सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ इक्यानबेवें अध्याय से एक सौ पंचानबेवें अध्याय तक (From the 191 chapter to the 195 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य और धृष्‍टधुम्न का युद्ध तथा सात्‍यकि की शूरवीरता और प्रशंसा”

     संजय कहते है ;- राजन! राजा द्रुपद ने एक महान यज्ञ में देवाराधन करके द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये प्रज्‍वलित अग्नि से जिस पुत्र को प्राप्‍त किया था, उस पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने जब देखा कि आचार्य द्रोण बड़े उद्विग्‍न हैं और उनका चित्‍त शोक से व्‍याकुल है, तब उन्‍होंने उन पर धावा कर दिया। उस पांचालपुत्र ने द्रोणाचार्य के वध की इच्‍छा रखकर सुदृढ़ प्रत्‍यक्ष युक्‍त, मेघगर्जना के समान गंभीर ध्‍वनि करने वाले, कभी जीर्ण न होने वाले, भयंकर तथा विजयशील दिव्‍य धनुष हाथ में लेकर उसके ऊपर विषधर सर्प के समान भयदायक और प्रचण्‍ड लपटों वाले अग्नि के तुल्‍य तेजस्‍वी एक बाण रखा। धनुष की प्रत्‍यक्ष खींचने से जो मण्‍डलाकार घेरा बन गया था, उसके भीतर उस तेजस्‍वी बाण का रूप शरत्‍काल में परिधि के भीतर प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान जान पड़ता था। धृष्टद्युम्न के हाथ में आये हुए उस प्रज्‍वलित अग्नि के सदृश्‍य तेजस्‍वी धनुष को देखकर स‍ब सैनिक यह समझने लगे कि मेरा अन्‍तकाल आ पहुँचा है। द्रुपद-पुत्र के द्वारा उस बाण को धनुष पर रखा गया देख प्रतापी द्रोण ने भी यह मान लिया कि अब इस शरीर का काल आ गया।

     राजेन्‍द्र! तदनन्‍तदर आचार्य ने उस अस्त्र को रोकने का प्रयत्‍न किया, परंतु उन महात्‍मा के अन्‍त: करण में वे दिव्यास्त्र पूर्ववत प्रकट न हो सके। उनके निरन्‍तर बाण चलाते चार दिन और एक रात का समय बीत चुका था। उस दिन के पंद्रह भागों में से तीन ही भाग में उनके सारे बाण समाप्‍त हो गये। बाणों के समाप्‍त हो जाने से पुत्र शोक से पीड़ित हुए द्रोणाचार्य नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों के प्रकट न होने से महर्षियों की आज्ञा मानकर अ‍ब हथियार डाल देने को उद्यत हो गये, इसलिये तेज से परिपूर्ण होने पर भी वे पूर्ववत युद्ध नहीं करते थे। इसके बाद द्रोणाचार्य ने पुन: आडिंग रस नाम दिव्‍य धनुष तथा ब्रहादण्‍ड के समान बाण हाथ में लेकर धृष्‍टद्युम्न के साथ युद्ध आरम्‍भ कर दिया। उन्होंने अत्‍यन्‍त कुपित होकर अमर्ष में भरे हुए धृष्टद्युम्न को अपनी भारी बाण वर्षा से ढक दिया और उन्‍हें क्षत-विक्षत कर दिया। इतना ही नहीं, द्रोणाचार्य ने अपने तीखे बाणों द्वारा धृष्टद्युम्न के बाण, ध्‍वज और धनुष के सैकड़ों टुकड़े कर डाले और सारथि को भी मार गिराया।

     तब धृष्टद्युम्न हंसकर फिर दूसरा धनुष उठाया और तीखे बाण द्वारा आचार्य की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। युद्धस्‍थल में अत्‍यंत घायल होकर भी महाधनुर्घर द्रोण ने बिना किसी घबराहट के तीखी धार वाले भल्ल से पुन: उनका धनुष काट दिया। प्रजानाथ! धृष्टद्युम्न के जो-जो बाण, तरकस और धनुष आदि थे, उनमें से गदा और खंड को छोड़कर शेष सारी वस्‍तुओं को दुर्घर्ष द्रोणाचार्य ने काट डाला। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोण ने कुपित होकर क्रोध में भरे हुए धृष्टद्युम्न को नौ प्राणान्‍तकारी तीक्ष्‍ण बाणों द्वारा बींध डाला। तब अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्‍न महारथी धृष्टद्युम्न ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने के लिये अपने रथ के घोड़ों को आचार्य के घोड़ों से मिला दिया। भरतश्रेष्ठ! वे वायु के समान वेगशाली, कबूतर के समान रंग वाले और लाल घोड़े परस्‍पर मिलकर बड़ी शोभा पाने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

      महाराज! जैसे वर्षाकाल में गर्जते हुए विद्युत सहित मेघ सुशोभित होते है, उसी प्रकार युद्ध के मुहाने पर परस्‍पर मिले हुए वे घोड़े शोभा पाते थे। उस समय अमेय बल सम्‍पन्‍न विप्रवर द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न के रथ के ईषाबन्‍ध, चक्रबन्‍ध तथा रथ बन्‍ध को नष्‍ट कर दिया था। धनुष ध्‍वज और सारथि के नष्‍ट हो जाने पर भारी विपत्ति में पड़कर पांचाल राजकुमार वीर धृष्टद्युम्न ने गदा उठायी। उसके द्वारा चलायी जाने वाली उस गदा को सत्यपराक्रमी महारथी द्रोण ने कुपित हो बाणों द्वारा नष्‍ट कर दिया। उस गदा को द्रोणाचार्य के बाणों से नष्‍ट हुई देखकर पुरुषसिंह धृष्टद्युम्न ने सौ चन्‍द्राकार चिह्नों से युक्‍त चमकीली ढाल और चमचमाती हुई तलवार हाथ में ले ली। उस अवस्‍था में पांचाल राजकुमार ने यह नि:संदेह ठीक मान लिया कि अब आचार्य प्रवर महात्‍मा द्रोण के वध का समय आ पहुँचा है। उस समय उन्‍होंने तलवार और सौ चन्‍द्र चिह्नों वाली ढाल लेकर अपने रथ की ईषा के मार्ग से रथ की बैठक में बैठे हुए द्रोण पर आक्रमण किया। तत्‍पश्‍चात महारथी धृष्टद्युम्न ने दुष्‍कर कर्म करने की इच्‍छा से उस रणभूमि में आचार्य द्रोण की छाती में तलवार भोंक देने का विचार किया। वे रथ के जुए के ठीक बीच में, जुए के बन्‍धनों पर और द्रोणाचार्य के घोड़ों के पिछले भागों पर पैर जमाकर खड़े हो गये। उनके इस कार्य की सभी सैनिकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।

      वे जूए के मध्‍य भाग में और द्रोणाचार्य के लाल घोड़ों की पीठ पर पैर रखकर खड़े थे। उस अवस्‍था में द्रोणाचार्य को उनके ऊपर प्रहार करने का कोई अवसर ही नहीं दिखायी देता था, यह एक अद्भुत सी बात हुई। जैसे मांस के टुकड़े के लोभ से विचरते हुए बाज का बड़े वेग से आक्रमण होता है, उसी प्रकार रणभूमि में द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न के परस्‍पर वेगपूर्वक आक्रमण होते थे। द्रोणाचार्य ने लाल घोड़ों को बचाते हुए रथ शक्ति का प्रहार करके बारी-बारी से कबूतर के समान रंग वाले सभी घोड़ों को मार डाला। प्रजानाथ! धृष्टद्युम्न के वे घोड़े मारे जाकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े और लाल रंग वाले रथ के बन्‍धन से मुक्‍त हो गये। विप्रवर द्रोण के द्वारा अपने घोड़ों को मारा गया देखा योद्धाओं में श्रेष्‍ठ पार्षतवंशी महारथी द्रुपदकुमार सहन न कर सके। राजन! रथहीन हो जाने पर खड्गधारियों में श्रेष्ठ धृष्टद्युम्न खड्ग हाथ में लेकर द्रोणाचार्य पर उसी प्रकार टूट पडे, जैसे गरुड़ किसी सर्प पर झपटते हैं। नरेश्वर! द्रोण के वध की इच्‍छा रखने वाले धृष्टद्युम्न का रूप पूर्वकाल में हिरण्यकशिपु के वध के लिये उद्यत हुए नृसिंहरूपधारी भगवान विष्णु के समान प्रतीत होता था।

      कुरूनन्‍दन! रण में विचरते हुए धृष्टद्युम्न ने उस समय तलवार के इक्‍कीस प्रकार के विविध उत्तम हाथ दिखाये। उन्‍होंने ढाल-तलवार लेकर भ्रान्‍त, उदान्‍त, आविद्ध, आलुप्‍त, प्रसूत, सृत, परिवृत, सम्‍पात, समुदीर्ण, भारत, कौशिक तथा सात्‍वत आदि मार्गों को अपनी शिक्षा के अनुसार दिखलाया। वे द्रोणाचार्य का अन्‍त करने की इच्छा से युद्ध में तलवार के उपर्युक्‍त हाथ दिखाते हुए विचर रहे थे। ढाल-तलवार लेकर विचरते हुए धृष्टद्युम्न के उन विचित्र पैंतरों को देखकर रणभूमि में आये हुए योद्धा और देवता आश्‍चर्य चकित हो उठे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-53 का हिन्दी अनुवाद)

      तदनन्‍दर, उस युद्ध-संकट के समय विप्रवर द्रोणाचार्य ने एक हजार बाणों से धृष्टद्युम्न की सौ चांद वाली ढाल और तलवार काट गिरायी। निकट से युद्ध करते समय उपयोग में आने वाले जो एक बित्‍ते के बराबर वैतस्तिक नामक बाण होते हैं, वे समीप से भी युद्ध करने में कुशल द्रोणाचार्य के ही पास थे, दूसरों के नहीं। भारत! कृपाचार्य, अर्जुन, अश्वत्थामा, वैकर्तन कर्ण, प्रद्युम्न, सात्‍यकि और अभिमन्यु को छोड़कर और किसी के पास वैसे बाण नहीं थे। तत्पश्चात पुत्र तुल्‍य शिष्‍य को मार डालने की इच्‍छा से आचार्य ने धनुष पर परम सुदृढ़ बाण रखा। परंतु उस बाण को शिनिप्रवर सात्‍यकि ने महामना कर्ण और आपके पुत्र के देखते-देखते दस तीखे बाणों से काट डाला और आचार्य प्रवर के द्वारा प्राण संकट में पड़े हुए धृष्टद्युम्न को छुड़ा लिया।

      भारत! उस समय सत्‍य पराक्रमी सात्‍यकि द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य के बीच में होकर रथ के मार्गों पर विचर रहे थे। उन्‍हें उस अवस्‍था में महात्‍मा श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने देखा और 'साधु-साधु' कहकर सात्‍यकि की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे युद्ध में अविचल भाव से डटे रहकर समस्‍त विरोधियों के दिव्यास्त्रों का निवारण कर रहे थे। तदनन्‍तर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन शत्रु सेना में टूट पड़े। उस समय अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से कहा- केशव! देखिये, यह मधुवंशशिरोमणि सात्‍यकि आचार्य की रक्षा करने वाले मुख्‍य महारथियों के बीच में खेल रहा है। शत्रुवीरों का संहार करने वाला सात्‍यकि मुझे बारंबार आनन्‍द दे रहा है और नकुल, सहदेव, भीमसेन तथा राजा युधिष्ठिर को भी आनन्दित कर रहा है। वृष्णिवंश का यश बढ़ाने वाला सात्‍यकि उत्तम शिक्षा से युक्‍त होने पर भी अभिमानशून्‍य हो महारथियों के साथ क्रीड़ा करता हुआ रणभूमि में विचर रहा है। इसलिये ये सिद्धगण और सैनिक आश्चर्यचकित हो समरांगण में परास्‍त न होने वाले सात्‍यकि की ओर देखकर 'साधु-साधु कहते हुए इसका अभिनन्‍दन करते हैं और दोनों दलों के समस्‍त योद्धाओं ने इसके विरोचित कर्मों से प्रभावित हो इसकी बड़ी प्रशंसा की है'।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवध पर्व में संकुलयुद्ध विषयक एक सौ इक्‍यानवेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ बानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“उभयपक्ष के श्रेष्‍ठ महारथियों का परस्‍पर युद्ध, धृष्‍टधुम्न का आक्रमण, द्रोणाचार्य का अस्‍त्र त्‍यागकर योगधारणा के द्वारा ब्रहृालोक-गमन और धृष्‍टधुम्न द्वारा उनके मस्‍तक का उच्‍छेद”

    संजय कहते हैं ;- राजन! सात्वतवंशी सात्यकि का वह कर्म देखकर दुर्योधन आदि कौरव योद्धा कुपित हो उठे और उन्‍होंने अनायास ही शिनिपौत्र को सब ओर से घेर लिया। मान्‍यवर! समरांगण में कृपाचार्य, कर्ण और आपके पुत्र तुरंत ही सात्‍यकि के पास पहुँचकर उन्‍हें पैने बाणों से घायल करने लगे। तब राजा युधिष्ठिर, पाण्‍डुकुमार नकुल-सहदेव तथा बलवान भीमसेन ने सात्‍यकि की रक्षा के लिये उन्‍हें अपने बीच में कर लिया। कर्ण महारथी कृपाचार्य और दुर्योधन आदि ने बाणों की वर्षा करके चारों ओर से सात्‍यकि को अवरुद्ध कर दिया। राजन! उन महारथियों के साथ युद्ध करते हुए शिनिपौत्र सात्‍यकि ने सहसा उठी हुई उस भंयकर बाण वर्षा को अपने अस्त्रों द्वारा रोक दिया। उन्‍होंने उस महासमर में विधिपूर्वक दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके उन महामनस्‍वी वीरों के छोड़े हुए दिव्यास्त्रों का निवारण कर दिया।

      राजाओं में वह संघर्ष छिड़ जाने पर उस युद्धस्‍थल में क्रूरता का ताण्‍डव होने लगा। जैसे पूर्व (प्रलय) काल में क्रोध में भरे हुए रुद्र देव के द्वारा पशुओं (प्राणियों) का संहार होते समय निर्दयता का दृश्‍य उपस्थित हुआ था। भारत! कटकर गिरे हुए हाथों, मस्‍तकों, धनुषों, छत्रों और चंवरों के संग्रहों से उस समरांगण के विभिन्‍न प्रदेशों में उक्‍त वस्‍तुओं के ढेर के ढेर दिखायी दे रहे थे। टूटे पहिये वाले रथों, गिराये हुए विशाल ध्‍वजों और मारे गये शूरवीर घुड़सवारों से वहाँ की भूमि आच्‍छादित हो गयी थी। कुरुश्रेष्ठ! बाणों के आघात से कटे हुए योद्धा उस महा-समर में अनेक प्रकार की चेष्‍टाएं करते और छटपटाते दिखायी देते थे। देवासुर संग्राम के समान जब वह घोर युद्ध चल रहा था, उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने पक्ष के क्षत्रिय योद्धाओं से इस प्रकार कहा,

    युधिष्ठिर ने कहा ;- 'महारथियों! तुम सब लोग पूर्णत: सावधान होकर द्रोणाचार्य पर धावा करो। ये वीर द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य के साथ जूझ रहे हैं और उनके विनाश के लिये यथाशक्ति चेष्‍टा कर रहे हैं। आज महासमर में इनके जैसे रूप दिखायी देते हैं, उनसे यह ज्ञात होता है कि रणभूमि में कुपित हुए धृष्टद्युम्न सब प्रकार से द्रोणाचार्य का वध कर डालेंगे। इसलिये तुम सब लोग एक साथ होकर कुम्‍भजन्‍मा द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करो'।

     युधिष्ठिर की यह आज्ञा पाकर सृंजय महारथी द्रोणाचार्य को मार डालने की अभिलाषा से पूर्ण सावधान हो उन पर टूट पड़े। महारथी द्रोणाचार्य ने मरने का निश्चय करके उन समस्‍त आक्रमणकारियों का बड़े वेग से सामना किया। सत्‍यप्रतिज्ञ द्रोणाचार्य के आगे बढ़ते ही पृथ्‍वी कांपने लगी और वज्रपात की आवाज के साथ ही प्रचण्‍ड आंधी चलने लगी, जो सारी सेना को डरा रही थी। सूर्यमण्‍डल से बड़ी भारी उल्‍का निकलकर दोनों सेनाओं को प्रकाशित करती और महान भय की सूचना-सी देती हुई पृथ्‍वी पर गिर पड़ी। माननीय नरेश! द्रोणाचार्य के शस्त्र जलने लगे, रथ से बड़े जोर की आवाज उठने लगी और घोड़े आंसू बहाने लगे। महारथी द्रोणाचार्य उस समय तेजोहीन से हो रहे थे। उनकी बायीं आंख और बायीं भुजा फड़क रही थी। वे युद्ध में अपने सामने धृष्टद्युम्न को देखकर मन ही मन उदास हो गये। साथ ही ब्रह्मवादी म‍हर्षियों के ब्रह्मलोक में चलने के संबंध में कहे हुए वचनों का स्‍मरण करके उन्‍होंने उत्तम युद्ध के द्वारा अपने प्राणों को त्‍याग देने का विचार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

     तदनन्‍तर द्रुपद की सेनाओं द्वारा चारों ओर से घिरे हुए द्रोणाचार्य क्षत्रिय समूहों को दग्‍ध करते हुए रणभूमि में विचरने लगे। शत्रुमर्दन द्रोण ने बीस हजार क्षत्रियों का संहार करके अपने तीखे बाणों द्वारा एक लाख हाथियों का वध कर डाला। फिर वे क्षत्रियों का विनाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का सहारा ले बड़ी सावधानी के साथ युद्धभूमि में खड़े हो गये और धूमरहित प्रज्‍वलित अग्नि समान प्रकाशित होने लगे। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न रथहीन हो गये थे। उनके सारे अस्त्र-शस्त्र नष्‍ट हो चुके थे और वे भारी विषाद में डूब गये थे। उस अवस्‍था में शत्रुमर्दन बलबान भीमसेन उन महामनस्‍वी पांचाल वीर के पास तुरंत आ पहुँचे और उन्‍हें अपने रथ पर बिठाकर द्रोणाचार्य को निकट से बाण चलाते देख इस प्रकार बोले,

    भीमसेन बोले ;- धृष्टद्युम्न! यहाँ तुम्‍हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो आचार्य के साथ जुझने का साहस कर सके। अत: तुम पहले उनके वध के लिये ही शीघ्रतापूर्वक प्रयत्‍न करो। तुम पर ही इसका सारा भार रखा गया है।

       भीमसेन के ऐसा कहने पर महाबाहु धृष्टद्युम्न ने उछलकर शीघ्रतापूर्वक सारा भार सहन करने में समर्थ सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ आयुध धनुष को उठा लिया। फिर क्रोध में भरकर बाण चलाते हुए उन्‍होंने रणभूमि में कठिनता से रोके जाने वाले द्रोणाचार्य को रोक देने की इच्‍छा से उन्‍हें बाणों की वर्षा द्वारा ढक दिया। संग्राम भूमि में शोभा पाने वाले वे दोनों श्रेष्ठ वीर कुपित हो नाना प्रकार के दिव्यास्त्र एवं ब्रह्मस्त्र प्रकट करते हुए एक दूसरे को आगे बढ़ने से रोकने लगे। महाराज! धृष्टद्युम्न ने रणभूमि में द्रोणाचार्य के सभी अस्त्रों को नष्‍ट करके उन्‍हें अपने महान अस्त्रों द्वारा आच्छादित कर दिया। कभी विचलित न होने वाले पांचाल वीर ने संग्राम में द्रोणाचार्य की रक्षा करने वाले बसति, शिबि, बाह्लीक और कौरव योद्धाओं का भी संहार कर डाला। राजन! अपने बाणों के समूह से सम्‍पूर्ण दिशाओं को सब ओर से आच्‍छादित करते हुए धृष्टद्युम्न किरणों द्वारा अंशुमाली सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे। तदनन्‍तर द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न का धनुष काटकर उन्‍हें बाणों द्वारा घायल कर दिया और पुन: उनके मर्म स्‍थानों को गहरी चोट पहुँचायी, इससे उन्‍हें बड़ी व्‍यथा हुई।

     संजय कहते हैं ;- राजेन्‍द्र! तब अपने क्रोध को दृढ़तापूर्वक बनाये रखने वाले भीमसेन द्रोणाचार्य के उस रथ से सटकर उनसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले,

   भीमसेन बोले ;- यदि शिक्षित ब्राह्मण अपने कर्मों से असंतुष्‍ट हो पर धर्म का आश्रय ले युद्ध न करते तो क्षत्रियों का यह संहार न होता। प्राणियों की हिंसा न करने को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है। उसकी जड़ है ब्राह्मण और आप तो उन ब्राह्मणों में भी सबसे उत्‍तम ब्रह्मवेत्‍ता है। आप अपने एक पुत्र की जीविका के लिये विपरीत कर्म का आश्रय ले इस पाप-विद्या के द्वारा स्‍वधर्म परायण बहुसंख्‍यक क्षत्रियों का वध करके लज्जित कैसे नहीं हो रहे हैं? जिसके लिये आपने शस्त्र उठाया, जिसके जीवन की अभिलाषा रखकर आप जी रहे हैं, वह तो आज पीछे समरभूमि में गिरकर चिर निद्रा में सो रहा है और आपको इसकी सूचना तक नहीं दी गयी। धर्मराज युधिष्ठिर के उस कथन पर तो आपको संदेह या अविश्‍वास नहीं करना चाहिए। भीमसेन के ऐसा कहने पर धर्मात्‍मा द्रोणाचार्य वह धनुष फेंककर अन्‍य सब अस्त्र-शस्त्रों को भी त्‍याग देने की इच्‍छा से इस प्रकार बोले-

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद)

  द्रोणाचार्य बोले ;- कर्ण! कर्ण! महाधनुर्धर कृपाचार्य! और दुर्योधन! अब तुम लोग स्‍वयं ही युद्ध में विजय पाने के लिये प्रयत्‍न करो, यही मैं तुमसे बारंबार कहता हूँ। पाण्‍डवों से तुम लोगों का कल्‍याण हो। अब मैं अस्त्र-शस्त्रों का त्‍याग कर रहा हूँ। महाराज! यह कहकर उन्‍होंने वहाँ अश्वत्थामा नाम ले-लेकर पुकारा। फिर सारे अस्‍त्र-शस्‍त्रों को रण भूमि में फेंक-कर वे रथ के पिछले भाग में जा बैठे। फिर उन्‍होंने सम्‍पूर्ण भूतों को अभयदान दे दिया और समाधि लगा ली। उन पर प्रहार करने का वह अच्‍छा अवसर हाथ लगा जान प्रतापी धृष्टद्युम्न बाण सहित अपने भयंकर धनुष को रथ पर ही रखकर तलवार हाथ में ले उस रथ से उछलकर सहासा द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचा। उस अवस्‍था में द्रोणाचार्य को धृष्टद्युम्न के अधीन हुआ देख मनुष्‍य तथा अन्‍य प्राणी भी हाहाकार कर उठे। वहाँ सबने भारी हाहाकार मचाया और सभी कहने लगे अहो! धिक्‍कार है।

      इधर आचार्य द्रोण भी शस्त्रों का परित्‍याग करके परम ज्ञानस्‍वरूप में स्थित हो गये। वे महातपस्‍वी द्रोण पूर्वोक्‍त बात कहकर योग का आश्रय ले ज्‍योति:स्‍वरूप परब्रह्मा से अभिन्नता का अनुभव करते हुए मन-ही-मन सर्वोत्‍कृष्ट पुराण पुरुष भगवान विष्णु का ध्‍यान करने लगे। उन्‍होंने मुंह को कुछ ऊपर उठाकर छाती को आगे की ओर स्थिर किया। फिर विशुद्ध सत्त्व में स्थित हो नेत्र बंद करके हृदय में धारण को दृढ़तापूर्वक धारण किया। साथ ही 'ओम्' इस एकाक्षर ब्रह्म का जप करते हुए वे महातपस्‍वी आचार्य द्रोण प्रणव के अर्थभूत देव देवेश्‍वर अविनाशी परम प्रभु परमात्मा का चिंतन करते-करते ज्‍योति:स्‍वरूप हो साक्षात उस ब्रह्मलोक को चले गये, जहाँ पहुँचना बड़े-बड़े संतों के लिये भी दुर्लभ है। आचार्य द्रोण के उस प्रकार उत्‍क्रमण करने पर हमें ऐसा भान होने लगा, मानो आकाश में दो सूर्य उदित हो गये हों। सूर्य के समान तेजस्‍वी द्रोणाचार्यरूपी दिवाकर के उदित होने पर सारा आकाश तेज से परिपूर्ण हो उस ज्‍योति के साथ एकाग्र-सा हो रहा था। पलक मारते-मारते वह ज्‍योति आकाश में जाकर अदृश्‍य हो गयी। द्रोणाचार्य के ब्रह्मलोक चले जाने और धृष्टद्युम्न के अपमान से मोहित हो जाने पर हर्षोल्‍लास से भरे हुए देवताओं का कोलाहल सुनायी देने लगा। उस समय मैं, कुन्‍तीपुत्र अर्जुन, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वृष्णिवंशी भगवान श्रीकृष्‍ण तथा धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर- इन पांच मनुष्‍यों ने ही योग युक्‍त महात्‍मा द्रोण को परमधाम की ओर जाते देखा था।

        महाराज! अन्‍य सब लोगों ने योगयुक्‍त हो ऊर्ध्‍व गति को जाते हुए बुद्धिमान द्रोणाचार्य की महिमा का साक्षात्‍कार नहीं किया। ब्रह्मलोक महान, दिव्‍य, देवगुह्य, उत्‍कृष्‍ट तथा परम गतिस्‍वरूप है। शत्रुदमन आचार्य द्रोण योग का आश्रय लेकर श्रेष्ठ महर्षियों के साथ उसी ब्रह्मलोक को प्राप्‍त हुए हैं। अज्ञानी मनुष्‍यों ने उन्‍हें वहाँ जाते समय नहीं देखा था। उनका सारा शरीर बाण समूहों से क्षत-विक्षत हो गया था। उससे रक्‍त की धारा बह रही थी और वे अपना अस्त्र-शस्त्र नीचे डाल चुके थे। उस दशा में धृष्टद्युम्न ने उनके शरीर का स्‍पर्श किया। उस समय सारे प्राणी उन्‍हें धिक्‍कार रहे थे। देहधारी द्रोण के शरीर से प्राण निकल गये थे, अत: वे कुछ भी बोल नहीं रहे थे। इस अवस्‍था में उनके मस्‍तक का बाल पकड़कर धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनके सिर को धड़ से काट लिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य को मार गिराने पर धृष्टद्युम्न को महान हर्ष हुआ और वे रणभूमि में तलवार घुमाते हुए जोर-जोर से सिहंनाद करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 64-84 का हिन्दी अनुवाद)

      आचार्य शरीर का रंग सांवला था। उनकी अवस्‍था चार सौ वर्ष की हो चुकी थी और उनके ऊपर से लेकर कान तक के बाल सफेद हो गये थे, तो भी आपके हित के लिये वे संग्राम सोलह वर्ष की उम्र वाले तरुण के समान विचरते थे। यद्यपि उस समय महाबाहु कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने बहुत कहा,

     अर्जुन ने कहा ;- ओ द्रुपदकुमार! तुम आचार्य को जीते-जी ले आओ। उनका वध न करना। आपके सैनिक भी बारंबार कहते ही रह गये कि न मारो, न मारो। अर्जुन तो दयावश चिल्‍लाते हुए धृष्टद्युम्न के पास आने लगे। परन्‍तु उनके तथा अन्‍य सब राजाओं के पुकारते रहने पर भी धृष्टद्युम्न ने रथ की बैठक में नरश्रेष्ठ द्रोण का वध कर ही डाला। दुर्धर्ष द्रोणाचार्य का शरीर खून से लथपथ हो रथ से पृथ्‍वी पर गिर पड़ा, मानो लाल अंग कान्ति वाले सूर्य डूब गये हों। इस प्रकार सब सैनिकों ने द्रोणाचार्य का मारा जाना अपनी आंखों से देखा।

      राजन! महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य का वह सिर उठा लिया और उसे आपके पुत्रों के सामने फेंक दिया। महाराज! द्रोणाचार्य के उस कटे हुए सिर को देखकर आपके सारे सैनिकों ने केवल भागने में ही उत्‍साह दिखाया और वे सम्‍पूर्ण दिशाओं में भाग गये। नरेश्वर! द्रोणाचार्य आकाश में पहुँचकर नक्षत्रों के पथ में प्रविष्‍ट हो गये। उस समय सत्‍यवतीनन्‍दन म‍हर्षि श्रीकृष्‍ण द्वैपायन के प्रसाद से मैनें भी द्रोणाचार्य की वह दिव्य मृत्‍यु प्रत्‍यक्ष देख ली। महातेजस्‍वी द्रोण जब आकाश को स्‍तब्‍ध करके ऊपर को जा रहे थे, उस समय हम लोगों ने यहाँ से उन्‍हें एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान को जाती हुई धूमर हित प्रज्‍वलित उल्‍का के समान देखा था। द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कौरव युद्ध का उत्‍साह खो बैठे, फिर पाण्‍डवों और सृंजयों ने उस पर बड़े वेग से आक्रमण कर दिया। इससे कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। युद्ध में आपके बहुत योद्धा तीखे बाणों द्वारा मारे गये थे और बहुत-से अधमरे हो रहे थे।

       द्रोणाचार्य के मारे जाने पर वे सभी निष्‍प्राण-से हो गये। इस लोक में पराजय और परलोक में महान् भय पाकर दोनों ही लोकों से वंचित हो वे अपने भीतर धैर्य न धारण कर सके। महाराज! हमारे पक्ष के राजाओं ने द्रोणाचार्य के शरीर को बहुत खोजा, परंतु हजारों लाशों से भरे हुए युद्ध स्‍थल में वे उसे पा न सके। पाण्‍डव इस लोक में विजय और परलोक में महान यश पाकर वे धनुष पर बाण रखकर उसकी टंकार करने, शंख बजाने और बारंबार सिंहनाद करने लगे। राजन! तदनन्‍तर भीमसेन और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न एक दूसरे को हृदय से लगाकर सेना के बीच में हर्ष के मारे नाचने लगे। उस समय भीमसेन ने शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न से कहा,

    भीमसेन ने कहा ;- द्रुपदनन्‍दन! जब सूतपुत्र कर्ण और पापी दुर्योधन मारे जायेंगे, उस समय विजयी हुए तुमको मैं फिर इसी प्रकार छाती से लगाऊँगा। इतना कहकर अत्‍यंत हर्ष में भरे हुए पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन अपनी भुजाओं पर ताल ठोककर पृथ्‍वी को कम्‍पित-सी करने लगे। उनके उस शब्‍द से भयभीत हो आपके सारे सैनिक युद्ध से भाग चले। वे क्षत्रिय धर्म को छोड़‍कर पीठ दिखाने लग गये। प्रजानाथ! पाण्‍डव विजय पाकर हर्ष से खिल उठे। संग्राम में जो शत्रुओं का भारी संहार हुआ था, उससे उन्‍हें बड़ा सुख मिला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतर्गत द्रोणवध पर्व में द्रोणवधविषयक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)

एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना, अश्‍वत्‍थामा के पूछने पर कृपाचार्य का उसे द्रोणवध का वृत्‍तान्‍त सुनाना”

      संजय कहते हैं ;- महाराज! द्रोणाचार्य के मारे जाने पर शस्त्रों के आघात से पीड़ित हुए कौरव अपने प्रमुख वीरों के मारे जाने से भारी विध्‍वंस को प्राप्‍त हो अत्‍यन्‍त शोकमग्‍न हो गये। प्रजानाथ! शत्रुओं को उत्‍कर्ष प्राप्‍त करते देख वे दीन और भयभीत हो बारंबार कांपने और नेत्रों से आंसू बहाने लगे। उनकी चेतना लुप्‍त सी हो गयी थी। मोहवश उनका तेज और बल नष्‍ट हो चला गया था। वे इतोत्‍साह होकर अत्‍यन्‍त आर्तस्‍वर से विलाप करते हुए आपके पुत्र को घेर कर खड़े हो गये। पूर्वकाल में हिरण्याक्ष के मारे जाने से दैत्यों की जैसी अवस्‍था हुई थी, वैसी ही उनकी भी हो गयी। वे धूल-धूसर शरीर से कांपते हुए दसों दिशाओं की ओर देख रहे थे। आंसुओं से उनका गला भर आया। डरे हुए क्षुद्र मृगों के समान उन सैनिकों से घिरा हुआ आपका पुत्र राजा दुर्योधन वहाँ खड़ा न रहा सका। वह भागकर अन्‍यत्र चला गया।

     भारत! आपके सभी सैनिक भूख-प्‍यास से व्‍याकुल एवं मलिन हो रहे थे, मानो सूर्य ने उन्‍हें अपनी प्रचण्‍ड किरणों से झुलसा दिया हो। वे अत्‍यंत उदास हो गये थे। राजन! जैसे सूर्य का पृथ्‍वी पर गिर पड़ना, समुद्र का सूख जाना, मेरु पर्वत का उल्‍टी दिशा में चला जाना और इन्‍द्र का पराजित हो जाना असम्‍भव है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य का मारा जाना भी असम्‍भव समझा जाता था, परंतु द्रोणाचार्य के उस असहनीय वध को सम्‍भव हुआ देख सारे कौरव थर्रा उठे और भय के मारे भागने लगे। सुवर्णमय रथ वाले आचार्य द्रोण के मारे जाने का समाचार सुनकर गान्‍धारराज शकुनि त्रस्‍त हो उठा और अत्‍यन्‍त डरे हुए अपने रथियों के साथ युद्ध-भूमि से भाग चला। सूतपुत्र कर्ण भी ध्‍वजा-पताकाओं से सुशोभित एवं बड़े वेग से भागी हुई अपनी विशाल सेना को साथ ले भय के मारे वहाँ से भाग खड़ा हुआ। मद्रराज शल्‍य भी रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई अपनी सेना को आगे करे भये के मारे इधर-उधर देखते हुए भागने लगे। शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य बहुसंख्‍यक, ध्‍वाजा-पताकाओं से सुशोभित बहुत से सैनिकों द्वारा घिरे हुए थे।

        उनकी सेना के प्रमुख वीर मारे गये थे। वे भी हाय! बड़े कष्‍ट की बात है, बड़े कष्‍ट की बात है ऐसा कहते हुए युद्ध भूमि से खिसक गये। राजन! कृतवर्मा भी भोजवंशियों की अवशिष्‍ट सेना तथा कलिंग, अरट्ट और बाह्लिकों की विशालवाहिनी साथ ले अत्‍यन्‍त वेगशाली घोड़ों से जुते हुए रथ के द्वारा भाग निकला। नरेश्‍वर! द्रोणाचार्य को वहाँ मारा गया देख उलूक भी भय से पीड़ित हो थर्रा उठा और पैदल योद्धाओं के साथ जोर-जोर से भागने लगा। जिसके शरीर में शौर्य के चिह्न बन गये थे, वह दर्शनीय युवक दु:शासन भी भय से अत्‍यन्‍त उद्विग्न हो अपनी गज-सेना के साथ भाग खड़ा हुआ। द्रोणाचार्य धराशायी हो गये, यह देखकर वृषसेन भी दस हजार रथों और तीन हजार हाथियों की सेना साथ ले तुरंत वहाँ से चल दिया। महाराज! हाथी, घोड़े और रथों की सेना से युक्‍त तथा पैदल सैनिकों से घिरा हुआ महारथी दुर्योधन भी रणभूमि से भाग चला।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

       राजन! द्रोणाचार्य को रणभूमि में गिराया गया देख अर्जुन के मारने से बचे हुए संशप्‍तकों को साथ ले सुशर्मा वहाँ से भाग निकला। युद्ध स्‍थल में सुवर्णमय रथ वाले द्रोण का वध हुआ देख बहुतेरे सैनिक हाथियों और रथों पर आरूढ़ हो तथा कितने ही योद्धा अपने घोड़ों को भी छोड़कर सब ओर से पलायन करने लगे। कुछ कौरव पिता, ताउ, और चाचा आदि को, कुछ भाईयों को, कुछ मामाओं को तथा कितने ही पुत्रों ओर मित्रों को जल्‍दी से भागने की प्रेरणा देते हुए उस समय मैदान छोड़कर चल दिये। कितने ही योद्धा अपनी सेनाओं को, दूसरे लोग भानजों को और कितने ही अपने सगे-सम्बंधियों को भागने की आज्ञा देते हुए दसों दिशाओं की ओर भाग खड़े हुए। उन सबके बाल बिखरे हुए थे। वे गिरते-पड़ते भाग रहे थे।

      दो सैनिक एक साथ या एक ओर नहीं भागते थे। उन्‍हें विश्‍वास हो गया था कि अब यह सेना नहीं बचेगी, इसीलिये उनके उत्‍साह और बल नष्‍ट हो गये थे। भरतश्रेष्ठ! प्रभो! आपके कितने ही सैनिक कवच उतारकर एक-दूसरे को पुकारते हुए भाग रहे थे। कुछ योद्धा दूसरों से ठहरो, ठहरो कहते, परन्‍तु स्‍वयं नहीं ठहरते थे। कितने ही योद्धा सारथिशून्‍य रथ से सजे-सजाये घोड़ों को खोलकर उन पर सवार हो जाते और पैरों से ही शीघ्रतापूर्वक उन्‍हें हांकने लगते थे। इस प्रकार जब सारी सेना भयभीत हो बल और उत्‍साह खोकर भाग रही थी, उस समय द्रोणपुत्र अश्वत्थामा शत्रुओं की ओर बढ़ा आ रहा था, मानो कोई ग्राह नदी के प्रवाह के प्रतिकूल जा रहा हो। इससे पहले अश्वत्थामा का उन प्रभद्रक, पांचाल, चेदि और केकय आदि गणों के साथ महान युद्ध हो रहा था, जिनका प्रधान नेता शिखण्डी था। (इसीलिये उसे पिता की मृत्‍यु का समाचार नहीं ज्ञात हुआ।) मतवाले हाथी के समान पराक्रमी रणदुर्मद अश्वत्थामा पाण्‍डवों की विविध सेनाओं का संहार करके किसी प्रकार उस युद्ध-संकट से मुक्‍त हुआ था। इतने ही में उसने देखा कि सारी कौरव-सेना भागी जा रही है और सभी लोग पलायन करने में उत्‍साह दिखा रहे हैं। तब द्रोणपुत्र ने दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार पूछा,

     अश्वत्थामा बोला ;- 'भरतनन्‍दन! क्‍यों यह सेना भयभीत-सी होकर भागी जा रही है?

      राजेन्‍द्र! इस भागती हुई सेना को आप युद्ध में ठहरने का प्रयत्‍न क्‍यों नहीं करते? नरेश्वर! तुम भी पहले के समान स्‍वस्‍थ नहीं दिखायी देते। भूपाल! ये कर्ण आदि वीर भी रणभूमि में खड़े नहीं हो रहे हैं। इसका क्‍या कारण है? अन्‍य संग्राम में भी आपकी सेना इस प्रकार नहीं भागी थी। महाबाहु भरतनन्‍दन! आपकी सेना सकुशल तो है न? राजन! कुरुनन्‍दन! किस सिंह के समान पराक्रमी रथी के मारे जाने पर आपकी यह सेना इस दुर्रव्‍यस्‍था को पहुँच गयी है। यह मुझे बताइये'। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की यह बात सुनकर नृपश्रेष्‍ठ दुर्योधन यह घोर अप्रिय समाचार स्‍वयं उसने न कह सका। मानो आपके पुत्र की नाव मझधार में टूट गयी थी और वह शोक के समुद्र में डूब रहा था। रथ पर बैठे हुए द्रोणकुमार को देखकर उसके नेत्रों में आंसू भर आये थे। उस समय राजा दुर्योधन ने कृपाचार्य से संकोचपूर्वक कहा- गुरुदेव! आपका कल्‍याण हो। आप ही वह सब समाचार बता दीजिये, जिससे यह सब सेना भागी जा रही है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-56 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! उस समय शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य बारंबार पीड़ा का अनुभव करते हुए जिस प्रकार द्रोणाचार्य मारे गये थे, वह समाचार उनके पुत्र को सुनाने लगे।

      कृपाचार्य बोले ;- वत्‍स! हम लोगों ने भूमण्‍डल के श्रेष्ठ महारथी आचार्य द्रोण को आगे करके केवल पांचालों के साथ युद्ध आरम्‍भ किया था। युद्ध आरम्‍भ हो जाने पर कौरव तथा सोमक योद्धा परस्‍पर मिश्रित हो गये और एक-दूसरे के निकट गर्जना करते हुए शस्त्रों द्वारा अपने-अपने शत्रुओं के शरीर को धराशायी करने लगे। इस प्रकार युद्ध चालू होने पर जब कौरव योद्धा क्षीण होने लगे, तब तुम्‍हारे पिता ने अत्‍यंत कुपित होकर ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। ब्रह्मास्त्र प्रकट करते हुए नर श्रेष्ठ द्रोण ने सैकड़ों और हजारों भल्लों द्वारा शत्रु-सैनिकों का संहार कर डाला। पाण्डव, केकय, मत्‍स्‍य तथा विशेषत: पांचाल योद्धा काल से प्रेरित हो युद्ध में द्रोणाचार्य के रथ के पास आकर नष्‍ट हो गये। द्रोणाचार्य ने ब्रह्मास्त्र के प्रयोग द्वारा मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी एक हजार श्रेष्‍ठ योद्धाओं तथा दो हजार हाथियों को मौत के हवाले कर दिया। जिनकी अंग-कान्ति श्‍याम थी, जिनके कानों तक के बाल पक गये थे तथा जो चार सौ वर्ष की अवस्‍था पूरे कर चुक थे, वे बूढ़े द्रोणाचार्य रणभूमि में सोलह वर्ष के तरुण की भाँति सब ओर विचरते रहे। जब इस प्रकार सेनाएं कष्‍ट पाने लगीं तथा बहुत-से नरेश काल के गाल में जाने लगे, तब अमर्ष में भरे हुए पांचाल युद्ध से विमुख हो गये। वे कुछ हतोत्‍साह होकर जब युद्ध से विमुख हो गये, तब दिव्यास्त्र प्रकट करने वाले शत्रु विजयी द्रोणाचार्य उदित हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। पाण्डव सेना के बीच में आकर बाणमयी रश्मियों से सुशोभित तुम्‍हारे प्रतापी पिता द्रोण दोपहर के सूर्य की भाँति तपने लगे। उस समय उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था।

      प्रकाशमान सूर्य के समान तेजस्वी द्रोणाचार्य द्वारा दग्‍ध किये जाते हुए पांचालों के बल और पराक्रम भी दग्‍ध हो गये थे। वे उत्‍साह शून्‍य तथा अचेत हो गये थे। उन सबको द्रोणाचार्य के बाणों द्वारा पीड़ित देख पाण्‍डवों की विजय चाहने वाले मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा- ये द्रोणाचार्य शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ एवं रथ यूथपतियों के भी यूथपति हैं। इन्‍हें युद्ध में मनुष्‍य कदाचित नहीं जीत सकते। देवराज इन्‍द्र के लिये भी इन पर विजय पाना असम्‍भव है। अत: पाण्‍डव! तुम लोग धर्म का विचार छोड़कर विजय की रक्षा का प्रत्‍यत्‍न करो, जिससे सुवर्णमय रथ वाले द्रोणाचार्य युद्धस्‍थल में तुम सब लोगों का संहार न कर सके। मेरा ऐसा विश्‍वास है कि अश्वत्थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं कर सकते, अत: कोई मनुष्‍य इनसे झूठे ही कह दे कि युद्ध में अश्वत्थामा मारा गया। कुन्‍तीकुमार अर्जुन को यह बात अच्‍छी नहीं लगी। परंतु और सब लोगों को जंच गयी। युधिष्ठिर बड़ी कठिनाई से इसके लिये तैयार हुए। तब भीमसेन ने लजाते-लजाते तुम्‍हारे पिता से कहा- अश्वत्थामा मारा गया। परन्‍तु उनकी इस बात पर तुम्‍हारे पिता को विश्‍वास नहीं हुआ। उनके मन में यह संदेह हुआ कि यह समाचार झूठा है, अत: तुम्‍हारे पुत्रवत्‍सल पिता ने युद्धभूमि में धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा कि अश्वत्थामा मारा गया या न। युधिष्ठिर असत्‍य के भय में डूबे होने पर भी विजय में आसक्‍त थे, अत: मालवनरेश इन्‍द्रवर्मा के पर्वताकार महान गजराज अश्वत्थामा को भीमसेन के द्वारा यु‍द्ध स्‍थल में मारा गया देख द्रोणाचार्य के पास जाकर वे उच्च स्वर से इस प्रकार बोले-

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 57-70 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर बोले ;- 'आचार्य! तुम जिसके लिये हथियार उठाते हो और जिसका मुंह देखकर जीते हो, वह तुम्‍हारा सदा का प्‍यारा पुत्र अश्वत्थामा पृथ्‍वी पर मार गिराया गया है। जैसे वन में सिंह का बच्‍चा सोता है, उसी प्रकार वह रणभूमि में मरा पड़ा है।' असत्‍य बोलने के दोषों को जानते हुए भी राजा युधिष्ठिर ने द्विज श्रेष्ठ द्रोण से वैसी बात कह दी। फिर वे अस्‍फुट स्‍वर में बोले, - वास्‍तव में इस नाम का हाथी मारा गया। इस प्रकार युद्ध में तुम्‍हारे मारे जाने की बात सुनकर वे शोकाग्नि के ताप से संतप्‍त हो उठे और अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग बंद करके उन्‍होने पहले के समान युद्ध करना छोड़ दिया उन्‍हें अत्‍यन्‍त उद्विग्‍न, शोकाकुल और अचेत हुआ देख पांचालराज का कू्रकर्मा पुत्र धृष्टद्युम्न उनकी ओर दौड़ा।

      लोकतत्त्‍व के ज्ञान में निपुण आचार्य अपनी दैवहित मृत्‍यु रूप धृष्टद्युम्न को सामने देख दिव्‍यास्‍त्रों का परित्‍याग करके आमरण उपवास का नियम ले रणभूमि बैठ गये। तब उस द्रुपदपुत्र ने समस्‍त वीरों के पुकार-पुकार कर मना करने पर भी उसकी बातें अनसुनी करके बायें हाथ से आचार्य के केश पकड़ लिये और दाहिने हाथ से उनका सिर काट लिया। वे सब वीर चारों ओर से यही कह रहे थे कि न मारो, न मारो। अर्जुन भी यही कहते हुए अपने रथ से उतरकर उसकी और दौड़ पड़े। वे धर्म के ज्ञाता हैं, अत: अपनी एक बांह उठाकर बड़ी उतावली के साथ बारंबार यह कहने लगे कि आचार्य को जीते-जी ले आओ, मारो मत। नरश्रेष्ठ! इस प्रकार कौरवों तथा अर्जुन के रोकने पर भी उस नृशंस ने तुम्‍हारी पिता जी की हत्‍या कर ही डाली। अनघ! इस प्रकार तुम्‍हारे पिता के मारे जाने पर समस्‍त सैनिक भय से पीड़ित होकर भाग चले हैं और हम लोग उत्‍साह-शून्य होकर लौटे आ रहे हैं।

     संजय कहते हैं ;– राजन! युद्ध में इस प्रकार पिता के मारे जाने का वृतान्‍त सुनकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा पैरों से ठुकराये हुए सर्प के समान अत्‍यन्‍त कुपित हो उठा। माननीय नरेश! जैसे अग्निदेव सूखे काठ की बहुत बड़ी राशि पाकर प्रचण्‍ड रूप से प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार रणभूमि में अश्वत्थामा अत्‍यन्‍त क्रोध से जलने लगा। उसने हाथ से हाथ मलकर दांतो से दांत पीसे और फुफकारते हुए सर्प के समान वह लंबी सांसे खींचने लगा, उस समय उसकी आंखे लाल हो गयी थी।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व में अश्‍वत्‍थमाका क्रोध विषयक एक सौ तिरानवेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)

एक सौ चोरनबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुर्नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्ट्र का प्रश्न”

      धृतराष्ट्र ने पूछा ;– संजय! अपने बूढ़े पिता ब्राह्मण द्रोणाचार्य के धृष्टद्युम्न द्वारा अधर्मपूर्वक मारे जाने का समाचार सुनकर अश्वत्थामा ने क्‍या कहा? जिनमें मानव, वारुण, आग्‍नेय, ब्रह्मास्त्र, ऐन्‍द्र और नारायण नामक अस्त्र सदा प्रतिष्ठित थे, उन धर्मात्‍मा आचार्य को धृष्टद्युम्न द्वारा अधर्मपूर्वक युद्ध में मारा गया सुनकर पराक्रमी अश्वत्‍थामा ने क्‍या कहा? गुणों की अभिलाषा रखने वाले उन महात्‍मा द्रोण ने इस लोक में परशुराम जी से धनुर्वेद की शिक्षा पाकर वे समस्‍त दिव्यास्त्र अपने पुत्र को भी सिखाये थे। मनुष्‍य इस जगत में केवल पुत्र को ही अपने से भी अधिक गुणवान बनाना चाहते हैं, दूसरे को किसी प्रकार भी नहीं। महात्‍मा आचार्य के पास बहुत-सी रहस्‍य की बातें होती है, जिन्हें या तो वे अपने पुत्र को दे सकते हैं या अनुगत शिष्‍य को।
      संजय! कृपी का शूरवीर पुत्र अश्वत्थामा शिष्‍यभाव से विशेष रहस्‍य सहित सारा धनुर्वेद अपने पिता द्रोणाचार्य से प्राप्‍त करके युद्धस्‍थल में उनके बाद वही उस योग्‍यता का रहा गया है। शस्त्रविद्या में परशुराम के सामान, युद्धकाल में इन्‍द्र के समान, बल-पराक्रम में कृतवीर्यपुत्र अर्जुन के समान, बुद्धि में बृहस्पति के सद्श्‍य, स्थिरता एवं धैर्य में पर्वत के तुल्‍य, तेज में अग्नि के समान, गंभीरता में समुद्र के सदृश और क्रोध में विषधर सर्प के समान नवयुवक अश्वत्थामा संसार का प्रधान रथी और सुदृढ़ धनुर्धर है। उसने श्रम और थकावट को जीत लिया है। वह संग्राम में वायु के समान वेगपूर्वक विचरने वाला तथा क्रोध में भरे हुए यमराज के समान भयंकर है। अश्वत्थामा जब रणभूमि में बाणों की वर्षा करने लगता है, तब धरती भी अत्‍यन्‍त पीड़ित हो उठती है। वह सत्‍य पराक्रमी वीर संग्राम में कभी व्‍यथित नहीं होता है।
      वह वेदाध्‍ययन समाप्‍त करके स्‍नातक बन चुका है। ब्रह्मचर्यव्रत की अविध पूरी करके उसका भी स्‍नातक हो चुका है और धनुर्वेद का भी पारंगत विद्वान है। महासागर तथा दशरथपुत्र श्रीराम के समान उसे कोई क्षुब्‍ध नहीं कर सकता। उसी अश्‍वत्‍थामा ने अपने धर्मिष्‍ठ पिता आचार्य द्रोण को युद्ध में धृष्टद्युम्‍न के हाथ से अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर क्‍या कहा? (हमने सुन रखा है कि) जैसे द्रोणाचार्य का वध करने के लिये पांचालदेशीय द्रुपदकुमार का जन्‍म हुआ था, उसी प्रकार महात्‍मा द्रोण ने धृष्टद्युम्न की मृत्‍यु के लिये अश्‍वत्‍थामा को जन्‍म दिया था। उस नृशंस, पापी, क्रूर और अदूरदर्शी धृष्टद्युम्न के हाथ से आचार्य का वध हुआ सुनकर अश्वत्थामा ने क्‍या कहा?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत नारायणस्‍त्र मोक्ष पर्व में धृतराष्‍ट्र पश्‍न विषयक एक सौ चौरानवेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)

एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्‍थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार और उसके द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य”

     संजय कहते हैं ;- नरश्रेष्ठ! पापी धृष्टद्युम्न ने मेरे पिता को छल से मार डाला है, यह सुनकर अश्वत्थामा के नेत्रों में आंसू भर आये। फिर वह रोष से जल उठा। राजेन्‍द्र! जैसे प्रलयकाल में समस्‍त प्राणियों के संहार की इच्‍छा वाले यमराज का तेजोमय शरीर प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार वहाँ देखा गया कि क्रोध से भरे हुए अश्वत्थामा का शरीर तमतमा उठा है। अपने आंसू भरे नेत्रों को बारंबार पोंछकर क्रोध से लंबी सांस खींचते हुए अश्वत्थामा ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
     अश्वत्थामा ने कहा ;- राजन! मेरे पिता ने जिस प्रकार हथियार डाल दिया, जिस तरह उन नीचों ने उन्‍हें मार गिराया तथा धर्म का ढोंग रचने वाले युधिष्ठिर ने जो पाप किया है, वह सब मुझे मालुम हो गया।
धर्मपुत्र युधिष्ठिर का क्रूरतापूर्ण नीच कर्म मैंने सुन लिया। राजन! जो लोग युद्ध में प्रवृत्‍त होते हैं, उन्‍हें विजय और पराजय अवश्‍य प्राप्‍त होती है। परंतु युद्ध में होने वाले वध की अधिक प्रशंसा की गयी है। संग्राम में जूझते हुए वीर को यदि न्‍यायानुकुल वध प्राप्‍त हो जाय, तो वह दु:ख का कारण नहीं होता, क्‍योंकि द्विजों ने युद्ध के इस परिणाम को देखा है। पुरुषसिंह! इसमें संशय नहीं कि मेरे पिता वीरगति को प्राप्‍त हुए हैं। उस समय वे मारे गये, इस बात को लेकर उनके लिये शोक करना उचित नहीं है। परन्‍तु धर्म में तत्‍पर रहने पर भी जो समस्‍त सैनिकों के देखते-देखते उनका केश पकड़ा गया, वह अपमान ही मेरे मर्मस्‍थानों को विदीर्ण किये देता है। मेरे जीते-जी यदि पिता को अपने केश पकड़े जाने का अपमानपूर्ण कष्ट उठाना पड़ा, तब दूसरे पुत्रवान पुरुष किसलिये पुत्रों की अभिलाषा करेंगे? लोग काम, क्रोध, अज्ञान, हर्ष अथवा बालोचित चपलता के कारण धर्म के विरुद्ध कार्य करते तथा श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान कर बैठते हैं। क्रूर एवं दुरात्‍मा द्रुपदपुत्र ने निश्चय ही मेरी अवहेलना करके यह महान पाप कर्म कर डाला है। अत: उस धृष्टद्युम्न को उस पाप का अत्‍यन्‍त भयंकर परिणाम भोगना पड़ेगा। साथ ही मिथ्‍यावादी पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को भी यह अत्‍यन्‍त नीच कर्म करने के कारण इसका दारुण परिणाम देखना पड़ेगा। जिसने छल करके आचार्य से उस समय शस्त्र रखवा दिया था, उस धर्मराज युधिष्ठिर का रक्‍त आज यह पृथ्‍वी पीयेगी।
        कुरुनन्‍दन! मैं अपने सत्‍य, इष्‍ट (यज्ञ-यागादि) और आपूर्त (वापी-तड़ागनिर्माण आदि) कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ कि समस्‍त पांचालों का वध किये बिना किसी तरह जीवित नहीं रह सकूंगा। सभी उपायों से पांचालों को मार डालने का प्रयत्‍न करूंगा। समरभूमि में पापाचारी धृष्‍टद्युम्न को मैं कोमल और कठोर जिस किसी भी कर्म के द्वारा अवश्‍य मार डालूंगा। कुरुनन्‍दन! पांचालों का वध करके ही मैं शांति पा सकूंगा। पुरुष सिंह! मनुष्‍य इसीलिये पुत्रों की इच्‍छा करते है कि प्राप्‍त होने पर इहलोक और परलोक में भी महान भय से रक्षा करेंगे। मेरे पिता जी मुझ पर्वत-सरीखे पुत्र और शिष्‍य के जीते-जी बन्‍धुहीन की भाँति वह दुरवस्‍था प्राप्‍त की है। मेरे दिव्यास्त्रों को धिक्‍कार है! मेरे इन दोनों भुजाओं को धिक्‍कार है! तथा मेरे पराक्रम को धिक्‍कार है! जबकि मेरे-जैसे पुत्र को पाकर आचार्य द्रोण ने केशग्रहण का अपमान उठाया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)

      भरतश्रेष्ठ! अब मैं ऐसा प्रयत्‍न करूंगा, जिससे परलोक में गये हुए पिता के ऋण से मुक्‍त हो संकू। यद्यपि श्रेष्ठ पुरुष को कभी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, तथापि अपने पिता के वध को न सह सकने के कारण आज मैं यहाँ अपने पुरुषार्थ का वर्णन कर रहा हूँ। आज मैं सारी सेनाओं को रौंदता हुआ प्रलयकाल का दृश्‍य उपस्थित करूंगा। अत: आज श्रीकृष्‍ण सहित समस्‍त पाण्डव मेरा पराक्रम देखें। आज रणभूमि में रथ पर बैठे हुए मुझ अश्वत्थामा को न देवता, न गन्धर्व, न असुर, न राक्षस और न कोई श्रेष्ठ मानव वीर ही परास्‍त कर सकते हैं। इस संसार में मुझसे या अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई अस्त्रवेत्ता कहीं नहीं है। आज मैं शत्रु की सेना में घुसकर प्रकाशमान अंशुधारियों के बीच अंशुमाली सूर्य के समान तपता हुआ देवनिर्मित अस्त्रों का प्रयोग करूंगा। आज महासमर में धनुष से मेरे द्वारा छोड़े हुए बाण मेरा महान पराक्रम दिखाते हुए पाण्‍डव योद्धाओं को मथ डालेंगे।
      राजन! जैसे बरसती हुई जलधाराओं से सम्‍पूर्ण दिशाएं ढक जाती हैं, उसी प्रकार आज सब लोग मेरे तीखे बाणों से सम्‍पूर्ण दिशाओं को आच्‍छादित हुई देखेंगे। जैसे आंधी वृक्षों को गिरा देती है, उसी प्रकार मैं सब ओर बाण समूहों की वर्षा करके भयंकर गर्जना करने वाले शत्रुओं को मार गिराउंगा।
        आज मैं जिस अस्त्र का प्रयोग करुंगा, उसे न अर्जुन जानते हैं न श्रीकृष्ण, भीमसेन, नकुल-सहदेव और राजा युधिष्ठिर को भी उसका पता नहीं है। वह दुरात्‍मा धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और सात्‍यकि भी उसके ज्ञान से शून्‍य है। कुरुनन्‍दन! वह तो प्रयोग और उपसंहार सहित केवल मेरे ही पास है। पूर्वकाल की बात है, मेरे पिता ने भगवान नारायण को प्रणाम करके उन्‍हें विधिपूर्वक देवस्‍वरूप उपहार समर्पित किया (वैदिक मंत्रों द्वारा उनकी स्‍तुति की)। भगवान ने स्‍वयं उपस्थित होकर वह उपहार ग्रहण किया और पिता को वर दिया। मेरे पिता ने वर के रूप में उनसे सर्वोत्तम नारायणास्त्र की याचना की। राजन! तब देवश्रेष्ठ भगवान नारायण ने वह अस्त्र देकर उनसे इस प्रकार कहा- ब्राह्मन! अब युद्ध में तुम्‍हारी समानता करने वाला दूसरा कोई मनुष्‍य कहीं नहीं रह जायेगा, परन्‍तु तुम्‍हें सहसा इसका प्रयोग किसी तरह नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि यह अस्त्र शत्रु का वध किये बिना पीछे नहीं लौटता है।
       प्रभो! यह नहीं जाना जा सकता कि यह अस्त्र किसको नहीं मारेगा। यह अवध्‍य का भी वध कर सकता है, अत: सहसा इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोण! यु‍द्धभूमि में रथ छोड़कर उतर जाना, अपने अस्त्र-शस्त्र रख देना, अभय की याचना करना और शत्रु की शरण लेना- ये इस महान अस्त्र को शांत करने के उपाय हैं। जो रणभूमि में इस अस्त्र के द्वारा अवध्‍य मनुष्‍यों को पीड़ा देता है, वह स्‍वयं भी सब प्रकार से पीड़ित हो सकता है। तदनन्‍दर मेरे पिता ने वह अस्त्र ग्रहण किया और उन पूज्‍य पिता ने मुझे उसका उपदेश किया। (पिता को अस्त्र देते समय भगवान ने यह भी कहा था) ब्राह्मन! तुम संग्राम में इस अस्त्र के द्वारा सम्‍पूर्ण शस्त्र-वर्षाओं को बारंबार नष्‍ट करोगे और स्‍वयं भी तेज से प्रकाशित होते रहोगे। ऐसा कहकर भगवान नारायण अपने दिव्य धाम को चले गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचनवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-50 का हिन्दी अनुवाद)

     इस प्रकार पिता ने भगवान नारायण से यह अस्त्र प्राप्‍त किया और उनसे मुझे इसकी प्राप्ति हुई है। उसी अस्त्र से मैं रणभूमि में पाण्डव, पांचाल, मत्‍स्‍य और केकय योद्धाओं को उसी प्रकार खदेडूंगा, जैसा शचीपति इन्‍द्र ने असुरों को मार भगाया था। भारत! मैं जैसा-जैसा चाहूंगा, वैसा ही रूप धारण करके मेरे बाण शत्रुओं के पराक्रम करने पर भी उन पर पडेंगे। मैं युद्ध में स्थित होकर अपनी इच्‍छा के अनुसार पत्‍थरों की वर्षा करूंगा, लोहे की चोंच वाले पक्षियों द्वारा बड़े-बड़े महारथियों को भगा दूंगा तथा शत्रुओं पर तेज धार वाले फरसे भी बरसाउंगा, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इस प्रकार शत्रुओं को संताप देने वाला मैं महान नारायणास्त्र का प्रयोग करके पाण्‍डवों को पीड़ा देता हुआ अपने समस्‍त शत्रुओं का विध्‍वंस कर डालूंगा। मित्र, ब्राह्मण तथा गुरु से द्रोह करने वाले अत्‍यन्‍त निन्दित वह पांचालकुलकलंक पामर धृष्टद्युम्न भी आज मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा।
        द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की वह बात सुनकर कौरवों की सेना लौट आयी। फिर तो सभी पुरुषश्रेष्ठ वीर बड़े-बड़े शंख बजाने लगे। सबने प्रसन्‍न होकर रणभेरियां बजायी, सहस्‍त्रों डंके पीटे, घोड़ों की टापों और रथों के पहियों से पीड़ित हुई रणभूमि मानो आर्तनाद करने लगी। वह तुमुल ध्‍वनि आकाश, अन्‍तरिक्ष और भूतल को गुंजाने लगी। मेघ की गंभीर गर्जना के समान उस तुमुलनाद को सुनकर श्रेष्ठ पाण्‍डव महारथी एकत्र होकर गुप्‍त मंत्रणा करने लगे। भारत! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पूर्वोक्‍त बात कहकर जल से आचमन करके उस समय उस दिव्‍य नारायणास्‍त्र को प्रकट किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व में अश्‍वत्‍थामा का क्रोधविषयक एक सौ पंचानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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