सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से पैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

इकत्तीसवाँ अध्याय 

 (सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“रात्रि में कौरवों की मन्त्रणा, धृतराष्ट्र के द्वारा दैव की प्रबलता का प्रतिपादन, संजय द्वारा धृतराष्ट्र पर दोषारोप तथा कर्ण और दुर्योधन की बातचीत”

     धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! निश्चय ही अर्जुन ने अपनी इच्छा से हमारे सब सैनिकों का वध किया। समरांगण में यदि वे शस्त्र उठा लें तो यमराज भी उनके हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। अर्जुन ने अकेले ही सुभद्रा का अपहरण किया, अकेले ही खाण्डव वन में अग्निदेव को तृप्त किया और अकेले ही इस पृथ्वी को जीत कर सम्पूर्ण नरेशों को कर देने वाला बना दिया। उन्होंने दिव्य धनुष धारण करके अकेले ही निवात कवचों का संहार कर डाला और किरात रूप धारण करके खड़े हुए महादेव जी के साथ भी अकेले ही युद्ध किया। अर्जुन ने अकेले ही घोषयात्रा के समय दुर्योधन आदि भरतवंशियों की रक्षा की, अकेले ही अपने पराक्रम से महादेव जी को संतुष्ट किया और उन उग्र तेजस्वी वीर ने अकेले ही (विराट नगर में) कौरव-दल के समस्त भूमिपालों को पराजित किया था। इसलिये वे हमारे पक्ष के सैनिक या नरेश निन्दनीय नहीं हैं, प्रशंसा के ही पात्र हैं। उन्होंने जो कुछ किया हो, बताओ। सूत! सेना के शिविर में लौट आने के पश्चात उस समय दुर्योधन ने क्या किया?

     संजय बोले ;- राजन! कौरव सैनिक बाणों से घायल, छिन्न-भिन्न अवयवों से युक्त और अपने वाहनों से भ्रष्ट हो गये थे उनके कवच, आयुध और वाहन नष्ट हो गये थे। उनके स्वरों में दीनता थी। शत्रुओं से पराजित होने के कारण वे स्वाभिमानी कौरव मन-ही-मन बहुत दःख पा रहे थे। शिविर में आने पर वे कौरव पनः गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय उनकी दशा पैर से कुचले गये उन सर्पो के समान हो रही थी, जिनके दाँत तोड़ दिये गये हों। उस समय क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान कर्ण ने हाथ-से-हाथ दबाकर आपके पुत्र की ओर देखते हुए उन कौरव वीरों से इस प्रकार कहा,

     कर्ण ने कहा ;- अर्जुन सावधान, दृढ़, चतुर और धैर्यवान है। साथ ही उन्हें समय-समय पर श्रीकृष्ण भी कर्तव्य का ज्ञान कराते रहते हैं। इसीलिए उन्होंने सहसा अस्त्रों का प्रयोग करके आज हमें ठग लिया है; परंतु भूपाल! कल मैं उनके सारे मनसूबे को नष्ट कर दूँगा'। कर्ण के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने ‘तथास्तु ‘कहकर समस्त श्रेष्ठ राजाओं को विश्राम के लिये जाने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर वे सब नरेश अपने-अपने शिविरों में चले गये।

     वहाँ रात भर सुख से रहे। फिर प्रसन्नतापूर्वक युद्ध के लिये निकले। निकलकर उन्होंने देखा कि कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष धर्मराज युधिष्ठिर ने बृहस्पति और शुक्राचार्य के मत के अनुसार प्रयत्न पूर्वक अपनी सेना का दुर्जय व्यूह बना रखा है। तदनन्तर शत्रु वीरों का संहार करने वाले दुर्योधन ने शत्रुओं के विरुद्ध व्यूह-रचना में समर्थ और वृषभ के समान पुष्ठ कंधों वाले प्रमुख वीर कर्ण का स्मरण किया। कर्ण युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी, मरुद्गणों के समान बलवान तथा कार्तवीर्य अर्जुन के समान शक्तिशाली था। राजा दुर्योधन का मन उसी ओर गया। जैसे प्राण-संकट काल में लोग अपने बन्धुजनों का स्मरण करते हैं, उसी प्रकार समस्त सेनाओं में से केवल महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्ण की ओर ही उसका मन गया।

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- सूत! तत्पश्चात दुर्योधन ने क्या किया! मूर्खों! तुम लोगों का मन जो वैकर्तन कर्ण की ओर गया था, उसका क्या कारण है। जैसे शीत से पीड़ित हुए प्राणी सूर्य की ओर देखते हैं, क्या उसी प्रकार तुम लोग भी राधा पुत्र कर्ण की ओर देखते थे?

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय! सेना को शिविर की ओर लौटाने के बाद जब रात बीती और प्रातःकाल पुनः संग्राम आरम्भ हुआ, उस समय वैकर्तन कर्ण ने वहाँ किस प्रकार युद्ध किया तथा समस्त पाण्डवों ने सूत पुत्र कर्ण के साथ किस प्रकार युद्ध आरम्भ किया? ‘अकेला महाबाहु कर्ण सृंजयों सहित समस्त कुन्ती पुत्रों को मार सकता है। युद्ध में कर्ण का बाहुबल इन्द्र और विष्णु के समान है। उसके अस्त्र-शस्त्र भयंकर हैं तथा उस महामनस्वी वीर का पराक्रम भी अद्भुत है। ‘यह सब सोचकर राजा दुर्योधन ने संग्राम में कर्ण का सहारा ले मतवाला हो उठा था। किंतु उस समय पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन को अत्यन्त पीड़ित होते और पाण्डु पुत्रों को पराक्रम प्रकट करते देखकर भी महारथी कर्ण ने क्या किया?

     मूर्ख दुर्योधन संग्राम में कर्ण का आश्रय लेकर पुनः पुत्रों-सहित कुन्ती कुमारों और श्रीकृष्ण को जीतने के लिये उत्साहित हुआ था। अहो! यह महान दुःख की बात है कि वेगशाली वीर कर्ण रणभूमि में पाण्डवों से पार न पा सका। अवश्य दैव ही सबका परम आश्रय है। अहो! द्यूतक्रीड़ा का यह घोर परिणाम इस समय प्रकट हुआ है। संजय! आश्चर्य है कि मैंने दुर्योधन के कारण बहुत से तीव्र एवं भयंकर दुःख, जो कांटो के समान कसक रहे हैं, सहन किये हैं। तात! दुर्योधन उन दिनों शकुनि को बड़ा नीतिज्ञ मानता था तथा वेगशाली वीर कर्ण भी नीतिज्ञ है, ऐसा समझकर राजा दुर्योधन उसका भी भक्त बना रहा। संजय! इस प्रकार वर्तमान महान युद्धों में जो मैं प्रतिदिन ही अपने कुछ पुत्रों को मारा गया और कुछ को पराजित हुआ सुनता आ रहा हूँ, इससे मुझे यह विश्वास हो गया है कि समरांगण में कोई भी वीर ऐसा नहीं है जो पाण्डवों को रोक सके। जैसे लोग स्त्रियों के बीच में निर्भय प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार पाण्डव मेरी सेना में बेखटके घुस जाते हैं। अवश्य इस विषय में दैव ही अत्यन्त प्रबल हैं।

    संजय ने कहा ;- राजन! पूर्वकाल में आपने जो द्यूतक्रीड़ा आदि धर्मसंगत कारण उपस्थित किये थे, उन्हें याद तो कीजिये। जो मनुष्य बीती हुई बात के लिए पीछे चिन्ता करता है, उसका वह कार्य तो सिद्ध होता नहीं, केवल चिन्ता करने से वह स्वयं नष्ट हो जाता है। पाण्डवों के राज्य के अपहरण रूपी इस कार्य में सफलता मिलनी आपके लिये दूर की बात थी। यह जानते हुए भी आपने पहले इस बात का विचार नहीं किया कि यह उचित है या अनुचित। राजन! पाण्डवों ने तो आपसे बारंबार कहा था कि ‘आप युद्ध न छेड़िये। ‘किंतु प्रजानाथ! आपने मोहवश उनकी बात नहीं मानी। आपने पाण्डवों पर भयंकर अत्याचार किये हैं। आपके ही कारण राजाओं द्वारा यह घोर नरसंहार हो रहा है। भरतश्रेष्ठ! वह बात तो अब बीत गई। उसके लिए शोक न करें। युद्ध का सारा वृतान्त यथावत रूप से सुनें। मैं उस भयंकर विनाश का वर्णन करता हूँ। जब रात बीती और प्रातःकाल हो गया, तब महाबाहु कर्ण राजा दुर्योधन के पास आया और उससे मिलकर इस प्रकार बोला। 

    कर्ण ने कहा ;- राजन! आज मैं यशस्वी पाण्डु पुत्र अर्जुन के साथ संग्राम करूँगा। या तो में ही उस वीर को मार डालूँगा या वही मेरा वध कर डालेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतवंशी नरेश! मेरे तथा अर्जुन के सामने बहुत-से कार्य आते गये; इसीलिए अब तक मेरा और उनका द्वैरथ युद्ध न हो सका। प्रजानाथ! भरतनन्दन! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार निश्चय करके यह जो बात कह रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। आज मैं रणभूमि में अर्जुन का वध किये बिना नहीं लौटूँगा। हमारी इस सेना के प्रमुख वीर मारे गये हैं। अतः मैं युद्ध में जब इस सेना के भीतर खड़ा होऊँगा, उस समय अर्जुन मुझे इन्द्र की दी हुई शक्ति से वंचित जानकर अवश्य मुझ पर आक्रणम करेंगे। जनेश्वर! अब जो यहाँ हितकर बात हे, उसे सुनिये। मेरे तथा अर्जुन के पास भी दिव्यास्त्रों का समान बल है। हाथी आदि के विशाल शरीर का भेदन करने, शीघ्रता पूर्वक अस्त्र चलाने, दूर का लक्ष्य वेधने, सुन्दर रीति से युद्ध करने तथा दिव्यास्त्रों के प्रयोग में भी सव्यसाची अर्जुन मेरे समान नहीं हैं। भारत! शारीरिक बल, शौर्य, अस्त्रविज्ञान, पराक्रम तथा शत्रुओं पर विजय पाने के उपाय को ढूँढ़ निकालने में भी सव्यसाची अर्जुन मेरी समानता नहीं कर सकते। मेरे धनुष का नाम विजय है। यह समस्त आयुधों में श्रेष्ठ है। इसे इन्द्र का प्रिय चाहने वाले विश्वकर्मा ने उन्हीं के लिए बनाया था।

      राजन! इन्द्र ने जिसके द्वारा दैत्यों को जीता था, जिसकी टंकार से दैत्यों को दसों दिशाओं के पहचानने में भ्रम हो जाता था, उसी अपने परम प्रिय दिव्य धनुष को इन्द्र ने परशुराम जी को दिया था और परशुरामजी ने वह दिव्य उत्तम धनुष मुझे दे दिया है। उसी धनुष के द्वारा मैं विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा। ठीक वैसे ही, जैसे समरांगण में आये हुए समस्त दैत्यों के साथ इन्द्र ने युद्ध किया था। परशुराम जी का दिया हुआ वह घोर धनुष गाण्डीव से श्रेष्ठ है। यह वही धनुष है, जिसके द्वारा परशुराम जी ने पृथ्वी पर इक्कीस बार विजय पायी थी। स्वयं भृगुनन्दन परशुराम ने ही मुझे उस धनुष के दिव्य कर्म बताये हैं और उसे उन्होंने मुझे अर्पित कर दिया है; उसी धनुष के द्वारा मैं पाण्डुकुमार अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा। दुर्योधन! आज मैं समरभूमि में विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ वीर अर्जुन का वध करके बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें आनन्दित करूँगा।

     भूपाल! आज उस वीर के मारे जाने पर पर्वत, वन, द्वीप और समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी तुम्हारे पुत्र-पौत्रों की परंपरा में प्रतिष्ठित हो जायेगी। जैसे उत्तम धर्म में अनुरक्त हुए मनस्वी पुरुष के लिए सिद्धि दुर्लभ नहीं है, उसी प्रकार आज विशेषतः तुम्हारा प्रिय करने हेतु मेरे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। जैसे वृक्ष अग्नि का आक्रमण नहीं सह सकता, उसी प्रकार अर्जुन में ऐसी शक्ति नहीं है कि मेरा वेग सह सकें; परंतु जिस बात में मैं अर्जुन से कम हूँ, वह भी मुझे अवश्य बता देना उचित है। उनके धनुष की प्रत्यंचा दिव्य है। उनके पास दो बड़े-बड़े दिव्य तरकस हैं, जो कभी ख़ाली नहीं होते तथा उनके सारथि श्रीकृष्ण हैं, ये सब मेरे पास वैसे नहीं हैं यदि उनके पास युद्ध में अजेय, श्रेष्ठ, दिव्य गाण्डीव धनुष है तो मेरे पास भी विजय नामक महान दिव्य एवं उत्तम धनुष मौजूद है। राजन! धनुष की दृष्टि से तो मैं ही अर्जुन से बढ़ा-चढ़ा हूँ; परंतु वीर पाण्डु पुत्र अर्जुन जिसके कारण मुझसे बढ़ जाते हैं, वह भी सुन लो।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 55-73 का हिन्दी अनुवाद)

     सर्वलोक वन्दित, दशार्हकुल नन्दन श्रीकृष्ण उनके घोड़ों की रास सँभालते हैं। वीर! उनके पास अग्नि का दिया हुआ सुवर्ण भूषित दिव्य रथ है, जिसे किसी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता। उनके घोड़े भी उनके समान वेगशाली हैं। उनका तेजस्वी ध्वज दिव्य है, जिसके ऊपर सबको आश्चर्य में डालने वाला वानर बैठा रहता है। श्रीकृष्ण जगत के स्रष्टा हैं। वे अर्जुन के उस रथ की रक्षा करते हैं। इन्हीं वस्तुओं से हीन होकर मैं पाण्डु पुत्र अर्जुन से युद्ध की इच्छा रखता हूँ। अवश्य ही, ये युद्ध में शोभा पाने वाले राजा शल्य श्रीकृष्ण के समान हैं, यदि ये मेरे सारथि का कार्य कर सकें तो तुम्हारी विजय निश्चित है। शत्रुओं से सुगमता पूर्वक जीते न जा सकने वाले राजा शल्य मेंरे सारथि हो जायँ और बहुत से छकड़े मेरे पास गीध की पाँखों से युक्त नाराच पहुँचाते रहें। राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! उत्तम घोड़ों से जुते हुए अच्छे-अच्छे रथ सदा मेरे पीछे चलते रहें। ऐसी व्यवस्था होने पर मैं गुणों में पार्थ से बढ़ जाऊँगा। शल्य भी श्रीकृष्ण से बढ़े-चढ़े हैं और मैं भी अर्जुन से श्रेष्ठ हूँ। शत्रुवीरों का संहार करने वाले दशार्हवंशी श्रीकृष्ण अश्वविद्या के रहस्य को जिस प्रकार जानते हैं, उसी प्रकार महारथी शल्य भी अश्वविज्ञान के विशेषज्ञ हैं। बाहुबल में मद्रराज शल्य की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। उसी प्रकार अस्त्र विद्या में मेरे समान कोई भी धनुर्धर नहीं है। अश्वविज्ञान में भी शल्य के समान कोई नहीं है। शल्य के सारथि होने पर रथ अर्जुन के रथ से बढ़ जायगा। ऐसी व्यवस्था कर लेने पर जब मैं रथ में बैठूँगा, उस समय सभी गुणों द्वारा अर्जुन से बढ़ जाऊँगा।

    कुरुश्रेष्ठ! फिर तो मैं युद्ध में अर्जुन को अवश्य जीत लूँगा। इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी मेरा सामना नहीं कर सकेंगे। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! मैं चाहता हूँ कि आपके द्वारा यही व्यवस्था हो जाय। मेरा यह मनोरथ पूर्ण किया जाय। अब आप लोगों का यह समय व्यर्थ नहीं बीतना चाहिये। ऐसा करने पर मेरी सम्पूर्ण इच्छाओं के अनुसार सहायता सम्पन्न हो जायगी। भारत! उस समय मैं संग्राम में जो कुछ करूँगा, उसे तुम स्वयं देख लोगे। युद्धस्थल में आये हुए समस्त पाण्डवों को निश्चय ही मैं सब प्रकार से जीत लूँगा। राजन समरांगण में देवता और असुर भी मेरा सामना नहीं कर सकते, फिर मनुष्य-योनि में उत्पन्न हुए पाण्डव तो कर ही कैसे सकते हैं।

   संजय कहते हैं ;- राजन! युद्ध में शोभा पाने वाले कर्ण के ऐसा कहने पर आपके पुत्र दुर्योधन का मन प्रसन्न हो गया। फिर उसने राधा पुत्र कर्ण का पूर्णतः सम्मान करके उससे कहा। 

     दुर्योधन बोला ;- कर्ण! जैसा तुम ठीक समझते हो उसी के अनुसार यह सारा कार्य मैं करूँगा। युद्धस्थल में अनेक तरकसों से भरे हुए बहुत से अश्वयुक्त रथ तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे।

    संजय कहते हैं ;- महाराज! ऐसा कहकर आपके प्रतापी पुत्र राजा दुर्योधन ने महाराज शल्य के पास जाकर इस प्रकार कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और दुर्योधन का संवाद विषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

बत्तीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन की शल्य से कर्ण का सारथि बनने के लिए प्रार्थना और शल्य का इस विषय में घोर विरोध करना, पुनः श्रीकृष्ण के समान अपनी प्रशंसा सुनकर उसे स्वीकार कर लेना”

      संजय कहते हैं ;- महाराज! जब कर्ण ने दुर्योधन से शल्य को अपना सारथि बनाने के लिये कहा, तब आपका पुत्र दुर्योधन मद्रराज महारथी शल्य के पास विनीत भाव से जाकर प्रेम पूर्वक इस प्रकार बोला,

   दुर्योधन बोला ;- महाभाग! सत्यव्रत! शत्रुओं का संताप बढ़ाने वाले मद्रराज! रणवीर! शत्रुसैन्य भयंकर! वक्ताओें में श्रेष्ठ आपने कर्ण की बात सुनी है। उसी के अनुसार इन राजसिंहों के बीच मैं स्वयं आपका वरण करता हूँ। ‘शत्रुपक्ष का विनाश करने वाले, अनुपम शक्तिशाली, रथियों में श्रेष्ठ मद्रराज! मैं मस्तक झुकाकर विनय पूर्वक आपसे यह याचना करता हूँ कि आप अर्जुन के विनाश और मेरे हित के लिए प्रेम पूर्वक कर्ण का सारथ्य कीजिये। ‘आपके सारथि होने पर राधापुत्र कर्ण मेरे शत्रुओं को जीत लेगा। कर्ण के रथ की बागडोर पकड़ने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है महाभागा! आप युद्ध में वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के समान हैं। जैसे ब्रह्मा जी ने सारथि बनकर महादेव जी की रक्षा की थी जैसे सब प्रकार की आपत्तियों में श्रीकृष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्ण की सर्वथा रक्षा कीजिये। मद्रराज! आज आप राधापुत्र का प्रतिपालन कीजिये। ‘भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, आप, पराक्रमी कृतवर्मा, सुबलपुत्र शकुनि, द्रोणकुमार अश्वत्थामा और मैं- ये ही हमारे बल हैं। ‘पृथ्वीपते! इस प्रकार मेरी सेना के नौ भाग किये गये थे। अब यहाँ भीष्म तथा महात्मा द्रोणाचार्य का भाग नहीं रह गया है। उन दोनों ने उनके लिये निर्धारित भागों से और आगे बढ़कर मेरे शत्रुओं का संहार किया हे। ‘वे दोनों महाधनुर्धर योद्धा बूढ़े हो गये थे, इसलिये युद्ध में शत्रुओं द्वारा छल पूर्वक मारे गये। अनघ! वे दुष्कर कर्म करके यहाँ से स्वर्गलोक में चले गये। इसी प्रकार दूसरे पुरुष सिंह वीर भी युद्ध में शत्रुओं द्वारा मारे गये हैं। मेरे पक्ष के बहुत-से योद्धा विजय के लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करके रण भूमि में प्राण त्यागकर स्वर्ग लोक को चले गये। नरेश्वर! इस प्रकार मेरी इस सेना का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका हे। पहले भी जब अपनी सारी सेना मौजूद थी, अल्पसंख्यक कुन्ती कुमारों ने कौरव सेना का नाश कर दिया था। फिर इस समय तो कहना ही क्या है?

      ‘भूपाल! बलवान, महामनस्वी और सत्यपराक्रमी कुन्तीकुमार मेरी शेष सेना को जिस तरह भी नष्ट न कर सकें, ऐसा उपाय कीजिये। ‘प्रभो! पाण्डवों ने समरांगण में मेरी सेना के प्रमुख वीरों को मार डाला है। एक महाबाहु कर्ण ही ऐसा है, जो हमारे प्रिय एवं हितसाधन में लगा हुआ है। ‘पुरुषसिंह शल्य! दूसरे आप भी सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी होकर हमारे हितसाधन में संलग्न हैं। आज कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता है। ‘महाराज! नरेश्वर! उसके मन में विजय की बड़ी भारी आशा है, परंतु उसके घोड़ों की रास पकड़ने वाला (आपके समान) दूसरा कोई इस भूतल पर नहीं है। ‘जैसे संग्रामभूमि में अर्जुन के रथ की बागडोर सँभालने वाले श्रेष्ठ सारथि श्रीकृष्ण हैं, उसी प्रकार आप भी कर्ण के रथ पर बैठकर उसकी बागडोर अपने हाथ में लीजिये। ‘राजन! श्रीकृष्ण से संयुक्त एवं सुरक्षित होकर पार्थ रणभूमि में जो-जो कर्म करते हैं, वे सब आपकी आँखों के सामने हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘पहले युद्ध में अर्जुन इस प्रकार शत्रुओं का वध नहीं करते थे। इस समय श्रीकृष्ण के साथ होने से ही इनका पराक्रम बढ़ गया है। ‘मद्रराज! श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन प्रतिदिन हमारी विशाल सेना को युद्ध भूमि में खदेड़ते देखे जा सकते हैं। ‘महातेजस्वी नरेश! अतः आप कर्ण के साथ रहकर शत्रुसेना के उस भाग को एक साथ ही नष्ट कर दीजिये। ‘जैसे अरुण के साथ सूर्य अन्धकार का नाश करते हैं, उसी प्रकार आप महासमर में कर्ण के साथ रहकर कुन्ती कुमार अर्जुन का वध कीजिये। ‘प्रातःकालीन सूर्य के तुल्य तेजस्वी कर्ण और शल्य को उदित होते हुए दो सूर्यों के समान रणभूमि में देखकर शत्रुसेना के महारथी भाग जाएँ। ‘मान्यवर! जैसे सूर्य और अरुण को देखते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आप दोनों को देखकर कुन्ती के पुत्र, पांचाल और सृंजय नष्ट हो जायँ। ‘कर्ण रथियों में श्रेष्ठ है और आप सारथियों में शिरोमणि हैं। संसार में आप दोनों का संयोग जो आज बन गया है, न तो कभी हुआ था और न आगे कभी होगा। ‘जैसे श्रीकृष्ण सभी अवस्थाओं में पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप रणभूमि में वैकर्तन कर्ण की रक्षा करें। ‘युद्धस्थल में युद्ध करते समय कर्ण के सारथि का कार्य सँभालिये। राजन! आपके सारथि होने से यह कर्ण रणभूमि में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अजेय हो जायगा, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है। आप मेरे इस कथन में संदेह न कीजिये'।

      संजय कहते हैं ;- राजन! जब दुर्योधन ने शल्य से कर्ण का सारथि बनने के लिए प्रार्थना की, तो यह सुनकर शल्य को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी भौंहों को तीन जगह से टेढ़ी करके बारंबार हाथ हिलाने लगे। महाबाहु शल्य को अपने कुल, ऐश्वर्य, शास्त्र ज्ञान और बल का बड़ा अभिमान था। वे क्रोध से लाल हुए विशाल नेत्रों को घुमाकर इस प्रकार बोले।

     शल्य ने कहा ;- गान्धारीपुत्र! तुम मेरा अपमान कर रहे हो, निश्चय ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति संदेह है, तभी तुम निर्भय होकर कह रहे हो कि आप 'सारथि का कार्य कीजिये'। तुम कर्ण को मुझसे श्रेष्ठ मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हो; परंतु युद्धस्थल में राधापुत्र कर्ण को मैं अपने समान नहीं गिनता हूँ। राजन! तुम शत्रुसेना के अधिक-से-अधिक भाग को मेरे हिस्से में दे दो, मैं उसे जीतकर जैसे आया हूँ, वैसे लौट जाऊँगा। अथवा कुरुनन्दन! आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा। तुम संग्राम में शत्रुओं को दग्ध करते हुए मेरे पराक्रम को देख लेना। कौरव्य! मेरे जैसा पुरुष अपने मन में कुछ कामनाएँ रखकर युद्ध में प्रवृत्त नहीं होता है। अतः तुम मुझ पर संदेह न करो। तुम्हें युद्ध में किसी प्रकार मेरा अपमान नहीं करना चाहिये। तुम मेरी मोटी और वज्र के समान गँठीली इन सुदृढ़ भुजाओं का तो देखो। मेरे इस विचित्र धनुष और विषधर सर्प के समान इन विषैले बाणों की ओर तो दृष्टिपात करो। गान्धारीकुमार! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए मेरे इस सजे-सजाये रथ और सुवर्णपत्र से मढ़ी हुई गदा पर भी दृष्टि डालो। राजन! मैं सारी पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूँ, पर्वतों को तोड़-फोड़कर बिखेर सकता हूँ और अपने तेज से समुद्रों को भी सूखा सकता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)

     नरेश्वर! इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया समर्थ होने पर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र कर्ण के सारथि के काम पर कैसे नियुक्त कर सकते हो? राजेन्द्र! तुम्हें मुझे नीच कर्म में नहीं लगाना चाहिये। मैं श्रेष्ठ होकर अत्यन्त नीच पापी पुरुष की दासता नहीं कर सकता। जो पुरुष प्रेमवश अपने पास आकर अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले किसी श्रेष्ठतम पुरुष को नीचतम मनुष्य के अधीन कर देता है, उसे उच्च को नीच और नीच को उच्च करने का महान पाप लगता है। ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों को अपने मुख से, क्षत्रियों को भुजाओं से, वैश्यों को जाँघों से और शूद्रों को पैरों से उत्पन्न किया है, ऐसा श्रुति का मत है। भारत! इन्हीं से अनुलोम और विलोम क्रम से विभिन्न वर्णों के पारस्परिक संयोग से अन्य जातियाँ उत्पन्न हुई हैं। इनमें क्षत्रिय-जाति के लोग सबकी रक्षा करने वाले, सबसे कर लेने वाले और दान देने वाले बताये गये हैं। ब्राह्मण यज्ञ कराने, वेद पढ़ाने और विशुद्ध दान ग्रहण करने के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने के तिये इस भूतल पर ब्रह्मा जी के द्वारा स्थापित किये गये हैं। कृषि, पशुपालन और धर्मानुसार दान देना वैश्यों का कर्म है तथा शूद्र लोग ब्राह्मण और ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा के काम में नियुक्त किये गये हैं। सूत जाति के लोग ब्राह्मणों और क्षत्रियों के सेवक नियुक्त किये गये हैं, क्षत्रिय सूतों का सेवक हो, यह कोई किसी प्रकार कहीं नहीं सुन सकता। मैं राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुआ मूद्धार्भिषिक्त नरेश हूँ, विश्वविख्यात महारथी हूँ, सूतों द्वारा सेव्य और वन्दीजनों द्वारा स्तुति योग्य हूँ ऐसा प्रतिष्ठित एवं शत्रुसेना का संहार करने में समर्थ होकर मैं यहाँ युद्धस्थल में एक सूतपुत्र के सारथि का कार्य कदापि नहीं कर सकता। गान्धारीनन्दन! आज इस अपमान को पाकर अब मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। अतः तुमसे आज्ञा चाहता हूँ। आज ही अपने घर को लौट जाऊँगा।

     संजय कहते हैं ;- महाराज! जब शल्य ने दुर्योधन से कर्ण का सारथि बनने से मना कर दिया और अमर्ष में भरे हुए शल्य राजाओं के बीच से उठकर तुरंत चल दिये। तब आपके पुत्र ने बड़े प्रेम और आदर से उन्हें रोका तथा सान्त्वनापूर्ण मधुर स्वर में उनसे यह सर्वार्थसाधक वचन कहा। ‘महाराज शल्य! आप अपने विषय में जैसा समझते हैं ऐसी ही बात है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। मेरा कोई और ही अभिप्राय है, उसे ध्यान देकर सुनिये। ‘भूपाल! न तो कर्ण आपसे श्रेष्ठ है और न ही आपके प्रति मैं संदेह ही करता हूँ। मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकते, जो उनकी सत्यप्रतिज्ञा के विपरीत हो। ‘आपके पूर्वज श्रेष्ठ पुरुष थे और सदा सत्य ही बोला करते थे, इसीलिए आप ‘आर्तायनि' कहलाते हैं; मेरी ऐसी ही धारणा है। ‘मानद! आप युद्धस्थल में शत्रुओं के लिये शल्य (काँटे) के समान हैं, इसीलिए इस भूतल पर आपका शल्य नाम विख्यात है। ‘यशों में प्रचुर दक्षिणा देने वाले धर्मज्ञ नरेश्वर! आपने पहले यह जो कुछ कहा है और इस समय जो कुछ कह रहे हैं, उसी को मेरे लिये पूर्ण करें। ‘आपकी अपेक्षा न तो राधापुत्र कर्ण बलवान हैं और न मैं ही। आप उत्तम अश्वों के सर्वश्रेष्ठ संचालक (अश्वविद्या के सर्वोत्तम ज्ञाता) हैं, इसलिये इस युद्ध स्थल में आपका वरण कर रहा हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 60-66 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘शल्य! मैं कर्ण को अर्जुन से अधिक गुणवान मानता हूँ और यह सारा जगत आपको वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण से श्रेष्ठ मानता है। ‘नरश्रेष्ठ! कर्ण तो अर्जुन से केवल अस्त्र-ज्ञान में ही बढ़ा-चढ़ा है, परंतु आप श्रीकृष्ण से अश्वविद्या और बल दोनों में बड़े हैं। 'मद्रराजकुमार! महामनस्वी श्रीकृष्ण जिस प्रकार अश्वविद्या का रहस्य जानते हैं, वैसा ही, बल्कि उससे भी दूना आप जानते हैं'।

    शल्य ने कहा ;- कौरव! गान्धारीपुत्र! तुम सारी सेना के बीच में जो मुझे देवकीनन्दन श्रीकृष्ण से भी बढ़कर बता रहे हो, इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वीर! जैसा तुम चाहते हो उसके अनुसार मैं पाण्डव-शिरोमणि अर्जुन के साथ युद्ध करते हुए यशस्वी कर्ण का सारथि कर्म अब स्वीकार किये लेता हूँ। परंतु वीरवर! कर्ण के साथ मेरी एक शर्त रहेगी। 'मैं इसके समीप, जैसी मेरी इच्छा हो, वैसी बातें कर सकता हूँ।'

     संजय ने कहा ;- भारत! भरतभूषण नरेश! इस पर कर्ण सहित आपके पुत्र ने ‘बहुत अच्छा ‘कहकर शल्य की शर्त स्वीकार कर ली।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में शल्य का सारथि कर्म विषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

तैतीसवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का शल्य से त्रिपुरों की उत्पत्ति का वर्णन,त्रिपुरों में भयभीत इन्द्र आदि देवताओं का ब्रह्माजी के साथ भगवान शंकर के पास जाकर उनकी स्तुति करना”


      दुर्योधन बोला ;- महाराज! मैं पुनः आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनिये। प्रभो! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर जो घटना घटित हुई थी तथा जिसे महर्षि मार्कण्डेय ने मेरे पिता जी को सुनाया था, वह सब मैं पूर्णरूप से बता रहा हूँ। राजर्षि प्रवर! आप मन लगाकर इसे सुनिये, इसके विषय में आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। राजन! देवताओं और असुरों में परस्पर विजय पाने की इच्छा से सर्वप्रथम तारकामय संग्राम हुआ था। उस समय देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था, यह हमारे सुनने में आया है। राजन! दैत्यों के परास्त हो जाने पर तारकासुर के तीन पुत्र ताराक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली उग्र तपस्या का आश्रय ले उत्तम नियमों का पालन करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उन तीनों ने तपस्या के द्वारा अपने शरीरों को सुखा दिया। वे इन्द्रिय-संयम, तप, नियम और समाधि से संयुक्त रहने लगे।
     राजन उन पर प्रसन्न होकर वरदायक भगवान ब्रह्मा उन्हें वर देने को उद्यत हुए। उस समय उन तीनों ने एक साथ होकर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा से यह वर माँगा कि 'हम सदा सम्पूर्ण भूतों से अवध्य हों'। तब लोकनाथ भगवान ब्रह्मा ने उनसे कहा,
     ब्रह्मा जी बोले ;- ‘असुरों! सबके लिये अमरत्व सम्भव नहीं है। तुम इस तपस्या से निवृत्त हो जाओ और दूसरा कोई वर जैसा तुम्हें रुचे माँग लो'। राजन! तब उन सबने एक साथ बारंबार विचार करके सर्वलोकेश्वर भगवान ब्रह्मा को शीश नवाकर उनसे इस प्रकार कहा,
     राक्षस बोले ;- ‘पितामह! देव! हम सबको आप वर प्रदान कीजिये। हम लोग इच्छानुसार चलने वाला नगराकार सुन्दर विमान बनाकर उसमें निवास करना चाहते हैं। हमारा वह पुर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं से सम्पन्न तथा देवताओं और दानवों के लिए अवध्य हो। देव आपके सादर प्रसन्न होने से हमारे तीनों पुर यक्ष, राक्षस, नाग तथा नाना जाति के अन्य प्राणियों द्वारा भी विनष्ट न हों। उन्हें न तो कृत्याएँ नष्ट कर सकें,न शस्त्र छिन्न-भिन्न कर सकें और न ब्रह्मवादियों के शापों द्वारा ही इनका विनाश हो।
     ब्रह्मा जी ने कहा ;- दैत्यों! समय पूरा होने पर सबका लय होता है। जो आज जीवित है, उसकी भी एक दिन मृत्यु होती है। इस बात को अच्छी तरह समझ लो और इन तीनों पुरों के वध का कोई निमित्त कह सुनाओ।
   दैत्य बोले ;- भगवन! हम तीनों पुरों में ही रहकर इस पृथ्वी पर एवं इस जगत् में आपके कृपा-प्रसाद से विचरेंगे। अनघ! तदनन्तर एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर हम लोग एक दूसरे से मिलेंगे। भगवन! ये तीनों पुर जब एकत्र होकर एकीभाव को प्राप्त हो जायँ, उस समय जो एक ही बाण से इन तीनों पुरों को नष्ट कर सके, वही देवेश्वर हमारी मृत्यु का कारण होगा। 'एवमस्तु' ( ऐसा ही हो) यों कहकर भगवान ब्रह्मा अपने धाम को चले गये। वरदान पाकर वे तीनों असुर बड़े प्रसन्न हुए और परस्पर विचार करके उन्होंने दैत्य-दानव-पूजित, अजर-अमर विश्वकर्मा महान असुर मय का तीन पुरों के निर्माण के लिए वरण किया तब बुद्धिमान मयासुर ने अपनी तपस्या द्वारा तीन पुरों का निर्माण किया। उनमें से एक सोने का, दूसरा चाँदी का और तीसरा पुर लोहे का बना था।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)

     पृथ्वीपते! सोने का बना हुआ पुर स्वर्गलोक में स्थित हुआ। चाँदी का अन्तरिक्षलोक में और लोहे का भूलोक में स्थित हुआ; जो आज्ञा के अनुसार सर्वत्र विचरने वाला था। प्रत्येक नगर की लंबाई-चैड़ाई बराबर-बराबर सौ योजन की थी। सबमें बड़े-बड़े महल और अट्टालिकाएँ थीं। अनेकानेक प्राकार (परकोटे) और तोरण (फाटक) सुशोभित थे। बड़े-बड़े झारों से वह नगर भरा था। उसकी विशाल सड़कें संकीर्णता से रहित एवं विस्तृत थीं। नाना प्रकार के प्रासाद और द्वार उपपुरों की शोभा बढ़ाते थे। राजन! उन तीनों पुरों के राजा अलग-अलग थे। सुवर्णमय विचित्र पुर महामना तारकाक्ष अधिकार में था। चांदी का बना हुआ पुर कमलाक्ष के और लोहे का विद्युन्माली के अधिकार में था।
      वे तीनों दैत्यराज अपने अस्त्रों के तेज से तीनों लोकों को दबाकर रहते थे और कहते थे कि ‘प्रजापति कौन है? उन दानव शिरोमणियों के पास लाखों, करोड़ों और अरबों अप्रतिम वीर दैत्य इधर-उधर से आ गये थे। वे सब-के-सब मांसभक्षी और अत्यंत अभिमानी थे। पूर्वकाल में देवताओं ने उनके साथ बहुत छल-कपट किया था। अतः वे महान ऐश्वर्य की इच्छा रखते हुए त्रिपुर-दुर्ग के आश्रय में आये थे। मयासुर इन सबको सब प्रकार की अप्राप्त वस्तुएँ प्राप्त कराता था। उसका आश्रय लेकर वे सम्पूर्ण दैत्य निर्भय होकर रहते थे। उक्त तीनों पुरों में निवास करने वाला जो भी असुर अपने मन से जिस अभीष्ट भोग का चिन्तन करता था, उसके लिये मयासुर अपनी माया से वह-वह भोग तत्काल प्रस्तुत कर देता था।
      तारकाक्ष का महाबली वीर पुत्र 'हरि' नाम से प्रसिद्ध था, उसने बड़ी भारी तपस्या की, जिससे ब्रह्मा जी उस पर संतुष्ट हो गये। संतुष्ट हुए ब्रह्मा जी से उसने यह वर माँगा कि 'हमारे पुरों में एक-एक ऐसी बावड़ी हो जाय, जिसके भीतर डाल दिये जाने पर शस्त्रों के आघात से मरे हुए दैत्य वीर और भी प्रबल होकर जीवित हो उठें।' प्रभो! वह वरदान पाकर तारकाक्ष के वीर पुत्र हरि ने उपपुरों में एक-एक बावड़ी का निर्माण किया, जो मृतकों को जीवन प्रदान करने वाली थी। जो दैत्य जिस रूप और जैसे वेष में रहता था, मरने पर उस बावड़ी में डालने के पश्चात वैसे ही रूप और वेष से सम्पन्न होकर प्रकट हो जाता था। उस वापी में पहुँच जाने पर नया जीवन धारण करके वे दैत्य पुनः उन सभी लोकों को बाधा पहुँचाने लगते थे।
       राजन! ये महान तप से सिद्ध हुए असुर देवताओं का भय बढ़ा रहे थे। युद्ध में कभी उनका विनाश नहीं होता था। उन पुरों में बसाये गये सभी दैत्य लोभ और मोह के वशीभूत हो विवेकहीन और निर्लज्ज होकर सब ओर लूटपाट करने लगे। वरदान पाने के कारण उनका घमंड बढ़ गया था। वे विभिन्न स्थानों में देवताओं और उनके गणों को भगाकर वहाँ अपनी इच्छा के अनुसार विचरते थे। स्वर्गवासियों के परम प्रिय समस्त देवोद्यानों, ऋषियों के पवित्र आश्रमों तथा रमणीय जनपदों को भी वे मर्यादा शून्य दुराचारी दानव नष्ट-भ्रष्ट कर देते थे। उन देव विरोधी तीनों दैत्यों ने देवताओं, पितरों और ऋषियों को भी उनके स्थानों से हटाकर निराश्रय कर दिया। वे ही नहीं, तीनों लोकों के निवासी उनके द्वारा पददलित हो रहे थे। जब सम्पूर्ण लोकों के प्राणी पीड़ित होने लगे, तब देवताओं सहित इन्द्र चारों ओर से वज्रपात करते हुए उन तीनों पुरों के साथ युद्ध करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 37-57 त्रयस्त्रिंश का हिन्दी अनुवाद)

     शत्रुदमन नरेश्वर! जब देवराज इन्द्र ब्रह्मा जी का वर पाये हुए उन अभेद्य पुरों का भेदन न कर सके, तब वे भयभीत हो उन पुरों को छोड़कर उन्हीं देवताओं के साथ ब्रह्मा जी के पास उन दैत्यों का अत्याचार बताने के लिये गये। उन्होंने मस्तक झुकाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और सारी बातें ठीक-ठीक बताकर उनसे उन दैत्यों के वध का उपाय पूछा। वह सब सुनकर भगवान ब्रह्मा ने उन देवताओं से इस प्रकार कहा,
    ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘देवगण! जो तुम्हारी बुराई करता है, वह मेरा भी अपराधी है। वे समस्त देवद्रोही दुरात्मा असुर, जो सदा तुम्हें पीड़ा देते रहते हैं, निश्चय ही मेरा भी महान अपराध करते हैं। इसमें संशय नहीं कि समस्त प्राणियों के प्रति मेरा समान भाव है, तथापि मैंने यह व्रत ले रखा है कि पापात्माओं का वध कर दिया जाय।
    वे तीनों पुर एक ही बाण से वेध दिये जायँ तो नष्ट हो सकते हैं, अन्यथा नहीं, परंतु महादेव जी के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो उन तीनों को एक साथ एक ही बाण से वेध सके। अतः अदितिकुमारों! तुम लोग अनायास ही महान कर्म करने वाले? विजयशील, ईश्वर, महादेव जी का योद्धा के रूप में वरण करो। वे ही उन दैत्यों को मार सकते हैं। उनकी यह बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता ब्रह्मा जी को आगे करके महादेव जी की शरण में गये। तप और नियम का आश्रय ले ऋषियों सहित धर्मज्ञ देवता सनातन ब्रह्म स्वरूप महादेव जी की स्तुति करते हुए सम्पूर्ण हृदय से उनकी शरण में गये।
      नरेश्वर! जिन्होंने आत्मस्वरूप से सबको व्याप्त कर रखा है तथा जो भय के अवसरों पर अभय प्रदान करने वाले हैं, उन सर्वात्मा, महात्मा भगवान शिव की उन देवताओं ने अभीष्ट वाणी द्वारा स्तुति की। जो नाना प्रकार की विशेष तपस्याओं द्वारा मन की सम्पूर्ण वृत्तियों के निरोध का उपाय जानते हैं, जिन्हें अपनी ज्ञानस्वरूपता का बोध नित्य बना रहता है, जिनका अन्तःकरण सदा अपने वश में रहता है, जगत में जिनकी कहीं भी तुलना नहीं है, निष्पाप, तेजोराशि, महेश्वर भगवान उमापति का उन देवताओं ने दर्शन किया। उन्होंने एक ही भगवान शिव को अपनी भावना के अनुसार अनेक रूपों में कल्पित किया। उन परमात्मा में अपने तथा दूसरों के प्रतिबिम्ब देखें। यह सब देखकर परस्पर दृष्टिपात करके वे सब-के-सब अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे। उन सर्वभूतमय अजन्मा जगदीश्वर को देखकर सम्पूर्ण देवताओं तथा ब्रह्मर्षियों ने धरती पर मस्तक टेक दिये। तब भगवान शंकर ने 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा कहकर उनका समादार करते हुए उनको उठाया और मुसकराते हुए कहा,

भगवान शंकर ने कहा ;- ‘बोलो, बोलो; क्या है।
      भगवान त्रिलोचन की आज्ञा पाकर स्वस्थचित्त हुए वे देवगण इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे- ‘प्रभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है। आप देवताओं के अधिदेवता, धनुर्धर और वनमालाधारी हैं। आपको नमस्कार है। आप दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने वाले हैं, प्रजापति भी आपकी स्तुति करते हैं, सबके द्वारा आपकी ही स्तुति की गयी है, आप ही स्तुति के योग्य हैं तथा सब लोग आपकी ही स्तुति करते हैं। आप कल्याण स्वरूप शम्भु को नमस्कार है। आप विशेषतः लालवर्ण के हैं, पापियों को रुलाने वाले रुद्र हैं, नीलकण्ठ और त्रिशूलधारी हैं, आपका दर्शन अमोघ फल देने वाला है, आपके नेत्र मृगों के समान हैं तथा आप श्रेष्ठ आयुधों द्वारा युद्ध करने वाले हैं। आपको नमस्कार है।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 58-63 का हिन्दी अनुवाद)

      पूजनीय, शुद्ध, प्रलयकाल में सबका संहार करने वाले हैं। आपको रोकना या पराजित करना सर्वथा कठिन है। आप शुक्लवर्ण, ब्रह्म, ब्रह्मचारी, ईशान, अप्रमेय, नियन्ता तथा व्याघ्रचर्ममय वस्त्र धारण करने वाले हैं। आप सदा तपस्या में तत्पर रहने वाले, पिंगलवर्ण, व्रतधारी और कृतिवासा हैं। आपको नमस्कार है। आप कुमार कार्तिकेय के पिता, त्रिनेत्रधारी, उत्तम आयुध धारण करने वाले, शरणागतदु:खभंजन तथा ब्रह्मद्रोहियों के समुदाय का विनाश करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप वनस्पतियों के पालक और मनुष्यों के अधिपति हैं।
       आप ही गौओं के स्वामी और सदा यज्ञों के अधीश्वर हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सेनापति आप अमिततेजस्वी भगवान त्रयम्बक को नमसकार है। देव! हम मन, वाणी और क्रिया द्वारा आपकी शरण में आये हैं। आप हमें अपनाइये'। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर स्वागत-सत्कार के द्वारा देवताओं को आनन्दित करके कहा- ‘देवगण! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये; बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में त्रिपुराख्यान विषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

चौतीसवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का शल्य को शिव के विचित्र रथ का विवरण सुनाना और शिवजी द्वारा त्रिपुर-वध का उपाख्यान सुनाना एवं परशुरामजी के द्वारा कर्ण को दिव्य अस्त्र मिलने की बात कहना”

     दुर्योधन बोला ;- राजन! परमात्मा शिव ने जब देवताओं, पितरों तथा ऋषियों के समुदाय को अभय दे दिया, तब ब्रह्मा जी ने उन भगवान शंकर का सत्कार करके यह लोक-हितकारी वचन कहा- ‘देवेश्वर! आपके आदेश से इस प्रजापति पद पर स्थित रहते हुए मैंने दानवों को एक महान वर दे दिया है। उस वर को पाकर वे मर्यादा का उल्लंघन कर चुके हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी महेश्वर! आपके सिवा दूसरा कोई भी उनका संहार नहीं कर सकता। उनके वध के लिए आप ही प्रतिपक्षी शत्रु हो सकते हैं। देव! हम सब देवता आपकी शरण में आकर याचना करते हैं। देवेश्वर शंकर! आप हम पर कृपा कीजिये और इन दानवों को मार डालिये। मानद! आपके प्रसाद से सम्पूर्ण जगत सुखपूर्वक उन्नति करता है, लोकेश्वर! आप ही आश्रयदाता हैं; इसलिये हम आपकी शरण आये हैं'।

   भगवान शिव ने कहा ;- 'देवताओं! मेरा ऐसा विचार है कि तुम्हारे सभी शत्रुओं का वध किया जाये, परंतु मैं अकेला ही उन सबको नहीं मार सकता; क्योंकि वे देवद्रोही दैत्य बड़े ही बलवान हैं। अतः तुम सब लोग एक साथ संघ बनाकर मेरे आधे तेज से पुष्ट हो युद्ध में उन शत्रुओं को जीत लो; क्योंकि जो संघटित होते हैं, वे महान बलशाली हो जाते हैं'। 
    देवता बोले ;- 'प्रभो! युद्ध में हम लोगों का जितना भी तेज और बल है, उससे दूना उन दैत्यों का है, ऐसा हम मानते हैं; क्योंकि उनके तेज और बल को हमने देख लिया है'। 
     भगवान शिव बोले ;- 'देवताओं! जो पापी तुम लोगों के अपराधी हैं, वे सब प्रकार से वध के ही योग्य हैं। मेरे तेज और बल के आधे भाग से युक्त हो तुम लोग समस्त शत्रुओं को मार डालो'। 
     देवताओं ने कहा ;- 'महेश्वर! हम आपका आधा बल धारण नहीं कर सकते; अतः आप ही हम सब लोगों के आधे बल से युक्त हो शत्रु का वध कीजिये'।
     भगवान शिव बोले ;- 'देवगण! यदि मेरे बल को धारण करने में तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है तो मैं ही तुम लोगों के आधे तेज से परिपुष्ट हो इन दैत्यों का वध करूँगा'। नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर देवताओं ने देवेश्वर भगवान शिव से ‘तथास्तु' कह दिया और उन सबके तेज का आधा भाग लेकर वे अधिक तेजस्वी हो गये। वे देव बल के द्वारा उन सबकी अपेक्षा अधिक बलशाली हो गये। इसलिए उसी समय से उन भगवान शंकर का महादेव नाम विख्यात हो गया।
      तत्पश्चात महादेव जी ने कहा ;- ‘देवताओं! मैं धनुष-बाण धारण करके रथ पर बैठकर युद्ध स्थल में तुम्हारे उन शत्रुओं का वध करूँगा। अतः तुम लोग मेरे लिए रथ और धनुष की खोज करो, जिसके द्वारा आज इन दैत्यों को भूतल पर मार गिराऊँ'? 
     देवता बोले ;- 'देवेश्वर! हम लोग तीनों लोकों के तेज की सारी मात्राओं को एकत्र करके आपके लिए परम तेजस्वी रथ का निर्माण करेंगे। विश्वकर्मा का बुद्धि पूर्वक बनाया हुआ वह रथ बहुत ही सुन्दर होगा। तदनन्तर उन देवसंघों ने रथ का निर्माण किया और विष्णु, चन्द्रमा तथा अग्नि- इन तीनों को उनका बाण बनाया। प्रजानाथ! उस बाण का श्रृंग (गाँठ) अग्नि हुए। उसका भल्ल (फल) चन्द्रमा हुए और उस श्रेष्ठ बाण के अग्रभाग में भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हुए।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)

      बड़े-बड़े नगरों में सुशोभित पर्वत, वन और द्वीपों से युक्त प्राणियों की आधारभूता पृथ्वी देवी को उस समय देवताओं ने रथ बनाया। मन्दराचल उस रथ का धुरा था, महानदी गंगा जंघा (धुरे का आश्रय) बनीं थीं, दिशाएँ और विदिशाएँ उस रथ का आवरण थीं। नक्षत्रों का समूह ईषादण्ड हुआ और कृतयुग ने जुए का रूप धारण किया। नागराज वासुकि उस रथ का कूबर बन गये थे। हिमालय पर्वत अपस्कर (रथ के पीछे का काठ) और विन्ध्याचल ने उसके आधारकाष्ठ का रूप धारण किया। उदयाचल और अस्तांचल दोनों को उन श्रेष्ठ देवताओं ने पहियों का आधारभूत काष्ठ बनाया। दानवों के उत्तम निवास स्थान समुद्र को बन्धनरज्जु बनाया। सप्तर्षियों का समुदाय रथ का परिस्कर (चक्ररक्षा आदि का साधन) बन गया। गंगा, सरस्वती और सिंधु- इन तीनों नदियों के साथ आकाश त्रिवेणुकाष्ठयुक्त धुरे का भाग हुआ। उस रथ के बन्धन आदि की सामग्री जल तथा सम्पूर्ण नदियाँ थीं।
      दिन, रात, कला, काष्ठा और छहों ऋतुएँ उस रथ का अनुकर्ष (नीचे का काष्ठ) बन गयीं। चमकते हुए ग्रह और तारे वरूथ (रथ की रक्षा के लिये आवरण) हुए। त्रिवेणु-तुल्य धर्म, अर्थ और काम-तीनों को संयुक्त करके रथ की बैठक बनाया। फल और फूलों से युक्त औषधियों एवं लताओं को घण्टा का रूप दिया। उस श्रेष्ठ रथ में सूर्य और चन्द्रमा को दोनों पहिये बनाकर सुन्दर रात्रि और दिन को वहाँ पूर्वपक्ष और अपरपथ के रूप में प्रतिष्ठित किया। धृतराष्ट्र आदि दस नागराजों का भी ईषादण्ड में ही स्थान दिया। फुफकारते हुए बड़े-बड़े सर्पों को उस रथ के जोत बनाये। द्युलोक को भी जूए में ही स्थान दिया। प्रलय काल के मेघों को युगचर्म बनाया।
      कालपृष्ठ, नहुष, कर्कोटक, धनंजय तथा दूसरे-दूसरे नाग घोड़ों के केसर बाँधने की रस्सी बनाये गये। दिशाओं और विदिशाओं ने रथ में जुते हुए घोड़ों की बागडोर का भी रूप धारण किया। संध्या, धृति, मेधा, स्थिति और सनतिसहित आकाश को, जो ग्रह, नक्षत्र और तारों से विचित्र शोभा धारण करता है, चर्म (रथ का ऊपरी आवरण) बनाया। इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर- इन चार लोकपालकों को देवताओं ने उस रथ के घोड़े बनाये। सिनीवाली, अनुमति, कुहू तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली राका इनकी अधिष्ठात्री देवियों को घोड़ों के जोते का रूप दिया और इनके अधिकारी देवताओं को घोड़ों की लगामों के काँटे बनाया। धर्म, सत्य, तप और अर्थ- इनको वहाँ लगाम बनाया गया। रथ की आधारभूमि मन हुआ और सरस्वती देवी रथ के आगे बढ़ने का मार्ग थीं। नाना रंगों की विचित्र पताकाएँ पवन प्रेरित होकर फहरा रही थीं, जो बिजली और इन्द्रधनुष से बँधे हुए उस देदीप्यमान रथ की शोभा बढ़ाती थीं।
       घपट्कार घोड़ों का चाबुक हुआ और गायत्री उस रथ के ऊपरी भाग की बन्धन रज्जु बनीं। पूर्वकाल में जो महात्मा महादेव जी के यज्ञ में निर्मित हुआ था, वह संवत्सर ही उनके लिए धनुष बना और सावित्री उस धनुष की महान टंकार करने वाली प्रत्यंचा बनी। महादेव जी के लिए एक दिव्य कवच तैयार किया गया, जो बहुमूल्य, रत्नभूषित, रजागुधरहित (अथवा धूल रहित स्वच्छ), अभेद्य तथा कालचक्र की पहुँच से परे था। कान्तिमान कनकमय मेरु पर्वत रथ के ध्वज का दण्ड बना था। बिजलियों से विभूषित बादल ही पताकाओं का काम दे रहे थे, जो यजुर्वेदी ऋत्विजों के बीच में स्थित हुई अग्नियों के समान प्रकाशित हो रहे थे। मान्यवर! वह रथ क्या था, सम्पूर्ण जगत के तेज का पुंज एकत्र हो गया था। उसे निर्मित हुआ देख सम्पूर्ण देवता आश्चर्यचकित हो उठे। फिर उन्होंने महात्मा महादेव जी से निवेदन किया कि रथ तैयार है।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 41-61 का हिन्दी अनुवाद)

      पुरुषसिंह! महाराज! इस प्रकार देवताओं द्वारा शत्रुओं का मर्दन करने वाले उस श्रेष्ठ रथ का निर्माण हो जाने पर भगवान शंकर ने उसके ऊपर अपने मुख्य-मुख्य अस्त्र-शस्त्र रख दिये और ध्वजदण्ड को आकाशव्यापी बनाकर उसके ऊपर अपने वृषभ नन्दी को स्थापित कर दिया। तत्पश्चात ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड तथा ज्वर- ये उस रथ के पार्श्वरक्षक बनकर चारों ओर शस्त्र लेकर खड़े हो गये। अथवा और अंगिरा महात्मा शिव के उस रथ के पहियों की रक्षा करने लगे। ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण उस रथ के आगे चलने वाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक हो गये तथा दिव्य वाणी और विद्याएँ पार्श्ववर्ती बनकर खड़ी हो गयीं। राजेन्द्र! स्तोत्र-कवच आदि, वषट्कार तथा ओंकार- ये मुख भाग में स्थित होकर अत्यन्त शोभा बढ़ाने लगे। छहों ऋतुओं से युक्त संवत्सर को विचित्र धनुष बनाकर अपनी छाया को ही महादेव जी ने उस धनुष की प्रत्यंचा बनाई, जो रणभूमि में कभी नष्ट होने वाली नहीं थी।
        भगवान रुद्र ही काल हैं, अतः काल का अवयवभूत संवत्सर ही उनका धनुष हुआ। कालरात्रि भी रुद्र का ही अंश है, अतः उसी को उन्होंने अपने धनुष की अटूट प्रत्यंचा बना लिया। भगवान विष्णु, अग्नि और चन्द्रमा- ये ही बाण हुए थे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत अग्नि और सोम का ही स्वरूप है। साथ ही सारा संसार वैष्णव (विष्णुमय) भी कहा जाता है। अमित तेजस्वी भगवान शंकर के आत्मा हैं विष्णु। अतः वे दैत्य भगवान शिव के धनुष की प्रत्यंचा एवं बाण का स्पर्श न सह सके। महेश्वर ने उस बाण में अपने असह्य एवं प्रचण्ड कोप को तथा भृगु और अंगिरा के रोष से उत्पन्न हुई अत्यन्त दुःसह क्रोधाग्नि को भी स्थापित कर दिया। तत्पश्चात धूम्रवर्ण, व्याघ्र चर्मधारी, देवताओं को अभय तथा दैत्यों का भय देने वाले, सहस्रों सूर्यों के समान तेजस्वी नीललोहित भगवान शिव तेजोमयी ज्वाला से आवृत हो प्रकाशित होने लगे। जिस लक्ष्य को मार गिराना अत्यन्त कठिन है, उसको भी गिराने में समर्थ, विजयशील, ब्रह्मद्रोहियों के विनाशक भगवान शिव धर्म का आश्रय लेने वाले मनुष्यों की सदा रक्षा और पापियों का विनाश करने वाले हैं।
       उनके जो अपने उपयोग में आने वाले रथ आदि गुणवान उपकरण थे, वे शत्रुओं को मथ डालने में समर्थ, भयानक बलशाली, भयंकर रूपधारी और मन के समान वेगवान थे। उनसे घिरे हुए भगवान शिव की बड़ी शोभा हो रही थी। राजन्! उनके पंचभूत स्वरूप अंगों का आश्रय लेकर ही यह अद्भुत दिखायी देने वाला सारा चराचर जगत स्थित एवं सुशोभित है। उस रथ को जुता हुआ देख भगवान शंकर कवच और धनुष से युक्त हो चन्द्रमा, विष्णु और अग्नि से प्रकट हुए उस दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये उद्यत हुए। राजन! प्रभो! उस समय देवताओं ने पवित्र सुगन्ध वहन करने वाले देवश्रेष्ठ वायु को उनके लिये हवा करने के काम पर नियुक्त किया। तब महादेव जी दानवों के वध के लिये प्रयत्नशील हो देवताओं को भी डराते और पृथ्वी को कम्पित करते हुए से उस रथ को थामकर उस पर चढ़ने लगे। देवेश्वर शिव रथ पर चढ़ना चाहते हैं, यह देखकर महर्षियों, गन्धर्वों, देवसमूहों तथा अप्सराओं ने उनकी स्तुति की। ब्रह्मर्षियों द्वारा वन्दित तथा नाचती हुई नृत्य-कुशल अप्सराओं से सुशोभित होते हुए वरदायक भगवान शिव खड्ग, बाण और धनुष ले देवताओं से हँसते हुए से बोले- ‘मेरा सारथि कौन होगा?

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 62-74 का हिन्दी अनुवाद)

     यह सुनकर देवताओं ने उनसे कहा ;- देवेश! आप जिसको इस कार्य में नियुक्त करेंगे, वही आपका सारथि होगा, इसमें संशय नहीं है।        तब महादेव जी ने फिर कहा ;- ‘तुम लोग स्वयं ही सोच-विचारकर जो मुझसे भी श्रेष्ठतम हो, उसे मेरा सारथि बना दो, विलम्ब न करो। उन महात्मा के कहे हुए इस वचन को सुनकर सब देवता ब्रह्मा जी के पास गये और उन्हें प्रसन्न करके इस प्रकार बोले,
       देवता बोले ;- ‘देव! देवशत्रुओं का दमन करने के विषय में आपने जैसा कहा था, वैसा ही हमने किया है। भगवान शंकर हम लोगों पर प्रसन्न हैं। हमने उनके लिये विचित्र आयुधों से सम्पन्न रथ तैयार कर दिया है; परंतु उस उत्तम रथ पर कौन सारथि होकर बैठेगा? यह हम नहीं जानते हैं। अतः देवश्रेष्ठ प्रभो! आप किसी को सारथि बनाइये। देव आपने हमें जो वचन दिया है, उसे सफल कीजिये।
        भगवन! आपने पहले हम लोगों से कहा था कि मैं तुम लोगों का हित करूँगा। अतः उसे पूर्ण कीजिये। देव! हमारा तैयार किया हुआ वह श्रेष्ठ रथ शत्रुओं को मार भगाने वाला और दुर्लभ है। पिनाकपाणि भगवान शंकर को उस पर योद्धा बनाकर बैठा दिया गया है और वे दानवों को भयभीत करते हुए युद्ध के लिये उद्यत हैं। इसी प्रकार चारों वेद उन महात्मा के उत्तम घोड़े हैं और पर्वतों सहित पृथ्वी उनका उत्तम रथ बनी हुई है। नक्षत्र-समुदाय रूपी ध्वज से युक्त तथा आवरण में सुयशोभित भगवान शिव उस रथ पर भी योद्धा बनकर बैठे हुए हैं; परंतु कोई सारथि नहीं दिखाई देता। देव! उस रथ के लिये ऐसे सारथि का अनुसंधान करना चाहिये, जो इन सबसे बढ़कर हो; क्योंकि रथ, घोड़े और योद्धा इन सबकी प्रतिष्ठा सारथि पर ही निर्भर है। पितामह! कवच, शस्त्र और धनुष की सफलता भी सारथि पर ही निर्भर है। हम लोग आपके सिवा दूसरे किसी को वहाँ सारथि होने के योग्य नहीं देखते हैं।
       प्रभो! क्योंकि आप सभी देवताओं से श्रेष्ठ और सर्वगुणसम्पन्न हैं। देव! आप ही इस जगत में इन भागते हुए उपनिषद् सहित वेदरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रख सकते हैं; अतः आप स्वयं ही सारथि हो जाइये। बल, धैर्य, पराक्रम और विनय इन सभी गुणों द्वारा जो भी रथ से भी श्रेष्ठ हो, उसे ही युद्ध के लिये सारथि बनाना चाहिये; दूसरा कोई ऐसा नहीं हैं जो भगवान शंकर से भी बढ़कर हो। पितामह! आप अक्षय सारथिकर्म कीजिये और हमें इस संकट से उबारिये। आप ही सबसे श्रेष्ठ हैं; आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वक्ताओं में श्रेष्ठ देवेश्वर! आप सभी गुणों से श्रेष्ठ हैं; इसलिये देवद्रोहियों के वध और देवताओं की विजय के लिये तुरंत रथ पर आरूढ़ होकर इन उत्तम घोड़ों को काबू में रखिये। देव! आपके प्रसाद से देवताओं के लिये यह कण्टकरूप दैत्य मारे जायेंगे। महाबाहो! आप दैत्यों के महान भय से हमारी रक्षा करें। व्यग्रताशून्य महान व्रतधारी प्रभो! आप ही हमारे आश्रय तथा संरक्षक हैं; आप की कृपा से ही समस्त देवता स्वर्गलोक में पूजित होते हैं।' इस प्रकार देवताओं ने तीनों लोकों के ईश्वर पितामह ब्रह्मा जी के आगे मस्तक टेककर उन्हें सारथि बनने के लिये प्रसन्न किया। यह बात हमारे सुनने में आयी है।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 75-94 का हिन्दी अनुवाद)

     पितामह बोले ;- देवताओ! तुमने जो कुछ कहा है, उसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। मैं युद्ध करते समय भगवान शंकर के घोड़ों को काबू में रखूँगा। तदनन्तर लोकस्रष्टा भगवान पितामह देव ने जो जगत् के प्रपितामह हैं, उपयुक्त बात कहकर उपनी जटाओं के बोझ को बांध लिया और मृगचर्म के वस्त्र को अच्छी तरह कसकर कमण्डलु को अलग रख दिया। ततपश्चात वे भगवान ब्रह्मा हाथ में चाबुक लेकर तत्काल उस रथ पर जा चढ़े। इस प्रकार देवताओं ने भगवान शंकर के सारथि के पद पर उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। जब उस लोकपूजित रथ पर ब्रह्मा जी चढ़ रहे थे, उस समय वायु के समान वेगशाली घोड़े धरती पर माथा टेककर बैठ गये थे। अपने तेज से प्रकाशित होते हुए भगवान ब्रह्मा ने रथारूढ़ होकर घोड़ों की बागडोर और चाबुक दोनों वस्तुएँ अपने हाथ में ले ली। तत्पश्चात वायु के समान तीव्रगति वाले उन घोड़ों को उठाकर सुरश्रेष्ठ भगवान ब्रह्मा ने महादेव जी से कहा,
    ब्रह्मा जी बोले ;- ‘अब आप रथ पर आरूढ़ होईये।
  तब विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि से उत्पन्न हुए उस बाण को हाथ में लेकर महादेव जी अपने धनुष के द्वारा शत्रुओं को कम्पित करते हुए उस रथ पर चढ़ गये। रथ पर आरूढ़ हुए देवेश्वर शिव की महर्षियों, गन्धर्वों, देवसमूहों तथा अप्सराओं के समुदाय ने स्तुति की। खड्ग, धनुष और बाण लेकर शोभा पाते हुए वरदायक महादेव जी अपने तेज से तीनों लोकों को प्रकाशित करते हुए रथ पर स्थित हो गये। तब महादेव जी ने पुनः इन्द्र आदि देवताओं से कहा,
भगवान महादेव बोले ;- 'शायद ये दैत्यों को न मारें' ऐसा समझकर तुम्हें किसी प्रकार भी शोक नहीं करना चाहिये। तुम लोग असुरों को इस बाण से ‘मरा हुआ’ ही समझो। यह सुनकर उन देवताओं ने कहा,
      देवगण बोले ;- ‘प्रभो! आपका कथन सत्य है। अवश्य ही वे दैत्य मारे गये। शक्तिशाली भगवान जो कुछ कह रहे हैं, वह वचन मिथ्या नहीं हो सकता। यह सोचकर देवताओं को बड़ा संतोष हुआ।
        राजन! तदनन्तर जिसकी कहीं उपमा नहीं थी, उस विशाल रथ के द्वारा देवेश्वर महादेव जी समस्त देवताओं से घिरे हुए वहाँ से चल दिये। उस समय उनके अपने पार्षद भी महायशस्वी महादेव जी की पूजा कर रहे थे। शिव के दुर्धर्ष पार्षद नृत्य करते और परस्पर एक दूसरे को डांटते हुए चारों और दौड़ लगाते थे। अन्य कितने ही पार्षद (भूत-प्रेतादि) मांसभक्षी थे। महान भाग्यशाली और उत्तम गुण सम्पन्न तपस्वी ऋषियों, देवताओं तथा अन्य लोगों ने भी सब प्रकार से महादेव जी की विजय के लिए शुभाशंसा की। नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण लोकों को अभय देने वाले देवेश्वर महादेव जी के इस प्रकार प्रस्थान करने पर सारा जगत संतुष्ट हो गया। देवता भी बड़े प्रसन्न हुए। राजन! ऋषिगण नाना प्रकार के स्तोत्रों का पाठ करके देवेश्वर महादेव की स्तुति करते हुए बारंबार उनका तेज बढ़ा रहे थे। उनके प्रस्थान के समय सहस्रों, लाखों और अरबों गन्धर्व नाना प्रकार के बाजे बजा रहे थे। रथ पर आरूढ़ हो वरदायक भगवान शंकर जब असुरों की ओर चले, तब वे विश्वनाथ ब्रह्मा जी को साधुवाद देते हुए मुसकराकर बोले,
     भगवान शंकर बोले ;- ‘देव! जिस ओर दैत्य हैं, उधर ही चलिये और सावधान होकर घोड़ों को हाँकिये। आज रणभूमि में जब मैं शत्रुसेना का संहार करने लगूँ, उस समय आप मेरी इन दोनों भुजाओं का बल देखियेगा'

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 95-116 का हिन्दी अनुवाद)

       राजन! तब ब्रह्मा जी ने मन और पवन के समान वेगशाली घोड़ों को उसी ओर बढ़ाया, जिस ओर दैत्यों और दानवों द्वारा सुरक्षित वे तीनों पुर थे। वे लोकपूजित अश्व ऐसे तीव्र वेग से चल रहे थे, मानो सारे आकाश को पी जायँगे। उस समय भगवान शिव उन अश्वों के द्वारा देवताओं की विजय के लिये बड़ी शीघ्रता के साथ जा रहे थे। रथ पर आरूढ़ हो जब महादेव जी त्रिपुर की ओर प्रस्थित हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। उस वृषभ का वह अत्यन्त भयंकर सिंहनाद सुनकर बहुत से देवशत्रु तारक नाम वाले दैत्यगण वहीं विनष्ट हो गये। दूसरे जो दैत्य वहाँ खड़े थे, ये युद्ध के लिये महादेव जी के सामने आये। महाराज! तब त्रिशूलधारी महादेव जी क्रोध से आतुर हो उठे। फिर तो समस्त प्राणी भयभीत हो उठे। सारी त्रिलोकी और भूमि कांपने लगी। जब वे वहाँ धनुष पर बाण का संधान करने लगे, तब उसमें चंद्रमा, अग्नि, विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र के क्षोभ से बड़े भयंकर निमित्त प्रकट हुए। धनुष के क्षोभ से वह रथ अत्यन्त शिथिल होने लगा।
        तब भगवान नारायण ने उस बाण के एक भाग से बाहर निकलकर वृषभ का रूप धारण करके भगवान शिव के विशाल रथ को ऊपर उठाया। जब रथ शिथिल होने लगा और शत्रु गर्जना करने लगे, तब महाबली भगवान शिव ने बड़े वेग से गर्जना की। मानद! उस समय वे वृषभ के मस्तक और घोड़े की पीठ पर खड़े थे। नरोत्तम! भगवान रुद्र ने वृषभ तथा घोड़े की भी पीठ पर सवार हो उस नगर को देखा। तब उन्होंने वृषभ के खुरों को चीर उन्हें दो भागों में बांट दिया और घोड़े के स्तन काट डाले। राजन! आपका कल्याण हो। तभी से बैलों के दो खुर हो गये और तभी से अद्भुत कर्म करने वाले बलवान रुद्र के द्वारा पीड़ित हुए घोड़ों के स्तन नहीं उगे। तदनन्तर भगवान रुद्र ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसके ऊपर पूर्वोक्त बाण को रखा और उसे पाशुपतास्त्र से संयुक्त करके तीनों पुरों के एकत्र होने का चिन्तन किया। महाराज! इस प्रकार जब रुद्रदेव धनुष चढ़ाकर खड़े हो गये, उसी समय काल की प्रेरणा से वे तीनों पुर मिलकर एक हो गये। जब तीनों एक होकर त्रिपुर-भाव को प्राप्त हुए, तब महामनस्वी देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। उस समय समस्त देवता, महर्षि और सिद्धगण महेश्वर की स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे।
       तब असुरों का संहार करते हुए अवर्णनीय भयंकर रूप वाले असह्य तेजस्वी महादेव जी के सामने वह तीनों पुरों का समुदाय सहसा प्रकट हो गया। फिर तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी भगवान रुद्र ने अपने उस दिव्य धनुष को खींचकर उस पर रखे हुए त्रिलोकी के सारभूत को छोड़ दिया। महाभाग! उस समय उस श्रेष्ठ बाण के छूटते ही भूतल पर गिरते हुए उन तीनों पुरों का महान आर्तनाद प्रकट हुआ। भगवान ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार तीनों लोकों का हित चाहने वाले महेश्वर ने कुपित होकर उन तीनों पुरों तथा उनमें निवास काने वाले दानवों को दग्ध कर दिया। उनके अपने क्रोध से जो अग्नि प्रकट हुई थी, उसे भगवान त्रिलोचन ने 'हा-हा' कहकर रोक दिया और उससे कहा,
     भगवान शंकर बोले ;- ‘तू सम्पूर्ण जगत् को भस्म न कर।'

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 117-138 का हिन्दी अनुवाद)

      तब समस्त देवता, महर्षि तथा तीनों लोकों के प्राणी स्वस्थ हो गये। सबने श्रेष्ठ वचनों द्वारा अप्रतिम शक्तिशाली महादेव जी का स्तवन किया। फिर भगवान की आज्ञा लेकर अपने प्रयत्न से पूर्ण काम हुए प्रजापति आदि सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये। इस प्रकार देवताओं तथा असुरों के भी अध्यक्ष जगत स्रष्टा भगवान महेश्वर देव ने तीनों लोकों का कल्याण किया था। वहाँ विश्वविधाता सर्वोत्कृष्ट अविनाशी पितामह भगवान ब्रह्मा ने जिस प्रकार रुद्र का सारथि-कर्म किया था तथा जिस प्रकार उन पितामह ने रुद्रदेव के घोड़ों की बागडोर सँभाली थी, उसी प्रकार आप भी शीघ्र ही इस महामनस्वी राधापुत्र कर्ण के घोड़ों को काबू में कीजिये। नृपश्रेष्ठ! आप श्रीकृष्ण से, कर्ण से और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं, इसमें कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। यह कर्ण युद्धक्षेत्र में रुद्र के समान है और आप भी नीति में ब्रह्मा जी के तुल्य हैं; अतः आप उन असुरों की भाँति मेरे शत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं। शल्य! आप शीघ्र ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह कर्ण उस श्वेतवाहन अर्जुन को, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं? मथकर मार डाले। मद्रराज! आप पर ही मेरी राज्य प्राप्ति विषयक अभिलाषा और जीवन की आशा निर्भर है। आपके द्वारा कर्ण का सारथि कर्म सम्पादित होने पर जो आज विजय मिलने वाली है, उसकी सफलता भी आप पर ही निर्भर है। आप पर ही कर्ण, राज्य, हम और हमारी विजय प्रतिष्ठित हैं। इसलिये आज संग्राम में आप इन उत्तम घोड़ों को अपने वश में कीजिये।
        राजन! आप मुझसे फिर यह दूसरा इतिहास भी सुनिये, जिसे एक धर्मज्ञ ब्राह्मण ने मेरे पिता के समीप कहा था। शल्य! कारण और कार्य से युक्त इस विचित्र ऐतिहासिक वार्ता को सुनकर आप अचछी तरह सोच-विचार लेने के पश्चात मेरा कार्य करें, इस विषय में आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। भार्गववंश में महायशस्वी महर्षि जमदग्नि प्रकट हुए थे, जिनके तेजस्वी और गुणवान पुत्र परशुराम के नाम से विख्यात हुए हैं। उन्होंने अस्त्र-प्राप्ति के लिये मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए प्रसन्न हृदय से भारी तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उनकी भक्ति और मनःसंयम से संतुष्ट हो सबका कल्याण करने वाले महादेव जी ने उनके मनोगत भाव को जानकर उन्हें अपने दिव्य शरीर का प्रत्यक्ष दर्शन कराया। 
      महादेव जी बोले ;- 'राम! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम क्या चाहते हो, यह मुझे विदित है। अपने हृदय को शुद्ध करो। तुम्हें यह सब कुछ प्राप्त हो जायगा। जब तुम पवित्र हो जाओगे, तब तुम्हें अपने अस्त्र दूँगा, भृगुनन्दन! अपात्र और असमर्थ पुरुष को तो ये अस्त्र जलाकर भस्म कर डालते हैं। त्रिशूलधारी देवाधिदेव महादेव जी के ऐसा कहने पर जमदग्निनन्दन परशुराम ने उन महात्मा भगवान शिव को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- यदि आप देवेश्वर प्रभु मुझे अस्त्र धारण का पात्र समझें तभी मुझ सेवक को दिव्यास्त्र प्रदान करें।
       दुर्योधन कहता है ;- तदनन्तर परशुराम ने बहुत वर्षों तक तपस्या, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, पूजा, उपहार, भेंट, अर्पण, होम और मन्त्र-जप आदि साधनों द्वारा भगवान शिव की आराधना की। इससे महादेव जी महात्मा परशुराम पर प्रसन्न हो गये और उन्होंने पार्वती देवी के समीप उनके गुणों का बारंबार वर्णन किया- ‘ये दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले परशुराम मेरे प्रति सदा भक्तिभाव रखते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 139-158 का हिन्दी अनुवाद)

      शत्रुसूदन! इसी प्रकार प्रसन्न हुए भगवान शिव ने देवताओं और पितरों के समक्ष भी बारंबार प्रसन्नतापूर्वक उनके गुणों का वर्णन किया। इन्हीं दिनों की बात है, दैत्य लोग महान बल से सम्पन्न हो गये थे। वे दर्प और मोह आदि के वशीभूत हो उस समय देवताओं को सताने लगे। तब सम्पूर्ण देवताओं ने एकत्र हो उन्हें मारने का निश्चय करके शत्रुओं के वध के लिये यत्न किया; परंतु वे उन्हें जीत न सके। तत्पश्चात देवताओं ने उमावल्लभ महेश्वर के समीप जाकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रसन्न किया और कहा,
     देवता बोले ;- ‘प्रभो! हमारे शत्रुओं का संहार कीजिये। तब कल्याणकारी महादेव जी ने देवताओं के समक्ष उनके शत्रुओं का संहार करने की प्रतिज्ञा करके भृगुनन्दन परशुराम को बुलाकर इस प्रकार कहा,
     महादेव बोले ;- ‘भार्गव! तुम तीनों लोकों के हित की इच्छा से तथा मेरी प्रसन्नता के लिये देवताओं के समस्त समागत शत्रुओं का वध करो'।
      उनके ऐसा कहने पर परशुराम ने वरदायक भगवान त्रिलोचन को इस प्रकार उत्तर दिया। 
    परशुराम बोले ;- 'देवेश्वर! मैं तो अस्त्रविद्या का ज्ञाता नहीं हूँ। फिर युद्ध स्थल में अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा रणदुर्मद समस्त दानवों का वध करने के लिये मुझमें क्या शक्ति है? 
      महेश्वर ने कहा ;- राम! तुम मेरी आज्ञा से जाओ। निश्चय ही देव-शत्रुओं का संहार करोगे। उन समस्त वैरियों पर विजय पाकर प्रचुर गुण प्राप्त कर लोगे। उनकी यह बात सुनकर उसे सब प्रकार से शिरोधार्य करके परशुराम स्वस्तिवाचन आदि मंगलकृत्य करने के पश्चात दानवों का सामना करने के लिये गये और महान् दर्प एवं बल से सम्पन्न उन देवशत्रुओं से इस प्रकार बोले,
    परशुराम जी बोले ;- ‘युद्ध के मद में उन्मत्त रहने वाले दैत्यों! मुझे युद्ध प्रदान करो। महान असुरगण! मुझे देवाधिदेव महादेव जी ने तुम्हें परास्त करने के लिये भेजा है'। भृगुवंशी परशुराम के ऐसा कहने पर दैत्य उनके साथ युद्ध करने लगे।
       भार्गवनन्दन राम ने समरांगण में वज्र और विद्युत के समान स्पर्श वाले प्रहारों द्वारा उन दैत्यों का वध कर डाला। साथ ही उन द्विजश्रेष्ठ जमदग्निकुमार के शरीर को भी दानवों ने क्षत-विक्षत कर दिया। परंतु महादेव जी के हाथों का स्पर्श पाकर परशुराम जी के सारे घाव तत्काल दूर हो गये। परशुराम के उस शत्रुविजयरूपी कर्म से भगवान शंकर बड़े प्रसन्‍न हुए। उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान शिव ने बड़ी प्रसन्नता के साथ महात्मा भार्गव को नाना प्रकार के वर प्रदान किये। उन्होंने कहा,
     भगवान शिव जी बोले ;- ‘भृगुनन्दन! दैत्यों के अस्त्र-शस्त्रों के आघात से तुम्हारे शरीर में जो चोट पहुँची है, उससे तुम्हारा मानवों चितकर्म नष्ट हो गया (अब तुम देवताओं के ही समान हो गये); अतः मुझसे अपनी इच्छा के अनुसार दिव्यास्त्र ग्रहण करो। 
     दुर्योधन कहता है ;- राजन्! तब राम ने भगवान शिव से समस्त दिव्यास्त्र और नाना प्रकार के मनोवांछित वर पाकर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर वे महातपस्वी परशुराम देवेश्वर शिव से आाज्ञा लेकर चले गये। राजन! इस प्रकार यह पुरातन वृत्तान्त उस समय ऋषि ने मेरे पिता जी से कहा था। पुरुषसिंह! भृगुनन्दन परशुराम ने भी अत्यन्त प्रसन्न हृदय से महामना कर्ण को दिव्य धनुर्वेद प्रदान किया है। भूपाल! यदि कर्ण में कोई पाप या दोष होता तो भृगुनन्दन परशुराम इसे दिव्यास्त्र न देते।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 159-163 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! मैं किसी तरह इस बात पर विश्वास नहीं करता कि कर्ण सूतकुल में उत्पन्न हुआ है। मैं इसे क्षत्रियकुल में उत्पन्न देवपुत्र मानता हूँ। मेरा तो यह विश्वास है कि इसकी माता ने अपने गुप्त रहस्य को छिपाने के लिये तथा इसे अन्य कुल का बालक विख्यात करने के लिये ही सूतकुल में छोड़ दिया होगा। शल्य! मैं सर्वथा इस बात पर विश्वास करता हूँ कि इस कर्ण का जन्म सूतकुल में नहीं हुआ है। इस महाबाहु महारथी और सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डल-कवच विभूषित पुत्र को सूतजाति की स्त्री कैसे पैदा कर सकती है? क्या कोई हरिणी अपने पेट से बाघ को जन्म दे सकी है? राजेन्द्र! गजराज के शुण्डदण्ड के समान जैसी इसकी मोटी भूजाएँ हैं तथा समस्त शत्रुओं का संहार करने में समर्थ जैसा इसका विशाल वक्षःस्थल है, उससे सूचित होता है कि परशुराम जी का यह प्रतापी शिष्य महामनस्वी धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण कोई प्राकृत पुरुष नहीं है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में त्रिपुरवधोपाख्यान विषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

पैतीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“शल्य और दुर्योधन वार्तालाप,कर्ण का सारथि होने के लिए शल्य की स्वीकृति”


     दुर्योधन बोला ;- राजन! इस प्रकार सर्वलोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने वहाँ सारथि कार्य किया और रथी हुए रुद्र। वीर! रथ का सारथि तो उसी को बनाना चाहिये, जो रथी से भी बढ़कर हो। अतः पुरुषसिंह! आप युद्ध में कर्ण के घोड़ों को काबू में रखिये। जैसे देवताओं ने वहाँ यत्न पूर्वक ब्रह्मा जी का वरण किया था, उसी प्रकार हम लोगों ने विशेष चेष्टा करके कर्ण से भी अधिक बलवान आपका सारथि-कर्म के लिए वरण किया। महाराज! जैसे देवताओं ने महादेव जी से भी बड़े ब्रह्मा जी को उनका सारथि चुना था, उसी प्रकार हमने भी आपको चुना है। अतः महातेजस्वी नरेश! आप युद्ध में राधापुत्र कर्ण के घोड़ों का नियन्त्रण कीजिये।
       शल्य ने कहा ;- भारत! नरश्रेष्ठ! मैंने भी देवश्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेव जी के इस अलौकिक एवं दिव्य उपाख्यान को विद्वानों के मुख से सुना है कि किस प्रकार प्रपितामह ब्रह्मा और महादेव जी का सारथि-कर्म किया था? और कैसे एक ही बाण से समस्त असुर मारे गये? भगवान ब्रह्मा उस समय जिस प्रकार महादेव जी के सारथि हुए थे, यह सारा पुरातन वृत्तान्त श्रीकृष्ण को भी विदित ही होगा। क्योंकि श्रीकृष्ण भी भूत और भविष्य को यथार्थ रूप से जानते हैं। भारत! इस विषय को अच्छी तरह जानकर ही रुद्र के सारथि ब्रह्मा जी के समान श्रीकृष्ण बने हुए हैं। यदि सूतपुत्र कर्ण किसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन को मार डालेगा तो अर्जुन को मारा गया देख श्रीकृष्ण स्वयं ही युद्ध करेंगे। उनके हाथ में शंख, चक्र और गदा होगी। वे तुम्हारी सेना को जलाकर भस्म कर देंगे। महात्मा श्रीकृष्ण कुपित होकर जब हथियार उठायेंगे, उस समय तुम्हारे पक्ष को कोई भी नरेश उनके सामने ठहर नहीं सकेगा।
      संजय कहते हैं ;- राजन! मद्रराज शल्य को ऐसी बातें करते देख आपके शत्रुदमन पुत्र महाबाहु दुर्योधन ने मन में तनिक भी दीनता न लाकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया,
       दुर्योधन ने कहा ;- ‘महाबाहो! तुम रणक्षेत्र में वैकर्तन कर्ण का अपमान न करो। वह सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ का पारंगत विद्वान है। यह वही वीर है जिसकी प्रत्यंचा की अत्यन्त भयानक टंकार सुनकर पाण्डव सेना दसों दिशाओं में भागने लगती है। महाबाहो! यह तो तुमने अपनी आँखों देखा था कि किस प्रकार उस दिन रात में सैंकड़ों मायाओं का प्रयोग करने वाला मायावी घटोत्कच कर्ण के हाथ से मारा गया। इन सारे दिनों में महान भय से घिरे हुए अर्जुन किसी तरह भी कर्ण के सामने खड़े न हो सके थे। राजन! बलवान भीमसेन को भी इसने अपने धनुष की कोटि से दबाकर युद्ध के लिये प्रेरित किया था और उन्हें मूर्ख, पेटू आदि नामों से पुकारा था। मान्यवर! इसने महासमर में शूरवीर नकुल-सहदेव को भी परास्त करके किसी विशेष प्रयोजन को सामने रखकर उन दोनों को युद्ध में मार नहीं डाला। इसने वृष्णि वंश के प्रमुख वीर सात्वत शिरोमणि शूरवीर सात्यकि को समरांगण में परास्त करके उन्हें बलपूर्वक रथहीन कर दिया था। इसके सिवा धृष्टद्युम्न आदि समस्त सृंजयों को भी इसने युद्ध स्थल में हँसते-हँसते अनेक बार परास्त किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

         ‘जो कुपित होने पर वज्रधारी इंद्र को भी समरभूमि में मार डालने की शक्ति रखता है, उस महारथी वीर कर्ण को पाण्डव लोग युद्ध में कैसे जीत लेंगे? 'आप भी सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता, समस्त विद्याओं तथा अस्त्रों के पारंगत विद्वान एवं वीर हैं। इस भूतल पर बाहुबल के द्वारा आपकी समानता करने वाला कोई नहीं है। शत्रुसूदन नरेश! आप पराक्रम प्रकट करते समय शत्रुओं के लिये असह्य हो उठते हैं, उनके लिये आप शल्यभूत (कण्टक स्वरूप) हैं; इसीलिये आपको शल्य कहा जाता है। राजन! आपके बाहुबल को सामने पाकर सम्पूर्ण सात्वतवंशी क्षत्रिय कभी युद्ध में टिक न सके हैं। क्या आपके बाहुबल से श्रीकृष्ण का बल अधिक है? जैसे अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण पाण्डव-सेना की रक्षा करेंगे, उसी प्रकार यदि कर्ण मारा गया तो आपको मेरी विशाल वाहिनी का संरक्षण करना होगा। मान्यवर! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण क्यों कौरव सेना का निवारण करेंगे और क्यों आप पाण्डव-सेना का वध नहीं करेंगे? माननीय नरेश! मैं तो आपके ही भरोसे युद्ध में मारे गये अपने वीर भाईयों तथा समस्त राजाओं के (ऋण से मुक्त होने के लिये उन्हीं के) पथ पर चलने की इच्छा रखता हूँ।'
      शल्य ने कहा ;- मानद! राधापुत्र कर्ण का पाण्डवशिरोमणि अर्जुन के साथ युद्ध करते समय सारथ्य करूँगा जैसा कि तुम चाहते हो। वीरवर! परंतु वैकर्तन कर्ण को मेरी एक शर्त का पालन करना होगा। मैं इसके समीप जो जी में आयेगा, वैसी बातें करूँगा। 
    संजय कहते हैं ;- माननीय नरेश! तब समस्त शत्रियों के समीप कर्ण सहित आपके पुत्र ने मद्रराज शल्य से कहा,
    दुर्योधन ने कहा ;- बहुत अच्छा, आपकी शर्त स्वीकार है। सारथ्य स्वीकार करके जब शल्य ने आश्वासन दिया, तब राजा दुर्योधन ने बड़े हर्ष के साथ कर्ण को गले लगा लिया। तत्पश्चात वन्दीजनों द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए आपके पुत्र ने कर्ण से कहा,
     दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीर! तुम रणक्षेत्र में कुन्ती के समस्त पुत्रों को उसी प्रकार मार डालो, जैसे देवराज इन्द्र दानवों का संहार करते हैं। शल्य के द्वारा अश्वों का नियन्त्रण स्वीकार कर लिये जाने पर कर्ण प्रसन्नचित हो पुनः दुर्योधन से बोला,
    कर्ण बोला ;- ‘राजन्! मद्रराज शल्य अधिक प्रसन्न होकर बात नहीं कर रहे हैं; अतः तुम मधुर वाणी द्वारा इन्हें फिर से समझाते हुए कुछ कहो'।
        तब सम्पूर्ण अस्त्रों के संचालन में कुशल, परम बुद्धिमान एवं बलवान राजा दुर्योधन ने मद्र देश के राजा पृथ्वीपति शल्य को सम्बोधित करके अपने स्वर से वहाँ के प्रदेश को गुँजाते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा इस प्रकार कहा,
    दुर्योधन ने कहा ;- ‘शल्य! आज कर्ण अर्जुन के साथ युद्ध करने की इच्छा रखता है। पुरुषसिंह! आप रणस्थल में इसके घोड़ों को काबू में रखें। कर्ण अन्य सब शत्रुवीरों का संहार करके अर्जुन का वध करना चाहता है। राजन! आपसे उसके घोड़ों की बागडोर सँभालने के लिए में बारंबार याचना करता हूँ। जैसे श्रीकृष्ण अर्जुन के श्रेष्ठ सचिव तथा सारथि हैं, उसी प्रकार आप भी राधापुत्र कर्ण की सर्वथा रक्षा कीजिये। 
    संजय कहते हैं ;- महाराज! तब मद्रराज शल्य ने प्रसन्न हो आपके पुत्र शत्रूसूदन दुर्योधन को हृदय से लगाकर कहा। 
    शल्य बोले ;- गान्धारीनन्दन! प्रियदर्शन नरेश! यदि तुम ऐसा समझते हो तो तुम्हारा जो कुछ प्रिय कार्य है, वह सब मैं करूँगा। भरतश्रेष्ठ! मैं जहाँ कभी भी जिस कर्म के योग्य होऊँ, वहाँ उस कर्म में तुम्हारे द्वारा नियुक्त कर दिये जाने पर सम्पूर्ण हृदय से उस कार्यभार को वहन करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 43-48 का हिन्दी अनुवाद)

     परंतु मैं हित की इच्छा रखते हुए कर्ण से जो भी प्रिय अथवा अप्रिय वचन कहूँ, वह सब तुम और कर्ण सर्वथा क्षमा करो। 
     कर्ण ने कहा ;- मद्रराज! जैसे ब्रह्मा महादेव जी के और श्रीकृष्ण अर्जुन के हित में सदा तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार आप भी निरन्तर हमारे हितसाधन में संलग्न रहें। 
     शल्य बोले ;- अपनी निन्दा और प्रशंसा, परायी निन्दा और परायी स्तुति- ये चार प्रकार के बर्ताव श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी नहीं किये हैं। परंतु विद्वान! मैं तुम्‍हें विश्वास दिलाने के लिये जो अपनी प्रशंसा भरी बात कहता हूँ, उसे तुम यथार्थ रूप से सुनो। प्रभो! मैं सावधानी, अश्वसंचालन, ज्ञान, विद्या तथा चिकित्सा आदि सद्गुणों की दृष्टि से इन्द्र के सारथि-कर्म में नियुक्त मातलि के समान समान सुयोग्य हूँ। निष्पाप सूतपुत्र कर्ण! जब तुम युद्ध स्थल में अर्जुन के साथ युद्ध करोगे, तब मैं तुम्हारे घोड़े अवश्य हाँकूँगा। तुम निश्चिन्त रहो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में शल्य के सारथि कर्म को स्वीकार करने से सम्बन्ध रखने वाला पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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