सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
एक सौ छियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना और अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन”
संजय कहते हैं ;- प्रभो! तदनन्तर उस नारायणास्त्र के प्रकट होने पर जल की बूंदों के साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी। बिना बादलों के ही आकाश में मेघों की गर्जना होने लगी। पृथ्वी कांप उठी, समुद्र में ज्वार आ गया और समुद्र में मिलने वाली बड़ी-बड़ी नदियां अपने प्रवाह की प्रतिकूल दिशा में बहने लगीं। भारत! पर्वतों के शिखर टूट-टूटकर गिरने लगे। हरिणों के झुंड पाण्डव सेना को अपने दायें करके चले गये। सम्पूर्ण दिशाओं में अंधकार छा गया, सूर्य मलिन हो गये और मांसभोजी जीव-जन्तु प्रसन्न से होकर दौड़ लगाने लगे। प्रजानाथ! वह महान उत्पात देखकर देवता, दानव और गन्धर्व भी त्रस्त हो उठे तथा सब लोगों में यह तीव्र गति से चर्चा होने लगी कि अब क्या करना चाहिए। महाराज! अश्वत्थामा के उस घोर एवं भयंकर अस्त्र को देखकर समस्त भूपाल व्यवथित एवं भयभीत हो गये।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! अपने पिता के वध को सहन न कर सकने वाले अत्यन्त शोकसंतप्त द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के साथ जब सारी सेनाएं युद्धस्थल में लौट आयीं, तब कौरवों को आते देख पाण्डव दल में धृष्टद्युम्न की रक्षा के लिये क्या विचार हुआ, वह मुझे बताओ।
संजय कहा ;- राजन! राजा युधिष्ठिर ने पहले तो आपके सैनिकों को भागते देखा था। फिर उन्होंने वह भयंकर शब्द सुनकर अर्जुन से कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- 'धनंजय! पूर्वकाल में जैसे वज्रधारी इन्द्र ने महान असुर वृत्रासुर को मार डाला था, उसी प्रकार युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न द्वारा आचार्य द्रोण के मारे जाने पर युद्ध में अपनी विजय से निराश हो दीनचित्त कौरव आत्मरक्षा का विचार करके रणभूमि से भागे जा रहे थे। जिनके पार्श्व रक्षक और सारथि मारे गये थे, ध्वजा, पताका और छत्र नष्ट हो गये थे, कूबर टूटकर बिखर गये थे, बैठने के स्थान चौपट हो चुके थे तथा धुरे, जुए और पहिये भी टूट-फूट गये थे, वैसे रथ भी व्याकुल घोड़ों से आकृष्ट हो वहाँ चक्कर लगा रहे थे और उनके द्वारा कुछ विशेष घायल हुए नरेश चारों ओर खिंचे चले जा रहे थे। कुछ लोग भयभीत हो घोड़ों को पैरों से मार-मारकर स्वयं जल्दी जल्दी रथ हांक रहे थे और कुछ लोग टूट हुए रथों को छोड़कर पैदल ही भागने लगे थे। कितने ही योद्धा घोड़ों की पीठ पर बैठे, परंतु उनका आधा आसन खिसक गया और उसी अवस्था में घोड़ों के साथ खिंचे चले गये। कुछ लोग नाराचों की मार खाकर अपने आसन से भ्रष्ट हो हाथियों के कंधो से चिपक गये थे और उसी अवस्था में बाणों से पीड़ित हो भागते हुए हाथी उन्हें दसों दिशाओं में लिये जाते थे। कुछ लोगों के अस्त्र-शस्त्र और कवच कट गये ओर वे अपने वाहनों से पृथ्वी पर गिर पड़े। उस दशा में रथ के पहियों की नेमि से दब कर उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये और कितने ही घोड़ों तथा हाथियों से कुचल गये। दूसरे बहुत से योद्धा हा तात! हा पुत्र! की रट लगाते हुए भयभीत होकर भाग रहे थे। मोह से बल और उत्साह नष्ट हो जाने के कारण वे ऐसे अचेत हो रहे थे कि एक दूसरे को पहचान भी नहीं पाते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
कितने ही सैनिक अधिक चोट खाये हुए अपने पुत्र, पिता, मित्र और भाइयों को रथ पर चढ़ाकर तथा उनके कवच खोलकर उनके घावों को जल से भिगो रहे थे। आचार्य द्रोण के मारे जाने पर वैसी दुरवस्था में पकड़कर जो सेना भाग गयी थी, उसे फिर किसने लौटाया है? यदि तुम जानते हो तो मुझे बताओ। रथ के पहियों की घर्घराहट से मिला हुआ हिनहिनाते हुए घोड़ों और गर्जते हुए गजराजों का महान शब्द सुनायी पड़ता है। कौरव सेनारूपी समुद्र में यह कोलाहल अत्यन्त तीव्र वेग से होने लगा है और बारंबार बढ़ता जा रहा है, जो मेरे सैनिकों को कम्पित किये देता है। यह जो महाभयंकर रोमांचकारी शब्द सुनायी देता है, यह इन्द्र सहित तीनों लोकों को ग्रस लेगा, ऐसा मुझे जान पड़ता है। मैं समझता हूं, यह भंयकर शब्द वज्रधारी इन्द्र की गर्जना है। द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कौरवों की सहायता के लिये साक्षात इन्द्र आ रहे हैं, यह स्पष्ट जान पड़ता है। धनंजय! यह अत्यंत भीषण और भारी सिंहनाद सुनकर हमारे श्रेष्ठ रथी भी उद्विग्न हो उठे और इनके रोंगटे खड़े हो गये हैं। देवराज इन्द्र के समान यह कौन महारथी भागे हुए कौरवों को खड़ा करके उन्हें पुन: युद्ध के लिये रणभूमि में लौटा रहा है?
अर्जुन कहते हैं ;- राजन! जिसके विषय में आपको यह संदेह होता है कि शस्त्रों का परित्याग कर देने वाले गुरुदेव द्रोणाचार्य के मारे जाने पर यह कौन वीर कौरव-सैनिकों को दृढ़तापूर्वक स्थापित करके सिंहनाद कर रहा है तथा जिसके बल और पराक्रम का आश्रय लेकर पराक्रमी कौरव अपने को भयंकर कर्म करने के लिये उद्यत करके शंख ध्वनि कर रहे हैं, जो महाबाहु मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलने वाला और लज्जाशील है, जो बल में इन्द्र और विष्णु के समान, क्रोध में यमराज के सदृश तथा बुद्धि में बृहस्पति के तुल्य है, जो नीतिमान्, महारथी, उग्रकर्म करने में समर्थ तथा कौरवों को अभयदान देने वाला है, उस वीर का परिचय देता हूं, सुनिये। जिसके जन्म लेने पर आचार्य द्रोण ने परम सुयोग्य ब्राह्मणों को एक सहस्र गौएं दान की थी, वही अश्वत्थामा यह गर्जना कर रहा है।
पाण्डुननन्दन! जिस वीर ने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान हिनहिनाकर पृथ्वी तथा तीनों लोकों को कम्पित कर दिया था और उस शब्द को सुनकर किसी अदृश्य प्राणी ने उस समय उसका नाम अश्वत्थामा रख दिया था, यह वही शूरवीर अश्वत्थामा सिंहनाद कर रहा है। द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने जिन पर आक्रमण करके अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म के द्वारा जिन्हें अनाथ के समान मार डाला था, उन्हीं का यह रक्षक या सहायक उठ खड़ा हुआ है। पांचालराजकुमार ने जो मेरे गुरुदेव का केश पकड़कर खींचा था, उसे अपने पुरुषार्थ को जानने वाला अश्वत्थामा कभी क्षमा नहीं कर सकता। आपने धर्मज्ञ होते हुए भी राज्य के लोभ से झूठ बोलकर जो अपने गुरु को धोखा दिया, वह महान पाप किया है। अत: छिपकर बाली का वध करने के कारण जैसे श्रीरामचन्द्र जी को अपयश मिला, उसी प्रकार झूठ बोलकर द्रोणाचार्य को मरवा देने के कारण चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में आपकी अकीर्ति चिरस्थायिनी हो जायेगी। आचार्य ने यह समझकर आप पर विश्वास किया था कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सब धर्मों के ज्ञाता और मेरे शिष्य हैं। ये कभी झूठ नहीं बोलते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद)
परंतु आपने सत्य का चोला पहनकर आचार्य से झूठे ही कह दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। उसी नाम का हाथी मारा गया था, इसलिये आपने उसी आड़ लेकर झूठ कहा। फिर वे हथियार डालकर अपने प्राणों की ममता से रहित हो अचेत हो गये। राजन! उस समय शक्तिशाली होने पर भी वे कितने व्याकुल हो गये थे, यह आपने प्रत्यक्ष देखा था। पुत्रवत्सल गुरुदेव बेटे के शोक में मग्न होकर युद्ध से विमुख हो गये थे। उस अवस्था में आपने सनातन-धर्म की अवहेलना करके उन्हें शस्त्र से मरवा डाला। जिसके पिता मारे गये हैं, वह आचार्यपुत्र अश्वत्थामा आज कुपित होकर धृष्टद्युम्न को काल का ग्रास बनाना चाहता है।
अस्त्र त्यागकर निहत्थे हुए गुरुदेव को अधर्मपूर्वक मरवाकर अब आप मंत्रियों सहित उसके सामने जाइये और यदि शक्ति हो तो धृष्टद्युम्न की रक्षा कीजिए। आज हम सब लोग मिलकर भी धृष्टद्युम्न को नही बचा सकेंगे। जो अश्वत्थामा अतिमानव (अलौकिक पुरुष) है और समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखता है, वही आज अपने पिता के केश पकड़े जाने की बात सुनकर समरांगण में हम सब लोगों को जलाकर भस्म कर देगा। मैं आचार्य के प्राणों की रक्षा चाहता हुआ बारंबार पुकारता ही रह गया, परंतु स्वयं शिष्य होकर भी धृष्टद्युम्न ने धर्म को लात मारकर अपने गुरु की हत्या कर डाली। अब हम लोगों की आयु का अधिकांश भाग बीत चुका है और बहुत थोड़ा ही शेष रह गया है। इसी में इस समय हमारा मस्तिष्क खराब हो गया और हम लागों ने यह महान पाप कर डाला है। जो सदा पिता की भाँति हम लोगों पर स्नेह रखते और हमारा हित चाहते थे, धर्मदृष्टि से भी जो हमारे पिता के ही तुल्य थे, उन्हीं गुरुदेव को हमने इस क्षण भंगुर राज्य के लिये मरवा दिया।
प्रजानाथ! धृतराष्ट्र ने भीष्म और द्रोण को उनकी सेवा में रहने वाले अपने पुत्रों के साथ ही इस सारी पृथ्वी का राज्य सौंप दिया गया था। हमारे शत्रु सदा आचार्य का सत्कार किया करते थे। उनके द्वारा वैसी उत्तम जीविका-वृति पाकर भी आचार्य सदा मुझे ही अपने पुत्र से बढ़कर मानते रहे हैं। उन्होंने आपको और मुझको देखकर युद्ध में हथियार डाल दिया और मारे गये। यदि वे युद्ध करते होते हो साक्षात इन्द्र भी उन्हें मार नहीं सकते थे। हमारी बुद्धि लोभ से ग्रस्त है, हम नीचों ने राज्य के लिये सदा उपकार करने वाले बुढ़े आचार्य के साथ द्रोह किया है। ओह! हमने यह अत्यंत भयंकर महान पापकर्म कर डाला है, जो कि राज्य-सुख के लोभ में पड़कर इन आचार्य द्रोण की पूर्णत: हत्या करा दी। मेरे गुरुदेव ऐसा समझते थे कि अर्जुन मेरे प्रेमवश आवश्यकता हो तो अपने पिता, पुत्र, भाई, स्त्री तथा प्राण सबका त्याग कर सकता है। किंतु मैने राज्य के लोभ में पड़कर उनके मारे जाने की उपेक्षा कर दी। राजन! प्रभो! इस पाप के कारण अब मैं नीचे सिर करके नरक में डाला जाउंगा। एक तो वे ब्राह्मण, दूसरे वृद्ध और तीसरे अपने आचार्य थे। इसके सिवा उन्होंने हथियार नीचे डाल दिया था और महान मुनिवृत्ति का आश्रय लेकर बैठे हुए थे। इस अवस्था में राज्य के लिये उनकी हत्या कराकर मैं जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा समझता हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्ष पर्व अर्जुन वाक्य विषयक एक सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन के वीरोचित उद्गार और धृष्टधुम्र के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन”
संजय कहते हैं ;- महाराज! अर्जुन की यह बात सुनकर वहाँ बैठे हुए सब महारथी मौन रह गये। उनसे प्रिय या अप्रिय कुछ नहीं बोल। भरतश्रेष्ठ! तब महाबाहु भीमसेन को क्रोध चढ़ आया। उन्होंने कुन्तीकुमार अर्जुन को फटकारते हुए से कहा,
भीमसेन ने कहा ;- 'पार्थ! वनवासी मुनि अथवा किसी भी प्राणी को दण्ड न देते हुए कठोर व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण जिस प्रकार धर्म का उपदेश करता है, उसी प्रकार तुम भी धर्म सम्मत बातें कह रहे हो। परंतु जो क्षति (संकट) से अपना तथा दूसरों का त्राण करता है, युद्ध में शत्रुओं को क्षति पहुँचाना ही जिसकी जीविका है तथा जो स्त्रियों और साधु पुरुषों पर क्षमाभाव रखता है, वही क्षत्रिय है और उसे ही शीघ्र इस पृथ्वी के राज्य, धर्म, यश और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। तुम समस्त क्षत्रियोचित गुणों से सम्पन्न और इस कुल का भार वहन करने में समर्थ होते हुए भी आज मूर्ख के समान बातें कर रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता है।
कुन्तीनन्दन! तुम्हारा पराक्रम शचीपति इन्द्र के समान है। महासागर जैसे अपनी तट-भूमि का उल्ल्ांघन नहीं करता, उसी प्रकार तुम भी कभी धर्म-मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हो। आज तेरह वर्षों से संचित किए हुए अमर्ष को पीछे करके जो तुम धर्म की अभिलाषा रखते हो, इसके लिये कौन तुम्हारी पूजा नहीं करेगा? तात! सौभाग्य की बात है कि इस समय भी तुम्हारा मन अपने धर्म का ही अनुसरण करता है। धर्म से कभी च्यूत न होने वाले मेरे भाई! तुम्हारी बुद्धि क्रूरता की ओर न जाकर जो सदा दया भाव में ही रम रही है, यह भी कम सौभाग्य की बात नहीं है। परन्तु धर्म में तत्पर रहने पर भी जो शत्रुओं ने अधर्म से हमारा राज्य छीन लिया, द्रौपदी को सभा में लाकर अपमानित किया तथा हमें वल्कल और मृगचर्म पहनाकर तेरह वर्षों के लिये जो वन में निर्वासित कर दिया, हम वैसे बर्ताव के योग्य कदापि नहीं थे।
अनघ! ये सारे अन्याय अमर्ष के स्थान थे- असह्य थे, परंतु मैने सब चुपचाप सह लिये। क्षत्रिय-धर्म में आसक्त होने के कारण ही यह सब कुछ सहन किया गया है। परंतु अब उनके उन नीचतापूर्ण पाप कर्मों को याद करके मैं तुम्हारें साथ रहकर अपने राज्य का अपहरण करने वाले इन नीच शत्रुओं को उनके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंग। तुमने ही पहले युद्ध के लिये कहा था और उसी के अनुसार हम यहाँ आकर यथा शक्ति, उसके लिये प्रत्यत्न कर रहे हैं, परंतु आज तुम्हीं हमारी निन्दा करते हो। तुम अपने क्षत्रिय-धर्म को नहीं जानना चाहते। तुम्हारी ये सारी बातें मिथ्या ही हैं। एक तो हम स्वयं ही भय से पीड़ित हो रहे हैं, ऊपर से तुम भी अपने वाग्बाणों द्वारा हमारे मर्म स्थानों को छेदे डालते हो। शत्रुसूदन! जैसे कोई घायल मनुष्यों के घाव पर नमक बिखेर दे (और वे वेदना से छटपटाने लगें), उसी प्रकार तुम अपने वाग्बाणों से पीड़ित करके मेरे हृदय को विदीर्ण किये डालते हो। यद्यपि तुम और हम प्रंशसा के पात्र हैं, तो भी तुम जो अपनी और हमारी प्रशंसा नहीं करते हो, यह बहुत बड़ा अधर्म है और तुम धार्मिक होते हुए इस अधर्म को नहीं समझ रहे हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
धनंजय! भगवान श्रीकृष्ण के रहते हुए भी तुम द्रोणपुत्र की प्रशंसा करते हो, जो तुम्हारी पूरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। स्वयं ही अपने दोषों का वर्णन करते हुए तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती है? आज मैं अपनी इस सुवर्ण भूषित भयंकर एवं भारी गदा को क्रोधपूर्वक घुमाकर इस पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूं, पर्वतों को चूर-चूर करके बिखेर सकता हूँ तथा प्रचण्ड आंधी की तरह पर्वत पर प्रकाशित होने वाले ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को भी तोड़ और उखाड़ सकता हूँ। पार्थ! असुर, नाग, मानव तथा राक्षसगणों सहित सम्पूर्ण देवता और इन्द्र भी आज जाये तो मैं उन्हें बाणों द्वारा मारकर भगा सकता हूँ। अमित पराक्रमी नरश्रेष्ठ अर्जुन! मुझे अपने भ्राता को ऐसा जानकर तुम्हें द्रोणपुत्र से भय नहीं करना चाहिए। अथवा अर्जुन! तुम अपने समस्त भाईयों के साथ यहीं खड़े रहो। मैं हाथ में गदा लेकर इस महासमर में अकेला ही अश्वत्थामा को परास्त करूंगा।
तदनन्तर जैसे पूर्वकाल में अत्यंत क्रुद्ध होकर दहाड़ते हुए नृसिंहावतारधारी भगवान विष्णु से दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने बातें की थी, उसी प्रकार वहाँ अर्जुन से पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न ने इस प्रकार कहा-
धृष्टद्युम्न बोला ;- अर्जुन! यज्ञ करना और कराना, वेदों को पढ़ना और पढ़ाना तथा दान देना और प्रतिग्रह स्वीकार करना- ये छ: कर्म ही ब्राह्मणों के लिये मनीषी पुरुषों में प्रसिद्ध हैं। इनमें से किस कर्म में द्रोणाचार्य प्रतिष्ठित थे। अपने धर्म से भ्रष्ट होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म का आश्रय ले रखा था। पार्थ! ऐसी अवस्था में यदि मैनें द्रोणाचार्य का वध किया तो तुम इसके लिये मेरी निन्दा क्यों करते हो। वह नीच कर्म करने वाला ब्राह्मण दिव्यास्त्रों द्वारा हम लोगों का संहार करता था। कुन्तीनन्दन! जो ब्राह्मण कहलाकर भी दूसरों के लिये माया का प्रयोग करता हो और असहाय हो उठा हो, उसे यदि कोई माया से मार डाले तो इसमें अनुचित क्या है? मेरे द्वारा द्रोणाचार्य के इस अवस्था में मारे जाने पर यदि द्रोणपुत्र क्रोधपूर्वक भयानक गर्जना करता हो तो उसमें मेरी क्या हानि है? मैं इसे कोई अद्भुत बात नहीं मान रहा हूं, अश्वत्थामा इस युद्ध के द्वारा कौरवों को मरवा डालेगा, क्योंकि वह स्वयं उनकी रक्षा करने में असमर्थ हूँ। इसके सिवा तुम धार्मिक होकर जो मुझे गुरु की हत्या करने वाला बता रहे हो, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि मैं इसीलिये अग्नि कुण्ड से पांचालराज का पुत्र होकर उत्पन्न हुआ था।
धनंजय! रणभूमि में युद्ध करते समय जिसके लिये कर्त्तव्य और सकर्त्तव्य दोनों समान हों, उसे तुम ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय कैसे कह सकते हो? पुरुषप्रवर! जो क्रोध से व्याकुल होकर ब्रह्मास्त्र न जानने वालों को भी ब्रह्मास्त्र से ही मार डाले, उसका सभी उपायों से वध करना कैसे उचित नहीं? धर्म और अर्थ का तत्त्व जानने वाले अर्जुन! जो अपना धर्म छोड़कर परधर्म ग्रहण कर लेता है, उस विधर्मी को धर्मज्ञ पुरुषों ने धर्मात्माओं के लिये विष के तुल्य बताया है। यह सब जानते हुए भी तुम मेरी निन्दा क्यों करते हो? बीभत्सो! द्रोणाचार्य क्रूर एवं नृशंस थे, इसलिये मैंने रथ पर ही आक्रमण करके उनको मार गिराया। अत: मैं निन्दा का पात्र नहीं हूँ। फिर तुम किसलिये मेरा अभिनन्दन नहीं करते हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद)
पार्थ! द्रोण का मस्तक प्रलयकाल की अग्नि के समान अत्यंत भयंकर तथा लौकिक अग्नि, सूर्य एवं विष के तुल्य संताप देने वाला था, अत: मैंने उसका छेदन किया है। इसके लिये तुम मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करते? जिसने युद्ध के मैदान में दूसरे किसी के नहीं, मेरे ही बन्धु-बान्धवों का वध किया था, उसका मस्तक काट लेने पर भी मेरा क्रोध और संताप शांत नहीं हुआ है। जैसे तुमने जयद्रथ के मस्तक को दूर फेंका था, उसी प्रकार मैंने द्रोणाचार्य के मस्तक को जो निषादों के स्थान में नहीं फेंक दिया, वह भूल मेरे मर्मस्थानों का छेदन कर रही है।
अर्जुन! सुनने में आया है कि शत्रुओं का वध न करना भी अधर्म ही है। क्षत्रिय के लिये तो यह धर्म ही है कि वह युद्ध में शत्रु को मार डाले या फिर स्वयं उसके हाथ से मारा जाय। पाण्डुनन्दन! द्रोणाचार्य मेरे शत्रु थे, अत: मैंने युद्ध में धर्म के अनुसार ही उनका वध किया है। ठीक उसी तरह, जैसे तुमने अपने पिता के प्रिय मित्र शूरवीर भगदत्त का वध किया था। तुम युद्ध में पितामह को मारकर भी अपने लिये तो धर्म मानते हो, किंतु मेरे द्वारा एक पापी शत्रु के मारे जाने पर भी इस कार्य को धर्म नहीं समझते, इसका क्या कारण है?
पार्थ! जैसे हाथी सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर लोगों को अपने ऊपर चढ़ाने के लिये अपने ही शरीर की सीढ़ी बनाकर बैठ जाता है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ सम्बन्ध होने के कारण नतमस्तक होता हूं, अत: तुम्हे मेरे प्रति ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। अर्जुन! मैं अपनी बहिन द्रौपदी और उसके पुत्रों के नाते ही तुम्हारी इन सारी उलटी या कड़वी बातों को सहे लेता हूं, दूसरे किसी कारण से नहीं। द्रोणाचार्य के साथ मेरा वंश-पराम्परागत वैर चला आ रहा है, जो बहुत प्रसिद्ध है। उसे यह सारा संसार जानता है, क्या तुम पाण्डवों को इसका पता नहीं है? अर्जुन! तुम्हारे बड़े भाई पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर असत्यवादी नहीं हैं और न मैं ही अधर्मीं हूँ। द्रोणाचार्य पापी और शिष्यद्रोही थे, इसलिये मारे गये। अत: तुम युद्ध करो, विजय तुम्हारे हाथ में है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्ष पर्व में धृष्टधुम्न वाक्य विषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि और धृष्टधुम्न का परस्पर क्रोधपूर्वक वाग्बाणों से लड़ना तथा भीमसेन, सहदेव और श्रीकृष्ण एवं युधिष्ठिर के प्रयत्न से उनका निवारण”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! जिन महात्मा ने विधिपूर्वक अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन किया था, जिन लज्जाशील सत्पुरुष में साक्षात धुनर्वेद प्रतिष्ठित था, जिनके कृपाप्रसाद से कितने ही पुरुषरत्न योद्धा संग्रामभूमि में ऐसे-ऐसे अलौकिक पराक्रम कर दिखाते थे, जो देवताओं के लिये भी दुष्कर थे, उन्हीं द्रोणाचार्य की वह पापी, नीच, नृशंस, क्षुद्र क्षौर गुरुघाती धृष्टद्युम्न सबके सामने निन्दा कर रहा था और लोग क्रोध नहीं प्रकट करते थे। धिक्कार है ऐसे क्षत्रियों को! और धिक्कार है उनके अमर्षशील स्वभाव को!।
संजय! भूमण्डल के जो-जो धनुर्धर नरेश वहाँ उपस्थित थे, उन सबने तथा कुन्ती के पुत्रों ने धृष्टद्युम्न की बात सुनकर उससे क्या कहा? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- प्रजानाथ! क्रूरकर्मा द्रुपदपुत्र की वे बातें सुनकर वहाँ बैठे हुए सभी नरेश मौन रह गये। केवल अर्जुन टेढ़ी नजरों से उसकी ओर देखकर आंसू बहाते हुए दीर्घ नि:श्वास ले इतना ही बोले कि- धिक्कार है! धिक्कार है!। राजन! उस समय युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य लोग भी अत्यंत लज्जित हो चुप ही बैठे रहे, परंतु सात्यकि इस प्रकार बोल उठे,
सात्यकि बोले ;- क्या यहाँ कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस प्रकार अभद्रतापूर्ण वचन बोलने वाले इस पापी नराधम को शीघ्र ही मार डाले। धृष्टद्युम्न! जैसे ब्राह्मण चाण्डाल की निन्दा करते है, उसी प्रकार ये समस्त पाण्डव उस पापकर्म के कारण अत्यन्त घृणा प्रकट करते हुए तेरी निन्दा कर रहें हैं। यह महान पाप करने तू समस्त श्रेष्ठ पुरुषों की दृष्टि में निन्दा का पात्र बन गया है।
साधु पुरुषों की इस सुन्दर सभा में पहुँचकर ऐसी बातें करते हुए तुझे लज्जा कैसे नहीं आती है? तेरी जीभ के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते और तेरा मस्तक क्यों नहीं फट जाता? ओ नीच! गुरु की निन्दा करते हुए तेरा इस पाप से पतन क्यों नहीं हो जाता? तू पापकर्म करके जनसमाज में जो इस तरह अपनी बड़ाई कर रहा है, इसके कारण तू कुन्ती के सभी पुत्रों तथा अन्धक और वृष्णि वंश के यादवों द्वारा निन्दा के योग्य हो गया है। वैसा पापकर्म करके तू पुन: गुरु पर आक्षेप कर रहा है, अत: तू वध करने के ही योग्य है। एक मुहुर्त भी तेरे जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। पुरुषाघम! तेरे सिवा दूसरा कोई कौन श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्मा सज्जन गुरु के केश पकड़कर उनके वध का विचार भी मन में लायेगा। तुझ-जैसे कुलांगार को पाकर तेरे सात पीढ़ी पहले के और सात पीढ़ी आगे होने वाले बन्धु-बान्धव नरक में डूब गये तथा सदा के लिये सुयश से वंचित हो गये। तूने जो कुन्तीकुमार अर्जुन पर नरश्रेष्ठ भीष्म के वध का दोष लगाया है, वह भी व्यर्थ ही है, क्योंकि महात्मा भीष्म ने स्वयं ही उसी प्रकार अपनी मृत्यु का विधान किया था। वास्तव में भीष्म का वध करने वाला भी तेरा महान पापाचारी भाई ही है, इस पृथ्वी पर पांचालराज के पुत्रों के सिवा दूसरा कोई ऐसा पाप करने वाला नहीं है। यह प्रसिद्ध है कि उसे भी तेरे पिता ने भीष्म का अन्त करने के लिये उत्पन्न किया था, उन्होंने महात्मा भीष्म की मूर्तिमान मृत्यु के रूप में शिखण्डी को सुरक्षित रखा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
तू और तेरा भाई दोनों समस्त साधु पुरुषों में धिक्कार के पात्र हैं। तुम दोनों को पाकर सारे पांचाल धर्मभ्रष्ट, नीच, मित्रद्रोही तथा गुरुद्रोही बन गये हैं। यदि तू पुन: मेरे समीप ऐसी बात बोलेगा तो मैं अपनी बज्रतुल्य गदा से तेरा सिर कुचल दूंगा। यदि ब्रह्माहत्या का पाप लगा है। तुझ ब्रह्माहत्यारे को देखकर लोग अपने प्रायश्चित के लिये सूर्य देवता का दर्शन करते हैं। दुराचारी पांचाल! तू मेरे आगे मेरे ही गुरु तथा मेरे गुरु के भी गुरु पर बारंबार आक्षेप कर रहा है, तो भी तुझे लज्जा नहीं आ। खड़ा रह, खड़ा रह मेरी गदा की यह एक ही चोट सह ले, फिर मैं तेरी गदा की भी अनेक चोटें सहन करूंगा। सात्वतवंशी सात्यकि के इस प्रकार कठोर वचन कहकर आक्षेप करने पर धृष्टद्युम्न अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर वे भी क्रोध में भरे हुए सात्यकि से हंसते हुए से बोले।
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- माधव! मै तेरी यह बात सुनता हूं, सुनता हूँ और इसके लिये तुझे क्षमा भी करता हूँ। दुष्ट और अनार्य पुरुष सदा साधुजनों पर ऐसे ही आक्षेप करने की इच्छा रखते है। यद्यपि लोक में क्षमाभाव की प्रशंसा की जाती है, तथापि पापात्मा मनुष्य कभी क्षमा के योग्य नहीं है, क्योंकि क्षमा कर देने पर वह पापात्मा क्षमाशील पुरुष को ऐसा समझ लेता है कि यह मुझसे हार गया। तू स्वयं ही दुराचारी, नीच और पापपूर्ण विचार रखने वाला है, नख से शिखा तक तक पाप में डूबा होने के कारण निन्दा के योग्य, तथापि दूसरों की निन्दा करना चाहता। भूरिश्रवा की बांह काट डाली गयी थी। वे आमरण उपवास का नियम लेकर चुपचाप बैठे हुए थे। उस दशा में सबके मना करने पर भी जो तूने उनका वध किया, इससे बढ़कर महान पापकर्म और क्या हो सकता है? ओ क्रुर! मैने तो पहले ही युद्ध के मैदान दिव्यास्त्र द्वारा द्रोणाचार्य को मथ डाला था। फिर वे हथियार डालकर मारे गये, तो उसमें मैंने कौन-सा पाप कर डाला।
सात्यके! जो युद्धस्थल में मुनिवृत का आश्रय ले आमरण उपवास का निश्चय लेकर बैठ गया हो, जो अपने साथ युद्ध न कर रहा हो तथा जिसकी बांह भी शत्रुओं द्वारा काट डाली गयी हो, ऐसे पुरुष को जो मार सकता है, वह दूसरे की निन्दा कैसे कर सकता है? जिस समय पराक्रमी भूरिश्रवा तुझे लात से मारकर धरती पर घसीट रहे थे, तू बड़ा श्रेष्ठ पुरुष था, तो उसी समय उन्हें क्यों नहीं मार डाला? जब अर्जुन ने पहले ही प्रतापी शूरवीर सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा को परास्त कर दिया, उस समय तूने उनका वध किया। तू कितना नीच है? द्रोणाचार्य जहां-जहाँ पाण्डव सेना को खदेड़ते थे, वहीं-वहीं मैं जा पहुँचता और सहस्त्रों बाणों की वर्षा करके उनके छक्के छुड़ा देता था। जब तू स्वयं ही चाण्डाल के समान ऐसा पाप-कर्म करके निन्दा का पात्र बन गया है, तब दूसरे को कटु वचन सुनाने का कैसे अधिकारी हो सकता है? वृष्णिकुलकलंक! तू ही ऐसे-ऐसे पाप करने वाला और पाप कर्मों का भण्डार है, मैं नहीं। अत: फिर ऐसी बातें मुंह से न निकालना। चुपचाप बैठा रह, अब फिर ऐसी बातें तुझे नहीं कहनी चाहिए। तू मुझसे जो कुछ कहना चाहता है, वह तेरी बड़ी भारी नीचता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-56 का हिन्दी अनुवाद)
यदि मूर्खतावश तू पुन: मुझसे ऐसी कठोर बातें कहेगा, तो युद्ध में बाणों द्वारा मैं अभी तुझे यमलोक भेज दूंगा। ओ मूर्ख! केवल धर्म से ही युद्ध नहीं जीता जा सकता। उन कौरवों की भी जो अधर्मपूर्ण चेष्टाएं हुई हैं, उन्हें सुन ले। सात्यके! सबसे पहले पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को अधर्मपूर्वक छला गया। फिर अधर्म से ही द्रौपदी को अपमानित किया गया। ओ मूर्ख! समस्त पाण्डवों को जो द्रौपदी के साथ वन में भेज दिया गया और उनका सर्वस्व छीन लिया गया, वह भी अधर्म का ही कार्य था। शत्रुओं ने अधर्म से ही छलकर मद्रराज शल्य को अपने पक्ष में खींच लिया और सुभद्रा के बालक पुत्र अभिमन्यु को भी अधर्म से ही मार डाला था। इस पक्ष से भी अधर्म के द्वारा ही शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले भीष्म मारे गये हैं और तू बड़ा धर्मज्ञ बनता है पर तूने भी अधर्म से ही भूरिश्रवा का वध किया है। सात्वत! इस प्रकार धर्म के जानने वाले वीर पाण्डवों तथा शत्रुओं ने भी युद्ध के मैदान में अपनी विजय को सुरक्षित रखने के लिये समय-समय पर अधर्म पूर्ण बर्ताव किया है। उत्तम धर्म का स्वरूप जानना अत्यंत कठिन है। अधर्म क्या है? इसे समझना भी सरल नहीं है। अब तू कौरवों के साथ पूर्ववत युद्ध कर। मुझसे विवाद करके पितृलोक में जाने की तैयारी न कर।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार कितने ही क्रूर एवं कठोर वचन धृष्टद्युम्न ने श्रीमान सात्यकि को सुनाये। उन्हें सुनकर वे क्रोध से कांपने लगे। उनकी आंखे लाल हो गयीं तथा उन्होंने सर्प के समान लंबी सांस खींचकर धनुष को तो रथ पर रख दिया और हाथ में गदा उठा ली। फिर वे धृष्टद्युम्न के पास पहुँचकर बड़े रोष के साथ इस प्रकार बोले,
सात्यकि ने कहा ;- अब मैं तुझसे कठोर वचन नहीं कहूंगा। तू वध के ही योग्य है, अत: तुझे मार ही डालूंगा। महाबली, अमर्षशील एवं अत्यंत क्रोध में भरे हुए यमराज-तुल्य सात्यकि जब सहसा कालस्वरूप धृष्टद्युम्न की ओर बढ़े, तब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से महाबली भीमसेन ने तुरंत ही रथ से कूदकर उन्हें दोनों हाथों से रोक लिया। क्रोधपूर्वक आगे बढ़ते और झपटते हुए बलवान सात्यकि को महाबली पाण्डुपुत्र भीम ने थामकर साथ-साथ चलना आरम्भ किया। फिर भीम ने खड़े होकर अपने दोनों पैर जमा दिये और बलवानों में श्रेष्ठ शिनिप्रवर सात्यकि को छठे कदम पर बलपूर्वक काबू कर लिया।
प्रजानाथ! इतने ही में सहदेव भी तुरंत ही रथ से उतर पड़े और महाबली भीमसेन के द्वारा पकड़े गये सात्यकि से मुधर वाणी में इस प्रकार बोले- माननीय पुरुषसिंह! अन्धक और वृष्णि वंश के यादवों तथा पांचालों से बढ़कर दूसरा कोई हम लोगों का मित्र नहीं है। इस प्रकार अन्धक और वृष्णिवंश के लोगों का तथा विशेषत: श्रीकृष्ण का हम लोगों से बढ़कर दूसरा कोई मित्र नहीं है। वार्ष्णेय! पांचाल लोग भी यदि समुद्र तक की सारी पृथ्वी खोज डालें, तो भी उन्हें दूसरा कोई वैसा मित्र नहीं मिलेगा, जैसे उनके लिये पाण्डव और वृष्णिवंश के लोग है। आप भी हमारे ऐसे ही मित्र हैं, जैसा कि आप स्वयं भी मानते हैं। आप लोग जैसे हमारे मित्र हैं, वैसे ही हम भी आपके हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 57-68 का हिन्दी अनुवाद)
सब धर्मों के ज्ञाता शिनिप्रवर! इस प्रकार मित्र धर्म का विचार करके आप धृष्टद्युम्न की ओर से अपने क्रोध को रोकें और शान्त हो जायें, आप धृष्टद्युम्न के और धृष्टद्युम्न आपके अपराध को क्षमा कर लें। हम लोग केवल क्षमा-प्रार्थना करने वाले हैं, शांति से बढ़कर श्रेष्ठ वस्तु और क्या हो सकती है? माननीय नरेश! जब सहदेव सात्यकि को इस प्रकार शांत कर रहे थे, उस समय पांचालराज के पुत्र ने हंसकर इस प्रकार कहा- भीमसेन! शिनि के इस पौत्र को अपने युद्ध-कौशल पर बड़ा घमंड है। तुम इसे छोड़ दो, छोड़ दो। जैसे हवा पर्वत से आकर टकराती है, उसी प्रकार यह मुझसे आकर भिड़े तो सही।
कुन्तीनन्दन! मैं अभी तीखे बाणों से इसका क्रोध उतार देता हूँ। साथ ही इसका युद्ध का हौसला और जीवन भी समाप्त किये देता हूँ। परन्तु मैं इस समय क्या कर सकता हूँ। पाण्डवों का यह दूसरा ही महान कार्य उपस्थित हो गया। ये कौरव बढ़े चले आ रहे हैं। अथवा केवल अर्जुन यद्ध के मैदान में इन समस्त कौरवों को रोकेंगे, तब तक मैं भी अपने बाणों द्वारा इस सात्यकि का मस्तक काट गिराउंगा। यह मुझे भी रण भूमि में कटी हुई बांह वाला भूरिश्रवा समझता है। तुम छोड़ तो इसे। या तो मैं इसे मार डालूंगा या यह मुझे। अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर दो सांडों के समान गरज रहे थे। माननीय नरेश! उस समय भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर ने शीघ्रतापूर्वक महान प्रयत्न करके उन दोनों वीरों को रोका। क्रोध से लाल ऑखें किये उन दोनों महान धनुर्धरों को रोककर वे क्षत्रियशिरोमणि वीर समरभूमि में युद्ध की इच्छा से आते हुए शत्रुओं का सामना करने के लिये चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्ष पर्व में धृष्टद्युम्न और सात्यकि का क्रोध विषयक एक सौ अटठानवेवॉ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वथामा के द्धारा नारायणाश्त्र का प्रयोग, राजा युधिष्ठिर का, खेद, भगवान् श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा, भीमसेन का वीरोचित उद्गार और उनपर उस अस्त्र का प्रबल आक्रमण”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामा माने प्रलयकाल में काल से प्रेरित हो समस्त प्राणियों का संहार करने वाले यमराज के सामन शत्रुओं का विनाश आरम्भ किया। उसने शत्रु सैनिकों को भल्लों से मार-मारकर उनकी लाशों का पहाड़ जैसा ढेर लगा दिया। ध्वजाएँ उस पहाड़ के वृक्ष, शस्त्र उसके शिखर और मारे गये हाथी उसकी बड़ी बड़ी शिलाओं के समान थे। घोड़े मानो उस पर्वत पर निवास करने वाले किम्पुरुष थे। धनुष लताओं के समान फैलकर उस पर छाये हुए थे। मांस भक्षी जीव जन्तु मानो वहाँ चहचहाने वाले पक्षी थे और भूतों के समुदाय उस पर विहार करने वाले यक्ष जान पड़ते थे। नरश्रेष्ठ अश्वथामा ने फिर बड़े वेग से गर्जना करके आपके पुत्र को पुनः अपनी प्रतिज्ञा सुनायी।
'धर्म का चोला पहने हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने युद्ध परायण आचार्य से ‘शस्त्र त्याग दीजिये’ ऐसा कहा था और शस्त्र रखवा दिया; इसलिये मैं उनके देखते देखते उनकी सारी सेना को खदेड़ दूँगा और समस्त सैनिकों को भगाकर उस नीच पान्चालपुत्र को मार डालूँगा। यदि ये रणभूमि में मेरे साथ युद्ध करेंगे तो मैं इन सबका वध कर डालूँगा, यह मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ। अतः तुम अपनी सेना को लौटाओ’। यह सुनकर आपके पुत्र ने महान सिंहनाद के द्वारा अपनी सेना का भारी भय दूर करके फिर उसे लौटाया। राजन! फिर मेरे भरे हुए दो महासागरों के समान कौरव पाण्डव सेनाओं में घोर संग्राम आरम्भ हो गया। द्रोणपुत्र से आश्वासन पाकर कौरव सैनिक स्थिर हो युद्ध के लिये रोष और उत्साह में भर गये थे उधर द्रोणाचार्य के मारे जाने से पाण्डव और पान्चाल वीर पहले से ही उद्धत हो रहे थे। प्रजानाथ! वे अत्यन्त हर्षोत्फुल्ल होकर अपनी ही विजय देख रहे थेा रोषावेष में भरे हुए उन सैनिकों का महान वेग प्रकट हुआ।
राजेन्द्र! जैसे एक पहाड़ दूसरे पहाड़ से टकरा जाय तथा एक दूसरे समुद्र से टक्कर ले, वही अवस्था कौरव पाण्डव योद्धाओं की भी थी। तदन्तर हर्षमग्न हुए कौरव पाण्डव सैनिक सहस्रों शंख और हजारों रणभेरियाँ बजाने लगे। जैसे मथे जाते हुए समुद्र का महान शब्द सब और गूँज उठा था, उसी प्रकार आपकी सेना का महान कोलाहल भी अदभुत एवं अनुपम था। तत्पश्चात द्रोणपुत्र अश्वथामा ने पाण्डवों और पान्चालों की सेना को लक्ष्य करके नारायणास्त्र प्रकट किया। उससे आकाश में हजारों बाण प्रकट हुए उन सबके अग्रभाग प्रज्वलित हो रहे थे वे सभी बाण प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान आकर पाण्डव सैनिकों का विनाश करने को उद्यत थे। राजन! जैसे दो ही घड़ी में सूर्य की किरणें सारे संसार में फैल जाती हैं, उसी प्रकार उस महासमर में बाण सम्पूर्ण दिशाओं, आकाश और समस्त सेनाओं में छा गये। महाराज! इसी प्रकार यहाँ निर्मल आकाश में प्रकाशित होने वाले ज्योतिर्मय ग्रह नक्षत्रों के समान काले लोहे के जलते हुए गोले भी प्रकट हो होकर गिरने लगे। फिर चार या दो पहियों वाली शतघ्नियाँ (तोपें), बहुत सी गदाएँ तथा जिनके प्रान्त भाग में छुरे लगे हुए थे, ऐसे सूर्यमण्डल के समान कितने ही चक्र प्रकट होने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुषश्रेष्ठ! उस समय आकाश को विभिन्न शस्त्रों के आकार वाले पदार्थों से अत्यन्त व्याप्त हुआ सा देख पाण्डव, पांचाल और सृंजय योद्धा उद्विग्न हो उठे। जनेश्वर! पाण्डव महारथी जैसे जैसे युद्ध करते थे, वैसे ही वैसे उस अस्त्र का वेग बढ़ता जाता था। उस नारायणास्त्र से घायल हुए सैनिक रणभूमि में ऐसे पीड़ित हुए मानो सब ओर से आग में झुलस रहे हों। प्रभो! जैसे सर्दी बीतने पर गर्मी में लगी हुई आग सूखे काठ या जंगल को जला डाले, उसी प्रकार वह अस्त्र पाण्डव सेना को भस्म करने लगा।
राजन! जब वह अस्त्र सब ओर व्याप्त हो गया और उसके द्वारा पाण्डव सेना क्षीण होने लगी, तब धर्मपुत्र युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्होंने अपनी उस सेना को जब अचेत होकर भागती और कुन्तीपुत्र अर्जुन को तटस्थ भाव से खड़ा देखा, तब इस प्रकार कहा- ‘धृष्टद्युम्न! तुम पांचालों की सेना के साथ भाग जाओ सात्यके! तुम भी वृष्णिवंशी और अन्धकवंशी वीरों को साथ लेकर चले जाओ। भगवान श्रीकृष्ण भी अपने लिये जो उचित समझेंगे, करेंगे ये सारे जगत् के कल्याण का उपदेश देते हैं, फिर अपना भला क्यों नहीं करेंगे? मैं तुम सभी सैनिकों से कह रहा हूँ, कोई भी युद्ध न करो अब मैं भाइयों के साथ अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।
कायरों के लिये दुस्तर संग्राम में भीष्म और द्रोणाचार्यरूपी महासागर को पार करके मैं सगे सम्बन्धियों के साथ अश्वत्थामारूपी गाय की खुरी के जल में डूब जाऊँगा। अर्जुन की मेरे प्रति जो शुभकामना है, वह शीघ्र पूरी हो जानी चाहिये; क्योंकि सदा अपने कल्याण में संलग्न रहने वाले आचार्य को मैंने युद्ध में मरवा दिया है। जिन्होंने युद्ध कौशल से रहित बालक सुभद्राकुमार को क्रूर स्वभाव वाले बहुसंख्यक शक्तिशाली महारथियों द्वारा मरवा दिया और उसकी रक्षा नहीं की। पुत्र सहित जिन्होंने सभा में लायी गयी द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर न देकर उसके प्रति उपेक्षा दिखायी, उस समय वह बेचारी हमारे दासभाव के निवारण का प्रयत्न कर रही थी। जिन्होंने अर्जुन के विनाश के लिये युद्ध में सिंधुराज की रक्षा की निमित्त महान प्रयत्न किया और अपनी प्रतिज्ञा रखी। हम लोग विजय की अभिलाषा से आगे बढ़ना चाहते थे; किन्तु जिन्होंने हमें व्यूह के दरवाजे पर ही रोक रखा था, यथाशक्ति उसके भीतर प्रवेश करने की चेष्टा में लगी हुई हमारी विशाल सेना को भी उन्होंने रोक ही दिया थ। अर्जुन के घोड़े जब थक गये थे और धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन जब अर्जुन के वध की इच्छा से उन पर आक्रमण कर रहा था, उस समय जिन्होंने उसकी तथा सिंधुराज की रक्षा के लिये उसे दिव्य कवच द्वारा सुरक्षित कर दिया था। ब्रह्मास्त्र को जानने वाले जिन आचार्य देव ने मेरी विजय के लिये प्रयत्न करने वाले सत्यजित आदि पांचाल वीरों को समूल नष्ट कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)
जब कौरव अधर्मपूर्वक हमें राज्य से निर्वासित कर रहे थे, तब जिन्होंने हमें रोकने (शान्त करने) की ही चेष्टा की थी; किन्तु उनका हित चाहने वाले हम लोगों का उस समय उन्होंने साथ नहीं दिया था। जो (इस प्रकार) हम लोगों पर अत्यन्त स्नेह करने वाले थे वे द्रोणाचार्य मारे गये हैं; अतः उनके लिये अपने भाइयों सहित मैं भी मर जाऊँगा’। जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय दशार्हकुलभूषण भगवान श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही अपनी दोनों भुजाओं के संकेत से सारी सेना को रोककर इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘योद्धाओें! अपने अस्त्र शस्त्र शीघ्र नीचे डाल दो और सवारियों से उतर जाओ परमात्मा नारायण ने इस अस्त्र के निवारण के लिये यही उपाय निश्चित किया है। तुम सब लोग हाथी, घोड़े और रथों से उतरकर पृथ्वी पर आ जाओ इस प्रकार भूमि पर निहत्थे खड़े हुए तुम लोगों को यह अस्त्र नहीं मार सकेगा।
हमारे योद्धा जैस तैसे इस अस्त्र के विरुद्ध युद्ध करते हैं, वैसे ही वैसे ये कौरव अत्यन्त प्रबल होते जा रहे हैं। जो लोग अपने वाहनों से उतरकर हथियार नीचे डाल देंगे और जो वीर वाहन रहित हो इसके सामने हाथ जोड़कर नमस्कार करेंगे, उन मनुष्यों को संग्राम भूमि में यह अस्त्र नहीं मारेगा। जो कोई मन से भी इस अस्त्र का सामना करेंगे, वे रसातल में चले गये हों तो भी यह अस्त्र वहाँ पहुँचकर उन सबको मार डालेगा।' भारत! भगवान वासुदेव का यह बचन सुनकर सब योद्धाओं ने अन्यान्य इन्द्रियों तथा मन से भी अस्त्र को त्याग देने का विचार कर लिया। राजन! तब उन सबको अस्त्र त्याग ने लिये उद्यत हुआ देख पाण्डुनन्दन भीमसेन ने उनमें हर्ष और उत्साह पैदा करते हुए इस प्रकार कहा,
भीमसेन ने कहा ;- किसी भी वीर को किसी तरह भी अपने हथियार नहीं डालने चाहिये। मैं अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा द्रोणपुत्र के अस्त्र का निवारण करुंगा। इस सुवर्णमयी भारी गदा से रणभूमि में द्रोणपुत्र के अस्त्रों को चूर-चूर करने के लिये मैं काल के समान प्रहार करुंगा। इस संसार में पराक्रम की समानता करने वाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है।
ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य के समान दूसरा कोई ज्योतिर्मय ग्रह नहीं है। गजराज के शुण्डों के समान मोटी मेरी इन भुजाओं को देखो तो सही, ये हिमालय पर्वत को भी धराशायी करने में समर्थ हैं। यहाँ के मनुष्यों में एक ही ऐसा हूँ, जिसमें दस हजार हाथियों के समान बल है। जैसे स्वर्गलोक और देवताओं में केवल इन्द्र ही ऐसे हैं, जिनका दूसरा कोई प्रतिद्वन्दी योद्धा नहीं है। आज युद्धस्थल में मोटे कंधे वाली मेरी इन दोनों भुजाओं का बल देखो कि ये किस प्रकार अश्वत्थामा के प्रज्वलित एवं दीप्तिमान अस्त्र के निवारण में समर्थ होती हैं। यदि इस नारायणास्त्र का सामना करने वाला दूसरा कोई योद्धा अब तक नहीं हुआ है, जो आज मैं कौरवों और पाण्डवों के देखते देखते इसका समाना करुंगा। अर्जुन! अर्जुन! वीभत्सो! कहीं तुम भी न अपने गाण्डीव धनुष को नीचे डाल देना; नहीं तो तुम में भी चन्द्रमा के समान कलंक लग जायेगा और वह तुम्हारी निर्मलता को नष्ट कर देगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 53-63 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन बोले ;- भैया भीमसेन! नारायणास्त्र, गौ और ब्राह्मण- इनके समक्ष गाण्डीव धनुष को नीचे डाल दिया जाय यही मेरा उत्तम व्रत है। अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन अकेले ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा मेघगर्जना के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा शत्रुदमन द्रोणपुत्र का सामना करने के लिये चल दिये। पाण्डुपुत्र भीम बड़े जोर से शंख बजाकर और भुजाओं द्वारा ताल ठोंक कर सारी पृथ्वी को कँपाते और आपकी सेना को भयभीत करते हुए चले। उनकी शंख ध्वनि तथा भुजाओं द्वारा ताल ठोंकने का शब्द सुनकर आपके सैनिकों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और उन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले कुन्तीकुमार भीमसेन पलक मारते मारते अश्वत्थामा के पास पहुँचकर बड़ी फुर्ती से अपने बाणोें का जाल बिछाते हुए उसे ढक दिया। तब अश्वत्थामा ने धावा करने वाले भीमसेन से हँसकर बात की और उन पर नारायणास्त्र से अभिमन्त्रित प्रज्वलित अग्रभाग वाले बाणों की झड़ी लगा दी।
रणभूमि में वे बाण प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान आग उगल रहे थे।; कुन्तीकुमार भीम उनसे ढक गये, मानो उनके ऊपर स्वर्णमयी चिनगारियाँ पड़ रही हों। राजन! उस समय युद्धस्थल में भीमसेन का रूप संध्या के समय जुगुनुओं से भरे हुए पर्वत के समान प्रतीत हो रहा था। महाराज! भीमसेन जब द्रोणपुत्र के उस अस्त्र के सामने बाण मारने लगे, तब वह हवा का सहारा पाकर धधक उठने वाली आग के समान प्रचण्ड वेग से बढ़ने लगा। उस अस्त्र को बढ़ते देख भयंकर पराक्रमी भीमसेन को छोड़कर शेष सारी पाण्डव सेना पर महान भय छा गया। तब वे समस्त सैनिक अपने अस्त्र शस्त्रों को धरती पर डालकर रथ, हाथी और घोड़े आदि सभी वाहनों से उतर गये। उनके हथियार डाल देने और वाहनों से उतर जाने पर उस अस्त्र की विषाल शक्ति केवल भीमसेन के माथे पर आ पड़ी। तब सभी प्राणी विशेषतः पाण्डव हाहाकार कर उठे। उन्होंने देखा, भीमसेन उस अस्त्र के तेज से आच्छादित हो गये हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्षपर्वमें पाण्डव-सेनाका अस्त्र-त्यागविषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
दौ सौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का भीमसेन को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना, अश्वत्थामा का उसके पुनः प्रयोग में अपनी असमर्थता बताना तथा अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय, सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन- इन छः महारथियों को भगा देना फिर अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदि देश के युवराज का वध एवं भीम और अश्वत्थामा घोर युद्ध तथा पांडव सेना का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजन! भीमसेन को नारायणास्त्र से घिरा हुआ देख अर्जुन ने उन्हें उसके तेज का निवारण करने के लिये वारुणास्त्र से ढक दिया। एक तो अर्जुन ने बड़ी फुर्ती की थी, दूसरे भीमसेन पर उस अस्त्र के तेज का आवरण था, इससे कोई भी यह देख न सका कि भीमसेन वारुणास्त्र से घिरे हुए हैं। घोड़े, सारथि और रथ सहित भीमसेन द्रोण पुत्र के अस्त्र से ढककर आग के भीतर रखी हुई आग के समान प्रतीत होते थे। वे ज्वालाओं से इतने घिर गये थे कि उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था। राजन! जैसे रात्रि समाप्त होने के समय सारे ज्योतिर्मय ग्रह नक्षत्र अस्ताचल की ओर चले जाते हैं, उसी प्रकार अश्वत्थामा के बाण भीमसेन के रथ पर गिरने लगे। माननीय नरेश! भीमसेन तथा उनके रथ, घोड़े और सारथि- ये सभी अश्वत्थामा के अस्त्र से आच्छादित हो आग की लपटों के भीतर आ गये थे। जैसे प्रलय काल में संवर्तक अग्नि चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत को भस्म करके परमात्मा के मुख में प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार उस अस्त्र ने भीमसेन को चारों ओर से ढक लिया था। जैसे सूर्य में अग्नि और अग्नि में सूर्य प्रविष्ठ हुए हों, उसी प्रकार उस अस्त्र का तेज तेजस्वी भीमसेन पर छा गया था इसलिये पाण्डुपुत्र भीमसेन किसी को दिखायी नहीं पड़ते थे। वह अस्त्र भीमसेन के रथ पर छा गया था। युद्ध स्थल में कोई प्रतिदन्दी योद्धा न होने से द्रोणपुत्र अश्वत्थामा प्रबल होता जा रहा था।
पाण्डवों की सारी सेना हथियार डालकर भय से अचेत हो गयी थी और युधिष्ठिर आदि महारथी युद्ध से विमुख हो गये थे। यह सब देखकर महातेजस्वी अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण दोनों वीर बड़ी उतावली के साथ रथ से कूदकर भीमसेन की ओर दौड़े। वहाँ पहुँचकर वे दोनों अत्यन्त बलवान वीर द्रोणाचार्य के पुत्र की अस्त्र शक्ति से प्रकट हुई उस आग में घुसकर माया द्वारा उसमें प्रविष्ट हो गये। उन दोनों ने अपने हथियार रख दिये थे, वारुणास्त्र का प्रयोग किया था तथा वे दोनों कृष्ण अधिक शक्तिशाली थे; इसलिये वह अस्त्रजनित अग्नि उन्हें जला न सकी। तदनन्तर नर नारायणस्वरूप अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उस नारायणास्त्र की शान्ति के लिये भीमसेन और उनके सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रों को बलपूर्वक रथ से नीचे खींचा। खींचे जाते समय कुन्तीकुमार भीमसेन और भी जोर जोर से गर्जना करने लगे। इससे अश्वत्थामा का वह परम दुर्जय घोर अस्त्र और भी बढ़ने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा– ‘पाण्डु नन्दन! कुन्तीकुमार! यह क्या बात है कि तुम मना करने पर भी युद्ध से निवृत नहीं हो रहे हो। यदि ये कौरव नन्दन इस समय युद्ध से ही जीते जा सकते तो हम और ये सभी नरश्रेष्ठ राजा लोग युद्ध ही करते।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)
‘तुम्हारे सभी सैनिक रथ से उतर गये हैं। कुन्तीकुमार! अब तुम भी शीघ्र ही रथ से उतरकर युद्ध से अलग हो जाओ’। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने क्रोध से लाल आँखें करके सर्प के समान फुफकारते हुए भीमसेन को रथ से भूमि पर उतार लिया। जब ये रथ से उतर गये और उनसे अस्त्र शस्त्रों को भूमि पर रखवा लिया गया, तब वह शत्रुओं को संताप देने वाला नारायणास्त्र स्वयं प्रशान्त हो गया।
उस विधि से नारायणास्त्र का तेज शान्त हो जाने पर सारी दिशाएँ और विदिशाऍ निर्मल हो गयीं। शीतल सुखद वायु चलने लगी। पशु पक्षियों का आर्तनाद बंद हो गया तथा उस दुर्जय अस्त्र के शान्त होने पर सारे वाहन भी सुखी हो गये। भारत! उस भयंकर तेज के दूर हो जाने पर बुद्धिमान भीमसेन रात बीतने पर उगे हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। पाण्डवों की जो सेना मरने से बच गयी थी, वह उस अस्त्र के शान्त हो जाने से पुनः आपके पुत्रों का विनाश करने के लिये हर्ष से खिल उठी। महाराज! उस अस्त्र के प्रतिहत और पांडव सेना के सुव्यवस्थित हो जाने पर दुर्योधन ने द्रोणपुत्र से इस प्रकार कहा- ‘अश्वत्थामा! तुम पुनः शीघ्र ही इसी शस्त्र का प्रयोग करो क्योंकि विजय की अभिलाषा रखने वाले ये पांचाल सैनिक पुनः युद्ध के लिये आकर डट गये हैं’।
मान्यवर! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने अत्यन्त दीनभाव से उच्छ्वास लेकर राजा से इस प्रकार कहा,
अश्वथामा ने कहा ;- ‘राजन! न तो यह अस्त्र फिर लौटता है और न इसका दुबारा प्रयोग ही हो सकता है। यदि इसका पुनः प्रयोग किया जाय तो यह प्रयोग करने वाले को ही समाप्त कर देगा’ इसमें संशय नहीं है। ‘जनेश्वर! श्रीकृष्ण ने इस अस्त्र के निवारण का उपाय बता दिया है और उसका प्रयोग किया है अन्यथा आज युद्ध में सम्पूर्ण शत्रुओं का वध हो ही गया होता। ‘पराजय हो या मृत्यु, इनमें मृत्यु ही श्रेष्ठ है, पराजय नहीं। ये सारे शत्रु हार गये थे; हथियार डालकर मुर्दे के समान हो गये थे’।
दुर्योधन बोला ;- आचार्य पुत्र! तुम तो सम्पूर्ण अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ हो। यदि इस अस्त्र का दो बार प्रयोग नहीं हो सकता तो तुम दूसरे ही अस्त्रों द्वारा इन गुरु जातियों का वध करो। तुम में तथा अमित तेजस्वी भगवान शंकर में ही सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं। यदि तुम मारना चाहो तो क्रोध में भरे हुए इन्द्र भी तुमसे बचकर नहीं जा सकते।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! द्रोणाचार्य छलपूर्वक मारे गये और नारायणास्त्र भी प्रतिहत हो गया, तब दुर्योधन के वैसा कहने पर अश्वत्थामा ने फिर क्या किया। क्योंकि उसने देख लिया था कि नारायणास्त्र से छूटे हुए पाण्डव संग्राम युद्ध के लिये उपस्थित हैं और युद्ध के मुहाने पर विचर रहे हैं।
संजय ने कहा ;- राजन! अश्वत्थामा की ध्वजा पताका में सिंह की पॅूछ का चिह्न बना हुआ था। उसने पिता के मारे जाने की घटना का स्मरण करके अपितु हो भय छोड़कर धृष्टद्युम्न पर धावा किया। नरश्रेष्ठ! निकट जाकर पुरुषप्रवर अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को पहले क्षुद्रक नामवाले बीस बाण मारे। फिर अत्यन्त वेग से पाँच बाणों का प्रहार करके उन्हें घायल कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 36-55 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तदनन्तर धृष्टद्युम्न ने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी द्रोण पुत्र को तिरसठ बाणों से बींध डाला। फिर शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बीस बाणों से उसके सारथि को और चार तीखे सायकों से उसके चारो घोड़ों को भी घायल कर दिया। धृष्टद्युम्न अश्वत्थामा को बाँध बाँधकर पृथ्वी को कँपाते हुए से गरज रहे थे। मानो उस महासमर में वे सम्पूर्ण जगत के प्राण ले रहे हों। राजन! बलवान अस्त्रवेता तथा दृढ़ निश्चय वाले धृष्टद्युम्न ने मृत्यु को ही युद्ध से लौटने की अवधि निश्चित करके द्रोणपुत्र पर ही धावा किया। तत्पश्चात अमेय आत्मबल से सम्पन्न; रथियों में श्रेष्ठ पांचाल पुत्र धृष्टद्युम्न ने अश्वत्थामा के मस्तक पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
अपने पिता के वध का बारंबार स्मरण करते हुए अश्वत्थामा ने भी समरांगण में कुपित हुए धृष्टद्युम्न को बाणों द्वारा आच्छादित कर दिया और दस बाणों से मारकर उसे गहरी चोट पहुँचायी। इसके सिवा, अच्छी तरह छोड़े हुए दो छुरों से पाञ्चाल राजकुमार के ध्वज और धनुष को काटकर अश्वत्थामा ने दूसरे बाणों द्वारा उन्हें भली-भाँति पीड़ित किया।इतना ही नहीं, द्रोण पुत्र ने उस महायुद्ध में धृष्टद्युम्न को घोड़े, सारथि तथा रथ से भी वंचित कर दिया साथ ही कुपित हो उनके सारे सेवकों को भी बाणों से मार मार कर खदेड़ना शुरू किया।
प्रजानाथ! तदनन्तर पांचालों की सेना भ्रान्त एवं आर्त होकर भाग चली उसके सैनिक एक दूसरे को देखते नहीं थे। योद्धाओं को युद्ध से विमुख और अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न को बाणों से पीड़ित देख सात्यकि ने तुरंत अपना रथ अश्वत्थामा के रथ की ओर बढ़ाया। उन्होंने आठ पैने बाणों से अश्वत्थामा को चोट पहुँचायी तत्पश्चात अमर्ष में भरे हुए सात्यकि ने भाँति-भाँति के बीस बाणों द्वारा द्रोणपुत्र को पुनः घायल करके उसके सारथि को भी बींध डाला और पूर्णरूप से सावधान हो एक सिद्धहस्त योद्धाओं की भाँति उन्होंने चार बाणों से उसके चारों घोड़ों को घायल करके ध्वज और धनुष को भी काट दिया। इसके बाद घोड़ो सहित उसके सुवर्ण भूषित रथ को भी छिन्न भिन्न कर डाला और समरांगण में तीस बाणों से उसकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन! इस प्रकार बाणों के जाल से पीड़ित हुए महाबली अश्वत्थामा को कोई कर्त्तव्य नहीं सूझता था।
गुरु पुत्र की ऐसी अवस्था हो जाने पर आपके महारथी पुत्र दुर्योधन ने कृपाचार्य और कर्ण आदि के साथ आकर सात्यकि को बाणों से ढक दियां। दुर्योधन ने बीस, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने तीन, कृतवर्मा ने दस, कर्ण ने पचास, दुःशासन ने सौ तथा वृषसेन ने सात पैने बाणों द्वारा शीघ्र ही सब ओर से सात्यकि को घायल कर दिया। राजन! तब सात्यकि ने भी उन सभी महारथियों को क्षणभर में रथहीन एवं युद्ध से विमुख कर दिया।भरतश्रेष्ठ! उधर अश्वत्थामा को जब चेत हुआ, तब वह दुःख से आतुर हो बारम्बार लम्बी साँस खींचता हुआ कुछ देर तक चिन्ता में डूबा रहा। फिर दूसरे रथ पर आरूढ़ हो शत्रुतापन अश्वत्थामा ने कई सौ बाणों की वर्षा करके सात्यकि को आगे बढ़ने से रोक दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 56-76 का हिन्दी अनुवाद)
रणभूमि में द्रोण पुत्र को अपनी ओर आते देख महारथी सात्यकि ने उसे पुनः रथहीन एवं युद्ध से विमुख कर दिया। राजन! सात्यकि का यह पराक्रम देख पाण्डव बड़े जोर-जोर से शंख बजाने और सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार उसे रथहीन करके सत्य पराक्रमी सात्यकि ने वृषसेन की सेना के तीन हजार विशाल रथों को नष्ट कर दिया। तदनन्तर कृपाचार्य की सेना के पंद्रह हजार हाथियों का वध कर डाला; इसी तरह शकुनि के पचास हजार घोड़ों को भी उन्होंने मार गिराया। महाराज! तब पराक्रमी अश्वत्थामा रथ पर आरूढ़ हो सात्यकि पर क्रोध करके उनका वध करने की इच्छा से आगे बढ़ा। शत्रुदमन नरेश! अश्वत्थामा को फिर आया देख सात्यकि ने अत्यन्त क्रूर तीखे बाणों द्वारा उसे बारम्बार विदीर्ण किया। जब युयुधान ने नाना प्रकार के चिन्ह वाले बाणों द्वारा महाधनुर्धर अश्वत्थामा को अत्यन्त घायल कर दिया, तब उसने अमर्ष में भरकर हँसते हुए कहा- ‘शिनिपौत्र! मैं जानता हूँ, आचार्यघाती धृष्टद्युम्न के प्रति तुम्हारा विशेष सहयोग एवं पक्षपात है; परन्तु मेरे चंगुल में फँसें हुए इस धृष्टद्युम्न और अपने को भी तुम बचा नहीं सकोगे। ‘पाण्डवों और वृष्णि वंशियों के पास जितना भी बल है, वह सब यहीं लगा दो तो भी सोमकों का संहार कर डालूँगा’।
ऐसा कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने सात्यकि पर सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी तथा अत्यन्त तीखा उत्तम बाण छोड़ दिया; मानो इन्द्र ने वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया हो। उसका चलाया हुआ वह बाण सात्यकि के शरीर को कवचसहित विदीर्ण करके पृथ्वी को चीरता हुआ उसके भीतर उसी प्रकार घुस गया, जैसे फुफकारता हुआ सर्प बिल में समा जाता है। कवच छिन्न-भिन्न हो जाने से शूरवीर सात्यकि अंकुशों की मार खाये हुए हाथी के समान व्यथित हो उठे उनके घावों से अधिक रक्त बह रहा था। वे शिथिल एवं खून से लथपथ हो धनुष बाण छोड़कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये। तब सारथि तुरन्त ही उन्हें द्रोण पुत्र के पास से दूसरे रथी के पास हटा ले गया। तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले अश्वत्थामा ने सुन्दर पंख एवं झुकी हुई गाँठ वाले दूसरे बाण से धृष्टद्युम्न की दोनों भौंहों के बीच में गहरा आघात किया।
पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न पहले ही बहुत घायल हो चुका था। फिर पीछे भी अत्यन्त पीड़ित हो वह रथ की बैठक में धम्म से बैठ गया और ध्वजा पर अपने शरीर को टेक दिया। राजन! जैसे सिंह हाथी को सताता है, उसी प्रकार धृष्टद्युम्न को अश्वत्थामा के बाणों से पीड़ित देखकर पाण्डव पक्ष से पाँच शूरवीर महारथी बड़े वेग से वहाँ आ पहँचे।
उनके नाम इस प्रकार हैं,- किरीटधारी अर्जुन, भीमसेन, पौरव वृद्धक्षत्र, चेदिदेश के युवराज तथा मालव नरेश सुदर्शन। इन सब वीरों ने हाहाकार करते हुए हाथों में धनुष लेकर वीर अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया। उन सावधान रथियों ने बीसवें पग पर अमर्षशील गुरुपुत्र को पा लिया और सब ओर से पाँच पाँच बाणों द्वारा एक साथ ही उस पर चोट की। तब द्रोण कुमार ने विषैले सर्पो के समान पच्चीस तीखे बाणों द्वारा एक साथ ही उनके पच्चीसों बाणों को काट डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 77-92 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बाद द्रोण पुत्र ने सात तीखे बाणों से पौरव को पीड़ित कर दिया। फिर तीन बाणों से मालव नरेश को, एक से अर्जुन को और छः बाणों द्वारा भीमसेन को घायल कर दिया। राजन! तत्पश्चात उन सब महारथियों ने एक साथ और अलग-अलग भी शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बाणों द्वारा द्रोण कुमार को घायल करना आरम्भ किया। चेदिदेश के युवराज ने बीस, अर्जुन ने आठ तथा अन्य सब लोगों ने तीन तीन बाणों द्वारा द्रोण पुत्र को बींध डाला। तदन्तर द्रोण पुत्र ने छः बाणों से अर्जुन को, दस बाणों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को, पाँच से भीम को, चार से चेदिदेश के युवराज को तथा दो-दो बाणों द्वारा क्रमशः मालव नरेश तथा पौरव को घायल कर दिया। इतना ही नहीं, भीमसेन के सारथि को छः तथा उनके धनुष और ध्वज को दो बाणों से बींधकर पुनः बाणों की वर्षा द्वारा अर्जुन को घायल करके अश्वत्थामा ने घोर सिंहनाद किया।
द्रोण कुमार उन पानीदार धारवाले तीखे बाणों को आगे और पीछे भी चला रहा था। उसके उन भयानक बाणों से पृथ्वी, आकाश, अन्तरिक्ष, दिशाएँ और विदिशाएँ भी आच्छादित हो गयी थी। उस युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी एवं प्रचण्ड तेजस्वी अश्वत्थामा ने अपने रथ के निकट आये हुए मालवराज सुदर्शन की इन्द्रध्वज के तुल्य प्रकाशित होने वाली दोनों भुजाओं तथा मस्तक को तीन बाणों द्वारा एक साथ ही काट डाला। फिर उसने पौरव को रथ शक्ति से घायल करके अपने बाणों द्वारा उनके रथ के तिल के बराबर-बराबर टुकड़े कर डाले और सुन्दर चन्दन चर्चित उनकी दोनों भुजाओं को काटकर एक भल्ल के द्वारा उनके मस्तक को भी धड़ से अलग कर दिया। तत्पश्चात शीघ्रता करने वाले अश्वत्थामा ने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा नीलकमल की माला के समान कान्तिवाले नवयुवक चेदिदेशीय युवराज को हठपूर्वक घायल करके उन्हें घोड़ों और सारथि सहित मौत के हवाले कर दिया।
मालवनरेश सुदर्शन, पुरूदेश के अधिपति वृद्धक्षत्र तथा चेदिदेश के युवराज को अपनी आँखों के सामने द्रोणपुत्र के हाथ से मारा गया देख पाण्डु कुमार महाबाहु भीमसेन को बड़ा भारी क्रोध हुआ। फिर तो शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन ने क्रोध में भरे हुए विषधर सर्पों के समान सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा समरांगण में द्रोणपुत्रअश्वत्थामा को आच्छादित कर दिया।
तब महातेजस्वी अमर्षशील द्रोण कुमार ने उस बाण वर्षा को नष्ट करके भीमसेन को पैने बाणों से बींध डाला। यह देख महाबली महाबाहु भीमसेन ने युद्धस्थल में एक क्षुरप्र से अश्वत्थामा का धनुष काटकर पंखदार बाण से उसको भी घायल कर दिया। इसके बाद महामनस्वी द्रोणपुत्र ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर दूसरा धनुष ले लिया और भीमसेन को अनेक बाण मारे। अश्वत्थामा और भीमसेन दोनों वीर महान बलवान एवं पराक्रमी थे। वे समरभूमि में वर्षा करने वाले दो बादलों के समान परस्पर बाणों की बौछार करने लगे। जैसे मेघों की घटाएँ सूर्य को ढक लेती हैं, उसी प्रकार भीमसेन के नाम से अंकित और सान पर चढाकर तेज किये हुए सुनहरी पांखवाले बाणों ने द्रोणपुत्र को आच्छादित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 93-114 का हिन्दी अनुवाद)
इसी तरह अश्वत्थामा के छोड़े हुए झुकी हुई गाँठवाले लाखों बाणों से भीमसेन भी तत्काल ढक गये। महाराज! संग्राम में शोभा पाने वाले अश्वत्थामा द्वारा समरभूमि में ढके जाने पर भी भीमसेन को तनिक भी व्यथा नहीं हुई, वह अद्भुत सी बात थी। तदनन्तर महाबाहु भीमसेन ने सुवर्णभूषित एवं यमदण्ड के समान भयंकर दस तीखे नाराच अश्वत्थामा पर चलाये। माननीय नरेश! जैसे सूर्य तुरंत ही बाँबी में घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे बाण द्रोणपुत्र के गले की हँसली को छेदकर भीतर समा गये। महात्मा पाण्डु पुत्र के बाणों से अत्यन्त घायल हुए अश्वत्थामा ने ध्वज दण्ड थामकर नेत्र बंद कर लिये।
नरेश्वर! दो ही घड़ी में पुनः सचेत हो खून से लथपथ हुए अश्वत्थामा ने उस समरांगण में अत्यन्त क्रोध प्रकट किया। महामना पाण्डु पुत्र ने उसे गहरी चोट पहुँचायी थी। अतः महाबाहु अश्वत्थामा ने भीमसेन के रथ पर ही बड़े वेग से आक्रमण किया। भारत! उसने धनुष को कान तक खींचकर प्रचण्ड तेज से युक्त और विषैले सर्पो के समान भयंकर सौ बाण भीमसेन पर चलाये। युद्ध की स्पृहा रखने वाले पाण्डुकुमार भीमसेन भी उसके इस पराक्रम की कोई परवा न करते हुए तुरन्त ही उस पर भयंकर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाराज! तब अश्वत्थामा ने कुपित हो बाणों द्वारा भीमसेन के धनुष को काटकर उन पाण्डु पुत्र की छाती में पैने बाणों का प्रहार किया। तब अमर्ष में भरे हुए भीमसेन ने दूसरा धनुष लेकर युद्ध स्थल में पाँच पैने बाणों से द्रोण पुत्र को घायल कर दिया। वे दोनों क्रोध से लाल आँखें करके बरसात के दो बादलों के समान बाणसमूहों की वर्षा करते हुए एक दूसरे को आच्छादित करने लगे। फिर ताल ठोंकने की भयंकर आवाज से परस्पर त्रास उत्पन्न करते हुए वे दोनों योद्धा बड़े रोष से युद्ध करने लगे। दोनों ही एक दूसरे के प्रहार का प्रतीकार करना चाहते थे।
तत्पश्चात सुवर्ण भूषित विशाल धनुष को खींचकर निकट से बाणों की वर्षा करते हुए भीमसेन की ओर अश्वत्थामा ने देखा। वह शरद ऋतु के मध्याह काल में प्रचण्ड किरणों वाले सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहा था। वह कब बाण लेता, कब उन्हें धनुष पर रखता, कब प्रत्यञ्चा खींचता और कब उन्हें छोड़ता था तथा इन कार्यो में कितना अन्तर पड़ता था, यह सब योद्धा लोग देख नहीं पाते थे। महाराज! बाण छोड़ते समय अश्वत्थामा का धनुष अलात चक्र के समान मण्डलाकार दिखायी देता था। उसके धनुष से छूटे हुए सैकड़ों और हजारों बाण आकाश में टिड्डी दलों के समान दिखायी देते थे। अश्वत्थामा के छोड़े हुए सुवर्णभूषित भयंकर बाण भीमसेन के रथ पर लगातार गिरने लगे। भारत! वहाँ हम लोगो ने भीमसेन का अद्भुत पराक्रम, बल, वीर्य, प्रभाव और व्यवसाय देखा। वर्षाकाल में मेघ से होने वाली अत्यन्त घोर जलवृष्टि के समान चारों ओर से होने वाली अश्वत्थामा की उस बाण वर्षा पर विचार करते हुए भंयकर पराक्रमी भीमसेन ने द्रोणपुत्र के वध की इच्छा की और वे बरसात के बादलों के समान बाणेां की बौछार करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 115-132 का हिन्दी अनुवाद)
उस महासमर में सोने की पीठ वाला भीमसेन का भयंकर धनुष जब खींचा जाता था, तब दूसरे इन्द्रधुनष के समान प्रतीत होता था। रणभूमि में अधिक शोभा पाने वाले द्रोणकुमार अश्वत्थामा को आच्छादित करने हुए सैकड़ों और हजारों बाण भीमसेन के उस धनुष से प्रकट हो रहे थे। माननीय नरेश! इस प्रकार बाण सूमहों की वर्षा करते हुए उन दोनों के बीच से निकल जाने में वायु भी असमर्थ हो गयी थी।
महाराज! तदनन्तर अश्वत्थामा ने भीमसेन के वध की इच्छा से तेल में साफ किये हुए स्वच्छ अग्रभाग वाले बहुत से स्वर्णभूषित बाण चलाये। परंतु भीमसेन ने अपनी विशेषता स्थापित करते हुए अपने बाणों द्वारा आकाश में ही उन बाणों में से प्रत्येक के तीन तीन टुकड़े कर डाले और द्रोणपुत्र से कहा,
भीमसेन ने कहा ;– ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। फिर कुपित हुए पाण्डु पुत्र बलवान भीमसेन ने द्रोण पुत्र के वध की इच्छा से उसके ऊँपर पुन: घोर एवं उग्र बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी। तब महान अस्त्रवेता द्रोणपुत्र ने अपने अस्त्रों की माया से तुरंत ही उस बाण वर्षा का निवारण करके भीमसेन का धनुष काट डाला। साथ ही क्रोध में भरकर उसने युद्धस्थलों में बहुसंख्यक बाणों द्वारा इन्हें क्षत विक्षत कर दिया। धनुष कट जाने पर बलवान भीमसेन ने द्रोणपुत्र के रथ पर एक भयंकर रथ शक्ति बड़े वेग से घुमाकर फेंकी। बड़ी भारी उल्का के समान सहसा अपनी ओर आती हुई उस रथ शक्ति को अश्वत्थामा ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए समरभूमि में तीखे बाणों से काट डाला। इसी बीच में मुस्कुराते हुए भीमसेन ने एक सुदढ़ धनुष लेकर अनेक बाणों से द्रोण पुत्र को बींध डाला।
महाराज! तब अश्वत्थामा ने झुकी हुई गाँठवाले बाण से भीमसेन के सारथि का ललाट छेद दिया। राजन! बलवान द्रोणपुत्र के द्वारा अत्यन्त घायल किया हुआ सारथि घोड़ों की बागडोर छोड़कर मूर्च्छित हो गया। राजेन्द्र! सारथि के मूर्च्छित हो जाने पर भीमसेन के घोड़े सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते देखते तुरन्त वहाँ से भाग चले। भागे हुए घोड़े भीमसेन को समरांगण से दूर हटा ले गये, यह देखकर विजयी वीर अश्वत्थामा ने अत्यन्त प्रसन्न हो अपना विशाल शंख बजाया। तब पाण्डुपुत्र भीमसेने और समस्त पांचाल भयभीत हो धृष्टद्युम्न का रथ छोड़कर चारों दिशाओं में भाग गये। उन भागते हुए सैनिकों पर पीछे से बाण बिखेरते और पाण्डव सेना को खदेड़ेते हुए अश्वत्थामा ने बड़े वेग से पीछा किया। राजन! समरांगण में द्रोण पुत्र के द्वारा मारे जाते हुए समस्त राजाओं ने उसके भय से भागकर सम्पूर्ण दिशाओं की शरण ली।
(इसी प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत नारायणास्त्र मोक्ष पर्व में अश्वत्थामा का पराक्रम विषयक दो सौवॉ अध्याय पूरा हुआ)
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