सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का संशप्तकों तथा अश्वत्थामा के साथ अद्भुत युद्ध”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! संशप्तकों के साथ अर्जुन का तथा अन्य पाण्डवों के साथ दूसरे-दूसरे राजाओं का किस प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ। सूत! अश्वत्थामा और अर्जुन का जो युद्ध हुआ था तथा अन्य पाण्डवों के साथ अन्यान्य नरेशों का जैसा संग्राम हुआ था, उसका मुझसे वर्णन करो।
संजय ने कहा ;- राजन! कौरव-वीरों का शत्रुओं के साथ देह, पाप और प्राणों का नाश करने वाला संग्राम हुआ था, यह बता रहा हूँ। आप मुझसे सारी बातें सुनिये। शत्रुनाशक अर्जुन ने समुद्र के समान अपार संशप्तक-सेना में प्रवेश करके उसे उसी प्रकार क्षुब्ध कर डाला, जैसे प्रचण्ड वायु सागर में ज्वार उठा देती है। धनंजय ने अपने तीखे भल्लों से वीरों के सुन्दर नेत्र, भौंह और दाँतों से सुशोभित, पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले मस्तकों को काट-काट कर तुरंत ही वहाँ की धरती को पाट दिया, मानों वहाँ बिना नाल के कमल बिछा दिये हों। अर्जुन ने समरभूमि में अपने क्षुरों द्वारा शत्रुओं की उन भुजाओं को भी काट डाला, जो पाँच मुख वाले सर्पों के समान दिखाई देती थी, जो गोल, लंबी, पुष्ट तथा अगुरु एवं चन्दन से चर्चित थीं और जिनमें आयुध एवं दस्ताने भी मौजूद थे। पाण्डुपुत्र धनंजय ने शत्रुओं के रथों में जुते हुए भारवाही घोड़ों, सारथियों, ध्वजों, बाणों और रत्नभूषण भूषित हाथों को बार-बार काट डाला।
राजन! अर्जुन ने युद्धस्थल में कई हजार बाण मारकर रथों, हाथियों, घोड़ों और उन सबके सवारों को भी यमलोक पहुँचा दिया। उस समय संशप्तक वीर अत्यन्त रोष में भरकर मैथुन की इच्छा वाली गाय के लिए लड़ने वाले मदमत्त साँड़ों के समान गर्जन एवं हुंकार करते हुए कुपित अर्जुन की ओर टूट पड़े और जैसे साँड़ एक दूसरे को सींगों से मारते हैं, उसी प्रकार वे अपने ऊपर प्रहार करते हुए अर्जुन को बाणों द्वारा चोट पहुँचाने लगे। अर्जुन और संशप्तकों का वह घोर युद्ध त्रैलोक्य-विजय के लिए वज्रधारी इन्द्र के साथ घटित हुए दैत्यों के संग्राम के समान रोंगटे खड़े कर देने वाला था। अर्जुन ने सब ओर से शत्रुओं के अस्त्रों का अपने अस्त्रों द्वारा निवारण कर उन्हें तुरंत ही अनेक बाणों से घायल करके उन सबके प्राण हर लिये। अर्जुन ने संशप्तकों के रथ के त्रिवेणु, चक और धुरों को छिन्न-भिन्न कर दिया। योद्धाओं, अश्वों तथा सारथियों को मार डाला। आयुधें और तरकसों का विध्वंस कर डाला। ध्वजाओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। जोत और लगाम काट डाले। रक्षा के लिए लगाये गये चर्ममय आवरण और कूबर नष्ट कर दिये। रथ तल्प और जूए तोड़ दिये तथा रथ की बैठक और धुरों को जोड़ने वाले काष्ठ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जैसे हवा महान मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार विजयशील अर्जुन ने रथों के खण्ड-खण्ड करके सबको आश्चर्य में डालते हुए अकेले ही सहस्रों महारथियों समान दर्शनीय पराक्रम किया, जो शत्रुओं का भय बढ़ाने वाला था।
सिद्धों तथा देवर्षियों के समुदायों एवं चारणों ने भी अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं, आकाश से श्रीकृष्ण और अर्जुन के मस्तक पर फूलों की वर्षा होने लगी तथा इस प्रकार आकाशवाणी हुई- 'जो सदा चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि की दीप्ति, वायु का बल और सूर्य का तेज धारण करते हैं, वे ही ये दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। एक ही रथ पर बैठे हुए ये दोनों वीर ब्रह्मा तथा भगवान शंकर के समान सर्वथा अजेय हैं। ये ही सम्पूर्ण भूतों में सर्वश्रेष्ठ वीर नर और नारायण हैं।'
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
भरतनन्दन! यह महान आश्चर्य की बात देख और सुनकर अश्वत्थामा ने सावधान हो रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन पर धावा किया। तदनन्तर शत्रुनाशक बाणों का प्रहार करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन को बाण युक्त हाथ से बुलाकर अश्वत्थामा ने हँसते हुए कहा- 'वीर! यदि तुम मुझे यहाँ आया हुआ पूजनीय अतिथि मानो सब प्रकार से आज युद्ध के द्वारा मेरा आतिथ्य सत्कार करो'। आचार्य पुत्र के द्वारा इस प्रकार युद्ध की इच्छा से बुलाये जाने पर अर्जुन ने अपना अहोभाग्य माना और भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'माधव! एक ओर तो मुझे संशप्तकों का वध करना है, दूसरी ओर द्रोणकुमार अश्वत्थामा युद्ध के लिए मेरा आह्नान कर रहा है। अतः यहाँ मेरे लिए जो पहले कर्त्तव्य प्राप्त हो? उसे मुझे बताइये। यदि आप ठीक समझें तो पहले उठकर अश्वत्थामा को ही आतिथ्य ग्रहण करने का अवसर दिया जाये'। अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने उन्हें विजयशील रथ के द्वारा द्रोणकुमार के निकट पहुँचा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे वैदिक विधि से आवाहित इन्द्र देवता को वायुदेव यज्ञ में पहुँचा देते हैं।
तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने एकाग्रचित्त द्रोणकुमार को सम्बोधित करके कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘अश्वत्थामा! स्थिर होकर शीघ्रता पूर्वक प्रहार करो और अपने ऊपर किये गये प्रहार को सहन करो। ‘क्योंकि स्वामी के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करने वाले पुरुषों के लिए अपने रक्षक के अन्न को सफल करने का यही अवसर आया है, ब्राह्मणों का विवाद सूक्ष्म (बुद्धि के द्वारा साध्य) होता है; परंतु क्षत्रियों की जय-पराजय स्थूल अस्त्रों द्वारा सम्पन्न होती हैं। 'तुम मोहवश अर्जुन से जिस दिव्य सत्कार की प्रार्थना कर रहे हो, उसे पाने की इच्छा से आज तुम स्थिर होकर पाण्डुपुत्र धनंजय के साथ युद्ध करो।'
भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर द्विजश्रेष्ठ अश्वत्थामा ने ‘बहुत अच्छा ‘कहकर केशव को साठ और अर्जुन को तीन बाणों से घायल कर दिया तब अर्जुन ने अत्यन्त कुपित होकर तीन बाणों से अश्वत्थामा का धनुष काट दिया; परंतु द्रोणकुमार ने उससे भी भयंकर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया। उसने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर अर्जुन और श्रीकृष्ण को बींध डाला। श्रीकृष्ण को तीन सौ और अर्जुन को एक हजार बाण मारे। तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने प्रयत्नपूर्वक अर्जुन को युद्धस्थल में स्तम्भित करके उनके ऊपर हजारों, लाखों और अरबों बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। मान्यवर! उस समय वेदवादी अश्वत्थामा ने तरकस, धनुष, प्रत्यंचा, बाँह, हाथ, छाती, मुख, नाक, आँख, कान, सिर, भिन्न-भिन्न अंग, रोम, कवच, रथ और ध्वजों से भी बाण निकल रहे थे। इस प्रकार बाणों के महान समुदाय से श्रीकृष्ण और अर्जुन को घायल करके आनन्दित हुआ द्रोणकुमार महान मेघों के गम्भीर घोष के समान गर्जना करने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 37-41 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! अश्वत्थामा के धनुष से छूटकर सब ओर गिरने वाले उन बाणों द्वारा रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ढक गये। तत्पश्चात प्रतापी भरद्वाज कुल नन्दन अश्वत्थामा ने सैंकड़ों तीखे बाणों से रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन दानों को निश्चेष्ट कर दिया। चराचर की रक्षा करने वाले उन दोनों महापुरुषों को बाणों द्वारा आच्छादित देख समसत स्थावर-जंगम जगत में हाहाकार मच गया। सिद्ध और चारणों के समुदाय सब ओर से वहाँ आ पहुँचे और बोले-आज तीनों लोकों का मंगल हो। राजन! मैंने इससे पहले अश्वत्थामा का वैसा पराक्रम नहीं देखा था, जैसा कि रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित करते समय प्रकट हुआ था। नरेश्वर! रणभूमि में द्रोणकुमार के धनुष की टंकार बड़े-बड़े रथियों को भयभीत करने वाली थी। दहाड़ते हुए सिंह के समान उसके शब्द को मैंने बहुत बार सुना था। युद्ध में विचरते हुए अश्वत्थामा के धनुष की प्रत्यंचा बायें-दायें बाण छोड़ते समय बादल में बिजली के समान चमकती दिखायी देती थी। शीघ्रता करने और दृढ़ता पूर्वक हाथ चलाने वाले पाण्डुपुत्र धनंजय उस समय भारी मोह में पड़कर केवल देखते रह गये थे। उन्हें युद्ध में ऐसा मालूम होता था कि अश्वत्थामा ने मेरा पराक्रम हर लिया है। राजन! उस समय समरांगण में वैसा पराक्रम करते हुए द्रोणकुमार अश्वत्थामा का शरीर ऐसा डरावना हो गया था कि उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। पिनाकपाणि भगवान रुद्र का जैसा रूप दिखाई देता है, वैसा ही उसका भी था।
प्रजानाथ! जब वहाँ द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्ती कुमार का पराक्रम घटने लगा, तब श्रीकृष्ण को बड़ा रोष हुआ। राजन! वे क्रोध पूर्वक लंबी साँस खींचते हुए संग्राम भूमि में अश्वत्थामा की ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उसे अपनी दृष्टि द्वारा दग्ध कर देंगे। अर्जुन की ओर भी वे बारंबार दृष्टिपात करने लगे। फिर कुपित हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रेमपूर्वक कहा।
श्रीभगवान बोले ;- पार्थ! भरतनन्दन! मैं इस युद्ध में तुम्हारे अंदर यह अत्यंत अद्भुत परिवर्तन देख रहा हूँ कि आज द्रोणकुमार रणभूमि में तुमसे आगे बढ़ा जा रहा है। क्या तुम्हारे हाथ में गाण्डीव धनुष है? या तुमारी मुट्ठी ढीली पड़ कई है? क्या तुम्हारी दोनों भुजाओं में पहले के समान ही बल और पराक्रम है? क्योंकि इस समय संग्राम में द्रोणपुत्र को में तुमसे बढ़ा-चढ़ा देख रहा हूँ। भरतश्रेष्ठ! यह मेरे गुरु का पुत्र है, ऐसा समझकर इसे सम्मान देते हुए तुम इसकी उपेक्षा न करो। पार्थ! यह उपेक्षा का अवसर नहीं है। (भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन तथा) अश्वत्थामा के उस सिंहनाद को सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'माधव! देखिये तो सही गुरुपुत्र अश्वत्थामा मेरे प्रति कैसी दुष्टता कर रहा है? ‘यह अपने बाणों के घेरे में डालकर हम दोनों को मारा गया समझता है। मैं अभी अपनी शिक्षा और बल से इसके इस मनोरथ को नष्ट किये देता हूँ।'
ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ अर्जुन ने अश्वत्थामा के चलाये हुए उन बाणों से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े करके उन सबको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे हवा कुहरे को उड़ा देती है। तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन ने पुनः घोड़े, सारथि, रथ, हाथी, पैदल समूह और ध्वजों सहित संशप्तक-सैनिकों को अपने भयंकर बाणों द्वारा बींध डाला। उस समय वहाँ जो-जो मनुष्य जिस-जिस रूप में दिखाई देते थे, वे-वे स्वयं ही अपने आपको बाणों से व्याप्त मानने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 42-51 का हिन्दी अनुवाद)
गाण्डीव धनुष से छूटे हुए नाना प्रकार के बाण रणभूमि में एक कोस से अधिक दूरी पर खड़े हुए हाथियों और मनुष्यों को भी मार डालते थे। जैसे जंगल में कुल्हाड़ों से काटने पर बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ मद की वर्षा करने वाले गजराजों के शुण्डदण्ड भल्लों से कट-कटकर धरती पर गिरने लगे। सूँड़ कटने के पश्चात वे पर्वतों के समान हाथी अपने सवारों सहित उसी प्रकार गिर जाते थे? जैसे वज्रधारी इन्द्र के वज्र से विदीर्ण होकर गिरे हुए पहाड़ों के ढेर लगे हों। धनंजय अपने बाणों द्वारा सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए, रणदुर्मद रथियों की सवारी में आये हुए एवं गन्धर्व नगर के समान आकार वाले सुसज्जित रथों के टुकड़े-टुकड़े करते हुए शत्रुओं पर बाण बरसाते और सजे-सजाये घुड़सवारों एवं पैदलों को भी मार गिराते थे।
अर्जुन रूपी प्रलयकालिक सूर्य ने जिसका शोषण करना कठिन था? ऐसे संशप्तक-सैन्य रूपी महासागर को अपनी बाणमयी प्रचण्ड किरणों से सोख लिया। जैसे वज्रधारी इन्द्र ने पर्वतों को विदीर्ण किया था, उसी प्रकार अर्जुन ने महान वेगशाली वज्रतुल्य नाराचों द्वारा अश्वत्थामा रूपी महान शैल को पुनः वेधना आरम्भ किया। तब क्रोध में भरा हुआ आचार्य पुत्र सारथि श्रीकृष्ण सहित अर्जुन के साथ युद्ध करने की इच्छा से बाणों द्वारा उनके सामने उपस्थित हुआ; परन्तु कुन्ती कुमार अर्जुन ने उसके सभी बाण काट गिराये। तदनन्तर अत्यन्त कुपित हुआ अश्वत्थामा पाण्डुपुत्र अर्जुन को उसी प्रकार अपने अस्त्र अर्पित करने लगा, जैसे कोई गृहस्थ योग्य अतिथि को अपना सारा घर सौंप देता है। तब पाण्डुपुत्र अर्जुन संशप्तकों को छोड़कर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के सामने आये। ठीक उसी तरह, जैसे दाता पंक्ति में बैठने के अयोग्य ब्राह्मणों को छोड़कर याचना करने वाले पंक्ति पावन ब्राह्मण की ओर जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें अश्वत्थामा और अर्जुनका संवादविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर आकाश में नक्षत्र-मण्डल के निकट परस्पर युद्ध करने वाले शुक्राचार्य और बृहस्पति के समान वहाँ रणभूमि में श्रीकृष्ण के निकट शुक्र और बृहस्पति के तुल्य तेजस्वी अश्वत्थामा और अर्जुन का युद्ध होने लगा। जैसे वक्र या अतिचार गति से चलने वाले दो ग्रह सम्पूर्ण जगत के लिए त्रास उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर अपनी बाणमयी प्रज्वलित किरणों द्वारा एक दूसरे को समताप देने लगे। तत्पश्चात अर्जुन ने एक नाराच से अश्वत्थामा की दानों भौहों के मध्य में गहरा आघात पहुँचाया। ललाट में धंसे हुए उस बाण से अश्वत्थामा ऊपर की ओर उठी हुई किरणों वाले सूर्य के समान सुशोभित होने लगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने भी श्रीकृष्ण और अर्जुन को अपने सैंकड़ों बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उस समय वे दोनों अपनी किरणों का प्रसार करने वाले प्रलय काल के दो सूर्यों के समान प्रतीत होते थे। भगवान श्रीकृष्ण के घायल हेने पर अर्जुन ने एक ऐसे अस्त्र का प्रयोग किया, जिसकी धार सब ओर थी। उन्होंने वज्र, अग्नि और यमदण्ड के समान अमोघ, दाहक और प्राणहारी बाणों द्वारा द्रोणकुमार अश्वत्थामा को घायल कर दिया। फिर अत्यन्त भयंकर कर्म करने वाले महातेजस्वी अश्वत्थामा ने भी अच्छी तरह छोड़े हुए अत्यन्त तीव्र वेगवाले बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन के मर्मस्थलों में आघात किया। वे बाण ऐसे थे कि चोट खाकर मौत को भी व्यथा हो सकती थी। अर्जुन ने परिश्रमपूर्वक बाण चलाने वाले द्रोण कुमार के उन बाणों का सुन्दर पंख वाले उनसे दुगुने बाणों द्वारा निवारण करके घोड़े, सारथि और ध्वज सहित उस एक वीर को आच्छादित कर दिया। फिर वे संशप्तक सेना की ओर चल दिये।
कुन्तीकुमार अर्जुन ने उत्तम रीति से छोड़े गये बाणों द्वारा युद्ध में पीठ न दिखाकर सामने खड़े हुए शत्रुओं के धनुष, बाण, तरकस, प्रत्यंचा, हाथ, भुजा, हाथ में रखे हुए शस्त्र, छत्र, अश्व, रथ, ईषादण्ड, वस्त्र, माला, आभूषण, ढाल, सुन्दर कवच, समस्त प्रिय वस्तु तथा मस्तक-इन सबको काट डाला। सुन्दर सजे-सजाये रथ, घोड़े और हाथी खड़े थे और उन पर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने वाले नरवीर बैठे थे; परंतु अर्जुन के चलाये हुए सैंकड़ों बाणों से घायल हो वे सारे वाहन उन नरवीरों के साथ ही धराशायी हो गये। जिनके मुख कमल, सूर्य और पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर, तेजस्वी एवं मनोरम थे तथा मुकुट, माला एवं आभूषणों से प्रकाशित हो रहे थे, ऐसे असंख्य नरमुण्ड भल्ल, अर्द्धचन्द्र तथा क्षरनामक बाणों से कट-कट कर लगातार पृथ्वी पर गिर रहे थे। तत्पश्चात कलिंग, अंग, वंग और निषाद देशों के वीर देवराज इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान विशाल गजराजों पर सवार हो, देव द्रोहियों का दर्प दलन करने वाले प्रचण्ड वीर पाण्डुकुमार अर्जुन पर उन्हें मार डालने की इच्छा से चढ़ आये। कुन्तीकुमार अर्जुन ने उनके हाथी के कवच, चर्म, सूँड, महावत, ध्वजा और पताका-सबको काट डाला। इससे वे वज्र के मारे हुए पर्वतीय शिखरों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े।
उनके नष्ट हो जाने पर किरीटधारी अर्जुन ने प्रभातकाल के सूर्य की कान्ति के समान तेजस्वी बाणों द्वारा गुरुपुत्र अश्वत्थामा को ढक दिया, मानो वायु ने उगते हुए किरणों वाले सूर्य को मेघों की बड़ी घटाओं से आच्छादित कर दिया हो। तब द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने अपने तीखे बाणों द्वारा अर्जुन के बाणों का निवारण करके श्रीकृष्ण और अर्जुन को ढक दिया और आकाश में चन्द्रमा तथा सूर्य को आच्छादित करके गर्जने वाले वर्षा काल के मेघ की भाँति वह गम्भीर गर्जना करने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद)
उसके बाणों से पीड़ित हुए अर्जुन ने आगे बढ़कर सहसा शस्त्रों द्वारा शत्रु के बाणजनित अन्धकार को नष्ट करके उत्तम पंख वाले अपने बाणों द्वारा अश्वत्थामा तथा आपके अन्य समस्त सैनिकों को पुनः घायल कर दिया। रथ पर बैठे हुए सव्यसाची अर्जुन कब तरकस से बाण लेते, कब उन्हें धनुष पर रखते और कब छोड़ते हैं, यह नहीं दिखायी देता था। सब लोग यही देखते थे कि रथियों, हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकों के शरीर उनके बाणों से गुँथे हुए हैं और वे प्राणशून्य हो गये हैं। तब अश्वत्थामा ने बड़ी उतावली के साथ अपने धनुष पर दस उत्तम नाराच रखे और उन सबकों एक के ही समान एक साथ छोड़ दिया। उनमें से पाँच सुन्दर पंख वाले नाराचों ने अर्जुन को बींध डाला और पाँच ने श्रीकृष्ण को क्षत-विक्षत कर दिया। उन बाणों से आहत होकर सम्पूर्ण मनुष्यों में श्रेष्ठ, कुबेर और इन्द्र के समान पराक्रमी वे दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने अंगों से रक्त बहाने लगे। जिसकी विधा पूरी हो चुकी थी, उस अश्वत्थामा के द्वारा इस प्रकार पराभाव को प्राप्त हुए उन दोनों को अन्य सब लोगों ने यही समझा कि ‘वे रणभूमि में मारे गये।'
तब दशार्हवंश के स्वामी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पार्थ! तुम क्यों प्रमाद कर रहे हो? इस योद्धा को मार डालो। इसकी उपेक्षा की जायगी तो यह और भी नये-नये अपराध करेगा और जिसकी चिकित्सा न की गई हो, उस रोग के समान अधिक कष्टदायक हो जायेगा‘। ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही करूँगा ‘श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर सतत सावधान रहने वाले अर्जुन अपने बाणों द्वारा प्रयत्न पूर्वक अश्वत्थामा को-उसके चन्दनसार चर्चित श्रेष्ठ भुजाओं, वक्षःस्थल, सिर और अनुपम जाँघों को क्षत-विक्षत करने लगे। क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भेड़ के कान जैसे अग्रभाग वाले बाणों द्वारा युद्ध स्थल में द्रोण पुत्र को विदीर्ण कर डाला। घोड़ों की बागडोर काटकर उन्हें अत्यन्त घायल कर दिया। इससे वे घोड़े अश्वत्थामा को रणभूमि से बहुत दूर भगा ले गये। अश्वत्थामा अर्जुन के बाणों से बहुत पीड़ित हो गया था। जब वायु के समान वेगशाली घोड़े उसे रणभूमि से बहुत दूर हटा ले गये,तब उस बुद्धिमान वीर ने मन-ही-मन विचार करके पुनः लौटकर अर्जुन के साथ युद्ध करने की इच्छा त्याग दी। अंगिरा गोत्रवाले ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ अश्वत्थामा यह जान गया था कि वृष्णिवीर श्रीकृष्ण और अर्जुन की विजय निश्चित है।
मान्यवर! अपने घोड़ों को रोककर थोड़ी देर उनको स्वस्थ कर लेने के बाद द्रोणकुमार अश्वत्थामा रथ, घोड़े और पैदल मनुष्यों से भरी हुई कर्ण की सेना में प्रविष्ट हो गया। जैसे मन्त्र, औषध, चिकित्सा और योग के द्वारा शरीर से रोग दूर हो जाता है, उसी प्रकार जब प्रतिकूल कार्य करने वाला अश्वत्थामा चारों घोड़ों द्वारा रणभूमि से दूर हटा दिया गया, तब वायु से फहराती हुई पताकाओं से युक्त और जलप्रवाह के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन फिर संशप्तकों की ओर चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वत्थामा की पराजय विषयक सत्राहवाँ अध्याय पुरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन के द्वारा हाथियों सहित दण्डधार और दण्ड आदि का वध तथा उनकी सेना का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन! पाण्डव-सेना के उत्तर भाग में दण्डधार के द्वारा मारे जाते हुए रथी, हाथी, घोड़े और पैदलों का आर्तनाद गूँज उठा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अपना रथ लौटाकर गरुड़ और वायु के समान वेग वाले घोड़ों को हाँकते हुए ही अर्जुन से कहा- ‘पार्थ! यह मगध निवासी दण्डधार भी बड़ा पराक्रमी है। इसके पास शत्रुओं को मथ डालने वाला गजराज है। इसे युद्ध की उत्तम शिक्षा मिली है तथा यह बलवान भी है, इन सब विशेषताओं के कारण यह पराक्रम में भगदत्त से तनिक भी कम नहीं है। ‘अतः पहले इसका वध करके तुम पुनः संशप्तकों का संहार करना। ‘इतना कहते-कहते श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दण्डधार के निकट पहुँचा दिया।
मागध वीरों में सर्वश्रेष्ठ दण्डधार अंकुश धारण करके हाथी द्वारा युद्ध करने में अपना सानी नहीं रखते थे। जैसे ग्रहों में केतु ग्रह का वेग असह्य होता है, उसी प्रकार उनका आक्रमण भी शत्रुओं के लिए असहनीय था। जैसे धूमकेतु नामक उत्पात ग्रह सम्पूर्ण भूमण्डल के लिए अनिष्ट कारक होता है, उसी प्रकार उस भयंकर वीर ने वहाँ शत्रुओं की सम्पूर्ण सेना को मथ डाला। उनका हाथी खूब सजाया गया था, वह गजासुर के समान बलशाली, महामेघ के समान गर्जना करने वाला तथा शत्रुओं को रौंद डालने वाला था। उस पर आरूढ़ होकर दण्डधार अपने बाणों से सहस्रों रथों, घोड़ों, मतवाले हाथियों और पैदल मनुष्यों का भी संहार करने लगे। उनका वह हाथी रथों पर पैर रखकर सारथि और घोड़ों सहित उन्हें चूर-चूर कर डालता था। पैदल मनुष्यों को भी पैरों से ही कुचल डालता था। हाथियों को भी दोनों पैरों तथा सूँड से मसल देता था। इस प्रकार वह गजराज कालचक्र के समान शत्रु-सेना का संहार करने लगा। वे अपने बलवान एवं श्रेष्ठ गजराज के क्षरा लोहे के कवच तथा उत्तम आभूषण धारण करने वाले घुड़सवारों को घोड़ों और पैदलों सहित पृथ्वी पर गिराकर कुचलवा देते थे।
उस समय जैसे मोटे नरकुलों के कुचले जाते समय ‘चर-चर ‘की आवाज होती है, उसी प्रकार उन सैनिकों के कुचले जाने पर भी होती थी। तदनन्तर जहाँ धनुष की टंकार और पहियों की घर्घराहट का शब्द गूँज रहा था, मृदंग, भेरी और बहुसंख्यक शंखों की ध्वनि हो रही थी तथा जहाँ रथ, घोड़े और हाथी सहस्रों की संख्या में मरे हुए थे, उस समरांगण में पूर्वोक्त गजराज के समीप अर्जुन अपने उत्तम रथ के द्वारा जा पहुँचे। तब दण्डधार ने अर्जुन को बारह और भगवान श्रीकृष्ण को सोलह उत्तम बाण मारे। फिर तीन-तीन बाणों से उनके घोड़ों को घायल करके वे बारंबार गर्जने और अट्टहास करने लगे। तत्पश्चात अर्जुन ने अपने भल्लों द्वारा प्रत्यञ्चा और बाणों सहित दण्डधार के धनुष तथा सजे-सजाये ध्वज को भी काट गिराया। फिर हाथी के महावतों तथा पादरक्षकों को भी मार डाला। इससे गिरिव्रज के स्वामी दण्डधार अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले, वायु के समान वेगशाली, मदोन्मत्त गजराज के द्वारा अर्जुन और श्रीकृष्ण को अत्यन्त घबराहट में डालने की इच्छा से उसे उन दोनों की ओर बढ़ाया और तोमरों उसने उन दोनों पर प्रहार किया। तब अर्जुन ने हाथी की सूँड़ के समान मोटी दण्डधार की दोनों भुजाओं तथा पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले उनके मस्तक के भी तीन छुरों से एक साथ ही काट डाला। फिर उन्होंने उनके हाथी को सौ बाण मारे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)
उसके सारे शरीर में अर्जुन के सुवर्णभूषित बाण चुभ गये थे। इससे सुवर्णमय कवच धारण करने वाला वह हाथी उसी प्रकार शोभा पाने लगा, जैसे रात्रि में दावानल से जलती हुई औषधियों और वृक्षों से युक्त पर्वत प्रकाशित होता है। वह हाथी वेदना से पीड़ित हो मेघ के समान गर्जना करता, सब ओर विचरता, घूमता और बीच-बीच में लड़खड़ाता हुआ भागने लगा। अधिक घायल हो जाने के कारण वह महावतों के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा; मानो वज्र द्वारा विदीर्ण किया हुआ पर्वत धराशायी हो गया हो।
राजन! रणभूमि में अपने भाई दण्डधार के मारे जाने पर दण्ड श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करने की इच्छा से बर्फ के समान सफेद, सुवर्णमालाधारी तथा हिमालय के शिखर के समान विशालकाय गजराज के द्वारा वहाँ आ पहुँचा। उसने सूर्य की किरणों के समान तीखे तोमरों से श्रीकृष्ण और पाँच से अर्जुन को घायल करके बड़े जोर से गर्जना की। इतने ही में पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उसकी दोनों बाँहैं काट डाली। क्षुर से कटी हुई, सुन्दर बाजूबन्द से विभूषित, चन्दन-चर्चित तथा तोमर सहित वे विशाल भुजाएँ हाथी से एक साथ गिरते समय पर्वत के शिखर से गिरने वाले दो सुन्दर एवं बड़े-बड़े सर्पों के समान विभूषित हुई। तत्पश्चात किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए अर्धचन्द्र से कटकर दण्ड का मस्तक हाथी से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय खून से लथपथ हो गिरता हुआ वह मस्तक अस्ताचल से पश्चिम दिशा की ओर डूबते हुए सूर्य के समान शोभायमान हुआ। इसके बाद अर्जुन ने श्वेत महामेघ के समान सफेद रंग वाले उस हाथी को सूर्य की किरणों के सदृश तेजस्वी उत्तम बाणों द्वारा विदीर्ण कर डाला। फिर तो वह वज्र के मारे हुए हिमालय के शिखर के समान धमाके की आवाज के साथ धराशायी हो गया।
तदनन्तर उसी के समान जो दूसरे-दूसरे गजराज विजय की इच्छा से युद्ध के लिए आगे बढ़े, उन सबकी सव्यसाची अर्जुन ने वैसी ही दशा कर डाली, जैसी कि पूर्वोक्त दोनों हाथियों की कर दी थी। इससे शत्रु की उस विशाल सेना में भगदड़ मच गयी। झुंड-के-झुंड हाथी, रथ, घोड़े और पैदल मनुष्य परस्पर आघात-प्रत्याघात करते हुए युद्धस्थल में चारों ओर से टूट पड़े थे। वे आपस में एक दूसरे की चोट से अत्यन्त घायल हो लड़खड़ाते और बहुत बकझक करते हुए मरकर गिर जाते थे। इसके बाद इन्द्र को घेरकर खड़े हुए देवताओं के समान अपनी ही सेना के लोग अर्जुन को घेरकर इस प्रकार बोले- ‘वीर! जैसे प्रजा मौत से डरती है, उसी प्रकार हम लोग जिससे भयभीत हो रहे थे, उस शत्रु को आपने मार डाला; यह बड़े सौभाग्य की बात है!। 'शत्रुसूदन! यदि आप बलवान शत्रुओं से इस प्रकार पीड़ित हुए इन स्वजनों की भय से रक्षा नहीं करते तो इन शत्रुओं को वैसी ही प्रसन्नता होती, जैसी इस समय इनके मारे जाने पर यहाँ हम लोगों को हो रही है।' इस प्रकार अपने सुहृदों की कही हुई ये बातें बारंबार सुनकर अर्जुन को मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उन लोगों का यथायोग्य आदर-सत्कार करके पुनः संशप्तकगण का वध करने के लिए वहाँ से चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में दण्डधार और दण्ड का वध विषयक अठरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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