सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

छब्बीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कृपाचार्य से धृष्टद्युम्न का भय तथा कृतवर्मा के द्वारा शिखण्डी की पराजय”

     संजय कहते हैं ;- राजन! कृपाचार्य ने धृष्टद्युम्न को आक्रमण करते देख युद्धभूमि में उसी प्रकार उन्हें आगे बढ़ने से रोका, जैसे वन में शरभ सिंह को रोक देता है। भारत! अत्यन्त बलवान गौतम-गोत्रीय कृपाचार्य से अवरुद्ध होकर धृष्टद्युम्न एक पग भी चलने में समर्थ न हो सका। कृपाचार्य के रथ को धृष्टद्युम्न के रथ की ओर जाते देख समस्त प्राणी भय से थर्रा उठे और धृष्टद्युम्न को नष्ट हुआ ही मानने लगे। वहाँ सभी रथी और घुड़सवार उदास होकर कहने लगे कि ‘निश्चय ही द्रोणाचार्य के मारे जाने से दिव्यास्त्रों के ज्ञाता, उदारबुद्धि, महातेजस्वी, नरश्रेष्ठ, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे होंगे। क्या आज कृपाचार्य से धृष्टद्युम्न कुशल पूर्वक सुरक्षित रह सकेंगे। ‘क्या यह सारी सेना महान भय से मुक्त हो सकती है? कहीं ऐसा न हो कि ये ब्राह्मण देवता यहाँ आये हुए हम सब लोगों का वध कर डालें? ‘इनका यमराज के समान जैसा अत्यन्त भयंकर रूप दिखाई देता है, उससे जान पड़ता है, आज कृपाचार्य भी द्रोणाचार्य के पथ पर ही चलेंगे। ‘कृपाचार्य शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले तथा युद्ध में सर्वथा विजय प्राप्त करने वाले हैं। वे अस्त्रवेत्ता, पराक्रमी और क्रोध से युक्त हैं। ‘आज इस महायुद्ध में धृष्टद्युम्न विमुख होता दिखाई देता है। ‘महाराज! इस प्रकार वहाँ धृष्टद्युम्न और कृपाचार्य का समागम होने पर आपके सैनिकों की शत्रुओं के साथ होने वाली नाना प्रकार की बातें सुनायी देने लगी।

      नरेश्वर! तदनन्तर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने क्रोध से लंबी साँस खींचकर निश्चेष्ट खड़े हुए धृष्टद्युम्न के सम्पूर्ण मर्मस्थानों में गहरी चोट पहुँचाई। समरांगण में महामना कृपाचार्य के द्वारा आहत होने पर भी धृष्टद्युम्न को कोई कर्त्तव्य नहीं सुझता था। वे महान मोह से आच्छन्न हो गये थे। तब उनके सारथि ने उनसे कहा- ‘द्रुपद नन्दन! कुशल तो हैं न? युद्ध में आप पर कभी ऐसा संकट आया हो, यह मैंने नहीं देखा है। ‘द्विजश्रेष्ठ कृपाचार्य ने सब ओर से आपके मर्मस्थानों को लक्ष्य करके बाण चलाये थे; परंतु दैवयोग से ही वे मर्मभेदी बाण आपके मर्मस्थानों पर नहीं पड़े हैं। ‘जैसे कोई शक्तिशाली पुरुष समुद्र से नदी के वेग को पीछे लौटा दे, उसी प्रकार मैं आपके इस रथ को तुरंत लौटा ले चलूँगा। मेरी समझ में ये ब्राह्मण देवता अवध्य हैं, जिनसे आज आपका पराक्रम प्रतिहत हो गया'। राजन! यह सुनकर धृष्टद्युम्न ने धीरे से कहा- ‘सारथे! मेरे मन पर मोह छा रहा है और शरीर से पसीना छूटने लगा है। मेरे सारे अंग काँप रहे हैं और रोमांच हो आया है। ‘तुम युद्धस्थल में ब्राह्मण कृपाचार्य को छोड़ते हुए धीरे-धीरे जहाँ अर्जुन हैं, उसी ओर चल दो। समरांगण में अर्जुन अथवा भीमसेन के पास पहुँचकर ही आज मैं सकुशल रह सकता हूँ, ऐसा मेरा दृढ़ विचार है'।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

    महाराज! तब सारथि घोड़ों को तेजी से हाँकता हुआ उसी ओर चल दिया जहाँ महाधनुर्धर भीमसेन आपके सैनिकों के साथ युद्ध कर रहे थे। मान्यवर नरेश! धृष्टद्युम्न के रथ को वहाँ से भागते देख कृपाचार्य ने सैंकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए उनका पीछा किया। शत्रुओं का दमन करने वाले कृपाचार्य ने बारंबार शंख ध्वनि की और जैसे इन्द्र ने नमुचि को डराया था, उसी प्रकार उन्होंने धृष्टद्युम्न को भयभीत कर दिया। दूसरी ओर समरांगण में दुर्जय वीर शिखण्डी को, जो भीष्म के लिये मृत्यु स्वरूप था, कृतवर्मा ने बारंबार मुस्कराते हुए-से रोका। हृदिकवंशी यादवों के महारथी वीर कृतवर्मा को सामने पाकर शिखण्डी ने उसके गले की हँसली पर पाँच तीखे भल्लों द्वारा प्रहार किया। राजन! तब महराथी कृतवर्मा ने अत्यन्त कुपित हो साठ बाणों से शिखण्डी को घायल करके एक से हँसते-हँसते उसका धनुष काट डाला। तत्पश्चात द्रुपद के बलवान पुत्र ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर कृतवर्मा से क्रोधपूर्वक कहा,

      शिखण्डी ने कहा ;- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह'। राजेन्द्र! फिर सोने की पाँख वाले नब्बे पैने बाण उसने चलाये, परंतु वे कृतवर्मा के कवच से फिसल कर गिर गये। उन्हें व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिरा देख शिखण्डी ने तीखे क्षुरप्र से कृतवर्मा के धनुष के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। धनुष कट जाने पर कृतवर्मा की दशा टूटे सींग वाले बैल के समान हो गई। उस समय शिखण्डी ने कुपित होकर उसकी दोनों भुजाओं तथा छाती में अस्सी बाण मारे। कृतवर्मा उन बाणों से क्षत-विक्षत होर अत्यन्त कुपित हो उठा और जैसे घड़े के मुँह से जल गिर रहा हो, उसी प्रकार वह अपने अंगों से रक्त वमन करने लगा।

      राजन! खून से लथपथ हुआ कृतवर्मा वर्षा से भीगे हुए गेरू के पहाड़ समान शोभा पा रहा था। तदनन्तर शक्तिशाली कृतवर्मा ने बाण और प्रतंचा सहित दूसरा धनुष हाथ में लेकर शिखण्डी के कंधों पर अपने बाण समूहों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। कंधों में धँसे हुए उन बाणों से शिखण्डी वैसी ही शोभा पाने लगा, जैसे कोई महान वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखाओं के कारण अधिक विस्तृत दिखाई देता हो। वे दोनों महान वीर एक दूसरे को अत्यन्त घायल करके खून से इस प्रकार नहा गये थे, मानो रक्त के सरोवर में बारंबार डुबकी लगाकर आये हों। उस समय एक दूसरे के सींगों से चोट खाये हुए दो साँड़ के समान उन दोनों की बड़ी शोभा हो रही थी। एक दूसरे के वध के लिए प्रयत्न करते हुए वे दोनों महारथी अपने रथ के द्वारा वहाँ सहस्रों बार मण्डलाकार गति से विचरते थे।

      महाराज! कृतवर्मा ने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले सत्तर बाणों से द्रुपद पुत्र शिखण्डी को घायल कर दिया। तत्पश्चात प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ कृतवर्मा ने उसके ऊपर समरांगण में बड़ी उतावली के साथ प्राणान्तकारी बाण छोड़ा। राजन! उस बाण से आहत हो शिखण्डी तत्काल मूर्च्छित हो गया। उसने सहसा मोहाच्छन्न होकर ध्वजदण्ड का सहारा ले लिया। कृतवर्मा के बाणों से संतप्त हो बारंबार लंबी साँस खींचते हुए रथियों में श्रेष्ठ शिखण्डी को उसका सारथि तुरंत रणभूमि से बाहर हटा ले गया। प्रभो! शूरवीर द्रुपद पुत्र के पराजित हो जाने पर सब ओर से मारी जाती हुई पाण्डव सेना भागने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संकुल युद्ध विषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

सत्ताईसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन द्वारा राजा श्रुतंजय, सोश्रुति, चन्द्रदेव और सत्यसेन आदि महारथियों का वध एवं सशक्त-सेना का संहार”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! एक ओर श्वेत वाहन अर्जुन आपकी सेना को उसी प्रकार छिन्न-भिन्न कर रहे थे, जैसे वायु रूई के ढेर को पाकर उसे सब ओर बिखेर देती है। उस समय उनका सामना करने के लिए त्रिगर्त, शिबि, कौरवों सहित शाल्व, संशप्तकगण तथा नारायणी-सेना के सैनिक आगे बढ़े। भरत नन्दन! सत्यसेन, चन्द्रदेव, मित्रदेव, श्रुतंजय, सौश्रुति, चित्रसेन तथा मित्रवर्मा- इन सात भाईयों तथा नाना प्रकार के शस्त्रों के प्रहार में कुशल महाधनुर्धर पुत्रों से घिरा हुआ त्रिगर्तराज सुशर्मा समरांगण में उपस्थित हुआ। वे सभी वीर युद्धस्थल में अर्जुन पर बाण समूहों की वर्षा करते हुए जैसे जल का प्रवाह समुद्र की ओर जाता है, उसी प्रकार सहसा उनके सामने आ पहुँचे। परंतु जैसे गरुड़ को देखते ही सर्प अपने प्राण खो देते हैं, उसी प्रकार वे सब-के-सब लाखों योद्धा अर्जुन के पास पहुँचते ही काल के गाल में चले गये। जैसे पतंग जले रहने पर भी आग में टूटे पड़ते हैं, उसी प्रकार रणभूमि में मारे जाने पर भी वे समस्त योद्धा युद्ध में पाण्डु कुमार अर्जुन को छोड़कर भाग न सके।

     सत्यसेन ने तीन, मित्रदेव ने तिरसठ, चन्द्रदेव ने सात, मित्रवर्मा ने तिहत्तर, सौश्रुति ने सात, श्रुतंजय ने बीस तथा सुशर्मा ने नौ बाणों से युद्धस्थल में पाण्डु पुत्र अर्जुन को बींध डाला। इस प्रकार रणभूमि में बहुसंख्यक योद्धाओं द्वारा घायल किये जाने पर बदले में अर्जुन ने भी उन सभी नरेशों को क्षत-विक्षत कर दिया। उन्होंने सौश्रुति को सात बाणों से घायल करके सत्यसेन को तीन बाण मारे। श्रुतंजय को बीस, चन्द्रदेव को आठ, मित्रदेव को सौ, श्रुतसेन (चित्रसेन) को तीन, मित्रवर्मा को नौ तथा सुशर्मा को आठ बाणों से घायल कर दिया। फिर सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए कई बाणों से राजा श्रुतंजय का वध करके सौश्रुति के शिरस्त्राण सहित सिर को धड़ से अलग कर दिया। फिर तुरंत ही चन्द्रसेन को भी अपने बाणों द्वारा यमलोक पहुँचा दिया।

     महाराज! इसी प्रकार विजय के लिए प्रयत्नशील अर्जुन ने अन्य महारथियों में से प्रत्येक को पाँच-पाँच बाण मारकर रोक दिया। तब सत्यसेन ने अत्यन्त कुपित होकर रणभूमि में श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके एक विशाल तोमर का प्रहार किया और सिंह के समान गर्जना की। सुवर्णमय दण्ड वाला वह लौह निर्मित तोमर महात्मा श्रीकृष्ण की बायीं भुजा पर चोट करके तत्काल धरती पर गिर पड़ा। प्रजानाथ! उस महासागर में तोमर से घायल हुए श्रीकृष्ण के हाथा से चाबुक और बागडोर गिर पड़ी। श्रीकृष्ण के शरीर में घाव देखकर कुन्ती कुमार अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। वे उनसे इस प्रकार बोले।

   अर्जुन बोले ;- ‘प्रभो! महाबाहो! आप घोड़ों को सत्यसेन के निकट पहुँचाईये। मैं अपने तीखे बाणों से पहले इसी को यमलोक भेज दूँगा- तब भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरा चाबुक लेकर पूर्ववत घोड़ों की बागडोर सँभाली और उन घोड़ों को सत्यसेन के रथ के समीप पहुँचा दिया। कुन्ती पुत्र महारथी अर्जुन ने श्रीकृष्ण को घायल हुआ देख सत्यसेन को तीखे बाणों से रोककर तेज धार वाले भल्लों से सेना के मय भाग में उस राजकुमार के कुण्डल-मण्डित महान मस्तक को धड़ से काट डाला। मान्यवर! सत्यसेन को मारकर तीखे बाणों द्वारा मित्रवर्मा को और एक पैने वत्सदन्त से उसके सारथि को मार गिराया। तदनन्तर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए बलवान अर्जुन ने पुनः हजारों और सैंकड़ों संशप्तक गणों को सैंकड़ों बाणों से मारकर धरती पर सुला दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 25-43 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन! फिर महारथी धनंजय ने रजतमय पंख वाले क्षुरप्र से महामना मित्रदेव के मस्तक को काट डाला। साथ ही अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन ने सुशर्मा के गले की हँसली पर भी गहरी चोट पहुँचायी। फिर तो क्रोध में भरे हुए सभी संशप्तक दसो दिशाओं को अपनी गर्जना से प्रतिध्वनि करते हुए अर्जुन को चारों ओर से घेरकर अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा पीड़ा देने लगे। उनसे पीड़ित होकर इन्द्र के तुल्य पराक्रमी तथा अमेय आत्मबल से सम्पन्न महारथी अर्जुन ने ऐन्द्रास्त्र प्रकट किया। प्रजानाथ! फिर तो वहाँ हजारों बाण प्रकट होने लगे। माननीय भरतवंशी प्रजापालक नरेश! उस समय कट-कटकर गिरने वाले ध्वज, धनुष, रथ, पताका, तरकश, जूए, धुरे, पहिए, जोत, बागडोर, कुबर, वरूध (रथ का चर्ममय आवरण), बाण, घोड़े, प्रास, ऋष्टि, गदा, परिघ, शक्ति, तोमर, पट्टिश, चक्रयुक्त शतघ्नी, बाँह-जाँघ, कणठसूत्र, अंगद, केयूर, हार, निष्क, कवच, छत्र, व्यजन और मुकुट सहित मस्तकों का महान शब्द युद्ध स्थल में जहाँ-तहाँ सब ओर सुनाई देने लगा।

     पृथ्वी पर गिरे हुए कुण्डल और सुन्दर नेत्रों से युक्त पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मस्तक आकाश में ताराओं के समूह ही भाँति दिखायी देते थे। वहाँ मारे गये राजाओं के सुन्दर हारों से सुशोभित, उत्तम वस्त्रों से सम्पन्न तथा चन्दन से चर्चित शरीर पृथ्वी पर पड़े देखे जाते थे। उस समय वहाँ मारे गये राजकुमारों तथा महाबली क्षत्रियों की लाशों से वह युद्धस्थल गन्धर्व नगर के समान भयानक जरन पड़ता था। समरांगण में टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वतों के समान धराशायी हुए हाथियों और घोड़ों के कारण वहाँ की भूमि पर चलना फिरना असम्भव हो गया था। अपने भल्लों से शत्रु सैनिकों को तथा उनके हाथी-घोड़े के महान समुदाय को मारते-गिराते हुए महामना पाण्डु कुमार अर्जुन के रथ के पहियों के लिये मार्ग नहीं मिलता था। मान्यवर! उस संग्राम में रक्त की कीच मच गयी थी। उसमें विचरते हुए अर्जुन के रथ के पहिये मानो भय से शिथिल होते जा रहे थे। मन और वायु के समान वेगशाली घोड़े भी वहाँ धँसते हुए पहियों को बड़े परिश्रम से खींच पाते थे। धनुर्धर पाण्डु कुमार की मार खाकर आपकी वह सारी सेना प्रायः पीठ दिखाकर भाग चली। वहाँ क्षणभर के लिए भी ठहर न सकी उस समय समरांगण में उन बहुसंख्यक संशप्तकगणों को परास्त करके विजयी कुन्ती कुमार अर्जुन धूमरहित प्रज्वलित अग्नि के समान शोभा पा रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संशप्तकों की पराजय विषयक सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

अठाईसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर और दुर्योधन का युद्ध, दुर्योधन की पराजय तथा उभय पक्ष की सेना का अमर्यादित भयंकर संग्राम”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! बहुत से बाणों की वर्षा करते हुए युधिष्ठिर का स्वयं राजा दुर्योधन ने एक निर्भीक वीर की भाँति सामना किया। सहसा आते हुए आपके महारथी पुत्र को धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही घायल करके कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह'। इससे दुर्योधन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने युधिष्ठिर को नौ तीखे बाणों से बेधकर बदला चुकाया और उनके सारथि पर भी एक भल्ल का प्रहार किया। राजन! तब युधिष्ठिर ने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले तेरह बाण दुर्योधन पर चलाये। महारथी युधिष्ठिर ने उनमें से चार बाणों द्वारा दुर्योधन के चारों घोड़ों को मारकर पाँचवें से उसके सारथि का भी मस्तक धड़ से काट गिराया। फिर छठे बाण से राजा दुर्योधन के ध्वज को, सातवें से उसके धनुष को और आठवें से उसकी तलवार को भी पृथ्वी पर गिरा दिया। तदनन्तर पाँच बाणों से धर्मराज ने राजा दुर्योधन को भी गहरी चोट पहुँचायी। उस अश्वहीन रथ से कूदकर आपका पुत्र भारी संकट में पड़ने पर भी वहाँ पृथ्वी पर ही पड़ा रहा। (युद्ध छोड़कर भागा नहीं)। उसे संकट में पड़ा देख कर्ण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य आदि वीर अपने राजा की रक्षा चाहते हुए सहसा युधिष्ठिर के सामने पहुँचे। राजन! तत्पश्चात समस्त पाण्डव भी युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर उसका अनुसरण करने लगे; फिर तो दोनों दलों में भारी युद्ध छिड़ गया।

     भूपाल! तदनन्तर महासमर में सहस्रों बाजे बजने लगे और वहाँ किलकिलाहट की आवाज गूँज उठी। उस युद्ध में समसत पांचाल कौरवों के साथ भिड़ गये। पैदल पैदल के साथ, हाथी हाथियों के, रथी रथियों के और घुड़सवार घुड़सवारों के साथ युद्ध करने लगे। महाराज! उस रणभूमि में होने वाले नाना प्रकार के अचिन्तनीय, शस्त्रयुक्त तथा उत्तम द्वन्द्व युद्ध देखने ही योग्य थे। वे महान वेगशाली समस्त शूरवीर समरांगण में एक दूसरे के वध की इच्छा से विचित्र, शीघ्रता पूर्ण तथा सुन्दर रीति से युद्ध करने लगे। वे वीर योद्धा के व्रत का पालन करते हुए युद्ध स्थल में एक दूसरे को मारते थे। उन्होंने किसी तरह भी युद्ध में पीठ नहीं दिखाई। राजन! दो ही घड़ी तक वह युद्ध देखने में मधुर जान पड़ा। फिर तो वहाँ उन्मत्त के समान मर्यादाशून्य बर्ताव होने लगा। रथी हाथी का सामना करके झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों द्वारा उसे विदीर्ण करते हुए काल के गाल में भेजने लगे।। हाथी बहुत-से घोड़ों को पकड़ कर रणभूमि में इधर-उधर फेंकने और विदीर्ण करने लगे। उससे वहाँ उस समय बड़ा भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया। बहुत से घुड़सवार उत्तम गजराजों को चारों ओर से घेरकर इधर-उधर दौड़ने और ताली पीटने लगे। इससे जब वे विशालकाय हाथी दौड़ने और भागने लगते, तब वे घुड़सवार अगल-बगल से और पीछे की ओर से उन पर बाणों की चोट करते थे। राजन! कितने ही मदोन्मत्त हाथी भी बहुत से घोड़ों का खदेड़कर उन्हें दाँतों से दबाकर मार डालते अथवा वेगपूर्वक पैरों से कुचल डालते थे। कितने ही हाथियों ने रोष में भरकर सवारों सहित घोड़ों को अपने दाँतों से विदीर्ण कर डाला तथा कुछ अत्यन्त बलवान गजराजों ने उन घोड़ों को पकड़कर वेगपूर्वक दूर फेंक दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 23-40 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रहार का अवसर मिलने पर पैदल सैनिक भी चारों ओर से हाथियों को गहरी चोट पहुँचाते और वे घोर आर्तनाद करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग जाते थे। पैदल सैनिक युद्ध स्थल में अपने आभूषण त्यागकर तुरंत उछल-उछलकर बड़े वेग से भागने लगे। उस समय सहसा भागते हुए उन पैदलों के उन विचित्र आभूषणों को अपने ऊपर प्रहार होने में निमित्त मानकर हाथी उन्हें सूँड़ से उठा लेते और फिर दाँतों से दबा कर फोड़ डालते थे। इस प्रकार आभूषणों में उलझे हुए उन हाथियों और उनके सवारों को चारों ओर से घेरकर महान वेगशाली तथा बलोन्मत्त पैदल योद्धा मार डालते थे। कितने ही पैदल सैनिक उस महासमर में सुशिक्षित हाथियों की सूँड़ों से आकाश में फेंक दिये जाते और उधर से गिरते समय उन हाथियों के दन्ताग्र भागों द्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिये जाते थे। कितने ही योद्धा हाथियों द्वारा पकड़े जाकर उनके दाँतों से ही मार डाले गये। महाराज! बहुत से विशालकाय गजराज सेना के भीतर घुसकर कितने ही पैदलों को सहसा पकड़कर उनके शरीरों को बारंबार पटक-झटककर चूर-चूर कर देते और कितनों को व्यजनों के समान घुमाकर युद्ध में मार डालते थे। प्रजानाथ! जो हाथियों के आगे चलने वाले पैदल थे, वे दूसरे पक्ष के हाथियों के शरीरों को जहाँ-तहाँरण भूमि में अत्यन्त घायल कर देते थे। कहीं-कहीं पैदल सैनिक प्रास, तोमर और शक्ति द्वारा शत्रुपक्ष के हाथियों के दोनों दाँतों के बीच के स्थान में, कुम्भस्थल में और ओठों के ऊपर प्रकार करके उन्हें अत्यन्त काबू में कर लेते थे। कितने ही हाथियों को अवरुद्ध करके पाश्वभाग में खड़े हुए अत्यन्त भयंकर रथि और घुड़सवार उन्हें बाणों से विदीर्ण कर डालते, जिससे वे हाथी वहीं पृथ्वी पर गिर जाते थे। उस महासमर में कितने ही हाथी सवार सहसा तोमर का प्रहार करके ढाल सहित पैदल योद्धा को गिराकर उसे वेगपूर्वक धरती पर रौंद डालते थे।

      माननीय नरेश! उस घोर एवं भयानक युद्ध में कितने ही हाथी निकट आकर अपनी सूँड़ों से कुछ आवरण युक्त रथों को पकड़ लेते और उन्हें वेगपूर्वक खींचकर सहसा दूर फेंक देते थे। फिर वे महाबली हाथी भी नाराचों से मारे जाकर वज्र के तोड़े हुए पर्वत-शिखर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। बहुत-से पैदल योद्धा दूसरे योद्धाओं को निकट पाकर युद्ध स्थल में उन पर मुक्कों से प्रहार करने लगते थे। कितने ही एक दूसरे की चुटिया पकड़कर परस्पर झटकते-फेंकते और एक दूसरे को घायल करते थे। दूसरा योद्धा अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर उनके द्वारा शत्रृ को पृथ्वी पर पटक देता और एक पैर से उसकी छाती को दबाकर उसके छटपटाते रहने पर भी उसका सिर काट लेता था। राजन! दूसरा सैनिक किसी गिरते हुए योद्धा का सिर अपनी तलवार से काट लेता था और कोई जीवित शत्रु के ही शरीर में अपना शस्त्र घुसेड़ देता था। भारत! वहाँ योद्धाओं में बहुत बड़ा मुष्टि युद्ध हो रहा था। साथ ही भयंकर केश ग्रहण और भयानक बाहुयुद्ध भी चालू था। कोई-कोई योद्धा दूसरे के साथ उलझे हुए सैनिको से स्वयं अपरिचित रहकर नाना प्रकार के अनेक अस्त्र-शस्त्रों द्वारा युद्ध में उसके प्राण हर लेता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 41-49 का हिन्दी अनुवाद)

      इस प्रकार जब सभी योद्धा युद्ध में लगे थे और तुमुल संग्राम चल रहा था, उस समय सैकड़ों और हजारों कबन्ध (धड़) उठ खड़े हुए थे। खून से भींगे हुए शस्त्र और कवच गाढ़े रंग में रंगे हुए वस्त्रों के समान सुशोभित होते थे। इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों से परिपूर्ण यह महाभयानक युद्ध बढ़ी हुई गंगा के समान जगत को कोलाहल से परिपूर्ण कर रहा था। राजन! बाणों की चोट से व्याकुल हुए अपने और पराये योद्धा पहचान में नहीं आते थे। विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा लोग 'युद्ध करना अपना कर्त्तव्य है' यह समझकर जूझ रहे थे। महाराज! सामने आये हुए अपने और शत्रु के योद्धाओं को भी अपने पक्ष के लोग मार डालते थे। दोनों सेनाओं के वीर मर्यादाशून्य युद्ध में प्रवृत्त हो गये थे। राजेन्द्र! टूटे हुए रथों, धराशायी हुए हाथियों, मरकर गिरे हुए घोड़ों और गिराये गये पैदल सैनिकों से क्षण भर में यह पृथ्वी ऐसी हो गई कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया। भूपाल! क्षण भर में वहाँ भूतल पर खून की नदी बह चली। कर्ण ने पांचालों और अर्जुन ने त्रिगतों का संहार कर डाला। राजन! भीमसेन ने कौरवों तथा आपकी गजसेना को सर्वथा नष्ट कर दिया। इस प्रकार सूर्यदेव के अपरान्ह काल में जाते-जाते कौरव और पाण्डव दोनों सेनाओं में महान यश की अभिलाषा रखने वाले वीरों का यह विनाश-कार्य सम्पन्न हुआ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में तुमुल युद्ध विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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कर्ण पर्व

उनत्तीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर के द्वारा दुर्योधन की पराजय”

     धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! तुमसे मैंने अब तक अत्यन्त तीव्र और दुःसह दुःख देने वाली बहुत-सी घटनाएँ सुनी हैं। अपने पुत्रों के विनाश की बात भी सुन ली। सूत! जैसा तुम मुझसे कह रहे हो और जिस प्रकार वह युद्ध सम्पन्न हुआ, उसे देखते हुए मेरा यह दृढ़ निश्चय हो रहा है कि अब कुरुवंशी जीवित नहीं रहे। सुनता हूँ महारथी दुर्योधन भी वहाँ रथहीन कर दिया गया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उसके साथ किस प्रकार युद्ध किया अथवा राजा दुर्योधन ने युधिष्ठिर के प्रति कैसा बर्ताव किया? संजय! अपरान्ह काल में किस प्रकार वह रोमांचकारी युद्ध हुआ था, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ; क्योंकि तुम उसका वर्णन करने में कुशल हो।

      संजय ने कहा ;- प्रजानाथ! जब सारी सेनाएँ विभिन्न भागों में बँटकर जूझने और मरने लगीं, तब आपका पुत्र दुर्योधन दूसरे रथ पर बैठकर विषधर सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा। सारी सेनाओं पर दृष्टिपात करके क्रोध में उसकी आँखें घूमने लगीं। उस समय युद्ध स्थल में धर्मपुत्र कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर वज्रधारी इन्द्र के समान अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित होत हुए सेना के बीच में खड़े थे। भारत! उन धर्मराज युधिष्ठिर को देखकर दुर्योधन ने तुरंत अपने सारथि से कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- सारथे! चलो, चलो, जहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर कवच बांधकर छत्र धारण किये सुशोभित हो रहे हैं, वहाँ मुझे शीघ्र पहुँचा दो। राजा दुर्योधन से इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि ने उस उत्तम रथ को राजा युधिष्ठिर के सामने बढ़ाया। तब मदस्त्रावी हाथी के समान कुपित हुए राजा युधिष्ठिर ने भी अपने सारथि को आज्ञा दी, जहाँ दुर्योधन है, वहीं चलो'।

      इस प्रकार वे महाधनुर्धर, महावीर और महारथी दोनों रणदुर्मद बन्धु एक दूसरे के सामने आ गये और क्रोध पूर्वक आपस में भिड़कर युद्ध स्थल में परस्पर बाणों की वर्षा करने लगे। मान्यवर! तदनन्तर युद्ध स्थल में राजा दुर्योधन ने सान पर चढाकर तेज किये हुए भल्ल से धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का धनुष काट दिया। राजा युधिष्ठिर उस अपमान को सहन न कर सके। उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उनकी आँखें रोष से लाल हो गयीं। उन्होंने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा हाथ में ले लिया। फिर उन धर्मपुत्र ने सेना के मुहाने पर दुर्योधन के ध्वज और धनुष को काट डाला। तत्पश्चात दुर्योधन ने दूसरा धनुष लेकर युधिष्ठिर को बींध डाला। वे दोनों वीर अत्यन्त क्रोध में भरकर एक दूसरे पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। परस्पर विजय की इच्छा से रोष में भरे हुए दो सिंहों के समान दहाड़ते अथवा दो सैकड़ों के समान गरजते हुए पे रणभूमि में एक-दूसरे पर चोट करते थे। वे दोनों महारथी एक दूसरे का अन्तर (प्रहार करने का अवसर) ढुँढ़ते हुए रणभूमि में विचर रहे थे। महाराज! धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा वे दोनों वीर क्षत-विक्षत होकर फूले हुए दो पलाश के वृक्षों के समान शोभा पा रहे थे। राजन! तब वे दोनों नरेश बारंबार सिंहनाद करते हुए उस महासमर में तालियां बजाने, धनुष की टंकार करने और उत्तम शंखनाद फैलाने लगे। महाराज! वे दोनों एक दूसरे को अत्यन्त पीड़ा दे रहे थे। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने वज्र के समान वेगशाली एवं दुर्जय तीन बाणों द्वारा आपके पुत्र की छाती में क्रोध पूर्वक प्रहार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 21-36 का हिन्दी अनुवाद)

      आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने भी शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले पाँच पैने बाणों द्वारा युधिष्ठिर को घायल करके तुरंत बदला चुकाया। भारत! इसके बाद राजा दुर्योधन ने सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई एक तीखी शक्ति चलायी, जो उस समय बड़ी भारी उल्का के समान प्रतीत हो रही थी। सहसा अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति को धर्मराज युधिष्ठिर ने तीन तीखे बाणों से तत्काल काट डाला और दुर्योधन को भी पाँच बाणों से घायल कर दिया। सुवर्णमय दण्ड वाली यह शक्ति आकाश से गिरती हुई बड़ी भारी उत्का के समान महान शब्द के साथ गिर पड़ी। उस समय वह अग्नि के तुल्य प्रकाशित हो रही थी। प्रजानाथ! उस शक्ति को नष्ट हुई देख आपके पुत्र ने नौ तीखे भल्लों से युधिष्ठिर को गहरी चोट पहुँचायी। बलवान शत्रु के द्वारा अत्यन्त घायल किये जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले महाबली युधिष्ठिर ने दुर्योधन को लक्ष्य करके एक बाण हाथ में लिया और उसे धनुष के मध्य भाग में रखा।

       महाराज! तत्पश्चात पराक्रमी युधिष्ठिर ने उस बाण को क्रोध पूर्वक चला दिया। उस बाण ने आपके महारथी पुत्र दुर्योधन को घायल करके उसे मूर्च्छित कर दिया और पृथ्वी को भी विदीर्ण कर डाला। उसके बाद क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने वेगपूर्वक गदा उठाकर कलह का अन्त कर देने की इच्छा से धर्मराज युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। दण्डधारी यमराज के समान उसे गदा उठाये देख धर्मराज आपके उस पुत्र पर अत्यन्त वेगशालिनी महाशक्ति का प्रहार किया, जो प्रज्वलित हुई बड़ी भारी उल्का के समान देदीप्यमान हो रही थी। रथ पर बैठे हुए ही दुर्योधन का कवच फाड़कर वह शक्ति उसकी छाती में चुभ गई। इससे अत्यन्त उद्विग्नचित्त होकर दुर्योधन गिरा और मूर्च्छित हो गया।

     उस समय भीमसेन ने अपनी प्रतिज्ञा का विचार करते हुए युधिष्ठिर से कहा,

      भीमसेन ने कहा ;- ‘महाराज! यह राजा दुर्योधन आपका वध्य नहीं है। ‘उनके ऐसा कहने पर राजा युधिष्ठिर उसके वध से निवृत्त हो गये। तब कृतवर्मा विपत्ति के समुद्र में डूबे हुए आपके पुत्र राजा दुर्योधन के पास तुरंत आकर उसकी रक्षा के लिये उद्यत हो गया। यह देख भीमसेन ने भी सुवर्ण पत्र जटित गदा हाथ में लेकर युद्ध स्थल में बड़े वेग से कृतवर्मा पर टूट पड़े। महाराज! इस प्रकार अपरान्ह के समय रणक्षेत्र में विजय चाहने वाले आपके योद्धाओं का शत्रुओं के साथ भीषण युद्ध होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में तुमुल युद्ध विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

तीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि और कर्ण का युद्ध तथा अर्जुन के द्वारा कौरव-सेना का संहार और पाण्डवों की विजय”

    संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर आपके रणदुर्मद योद्धा कर्ण को आगे करके पुनः लौटकर देवताओं और असुरों के समान संग्राम करने लगे। हाथी, मनुष्य, रथ, घोड़ों और शंख के शब्दों से अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरे हाथी सवार, रथी, पैदल और घुड़सवारों के समुदाय क्रोध पूर्वक सामना करते हुए नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करके एक दूसरे को मारने लगे। उस महायुद्ध में श्रेष्ठ वीर पुरुषों ने वाहनों तथा तीखे फरसों, तलवारों, पट्टिशों और अनेक प्रकार के बाणों द्वारा सवारों सहित हाथियों, रथों एवं पैदल मनुष्यों का संहार कर डाला। उस समय नरमुण्डों से ढकी हुई रणभूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी। वीरों के वे कटे हुए मस्तक कमल, सूर्य और चन्द्रमा के समान कान्तिमान थे। उनके सफेद दाँत चमक रहे थे। उनके मुख, नेत्र और नासिकाएँ भी बड़ी सुन्दर थीं और वे मनोहर मुकुट तथा कुण्डलों से मण्डित थे। उस समय परिघ, मूसल, शक्ति, तोमर, नखर, भुशुण्डी और गदाओं की सौ-सौ चोटें खाकर हजारों हाथी, मनुष्य और घोड़े खून की नदी बहाने लगे। नष्ट हुए रथ, मनुष्य, घोड़े और हाथियों से भरी एवं शत्रुओं की मारी हुई वह सेना गहरे आघातों से युक्त हो प्रलयकाल में यमराज के राज्य की भाँति बड़ी भयंकर दिखाई देती थी।

       नरदेव! तदनन्तर आपके सैनिक तथा देव कुमारों के समान तेजस्वी कुरुकुल भूषण आपके पुत्र असंख्य सेना साथ लेकर रणभूमि में शिनि पौत्र सात्यकि पर चढ़ आये। पैदल मनुष्यों, श्रेष्ठ घोडों, रथों और हाथियों से भरी और खारे पानी के समुद्र के समान भयंकर गर्जना करने वाली वह सेना अत्यन्त रक्त रंजित होकर देवताओं और असुरों की सेना के समान भयानक प्रतीत होती थी। उस समय देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी सूर्यपुत्र कर्ण ने युद्ध स्थल में इन्द्र के छोटे भाई उपेन्द्र के समान शक्तिशाली शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि को सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी बाणों द्वारा घायल कर दिया। तब शिनिवंश शिरोमणि सात्यकि ने बड़ी उतावली के साथ विषधर सर्पों के समान विर्षिले नाना प्रकार के बाणों द्वारा रथ, घोड़े और सारथि सहित नरश्रेष्ठ कर्ण को भी आच्छादित कर दिया। उस समय आपके हितैषी सुहृद अतिरथी वीर वहाँ शिनिवंश शिरोमणि सात्यकि के शरों से अत्यंत पीड़ित हुए महारथी कर्ण के पास हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की चतुरंगिनी सेना साथ लेकर तुरंत आ पहुँचे। तत्पश्चात धृष्टद्युम्न आदि शीघ्रकारी शत्रुओं ने आपकी समुद्र-सदृश विशाल वाहिनी पर आक्रमण किया और आपकी सेना भी शत्रुओं की ओर दौड़ी। फिर तो वहाँ मनुष्यों, रथों, घोड़ों और हाथियों का महान संहार होने लगा।

     तदनन्तर अपरान्ह काल के कृत्य समाप्त करके विधिपूर्वक भगवान शंकर की पूजा करने के पश्चात नरश्रेष्ठ अर्जुन और श्रीकृष्ण शत्रुओं के वध का निश्चय करके तुरंत आपकी सेना पर चढ़ आये। अर्जुन के रथ से मेघ की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि हो रही थी, पवन की प्रेरणा पाकर उसकी ऊँची पताका फहरा रही थी और उसमें श्वेत घोड़े जुते हुए थे। उस समय शत्रुओं ने उत्साह शून्य हृदय से उस रथ को समीप आते देखा। इसके बाद रथ पर नृत्य करते हुए से अर्जुन ने गाण्डीव धनुष को फैलाकर आकाश, दिशा और विदिशाओं को बाणों से भर दिया। जैसे वायु मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार उस समय अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा विमान जैसे रथों को आयुध, ध्वज और सारथियों सहित नष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद)

      उन्होंने अपने तीखे बाणों से पताका, ध्वज और आयुधों सहित गजों एवं गजारोहियों की, घोड़ों और घुड़सवारों तथा पैदल मनुष्यों को भी यमलोक भेज दिया। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए यमराज के समान अबाध गति से महारथी अर्जुन पर सीधे जाने वाले बाणों से प्रहार करता हुआ अकेला दुर्योधन उनका सामना करने के लिए गया। अर्जुन ने सात बाणों से दुर्योधन के धनुष, सारथि, घोडों और ध्वज को नष्ट करके एक बाण से उसका छत्र भी काट डाला फिर नवें प्राणघातक बाण को धनुष पर रखकर उन्होंने दुर्योधन की ओर चला दिया; परन्तु अश्वत्थामा ने उस उत्तम बाण के सात टुकड़े कर डाले। तब पाण्डु कुमार अर्जुन ने अश्वत्थामा का धनुष काटकर उसके रथ और घोड़ों को नष्ट करके अपने बाणों द्वारा कृपाचार्य के अत्यन्त भयंकर धनुष को भी खण्डित कर दिया। इसके बाद उन्होंने कृतवर्मा का धनुष काटकर उसके ध्वज और घोड़ों को भी तत्काल नष्ट कर दिया। फिर दुःशासन के धनुष के टुकड़े-टुकड़े करके राधापुत्र कर्ण पर आक्रमण किया। तदनन्तर कर्ण ने सात्यकि को छोड़कर अर्जुन को तीन बाणों से बींध डाला। फिर तीस बाण मारकर श्रीकृष्ण को भी घायल कर दिया। इस प्रकार वह दोनों को बारंबार चोट पहुँचाने लगा। उस समय कर्ण क्रोध में भरे हुए इन्द्र के समान रणभूमि में बहुत से बाणों की वर्षा करके शत्रुओं का संहार कर रहा था। परंतु उसे इस कार्य में तनिक भी क्लेश अथवा थकावट का अनुभव नहीं होता था। फिर यात्यकि ने भी लौटकर कर्ण को तीखे बाणों से घायल करके पुनः उसे एक सौ निन्यानवे भयंकर बाण मारे। इसके बाद कुन्ती पुत्रों की सेना के सभी प्रमुख वीर कर्ण को पीड़ा देने लगे।

        युधामन्यु, शिखण्डी, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, प्रभद्रक गण, उत्तमौजा, युयुत्सु, नकुल-सहदेव, धृष्टद्युम्न, चेदि, कारूप, मत्स्य और केकय देशों की सेनाएँ, बलवान चेकितान तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ये भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले रथी, घुड़सवार, हाथी सवार और पैदल सैनिकों द्वारा रणभूमि में कर्ण को चारों ओर से घेरकर उसके ऊपर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। सभी भयंकर वचन बोलते हुए वहाँ कर्ण के वध का निश्चय कर चुके थे। जैसे प्रचण्ड वायु वृक्ष को तोड़कर गिरा देती है, उसी प्रकार कर्ण अपने तीखे बाणों से शत्रुओं की उस शस्त्रवर्षा को बहुधा छिन्न-भिन्न करके अपने अस्त्रबल से दूर हटा दिया। क्रोध में भरा हुआ कर्ण रथियों, महावतों सहित हाथियों, सवारों सहित घोड़ों तथा पैदल-समूहों का वध करता देखा जा रहा था। कर्ण के अस्त्रों के तेज से मारी जाती हुई पाण्डवों की सेना शस्त्र, वाहन, शरीर और प्राणों से रहित हो प्रायः रणभूमि से विमुख होकर भाग चली।

     तब अर्जुन ने मुस्कराते हुए अपने अस्त्र से कर्ण के अस्त्र को नष्ट करके बाणो की वर्षा द्वारा आकाश, दिशा और पृथ्वी को आच्छादित कर दिया। उनके कुछ बाण मूसलों के समान गिरते थे, कुछ परिघों के समान, कुछ शतघ्नियों के तुल्य तथा कुछ दूसरे बाण भयंकर वज्रों के समान शत्रुओं पर पड़ते थे। उन बाणों से हताहत होती हुई पैदल, घोड़े, रथ और हाथियों से युक्त कौरव सेना आँख मूँदकर जोर-जोर से चिल्लाने और चक्कर काटने लगी। उस समय घोड़े, हाथी और मनुष्यों को ऐसा युद्ध प्राप्त हुआ, जिसमें मृत्यु निश्चित है। उन सब लोगों पर जब बाणों की मार पड़ने लगी, तब वे सब-के-सब आत और भयभीत होकर भाग चले।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 37-44 का हिन्दी अनुवाद)

     इस प्रकार जब आपके विजयाभिलाषी सैनिक युद्ध में संलग्न हो रहे थे, उसी समय सूर्यदेव असताचल पहुँचकर डूब गये। महाराज! उस समय अन्धकार और विशेषतः धूल से सब कुद आच्छादित होने के कारण हम लोग किसी भी शुभ या अशुभ वस्तु को नहीं देख पाते थे।

      भारत! वे महाधनुर्धर योद्धा रात्रि युद्ध से डरते थे। इसलिये समस्त सैनिकों के साथ उन्होंने वहाँ से शिविर को प्रसथान कर दिया। राजन! दिन के अन्त में कौरवों के हट जाने पर पाण्डव भी विजय पाकर प्रसन्नचित हो भाँति-भाँति के बाणों की आवाज, सिंहनाद और गर्जना के द्वारा शत्रुओं का उपहास और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन की स्तुति करते हुए अपने शिविर को लौट गये। उन वीरों के द्वारा युद्ध का उपसंहार कर दिये जाने पर समस्त सैनिक और नरेश पाण्डवों को आशीर्वाद देने लगे। इस प्रकार सैनिको के लौटा लिये जाने पर हर्ष में भरे हुए पाण्डव-पक्षीय नरेश रात को शिविर में जाकर सो रहे। तदनन्तर रुद्र के क्रीड़ा स्थल (श्मशान) सदृश उस भयंकर युद्ध भूमि में राक्षस, पिशाच और झुंड-के-झुंड हिंसक जीव जन्तु जा पहुँचे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण के सेनापतित्व में प्रथम दिन का युद्ध विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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