सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के दौ सौ एकवें अध्याय व दौ सौ दोवें अध्याय तक (From the 200 chapter and the 202 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)

दौ सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्‍थामा के द्वारा आग्‍नेयास्त्र के प्रयोग से एक अक्षौहिणी पाण्‍डव सेना का संहार; श्रीकृष्‍ण और अर्जुन पर अस्त्र का प्रभाव न होने से चिन्तित हुए अश्वत्‍थामा को व्‍यास जी का शिव और श्रीकृष्‍ण की महिमा बताना”

     संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्‍तर अश्वत्‍थामा के पराक्रम से सेना को भागती हुई देख अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्‍न कुन्‍ती कुमार अर्जुन ने द्रोण पुत्र पर विजय पाने की इच्‍छा से उसे रोका। नरेश्‍वर! श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के द्वारा प्रयत्‍नपूर्वक ठहराये जाने पर भी वे सैनिक वहाँ खड़े न हो सके। अकेले अर्जुन ही सोमकों की टुकड़ियों, मत्‍स्‍यदेशीय योद्धाओं तथा अन्‍य लोगों को साथ लेकर कौरवों का सामना करने के लिये लौटे। सव्‍यसाची अर्जुन सिंह की पूँछ के चिन्‍ह वाली ध्‍वजा से युक्‍त महाधनुर्धर अश्वत्‍थामा के पास तुरंत आकर उसे इस प्रकार बोले। ‘आचार्यपुत्र! तुम में जो शक्ति, जो विज्ञान, जो बल पराक्रम, जो पुरुषार्थ, कौरवों पर जो प्रेम तथा हम लोगों पर तो तुम्‍हारा द्वेष हो, साथ ही तुम में जो तेज और प्रभाव हो, वह सब मुझ पर दिखाओ। द्रोणाचार्य का वध करने वाला वह धृष्टद्युम्न ही तुम्‍हारा सारा घमंड चूर कर देगा। ‘कालाग्नि के समान तेजस्‍वी तथा शत्रुओं के लिये यमराज के समान भयंकर पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न पर तथा श्रीकृष्‍ण सहित मुझ पर भी तुम आक्रमण करो तुम बड़े उदण्‍ड हो रहे हो आज युद्ध में मैं तुम्‍हारा सारा घमंड दूर कर दूँगा’।

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! आचार्य पुत्र अश्वत्‍थामा बलवान्‌ और सम्‍मान के योग्‍य है। उसका अर्जुन पर प्रेम है और वह भी महात्‍मा अर्जुन को प्रिय है। अर्जुन का उसके प्रति ऐसा कठोर वचन पहले कभी नहीं सुना गया। फिर उस दिन कुन्‍ती कुमार अर्जुन ने अपने मित्र के प्रति वैसी कठोर बात क्‍यों कहीं। 

    संजय ने कहा ;– प्रभो! चेदिदेश के युवराज, पौरव वृद्धक्षत्र तथा बाणों के प्रयोग में कुशल मालवराज सुदर्शन के मारे जाने पर, धृष्टद्युम्न, सात्‍यकि और भीमसेन के परास्‍त हो जाने पर अर्जुन के मन में बड़ा कष्‍ट हुआ था। इसके सिवा, युधिष्ठिर के उन व्‍यगं वचनों से उनके मर्मस्‍थल में बड़ी चोट पहँची थी और पहले के दुःखों का स्‍मरण करके भी उनका हदय फट गया था; अतः अधिक खेद के कारण अर्जुन के मन में अभूतपूर्व क्रोध जाग उठा। इसलिये माननीय आचार्य पुत्र अश्वत्‍थामा के प्रति, जो कठोर वचन सुनने के योग्‍य नहीं था, अर्जुन ने कायर मनुष्‍य से कहने योग्‍य अश्‍लील, अप्रिय और कठोर बातें कह डाली।

      नरेश्‍वर! जब अर्जुन ने सारे मर्मस्‍थानों को विदीर्ण कर देने वाली वाणी द्वारा उससे ऐसी कठोर बात कह दी, तब श्रेष्‍ठ महाधनुर्धर अश्वत्‍थामा क्रोध के मारे लंबी साँस लेने लगा। उस समय द्रोण पुत्र को अर्जुन और श्रीकृष्‍ण पर अधिक क्रोध हुआ, उस पराक्रमी वीर ने सावधानी के साथ रथ पर खड़ा हो आचमन करके आग्‍नेयास्त्र हाथ में लिया, जो देवताओं के लिये भी अत्‍यन्‍त दुर्जन था। फिर धूमरहित अग्नि के समान एक तेजस्‍वी बाण को अभिमन्त्रित करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले आचार्यनन्‍दन अश्वत्‍थामा ने सर्वथा क्रोधावेश से युक्‍त हो उसे प्रत्‍यक्ष और परोक्ष शत्रुओं के उद्देश्‍य से चला दिया। फिर तो आकाश में बाणों की भयंकर वर्षा होने लगी और सब ओर फैली हुई आग की लपटें अर्जुन पर ही टूट पड़ी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 19- 38 का हिन्दी अनुवाद)

        आकाश से उल्‍काएँ गिरने लगीं, दिशाओं का प्रकाश लुप्‍त हो गया और उस सेना में सहसा भयानक अन्‍धकार उतर आया। राक्षस और पिशाच परस्‍पर मिलकर जोर-जोर से गर्जना करने लगे, गरम हवा चलने लगी और सूर्य का ताप क्षीण हो गया। कौए सम्‍पूर्ण दिशाओं में काँव-काँव करके भयानक कोलाहल मचाने लगे तथा मेघ रक्‍त की वर्षा करते हुए आकाश में गरजने लगे। पक्षी और गाय आदि पशु भी चीत्‍कार करने लगे उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले शुद्धचित्त साधु पुरुष भी अत्‍यन्‍त अशान्‍त हो उठे। सम्‍पूर्ण महाभूत मानो चक्‍कर काट रहे थे। तीनों लोको के प्राणी ज्‍वरग्रस्‍त के समान संतप्‍त हो उठे थे। पृथ्‍वी पर पड़े रहने वाले नाग भी उस अस्त्र के तेज से संतप्‍त हो भयंकर आग से छुटकारा पाने के लिये फुफकारते हुए ऊँपर उछलने लगे। भारत! जलाशय भी तप गये थे, जिससे दग्‍ध होने वाले जलचर प्राणियों को भी शान्ति नहीं मिल पाती थी। दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्‍वी सब ओर से छोटे बड़े नाना प्रकार के बाणों की वर्षा होने लगी, वे सभी बाण गरूड़ और वायु के समान वेगशाली थे। द्रोण पुत्र के चलाये हुए वज्र के समान वेगशाली बाणों से घायल हुए शत्रुसैनिक आग के जलाये हुए वृक्षों के समान दग्‍ध होकर गिरने लगे। विशालकाय गजराज दग्‍ध हो-होकर मेघ की गर्जना के समान भयंकर चीत्‍कार करते हुए सब ओर धराशायी होने लगे। प्रजानाथ! भयभीत होकर भागे हुए दूसरे बहुत से हाथी सम्‍पूर्ण दिशाओं में उसी प्रकार चक्‍कर काटने लगे, जैसे पहले वन में दावानल से घिर जाने पर वे चारों ओर चक्‍कर लगाते थे। माननीय नरेश! भारत! अश्वसमूह तथा रथवृन्‍द दसानल से दग्‍ध हुए वृक्षों के अग्रभाग के समान दिखायी दे रहे थे और जहाँ तहाँ सहस्रों रथ समूह गिरे पड़े थे। भरतनन्‍दन! जैसे प्रलय कालों में संवर्तक अग्नि सब प्राणियों को जलाकर भस्‍म कर देती है, उसी प्रकार उस आग्‍नेयास्त्र ने पाण्‍डवों की उस भयभीत सेना को युद्ध स्‍थल में जलाना आरम्‍भ कर दिया।

      राजन! उस महासमर में पांडव सेना को दग्‍ध होती देख आपके सैनिक अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो जोर जोर से सिंहनाद करने लगे। भारत! तदनन्‍तर हर्ष से उल्‍लासित और विजय से सुशोभित होने वाले आपके सैनिक नाना प्रकार के सहस्रों बाजे बजाने लगे। नरेश्‍वर! उस महासमर में सब लोग अन्‍धकर से आच्‍छन्‍न हो गये थे। पाण्‍डवों की सारी अक्षौहिणी सेना और सव्‍यसाची अर्जुन भी दिखायी नहीं देते थे। राजन! अमर्ष में भरे हुए द्रोण पुत्र ने जैसे अस्त्र की सृष्टि की थी, वैसा हम लोगो ने पहले न तो कभी देखा था और न सुना ही था। महाराज! उस समय अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र को प्रकट किया; जिसे ब्रह्मा जी ने सम्‍पूर्ण अस्त्रों के विनाश के लिये बनाया है। फिर तो दो ही घड़ी में वह सारा अन्‍धकार दूर हो गया, शीतल वायु बहने लगी ओर सारी दिशाएँ स्‍वच्‍छ हो गयी। वहाँ हम लोगो ने अद्भुत द्श्‍य देखा। पाण्‍डवों की वह सारी अक्षौहिणी उस अस्त्र के तेज से इस प्रकार दग्‍ध एवं नष्‍ट हो गयी थी कि उसे पहचानना असम्‍भव हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 39-56 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्‍तर उस अस्त्र से मुक्‍त हुए महाधनुर्धर वीर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन एक साथ दिखायी दिये, मानो आकाश में चन्‍द्रमा और सूर्य प्रकट हो गये हों। उस समय गाण्‍डीवधारी अर्जुन और भगवान श्रीकृष्‍ण दोनों के शरीर पर आँच नहीं आने पायी थी। पताका, ध्‍वज, अश्व, अनुकर्ष और श्रेष्‍ठ आयुधोंसहित मुक्‍त हुआ उनका वह रथ आपके सैनिकों को भयभीत करता हुआ चमक उठा। तब पाण्‍डव हर्ष से खिल उठे और क्षण भर में शंख तथा भेरियों की ध्‍वनि के साथ उनका आनन्‍दमय कोलाहल गूँज उठा। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के सम्‍बध में उन दोनों ही सेनाओं को यह विश्‍वास हो गया था कि वे मारे गये। फिर उन दोनों को एक साथ वेगपर्वूक निकट आया देख सबको बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन दोनों के शरीर में क्षति नहीं पहाँची थी। वे दोनों वीर आनन्‍दमग्‍न हो अपने उत्तम शंख बजाने लगे। कुन्‍ती के पुत्रों को प्रसन्‍न देखकर आपके पुत्रों के मन में बड़ी व्‍यथा हुई।

      माननीय नरेश! महात्‍मा श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को आग्‍नेयास्त्र से मुक्‍त देख अश्वत्थामा को बड़ा दुःख हुआ। वह दो घड़ी तक इसी चिन्‍ता में डूबा रहा कि ‘यह क्‍या हो गया’। राजेन्‍द्र! चिन्‍ता और शोक में मग्‍न होकर कुछ देर तक विचार करने के पश्‍चात अश्वत्थामा गरम-गरम दीर्घ उच्‍छ्‌वास लेने लगा और मन ही मन उदास हो गया। तत्‍पश्‍चात द्रोणकुमार धनुष त्‍यागकर रथ से कूद पड़ा और ‘धिकार है! धिकार है!! यह सब मिथ्‍या है’ ऐसा कहकर वह रणभूमि से वेगपूर्वक भाग चला। इतने ही में उसे स्निग्ध मेघ के समान श्‍याम कान्तिवाले, वेद और सरस्वती के आवास स्‍थान तथा वेदों का विस्‍तार करने वाले, पापशून्‍य महर्षि व्यास वहाँ दिखायी दिये।

     कुरुकुल के श्रेष्‍ठ पुरुष! महर्षि व्यास को सामने खड़ा देख द्रोणकुमार का गला आँसुओं से भर आया। उसने अत्‍यन्‍त दीनभाव से प्रणाम करके उनसे इस प्रकार पूछा। ‘महर्षे! यह माया है या दैवेच्‍छा। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्‍या है? यह अस्त्र झूठा कैसे हो गया? मुझसे कौन सी गलती हो गयी? ‘इस आग्‍नेय अस्त्र के प्रभाव में कोई उलट फेर तो नहीं हो गया अथवा सम्‍पूर्ण लोकों का पराभव होने वाला है, जिससे ये दोनों कृष्‍ण जीवित बच गये। निश्‍चय ही काल का उल्‍लंघन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। ‘मेरे द्वारा प्रयोग किये हुए इस अस्त्र को असुर, गन्‍धर्व, पिशाच, राक्षस, सर्प, यक्ष, पक्षी और मनुष्‍य किसी तरह भी व्‍यर्थ नहीं कर सकते थे, तो भी यह प्रज्‍वलित अस्त्र केवल एक अक्षौहिणी सेना को जलाकर शान्‍त हो गया। ‘मैनें तो अत्‍यन्‍त भयंकर एवं सर्वसंहारक अस्त्र का प्रयोग किया था; फिर उसने किस कारण से इन मर्त्‍यधर्मा श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का वध नहीं किया। ‘भगवन! महामुने! मैंने जो आपसे यह प्रश्‍न किया है, इसका मुझे यथार्थ उत्‍तर दीजिये। मैं यह सब कुछ ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ।

    व्‍यास जी बोले ;- तू जिसके सम्‍बन्‍घ में आश्‍चर्य के साथ प्रश्‍न कर रहा है, उस महत्‍वपूर्ण विषय को मैं तुझ से बता रहा हूँ। तू अपने मन को एकाग्र करके सब कुछ सुन।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 57-67 का हिन्दी अनुवाद)

       जो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भगवान नारायण हैं, वे ही आदिदेव, जगन्‍नाथ, लोककर्ता और स्‍वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है। वे सम्‍पूर्ण जगत के आदिकारण तथा स्‍वयं आदि अन्‍त से रहित है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने के कारण वे अच्‍युत कहलाते हैं श्रुतियाँ और महर्षिगण उन्‍हीं के तत्त्व का विवेचन करते हैं। अतः उन जगदीश्वर को समस्‍त प्राणी मन से भी जीतने में असमर्थ हैं। वे विश्व विधाता भगवान एक समय किसी विशेष कार्य के लिये धर्म के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए थे। अग्नि और सूर्य के समान महातेजस्‍वी उन भगवान नारायण ने‍ हि‍मालय पर्वत पर रहकर अपनी दोनों भुजाएँ ऊँपर उठाये हुए बड़ी कठोर तपस्‍या की थी उन कमल नयन श्रीहरि ने छाछठ हजार वर्षो तक केवल वायु पीकर उन दिनों अपनी शरीर को सुखाया। तदनन्‍तर उससे दुगुने काल तक फिर भारी तपस्‍या करके उन्‍होंने अपने तेज से पृथ्‍वी और आकाश से मध्‍यवर्ती आकाश को भर दिया।

      तात! उस तपस्‍या से जब वे साक्षात ब्रह्मस्‍वरूप में स्थित हो गये, तब उन्‍हें उन भगवान विश्वेश्‍वर का दर्शन हुआ जो सम्‍पूर्ण विश्व के उत्‍पति स्‍थान और जगत के पालक हैं, जिन्‍हें पराजित करना अत्‍यन्‍त कठिन है। सम्‍पूर्ण देवता जिनकी स्‍तुति करते हैं तथा जो सूक्ष्म से भी अत्‍यन्‍त सूक्ष्म और महान से भी परम महान हैं। वे ‘रू’ अर्थात दुःख को दूर करने के कारण रुद्र कहलाते हैं। ब्रह्मा आदि लोकपालों में सबसे श्रेष्‍ठ हैं। पापहारी, कल्‍याण की प्राप्ति कराने वाले तथा जटाजूटधारी हैं। वे ही सबको चेतना प्रदान करते हैं और वे ही स्‍थावर जगम प्राणियों के परम कारण है। उन्‍हें कहीं कोई रोक नहीं सकता, उनका दर्शन बड़ी कठिनाई से होता है, वे दुष्‍टों पर प्रचण्‍ड कोप करने वाले हैं, उनका हदय विशाल हैं, वे सारे क्‍लेशों को हर लेने वाले अथवा सर्वसंहारी हैं, साधु पुरुषों के प्रति उनका हृदय अत्‍यन्‍त उदार हैं, वे दिव्‍य धनुषों और दो तरकस धारण करते हैं, उनका कवच सोने का बना हुआ है तथा वे अनन्‍त बल पराक्रम से सम्‍पन्‍न हैं। वे अपने हाथों में पिनाक और वज्र धारण करते हैं, उनके एक हाथ में त्रिशूल चमकता रहता है, वे फरसा, गदा और लंबी तलवार लिये रहते हैं, मूसल, परिघ और दण्‍ड भी उनके हाथों की शोभा बढाते हैं, उनकी अंगक्रान्ति उज्‍जवल हैं, वे मस्‍तक पर जटा और उसके ऊँपर चन्‍द्रमा का मुकुट धारण करते हैं, उनके श्रीअंग में बाघम्‍बर शोभा देता हैं। उनकी भुजाओं में सुन्‍दर बाजूबंद और गले में नागमय यज्ञोपवीत शोभा पाते हैं, वे अपने पार्षद स्‍वरूप सम्‍पूर्ण भूत समुदायों से सुशोभित हैं, उन्‍हें एक मात्र अदितीय परमेश्‍वर समझना चाहिये, वे तपस्‍या की निधि हैं और वृध्‍द पुरुष प्रिय वचनों द्वारा उनकी प्रस्‍तुति करते हैं। जल, दिशा, आकाश, पृथ्‍वी, चन्‍द्रमा, सूर्य, वायु, अग्नि तथा जगत को माप लेने वाला काल– ये सब उन्‍हीं के स्‍वरूप हैं। वे ब्रह्मद्रोहियों के नाशक और मोक्ष के परम कारण हैं, दुराचारी मनुष्‍य उनका दर्शन पाने में असमर्थ हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 68-77 का हिन्दी अनुवाद)

     जिन्‍होंने मन से शोक संताप को सर्वथा दूर कर दिया है, वे सदाचारी ब्राह्मण पापों का क्षय हो जाने पर जिनका दर्शन कर पाते हैं, यह सम्‍पूर्ण विश्व जिनका स्‍वरूप है, जो साक्षात धर्म तथा स्‍तवन करने योग्‍य परमेश्‍वर हैं, वे ही महेश्वर वहाँ उनकी तपस्‍या और भक्ति के प्रभाव से प्रकट हो गये तथा तपस्‍वी नारायण ने उनका दर्शन किया। उनका दर्शन करके मन, वाणी, बुद्धि और शरीर के साथ ही उनकी अन्‍तरात्‍मा हर्ष से खिल उठी। उन भगवान वासुदेव ने बड़े आनन्‍द का अनुभव किया। रुद्राक्ष की माला से विभूषित तथा तेज की परम निधि रूप उन विश्व विधाता का दर्शन करके भगवान नारायण ने उनकी वन्‍दना की। वे वरदायक प्रभु हष्‍ट पुष्‍ट एवं मनोहर अंगो वाली पार्वती देवी के साथ क्रीड़ा करते हुए पधारे थे। उन अजन्‍मा, ईशान अव्‍यक्‍त, कारण स्‍वरूप और अपनी महिमा से कभी च्‍युत न होने वाले परमात्मा को उनके पार्षद स्‍वरूप भूतगणों ने घेर रखा था।

      कमल नयन भगवान श्रीहरि ने पृथ्‍वी पर दोनों घुटने टेक कर और मस्‍तक पर हाथ जोड़कर अन्धकासुर का विनाश करने वाले उन रुद्र देव को प्रणाम किया और भक्ति भाव से युक्‍त हो उन भगवान विरूपाक्ष की वे इस प्रकार स्‍तुति करने लगे। श्री नारायण बोले– सर्वश्रेष्‍ठ आदि देव! जिन्‍होंने इस पृथ्‍वी में समाकर आपकी पुरातन दिव्‍य सृष्टि की रक्षा की थी तथा जो इस विश्व की भी रक्षा करते हैं, वे सम्‍पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि करने वाले प्रजापतिगण भी आपसे ही उत्‍पन्‍न हुए हैं। देवता, असुर, नाग, राक्षस, पिशाच, मनुष्‍य, गरूड़ आदि पक्षी, गन्‍धर्व तथा यक्ष आदि जो पृथक-पृथक प्राणियों के अखिल समुदाय हैं, उन सबको हम आपसे ही उत्‍पन्‍न हुआ मानते हैं। इसी प्रकार इन्‍द्र, यम, वरुण और कुबेर का पद, पितरों का लोक तथा विश्वकर्मा की सुन्‍दर शिल्‍पकला आदि का आविर्भाव भी आपसे ही हुआ है। शब्‍द और आकाश, स्‍पर्श, और वायु, रूप और तेज, रस और जल तथा गन्‍ध और पृथ्‍वी की उत्‍पत्ति भी आपसे ही हुई है। काल, ब्रह्मा, वेद, ब्राह्मण और तथा यह सम्‍पूर्ण चराचर जगत भी आपसे ही उत्‍पन्‍न हुआ है। जैसे जल से उसकी बँदें विलग हो जाती हैं और क्षीण होने पर कालक्रम से वे पुनः जल में मिलकर उसके साथ एक रूप हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्‍पूर्ण भूत आपसे ही उत्‍पन्‍न होते और आप में ही लीन होते हैं। ऐसा जानने वाला विद्धवान पुरुष आपका सायुज्‍य प्राप्‍त कर लेते हैं। अन्‍तकरणः में निवास करने वाले दो दिव्‍य एंव अमृत स्‍वरूप पक्षी ईश्‍वर और जीव हैं। वेदवाणी ही उन वृक्षों की विविध शाखाएँ हैं। दूसरी भी दस वस्‍तुएँ हैं, जो पांचाल भौतिक शरीर रूपी नगर को धारण करती हैं। ये सारे पदार्थ आपके ही रचे हुए हैं, तथापि आप इन सबसे परे हैं। भूत, वर्तमान, भविष्‍य तथा अजेय काल— ये सब आपके ही स्‍वरूप है। मैं आपका भजन करने वाला भक्‍त हूँ, आप मुझे अपनाइये। अहित करने वालों को देखकर मेरी हिंसा न कराइये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 78-94 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     आप जीवात्‍मा से अभिन्‍न अनुभव किये जाने वाले सबके आत्मा हैं, ऐसा जानने वाला विद्वान पुरुष विशुद्ध ब्रह्मभाव को प्राप्‍त होता है। देववर्य! मैंने आपके सत्‍कार की शुभ इच्‍छा लेकर यह स्‍तवन किया है। स्‍तुति के सर्वथा योग्‍य आप परमेश्‍वर का मैं चिरकाल से अन्‍वेषण कर रहा था। था जिनकी भलीभाँति स्‍तुति की गयी हैं ऐसे आप अपनी माया को दूर कीजिये और मुझे अभीष्‍ट दुर्लभ वर प्रदान कीजिये।

     व्यास जी कहते हैं ;- द्रोणकुमार! नारायण ऋषि के इस प्रकार स्तुति करने पर अचित्य स्वरूप, पिनाकधारी, नील कण्ट भगवान शिव ने घर पाने के सर्वथा योग्य उन देवप्रधान नारायण को बहुत से घर दिये। 

     श्री भगवान बोले ;- नारायण! तुम मेरे कृपा प्रसाद से मनुष्यों, देवताओं तथा गन्धर्वों में भी असीम बल पराक्रम से सम्पन्न होओगे। देवता, असुर, बड़े-बड़े सर्प, पिशाच, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, नाग तथा समस्त पशुयोनि के सिंह, व्याघ्र आदि प्राणी भी तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे। युद्ध स्थलों में कोई देवता भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा। शस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले सूखे पदार्थ और स्थावर एवं जगंम प्राणी के द्वारा भी कोई मेरी कृपा से किसी प्रकार तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। तुम समरभूमि में पहुँचने पर मुझसे भी अधिक बलवान हो जाओेगे।

      तुझे मालूम होना चाहिये, इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले ही भगवान शंकर से ये अनेक वरदान पा लिये हैं। वे ही भगवान नारायण श्रीकृष्ण के रूप में अपनी माया से इस संसार को मोहित करते हुए विचर रहे हैं।। नारायण के ही तप से महामुनि नर प्रकट हुए हैं, जो इन भगवान के ही समान शक्तिशाली हैं। तू अर्जुन को सदा उन्हीं भगवान नर का अवतार समझ। ये दोनो ऋषि प्रमुख देवता, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र में से विष्णु स्वरूप हैं और तपस्या में बहुत बढ़े चढ़े हैं। ये लोगों को धर्म मर्यादा में रखकर उनकी रक्षा के लिये युग-युग में अवतार ग्रहण करते हैं। महामते! तू भी भगवान नारायण के ही समान ज्ञानवान होकर उनके ही जैसे सत्कर्म तथा बड़ी भारी तपस्या करे उसके प्रभाव से पूर्ण तेज और क्रोध धारण करने वाला रुद्र भक्त हुआ था और सम्पूर्ण जगत को शंकर मय जानकर उन्हें प्रसन्न करने की इच्छा से तूने नाना प्रकार के कठोर नियमों का पालन करते हुए अपनी शरीर को दुर्बल कर डाला था। मानद! तूने यहाँ परम पुरुष भगवान शंकर के उज्ज्वल विग्रह की स्थापना करके होम, जप और उपहारों द्वारा उनकी आराधना की थी। विदवान! इस प्रकार पूर्वजन्म के शरीर में तुझसे पूजित होकर भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए थे और उन्होंने तुझे बहुत से मनोवान्छित वर प्रदान किये थे। इस प्रकार तेरे और नर नारायण के जन्म, कर्म, तप और योग पर्याप्त हैं। नर नारायण ने शिवलिंग में तथा तूने प्रतिमा में प्रत्येक युग में महादेव जी की आराधना की है जो भगवान शंकर को सर्वस्वरूप जानकर शिवलिंग में उनकी पूजा करता है, उसमें सनातन आत्मयोग तथा शास्त्र योग प्रतिष्ठित होते हैं। इस प्रकार आराधना करते हुए देवता, सिध्द और महर्षिगण लोक में एकमात्र सर्वोत्‍कृष्‍ट भगवान शंकर ही अभीष्‍ट वस्‍तु की प्रार्थना करते हैं; क्‍योंकि वे ही सब कुछ करने वाले हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 95-100 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     ये श्रीकृष्‍ण भगवान शंकर के भक्त हैं और उन्‍हीं से प्रकट हुए है; अतः यज्ञों द्वारा सनातन पुरुष श्रीकृष्‍ण की ही आराधना करनी चाहिये। जो भगवान शिव के लिंग को सम्‍पूर्ण भूतों की उत्‍पत्ति का स्‍थान जानकर उसकी पूजा करता है, उस पर भगवान शंकर अधिक प्रेम करते हैं।

    संजय कहते हैं ;- राजन! व्‍यास जी की यह बात सुनकर द्रोण पुत्र महारथी अश्वत्‍थामा ने मन ही मन भगवान शंकर को प्रणाम किया और श्रीकृष्‍ण की भी महत्‍ता स्‍वीकार कर ली। उसके शरीर में रोमांच हो आया। उसने विनीत भाव से महर्षि को प्रणाम किया और अपनी सेना की ओर देखकर उसे छावनी में लौटने की आज्ञा दे दी। प्रजानाथ! तदनन्‍तर युद्धस्‍थल में द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद पाण्‍डवों तथा दीन कौरवों की सेनाएँ अपने अपने शिविर की ओर चल दी। राजन! इस प्रकार वेदों के पारंगत विद्वान द्रोणाचार्य पाँच दिनों तक युद्ध तथा शत्रु सेना का संहार करके ब्रह्मलोक को चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत नारयणा स्‍त्र्मोक्षपर्व में व्‍यासवाकय तथा शतरुद्रिय स्‍तुतिविषयक दो सौ एकवाँ अध्‍याय पूरा हआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)

दौ सौ दौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“व्‍यास जी की अर्जुन से भगवान शिव की महिमा बताना तथा द्रोणपर्व के पाठ और श्रवण का फल”

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! धृष्टद्युम्न के द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर मेरे और पाण्‍डु के पुत्रों ने आगे कौन सा कार्य किया?

    संजय ने कहा ;– भरतश्रेष्‍ठ! धृष्टद्युम्न द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर जब समस्‍त कौरव भाग खड़े हुए, उस समय अपने को विजय दिलाने वाली एक अत्‍यन्‍त आश्‍चर्यमयी घटना कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने अकस्‍मात वहाँ आये हुए वेदव्‍यास जी से उसके सम्‍बन्‍घ में इस प्रकार पूछा।

    अर्जुन बोले ;-- महर्षे! जब मैं अपने निर्मल बाणों द्वारा शत्रु सेना का संहार कर रहा था, उस समय मुझे दिखायी दिया कि एक अग्नि के समान तेजस्‍वी पुरुष मेरे आगे-आगे चल रहे हैं। महामुने! वे जलता हुआ शूल हाथ में लेकर जिस ओर जाते उसी दिशा में मेरे शत्रु विदीर्ण हो जाते थे। उन्‍होंने ही मेरे समस्‍त शत्रुओं को मार भगाया है, किन्‍तु लोग समझते हैं कि मैंने ही उन्‍हें मारा और भगाया है शत्रुओं की सारी सेनाएँ उन्‍हीं के द्वारा नष्‍ट की गयी, मैं तो केवल उनके पीछे पीछे चलता था। भगवन! मुझे बताइये, वे महापुरुष कौन थे? मैने उन्‍हें हाथ में त्रिशूल लिये देखा था। वे सूर्य के समान तेजस्‍वी थे। वे अपने पैरों से पृथ्‍वी का स्‍पर्श नहीं करते थे त्रिशूल को अपने हाथ से अलग कभी नहीं छोड़ते थे उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से सहस्‍त्रों नये नये शूल प्रकट होकर शत्रुओं पर गिरते थे।

      व्‍यास जी ने कहा ;– अर्जुन! जो प्रजापतियों में प्रथम, तेजः स्‍वरूप, अन्‍तर्यामी तथा सर्वसमर्थ हैं, भूर्लोंक, भुवर्लोक आदि समस्‍त भुवन जिनके स्‍वरूप हैं, जो दिव्‍य विग्रहधारी तथा सम्‍पूर्ण लोकों के शासक एवं स्‍वामी हैं, उन्‍हीं वरदायक ईश्‍वर भगवान शंकर का तुमने दर्शन किया है वे बरद देवता सम्‍पूर्ण जगत के ईश्‍वर हैं, तुम उन्‍हीं की शरण में जाओ। वे महान देव हैं उनका हृदय महान है। वे सब पर शासन करने वाले, सर्वव्‍यापी और जटाधारी हैं। उनके तीन नेत्र और विशाल भुजाएँ हैं, रुद्र उनकी संज्ञा है, उनके मस्‍तक पर शिखा तथा शरीर पर वल्‍कल वस्‍त्र शोभा देता है। महादेव, हर और स्‍थाणु आदि नामों से प्रसिद्ध वरदायक भगवान शिव सम्‍पूर्ण भुवनों के स्‍वामी हैं। वे ही जगत के कारण भूत अव्‍यक्‍त प्रकृति है। वे किसी से भी पराजित नहीं होते हैं। जगत को प्रेम और सुख की प्राप्ति उन्‍हीं से होती है। वे ही सबके अध्‍यक्ष हैं। वे ही जगत की उत्‍पत्ति के स्‍थान, जगत के बीज, विजयशील, जगत के आश्रय, सम्‍पूर्ण विश्‍व के आत्‍मा, विश्‍व विधाता, विश्‍व रूप और यशस्‍वी हैं। वे ही विश्‍वेश्‍वर, विश्‍वनियन्‍ता, कर्मो के फलदाता ईश्‍वर और प्रभावशाली हैं। वे ही सबका कल्‍याण करने वाले और स्‍वयंभू हैं। सम्‍पूर्ण भूतों के स्‍वामी तथा भूत, भविष्‍य और वर्तमान के कारण भी वे ही हैं। वे ही योग और योगेश्‍वर हैं, वे ही सर्वस्‍वरूप और सम्‍पूर्ण लोकेश्‍वरों के भी ईश्‍वर हैं। सबसे श्रेष्‍ठ, सम्‍पूर्ण जगत से श्रेष्‍ठ और श्रेष्‍ठतम परमेष्‍ठी भी वे ही हैं। तीनों लोकों के एक मात्र स्त्रष्‍टा, त्रिलोकी के आश्रम, शुद्धात्‍मा, भव, भीम और चन्‍द्रमा का मुकुट धारण करने वाले भी वे ही हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 17-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     वे सनातन देव इस पृथ्‍वी को धारण करने वाले तथा सम्‍पूर्ण बागीश्वरों के भी ईश्‍वर हैं। उन्‍हें जीतना असम्‍भव है। वे जगदीश्‍वर जन्‍म, मृत्‍यु और जरा आदि विकारों से परे हैं। वे ज्ञानस्‍वरूप, ज्ञानगम्‍य तथा ज्ञान में श्रेष्‍ठ हैं। उनके स्‍वरूप को समझ लेना अत्‍यन्‍त कठिन है। वे अपने भक्‍तों को कृपा पूर्वक मनोवांछित उत्‍तम फल देने वाले है। भगवान शंकर के दिव्‍य पार्षद नाना प्रकार के रूपों में दिखायी देते हैं। उनमें से कोई वामन, कोई जटाधारी, कोई मुण्डित मस्‍तक वाले और कोई छोटी गर्दन वाले है। किन्‍हीं के पेट बड़े हैं तो किन्‍हीं के सारे शरीर ही विशाल हैं। कुछ पार्षदों के कान बहुत बड़े-बड़े हैं। वे सब बड़े उत्‍साही होते हैं। कितनों के मुख विकृत हैं और कितनों के पैर। अर्जुन! उन सबके वेष भी बड़े विकराल हैं। ऐसे स्‍वरूप वाले वे सभी पार्षद महान् देवता भगवान शंकर की सदा ही पूजा किया करते हैं। तात! उन तेजस्‍वी पुरुष के रूप में वे भगवान शंकर ही कृपा करके तुम्‍हारे आगे आगे चलते हैं।

     कुन्‍तीनन्‍दन! उस रोमान्‍चकारी घोर संग्राम में अश्वत्‍थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि प्रहार कुशल बड़े-बड़े धनुर्धरों से सुरक्षित उस कौरव सेना को उस समय बहुरूपधारी महाधनुर्धर भगवान महेश्वर के सिवा दूसरा कौन मन से भी नष्‍ट कर सकता था। जब वे ही सामने आकर खड़े हो जायँ तो वहाँ ठहरने का साहस कोई नहीं कर सकता है? तीनों लोकों में कोई भी प्राणी उनकी समानता करने वाला नहीं है। संग्राम में भगवान शंकर के कुपित होने पर उनकी गन्‍ध से भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते और अधमरे होकर गिर जाते हैं। उनको नमस्‍कार करने वाले देवता सदा स्‍वर्गलोक में निवास करते हैं। दूसरे भी जो मानव इस लोक में उन्‍हें नमस्‍कार करते हैं, वे भी स्‍वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो भक्त मनुष्‍य सदा अनन्‍यभाव से वरदायक देवता कल्‍याणस्‍वरूप, सर्वेश्‍वर उमानाथ भगवान रुद्र की उपासना करते हैं, वे भी इद्रलोक में सुख पाकर अन्‍त में परम गति को प्राप्‍त होते हैं।

      कुन्‍तीनन्‍दन! अतः तुम भी उन शान्‍तस्‍वरूप भगवान शिव को सदा नमस्‍कार किया करो। जो रुद्र, नीलकण्‍ठ, कनिष्‍ठ, उत्‍तम तेज से सम्‍पन्‍न, जटाजूटधारी, विकराल स्‍वरूप, पिगंल नेत्र वाले तथा कुबेर को वर देने वाले हैं, उन भगवान शिव को नमस्‍कार है। जो यम के अनुकूल रहने वाले काल हैं, अव्‍यक्‍त स्‍वरूप आकाश ही जिनका केश हैं, जो सदाचार सम्‍पन्‍न, सबका कल्‍याण करने वाले, कमनीय, पिंगल नेत्र, सदा स्थित रहने वाले और अन्‍तर्यामी पुरुष हैं, जिनके केश भूरे एवं पिंगल वर्ण के हैं, जिनका मस्‍तक मुण्डित है, जो दुबले पतले और भवसागर से पार उतारने वाले हैं, जो सूर्यस्‍वरूप, उत्‍तम तीर्थ और अत्‍यन्‍त वेगशालीहैं, उन देवाधिदेव महादेव को नमस्‍कार हैं। जो अनेक रूप धारण करने वाले, सर्वस्‍वरूप तथा सबके प्रिय हैं, वल्‍कल आदि वस्‍त्र जिन्‍हें प्रिय हैं, जो मस्‍तक पर पगड़ी धारण करते हैं, जिनका मुख सुन्‍दर है, जिनके सहस्‍त्रों नेत्र हैं तथा जो वर्षा करने वाले हैं, उन भगवान शंकर को नमस्‍कार है। जो पर्वत शयन करने वाले, परम शान्‍त, यति स्‍वरूप, चीरवस्‍त्रधारी, हिरण्‍यबाहु, राजा तथा दिशाओं के अधिपति हैं। (उन भगवान शंकर को नमस्कार है)

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 34-53 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     जो मेघों के अधिपति तथा सम्‍पूर्ण भूतों के स्‍वामी हैं, उन्‍हें नमस्‍कार है। वृक्षों के पालक और गौओं के अधिपति रूप आपको नमस्‍कार है। जिनका शरीर वृक्षों से आच्‍छादित है, जो सेना के अधिपति और शरीर के मध्‍यवर्ती हैं, यजमान रूप से अपने हाथ में स्‍त्रुवा धारण करते हैं, जो दिव्‍य स्‍वरूप, धनुर्धर और भृगुवंशी परशुराम स्‍वरूप हैं, उनको नमस्‍कार है। जिनके बहुत से रूप हैं, जो इस विश्‍व के पालक होकर भी मूँज का कौपीन धारण करते हैं, जिनके सहस्‍त्रों सिर, सहस्‍त्रों नेत्र, सहस्‍त्रों भुजाएँ और सहस्‍त्रों पैर हैं, उन भगवान शंकर को नमस्‍कार है।

      कुन्‍तीनन्‍दन! तुम उन्‍हीं वरदायक भुवनेश्‍वर, उमा, वल्‍लभ, त्रिनेत्रधारी, दक्ष यज्ञ विनाशक, प्रजापति, व्‍यग्रता रहित और अविनाशी भगवान भूतनाथ की शरण में जाओ। जो जटाजूटधारी हैं, जिनका घूमना परम श्रेष्‍ठ है, जो श्रेष्‍ठ नाभि से सुशोभित, ध्‍वजा पर वृष का चिन्‍ह धारण करने वाले, वृषद्रर्प, वृषपति, धर्म को ही उच्‍च्‍तम मानने वाले तथा धर्म से भी सर्वश्रेष्‍ठ हैं, जिनके ध्वज में सॉड का चिन्‍ह अंकित है, जो धर्मात्‍माओं में उदार, धर्मस्‍वरूप, वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले, श्रेष्‍ठ आयुष और श्रेष्‍ठ बाण से युक्‍त्‍ा, धर्मविग्रह तथा धर्म के ईश्‍वर, उन भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। कोटि कोटि ब्रह्माण्‍डों को धारण करने के कारण जिनका उदर और शरीर विशाल हैं, जो व्‍याघ्रचर्म ओढ़ा करते हैं, जो लोकेश्‍वर, वरदायक, मुण्डितमस्‍तक, ब्राह्मणहितैषी तथा ब्राह्मण के प्रिय हैं। जिनके हाथ में त्रिशूल, ढाल, तलवार और पिनाक आदि अस्त्र शोभा पाते हैं, जो वरदायक, प्रभु, सुन्‍दर शरीरधारी, तीनों लोको के स्‍वामी तथा साक्षात ईश्‍वर हैं, उन चीरवस्त्रधारी, शरणागत वत्‍सल भगवान शिव की मैं शरण लेता हूँ। कुबेर जिनके सखा हैं, उन देवेश्‍वर शिव को नमस्‍कार है। प्रभो! आप उत्‍त्‍म वस्‍त्र, उत्‍तम व्रत और उत्‍तम धनुष धारण करते हैं। आप धनुर्धर देवता को धनुष प्रिय हैं, आप धन्‍वी, धन्‍वन्‍तर, धनुष और धन्‍वाचार्य हैं, आपको नमस्‍कार है। भयंकर आयुध धारण करने वाले सुरश्रेष्‍ठ महादेव जी को नमस्‍कार। अनेक रूपधारी शिव को नमस्‍कार हैं, बहुत से धनुष धारण करने वाले रुद्रदेव को नमस्‍कार है, आप स्‍थाणु रूप हैं, आपको नमस्‍कार है, उन तपस्‍वी शिव को नित्‍य नमस्‍कार। त्रिपुरनाशक और भगनेत्र विनाशक भगवान शिव को बारंबार नमस्‍कार है। नस्‍पतियों के पति तथा नरपति रूप महादेव जी को नमस्‍कार है। मातृकाओं के अधिपति और गणों के पालक शिव को नमस्‍कार है। गोपति और यज्ञपति शंकर नित्‍य नमस्‍कार है। जलपति तथा देवपति को नित्‍य नमस्‍कार है। पूषा के दाँत तोड़ने वाले, त्रिनेत्रधारी वरदायक शिव को नमस्‍कार है। नीलकण्‍ठ, पिण्‍डलवर्ण और सुनहरे केशवाले भगवान शंकर को नमस्‍कार है।

      अर्जुन! अब मैं परम बुद्धिमान महादेव जी के जो दिव्‍य कर्म हैं, उनका अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा मैने सुन रखा है, वैसा ही तुम्‍हारे समक्ष वर्णन करता हूँ। यदि वे कुपित हो जायँ तो देवता, असुर, गन्‍धर्व और राक्षस इस लोक में अथवा पाताल में छिप जाने पर भी चैन से नहीं रहने पाते हैं। पहले की बात हैं, वे यज्ञपरायण दक्ष पर कुपित हो गये थे। उस समय उन्‍होंने उनके विधिपूर्वक किये जाने वाले यज्ञ को नष्‍ट कर दिया था। उन दिनों वे निर्दय हो गये थे और धनुष द्वारा बाण छोड़कर बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 54-69 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

      देवताओं को उस समय कहीं भी सुख और शान्ति नहीं मिली, महेश्वर के कुपित होने से सहसा यज्ञ में उपद्रव खड़ा हो गया था। पार्थ! उनके धनुष की प्रत्‍यंचा के गम्‍भीर घोष से अत्‍यन्‍त व्‍याकुल हो सम्‍पूर्ण लोक उनके अधीन हो गये। देवता और असुर सभी धरती पर गिर पड़े। समुद्र के जल में ज्‍वार आ गया, धरती काँपने लगी, पर्वत टूट-टूटकर बिखरने लगे और दिग्‍गज मूर्च्छित हो गये। घोर अन्‍धकारक से आच्‍छादित हो जाने के कारण सम्‍पूर्ण लोको में कहीं भी प्रकाश नहीं रह गया। भगवान शिव ने सूर्य सहित सम्‍पूर्ण ज्‍योतियों की प्रभा नष्‍ट कर दी। महर्षि भी भयभीत एवं क्षुब्‍ध हो उठे। वे सम्‍पूर्ण भूतों के तथा अपने लिये भी सुख चाहते हुए पुण्‍याह वाचन आदि शान्ति कर्म करने लगे। उस समय हँसते हुए से भगवान शंकर ने पूषा पर आक्रमण किया। वे पुरोडाश खा रहे थे। उन्‍होंने उनके सारे दाँत तोड़ डाले। तदनन्‍तर सारे देवता नतमस्‍तक हो भय से थर-थर काँपते हुए यज्ञशाला से बाहर निकल गये। तब भगवान शिव ने देवताओं को लक्ष्‍य करके तीखे और तेजस्‍वी बाणों का संधान किया। धूम और चिनगारियों सहित वे बाण बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। तब सम्‍पूर्ण देवताओं ने भगवान महेश्वर को कुपित देख उनके चरणों में प्रणाम किया और रुद्र के लिये उन्‍होंने विशिष्‍ट यज्ञभाग की कल्‍पना की। राजन! सब देवता भयभीत हो भगवान शंकर की शरण में आये। तब क्रोध शान्‍त होने पर उन्‍होंने उस यज्ञ को पूर्ण किया। उन दिनों देवता लोग भाग खड़े हुए थे, तभी से आज तक वे देवता उनसे डरते रहते हैं।

      पूर्वकाल में परम पराक्रमी तीन असुरों के आकाश में तीन नगर थे। एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा अत्‍यन्‍त विशाल नगर सोने का बना हुआ था। उनमें से सोने का नगर कमलाक्ष के, चाँदी का तारकाक्ष के तथा तीसरा लोहे का बना हुआ नगर विधुन्‍माली के अधिकार में था। इन्‍द्र सम्‍पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके भी उन नगरों का भेद न कर सके। तब उनसे पीड़ित हुए सम्‍पूर्ण देवता भगवान शंकर की शरण में गये। इन्‍द्रसहित सम्‍पूर्ण देवताओं ने महात्‍मा भगवान शंकर से कहा,

देवतागण बोले ;- ‘प्रभो! ब्रह्मा जी से वरदान पाकर ये त्रिपुर निवासी घोर दैत्‍य सम्‍पूर्ण जगत को अधिकाधिक पीड़ा दे रहे है; क्‍योंकि वरदान प्राप्‍त होने से उनका घमंड बहुत बढ गया है। ‘देव देवेश्‍वर महादेव! आपके सिवा दूसरा कोई उन दैत्‍यों का वध करने में समर्थ नहीं है; अतः आप उन देव द्रोहियों को मार डालिये। ‘भुवनेश्‍वर! रुद्र! आप जब इन असुरों का विनाश कर डालेंगे, तब से सम्‍पूर्ण यज्ञकर्मो में जो पशु होंगे, वे रुद्र के भाग समझे जायेंगे’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 70-90 का हिन्दी अनुवाद)

      देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान शिव ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर उनके हित की इच्‍छा से गन्‍धमादन और विन्‍ध्‍याचल इन दो पर्वतों को अपने रथ के पार्श्‍ववर्ती ध्‍वज बनाये। फिर समुद्र और पर्वतों सहित समूची पृथ्‍वी को रथ बनाकर नागराज शेष को उस रथ का धुरा बनाया। तत्‍पश्‍चात त्रिेनेत्र धारी पिनाकपाणि देवाधिदेव महादेव ने चन्‍द्रमा और सूर्य दोनों को रथ के पहिये बनाये। एलपत्र के पुत्र और पुष्‍प दन्‍त को जूए की कीलें बनाया। फिर त्र्यम्‍बक ने मलयाचल को यूप और तक्षक नाग को जूआ बाँधने की रस्‍सी बना लिया। इसी प्रकार प्रतापी भगवान महेश्वर ने अन्‍य प्राणियों को जोते और बागडोर आदि के रूप में रखकर चारों वेद ही रथ के चार घोड़े बना लिये। तत्‍पश्‍चात तीनों लोको के स्‍वामी महेश्वर ने उपवेदों को लगाम बनाकर गायत्री और सावित्री को प्रग्रह बना लिया। फिर ओकांर को चाबुक, ब्रह्मा जी को सारथि, मन्‍दराचल को गाण्‍डीव धनुष, वासुकि नाग को उसकी प्रत्‍यन्‍चा, भगवान विष्‍णु को उत्‍त्‍म बाण, अग्निदेव को उस बाण का फल, वायु को उसके पंख और वैवस्‍वत यम को उसकी पूँछ बनाया। बिजली को उस बाण की तीखी धार बनाकर मेरु पर्वत को प्रधान ध्‍वज के स्‍थान में रखा।

      इस प्रकार सर्व देवमय दिव्‍य रथ तैयार करके असुरों का अन्‍त करने वाले, अतुल पराक्रमी, योद्धाओं में श्रेष्‍ठ तथा सदा स्थिर रहने वाले श्रीमान भगवान शिव त्रिपुरवध के लिये उस पर आरूढ़ हुए। पार्थ! उस समय सम्‍पूर्ण देवता और तपोधन म‍हर्षि भगवान शंकर की स्‍तुति करने लगे। उन भगवान ने उस अनुपम एवं दिव्‍य माहेश्‍वर स्‍थान का निर्माण करके उस पर एक हजार वर्षों तक स्थिर भाव से खड़े रहे। जब वे तीनों पुर आकाश में एकत्र हुए, तब उन्‍होंने तीन गाँठ और तीन फल वाले बाण से उन तीनों पुरों को विदीर्ण कर डाला। उस समय दानव उन नगरों की ओर कालाग्नि से संयुक्‍त एंव विष्‍णु तथा सेम की शक्ति से सम्‍पन्‍न उस बाण की ओर भी आँख उठाकर देख न सके। जिस समय वे तीनों पुरों को दग्‍ध कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी भी उन्‍हें देखने के लिये एक पाँच शिखा वाले बालक को गोद में लेकर वहाँ गयीं।

    पार्वती देवी ने देवताओं से पूछा,

      देवी बोली ;– ‘पहचानते हो, यह कौन है?’ उनके इस प्रश्‍न से इन्‍द्र के हृदय में असूया और क्रोध की आग जल उठी, वे उस बालक पर वज्र का प्रहार करना ही चाहते थे कि सर्व लोकेश्‍वर सर्वव्‍यापी भगवान शंकर ने हँसकर उनकी वज्र सहित बाँह को स्‍तम्भित कर दिया। तदनन्‍तर स्‍तम्भित हुई भुजा के साथ ही देवताओं सहित इन्‍द्र तुरंत ही वहाँ से अविनाशी भगवान ब्रह्मा जी के पास गये। देवताओं ने मस्‍तक झुकाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- ‘ब्रह्मन्! पार्वती जी की गोद में बालक रूपधारी एक अद्भुत प्राणी था, जिसे देखकर भी हम लोग पहचान नहीं सके हैं। ‘अतः हम लोग आप से उसके विषय में पूछना चाहते हैं, उस बालक ने बिना युद्ध के खेल ही खेल में इन्‍द्र सहित हम देवताओं को परास्‍त कर दिया’। उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ भगवान ब्रह्मा ने ध्‍यान करके अमित तेजस्‍वी बालरूप धारी शंकर को पहचान लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 91-110 का हिन्दी अनुवाद)

    तत्‍पश्‍चात भगवान ब्रह्मा ने उन देव श्रेष्‍ठ इन्‍द्र आदि से कहा ‘देवताओं! वे चाराचर जगत के स्‍वामी साक्षात भगवान शंकर थे। उन महेश्वर से बढ़कर दूसरी कोई सत्‍ता नहीं है। तुम लोगों ने पार्वती जी के साथ जिस अमित तेजस्‍वी बालक का दर्शन किया है, उसके रूप में भगवान शंकर ही थे। उन्‍होंने पार्वती जी की प्रसन्‍नता के लिये बालरूप धारण कर लिया था; अतः तुम लोग मेरे साथ उन्‍हीं की शरण में चलो। उस बालक के रूप में ये सर्वलोकेश्‍वर प्रभु भगवान महादेव ही थे, किन्‍तु प्रजापतियों सहित सम्‍पूर्ण देवता बाल सूर्य के सदृश कान्तिमान उन जगदीश्‍वर को पहचान न सके। तदनन्‍तर ब्रह्मा जी ने निकट जाकर भगवान महेश्वर को देखा और ये ही सबसे श्रेष्‍ठ हैं, ऐसा जानकर उनकी वन्‍दना की।
      ब्रह्मा जी बोले ;– भगवन! आप ही यज्ञ, आप ही इस विश्‍व के सहारे और आप ही सबको शरण देने वाले हैं, आप ही सबको उत्‍पन्‍न करने वाले भव हैं, आप ही महादेव है, और आप ही परमधाम एवं परमपद हैं। आपने ही इस सम्‍पूर्ण चराचर जगत को व्‍याप्‍त कर रखा है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी भगवन! लोक नाथ! जगत्‍पते! ये इन्‍द्र आपके क्रोध से पीड़ित हो रहे हैं। आप इन पर कृपा कीजिये।
       व्‍यास जी कहते हैं ;– पार्थ! ब्रह्मा जी की बात सुनकर भगवान महेश्वर प्रसन्‍न हो गये और कृपा के लिये उद्यत हो ठठाकर हँस पड़े। तब देवताओं ने पार्वती देवी तथा भगवान शंकर को प्रसन्‍न किया। फिर वज्रधारी इन्‍द्र की बाँह जैसी पहले थी, वैसी हो गयी। दक्ष यज्ञ का विनाश करने वाले देवश्रेष्‍ठ भगवान वृषध्‍वज अपनी पत्‍नी उमा के साथ देवताओं पर प्रसन्‍न हो गये। वे ही रुद्र हैं, वे ही शिव हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही सर्वस्‍वरूप एवं सर्वज्ञ हैं। वे ही इन्‍द्र और वायु हैं, वे ही दोनों अश्विनी कुमार तथा विद्युत हैं। वे ही भव, वे ही मेघ और वे ही सनातन महादेव हैं।
     चन्‍द्रमा, ईशान, सूर्य और वरुण भी वे ही हैं। वे ही काल, अन्‍तक, मृत्यु, यम, रात्रि, दिन, मास, पक्ष, ऋतु, संध्‍या और संवत्‍सर हैं। वे ही धाता, विधाता, विश्‍व आत्‍मा और विश्‍वरूपी कार्य के कर्ता हैं। वे शरीर हित होकर भी सम्‍पूर्ण देवताओं के शरीर धारण करते हैं। सम्‍पूर्ण देवता सदा उनकी स्‍तुति करते हैं। वे महादेव जी एक होकर भी अनेक हैं। सौ हजार और लाखों रूपों में वे ही विराज रहे हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण उनके दो शरीर मानते हैं, एक घोर और दूसरा शिव। ये दोनों पृथक-पृथक हैं और उन्‍हीं से पुनः बहुसंख्‍यक शरीर प्रकट हो जाते हैं। उनका जो घोर शरीर है, वही अग्नि, विष्‍णु और सूर्य है और उनका सौम्‍य शरीर ही जल, ग्रह, नक्षत्र और चन्‍द्रमा है। वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण और अध्‍यात्‍मशास्त्र के जो सिदान्‍त हैं तथा उनमें जो भी जो परम रहस्‍य है, वह भगवान महेश्वर ही हैं। अर्जुन! यह है अजन्‍मा भगवान महादेव का महामहिम स्‍वरूप। मैं सहस्‍त्रों वर्षों तक लगातार वर्णन करता रहूँ तो भी भगवान के समस्‍त गुणों का पार नहीं पा सकता। अर्जुन! यह है अजन्‍मा भगवान महादेव का महामहिम स्‍वरूप। मैं सहस्‍त्रों वर्षों तक लगातार वर्णन करता रहूँ तो भी भगवान के समस्‍त गुणों का पार नहीं पा सकता।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 111-130 का हिन्दी अनुवाद)

     जो सब प्रकार की ग्रहबाधाओं से पीड़ित हैं और सम्‍पूर्ण पापों में डूबे हुए हैं, वे भी यदि शरण में आ जायँ तो शरणागत वत्‍सल भगवान शिव अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर उन्‍हें पाप ताप से मुक्‍त कर देते हैं। वे ही प्रसन्‍न होने पर मनुष्‍यों को आयु, आरोग्‍य, ऐश्‍वर्य, धन और प्रचुर मात्रा में मनोवान्छित पदार्थ देते हैं तथा वे ही कुपित होने पर फिर उन सबका संहार कर डालते हैं। इन्‍द्र आदि देवताओं में उन्‍हीं का ऐश्‍वर्य बताया जाता है, वे ही ईश्‍वर होने के कारण लोक में मनुष्‍यों के शुभाशुभ कर्मों के फल देने में संलग्‍न रहते हैं। सम्‍पूर्ण कामनाओं के ईश्‍वर भी वे ही बताये जाते हैं। महाभूतों के ईश्‍वर होने से वे ही महेश्वर कहलाते हैं। वे नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक रूपों द्वारा सम्‍पूर्ण विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं। उन महादेव जी का जो मुख है, वह समुद्र में स्थित है।
      वह ‘वडवामुख’ नाम से विख्‍यात होकर जलमय हविष्‍य का पान करता है। ये ही महादेव जी श्‍मशान भूमि में नित्‍य निवास करते हैं। वहाँ मनुष्‍य ‘वीरस्‍थानेश्‍वर’ के नाम से इनकी आराधना करते हैं। इनके बहुत से तेजस्‍वी घोर रूप है, जो लोक में पूजित होते हैं और मनुष्‍य उनका कीर्तन करते रहते हैं। उनकी महत्‍त, सर्वव्‍यापकता तथा कर्म के अनुसार लोक में इनके बहुत से यथार्थ नाम बताये जाते हैं। यजुर्वेद में भी परमात्‍मा शिव की ‘शतरुद्रिय’ नामक उत्‍तम स्‍तुति बतायी गयी है। अनन्‍त रुद्र नाम से इनका उपस्‍थान बताया गया है। जो दिव्‍य तथा मानव भोग हैं, उन सबके स्‍वामी से महादेव जी ही हैं। ये देव इस विशाल विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं; इसलिये विभु और प्रभु कहलाते हैं। ब्राह्मण और मुनिजन इन्‍हें सबसे ज्‍येष्‍ठ बताते हैं, ये देवताओं में सबसे प्रथम है; इन्‍हीं के मुख से अग्निेदेव का प्रादुर्भाव हुआ है। ये सर्वथा (प्राणियों) का पालन करते और उन्‍हीं के साथ खेला करते हैं तथा उन पशुओं के अधिपति है; इसलिये ‘प्रशुपति’ कहे गये हैं।
       इनका दिव्‍य लिंग ब्रह्मचर्य से स्थित है। ये सम्‍पूर्ण लोको में महिमान्वित करते है; इसलिये महेश्वर कहे गये हैं। ऋषि, देवता, गन्‍धर्व और अप्‍सराएँ इनके उर्ध्‍व लोक स्थित लिंग विग्रह (प्रतीक) की पूजा करती हैं। उस लिंग अर्थात प्रतीक की पूजा होने पर कल्‍याणकारी भगवान महेश्वर आनन्दित होते हैं। सुखी, प्रसन्‍न तथा हर्षोल्‍लास से परिपूर्ण होते हैं। भूत, भविष्‍य और वर्तमान तीनों कालों में इनके स्‍थावर जंगम बहुत से रूप स्थित होते हैं; इसलिये इन्‍हें ‘बहुरूप’ नाम दिया गया है। यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि उनका एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा क्रोध से प्रज्‍वलित रहता है; वे सब लोको में समाविष्‍ट होने के कारण ‘सर्व’ कहे गये हैं। उनका रूप धूम्रवर्ण का है; इसलिये वे ‘धूजंटि’ कहलाते हैं। विश्‍वेदेव उन्‍हीं में प्रतिष्ठित हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘विश्‍वरूप’ है। वे भगवान भुवनेश्‍वर आकाश, जल और पृथ्‍वी इन अम्‍बास्‍वरूपा तीन देवियों को अपनाते, उनकी रक्षा करते हैं, इसलिये त्र्यम्‍बक कहे गये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 131-147 का हिन्दी अनुवाद)

     ये मनुष्‍यों का कल्‍याण चाहते हुए उनके समस्‍त कर्मों में सम्‍पूर्ण अभि‍लषित पदार्थों की समृद्धि (सिद्धि) करते हैं, इसलिये ‘शिव’ कहे गये हैं। उनके सहस्‍त्र अथवा दस हजार नेत्र हैं अथवा वे सब ओर से नेत्रमय ही हैं। भगवान शिव महान विश्‍व का पालन करते है; इसलिये ‘महादेव’ कहे गये हैं। वे पूर्वकाल से ही महान रूप में स्थित हैं, प्राणों की उत्‍पति और स्थिति के कारण हैं तथा उनका लिंगमय शरीर सदा स्थित रहता है; इसलिये उन्‍हें ‘स्‍थाणु’ कहते हैं। लोक में जो सूर्य और चन्‍द्रमा की किरणें प्रकाशित होती हैं, वे भगवान त्रिलोचन के केश कही गयी हैं। वे व्‍योम (आकाश) में प्रकाशित होती है; इसलिये उनका नाम ‘व्‍योमकेश’ है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य सम्‍पूर्ण जगत भगवान शंकर से ही विस्‍तार को प्राप्‍त हुआ है; इसलिये वे ‘भूतभव्‍यभवोद्भुव’ कहे गये हैं। कपि कहते हैं श्रेष्‍ठ को और वृष नाम है धर्म का। वृष और कपि दोनों होने के कारण देवाधिदेव भगवान शंकर ‘वृषाकपि’ कहलाते हैं।
      वे ब्रह्मा, इन्‍द्र, वरुण, यम तथा कुबेर को भी काबू में करके उनसे उनका ऐश्‍वर्य हर लेते हैं; इसलिये ‘हर’ कहे गये हैं। उन भगवान महेश्‍वर ने दोनों नेत्रों को बंद करके अपने ललाट में बलपूर्वक तीसरे नेत्र की सृष्टि की, इसलिये उन्‍हें त्रिनेत्र कहते हैं। वे प्राणियों के शरीर में विषम संख्‍या वाले पाँच प्राणों के साथ निवास करते हुए सदा समभाव से स्थित रहते है। विषम परिस्थितियों में पड़े हुए समस्‍त देहधारियों के भीतर वे ही प्राणवायु और अपानवायु के रूप में विराजमान हैं। जो कोई भी मनुष्‍य हो, उसे महात्‍मा शिव के अर्चाविग्रह अथवा लिंग (प्रतीक) की पूजा करनी चाहिये। लिंग अथवा प्रतिमा की पूजा करने वाला पुरुष बड़ी भारी सम्‍पति प्राप्‍त कर लेता है। दोनों जाँघों से नीचे भगवान शिव का आधा शरीर आग्‍नेय अथवा घोर है तथा उससे ऊँपर का आधा शरीर सोम एवं शिव है। किसी किसी के मत में उनके सम्‍पूर्ण शरीर का आधा भाग ‘अग्नि’ और आधा भाग ‘सोम’ कहलाता है। उनका जो शिव शरीर है, वह तेजोमय और परम कान्तिमान है। वह देवताओं के उपयोग में आता है तथा मनुष्‍य लोक में उनका प्रकाशमान घोर शरीर ‘अग्नि’कहलाता है। उनकी जो शिव मूर्ति है, वह जगत की रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करती है और उनकी जो घोरतर मूर्ति है, उसके द्वारा भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत का संहार करते हैं। ये प्रतापी देवता प्रलय काल में अत्‍यन्‍त तीक्ष्‍ण एवं उग्र रूप धारण करके सबको दग्‍ध कर डालते हैं और प्राणियों के रक्‍त, मांस एवं मज्‍जा को भी भक्षण करते हैं; अतः रौद्र भाव के कारण ‘रुद्र’ कहलाते है।
     अर्जुन! संग्राम भूमि में जो तुम्‍हारे आगे शत्रुओं का संहार करते हुए दिखायी दिये हैं, वे ये ही पिनाकधारी भगवान महादेव हैं। निष्‍पाप अर्जुन! जब तुमने सिंधुराज के वध की प्रतिज्ञा की थी, उस समय स्‍वप्न में भगवान श्रीकृष्‍ण ने तुम्‍हें गिरिराज के शिखर पर जिनका दर्शन कराया था, ये वे ही भगवान शंकर संग्राम में तुम्‍हारे आगे आगे चल रहे हैं। उन्‍होंने ही तुम्‍हें वे दिव्‍यास्त्र प्रदान किये थे, जिनके द्वारा तुमने दानवों का संहार किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 148-158 का हिन्दी अनुवाद)

     पार्थ! यह देवाधिदेव भगवान शिव के ‘शतरुद्रिय’स्‍तोत्र की व्‍याख्‍या की गयी है। यह स्‍तोत्र वेदों के समान परम पवित्र तथा धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला है। इसके पाठ से सम्‍पूर्ण मनोरथीं की सिद्धि होती है। यह पवित्र स्‍तोत्र सम्‍पूर्ण किल्विर्षो का नाशक, सब पापों का निवारक तथा सब प्रकार के दुःख और भय को दूर करने वाला है। जो मनुष्‍य भगवान शंकर के ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश और निर्गुण निराकार– इन चतुर्विध स्‍वरूप का प्रतिपादन करने वाले इस स्‍तोत्र को सदा सुनता है, वह सम्‍पूर्ण शत्रुओं को जीतकर रुद्रलाक में प्रतिष्ठित होता है। परमात्‍मा शिव का यह चरित सदा संग्राम में विजय दिलाने वाला है, जो सदा उद्यत रहकर शतरुद्रिय को पढ़ता और सुनता है तथा मनुष्‍यों में जो कोई भी निरन्‍तर भगवान विश्‍वेश्‍वर का भक्ति भाव से भजन करता है, वह उन त्रिलोचन के प्रसन्‍न होने पर समस्‍त उत्‍तम कामनाओं को प्राप्‍त कर लेता है। कुन्‍तीनन्‍दन! जाओ, युद्ध करो। तुम्‍हारी पराजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि तुम्‍हारे मन्‍त्री, रक्षक और पार्श्‍ववर्ती साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण हैं।
       संजय कहते हैं ;– शत्रुओं का दमन करने वाले भरतश्रेष्‍ठ! युद्ध स्‍थल में अर्जुन से भगवान शिव की महिमा का वर्णन करके पश्चात पराशरनन्‍दन व्‍यास जी जैसे आये थे, वैसे चले गये। राजन! पाँच दिनों तक अत्‍यन्‍त घोर युद्ध करके महाबली ब्राह्मण द्रोणाचार्य मारे गये और ब्रह्मलोक में चले गये। वेदों के स्‍वाध्‍याय से जो फल मिलता है, वही इस पर्व के पाठ और श्रवण से भी प्राप्‍त होता है। इसमें निर्भय होकर युद्ध करने वाले वीर क्षत्रियों के महान यश का वर्णन है। जो प्रतिदिन इस पर्व को पढ़ता अथवा सुनता है, वह पहले के किये हुए बड़े-बड़े पापों तथा घोर कर्मो से मुक्‍त हो जाता है। इसको प्रतिदिन पढ़ने और सुनने से ब्राह्मण को यज्ञ का फल प्राप्‍त होता है, क्षत्रियों को घोर युद्ध में सुयश की प्राप्ति होती है, शेष दो वर्ण के लोगों को भी पुत्र, पौत्र आदि अमीष्‍ट एवं प्रिय वस्‍तुएँ उपलब्‍ध होती हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत नारायणास्‍त्र मोख पर्व में दौ सौ दोवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

[द्रोण पर्व समाप्त]

 द्रोण पर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या ९९१७

 अब “कर्ण पर्व ”आरंभ होता है 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें