशचारी बलवान चक्रांग हँस पड़े और कौए से इस प्रकार बोले-
हंसों ने कहा ;- 'काक! हम मानसरोवर निवासी हंस हैं, जो सदा इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। दूर तक उड़ने के कारण हम लोग सदा सभी पक्षियों में सम्मानित होते आये हैं। ओ खोटी बुद्धि वाले कागा! तू कौआ होकर लंबी उड़ान भरने वाले और अपने अंगों में चक्र का चिह्न धारण करने वाले एक बलवान हंस को अपने साथ उड़ने के लिये कैसे ललकार रहा है? काग! बता तो सही, तू हमारे साथ किस प्रकार उड़ेगा? हंस की बात सुनकर बढ़-बढ़कर बातें बनाने वाले मूर्ख कौए ने अपनी जातिगत क्षुद्रता के कारण बारंबार उनकी निंदा करके उसे इस प्रकार उत्तर दिया।
कौआ बोला ;- हंस! मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें उड़ सकता हूँ? उसमें संशय नहीं है। उसमें से प्रत्येक उड़ान सौ-सौ योजन की होती है और वे सभी विभिन्न प्रकार की एवं विचित्र हैं। उनमें से कुछ उड़ानों के नाम इस प्रकार हैं- उड्डीन (ऊँचा उड़ना), अवडीन (नीचा उड़ना), प्रडीन ( चारों ओर उड़ना), डीन (साधारण उड़ना), निडीन (धीरे-धीरे उड़ना), संडीन (ललित गति से उड़ना), तिर्यग्डीन (तिरछा उड़ना), विडीन (दूसरों की चाल की नकल करते हुए उड़ना), परिडीन (सब ओर उड़ना), पराडीन (पीछे की ओर उड़ना), सुडीन (स्वर्ग की ओर उड़ना), अभिडीन (सामने की ओर उड़ना), महाडीन (बहुत वेग से उड़ना), निर्डीन (परों को हिलाये बिना ही उड़ना), अतिडीन (प्रचण्डता से उड़ना), संडीन डनी-डीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना), संडीनोड्डीनडीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर ऊँचा उड़ना), डीनविडीन (एक प्रकार की उड़ान में दूसरी उड़ान दिखाना), सम्पात (क्षणभर सुन्दरता से उड़कर फिर पंख फड़फड़ाना), समुदीष (कभी ऊपर की ओर और कभी नीच की ओर उड़ना), और व्यक्तिरिक्तक (किसी लक्ष्य का संकल्प करके उड़ना), ये छब्बीस उड़ानें हैं। इनमें से महाडीन के सिवा अन्य सब उड़ानों के गत (किसी लक्ष्य की ओर जाना), आगत (लक्ष्य तक पहुँच कर लौट आना), और प्रतिगत (पलटा खाना)- ये तीन भेद हैं (इस प्रकार कुल छिहत्तर भेद हुए)। इसके सिवा बहुत-से (अर्थात पच्चीस) निपात भी हैं। (ये सब मिलकर एक सौ एक उड़ानें होती हैं)।
आज मैं तुम लोगों के देखते-देखते जब इतनी उड़ानें भरूँगा, उस समय मेरा बल तुम देखोगे। मैं इनमें से किसी भी उड़ान से आकाश में उड़ सकूँगा। हंसों! तुम लोग यथोचित रूप से विचार करके बताओ कि मैं किस उड़ान से उड़ूँ। अतः पक्षियों! तुम सब लोग दृढ़ निश्चय करके आश्रय रहित आकाश में इन विभिन्न उड़ानों द्वारा उड़ने के लिए मेरे साथ चलो न।
हंस बोला ;- काग! तू अवश्य एक सौ एक उड़ानों द्वारा उड़ सकता है। परंतु मैं तो जिस एक उड़ान को सारे पक्षी जानते हैं उसी से उड़ सकता हूँ, दूसरी किसी उड़ान का मुझे पता नहीं है। लाल नेत्र वाले कौए! तू भी जिस उड़ान से उचित समझे, उसी से उड़। तब वहाँ आये हुए सारे कौए जोर-जोर से हँसने लगे और आपस में बोले,
कौए बोले ;- भला यह हंस एक ही उड़ान से सौ प्रकार की उड़ानों को कैसे जीत सकता है? यह कौआ बलवान और शीघ्रता पूर्वक उड़ने वाला है; अतः सौ में से एक ही तदनन्तर हंस और कौआ दोनों होड़ लगाकर उड़े। चक्रांग हंस एक ही गति से उड़ने वाला था और कौआ सौ उड़ानों से। इधर से चक्रांग उड़ा और उधर से कौआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद)
कौआ विभिन्न उड़ानों द्वारा दर्शकों को आश्चर्यचकित करने की इच्छा से अपने कार्यों का बखान करता जा रहा था। उस समय कौए बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर से कांव-कांव करने लगे। वे दो-दो घड़ी पर बारंबार उड़-उड़कर कहते- देखो, कौए की यह उड़ान, वह उड़ान। ऐसा कहकर वे हंसों का उपहास करते और उन्हें कटु वचन सुनाते थे। साथ ही कौए की विजय के लिये शुभाशंसा करते और भाँति-भाँति की बोली बोलते हुए वे कभी वृक्षों की शाखाओं से भूतल पर और कभी भूतल से वृक्षों की शाखाओं पर नीचे-ऊपर उड़ते रहते थे। आर्य! हंस ने एक ही मृदुल गति से उड़ना आरम्भ किया था; अतः दो घड़ी तक वह कौए से हारता-प्रतीत हुआ। तब कौओं ने हंसों का अपमान करके इस प्रकार कहा,
कौए बोले ;- 'वह जो हंस उड़ रहा था, वह तो इस प्रकार कौए से पिछड़ता जा रहा है!' उड़ने वाले हंस ने कौओं की बात सुनकर बड़े वेग वाले मकरालय समुद्र के ऊपर-ऊपर पश्चिम दिशा की ओर उड़ना आरम्भ किया। इधर कौआ थक गया था।
उसे कहीं आश्रय लेने के लिये द्वीप या वृक्ष नहीं दिखाई दे रहे थे; अतः उसके मन में भय समा गया और वह घबराकर अचेत सा हो उठा। कौआ सोचने लगा, मैं थक जाने पर इस जलराशि में कहाँ उतरूँगा? बहुत से जल-जन्तुओं का निवास स्थान समुद्र मेरे लिये असह्य है। असंख्य महाप्राणियों से उद्भासित होने वाला यह महासागर तो आकाश से भी बढ़कर है। सूतपुत्र कर्ण! समुद्र में विचरने वाले मनुष्य भी उसकी गम्भीरता के कारण दिशाओं द्वारा आवृत उसकी जलराशि की थाह नहीं जान पाते, फिर वह कौआ कुछ दूर तक उड़ने मात्र से उस समुद्र के जल समूहों का पार कैसे पा सकता था? उधर हंस दो घड़ी तक उड़कर इधर-उधर देखता हुआ कौए की प्रतीक्षा करने लगा कि यह कौआ भी उड़कर मेरे पास आ जाये। तदनन्तर उस समय अत्यन्त थका-मांदा कौआ हंस के समीप आया। हंस ने देखा, कौए की दशा बड़ी शोचनीय हो गयी है। अब वह पानी में डूबने ही वाला है। तब उसने सत्पुरुषों के व्रत का स्मरण करके उसके उद्धार की इच्छा मनद में लेकर इस प्रकार कहा।
हंस बोला;- 'काग! तू तो बार बार अपनी बहुत सी उड़ानों का बखान कर रहा था; परंतु उन उड़ानों का वर्णन करते समय उनमें से इस गोपनीय रहस्ययुक्त उड़ान की बात तो तूने नहीं बतायी थी। कौए! बता तो सही, तू इस समय जिस उड़ान से उड़ रहा है, उसका क्या नाम है? इस उड़ान में तो तू अपने दोनों पंखो और चोंच के द्वारा जल का बार-बार स्पर्श करने लगा है। वापस! बता, बता। इस समय तू कौन सी उड़ान में स्थित है। कौए! आ, शीघ्र आ। मैं अभी तेरी रक्षा करता हूँ।'
शल्य कहते हैं ;- दुष्टात्मा कर्ण! वह कौआ अत्यन्त पीड़ित हो जब अपनी दोनों पाँखों और चोंच से जल का स्पर्श करने लगा, उस अवस्था में हंस न उसे देखा। वह उड़ान के वेग से शिथिलांग हो गया था और जल का कहीं आर-पार न देखकर नीचे गिरता जा रहा था। उस समय उसने हंस से इस प्रकार कहा,
कौआ बोला ;- 'भाई हंस! हम तो कौए हैं। व्यर्थ में काँव-काँव किया करते हैं। हम उड़ना क्या जानें? मैं अपने इन प्राणों के साथ तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम जल के किनारे तक पहुँचा दो।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 59-77 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा कहकर अत्यन्त थका-मांदा कौआ दोनों पँखों और चोंच से जल का स्पर्श करता हुआ सहसा उस महासागर में गिर पड़ा। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। समुद्र के जल में गिरकर अत्यन्त दीनचित्त हो मृत्यु के निकट पहुँचे हुए उस कौए से हंस ने इस प्रकार कहा,
हंस ने कहा ;- काग! तूने अपनी प्रशंसा करते हुए कहा था कि मैं एक सौ एक उड़ानों द्वारा उड़ सकता हूँ। अब उन्हें याद कर। सौ उड़ानों से उड़ने वाला तू तो मुझसे बहुत बढ़ा-चढ़ा है। फिर इस प्रकार थककर महासागर में कैसे गिर पड़ा? तब जल में अत्यन्त कष्ट पाते हुए कौए ने जल के ऊपर ठहरे हुए हंस की ओर देखकर उसे प्रसन्न करने के लिये कहा।
कौआ बोला ;- 'भाई हंस! मैं जूठन खा-खाकर घमंड में भर गया था और बहुत से कौओं तथा दूसरे पक्षियों का तिरस्कार करके अपने आप को गरुड़ के समान शक्तिशाली समझने लगा। हंस! अब मैं अपने प्राणों के साथ तुम्हारी शरण में आया हूँ। मुझे द्वीप के पास पहुँचा दो। शक्तिशाली हंस! यदि मैं कुशलपूर्वक अपने देश में पहुँच जाऊँ तो अब कभी किसी का अपमान नहीं करूँगा। तुम इस विपत्ति से मेरा उद्धार करो'। कर्ण! इस प्रकार कहकर कौआ अचेत सा होकर दीन-भाव से विलाप करने और काँव-काँव करते हुए महासागर के जल में डूबने लगा। उस समय उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। वह पसीने से भीग गया था।
हंस ने कृपापूर्वक उसे पंजों से उठाकर बड़े वेग से ऊपर उछाला और धीरे से अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। अचेत हुए कौए को पीठ पर बिठाकर हंस तुरंत ही फिर उसी द्वीप में आ पहुँचा, जहाँ से होड़ लगाकर दोनों उड़े थे। उस कौए को उसके स्थान पर रखकर उसे आश्वास देकर मन के समान शीघ्रगामी हंस पुनः अपने अभीष्ट देश को चला गया। कर्ण! इस प्रकार जूठन खाकर पुष्ट हुआ कौआ उस हंस से पराजित हो अपने महान बल-पराक्रम का घमंड छोड़कर शांत हो गया। पूर्व काल में वह कौआ जैसे वैश्यकुल में सबकी जूठन खाकर पला था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तुम्हें जूठन खिला-खिलाकर पाला है, इसमें संशय नहीं है। कर्ण! इसी से तुम अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो।
विराट नगर में तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म तथा अन्य कौरव वीर भी तुम्हारी रक्षा कर रहे थे। फिर उस समय तुमने अकेले सामने आये हुए अर्जुन का वध क्यों नहीं कर डाला? वहाँ तो किरीटधारी अर्जुन ने अलग-अलग और सब लोगों से एक साथ लड़कर भी तुम लोगों को उसी प्रकार परास्त कर दिया था, जैसे एक ही सिंह ने बहुत से सियारों को मार भगाया हो। कर्ण! उस समय तुम्हारा पराक्रम कहाँ था? सव्यसाची अर्जुन के द्वारा समरांगण में अपने भाई को मारा गया देखकर कौरव वीरों के समक्ष सबसे पहले तुम्हीं भागे थे। कर्ण! इसी प्रकार जब द्वैतवन में गन्धर्वों ने आक्रमण किया था, उस समय समस्त कौरवों को छोड़कर पहले तुमने ही पीठ दिखाई थी। कर्ण! वहाँ कुन्तीकुमार अर्जुन ने ही रणभूमि में चित्रसेन आदि गन्धर्वों को मार-पीटकर उन पर विजय पायी थी और स्त्रियों सहित दुर्योधन को उनकी कैद से छुड़ाया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 78-87 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण! पुनः तुम्हारे गुरु परशुराम जी ने भी उस दिन राजसभा में अर्जुन और श्रीकृष्ण के पुरातन प्रभाव का वर्णन किया था। तुमने समस्त भूपालों के समीप द्रोणाचार्य और भीष्म की कही हुई बातें सदा सुनी हैं। वे दोनों श्रीकृष्ण और अर्जुन को अवध्य बताया करते थे। मैं कहाँ तक गिन-गिनकर बताऊँ कि किन-किन गुणों के कारण अर्जुन तुमसे बढ़े-चढ़े हैं। जैसे ब्राह्मण समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार अर्जुन तुमसे श्रेष्ठ हैं। तुम इसी समय प्रधान रथ पर बैठे हुए वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण तथा कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र अर्जुन को देखोगे। जैसे कौआ उत्तम बुद्धि का आश्रय लेकर चक्रांग की शरण में गया था, उसी प्रकार तुम भी वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन की शरण लो।
कर्ण! जब तुम युद्ध स्थल में पराक्रमी श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक रथ पर बैठे देखोगे, तब ऐसी बातें नहीं बोल सकोगे। जब अर्जुन अपने सैंकड़ों बाणों द्वारा तुम्हारा घमंड चूर-चूर कर देंगे, तब तुम स्वयं ही देख लोगे कि तुममें और अर्जुन में कितना अन्तर है? जैसे जुगनू प्रकाशमान सूर्य और चन्द्रमा का तिरस्कार करे, उसी प्रकार तुम देवताओं, असुरों और मनुष्यों में भी विख्यात उन दोनों नरश्रेष्ठ वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन का मूर्खतावश अपमान न करो। जैसे सूर्य और चन्द्रमा हैं, वैसे श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। वे दोनों अपने तेज से सर्वत्र विख्यात हैं; परंतु तुम तो मनुष्यों में जुगनू के ही समान हो। सूतपुत्र! तुम महात्मा पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन को ऐसा जानकर उनका अपमान न करो। बढ़-बढ़कर बातें बनाना बंद करके चुपचाप बैठे रहो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्ण पर्व में कर्ण-शल्य संवाद के अन्तर्गत हंस काकीयोपाख्यान विषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण का श्रीकृष्ण और अर्जुन के प्रभाव को स्वीकार करते हुए अभिमान पूर्वक शल्य को फटकारना और उनसे अपने को परशुरामजी द्वारा और ब्राह्मण द्वारा प्राप्त हुए शापों की कथा सुनाना”
संजय कहते हैं ;- राजन! मद्रराज शल्य की ये अप्रिय बातें सुनकर महामनस्वी अधिरथपुत्र कर्ण ने असंतुष्ट होकर उनसे कहा,
कर्ण ने कहा ;- शल्य! अर्जुन और श्रीकृष्ण कैसे हैं, यह बात मुझे अच्छी तरह ज्ञात है। महाराज! अर्जुन का रथ हाँकने वाले श्रीकृष्ण के बल और पाण्डुपुत्र अर्जुन के महान दिव्यास्त्रों को इस समय मैं भली-भाँति जानता हूँ। तुम स्वयं उनसे अपरिचित हो। वे दोनों कृष्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तो भी मैं उनके साथ निर्भय होकर युद्ध करूँगा। परंतु परशुराम जी से तथा एक ब्राह्मण शिरोमणि से मुझे जो शाप प्राप्त हुआ है, वह आज मुझे अधिक संताप दे रहा है। पूर्वकाल की बात है, मैं दिव्य अस्त्रों को प्राप्त करने की इच्छा से ब्राह्मण का वेष बनाकर परशुराम जी के पास रहता था। शल्य वहाँ भी अर्जुन का ही हित चाहने वाले देवराज इन्द्र ने मेरे कार्य में विघ्न उपस्थित कर दिया था।
उस दिन गुरुदेव मेरी जाँघ पर अपना मस्तक रखकर सो गये। उस समय इन्द्र ने एक कीड़े के भयंकर शरीर में प्रवेश करके मेरी जाँघ के पास आकर उसे काट लिया, काटकर उसमें भारी घाव कर दिया और इस कार्य के द्वारा इन्होंने मेरे मनोरथों में विघ्न डाल दिया। जाँघ में घाव हो जाने के कारण मेरे शरीर से रक्त का महान प्रवाह बह चला। तत्पश्चात जब गुरु जी जागे, तब उन्होंने यह सब कुछ देखा। शल्य! उन्होंने मुझे एैसे धैर्य से युक्त देखकर पूछा,
परशुराम जी ने कहा ;- अरे! तू ब्राह्मण तो है नहीं; फिर कौन है? सच-सच बता दे। तब मैंने उनसे अपना यथार्थ परिचय देते हुए इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- भगवन! मैं सूत हूँ। तदनन्तर मेरा वृतान्त सुनकर महातपस्वी परशुराम जी के मन में मेरे प्रति अत्यन्त रोष भर गया और उन्होंने मुझे शाप देते हुए कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- सूत! तूने छल करके यह ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया है। इसलिये काम पड़ने पर तेरा यह अस्त्र तुझे याद न आयेगा। तेरी मृत्यु के समय को छोड़कर अन्य अवसरों पर ही यह अस्त्र तेरे काम आ सकता है; क्योंकि ब्राह्मणेतर मनुष्य में यह ब्रह्मास्त्र सदा स्थिर नहीं रह सकता। वह अस्त्र आज इस अत्यन्त भयंकद तुमुल संग्राम में पर्याप्त काम दे सकता है।
शल्य! वीरों को आकृष्ट करने वाला, सर्वसंहारक और अत्यन्त भयंकर जो यह संग्राम भरतवंशी क्षत्रियों पर आ पड़ा है, वह क्षत्रिय-जाति के प्रधान-प्रधान वीरों को निश्चय ही संतप्त करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। शल्य! आज मैं युद्ध में भयंकर धनुष धारण करने वाले सर्वश्रेष्ठ, वेगवान, भयंकर, असह्य पराक्रमी और सत्यप्रतिज्ञ पाण्डुपुत्र अर्जुन को मौत के मुख में भेज दूँगा। उस ब्रह्मास्त्र से भिन्न एक दूसरा अस्त्र भी मुझे प्राप्त है, जिससे आज समरांगण में मैं शत्रु समूहों को मार भगाऊँगा तथा उन भयंकर धनुर्धर, अमित तेजस्वी, प्रतापी, बलवान, अस्त्रवेत्ता, क्रूर, शूर, रौद्ररूपधारी तथा शत्रुओं का वेग सहन करने में समर्थ अर्जुन को भी युद्ध में मार डालूँगा। जल का स्वामी, वेगवान और अप्रमेय समुद्र बहुत लोगों को निमग्न कर देने के लिये अपना महान वेग प्रकट करता है; परन्तु तब की भूमि उस अनन्त महासागर को भी रोक लेती है। उसी प्रकार मैं भी मर्मस्थल को विदीर्ण कर देने वाले, सुन्दर पंखों से युक्त, असंख्य, वीरविनाशक बाण समूहों का प्रयोग करने वाले उन कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ रणभूमि में युद्ध करूँगा, जो इस जगत के भीतर प्रत्यंचा खींचने वाले वीरों में सबसे उत्तम हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त बलशाली, महान अस्त्रधारी, समुद्र के समान दुर्लंघ्य, भयंकर, बाण समूहों की धारा बहाने वाले और बहुसंख्यक भूपालों को डुबो देने वाले हैं; तथापि मैं समुद्र को रोकने वाली तट भूमि के समान अपने बाणों द्वारा अर्जुन को बलपूर्वक रोकूँगा और उनका वेग सहन करूँगा। आज मैं युद्ध में जिनके समान इस समय किसी दूसरे मनुष्य को नहीं मानता, जो हाथ में धनुष लेकर रणभूमि में देवताओं और असुरों को भी परास्त कर सकते हैं, उन्हीं वीर अर्जुन के साथ मेरा अत्यन्त घोर युद्ध होगा; उसे तुम देखना। अत्यन्त ज्ञानी पाण्डुपुत्र अर्जुन युद्ध की इच्छा से महान दिव्यास्त्रों द्वारा मेरे सामने आयेंगे। उस समय मैं अपने अस्त्रों द्वारा उनके अस्त्र का निवारण करके युद्ध स्थल में उत्तम बाणों से कुन्तीपुत्र अर्जुन को मार गिराऊँगा। सहस्रों किरणों वाले सूर्य के सदृश प्रकाशित हो सम्पूर्ण दिशाओं को ताप देते हुए भयंकर वीर अर्जुन को मैं अपने बाणों द्वारा उसी प्रकार अत्यन्त आच्छादित कर दूँगा, जैसे मेघ अंधकार नाशक सूर्यदेव को ढक देते हैं। जैसे प्रलयकाल का मेघ इस जगत् को दग्ध करने वाले तेजस्वी एवं प्रज्वलित धूममयी शिखा वाले संवर्तक अग्नि को बुझा देते हैं, उसी प्रकार मैं मेघ बनकर बाणों की वर्षा द्वारा युद्ध में अग्निरूपी अर्जुन को शान्त कर दूँगा। तीखे दाढ़ों वाले विषधर सर्प के समान दुर्धर्ष, अप्रमेय, अग्नि के समान प्रभावशाली तथा क्रोध से प्रज्वलित अपने महान शत्रु कुन्तीपुत्र अर्जुन को मैं भल्लों द्वारा शान्त कर दूँगा। वृक्षों को तोड़-उखाड़ देने वाली वायु के समान प्रमथनशील, बलवान, प्रहारकुशल, तोड़ फोड़ करने वाले तथा अमर्षशील क्रुद्ध अर्जुन का वेग आज मैं युद्ध स्थल में हिमालय पर्वत के समान अचल रहकर सहन करूँगा।
रथ के मार्गों पर विचरने में कुशल, शक्तिशाली, समरांगण में सदा महान भार वहन करने वाले, संसार के समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ, प्रमुख वीर अर्जुन का आज युद्ध स्थल में डटकर सामना करूँगा। युद्ध में जिनके समान धनुर्धर मैं दूसरे किसी मनुष्य को नहीं मानता, जिन्होंने इस सारी पृथ्वी पर विजय पायी है, आज समरांगण उन्हीं से भिड़कर मैं बलपूर्वक युद्ध करूँगा। जिन सव्यसाची अर्जुन ने खाण्डव वन में देवताओं सहित समस्त प्राणियों को जीत लिया था, उनके साथ मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य, जो अपने जीवन की रक्षा करना चाहता हो, युद्ध की इच्छा करेगा। श्वेतवाहन अर्जुन मानी, अस्त्रवेत्ता, सिद्धहस्त, दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और शत्रुओं को मथ डालने वाले हैं। आज मैं अपने पैने बाणों द्वारा उन्हीं अतिरथी वीर अर्जुन का मस्तक धड़ से काट लूँगा। शल्य! मैं रणभूमि में मृत्यु अथवा विजय को सामने रखकर इन धनंजय के साथ युद्ध करूँगा। मेरे सिवा दूसरा कोई मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इन्द्र के समान पराक्रमी पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ एकमात्र रथ के द्वारा युद्ध कर सके। मैं इस युद्ध स्थल में क्षत्रियों के समाज में बड़े हर्ष और उल्लास के साथ पाण्डुपुत्र अर्जुन के उत्साह का वर्णन कर सकता हूँ। तुम्हारे मन में तो मूढ़ता भरी हुई है। तुम मूर्ख हो। फिर तुमने मुझसे अर्जुन के पुरुषार्थ का हठपूर्वक वर्णन क्यों किया है? जो अप्रिय, निष्ठुर, क्षुद्र हृदय और क्षमाशून्य मनुष्य क्षमाशील पुरुषों की निन्दा करता है; ऐसे सौ-सौ मनुष्यों का मैं वध कर सकता हूँ; परंतु कालयोग से क्षमा भाव द्वारा मैं यह सब कुछ सह लेता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 29-43 का हिन्दी अनुवाद)
ओ पापी! मूर्ख के समान तुमने पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये मेरा तिरस्कार करते हुए मेरे प्रति अप्रिय वचन सुनाये हैं। मेरे प्रति सरलता का व्यवहार करना तुम्हारे लिये उचित था; परंतु तुम्हारी बुद्धि में कुटिलता भरी हुई है, अतः तुम मित्रद्रोही होने के कारण अपने पाप से ही मारे गये। किसी के साथ सात पग चल देने मात्र से ही मैत्री सम्पन्न हो जाती है। (किंतु तुम्हारे मन में उस मैत्री का उदय नहीं हुआ।) यह बड़ा भयंकर समय आ रहा है। राजा दुर्योधन रणभूमि में आ पहुँचा है। मैं उसके मनोरथ की सिद्धि चाहता हूँ; किन्तु तुम्हारा मन उधर लगा हुआ है, जिससे उसके कार्य की सिद्धि होने की कोई सम्भावना नहीं है। मिद, नन्द, प्री, त्रा, मि अथवा मुद धातुओं से निपातन द्वारा मित्र शब्द की सिद्धि होती है। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ- इन सभी धातुओं का पूरा-पूरा अर्थ मुझमें मौजूद है। राजा दुर्योधन इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं। शद्, शास्, शो, श्रृ, श्वस् अथवा षद् तथा नाना प्रकार के उपसर्गों से युक्त सूद धातु से भी शत्रु शब्द की सिद्धि होती है। मरे प्रति इस सभी धातुओं का सारा तात्पर्य तुममें संघटित होता है। अतः मैं दुर्योधन का हित, तुम्हारा प्रिय, अपने लिये यश और प्रसन्नता की प्राप्ति तथा परमेश्वर की प्रीति का सम्पादन करने के लिये पाण्डुपुत्र अर्जुन और श्रीकृष्ण के पास प्रयत्न पूर्वक युद्ध करूँगा।
आज मेरे इस कर्म को तुम देखो। आज मेरे उत्तम ब्रह्मास्त्र, दिव्यास्त्र और मानुपास्त्रों को देखो। मैं इनके द्वारा भयंकर पराक्रमी अर्जुन के साथ उसी प्रकार युद्ध करूँगा, जैसे कोई अत्यन्त मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथी के साथ भिड़ जाता है। मैं युद्ध में अजेय तथा असीम शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र का मन ही मन स्मरण करके अपनी विजय के लिए अर्जुन पर प्रहार करूँगा। यदि मेरे रथ का पहिया किसी विषम स्थान में न फँस जाय तो उस अस्त्र से अर्जुन रणभूमि में जीवित नहीं छूट सकते।
कर्ण कहता है ;- शल्य! मैं दण्डधारी सूर्यपुत्र यमराज से, पाशधारी वरुण से? गदा हाथ में लिये हुए कुबेर से, वज्रधारी इन्द्र से अथवा दूसरे किसी आततायी शत्रु से भी कभी नहीं डरता। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। इसीलिए मुझे अर्जुन और श्रीकृष्ण से भी कोई भय नहीं है। उन दोनों के साथ रणक्षेत्र में मेरा युद्ध अवश्य होगा। नरेश्वर! एक समय की बात है, मैं शस्त्रों के अभ्यास के लिये विजय नामक एक ब्राह्मण के आश्रम के आस पास विचरण कर रहा था। उस समय घोर एवं भयंकर बाण चलाते हुए मैंने अनजाने में ही असावधानी के कारण उस ब्राह्मण की होमधेनु के बछड़े को एक बाण से मार डाला। शल्य! तब उस ब्राह्मण ने एकान्त में घूमते हुए मुझसे आकर कहा,
ब्राह्मण ने कहा ;- 'तुमने प्रमादवश मेरी होमधेनु के बछड़े को मार डाला है। इसलिए तुम जिस समय रणक्षेत्र में युद्ध करते-करते अत्यन्त
भय को प्राप्त होओ, उसी समय तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में गिर जाय। ब्राह्मण शल्य! मैं ब्राह्मण को एक हजार गौएँ और छः सौ बैल दे रहा था; परंतु उससे उसका कृपाप्रसाद न प्राप्त कर सका।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 44-50 का हिन्दी अनुवाद)
हलदण्ड के समान दाँतों वाले सौ हाथी और सैंकड़ों दास-दासियों के देने पर भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने मुझ पर कृपा नहीं की। श्वेत बछड़े वाली चौदह हजार काली गौएँ मैं उसे देने के लिये ले आया तो भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण से अनुग्रह न पा सका। मैं सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न समृद्धशाली घर और जो कुछ भी धन मेरे पास था, वह सब उस ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक देने लगा; परंतु उसने कुछ भी लेने की इच्छा नहीं की। उस समय मैं प्रयत्प पूर्वक अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगा।
तब ब्राह्मण ने कहा ;- सूत! मैंने जो कह दिया, वह वैसा ही होकर रहेगा। वह पलट नहीं सकता। असत्य भाषण प्रजा का नाश कर देता है, अतः मैं झूठ बोलने के पाप का भागी होऊँगा; इसीलिए धर्म की रक्षा के उद्देश्य से मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।
तुम (लोभ देकर) ब्राह्मण की उत्तम गति का विनाश न करो। तुमने पश्चाताप और दान द्वारा उस वत्सवध का प्रायश्चित कर लिया। जगत में कोई भी मेरे कहे हुए वचन को मिथ्या नहीं कर सकता; इसलिये मेरा शाप तुझे प्राप्त होगा ही। मद्रराज! यद्यपि तुमने मुझ पर आरोप किये हैं, तथापि सुहृद होने के नाते मैंने तुमसे ये सारी बातें कह दी हैं। मैं जानता हूँ, तुम अब भी निन्दा करने से बाज न आओगे, तो भी कहता हूँ कि चुप होकर बैठो और अब से जो कुछ कहूँ, उसे सुनो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्ण पर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
तिरयालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण का आत्मप्रशंसा पूर्वक शल्य को फटकारना”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले राधापुत्र कर्ण ने शल्य को रोककर पुनः उनसे इस प्रकार कहा- शल्य तुमने दृष्टान्त के लिये मेरे प्रति जो वाग्जाल फैलाया है, उसके उत्तर में निवेदन है कि तुम इस युद्धस्थल में मुझे अपनी बातों से नहीं डरा सकते। यदि इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता मुझसे युद्ध करने लगें तो भी मुझे उनसे कोई भय नहीं होगा। फिर श्रीकृष्ण सहित अर्जुन से क्या भय हो सकता है? मुझे केवल बातों से किसी प्रकार भी डराया नहीं जा सकता, जिसे तुम रणभूमि में डरा सको, ऐसे किसी दूसरे ही पुरुष का पता लगाओ। तुमने मेरे प्रति जो कटु वचन कहै हैं, इनका ही नीच पुरुष का बल है।
दुर्बुद्धि! तुम मेरे गुणों का वर्णन करने में असमर्थ होकर बहुत-सी ऊटपटांग बातें बकते जा रहे हो। मद्रनिवासी शल्य! कर्ण इस संसार में भयभीत होने के लिये पैदा नहीं हुआ है। मैं तो पराक्रम प्रकट करने और अपने यश को फैलाने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ। शल्य! एक तो तुम सारथि बनकर मेरे सखा हो गये हो, दूसरे सौहार्दवश मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तीसरे मित्र दुर्योधन की अभीष्ट सिद्धि का मेरे मन में विचार है- इन्हीं तीन कारणों से तुम अब तक जीवित हो। राजा दुर्योधन का महान कार्य उपस्थित हुआ है और उसका सारा भार मुझ पर रखा गया है। शल्य! इसीलिये तुम क्षण भर भी जीवित हो। इसके सिवा, मैंने पहले ही यह शर्त कर दी है कि तुम्हारे अप्रिय वचनों को क्षमा करूँगा। वैसे तो हजारों शल्य न रहें तो भी शत्रुओं पर विजय पा सकता हूँ; परंतु मित्रद्रोह महान पाप है, इसीलिये तुम अब तक जीवित हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
चवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के द्वारा मद्र ओद बाहीक देश वासियों की निन्दा”
शल्य बोले ;- कर्ण! तुम दूसरों के प्रति जो आक्षेप करते हो, ये तुम्हारे प्रलाप मात्र हैं। तुम जैसे हजारों कर्ण न रहे तो भी युद्ध स्थल में शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है।
संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसी कठोर बात बोलते हुए मद्रराज शल्य से कर्ण ने पुनः दूनी कठोरता लिये अप्रिय वचन कहना आरम्भ किया।
कर्ण कहते हैं ;- मद्र नरेश! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरी ये बातें सुनो। राजा धृतराष्ट्र के समीप कही जाती हुई इन सब बातों को मैंने सुना था। एक दिन महाराज धृतराष्ट्र के घर में बहुत से ब्राह्मण आ-आकर नाना प्रकार के विचित्र देशों तथा पूर्ववर्ती भूपालों के वृतान्त सुना रहे थे। वहीं किसी वृद्ध एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ने बाहीक और मद्र देश की निन्दा करते हुए वहाँ की पूर्व घटित बातें कही थीं- जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर हैं तथा जो सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, और झेलम- इन पाँचों एवं सिंधु नदी के बीच में स्थित है, उन्हें बाहीक कहते हैं। उन्हें त्याग देना चाहिये। गोवर्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा- ये दोनों वहाँ के राजभवन के द्वार पर स्थित हैं, जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ। मैं अत्यन्त गुप्त कार्यवश कुछ दिनों तक बाहीक देश में रहा था। इससे वहाँ के निवासियों के सम्पर्क में आकर मैंने उनके आचार-व्यवहार की बहुत सी बातें जान ली थीं। वहाँ शाकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है, जहाँ जर्तिका नाम वाले बाहीक निवास करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं। पूआ, मांस और वाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार शून्य हैं।
वहाँ की स्त्रियाँ बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करके मतवाली तथा नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदिवारियों के पास गाती और नाचती हैं। वे गदहों के रेंकने और ऊँटों के बलबलाने की सी आवाज से मतवाले पन में ही भाँति-भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन-काल में भी परदे के भीतर नहीं रहती हैं। वे सब-के-सब सर्वथा स्वेच्छाचारिणी होती हैं। मद से उनत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वे एक दूसरे को 'ओ घायल की हुई! ओ किसी की मारी हुई! हे पतिमर्दिते! इत्यादि कहकर पुकारती और नृत्य करती हैं। पर्वों और त्यौहारों के अवसर पर तो उन संस्कारहीन रमणीयों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है। उन्हीं बाहीक देशी मदमत्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई सम्बन्धी वहाँ से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था। वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था- "निश्चय ही वह लंबी, गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ बाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी। मैं कब सतलज और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुँचकर शंख की बनी हुई मोटी-मोटी चूडि़यों को धारण करने वाली वहाँ की सुन्दरी स्त्रियों को देखूँगा। जिनके नेत्रों के प्रान्त भाग मैनसिल के आलेप से उज्ज्वल हैं, दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिनके सारे अंग कम्बल और मुगचर्म से आवृत हैं, वे गोरे रंगवाली प्रियदर्शना (परम सुन्दरी) रमणियाँ मृदंग, ढोल, शंख और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
कब हम लोग मदोन्मत्त हो गदहे, ऊँट और खच्चरों की सवारी द्वारा सुखद मार्गाें वाले शमी, पीलु और करीले के जंगलों में सुख से यात्रा करेंगे। मार्ग में तक्र के साथ पूए और सत्तू के पिण्ड खाकर अत्यन्त प्रबल हो कब चलते हुए बहुत से राहगीरों को उनके कपड़े छीनकर हम अच्छी तरह पीटेंगे। संस्कारशून्य दुरात्मा बाहीक ऐसे ही स्वभाव के होते हैं। उनके पास कौन सचेत मुनष्य दो घड़ी भी निवास करेगा? ब्राह्मण ने निरर्थक आचार-विचार वाले बाहीकों को ऐसा ही बताया है, जिनके पुण्य और पाप दोनों का छठा भाग तुम लिया करते हो। शल्य! उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ये सब बातें बताकर उद्दण्ड बाहीकों के विषय में पुनः जो कुछ कहा था, वह भी बताता हूँ। उस देश में एक राक्षसी रहती है, जो सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को समृद्धशाली शाकल नगर में रात के समय दुन्दुभि बजाकर इस प्रकार गाती है- मैं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो गोमांस खाकर और गुड़ की बनी हुई मदिरा पीकर तृप्त हो अंजलि भर प्याज के साथ बहुत सी भेड़ों को खाती हुई गोरे रंग की लंबी युवती स्त्रियों के साथ मिलकर इस शाकल नगर में पुनः कब इस तरह की बाहीक सम्बन्धी गाथाओं का गान करूँगी। जो सूअर, मुर्गा, गाय, गदहा, ऊँट और भेड़ के मांस नहीं खाते, उनका जन्म व्यर्थ है।
जो शाकल निवासी आबालवृद्ध नरनारी मदिरा से उन्मत्त हो चिल्ला-चिल्लाकर ऐसी गाथाएँ गाया करते हैं, उनमें धर्म कैसे रह सकता है? शल्य! इस बात को अच्छी तरह समझ लो। हर्ष का विषय है कि इसके सम्बन्ध में मैं तुम्हें कुछ और बातें बता रहा हूँ, जिन्हें दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में हम लोगों से कहा था। जहाँ शतद्रु (सतलज), विपाशा (व्यास), तीसरी इरावती (रावी), चन्द्रभागा (चिनाव) और वितस्ता (झेलम), ये पाँच नदियाँ छठी सिंधु नदी के साथ बहती हैं; जहाँ पीलु नामक वृक्षों के कई जंगल हैं, वे हिमालय की सीमा से बाहर के प्रदेश आरट्ट नाम से विख्यात है। वहाँ का धर्म-कर्म नष्ट हो गया है। उन देशों में कभी भी न जाय। जिनके धर्म-कर्म नष्ट हो गये हैं, वे संस्कारहीन, जारज बाहीक यज्ञ-कर्म से रहित होते हैं। उनके दिये हुए द्रव्य को देवता, पितर और ब्राह्मण भी ग्रहन नहीं करते हैं, यह बात सुनने में आयी है।
किसी विद्वान ब्राह्मण ने साधु पुरुषों की सभा में यह भी कहा कि बाहीक देश के लोग काठ के कुण्डों में तथा मिट्टी के बर्तन में जहाँ सत्तू और मदिरा लिपटे होते हैं और जिन्हें कुत्ते चाटते रहते हैं, घृणाशून्य होकर भोजन करते हैं। बाहीक देश के निवासी भेड़, ऊँटनी और गदही के दूध पीते और उसी दूध के बने हुए दही-घी आदि खाते हैं। वे जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले नीच आरट्ट नामक बाहीक सबका अन्न खाते और सबका दूध पीते हैं। अतः विद्वान पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। शल्य! इस बात को याद कर लो। अभी तुमसे और भी बातें बताऊँगा, जिन्हें किसी दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में स्वयं मुझसे कहा था। युगन्धर नगर में दूध पीकर अच्युत स्थल नामक नगर में एक रात रहकर तथा भूतिलय में स्नान करके मनुष्य कैसे स्वर्ग में जायेगा? जहाँ पर्वत से निकल कर पूर्वोक्त ये पाँच नदियाँ बहती हैं, वे आरट्ट नाम से प्रसिद्ध बाहीक प्रदेश हैं। उनमें श्रेष्ठ पुरुष दो दिन भी निवास न करे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 41-47 का हिन्दी अनुवाद)
विपाशा (व्यास) नदी में दो पिशाच रहते हैं। एक का नाम है बहि और दूसरे का नाम है हीक। इन्हीं दोनों की संतानें बाहीक कहलाती हैं। ब्रह्मा जी ने इनकी सृष्टि नहीं की है। वे नीच योनि में उत्पन्न हुए मनुष्य नाना प्रकार के धर्मों को कैसे जानेंगे? कारस्कर, माहिषक, कुरंड, केरल, कर्कोटक और वीरक- इन देशों के धर्म (आचार-व्यवहार) दूषित हैं; अतः इनका त्याग कर देना चाहिये। विशाल ओखलियों की मेखला (करधनी) धारण करने वाली किसी राक्षसी ने किसी तीर्थयात्री के घर में एक रात रहकर उससे इस प्रकार कहा था। जहाँ ब्रह्मा जी के समकालीन (अत्यन्त प्राचीन) वेद-विरुद्ध आचरण वाले नीच ब्राह्मण निवास करते हैं, वे आरट्ट नामक देश है और वहाँ के जल का नाम बाहीक है। उन अधम ब्राह्मणों को न तो वेदों का ज्ञान है, न वहाँ यज्ञ की वेदियाँ हैं और न उनके यहाँ यज्ञ-याग ही होते हैं। वे संस्कारहीन एवं दासों से समागम करने वाली कुलटा स्त्रियों की संतानें हैं; अतः देवता उनका अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। प्रस्थल, मद्र, गान्धार, आरट्ट, खस, वसाति, सिंधु तथा सौवीर- ये देश प्रायः अत्यन्त निन्दित हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक चौंवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण का मद्र आदि बाहीक निवासियों के दोष बताना, शल्य का उत्तर देना और दुर्योधन का दोनों को शान्त करना”
कर्ण बोला ;- 'शल्य! पहले जो बातें बतायी गई हैं, उन्हें समझो। अब मैं पुनः तुमसे कुछ कहता हूँ। मेरी कही हुई इस बात को तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। पूर्वकाल में एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में हमारे घर पर ठहरा था। उसने हमारे यहाँ का आचार-विचार देखकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए यह बात कही,
ब्राह्मण ने कहा ;- मैंने अकेले ही दीर्घकाल तक हिमालय के शिखर पर निवास किया है और विभिन्न धर्मों से सम्पन्न बहुत से देश देखे हैं। इन सब देशों के लोग किसी भी निमित्त से धर्म के विरुद्ध नहीं जाते। वेदों के पारगामि विद्वानों ने जैसा बताया है, उसी रूप में वे लोग सम्पूर्ण धर्म को मानते और बतलाते हैं। महाराज! विभिन्न धर्मों से युक्त अनेक देशों में घूमता-घामता जब मैं बाहीक देश में आ रहा था, तब वहाँ ऐसी बातें देखने और सुनने में आयीं। उस देश में एक ही बाहीक पहले ब्राह्मण होकर फिर क्षत्रिय होता है। तत्पश्चात वैश्य और शूद्र भी बन जाता है। उसके बाद वह नाई होता है। नाई होकर फिर ब्राह्मण हो जाता है। ब्राह्मण होने के पश्चात फिर वही दास बन जाता है। वहाँ एक ही कुल में कुछ लोग ब्राह्मण और कुछ लोग स्वेच्छाचारी वर्णसंकर संतान उत्पन्न करने वाले होते हैं। गान्धार, मद्र और बाहीक- इन सभी देशों के लोग मन्द बुद्धि हुआ करते हैं। उस देश में मैंने इस प्रकार धर्म संकरता फैलाने वाली बातें सुनीं। सारी पृथ्वी में घूमकर केवल बाहीक देश में ही मुझे धर्म के विपरीत आचार-व्यवहार दिखायी दिया। शल्य! ये सब बातें जान लो। अभी और कहता हूँ। एक दूसरे यात्री ने भी बाहीकों के सम्बन्ध में जो घृणित बातें बतायी थीं, उन्हें सुनो।
कहते हैं, प्राचीन काल में लुटेरे डाकुओं ने आरट्ट देश से किसी सती स्त्री का अपहरण कर लिया और अधर्म पूर्वक उसके साथ समागम किया। तब उसने उन्हें यह शाप दे दिया- मैं अभी बालिका हूँ और मेरे भाई-बन्धु मौजूद हैं तो भी तुम लोगों ने अधर्म पूर्वक मेरे साथ समागम किया है। इसलिए इस कुल की सारी स्त्रियाँ व्यभिचारिणी होंगी। नराधमों! तुम्हें इस घोर पाप से कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। कुरु, पांचाल, शाल्व, मत्स्य, नैमिष, कोसल, काशी, अंग, कलिंग, मगध और चेदि देशों के बड़भागी मनुष्य सनातन धर्म को जानते हैं। भिन्न-भिन्न देशों में बाहीक निवासियों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र श्रेष्ठ पुरुष उपलब्ध होते हैं। मत्स्य से लेकर कुरु और पांचाल देश तक, नैमिषारण्य से लेकर चेदि देश तक जो लोग निवास करते हैं, वे सभी श्रेष्ठ एवं साधु पुरुष हैं और प्राचीन धर्म का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं। मद्र और पंचनद प्रदेशों में ऐसी बात नहीं है। वहाँ के लोग कुटिल होते हैं। राजा शल्य! ऐसा जानकर तुम जड़ पुरुषों के समान धर्मोपदेश की ओर से मुँह मोड़कर चुपचाप बैठे रहो। तुम बाहीक देश के लोगों के राजा और रक्षक हो; अतः उनके पुण्य और पाप का भी छठा भाग ग्रहण करते हो। अथवा उनकी रक्षा न करने के कारण तुम केवल उनके पाप में ही हिस्सा बँटाते हो। प्रजा की रक्षा करने वाला राजा ही उसके पुण्य का भागी होता है; तुम तो केवल पाप के ही भागी हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
पूर्वकाल में समस्त देशों में प्रचलित सनातन धर्म की जब प्रशंसा की जा रही थी, उस समय ब्रह्मा जी ने पंचनद वासियों के धर्म पर दृष्टिपात करके कहा था कि धिक्कार है इन्हें! संस्कारहीन, जारज और पापकर्मी पंचनदवासियों के धर्म की जब ब्रह्मा जी ने सत्ययुग में भी निन्दा की, तब तुम उसी देश के निवासी होकर जगत् में क्यों धर्मोपदेश करते हो? पितामह ब्रह्मा ने पंचनद निवासियों के आचार-व्यवहार रूपी धर्म का इस प्रकार अनादर किया है। अपने धर्म में तत्पर रहने वाले अन्य देशों की तुलना में उन्होंने इनका आदर नहीं किया। शल्य! इन सब बातों को अच्छी तरह जान लो। अभी इस विषय में तुमसे और कुछ भी बातें बता रहा हूँ, जिन्हें सरोवर में डूबते हुए राक्षस कल्माषपाद ने कहा था। क्षत्रिय का मल है भिक्षावृत्ति, ब्राह्मण का मल है वेद-शास्त्रों के विपरीत आचरण, पृथ्वी के मल हैं बाहीक और स्त्रियों का मल हैं मद्र देश की स्त्रियाँ। उस डूबते हुए राक्षस का किसी राजा ने उद्धार करके उससे कुछ प्रश्न किया। उनके उस प्रश्न के उत्तर में राक्षस ने जो कुछ कहा था, उसे सुनो- मनुष्यों के मल हैं म्लेच्छ, म्लेच्छों के मल हैं शराब बेचने वाले कलाल, कलालों के मल हैं हींजड़े और हींजड़ों के मल हैं राजपुरोहित। राजपुरोहितों के पुरोहित तथा मद्र देश वासियों का जो मल है, वह सब तुम्हें प्राप्त हो, यदि इस सरोवर से तुम मेरा उद्धार न कर दो। जिन पर राक्षसों का उपद्रव है तथा जो विष के प्रभाव से मारे गये हैं, उनके लिये यह उत्तम सिद्ध वाक्य ही राक्षस के प्रभाव का निवारण करने वाला एवं जीवन रक्षक औषध बताया गया है।
पांचाल देश के लोग वेदोक्त धर्म का आश्रय लेते हैं, कुरु देश के निवासी धर्मानुकूल कार्य करते हैं, मत्स्य देश के लोग सत्य बोलते और शूरसेन निवासी यज्ञ करते हैं। पूर्व देश के लोग दास कर्म करने वाले, दक्षिण के निवासी वृषल, बाहीक देश के लोग चोर और सौराष्ट्र निवासी वर्णसंकर होते हैं कृतघ्नता, दूसरों के धन का अपहरण, मदिरापान, गुरुपत्नी गमन, कटु वचन का प्रयोग, गोवध, रात के समय घर से बाहर घूमना और दूसरों के वस्त्र का उपयोग करना- ये सब जिनके धर्म हैं, उन आरट्टों और पंचनद वासियों के लिये अधर्म नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। उन्हें धिक्कार है। पांचाल, कौरव, नैमिष और मत्स्य देशों के निवासी धर्म को जानते हैं। उत्तर, अंग तथा मगध देशों के वृद्ध पुरुष शास्त्रोक्त धर्मों का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं। अग्नि आदि देवता पूर्व दिशा का आश्रय लेकर रहते हैं, पितर पुण्यकर्मा यमराज के द्वारा सुरक्षित दक्षिण दिशा में निवास करते हैं, बलवान वरुण देवताओं का पालन करते हुए पश्चिम दिशा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भगवान सोम ब्राह्मणों के साथ उत्तर दिशा की रक्षा करते हैं। महाराज! राक्षस, पिशाच और गुह्यक- ये गिरिराज हिमालय तथा गन्धमादन पर्वत की रक्षा करते हैं और अविनाशी एवं सर्वव्यापी भगवान जनार्दन समस्त प्राणियों का पालन करते हैं (परंतु बाहीक देश पर किसी भी देवता का विशेष अनुग्रह नहीं है)। मगध देश के लोग इशारों से ही सब बात समझ लेते हैं, कोसल निवासी नेत्रों की भावभंगी से मन का भाव जान लेते हैं, कुरु तथा पांचाल देश के लोग आधी बात कहने पर ही पूरी बात समझ लेते हैं, शाल्व देश के निवासी पूरी बात कह देने पर उसे समझ पाते हैं, परंतु शिवि देश के लोगों की भाँति पर्वतीय प्रान्तों के निवासी इन सबसे विलक्षण होते हैं। वे पूरी बात कहने पर भी नहीं समझ पाते।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! यद्यपि यवन जातीय म्लेच्छ सभी उपायों से बात समझ लेने वाले और विशेषतः शूर होते हैं, तथापि अपने द्वारा कल्पित संशयों पर ही अधिक आग्रह रखते हैं (वैदिक धर्म को नहीं मानते)। अन्य देशों के लोग बिना कहे हुए कोई बात नहीं समझते हैं, परंतु बाहीक देश के लोग सब काम उलटे ही करते हैं (उनकी समझ उलटी ही होती है) और मद्र देश के कुछ निवासी तो ऐसे होते हैं कि कुछ भी नहीं समझ पाते। शल्य! ऐसे ही तुम हो। अब मेरी बात का जवाब नहीं दोगे। मद्र देश के निवासी को पृथ्वी के सम्पूर्ण देशों का मल बताया जाता है। मदिरापान, गुरु की शैय्या का उपभोग, भ्रूणहत्या और दूसरों के धन का अपहरण- ये जिनके धर्म हैं, उनके लिये अधर्म नाम की कोई वस्तु नहीं। ऐसे आरट्ट और पंचनद देश के लोगों को धिक्कार है। यह जानकर तुम चुपचाप बैठे रहो। फिर कोई प्रतिकूल बात मुँह से न निकालो। अन्यथा पहले तुम्हीं को मारकर पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करूँगा।
शल्य बोले ;- कर्ण! तुम जहाँ के राजा बनाये गये हो, उस अंग देश में क्या होता है? अपने सगे-सम्बन्धी तब रोग से पीड़ित हो जाते हैं तो उनका परित्याग कर दिया जाता है। अपनी ही स्त्री और बच्चों को वहाँ के लोग सरे बाजार बेचते हैं। उस दिन रथी और अतिरथियों की गणना करते समय भीष्म जी ने तुमसे जो कुछ कहा था, उसके अनुसार अपने उन दोषों को जानकर क्रोध रहित हो शान्त हो जाओ। कर्ण! सर्वत्र ब्राह्मण हैं। सब जगह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं तथा सभी देशों में उत्तम व्रत का पालन करने वाली साध्वी स्त्रियाँ होती हैं। सभी देशों के पुरुष दूसरे पुरुषों के साथ बात करते समय उपहास के द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाते हैं और स्त्रियों के साथ रमण करते हैं। सभी देशों में अपने-अपने धर्म का पालन करने वाले राजा रहते हैं, जो दुष्टों का दमन करते हैं तथा सर्वत्र ही धर्मात्मा मनुष्य निवास करते हैं। कर्ण! एक देश में रहने मात्र से सब लोग पाप का ही सेवन नहीं करते हैं। उसी देश में मनुष्य अपने श्रेष्ठ शील-स्वभाव के कारण ऐसे महापुरुष हो जाते हैं कि देवता भी उनकी बराबरी नहीं कर सकते।
संजय कहते हैं ;- राजन! तब राजा दुर्योधन ने कर्ण तथा शल्य दोनों को रोक दिया। उसने कर्ण को तो मित्रभाव- ये समझाकर मना किया और शल्य को हाथ जोड़कर रोका। मान्यवर! दुर्योंधन के मना करने पर कर्ण ने कोई उत्तर नहीं दिया और शल्य ने भी शत्रुओं की ओर मुंह फेर लिया। तब राधापुत्र कर्ण ने हंसकर शल्य को रथ बढ़ाने की आज्ञा देते हुए कहा,
कर्ण बोले ;- ‘चलो, चलो’।
(इस प्रकार श्री महाभारत कर्ण पर्व में कर्ण और शल्यथ का संवाद विषयक पैंतालीसवां अध्याधय पूरा हुआ)
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