सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the 36 chapter to the 40 chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

छत्तीसवाँ अध्याय 

 (सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण का युद्ध के लिये प्रसथान और शल्य से उसकी बातचीत”

      दुर्योधन बोला ;- कर्ण! ये मद्रराज शल्य तुम्हारा सारथ्यकर्म करेंगे। देवराज इन्द्र के सारथि मातलि के समान ये श्रीकृष्ण से भी श्रेष्ठ संचालक हैं। जैसे मातलि इन्द्र के घोड़ों से जुते हुए रथ की बागडोर सँभालते हैं, उसी प्रकार ये तुम्हारे रथ के घोड़ों को काबू में रखेंगे। जब तुम योद्धा बनकर रथ पर बैठोगे और मद्रराज शल्य सारथि के रूप में प्रतिष्ठित होंगे, उस समय वह श्रेष्ठ रथ निश्चय ही युद्वस्थल में कुन्तीपुत्रों को पराजित कर देगा।

     संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर दुर्योधन ने प्रातःकाल युद्ध उपस्थित होने पर पुनः वेगशाली मद्रराज शल्य से कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- ‘मद्रराज! आप संग्राम में कर्ण के इन उत्तम घोड़ों को वश में कीजिये। आपसे सुरक्षित होकर राधापुत्र कर्ण निश्चय ही अर्जुन को जीत लेगा।' भारत! दुर्योधन के ऐसा करने पर शल्य ने रथ का स्पर्श करके कहा,

     शल्य ने कहा ;- ‘तथास्तु।' जब शल्य ने सारथि होना पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया, तब कर्ण ने प्रसन्नचित होकर बारंबार अपने पूर्व सारथि से शीघ्रता पूर्वक कहा,

     कर्ण ने कहा ;- ‘सूत! तुम मेरा रथ सजाकर तैयार करो। तब सारथि ने गन्धर्वनगर के समान विशाल, विजयशील श्रेष्ठ और मंगलकारक रथ को विधिपूर्वक सुसज्जित करके सूचित किया- ‘स्वामिन्! आपकी जय हो! रथ तैयार है। रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने वेदज्ञ पुरोहित द्वारा पहले से ही जिसका मांगलिक कृत्य सम्पन्न कर दिया था, उस रथ की विधिपूर्वक पूजा और प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात सूर्यदेव का प्रयत्न पूर्वक उपस्थान करके पास ही खड़े हुए मद्रराज से कहा ‘पहले आप रथ पर बैठिये।

      तदनन्तर जैसे सिंहपर्वत पर चढ़ता है, उसी प्रकार महातेजस्वी शल्य कर्ण के दुर्जय, विशाल एवं श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हुए। कर्ण अपने उत्तम रथ को सारथि शल्य से सनाथ हुआ देख स्वयं भी उस पर आरूढ़ हुआ, मानो सूर्यदेव बिजलियों से युक्त मेघ पर प्रतिष्ठित हुए हों। जैसे आकाश में किसी महान मेघखण्ड पर एक साथ बैठे हुए सूर्य और अग्नि प्रकाशित हो रहे हों, उसी प्रकार सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी कर्ण और शल्य उस एक ही रथ पर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे। उस समय उन दोनों परम तेजस्वी वीरों की उसी प्रकार स्तुति होने लगी, जैसे यज्ञमण्डप में ऋत्विजों और सदस्यों द्वारा इन्द्र और अग्नि देवता का सतवन किया जाता है।

     शल्य ने घोड़ों की बागडोर हाथ में ली। उस रथ पर बैठा हुआ कर्ण अपने भयंकर धनुष को फैलाकर उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो सूर्य मण्डल पर घेरा पड़ा हो। उस श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुआ पुरुषसिंह कर्ण अपनी बाणमयी किरणों से युक्त हो मन्दराचल के शिखर पर देदीप्यमान होने वाले सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। युद्ध के लिये रथ पर बैठे हुए अमित तेजस्वी महाबाह राधापुत्र कर्ण से दुर्योधन ने इस प्रकार कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीर! अधिरथकुमार! युद्ध स्थल में द्रोणाचार्य और भीष्म भी जिसे न कर सके, वही दुष्कर कर्म तुम सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते कर डालो। मेरे मन में यह विश्वास था कि महारथी भीष्म और द्रोणाचार्य अर्जुन और भीमसेन को अवश्य मार डालेंगे। वीर राधापुत्र! वे दोनों जिसे न कर सके, वही वीराचित कर्म आज महासमर में दूसरे वज्रधारी इन्द्र के समान तुम निश्चय ही पूर्ण करो।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)

     राधानन्दन! या तो तुम धर्मराज युधिष्ठिर को कैद कर लो या अर्जुन को, भीमसेन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव को मार डालो। पुरुषश्रेष्ठ! तुम्हारी जय हो। कल्याण हो। अब तुम जाओ और पाण्डपुत्र की सारी सेनाओं को भस्म करो'। तदननतर सहस्रों सूर्य और कई सहस्र रणभेरियाँ बज उठीं, जो आकाश में मेघों की गर्जना के समान प्रतीत हो रही थीं।

      रथ पर बैठे हुए रथियों में श्रेष्ठ राधापुत्र कर्ण ने दुर्योधन के उस आदेश को शिरोधार्य करके युद्धकुशल राजा शल्य से कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- ‘महाबाहो! मेरे घोड़ों को बढ़ाइये, जिससे मैं अर्जुन, भीमसेन, दोनों भाई नकुल-सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर का वध कर सकूँ। शल्य! आज सैंकड़ों और सहस्रों कुकपत्रयुक्त बाणों की वर्षा करते हुए मुझ कर्ण के बाहुबल को अर्जुन देखें। शल्य! आज मैं पाण्डवों के विनाश और दुर्योधन की विजय के लिये अत्यन्त तीखे बाण चलाऊँगा'। 

    शल्य ने कहा ;- 'सूतपुत्र! तुम पाण्डवों की अवहेलना कैसे करते हो। वे सब-के-सब तो सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता, महाधनुर्धर, महाबलवान, युद्ध से पीछे न हटने वाले, अजेय तथा सत्यपराक्रमी हैं। वे साक्षात! इन्द्र के मन में भी भय उत्पन्न कर सकते हैं। राधापुत्र! जब तुम युद्ध स्थल में वज्र की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव धनुष का गम्भीर घोष सुनोगे, तब ऐसी बातें नहीं कहोगे।

      जब तुम देखोगे कि भीमसेन ने संग्रामभूमि में गजराजों की सेना के दाँत तोड़-तोड़कर उसका संहार कर डाला है, तब तुम इस प्रकार नहीं बोल सकोगे। जब तुम्हें यह दिखायी देगा कि संग्राम में धर्मपुत्र यधिष्ठिर, नकुल-सहदेव तथा अन्यान्य दुर्जय भूपाल बड़ी शीघ्रता के साथ हाथ चला रहे हैं, अपने तीखे बाणों द्वारा आकाश में मेघों की छाया के समान छाया कर रहे हैं, निरनतर बाण वर्षा करते और शत्रुओं का संहार किये डालते हैं, तब तुम ऐसी बातें मुँह से निकाल सकोगे'।

     संजय कहते हैं ;- राजन! मद्रराज की कही हुई उस बात की उपेक्षा करके कर्ण ने उन वेगशाली मद्रनरेश से कहा,

  कर्ण ने कहा ;- ‘चलिये,चलिये'।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में शल्य संवाद विषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

सैतीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव सेना में अपशकुन, कर्ण की आत्मप्रशंसा, शल्य के द्वारा उसका उपहास और अर्जुन के बल-पराक्रम का वर्णन”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! जब धनुर्धर कर्ण युद्ध की इच्छा से समरांगण में डटकर खड़ा हो गया, तब समस्त कौरव बड़े हर्ष में भरकर सब ओर कोलाहल करने लगे। तदनन्तर आपके पक्ष के समसत वीर दुन्दुभि और भेरियों की ध्वनि, बाणों की सनसनाहट और वेगशाली वीरों की विविध गर्जनाओं के साथ युद्ध के लिए निकल पड़े। उनके मन में यह निश्चय था कि अब मौत ही हमें युद्ध से निवृत्त कर सकेगी। राजन! कर्ण और कौरव योद्धाओं के प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान करने पर धरती डोलने और बड़े जोर-जोर से अव्यक्त शब्द करने लगी। उस समय सूर्यमण्डल से सात बड़े-बड़े ग्रह निकलते दिखाई दिये, उल्कापात होने लगे, दिशाओं से आग सी जल उठी, बिना वर्षा के ही बिजली गिरने लगीं और भयानक आँधी चलने लगी। बहुतेरे मृग और पक्षी महान भय की सूचना देते हुए अनेक बार आपकी सेना को दाहिने करके चले गये। कर्ण के प्रस्थान करते ही उसके घोड़े पृथ्वी पर गिर पड़े और आकाश से हड्डियों की भयंकर वर्षा होने लगी। प्रजानाथ! कौरवों के शस्त्र जल उठे, ध्वज हिलने लगे और वाहन आँसू बहाने लगे। ये तथा और भी बहुत से भयंकर उत्पात वहाँ प्रकट हुए, जो कौरवों के विनाश की सूचना दे रहै थे। परंतु दैव से मोहित होने के कारण उन सबने उन उत्पातों को कुछ गिना ही नहीं। सूतपुत्र के प्रख्यान करने पर सब राजा उसकी जय-जसकार बोलने लगे। कौरवों को य विश्वास हो गया कि अब पाण्डव परास्त हो जायेंगे।

        नरेश्वर! तदनन्तर प्रकाशमान सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी, शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ एवं रथ पर बैठा हुआ रथिश्रेष्ठ कर्ण यह देखकर कि भीष्म और द्रोणाचार्य के पराक्रम का लोप हो गया, अर्जुन के अलौकिक कर्म का चिन्तन करके अभिमान और दर्प से दग्ध हो उठा तथा क्रोध से जलता हुआ-सा लंबी-लंबी साँस खींचने लगा। उस समय उसने शल्य को सम्बोधित करके कहा,

    कर्ण ने कहा ;- ‘राजन! मैं हाथ में आयुध लेकर रथ पर बैठा रहूँ, उस अवस्था में यदि वज्र धारण करने वाले इन्द्र भी कुपित होकर आ जायें तो उनसे भी मुझे भय न होगा। भीष्म आदि महारथियों को रणभूमि में सदा के लिए सोया हुआ देखकर भी अस्थिरता (घबराहट) मुझसे दूर ही रहती है। ‘भीष्म और द्रोणाचार्य देवराज इन्द्र और विष्णु के समान पराक्रमी, सबके द्वारा प्रशंसित, रथों, घोड़ों और गजराजों को भी मथ डालने वाले तथा अवध्य-तुल्य थे, जब उन्हें भी शत्रुओं ने मार डाला, तब मेरी क्या गिनती है? यह सोचकर भी आज मुझे रणभूमि में कोई भय नहीं हो रहा है।

      ‘युद्ध स्थल में अत्यन्त बलवान नरेशों को सारथि, रथ और हाथियों सहित शत्रुओं द्वारा मारा गया देखकर भी महान अस्त्रवेत्ता ब्राह्मण शिरोमणि आचार्य द्रोण ने रणभूमि में समस्त शत्रुओं का वध क्यें नहीं कर डाला? ‘अतः महासमर में मारे गये द्रोणाचार्य का स्मरण करके मैं सत्य कहता हूँ, कौरवों! तुम लोग ध्यान देकर सुनो। मेरे सिवा दूसरा कोई रणभूमि में अर्जुन का वेग नहीं सह सकता। वे सामने आये हुए भयानक रूपघारी मृत्यु के समान हैं। ‘शिक्षा, सावधानी, बल, धैर्य, महान अस्त्र और विनय- ये सभी सद्गुण द्रोणाचार्य में विद्यमान थे। वे महात्मा द्रोण भी यदि मृत्यु के वश में पड़ गये तो अन्य सब लोगों को भी मैं मरणासन्न ही समझता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘बहुत सोचने पर भी मैं कर्म-सम्बन्ध की अनित्यता के कारण इस लोक में किसी भी वस्तु को नित्य नहीं मानता। जब आचार्य द्रोण भी मार दिये गये, तब कौन संदेहरहित होकर आगामी सूर्योदय तक जीवित रहने का दृढ़ विश्वास कर सकता है? ‘निश्चय ही अस्त्र, बल, पराक्रम, क्रिया,अच्छी नीति अथवा उत्तम आयुध आदि किसी मनुष्य को सुख पहुँचाने के लिये पर्याप्त नहीं हैं; क्योंकि इन सब साधनो के होते हुए भी आचार्य को शत्रुओं ने युद्ध में मार डाला है। ‘अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी तथा सदा बृहस्पति और शुक्राचार्य के समान नीतिमान इन गुरुदेव को बचाने के लिये इनके दुःसह अस्त्र आदि पास न आ सके अर्थात उनकी रक्षा नहीं कर सके।

      ‘शल्य! (द्रोणाचार्य के मारे जाने पर) जब सब ओर त्राहि-त्राहि की पुकार हो रही है, स्त्रियाँ और बच्चे बिलख-बिलख कर रो रहै हैं तथा दुर्योधन को मेरी सहायता की विशेष आवश्यकता है। मैं अपने इस कर्त्तव्य को अच्छी तरह समझता हूँ। इसलिये तुम शत्रुओं की सेना की ओर चलो। ‘जहाँ सत्यप्रतिज्ञ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर खड़े हैं, जहाँ भीमसेन, अर्जुन, वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण, सात्यकि, सृंजय वीर तथा नकुल और सहदेव डटे हुए हैं, वहाँ मेरे सिवा दूसरा कौन उन वीरों का वेग सह सकता है? ‘इसलिए मद्रराज! तुम शीघ्र ही रणभूमि में पांचाल, पाण्डव तथा सृंजय वीरों की ओर रथ ले चलो। आज युद्ध स्थल में उन सबके साथ भिड़कर या तो उन्हें ही मार डालूँगा या स्वयं ही द्रोणाचार्य के मार्ग से यमलोक चला जाऊँगा। ‘शल्य! मैं उन शूरवीरों के बीच में नहीं जाऊँगा, ऐसा मुझे न समझो; क्योंकि संग्राम से पीछे हटने पर मित्रद्रोह होगा और यह मित्रद्रोह मेरे लिये असह्य है। इसलिए मैं प्राणों का परित्याग करके द्रोणाचार्य का ही अनुसरण करूँगा। ‘विद्वान हो या मूर्ख, आयु की समाप्ति होने पर सभी का यमराज के द्वारा यथायोग्य सत्कार होता है। उससें किसी को छुटकारा नहीं मिलता। अतः विद्वान मैं कुन्ती के पुत्रों पर अवश्य चढ़ाई करूँगा। निश्चय की दैव के विधान को कोई पलट नहीं सकता।

     ‘धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन सदा ही मेरे कल्याण-साधन में तत्पर रहा है; अतः आज उसके मनारथ की सिद्धि के लिये मैं अपने प्रिय भोगों को और जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, उस जीवन को भी त्याग दूँगा। ‘गुरुवर परशुराम जी ने मझे यह व्याघ्रचर्म से आच्छादित और उत्तम अश्वों से जुता हुआ श्रेष्ठ रथ प्रदान किया है। इसमें तीन सुवर्णमय कोष और रजतमय त्रिवेणु सुशोभित हैं। इसके धुरों और पहियों से कोई आवाज नहीं निकलती है। ‘शल्य! तत्पश्चात उन्होंने भली-भाँति इस रथ का निरीक्षण करके बहुत-से विचित्र धनुष,भयंकर बाण, ध्वज, गदा, खड्ग,चमचमाते हुए उत्त्म आयुध तथा गम्भीर ध्वनि से युक्त भयंकर श्वेत शंख भी दिये थे। ‘यह रथ सब रथों से उत्तम है। इसमें पताकाएँ फहरा रही हैं, सफेद घोड़े जुते हुए हैं और सुन्दर तरकस इसकी शोभा बढ़ाते हैं। चलते समय इस रथ की धमक से वज्रपात के समान शब्द होता है। मैं इस रथ पर बैठकर रणभूमि में अर्जुन को बलपूर्वक मार डालूँगा। ‘यदि सबका संहार करने वाली मृत्यु सदा सावधान रहकर समरांगण में पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करे तो रणक्षेत्र में उससे भी भिड़कर या तो मै उसे ही मार डालूँगा या स्वयं ही भीष्म के सम्मुख यमलोक को चला जाऊँगा। 'अधिक कहने से क्या लाभ? यदि इस महासागर में अपने गणोसहित यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र भी एक साथ आकर यहाँ पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करना चाहैं तो मैं उन सबके साथ ही उन्हें जीत लूँगा'।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय कहते हैं ;- राजन! पराक्रमी मद्रराज शल्य युद्ध के उत्साह में भरकर बढ़-बढ़कर बातें बनाने वाले कर्ण के कथन को सुनकर उसकी अवहैलना करके उपहास करने लगे। उन्होंने फिर ऐसी बातें कहने से कर्ण को रोका और इस प्रकार उत्तर दिया। शल्य ने कहा-कर्ण! बस, अब बढ़-बढ़कर बातें बनाना बंद करो, बंद करो। तुम अधिक जोश में आकर अपनी शक्ति से बहुत बड़ी बात कह गये। भला, कहाँ नरश्रेष्ठ अर्जुन और कहाँ मनुष्यों में तुम? बताओ तो सही, अर्जुन के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो साक्षात विष्णु भगवान से सुरक्षित यदुवंशियों की पुरी को जिसकी उपमा देवराज इन्द्र द्वारा पालित देवनगरी अमरावती से दी जाती है? बलपूर्वक मथकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की छोटी बहिन सुभद्रा का अपहरण कर सके। देवराज इन्द्र के समान बल और प्रभाव रखने वाले अर्जुन को छोड़कर इस संसार में दूसरा कौर ऐसा वीर पुरुष है, जो एक वन्य पशु को मारने के विषय में उठे हुए विवाद के अवसर पर ईश्वरों के भी ईश्वर त्रिलोकी नाथ भगवान शंकर को भी युद्ध के लिए ललकार सके। अर्जुन ने अग्निदेव का गौरव मानकर गरुड़, पिशाच, यक्ष, राक्षस, देवता, असुर, बड़े-बड़े नाग तथा मनुष्यों को भी बाणों द्वारा परास्त कर दिया और अग्नि को अभीष्ट हविष्य प्रदान किया था। कर्ण! याद है वह घटना, जबकि कुरुजांगल प्रदेश में घोषयात्रा के समय गन्धर्वों ने शत्रु बनकर दुर्योधन का अपहरण कर लिया था, उस समय इन्ही अर्जुन ने सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी उत्तमोत्तम बाणों द्वारा उन बहुसंख्यक शत्रुओं को मारकर धृतराष्ट्र पुत्र को बन्धन से मुक्त किया था। उस युद्ध में तुम सबसे पहले भाग गये थे। उस समय पाण्डवों ने गन्धर्वों को पराजित करके कलह प्रिय धुतराष्ट्र पुत्रों को कैद से छुड़ाया था। क्या ये सब बातें तुम्हें याद हैं?

      विराट नगर में गोहरण के समय पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने विशाल बल-वाहन से सम्पन्न तुम सब लोगों को द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और भीष्म के सहित परास्त कर दिया था। उस समय तुमने अर्जुन को क्यों नही जीत लिया? सूतपुत्र! अब आज तुम्हारे वध के लिये पुनः यह दूसरा उत्तम युद्ध उपस्थित हुआ है। यदि तुम शत्रु के भय से भाग नहीं गये तो समरांगण में पहुँचकर अवश्य मारे जाओगे। संजय ने कहा- राजन! जब महामना मद्रराज शल्य इस प्रकार शत्रु की प्रशंसा से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी कड़वी बातें सुनाने लगे, तब कौरव-सेनापति शत्रुसंतापी कर्ण अत्यन्त क्रोध से जल उठा और शल्य से बोला।

     कर्ण ने कहा ;- रहने दो, रहने दो! क्यों बहुत बड़-बड़ा रहे हो। अब तो मेरा और उसका युद्ध उपस्थित हो ही गया है। यदि अर्जुन यहाँ युद्ध में मुझे परास्त कर दें, तब तुम्हारा यह बढ़-बढ़कर बातें करना ठीक और अच्छा समझा जायगा। 

     संजय कहते हैं ;- राजन! तब मद्रराज शल्य 'एवमस्तु' कहकर चुप हो गये। उन्होंने कर्ण की उस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। तब कर्ण ने युद्ध की इच्छा से उनसे कहा,

    कर्ण ने कहा ;- 'शल्य! रथ आगे ले चलो।' तत्पश्चात शल्य जिसके सारथि थे और जिसमें श्वेत घोड़े जुते हुए थे, वह विशाल रथ अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्यदेव के समान शत्रुओं का संहरी करता हुआ आगे बढ़ा। तदनन्तर व्याघ्रचर्म से आच्छादित और श्वेत अश्वों से युक्त उस रथ के द्वारा कर्ण बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रस्थित हुआ। उसने सामने ही पाण्डवों की सेना को खड़ी देख बड़ी उतावली के साथ धनंजय का पता पूछा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य संवाद विषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

सैतीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन का पता बताने वाले को नाना प्रकार की भोग सामग्री और इच्छानुसार धन देने की घोषणा”

    संजय कहते हैं ;- राजन! प्रस्थानकाल में आपकी सेना का हर्ष बढ़ाता हुआ कर्ण समरांगण में पाण्डव-सैनिकों को देखकर प्रत्येक से पूछने और कहने लगा,

    कर्ण ने कहा ;- ‘जो आज मुझे महात्मा श्वेतवाहन अर्जुन को दिखा देगा, उसे मैं उसका अभीष्ट धन, जिसे वह मन से लेना चाहे, दे दूँगा। ‘यदि उतने धन से वह संतुष्ट नहीं होगा तो मैं उसे और धन दूँगा। जो मुझे अर्जुन का पता बता देगा, उसे मैं रत्नों से भरा हुआ छकड़ा दूँगा। ‘यदि अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष उस धन को पर्याप्त न माने तो मैं उसे प्रतिदिन दूध देने वाली सौ गौएँ और कांस का दुग्ध-पात्र प्रदान करूँगा। ‘इतना ही नहीं, मैं अर्जुन को दिखा देने वाले व्यक्ति के लिये सौ बड़े-बड़े गाँव दूँगा तथा जो अर्जुन का पता बता देगा उसे खच्चियों से जुता हुआ एक श्वेत रथ भी भेंट करूँगा जिसमें काले केशवाली युवतियाँ बैठी होंगी। ‘यदि अर्जुन का पता बताने वाला पुरुष उस धन को पूरा न समझे तो उसे दूसरा सोने का बना हुआ रथ प्रदान करूँगा, जिसमें हाथी के समान हृष्ट-पुष्ट छः बैल जुते होंगे। साथ ही उसे वस्त्राभूषणों से विभूषित सौ ऐसी स्त्रियाँ दूंगा, जो श्यासा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली), सुवर्णमय कण्ठहार से अलंकृत तथा गाने-बजाने की कला में विदुषि होंगी। ‘अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष यदि उसे भी पूरा न समझे तो मैं उसे सौ हाथी, सौ गाँव, पके सोने के बने हुए सौ रथ तथा दस हजार अच्छे घोड़े दूँगा। वे घोड़े हृष्ट-पुष्ट, गुणवान, विनीत, सुशिक्षित तथा रथ का भार वहन करने में समर्थ होंगे। ‘जो मुझे अर्जुन का पता बता देगा, उसे मैं चार सौ सवत्सा दुधारू गौएँ दूंगा, जिनके सींगों में सोने मढ़े होंगे।

     ‘यदि अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष उस धन को पूर्ण नहीं समझेगा तो उसे और भी उत्तम धन, श्वेत रंग के पाँचसौ घोड़े दूंगा, जो सोने के साज-बाज से सुसज्जित तथा विशुद्ध मणियों के आभूषणों से विभूषित होंगे। ‘इनके सिवा, अठारह और घोड़े भी दूँगा, जो अच्छी तरह रथ में सधे हुए होंगे। जो मुझे अर्जुन का पता बता देगा, उसे मैं परम उज्ज्वल और अलंकारों से सजाया हुआ एक सुवर्णमय रथ दूँगा, जिसमें अच्छी नस्ल के काबुली घोड़े जुते होंगे। यदि अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष उसे भी पूरा न समझे तो उसे मैं और भी श्रेष्ठ धन दूँगा। नाना प्रकार के सुवर्णमय आभूषणों से सुशोभित तथा सोने की मालाओं से अलंकृत छः सौ ऐसे हाथी प्रदान करूँगा, जो भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा के जंगलों में उत्पन्न हुए हैं और जिन्हें गजशिक्षकों ने अच्छी तरह सुशिक्षित कर लिया है। ‘यदि अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष उसे भी पूरा न समझे तो मैं उसे दूसरा श्रेष्ठ धन प्रदान करूँगा। जिनमें वैश्य निवास करते हों। ऐसे चौदह समृद्धशाली और धन सम्पन्न ग्राम दूँगा, जिनके आस-पास जंगल और जल की सुविधा होगी और जहाँ किसी प्रकार का भय नहीं होगा। वे चौदहों गाँव अधिक सम्पन्न तथा राजोचित भोगों से परिपूर्ण होंगे। ‘जो मुझे अर्जुन का पता बता देगा, उसे मैं सोने के कण्ठहारों से विभूषित मगध देश की सौ नवयुवती दासी दूँगा। ‘यदि अर्जुन को दिखाने वाला पुरुष उसे भी पर्याप्त न समझे तो मैं उसे दूसरा वर प्रदान करूँगा, जिसकी वह स्वयं इच्छा करे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)

       स्त्री, पुत्र, विहारस्थान तथा दूसरा भी जो कुछ धन-वैभव मेरे पास है, उसमें से जिस-जिस वस्तु को वह अपने मन से चाहेगा, वह सब कुछ मैं उसे दे डालूँगा। जो मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन का पता बता देगा, उसे मैं उन दोनों का मारकर उनका सारा धन-वैभव दे दूँगा। इन सब बातों को बारंबार कहते हुए कर्ण ने युद्धस्थल में समुद्र से उत्पन्न हुए अपने उत्तम शंख को उच्च स्वर से बजाया। महाराज! सूतपुत्र की कही हुई उस अवसर के अनुरूप उन बातों को सुनकर दुर्योधन अपने सेवकों सहित बड़ा प्रसन्न हुआ। फिर तो सब ओर दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि होने लगी, मृदंग बजने लगे, वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ वीरों का सिंहनाद तथा हाथियों के चिंग्घाड़ने का शब्द वहाँ गूँज उठा। पुरुषप्रवर नरेश! उस समय सभी सेनाओं में हर्ष और उत्साह से भरे हुए योद्धाओं का गम्भीर गर्जन होने लगा। इस प्रकार हर्ष से उत्साहित हुई सेना में जाते और बढ़-बढ़कर बातें बनाते हुए शत्रुसूदन राधापुत्र महारथी कर्ण से मद्रराज शल्य ने हँसकर इस प्रकार कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में अभिमान विषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

उनतालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“शल्य का कर्ण के प्रति अत्यन्त आक्षेप पूर्ण वचन कहना”

    शल्य बोले ;- सूतपुत्र! तुम किसी परुष को हाथी के समान हृष्ट-पुष्ट छः बैलों से जुता हुआ सोने का रथ न दो। आज अवश्य ही अर्जुन को देखोगे। राधापुत्र तुम मूखर्ता से ही यहाँ कुबेर के समान धन लुटा रहे हो, आज अर्जुन को तो तुम बिना यत्न किए ही देख लोगे। मूढ़ पुरुषों के समान तुम अपना बहुत कुछ धन जो दूसरों को दे रहे हो, इससे जान पड़ता है कि अपात्र को धन का दान देने से जो दोष पैदा होते हैं, उन्हें मोहवश तुम नहीं समझ रहे हो। सूत! तुम जो बहुत धन देने की यहाँ घोषणा कर रहे हो, निश्चय ही उसके द्वारा नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हो; अतः तुम उन धन-वैभवों द्वारा यज्ञों का ही अनुष्ठान करो। और जो तुम मोहवश श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को मारना चाहते हो, वह मनसूबा तो व्यर्थ ही है; क्योंकि हमने यह बात कभी नहीं सुनी है कि किसी गीदड़ ने युद्ध में दो सिंहों को मार गिराया हो। तुम ऐसी चीज चाहते हो, जिसकी अब तक किसी ने इच्छा नहीं की थी। जान पड़ता हैं तुम्हारे कोई सुहृद नहीं है, जो शीघ्र ही आकर तुम्हें जलती आग में गिरने से रोक नहीं रहे हैं। तुम्हें कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं है। निःसंदेह तुम्हें काल ने पका दिया है। (अतः तुम पके हुए फल के समान गिरने वाले ही हो); अन्यथा जो जीवित रहना चाहता है, ऐसा कौन पुरुष ऐसी बहुत-सी-न सुनने योग्य अटपटांग बातें कह सकता है? जैसे कोई गले में पत्थर बाँधकर दोनों हाथों से समुद्र पार करना चाहे अथवा पहाड़ की चोटी से पृथ्वी पर कूदने की इच्छा करे, ऐसी ही तुम्हारी सारी चेष्टा और अभिलाषा है। यदि तुम कल्याण प्राप्त करना चाहते हो तो व्यूह रचना पूर्वक खड़े हुए समस्त सैनिकों के साथ सुरक्षित रहकर अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन के हित के लिए ही मै ऐसा कह रहा हूँ, हिंसा भाव से नहीं। यदि तुम्हें जीने की इच्छा है तो मेरे इस कथन पर विश्वास करो।

     कर्ण बोला ;- शल्य! मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके रणक्षेत्र में अर्जुन को पाना चाहता हूँ; परंतु तुम तो मुँह से मित्र बने हुए वास्तव में शत्रु हो, जो मुझे यहाँ डराना चाहते हो। परंतु मुझे इस अभिलाषा से आज कोई भी पीछे नहीं लौटा सकता। वज्र उठाये हुए इन्द्र भी मुझे किसी तरह इस निश्चय से डिगा नहीं सकते, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है?

     संजय कहते हैं ;- राजन! कर्ण की यह बात समाप्त होते ही मद्रराज शल्य उसे अत्यन्त कुपित करने की इच्छा से पुन: इस प्रकार उत्तर देने लगे- कर्ण! अर्जुन के वेग से युक्त हो उनकी प्रत्यंचा से प्रेरित और सुरक्षित हाथों से छोड़े हुए तीखी धार वाले कंकपत्र विभूषित बाण जब तुम्हारे शरीर में घुसने लगेंगे, तब जो तुम अर्जुन को पूछते फिरते हो, इसके लिये पश्चाताप करोगे। सूतपुत्र! जब सव्यसाची कुन्ती कुमार अर्जुन अपने हाथ में दिव्य धनुष लेकर शत्रुसेना को तपाते हुए पैने बाणों द्वारा तुम्हें रौंदने लगेंगे, तब तुम्हें अपने किये पर पछतावा होगा। जैसे अपनी माँ की गोद में सोया हुआ कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ लाना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी रथ पर बैठे हुए तेजस्वी अर्जुन को आज मोहवश परास्त करना चाहते हो। कर्ण! अर्जुन का पराक्रम अत्यन्त तीखी धारवाले त्रिशूल के समान है। उन्हीं अर्जुन के साथ आज जो तुम युद्ध करना चाहते हो, वह दूसरे शब्दों में यों है कि तुम पैनी धार वाले त्रिशूल को लेकर उसी से अपने सारे अंगों का रगड़ना या खुजलाना चाहते हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

     सूतपुत्र! जैसे बालक, मूढ़ और वेग से चौकड़ी भरने-वाला क्षुद्र मृग क्रोध में भरे हुए विशालकाय, केसर युक्त सिंह को ललकारे, तुम्हारा आज यह अर्जुन का युद्ध के लिए आह्वान करना वैसा ही है। सूतपुत्र! तुम महापराक्रमी राजकुमार अर्जुन का आह्वानन करो। जैसे वन में मांस-भक्षण से तृप्त हुआ गीदड़ महाबली सिंह के पास जाकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तुम भी अर्जुन से भिड़कर विनाश के गर्त में न गिरो। कर्ण! जैसे कोई खरगोश ईषादण्ड के समान दाँतों वाले महान मदस्त्रावी गजराज को अपने साथ युद्ध के लिए बुलाता हो, उसी प्रकार तुम भी कुन्ती पुत्र धनंजय का रणक्षेत्र में आह्वान करते हो। तुम यदि पूर्णतः क्रोध में भरे हुए अर्जुन के साथ जूझना चाहते हो तो मूर्खतावश बिल में बैठे हुए महाविषैले काले सर्प को किसी काठ की छड़ी से बींध रहे हो। कर्ण! तुम मूर्ख हो; क्रोध में भरे हुए केसरी सिंह का अनादर करके गर्जना करे, उसी प्रकार तुम भी मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी और क्रोध में भरे हुए पाण्डु कुमार अर्जुन का लंघन करके गरज रहे हो। कर्ण! जैसे कोई सर्प अपने पतन के लिए ही पक्षियों में श्रेष्ठ वेगशाली विनता नन्दन गरुड़ का आह्वान करता है, उसी प्रकार तुम भी अपने विनाश के लिये ही कुन्ती कुमार अर्जुन को ललकार रहे हो। अरे! तुम चन्द्रोदय के समय बढ़ते हुए, जल जन्तुओं से पूर्ण तथा उत्ताल तरंगों से व्याप्त अगाध जलराशि वाले भयंकर समुद्र को बिना किसी नाव के ही केवल दोनों हाथों के सहारे पार करना चाहते हो।

     बेटा कर्ण! दुन्दुभि की ध्वनि के समान जिसका कंठ स्वर गम्भीर है, जिसके सींग तीखे हैं तथा जो प्रहार करने में कुशल है, उस साँड के समान पराक्रमी पृथापुत्र अर्जुन को तुम युद्ध के लिए ललकार रहे हो। जैसे महाभयंकर महामेघ के मुकाबले में कोई मेंढक टर्र-टर्र कर रहा हो, उसी प्रकार तुम संसार में बाण रूपी जल की वर्षा करने वाले मानव मेघ अर्जुन को लक्ष्य करके गर्जना करते हो। कर्ण! जैसे अपने घर में बैठा हुआ कोई कुत्ता वन में रहने वाले बाघ की ओर भूँके, उसी प्रकार तुम भी नरव्याघ्र अर्जुन को लक्ष्य करके भूँक रहे हो। कर्ण! वन में खरगोशों के साथ रहने वाला गीदड़ भी जब तक सिंह को नहीं देखता, तब तक अपने को सिंह ही मानता रहता है। राधा नन्दन! उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह अर्जुन को न देखने के कारण ही अपने को सिंह समझना चाहते हो। एक रथ पर बैठे हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित श्रीकृष्ण और अर्जुन को जब तक तुम नहीं देख रहे हो, तभी तक अपने को बाघ माने बैठे हो। कर्ण! महासमर में जब तक गाण्डीव की टंकार नहीं सुनते हो, तभी तक तुम जैसा चाहो, बक सकते हो। रथ की घर्घराहट और धनुष की टंकार से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए सिंह सदृश अर्जुन को जब दहाड़ते देखोगे, तब तुरंत गीदड़ बन जाओगे। ओ मूढ़! तुम सदा से ही गीदड़ हो और अर्जुन सदा से ही सिंह है। वीरों के प्रति द्वेष रखने के कारण ही तुम गीदड़ जैसे दिखाई देते हो। जैसे चूहा और बिलाव, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह तथा खरगोश और हाथी अपनी निर्बलता और प्रबलता के लिये प्रसिद्ध है, उसी प्रकार तुम निर्बल हो और अर्जुन सबल है। जैसे झूठ और सच तथा विष और अमृत अपना अलग-अलग प्रभाव रखते हैं, उसी प्रकार तुम और अर्जुन भी अपने-अपने कर्मों के लिये सर्वत्र विख्यात हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण के प्रति शल्य का आक्षेप विषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

चालीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण का शल्य को फटकारते हुए मद्र देश के निवासियो की निन्दा करना एवं उसे मार डालने की धमकी देना”

     संजय कहते हैं ;- राजन! अमिततेजस्वी शल्य के इस प्रकार आक्षेप करने पर राधापुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा और यह वचन रूपी शल्य (बाण) छोड़ने के कारण ही इसका नाम शल्य पड़ा है, ऐसा निश्चय करके शल्य से इस प्रकार बोला। 

       कर्ण ने कहा ;- शल्य! गुणवान पुरुषों के गुणों को गुणवान ही जानता है, गुणहीन नहीं। तुम तो समस्त गुणों से शून्य हो; फिर गुण-अवगुण क्या समझोगे? शल्य! मैं महात्मा अर्जुन के महान अस्त्र, क्रोध, बल, धनुष, बाण और पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ। शल्य! इसी प्रकार महीपाल शिरोमणि श्रीकृष्ण के माहात्मय को जैसा मैं जानता हूँ वैसा तुम नहीं जानते।

      शल्य! मैं अपना और पाण्डुपुत्र अर्जुन का बल-पराक्रम समझकर ही गाण्डीवधारी पार्थ को युद्ध के लिये बुलाता हूँ। शल्य! मेरा यह सुन्दर पंखों से युक्त बाण शत्रुओं का रक्त पीने वाला है। यह अकेले ही एक तरकस में रखा जाता है, जो बहुत ही स्वच्छ, कंकपत्र युक्त और भली-भाँति अलंकृत है। यह सर्पमय भयानक विर्षला बाण बहुत वर्षों तक चन्दन के चूर्ण में रखकर पूजित होता आया है, जो मनुष्यों में, हाथियों और घोड़ों के समुदाय का संहार करने वाला है। यह अत्यन्त भयंकर घोर बाण कवच तथा हड्डियों को भी चीर देने वाला है। मैं कुपित होने पर इन बाणों के द्वारा महान पर्वत मेरु को भी विदीर्ण कर सकता हूँ। इस बाण को मैं अर्जुन अथवा देवकीपुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे किसी पर नहीं छोड़ूंगा। मेरी सच्ची बात को तुम कान खोलकर सुन लो। शल्य! मैं अत्यन्त कुपित होकर उस बाण के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा और वह कार्य मेंरे योग्य होगा। समस्त वृष्णिवंशी वीरों की सम्पत्ति श्रीकृष्ण पर ही प्रतिष्ठित है और पाण्डु के सभी पुत्रों की विजय अर्जुन पर ही अवलम्बित हैं; फिर उन दोनों को एक साथ युद्ध में पाकर कौन वीर पीछे लौट सकता है?

      शल्य! वे दोनों पुरुषसिंह एक साथ रथ पर बैठकर एकमात्र मुझ पर आक्रमण करने वाले हैं। देखो, मेरा जन्म कितना उत्तम है? धागों में पिरोयी हुई दो मणियों के समान प्रेमसूत्र में बँधे हुए उन दोनों फुफेरे और ममेरे भाइयों को, जो किसी से पराजित नहीं होते, तुम मेरे द्वारा मारा गया देखोगे। अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष है और श्रीकृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र है। एक कपिध्वज है तो दूसरा गरुड़ध्वज। शल्य! ये सब वस्तुएँ कायरों को भय देनेवाली हैं; परंतु मेरा हर्ष बढ़ाती हैं। तुम तो दुष्ट स्वभाव के मूर्ख मनुष्य हो। बड़े-बड़े युद्धों में कैसे शत्रुओं का सामना किया जाता है, इस बात से अनभिज्ञ हो। भय से तुम्हारा हृदय विदीर्ण-सा हो रहा है; अतः डर के मारे बहुत सी असंगत बातें कर रहे हो। दुष्ट और पापी देश में उत्पन्न हुए नीच क्षत्रियकुलांगार दुर्बुद्धि शल्य! तुम उन दोनों की किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये स्तुति करते हो; परंतु आज समरांगण में उन दोनों को मारकर बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हारा भी वध कर डालूँगा। तुम मेरे शत्रु होकर भी सुहृद बनकर मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से क्यों डरा रहै हो। आज या तो वे ही दोनों मुझे मार डालेंगे या मैं ही उन दोनो का संहार कर दूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)

       मैं अपने बल को अच्छी तरह जानता हूँ, इसलिये श्रीकृष्ण और अर्जुन से कदापि नहीं डरता हूँ। नीच देश में उत्पन्न शल्य! तुम चुप रहो। मैं अकेला ही सहस्रों श्रीकृष्णों और सैंकड़ों अर्जुनों को मार डालूँगा। मूर्ख शल्य! स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े लोग, खेल-कूद में लगे हुए मनुष्य और स्वाध्याय करने वाले पुरुष भी दुरात्मा मद्रनिवासियों के विषय में जिन गाथाओं को गाया करते हैं तथा ब्राह्मणों ने पहले राजा के समीप आकर यथावत रूप से जिनका वर्णन किया है, उन गाथाओं को एकाग्रचित्त होकर मुझसे सुनो और सुनकर चुपचाप सहलो या जवाब दो। मद्र देश का अधम मनुष्य सदा मित्रद्रोही होता है। जो हम लोगों से अकारण द्वेष करता है, वह मद्र देश का ही अधम मनुष्य है। क्षुद्रता पूर्ण वचन बोलने वाले मद्र देश के निवासी में किसी के प्रति सौहार्द की भावना नहीं होती। मद्र निवासी मनुष्य सदा ही कुटिल होता है। हमने सुन रखा है कि मद्र निवासियों में मरते दम तक दुष्टता बनी रहती है। सत्तू और मांस खाने वाले जिन अशिष्ट मद्र निवासियों के घरों में पिता, पुत्र, माता, सास, ससुर, मामा, बेटी, दामाद, भाई, नाती, पोते, अन्यान्य बन्धु-बान्धव, समवयस्क मित्र, दूसरे अभ्यागत अतिथि और दास-दासी ये सभी अपनी इच्छा के अनुसार एक दूसरे से मिलते हैं। परिचित-अपरिचित सभी स्त्रियाँ सभी पुरुषों से सम्पर्क स्थापित कर लेती हैं और गोमांस सहित मदिरा पीकर रोती, हँसती, गाती, असंगत बातें करती तथा काम भाव से किये जाने वाले कार्यों में प्रवृत्त होती हैं। जिनके यहाँ सभी स्त्री-पुरुष एक दूसरे से काम सम्बन्धी प्रलाप करते हैं? जिनके पापकर्म सर्वत्र विख्यात हैं, उन घमंडी मद्र निवासियों में धर्म कैसे रह सकता है? मद्र निवासियों के साथ न तो वैर करे और न मित्रता ही स्थापित करे, क्योंकि उसमें सौहार्द की भावना नहीं होती। मद्र निवासी सदा पाप में ही डूबा रहता है।

     ओ बिच्छू! जैसे मद्र निवासियों के पास रखी हुई धरोहर और गान्धार निवासियों में शौचाचार नष्ट हो जाते हैं, जहाँ क्षत्रिय पुरोहित हो उस यजमान के यज्ञ में दिया हुआ हविष्य जैसे नष्ट हो जाता है, जैसे शूद्रों का संस्कार कराने वाला ब्राह्मण पराभाव को प्राप्त होता है, जैसे मद्र निवासियों के साथ मित्रता करके मनुष्य पतित हो जाता है तथा जिस प्रकार मद्र निवासियों मे सौहार्द की भावना सर्वथा नष्ट हो गयी है, उसी प्रकार तेरा यह विष भी नष्ट हो गया। मैने अथर्ववेद के मन्त्र से तेरे विष को शान्त कर दिया। ये उपर्युक्त बातें कहकर जो बुद्धिमान विषर्वद्य बिच्छू के काटने पर उसके विष के वेग से पीड़ित हुए मनुष्य की चिकित्सा या औषध करते हैं, उनका वह कथन सत्य ही दिखायी देता है। विद्वान राजा शल्य! ऐसा समझकर तुम चुपचाप बैठे रहो और इसके बाद जो बात मैं कह रहा हूँ, उसे भी सुन लो।

       जो स्त्रियाँ मद्य से मोहित हो कपड़े उतारकर नाचती हैं? मैथुन में सुयम एवं मर्यादा को छोड़कर प्रवृत्त होती हैं और अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी पुरुष का वरण कर लेती हैं, उनका पुत्र मद्र निवासी नराघम दूसरों को धर्म का उपदेश कैसे कर सकता है? जो ऊँटों और गदहों के समान खड़ी-खड़ी मूतती हैं तथा जो धर्म से भ्रष्ट होकर लज्जा को तिलांजलि दे चुकी हैं, वैसी मद्र निवासिनी स्त्रियों के पुत्र होकर मुझे यहाँ धर्म का उपदेश करना चाहते हो। यदि कोई पुरुष मद्र देश की किसी स्त्री से कांजी माँगता है तो वह उसकी कमर पकड़कर खींच ले जाती है और कांजी न देने की इच्छा रखकर यह कठोर वचन बोलती है- कोई मुझसे कांजी न माँगे, क्योंकि वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। मैं अपने पुत्र को दे दूँगी, पति को भी दे दूँगी; परंतु कांजी नहीं दे सकती।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-56 का हिन्दी अनुवाद)

       मद्र देश की स्त्रियाँ प्रायः गोरी, लंबे कद वाली, निर्लज्ज, कम्बल से शरीर को ढकने वाली? बहुत खाने वाली और अत्यन्त अपवित्र होती हैं, ऐसा हमने सुन रखा है। मद्रनिवासी की सिर की चोटी से लेकर पैरों के नखाभ्र भाग तक निन्दा के ही योग्य हैं। वे सब के सब कुकर्म में लगे रहते हैं। उनके विषय में हम तथा दूसरे लोग भी ऐसी बहुत सी बातें कह सकते हैं।

     मद्र तथा सिन्धु-सौवीर देश के लोग पाप पूर्ण देश में उत्पन्न हुए म्लेच्छ हैं। उन्हें धर्म-कर्म का पता नहीं है। वे इस जगत में धर्म की बातें कैसे समझ सकते हैं? हमने सुना है कि क्षत्रिय के लिए सबसे श्रेष्ठ धर्म यह है कि वह युद्ध में मारा जाकर रणभूमि में सो जाये और सत्पुरुषों के आदर का पात्र बने। मैं अस्त्र-शस्त्रों द्वारा किये जाने वाले युद्ध में अपने प्राणों का परित्याग करूँ, यही मेरे लिये प्रथम श्रेणी का कार्य है; क्योंकि मैं मृत्यु के पश्चात स्वर्ग पाने की अभिलाषा रखता हूँ। मैं बुद्धिमान दुर्योधन का प्रिय मित्र हूँ। अतः मेरे पास जो कुछ धन-वैभव है, वह और मेरे प्राण भी उसी के लिये हैं। परंतु पापदेश में उत्पन्न हुए शल्य! यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पाण्डवों ने तुम्हें हमारा भेद लने के लिये ही यहाँ रख छोड़ा हैं; क्योंकि तुम हमारे साथ शत्रु के समान ही सारा बर्ताव कर रहे हो। जैसे सैंकड़ों नास्तिक मिलकर भी धर्मज्ञ पुरुष को धर्म से विचलित नहीं कर सकते, उसी प्रकार तुम्हारे जैसे सेंकड़ों मनुष्यों के द्वारा भी मुझे संग्राम से विमुख नहीं किया जा सकता, यह निश्चय है। तुम धूप से संतप्त हुए हरिण के समान चाहे विलाप करो चाहे सूख जाओ। क्षत्रिय धर्म में स्थित हुए मुझ कर्ण को तुम डरा नहीं सकते। पूर्व काल में गुरुवर परशुराम जी ने युद्ध में पीठ न दिखाने वाले एवं शत्रु का सामना करते हुए प्राण विसर्जन कर देने वाले पुरुषसिंहों के लिये जो उत्तम गति बतायी है, उसे मैं सदा याद रखता हूँ।

      शल्य! तुम यह जान लो कि मैं धृतराष्ट्र के पुत्रों की रक्षा के लिये वैरियों का वध करने के लिए उद्यत हो राजा पुरूरवा के उत्तम चरित्र का आश्रय लेकर युद्ध भूमि में डटा हुआ हूँ। मद्रराज! मैं तीनों लोकों में किसी ऐसे प्राणी को नहीं देखता, जो मुझे मेरे इस संकल्प से विचलित कर दे, यह मेरा दृढ़ निश्चय है। समझदार शल्य! ऐसा जानकर चुपचाप बैठे रहो। डर के मारे बहुत बड़-बड़ाते क्यों हो? मद्र देश के नराधम! यदि तुम चुप न हुए तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करके मांसभक्षी प्राणियों को बाँट दूँगा। शल्य! एक तो मैं मित्र दुर्योधन और राजा धृतराष्ट्र दोनों के कार्य की ओर दृष्टि रखता हूँ, दूसरे अपनी निन्दा से डरता हूँ और तीसरे मैंने क्षमा करने का वचन दिया है- इन्हीं तीन कारणों से तुम अब तक जीवित हो। मद्रराज! यदि फिर ऐसी बात बोलोगे तो मैं अपनी वज्र सरीखी गदा से तुम्हारा मस्तक चूर-चूर करके गिरा दूँगा। नीच देश में उत्पन्न शल्य! आज यहाँ सुनने वाले सुनेंगे और देखने वाले देख लेंगे कि श्रीकृष्ण और अर्जुन ने कर्ण को मारा या कर्ण ने ही उन दोनों को मार गिराया। प्रजानाथ! ऐसा कहकर राधापुत्र कर्ण ने बिना किसी घबराहट के पुनः मद्रराज शल्य से कहा-चलो, चलो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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