सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 25 chapter of the entire Mahabharata (Karn Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

इक्कीसवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-पाण्डव-दलों का भयंकर घमासान युद्ध”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जब युद्धस्थल में अश्वत्थामा द्वारा पाण्ड्य नरेश मार डाले गये और मेरे पक्ष के अद्वितीय वीर कर्ण ने जब शत्रु सैनिकों को मार भगाया, उस समय अर्जुन ने क्या किया। पाण्डुकुमार अर्जुन युद्ध विद्या की शिक्षा समाप्त कर चुके हैं। वे विजय के प्रयत्न में लगे हुए बलवान वीर हैं। भगवान शंकर ने उन्हें कृपा पूर्वक अनुगृहीत करते हुए यह कह दिया है कि 'तुम समस्त प्राणियों में प्रधान एवं अजेय होओगे'। इसलिए उन शत्रुनाशक धनंजय से मुझे अत्यन्त तीव्र एवं महान भय बना रहता है। अतः संजय! वहाँ कुन्ती कुमार अर्जुन ने जो कुछ किया हो, वह मुझे बताओ।

     संजय ने कहा ;- राजन! पाण्ड्य नरेश के मारे जाने पर श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ अर्जुन से यह हितकर वचन कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पार्थ! मैं राजा युधिष्ठिर को नहीं देख रहा हूँ। युद्धस्थल से हटे हुए अन्य पाण्डव भी मुझे नहीं दिखाई दे रहे हैं। 'पुनः लौटे हुए पाण्डव-योद्धाओं ने विशाल शत्रुसेना में भगदड़ मचा दी थी; परंतु अश्वत्थामा के संकल्प के अनुसार कर्ण ने सृंजयों का संहार कर डाला तथा अपनी सेना के हाथी, घोड़े एवं रथों का भारी विनाश कर दिया'। वीर वसुदेन नन्दन श्रीकृष्ण ने किरीटधारी अर्जुन को ये सारी बातें बतायीं। यह सुनकर तथा अपने भाई के ऊपर आये हुए घोर एवं महान भय को देखकर पाण्डु कुमार अर्जुन ने कहा,

    अर्जुन बोले ;- 'हृषीकेश! आप शीघ्र ही इन घोड़ों को बढ़ाइये'। तब भगवान हृषीकेश जिसका सामना करने वाला दूसरा कोई योद्धा नहीं था उस रथ के द्वारा आगे बढ़े। उस समय वहाँ पुनः भयंकर संग्राम छिड़ा हुआ था। कौरव तथा पाण्डव योद्धा पुनः निर्भय होकर एक दूसरे से भिड़ गये थे। पाण्डव-सैनिकों के प्रधान थे भीमसेन और हम लोगों का प्रधान था सूत पुत्र कर्ण। नृपश्रेष्ठ! उस समय कर्ण का पाण्डव-सैनिकों के साथ जो पुनः संग्राम आरम्भ हुआ था, वह यमराज के राज्य की श्रीवृद्धि करने वाला था। दोनों दलों के सैनिक एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से धनुष, बाण, परिघ, खड्ग, पट्टिश, तोमर, मूसल, भुशुण्डी, शक्ति, ऋष्टि, फरसे, गदा, प्रास, तीखे कुन्त, भिन्दिपाल और बड़े-बड़े अंकुश लेकर शीघ्रता पूर्वक युद्ध के मैदान में कूद पड़े थे। रथी वीर अपने बाण सहित धनुष की प्रत्यंचा की टंकार ध्वनि एवं रथ के पहियों की घर्घराहट से आकाश, अन्तरिक्ष, दिशा, विदिशा तथा भूतल को शब्दायमान करते हुए शत्रुओं पर चढ़ आयें। कलह के पार जाने की इच्छा रखने वाले वे सभी वीर उस महान शब्द से हर्ष एवं उत्साह में भरकर विपक्षी वीरों के साथ अत्यन्त घोर संग्राम करने लगे। प्रत्यंचा, हस्तत्राण और धनुष का शब्द, चिग्घाड़ते हुए हाथियों की आवाज तथा रणभूमि में गिरते हुए पैदल मनुष्यों के महान आर्तनाद की तुमुल ध्वनि वहाँ गूँजने लगी। सामने गर्जना करने वाले शूरवीरों के ताल ठोंकने के विविध शब्द सुनकर कितने ही सैनिक वहाँ भय से थर्रा उठते थे, कितने ही गिर पड़ते थे और कितने ही ग्लानि से भर जाते थे।

      जोर-जोर से गर्जते तथा अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए उन सैनिकों में से बहुतों को वीर कर्ण ने अपने बाणों से मथ डाला। उसने अपने बाणों द्वारा पांचाल वीरों से पहले पाँच फिर दस और फिर पाँच रथियों को घोड़े, सारथि एवं ध्वजों-सहित मारकर यमलोक पहुँचा दिया। तब समरांगण में पाण्डव दल के शीघ्रता पूर्वक अस्त्र चलाने वाले महापराक्रमी प्रधान-प्रधान योद्धाओं ने तुरंत आकर कर्ण को चारों ओर से घेर लिया। तदनन्तर कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा से शत्रुसेना का मंथन करते हुए उसके भीतर उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे यूथपति गजराज पक्षियों से भरे हुए कमलपूर्ण सरोवर में घुसकर उसे मथने लगता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

      राधा पुत्र कर्ण क्रमशः शत्रुसेना के मध्य भाग में पहुँचकर अपने उत्तम धनुष को कम्पित करता हुआ पैने बाणों से शत्रुओं के सिर काट-काटकर गिराने लगा। उस समय देहधारियों के चमड़े और कवच कट-कटकर भूतल पर गिर पड़े थे। जैसे घुड़सवार घोड़ों को कोड़े से पीटता है, उसी प्रकार कर्ण धनुष से छूटकर कवच, शरीर और प्राणों को मथ डालने वाले बाणों द्वारा शत्रुओं के हस्तत्राण पर भी प्रहार करने लगा। जैसे सिंह अपनी दृष्टि में पड़े हुए मृगों को वेगपूर्वक मसल डालता है, उसी प्रकार कर्ण ने अपने बाणों की पहुँच के भीतर आये हुए पाण्डव, सृंजय तथा पांचाल योद्धाओं को बड़े वेग से रौंद डाला।

       मान्यवर! तब पांचाल राज धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र तथा नकुल, सहदेव और सात्यकि इन सबने एक साथ जाकर कर्ण पर आक्रमण किया। उस समय जब कौरव, पांचाल तथा पाण्डव योद्धा परिश्रम पूर्वक युद्ध में लगे हुए थे, सभी सैनिक रणभूमि में अपने प्राणों का मोह छोड़कर एक दूसरे को मारने लगे। माननीय नरेश! कमर कसे, कवच बाँधे तथा शिरस्त्राण एवं आभूषण धारण किये हुए महाबली योद्धा गरजते, उछलते-कूदते और एक दूसरे को ललकारते हुए कालदण्ड के समान गदा, मूसल और परिघ उठाये परस्पर धावा बोल रहे थे। तदनन्तर वे एक दूसरे का वध करने, परस्पर चोट खाकर धराशायी होने तथा शरीर से रक्त बहाने लगे। उनके मस्तिष्क, नेत्र और आयुध नष्ट हो गये थे। कितने ही वीरों के शरीर अस्त्र-शस्त्रों से व्याप्त एवं प्राणशून्य होकर गिर पड़े थे; परंतु उनके खुले हुए मुख में जो रक्त-रंजित दाँत थे, उनके द्वारा वे फटे हुए अनार के फलों जैसे जान पड़ते थे और उस तरह के मुखों द्वारा वे जीवित से प्रतीत होते थे। महासागर के समान उस विशाल युद्धस्थल में परस्पर कुपित हुए अन्यान्य योद्धा, परशु, पट्टिश, खड्ग, शक्ति, भिन्दिपाल, नखर, प्रास तथा तोमरों द्वारा यथा सम्भव एक दूसरे का छेदन-भेदन, विदारण, क्षेपण, कर्तन और हनन करने लगे।

      जैसे लाल चन्दन के वृक्ष कट जाने पर रक्तवर्ण का रस बहाने लगता है, उसी प्रकार परस्पर के आघात से मारे गये योद्धा खून से लथपथ एवं प्राणशून्य होकर युद्ध भूमि में पड़े थे और अपने अंगों से रक्त बहा रहे थे। रथियों से रथी, हाथियों से हाथी, पैदल मनुष्यों से मनुष्य और घोड़ों से घोड़े मारे जाकर रणभूमि में सहस्रों की संख्या में पड़े थे। ध्वज, मस्तक, छत्र, हाथी की सूंड़ तथा मनुष्यों की भुजाएँ-ये सबके सब क्षुरों, भल्लों तथा अर्धचन्द्रों द्वारा कटकर भूतल पर पड़े थे। घुड़सवारों ने कितने की शूरवीरों को मार डाला और बड़े-बड़े दन्तार हाथियों की सूँड़ें काट लीं। सूँड़ कट जाने पर उन हाथियों ने युद्ध स्थल में बहुत से मनुष्यों, हाथियों, रथों और घोड़ों को कुचल डाला। फिर वे पताका और ध्वजों सहित टूटे-फूटे पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े। पैदल वीरों द्वारा उछल-उछलकर मारे गये और मारे जाते हुए कितने ही हाथी और रथ सवारों सहित सब ओर पड़े थे। कितने ही घुड़सवार बड़ी उतावली के साथ पैदल वीरों के पास जाकर उनके द्वारा मारे गये तथा झुंड-के-झुंड पैदल सैनिक भी घुड़सवारों की चोट से मारे जाकर युद्धस्थल में सदा के लिए सो गये थे। उस महासमर में मारे गये योद्धाओं के मुख और शरीर कुचले हुए कमलों और कुम्हलायी हुई मालाओं के समान श्रीहीन हो गये थे। नरेश्वर! हाथी, घोड़े और मनुष्यों के अत्यन्त सुन्दर रूप भी वहाँ कीचड़ में सने हुए वस्त्रों के समान घिनौने हो गये थे। उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संकुल युद्ध विषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डव सेना पर भयानक गज-सेना का आक्रमण, पाण्डवों द्वारा पुण्ड्र की पराजय तथा बंगराज और अंगराज का वध, गजसेना का विनाश और पलायन”

    संजय कहते हैं ;- राजन! आपके पुत्र दुर्योधन की आज्ञा पाकर बहुत से महावत धृष्टद्युम्न को मार डालने की इच्छा से क्रोध पूर्वक हाथियों के साथ आकर उन पर टूट पड़े। भारत! पूर्व और दक्षिण दिशा के श्रेष्ठ गजयोद्धा तथा अंग, बंग, पुण्ड्र, मगध, ताम्रलिप्त, मेकल, कोसल, मद्र, दशार्ण तथा निषध देशों के समस्त गजयुद्ध निपुण वीर कलिंगों में पांचाल-सेना पर बाण, तोमर और नाराचों की वृष्टि करने लगे। वे नाग शत्रुओं की सारी सेना को कुचल डालने की इच्छा रखते थे और उन्हें पैरों की एड़ी, अंगूठों तथा अंकुशों की मार से बारंबार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जा रहा था। यह देखकर द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न ने उन पर नाराच नामक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भरतनन्दन! धृष्टद्युम्न ने दस पर्वताकार हाथियों में से प्रत्येक को अपने चलाये हुए दस-दस, छः-छः और आठ-आठ बाणों से घायल कर दिया। उस समय मेघों की घटा से ढके हुए सूर्य के समान धृष्टद्युम्न को उन हाथियों से आच्छादित हुआ देख पाण्डव और पांचाल सैनिक तीखे आयुध लिये गर्जना करते हुए आगे बढ़े। वे प्रत्यंचा रूपी वीणा के तार को झंकारते, शूरवीरों के दिये हुए उन हाथियों पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। नकुल, सहदेव ,द्रौपदी के पाँचों पुत्र, प्रभद्रकगण, सात्यकि, शिखण्डी तथा पराक्रमी चेकितान -ये सभी वीर चारों ओर से उन हाथियों पर उसी प्रकार बाणों की वृष्टि करने लगे, जैसे बादल पर्वतों पर पानी बरसाते हैं।

      म्लेच्छों द्वारा आगे बढ़ाये हुए वे अत्यन्त क्रोधी गजराज मनुष्यों, घोड़ों और रथों को अपनी सूँड़ों से उठाकर फेंक देते और उन्हें पैरों से मसल डालते थे। कितनों को अपने दाँतों के अग्रभाग से विदीर्ण कर देते और बहुतों को सूँड़ों से खींचकर दूर फेंक देते थे। कितने ही योद्धा उनके दाँतों में गुँथकर बड़ी भयानक अवस्था में नीचे गिरते थे। इसी समय सात्यकि ने अपने सामने उपस्थित हुए वंगराज के हाथी के मर्मस्थलों को भयंकर वेग वाले नाराच से विदीर्ण करके उसे धराशायी कर दिया। वंगराज अपने शरीर को सिकोड़कर उस हाथी से कूदना ही चाहता था कि सत्यकि ने नाराच द्वारा उसकी छाती छेद डाली; अतः वह घायल होकर भूतल पर गिर पड़ा। दूसरी ओर पुण्ड्रराज आक्रमण कर रहे थे। उनका हाथी चलते-फिरते पर्वत के समान जान पड़ता था। सहदेव ने पयत्न पूर्वक चलाये हुए तीन नाराचों द्वारा उसे घायल की दिया। इस प्रकार उस हाथी को पताका, महावत, कवच, ध्वज तथा प्राणों से हीन करके सहदेव पुनः अंगराज की ओर बढ़े। परंतु नकुल ने सहदेव को रोककर स्वयं ही अंगराज को घायल कर दिया। अंगराज ने नकुल पर सूर्य किरणों के समान तेजस्वी आठ तोमर चलाये; परंतु नकुल ने उनमें से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात पाण्डुकुमार नकुल ने एक अर्धचन्द्र के द्वारा अंगराज का सिर काट लिया। इस प्रकार मारा गया म्लेच्छ जातीय अंगराज अपने हाथी के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा।

      गजशिक्षा में कुशल अंगराज के पुत्र के मारे जाने पर कुपित अंगदेशीय महावतों ने हाथियों द्वारा नकुल पर आक्रमण किया। उन हाथियों पर पताकाएँ फहरा रहीं थीं। उनके मुख बहुत सुन्दर थे। उनको कसने के लिए बनी हुई रस्सी और कवच सुवर्णमय थे। वे प्रज्वलित पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उन हाथियों के द्वारा नकुल को कुचलवा देने की इच्छा रखकर मेकल, उत्कल, कलिंग, निषद तथा ताम्रलिप्त देशीय योद्धा बड़ी उतावली के साथ बाणों और तोमरों की वर्षा कर रहे थे। वे सब-के-सब उन्हें मार डालने को उतारू थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 22-30 का हिन्दी अनुवाद)

       बादलों से ढके हुए सूर्य के समान नकुल को उनके द्वारा आच्छादित होते देख क्रोध में भरे हुए पाण्डव, पांचाल और सोमक योद्धा तुरंत उन म्लेच्छों पर टूट पड़े। तब उन रथियों का हाथियों के साथ युद्ध छिड़ गया। वे रथीवीर उनके ऊपर सहस्रों तोमरों और बाणों की वर्षा कर रहे थे। नाराचों से अत्यन्त घायल हुए उन हाथियों के कुम्भस्थल फूट गये, विभिन्न मर्मस्थान विदीर्ण हो गये तथा उनके दाँत और आभूषण कट गये। सहदेव ने उनमें से आठ महागजों को चौसठ पैने बाणों से शीघ्र मार डाला। वे सब-के-सब सवारों के साथ धराशायी हो गये। अपने कुल को आनन्दित करने वाले नकुल ने भी प्रसत्न पूर्वक उत्तम धनुष को खींचकर अनायास ही दूर तक जाने वाले नाराचों द्वारा बहुत से हाथियों का वध कर डाला।

     तदनन्तर धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रकगण तथा शिखण्डी ने भी उन महान गजराजों पर अपने बाणों की वर्षा की। जैसे वज्रों की वर्षा से पर्वत ढह जाते हैं, उसी प्रकार पाण्डव-सैनिक रूपी बादलों द्वारा की हुई बाणों की वृष्टि से आहत हो शत्रुओं के हाथी रूपी पर्वत धराशासी हो गये। इस प्रकार उन श्रेष्ठ पाण्डव महारथियों ने आपके हाथियों का संहार करके देखा कि आपकी सेना किनारा तोड़कर बहने वाली नदी के समान सब ओर भाग रही है। पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर के उन सैनिकों ने आपकी उस सेना को मथकर उसमें हलचल पैदा करके पुनः कर्ण पर धावा किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संकुल युद्ध विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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कर्ण पर्व

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“सहदेव के द्वारा दुःशासन की पराजय”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! सहदेव क्रोध में भरकर आपकी विशाल सेना को दग्ध करने लगे। उस समय भाई दुःशासन ने अपने उस भ्राता का सामना किया। उस महायुद्ध में उन दोनों भाइयों को एकत्र हुआ देख वहाँ खड़े हुए महारथी योद्धा सिंहनाद करने और वस्त्र हिलाने लगे। भारत! उस समय कुपित हुए आपके धनुर्धर पुत्र ने अपने तीन बाणों द्वारा बलवान पाण्डु पुत्र सहदेव की छाती में गहरा आघात किया। राजन! तब सहदेव ने आपके पुत्र को एक नाराच से घायल करके पुनः सत्तर बाणों से बींध डाला। तत्पश्चात उनके सारथि को भी तीन बाण मारे। राजन! महासमर में दुःशासन ने सहदेव का धनुष काटकर उनकी दोनों भुजाओं और छाती में तिहत्तर बाण मारे। तब सहदेव ने अत्यन्त कुपित होकर उस महासमर में तलवार उठा ली और उसे घुमाकर तुरंत ही आपके पुत्र के रथ की ओर फेंका। उनकी वह लंबी तलवार दुःशासन के धनुष, बाण और प्रत्यन्चा को काटकर आकाश से भ्रष्ट हुए सर्प की भाँति वहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ी। तदनन्तर प्रतापी सहदेव ने दूसरा धनुष लेकर दुःशासन पर एक विनाशकारी बाण का प्रहार किया। यमदण्ड के समान प्रकाशित होने वाले उस बाण को आते देख कुरुवंशी दुःशासन ने तीखी धार वाले खड्ग से उसके दो टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात दःशासन ने युद्ध स्थल में तुरंत ही तीखी तलवार घुमाकर सहदेव पर दे मारी; फिर उस पराक्रमी वीर ने दूसरा धनुष लेकर उस पर बाण का संधान किया। सहदेव ने हँसते हुए से सहसा अपनी ओर आती हुई उस तलवार को तीखे बाणों से समरभूमि में गिरा दिया।

      भारत! इतने में ही आपके पुत्र ने उस महासमर में सहदेव पर तुरंत ही चौसठ बाण चलाये। राजन! सहदेव ने रणभूमि में वेग से आते हुए उन बहुसंख्यक बाणों में से प्रत्येक को पाँच-पाँच बाण मारकर काट गिराया। इस प्रकार आपके पुत्र के चलाये हुए उन महाबाणों का निवारण करके युद्धस्थल में सहदेव ने उसके ऊपर भी बहुत से बाण छोड़े। आपके पुत्र ने भी सहदेव के उन बाणों में से प्रत्येक को तीन-तीन बाणों से काटकर पृथ्वी को विदीर्ण-सी करते हुए बड़े जोर से गर्जना की। राजन! इसके बाद दुःशासन ने रणभूमि में पाण्डु कुमार सहदेव को घायल करके उन माद्रीकुमार के सारथि को भी नौ बाण मारे। महाराज! इससे कुपित होकर प्रतापी सहदेव ने अपने धनुष पर मृत्यु, काल और यमराज के समान भयंकर बाण रखा। फिर उस धनुष को बलपूर्वक खींचकर उसने आपके पुत्र पर वह बाण छोड़ दिया। राजन! वह बाण दुःशासन को तथा उनके विशाल कवच को भी वेगपूर्वक विदीर्ण करके बाँबी में घुसने वाले सर्प के समान धरती में समा गया। महाराज! इससे आपका महारथी पुत्र मूर्च्छित हो गया। उसे मुर्छित देख उसका सारथि तीखे बाणों की मार खाकर अत्यन्त भयभीत हो तुरंत ही रथ को रणभूमि से दूर हटा ले गया। कुरुवंशी दुःशासन को रणभूमि में पराजित करके पाण्डु नन्दन सहदेव ने दुर्योधन की सेना को वहाँ उपस्थित देख उसे सब ओर से मथ डाला। भरतवंशी नरेश! जैसे मनुष्य रोष में ओर चींटियों के दल को मसल डालता है, उसी प्रकार सहदेव ने उस कौरव सेना को धूल में मिला दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में सहदेव और दुःशासन का युद्ध विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“नकुल और कर्ण का घोर युद्ध तथा कर्ण के द्वारा नकुल की पराजय और पांचाल-सेना का संहार”

     संजय कहते हैं ;- राजन! युद्धस्थल में कौरव-सेना को खदेड़ते हुए वेगशाली वीर नकुल को वैकर्तन कर्ण ने रोषपूर्वक रोका। तब नकुल ने कर्ण से हँसते हुए इस प्रकार कहा,

     नकुल ने कहा ;- 'आज दीर्घकाल के पश्चात देवताओं ने मुझे सौम्य दृष्टि से देखा है; यह बड़े हर्ष की बात है। पापी कर्ण! मैं रणभूमि में तेरी आँखों के सामने आ गया हूँ। तू अच्छी तरह मुझे देख ले। तू ही इन सारे अनर्थों की तथा वैर एंव कलह की जड़ है। तेरे ही दोष से कौरव आपस में लड़-भिड़कर क्षीण हो गये। आज मैं तुझे समरभूमि में मारकर कृतकृत्य एवं निश्चिन्त हो जाऊँगा'। नकुल के ऐसा कहने पर सूत नन्दन कर्ण ने उनसे कहा,

    कर्ण ने कहा ;- ‘वीर! तुम एक राजपुत्र के विशेषतः धनुर्धर योद्धा के योग्य कार्य करते हुए मुझ पर प्रहार करो। हम तुम्हारा पुरुषार्थ देखेंगे। शूर! पहले रणभूमि में पराक्रम प्रकट करके फिर उसके विषय में बढ़-बढ़कर बातें बनानी चाहिए। 'तात! शूरवीर समरांगण में बातें न बनाकर अपनी शक्ति के अनुसार युद्ध करते हैं। तुम पूरी शक्ति लगाकर मेरे साथ युद्ध करो। मैं तुम्हारा घमंड चूर कर दूँगा'।

     ऐसा कहकर सूतपुत्र कर्ण ने पाण्डु कुमार नकुल पर तुरंत ही प्रहार किया। उन्हें युद्धस्थल में तिहत्तर बाणों से बींध डाला। भारत! सूतपुत्र के द्वारा घायल होकर नकुल ने उसे भी विषधर सर्पों के समान अस्सी बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। तब महाधनुर्धर कर्ण ने शिला पर तेज किये हुए स्वर्णमय पंख वाले बाणों से नकुल के धनुष को काटकर उन्हें तीस बाणों से पीड़ित कर दिया। जैसे विषधर नाग धरती फोड़कर जल पी लेते हैं, उसी प्रकार उन बाणों ने नकुल का कवच छिन्न-भिन्न करके युद्धस्थल में उनका रक्त पी लिया। तत्पश्चात नकुल ने सोने की पीठ वाला दूसरा दुर्जय धनुष हाथ में लेकर कर्ण को सत्तर और उसके सारथि को तीन बाणों से घायल कर दिया। महाराज! इसके बाद शत्रुवीरों का संहार करने वाले नकुल ने कुपित होकर एक अत्यन्त तीखे क्षुरप्र से कर्ण का धनुष काट दिया। धनुष कट जाने पर सम्पूर्ण लोकों के विख्यात महारथी कर्ण को वीर नकुल ने हँसते-हँसते तीन सौ बाण मारे। मान्यवर! पाण्डु पुत्र नकुल के द्वारा कर्ण को इस तरह पीड़ित हुआ देख देवताओं सहित सम्पूर्ण रथियों को महान आश्चर्य हुआ। तब वैकर्तन कर्ण ने दूसरा धनुष लेकर नकुल के गले की हँसली पर पाँच बाण मारे। वहाँ धँसे हुए उन बाणों से माद्री कुमार नकुल उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे सम्पूर्ण जगत में प्रभा बिखेरने वाले भगवान सूर्य अपनी किरणों से प्रकाशित होते हैं।

     माननीय नरेश! तदनन्तर नकुल ने कर्ण को सात बाणों से घायल करके उसके धनुष का एक कोना पुनः काट डाला। तब कर्ण ने समरांगण में दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर नकुल के चारों ओर सम्पूर्ण दिशाओं को बाणों से आच्छादित कर दिया। कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा सहसा आच्छादित होते हुए महारथी नकुल ने तुरंत ही उसके बाणों को अपने बाणों द्वारा ही काट गिराया। तत्पश्चात आकाश में बाणों का जाल-सा बिछा हुआ दिखाई देने लगा, मानो वहाँ जुगनुओं के समूह उड़ रहे हों।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)

      प्रजानाथ! उस समय धनुष से छूटे हुए सौ-सौ बाणों द्वारा आच्छादित हुआ आकाश पतंगों के समूहों से भरा हुआ सा प्रतीत होता था। बारंबार गिरते हुए वे सुवर्णभूषित श्रोणिबद्ध होकर ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत से क्रौंच पक्षी एक पंक्ति में होकर उड़ रहे हों। बाणों के जाल से आकाश और सूर्य के ढक जाने पर अन्तरिक्ष की कोई भी वस्तु उस समय पृथ्वी पर नहीं गिरती थी। बाणों के समूह से वहाँ सब ओर का मार्ग अवरुद्ध हो जाने पर वे दोनों महामनस्वी वीर नकुल और कर्ण प्रलयकाल में उदित हुए दो सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहे थे।

      राजेन्द्र! कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों की मार खाकर सोमक-योद्धा वेदना से कराह उठे और अत्यन्त पीड़ित हो इधर-उधर छिपने लगे। राजन! नकुल के बाणों से मारी जाती हुई आपकी सेना भी हवा से उड़ाये गये बादलों के समान सम्पूर्ण दिशाओं में बिखर गयी। उन दोनों के दिव्य महाबाणों द्वारा आहत होती हुई दोनों सेनाएँ उस समय उनके बाणों के गिरने के स्थान से दूर हटकर खड़ी हो गयीं और दर्शक बनकर तमाशा देखने लगीं। कर्ण और नकुल के बाणों द्वारा अब सब लोग वहाँ से दूर हटा दिये गये, तब वे दोनों महामनस्वी वीर अपने बाणों की वर्षा से एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। युद्ध के मुहाने पर वे दोनों दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे को मार डालने की इच्छा से सहसा बाणों द्वारा आच्छादित करने लगे। नकुल के बाणों में कंक और मयूर के पंख लगे हुए थे। वे उनके धनुष से छूटकर सूतपुत्र को आच्छादित करके जिस प्रकार आकाश में स्थित होते थे, उसी प्रकार उस महासमर में सूतपुत्र के चलाये बाण हुए पाण्डु कुमार नकुल को आच्छादित करके आकाश में छा जाते थे।

       राजन! मेघों द्वारा ढक जाने पर सूर्य और चन्द्रमा दिखाई नहीं देते, उसी प्रकार बाण निर्मित भवन में प्रविष्ट हुए उन दोनों वीरों पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ती थी। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए कर्ण ने रणभूमि में अत्यन्त भयंकर स्वरूप प्रकट करके चारों ओर से बाणों की वर्षा द्वारा पाण्डुपुत्र नकुल को ढक दिया। महाराज! सूतपुत्र के द्वारा अत्यन्त आच्छन्न कर दिये जाने पर भी बादलों से ढके हुए सूर्य के समान नकुल ने अपने मन में तनिक भी व्यथा का अनुभव नहीं किया। मान्यवर! तत्पश्चात सूतपुत्र ने बड़े जोर से हँसकर पुनः समरांगण में बाणों के जाल बिछा दिये। उसने सैंकड़ों और हजारों बाण चलाये। उस महामनस्वी वीर के गिरते हुए उत्तम बाणों से घिर जाने के कारण वहाँ सब कुछ एक मात्र अन्धकार में निमग्न हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे बादलों की घोर घटा घिर आने पर सब ओर अँधेरा छा जाता है। महाराज! तदनन्तर हँसते हुए से कर्ण ने महामना नकुल का धनुष काटकर उनके सारथि को रथ की बैठक से मार गिराया। भारत! फिर चार तीखे बाणों से उनके चारों घोड़ों को भी तुरंत ही यमराज के घर भेज दिया। मान्यवर! इसके बाद उसने अपने बाणों द्वारा नकुल के उस दिव्य रथ को तिल-तिल करके काट दिया और पताका, चक्ररक्षकों, गदा एवं खड्ग को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही सौ चन्द्राकार चिह्नों से सुशोभित उनकी ढाल तथा अन्य सब उपकरणों को भी उसने नष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)

      प्रजापालक नरेश! घोड़े, रथ और कवच के नष्ट हो जाने पर नकुल तुरंत उस रथ से उतर कर हाथ में परिघ लिये खड़े हो गये। राजन! उनके उठे हुए उस महाभयंकर परिघ को सूतपुत्र ने अत्यन्त तीखे तथा दुष्कर कार्य को सिद्ध करने वाले बाणों द्वारा काट डाला। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से हीन देखकर कर्ण ने झुकी हुई गाँठ वाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा और भी घायल कर दिया; परंतु उन्हें घातक पीड़ा नहीं दी। अत्यन्त बलवान तथा अस्त्रविद्या के विद्वान कर्ण के द्वारा समरांगण में आहत हो सहसा नकुल भाग चले। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। भारत! राधापुत्र कर्ण ने बारंबार हँसते हुए उनका पीछा करके उनके गले में प्रत्यञ्चा सहित अपना धनुष डाल दिया। राजन! कण्ठ में पड़े हुए उस महाधनुष से युक्त नकुल ऐसी शोभा पाने लगे, मानो आकाश में चन्द्रमा पर घेरा पड़ गया हो अथवा कोई श्याम मेघ इन्द्रधनुष से सुशोभित हो रहा हो। उस समय कर्ण ने नकुल से कहा- ‘पाण्डु कुमार! तुमने व्यर्थ ही बढ़-बढ़कर बातें बनायीं थीं। अब इस समय बारंबार मेरे बाणों की मार खाकर पुनः उसी हर्ष के साथ तुम वैसी ही बातें करो तो सही। बलवान कौरव-योद्धाओं के साथ आज से युद्ध न करना। तात! जो तुम्हारे समान हों, उन्हीं के साथ युद्ध किया करो। माद्री कुमार! लज्जित न होओ। इच्छा हो तो घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों, वहीं भाग जाओ। ‘महाराज! ऐसा कहकर उस समय कर्ण ने नकुल को छोड़ दिया। राजन! यद्यपि नकुल वध के योग्य अवस्था में आ पहुँचे थे, तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन को याद करके धर्मज्ञ वीर कर्ण ने उस समय उन्हें मारा नहीं, जीवित छोड़ दिया।

       नरेश्वा! धनुर्धर सूतपुत्र के छोड़ देने पर पाण्डु कुमार नकुल लजाते हुए से वहाँ से युधिष्ठिर के रथ के पास चले गये। सूतपुत्र के द्वारा सताये हुए नकुल दुःख से संतप्त हो घड़े में बंद सर्प के समान दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए युधिष्ठिर के रथ पर चढ़ गये। इस प्रकार नकुल को पराजित करके कर्ण भी चन्द्रमा के समान श्वेत रंग वाले घोड़ों और ऊँची पताकाओं से युक्त रथ के द्वारा तुरंत ही पांचालों की ओर चला गया।

     प्रजानाथ! कौरव-सेनापति कर्ण को पांचाल रथियों की ओर जाते देख पाण्डव-सैनिकों में महान कोलाहल मच गया। महाराज! दोपहर होते-होते शक्तिशाली सूत नन्दन कर्ण ने चक्र के समान चारों ओर विचरण करते हुए वहाँ पाण्डव-सैनिकों का महान संहार मचा दिया। माननीय नरेश! उस समय हम लोगों ने कितने ही रथियों को ऐसी अवस्था में देखा कि उनके रथ के पहिये टूट गये हैं, ध्वजा, पताकाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी हैं, घोड़े और सारथि मारे गये हैं और उन रथों के धुरे भी खण्डित हो गये हैं। उस अवस्था में समूह-के-समूह पांचाल महारथी हमें भागते दिखाई दिये। बहुत से मतवाले हाथी वहाँ बड़ी घबराहट में पड़कर इधर-उधर चक्कर काट रहे थे, मानो किसी बड़े भारी जंगल में दावानल से उनके सारे अंग झुलस गये हों। कितने ही हाथियों के कुम्भ स्थल फट गये थे और वे खून से भीग गये थे। कितनों की सूँड़े कट गई थीं, कितनों के कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे, बहुतों की पूँछें कट गई थी और कितने ही हाथी महामना कर्ण की मार खाकर खण्डित हुए मेघों के समान पृथ्वी पर गिर गये थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 61-78 का हिन्दी अनुवाद)

      दूसरे बहुत से गजराज कर्ण के नाराचों, शरों और तोमरों से संत्रस्त हो जैसे पतंग आग में कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार कर्ण के सम्मुख चले जाते थे। अन्य बहुत से बड़े-बड़े हाथी झरने बहाने वाले पर्वत के समान अपने अंगों से रक्त की धारा बहाते और आर्तनाद करते दिखाई देते थे। कितने ही घोड़ों के उनकी छाती को छिपाने वाले कवच कटकर गिर गये थे, बालबन्ध छिन्न-भिन्न हो गये थे, सोने, चाँदी और कांस्य के आभूषण नष्ट हो गये थे, दूसरे साज-बाज भी चौपट हो गये थे, उनके मुखों से लगाम भी निकल गये थे, चँवर, झूल और तरकस धराशायी हो गये थे तथा संग्राम भूमि में शोभा पाने वाले उनके शूरवीर सवार भी मारे जा चुके थे। ऐसी दशा में रणभूमि में भ्रान्त होकर भटकते हुए बहुत से उत्तम घोड़ों को हमने देखा था। भारत! कवच और पगड़ी धारण करने वाले कितने ही घुड़सवारों को हमने प्रास, खड्ग और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों से रहित होकर मारा गया देखा। कितने ही कर्ण के बाणों की मार खाते हुए थरथर काँप रहे थे और बहुत से अपने शरीर के विभिन्न अवयवों से रहित हो यत्र-तत्र मरे पड़े थे। वेगशाली घोड़ों से जुते हुए कितने ही सुवर्ण भूषित रथ सारथि और रथियों के मारे जाने से वेगपूर्वक दौड़ते दिखायी देते थे। भरतनन्दन! कितने ही रथों के धुरे और कूबर टूट गये थे, पहिये टूक-टूक हो गये थे, पताका और ध्वज खण्डित हो गये थे तथा ईषादण्ड और बन्धुरों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे।

      प्रजानाथ! सूतपुत्र के तीखे बाणों से हताहत होकर बहुतेरे रथी वहाँ इधर-उधर भागते देखे गये। कितने ही रथी शस्त्रहीन होकर तथा दूसरे बहुत से सशस्त्र रहकर ही मारे गये। नक्षत्र समूहो के चिह्न वाले कवचों से आच्छादित, उत्तम घंटों से सुशोभित तथा अनेक रंग की विचित्र ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत हाथियों को हमने चारों ओर भागते देखा था। हमने यह भी देखा के कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा योद्धाओं के मस्तक, भुजाएँ और जाँघें कट-कटकर चारों ओर गिर रही हैं। कर्ण के बाणों से आहत हो तीखे बाणों से युद्ध करते हुए योद्धाओं में वहाँ अत्यन्त भयंकर और महान संग्राम मच गया था। समरांगण में सृंजयों पर कर्ण के बाणों की मार पड़ रही थी, तो भी पतंग जैसे अग्नि पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार वे कर्ण के ही सम्मुख बढ़ते जा रहे थे। महारथी कर्ण प्रलय काल के प्रचण्ड अग्नि के समान जहाँ-तहाँ पाण्डव-सेनाओं को दग्ध कर रहा था। उस समय क्षत्रिय लोग उसे छोड़कर दूर हट जाते थे पांचालों के जो वीर महारथी मरने से बच गये थे, उन्हें भागते देख तेजस्वी वीर कर्ण पीछे से उन पर बाणों की वर्षा करता हुआ उनकी ओर दौड़ा। उन योद्धाओं के कवच और ध्वज छिन्न-भिन्न हो गये थे। जैसे मध्यान्ह-काल का सूर्य सम्पूर्ण प्राणियों को अपनी किरणों द्वारा तपाता है, उसी प्रकार महाबली सूतपुत्र अपने बाणों से उन शत्रु-सैनिकों को संतप्त करने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्ण पर्व में कर्ण का युद्ध विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

कर्ण पर्व

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“युयुत्सु और उलूक का युद्ध, युयुत्सु का पलायन, शतनीक और धृतराष्ट्र पुत्र श्रुतकर्मा का तथा सुतसोम और शकुनि का घोर युद्ध एवं शकुनि द्वारा पाण्डव सेना का विनाश”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! दूसरी ओर युयुत्सु आपके पुत्र की विशाल सेना को खदेड़ रहा था। यह देख उलूक तुरंत वहाँ आ धमका और युयुत्सु से बोला,

      उलूक बोला ;- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह'। राजन! तब युयुत्सु ने तीखी धारवाले बाण से महाबली उलूक को उसी प्रकार पीट दिया, जैसे इन्द्र पर्वत पर वज्र का प्रहार करते हैं। इससे उलूक को बड़ा क्रोध हुआ। उसने युद्धस्थल में एक क्षुरप्र के द्वारा आपके पुत्र का धनुष काटकर उस पर कर्णी नामक बाण का प्रकार किया। युयुत्सु ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर क्रोध में आँखें लाल करके दूसरा अत्यन्त वेगशाली एवं विशाल धनुष हाथ में लिया। भरतश्रेष्ठ! उसने शकुनि पुत्र उलूक को साठ बाणों से बेध दिया और तीन बाणों से उसके सिर को पीड़ित किया। तत्पश्चात उसे और भी घायल कर दिया। तब उलूक ने संग्राम भूमि में कुपित हो स्वर्णभूषित बीस बाणों से युयुत्सु को घायल करके उनके सुवर्णमय ध्वज को भी काट डाला। राजन! ध्वज का दण्ड कट जाने पर युयुत्सु का वह विशाल कान्चन ध्वज छिन्न-भिन्न हो उसके सामने ही गिर पड़ा। अपने ध्वज का यह विध्वंस देखकर युयुत्सु क्रोध से मुर्छित-सा हो गया और उसने पाँच बाणों से उलूक की छाती भेद डाली।

    माननीय भरतभूषण! उलूक ने तेल से साफ किये हुए भल्ल के द्वारा युयुत्सु के सारथि का मस्तक काट डाला। उस समय युयुत्सु के सारथि का वह कटा हुआ मस्तक पृथ्वी पर उसी भाँति गिरा, मानो आकाश से भूतल पर कोई विचित्र तारा टूट पड़ा हो। ततपश्चात उलूक ने युयुत्सु के चारों घोड़ों को भी मार डाला और पाँच बाणों से उसे भी घायल कर दिया। उस बलवान वीर के द्वारा अत्यन्त घायल हो युयुत्सु को पराजित करके उलूक तुरंत ही पांचालों और सृंजयों की ओर चला गया और उन्हें तीखे बाणों से मारने लगा।

      राजन! दूसरी ओर आपके पुत्र श्रुतकर्मा ने बिना किसी घबराहट के आधे निमेष में ही शतानीक के रथ को घोड़ों और सारथि से शून्य कर दिया। मान्यवर! महारथी शतानीक ने कुपित होकर अपने अश्वहीन रथ पर खड़े रहकर ही आपके पुत्र के ऊपर गदा का प्रहार किया। भारत! वह गदा तुरंत ही श्रुतकर्मा के रथ, घोड़ों और सारथि को भस्म करके पृथ्वी को विदीर्ण करती हुई-सी गिर पड़ी। कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले वे दोनों वीर रथहीन हो एक दूसरे को देखते हुए युद्धस्थल से हट गये। आपका पुत्र श्रुतकर्मा घबरा गया। वह विवित्सु के रथ पर जा चढ़ा और शतनीक भी तुरंत ही प्रतिविन्ध्य के रथ पर चला गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)

      दूसरी ओर शकुनि अत्यन्त कुपित हो अपने तीखे बाणों से सुतसोम को घायल करके भी उसे विचलित न कर सका। ठीक उसी तरह, जैसे जल का प्रवाह पर्वत को नहीं हिला सकता। भरतनन्दन! सुतसोम ने अपने पिता के अत्यन्त बैरी शकुनि को सामने देखकर उसे कई हजार बाणों से आच्छादित कर दिया। परंतु शकुनि ने तुरंत ही दूसरे बाणों द्वारा सुतसोम के बाणों को काट डाला। वह शीघ्रता पूर्वक अस्त्र चलाने वाला, विचित्र युद्ध में कुशल और युद्धस्थल में विजय श्री से सुशोभित होने वाला था। उसने समरांगण में अपने तीखे बाणों से सुतसोम के बाणों का निवारण करके अत्यन्त कुपित हो तीन बाणों द्वारा सुतसोम को भी घायल कर दिया। महाराज! आपके साले ने सुतसोम के घोड़ों को तथा ध्वज और सारथि को भी अपने बाणों से तिल-तिल करके काट डाला; इससे सब लोग हर्ष सूचक कोलाहल करने लगे।

      मान्यवर! घोड़े, रथ और ध्वज के नष्ट हो जाने पर धनुर्धर सुतसोम अपने हाथ में श्रेष्ठ धनुष लिये रथ से उतर कर धरती पर खड़ा हो गया। फिर उसने शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले बहुत से बाण छोड़े। उन बाणों द्वारा समरभूमि में उसने आपके साले के रथ को ढक दिया। उसके बाण समूह टिड्डी दलों के समान जान पड़ते थे। उन्हें अपने रथ के समीप देखकर भी महारथी सुबल पुत्र शकुनि के मन में तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उस महायशस्वी वीर ने अपने बाण समूहों द्वारा सुतसोम के सारे बाणों को पूर्णतया मथ डाला। सुतसोम जो वहाँ पैदल होकर भी रथ पर बैठे हुए शकुनि के साथ युद्ध कर रहा था। उसके इस अविश्वसनीय और अद्भुत कर्म को देखकर वहाँ खड़े हुए समस्त योद्धा तथा आकाश में स्थित हुए सिद्ध गण भी बहुत संतुष्ट हुए। राजन! उस समय शकुनि ने अत्यन्त वेगाशाली और झुकी हुई गाँठ वाले तीखे भल्लों द्वारा सुतसोम के धनुष, तरकस तथा अन्य सब उपकरणों को भी नष्ट कर दिया। रथ तो नष्ट हो ही चुका था, जब धनुष भी कट गया, तब सुतसोम ने वैदूर्यमणि तथा नील कमल के समान श्याम रंग वाले, हाथी के दाँत की बनी हुई मूठ से युक्त खड्ग को ऊपर उठाकर बड़े जोर से गर्जना की। बुद्धिमान सुतसोम के उस निर्मल आकाश के समान कान्ति वाले खड्ग को घुमाया जाता देख शकुनि ने उसे अपने लिए कालदण्ड के समान माना।

     महाराज! सुतसोम शिक्षा और बल दोनों से सम्पन्न था, वह खड्ग लेकर सहसा उसके चौदह। मण्डल (पैंतरे) दिखाता हुआ रणभूमि में सब ओर विचरने लगा। उसने युद्धस्थल में भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आबिद्ध, आप्लुत, प्लुत, सूत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गतियों को दिखाया तब पराक्रमी सुबल पुत्र ने सुतसोम पर बहुत से बाण चलाये। परंतु उसने अपने उत्तम खड्ग से निकट आते ही उन सब बाणों को काट गिराया। महाराज! इससे शत्रुओं का संहार करने वाले सुबल पुत्र शकुनि को बड़ा क्रोध हुआ। उसने सुतसोम पर विषधर सर्पों के समान बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु गरुड़ के तुल्य पराक्रमी सुतसोम ने अपने शिक्षा और बल के अनुसार युद्ध में फुर्ती दिखाते हुए खड्ग से उन सब बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। राजन! सुतसोम जब अपनी चमकीली तलवार को मण्डलाकार घुमा रहा था, उसी समय शकुनि ने तीखे क्षुरप्र से उनके टुकड़े कर दिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 37-43 का हिन्दी अनुवाद)

      वह महान खड्ग कटकर सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। भारत! सुन्दर मूठवाले उस खड्ग का आधा भाग सुतसोम के हाथ में ही रह गया। अपने उस खड्ग को कटा हुआ जान महारथी सुतसोम ने छः पग ऊँचे उछलकर उसके शेष भाग को ही शकुनि पर दे मारा। वह स्वर्ण और हीरे से विभूषित कटा हुआ खड्ग रणभूमि में महामना शकुनि के धनुष को प्रत्यञ्चा सहित काटकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात सुतसोम श्रुतकीर्ति के विशाल रथ पर चढ़ गया। उधर शकुनि भी दूसरा अत्यन्त दुर्जय एवं भयंकर धनुष लेकर बहुत से शत्रुओं का संहार करता हुआ पाण्डव-सेना की ओर चल दिया। प्रजानाथ! सुबल पुत्र शकुनि को समरभूमि में निर्भय से विचरते देख पाण्डव-दल में महान सिंहनाद होने लगा। महामना शकुनि ने घमंड में भरे हुए उन शस्त्र सम्पन्न महान सैनिको को भगा दिया। यह सब हमने अपनी आँखों से देखा। राजन! जिस प्रकार देवराज इन्द्र ने दैत्यों की सेना को कुचल दिया था, उसी प्रकार सुबल पुत्र शकुनि ने पाण्डव-सेना का विनाश कर डाला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में सुतसोम और शकुनि का युद्ध विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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