सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ छियासीवें अध्याय से एक सौ नब्बेवें अध्याय तक (From the 186 chapter to the 190 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षडशीत्यधिकशततमअध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डव-वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण, द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद एवं विराट आदि का वध, धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध”

   संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! उस समय जब रात्रि के पंद्रह मुहूर्तों में से तीन मुहूर्त ही शेष रह गये थे, हर्ष तथा उत्साह में भरे हुए कौरवों तथा पाण्डवों का युद्ध आरम्भ हुआ। तदनन्तर सूर्य के आगे चलने वाले अरुण का उदय हुआ, जो चन्द्रमा की प्रभा को छीनते हुए पूर्व दिशा के आकाश में लालिमा सी फैला रहे थे। प्राची में अरुण के द्वारा अरुण किया हुआ सूर्यदेव का मण्डल सुवर्णमय चक्र के समान सुशोभित होने लगा। तब समस्त कौरव-पाण्डव सैनिक रथ, घोड़े तथा पालकी आदि सवारियों को छोड़कर संध्या-वन्दन में तत्पर हो सूर्य के सम्मुख हाथ जोड़कर वेदमन्त्र का जप करते हुए खड़े हो गये। तदनन्तर सेना के दो भागों में विभक्त हो जाने पर द्रोणाचार्य ने दुर्योधन के आगे होकर सोमकों, पाण्डवों तथा पाञ्चालों पर धावा किया।

      कौरव-सेना को दो भागों में विभक्त देख भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,

       श्री कृष्ण ने कहा ;- 'पार्थ! तुम अन्य शत्रुओं को बायें करके इन द्रोणाचार्य को दायें करो और इनके बीच से होकर आगे बढ़ चले'। 'अच्छा, ऐसा ही कीजिये' भगवान श्रीकृष्ण को यह अनुमति दे अर्जुन महाधनुर्धर द्रोणाचार्य और कर्ण के बायें से होकर निकल गये। श्रीकृष्ण के इस अभिप्राय को जानकर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीमसेन ने युद्ध के मुहाने पर पहुँचे हुए अर्जुन से इस प्रकार कहा। 

     भीमसेन बोले ;- अर्जुन! अर्जुन! बीभत्सो! मेरी यह बात सुनो। क्षत्राणी माता जिसके लिये बेटा पैदा करती है, उसे कर दिखाने का यह अवसर आ गया है। यदि इस अवसर के आने पर भी तुम अपने पक्ष का कल्याण-साधन नहीं करोगे तो तुमसे जिस शौर्य और पराक्रम की सम्भावना की जाती है, उसके विपरीत तुम्हें पराक्रम शून्य समझा जायगा और उस दशा में मानो तुम हम लोगों पर अत्यन्त क्रूरतापूर्ण बर्ताव करने वाले सिद्ध होओगे। योद्धाओं में श्रेष्ठ वीर! तुम अपने पराक्रम द्वारा सत्य, लक्ष्मी, धर्म और यश का ऋण उतार दो। इन शत्रुओं को दाहिने करो और स्वयं बायें रहकर शत्रुसेना को चीर डालो।

      संजय कहते हैं ;- राजन! भगवान श्रीकृष्ण और भीमसेन से इस प्रकार प्रेरित होकर सव्यसाची अर्जुन ने कर्ण और द्रोण को लाँघकर शत्रुसेना पर चारों ओर से घेरा डाल दिया। अर्जुन क्षत्रिय शिरोमणि वीरों को दग्ध करते हुए युद्ध के मुहाने पर आ रहे थे। उस समय वे क्षत्रिय प्रवर योद्धा जलती आग के समान बढ़ने वाले पराक्रमी अर्जुन को पराक्रम करके भी आगे बढ़ने से रोक न सके। तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण तथा सुबल पुत्र शकुनि तीनों मिलकर कुन्ती पुत्र धनंजय पर बाण समूहों की वर्षा करने लगे। राजेन्द्र! तब उत्तम अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ अर्जुन ने उन सबके अस्त्रों को नष्ट करके उन्हें बाणों की वर्षा से ढक दिया। शीघ्रता पूर्व हाथ चलाने वाले जितेन्द्रिय अर्जुन ने अपने अस्त्रों द्वारा शत्रुओं के अस्त्रों का निवारण करके उन सबको दस-दस तीखे बाणों से बींध डाला। उस समय धूल की वर्षा ऊपर छा गयी। साथ ही बाणों की भी वृष्टि हो रही थी। इससे वहाँ घोर अन्धकार छा गया और बड़े जोर से कोलाहल होने लगा। उस अवस्था में न आकाश का, न पृथ्वी का और न दिशाओं का ही पता लगता था। सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से आच्छादित होकर वहाँ सब कुछ अन्धकारमय हो गया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! वे शत्रुसैनिक तथा हम लोग आपस में कोई किसी को पहचान नहीं पाते थे। इसलिये नाम बताने से ही राजा लोग एक दूसरे के साथ युद्ध करते थे। महाराज! रथी लोग रथहीन हो जाने पर परस्पर भिड़कर एक दूसरे के केश, कवच और बाँहें पकड़कर जूझने लगे। बहुत से रथी घोड़े और सारथि के मारे जाने पर भय से पीड़ित हो ऐसे निश्चेष्ट हो गये थे कि जीवित होते हुए भी वहाँ मरे के समान दिखायी देते थे। कितने ही घोड़े और घुड़सवार मरे हुए पर्वताकार हाथियों से सटकर प्राणशून्य दिखायी देते थे।

      उधर द्रोणाचार्य उस युद्धस्थल से उत्तर दिशा की ओर जाकर धूमरहित अग्नि के समान प्रज्वलित होते हुए रणभूमि में खड़े हो गये। प्रजानाथ! उन्हें युद्ध के मुहाने से हटकर एक किनारे आया देख उधर खड़ी हुई पाण्डवों की सेनाएँ थर-थर काँपने लगीं। भारत! तेज से प्रज्वलित हुए से श्रीसम्पन्न द्रोणाचार्य को वहाँ प्रकाशित होते देख शत्रु सैनिक थर्रा उठे। कितने ही वहाँ से भाग चले और बहुतेरे मन उदास किये खड़े रहे। जैसे दानव इन्द्र को नहीं जीत सकते, वैसे ही शत्रु सैनिक शत्रुसेना को ललकारते हुए मदस्त्रावी गजराज के समान द्रोणाचार्य को जीतने का साहस नहीं कर सके। कुछ योद्धा लड़ने का उत्साह खो बैठे, कुछ मनस्वी वीर रोष में भर गये, कितने ही योद्धा उनका पराक्रम देख आश्चर्यचकित हो उठे और कितने ही अमर्ष के वशीभूत हो गये। कोई-कोई नरेश हाथ से हाथ मलने लगे। कुछ क्रोध से आतुर हो दाँतों से ओठ चबाने लगे। कुछ लोग अपने आयुधों को उछालने और धनुष की प्रत्यञ्चा खींचने लगे। दूसरे योद्धा अपनी भुजाओं को मसलने लगे तथा अन्य बहुत से महातेजस्वी वीर अपने प्राणों का मोह छोड़कर द्रोणाचार्य पर टूट पड़े।

     इस प्रकार संग्राम में विचरते हुए रणदुर्जय द्रोणाचार्य पर राजा विराट और द्रुपद ने एक साथ चढ़ाई की। प्रजानाथ! तदनन्तर राजा द्रुपद के तीनों ही पौत्रों तथा चेदिदेशीय महाधनुर्धर योद्धाओं ने भी युद्धस्थल में द्रोणाचार्य पर ही आक्रमण किया। तब द्रोणाचार्य ने तीन तीखे बाणों का प्रहार करके द्रुपद के तीनों पौत्रों के प्राण हर लिये। वे तीनों मरकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात भरद्वाज नन्दन द्रोणाचार्य ने युद्ध में चेदि, केकय, सृंजय तथा मत्स्य देश के सम्पूर्ण महारथियों को परास्त कर दिया। महाराज! इसके बाद राजा द्रुपद और विराट ने द्रोणाचार्य पर समरांगण में क्रोधपूर्वक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। क्षत्रिय मर्दन द्रोणाचार्य ने अपने बाणों द्वारा उस बाणवर्षा को नष्ट करके विराट और द्रुपद दोनों को ढक दिया।

      द्रोणाचार्य के द्वारा आच्छादित किये जाने पर क्रोध में भरे हुए वे दोनों नरेश अत्यन्त कुपित हो युद्ध के मुहाने पर बाणों द्वारा द्रोण को घायल करने लगे। महाराज! तब आचार्य द्रोण ने क्रोध और अमर्ष से युक्त हो दो अत्यन्त तीखे भल्लों द्वारा उन दोनों के धनुष काट डाले। इससे कुपित हुए विराट ने रणभूमि में द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से दस तोमर और दस बाण चलाये। साथ ही क्रोध में भरे हुए राजा द्रुपद ने लोहे की बनी हुई स्वर्ण भूषित भयंकर शक्ति, जो नागराज के समान प्रतीत होती थी, द्रोणाचार्य पर चलायी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)

      यह देख द्रोणाचार्य ने तीखे भल्लों से उन दसों तोमरों को काटकर अपने बाणों के द्वारा सुवर्ण एवं वैदूर्यमणि से विभूषित उस शक्ति के भी टुकड़े-टुकड़े कल डाले। तत्पश्चात शत्रुमर्दन आचार्य द्रोण ने दो पानीदार भल्लों से मारकर राजा द्रुपद और विराट को यमराज के पास भेज दिया। विराट, द्रुपद, केकय, चेदि, मत्स्य और पाञ्चाल योद्धाओँ तथा राजा द्रुपद के तीनों वीर पौत्रों के मारे जाने पर द्रोणाचार्य का वह कर्म देखकर क्रोध और दुःख से भरे हुए महामनस्वी धृष्टद्युम्न ने रथियों के बीच में इस प्रकार शपथ खायी- 'आज जिसके हाथ से द्रोणाचार्य जीवित छूट जायँ अथवा जिसे वे पराजित कर दें, वह यज्ञ करने तथा कुआँ-बावली बनवाने एवं बगीचे लगाने आदि के पुण्यों से वञ्चित हो जाय। क्षत्रियत्व और ब्राह्मणत्व से भी गिर जाय'। इस प्रकार उन सम्पूर्ण धनुर्धरों के बीच में प्रतिज्ञा करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न अपनी सेना के साथ द्रोणाचार्य पर चढ़ आये।

      एक ओर से पाण्डवों सहित पाञ्चाल सैनिक द्रोणाचार्य को मार रहे थे और दूसरी ओर से दुर्योधन, कर्ण, सुबल पुत्र शकुनि तथा दुर्योधन के मुख्य-मुख्य भाई उस युद्ध में आचार्य की रक्षा कर रहे थे। उन सम्पूर्ण महारथियों द्वारा सुरक्षित हुए द्रोणाचार्य की ओर पाञ्चाल सैनिक प्रयत्न करने पर भी आँख उठाकर देख तक न सके। आर्य! तब वहाँ पुरुषप्रवर भीमसेन धृष्टद्युम्न पर कुपित हो उठे और उन्हें भयंकर वाग्बाणों द्वारा छेदने लगे। भीमसेन बोले- द्रुपद के कुल में जन्म लेकर और सम्पूर्ण अस्त्रों का सबसे बड़ा विद्वान होकर भी कौन स्वाभिमानी क्षत्रिय शत्रु को सामने खड़ा हुए देख सकेगा? शत्रु के हाथ से पिता और पुत्र का वध पाकर, विशेषतः राजाओं की मण्डली में शपथ खाकर कौन पुरुष उस शत्रु की रक्षा करेगा? धनुष-बाणरूपी ईंधन से युक्त हो तेज से अग्नि के समान प्रज्वलित होने वाले ये द्रोणाचार्य अपने प्रभाव से क्षत्रियों को दग्ध कर रहे हैं। ये जब तक पाण्डव सेना को समाप्त नहीं कर लेते, उसके पहले ही मैं द्रोण पर आक्रमण करता हूँ।

       वीरो! तुम खड़े होकर मेरा पराक्रम देखो। ऐसा कहकर भीमसेन ने कुपित हो धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा आपकी सेना को खदेड़ते हुए द्रोणाचार्य के सैन्यदल में प्रवेश किया। इसी प्रकार पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने भी आपकी विशाल सेना में घुसकर रणभूमि में द्रोणाचार्य पर चढ़ाई की। उस समय बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। राजन! उस दिन सूर्योदय के समय जैसा महान जन-संहारकारी संग्राम हुआ, वैसा हमने पहले न तो कभी देखा था और न सुना ही था। माननीय नरेश! उस युद्ध में रथों के समूह परस्पर सटे हुए ही दिखायी देते थे और देहधारियों के शरीर मरकर बिखरे हुए थे। कुछ योद्धा अन्यत्र जाते हुए मार्ग में दूसरे योद्धाओं के आक्रमण के शिकार हो जाते थे। कुछ लोग युद्ध से विमुख होकर भागते समय पीठ और पार्श्व भागों में विपक्षियों के बाणों की चोट सहते थे। इस प्रकार वह अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध हो ही रहा था कि क्षणभर में प्रातःसंध्या की वेला में सूर्यदेव का पूर्णतः उदय हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में संकुलयुद्ध विषयक विषयक एक सौ छियासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ सतासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन और नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! वे समस्त योद्धा पूर्ववत कवच बाँधे हुए ही युद्ध के मुहाने पर प्रातः-संध्या के समय सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य का उपस्थान करने लगे। तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान सूर्य देव का उदय होने पर जब सम्पूर्ण लोकों में प्रकाश गया, तब पुनः युद्ध होने लगा। भरतनन्दन! सूर्योदय से पहले जिन लोगों में द्वन्द्व युद्ध चल रहा था, सूर्योदय के बाद भी पुनः वे ही लोग परस्पर जूझने लगे। रथों से घोड़े, घोड़ों से हाथी, पैदलों से हाथी सवार, घोड़ों से घोड़े तथा पैदलों से पैदल भिड़ गये। भरतश्रेष्ठ! रथों से रथ और हाथियों से हाथी गुँथ जाते थे। इस प्रकार कभी सटकर और कभी विलग होकर वे योद्धा रणभूमि में गिरने लगे। वे सभी रात में युद्ध करके थक गये थे। फिर सवेरे सूर्य की धूप लगने से उनके अंग-अंग में भूख-प्यास व्याप्त हो गयी, जिससे बहुतेरे सैनिक अपनी सुध-बुध खो बैठे।

      राजन! भरतश्रेष्ठ! उस समय शंख, भेरी और मृदंगों की ध्वनि, गरजते हुए गजराजों का चीत्कार और फैलाये तथा खींचे गये धनुषों की टंकार इन सबका सम्मिलित शब्द आकाश में गूँज उठा था। दौड़ते हुए पैदलों, गिरते हुए शस्त्रों, हिनहिनाते हुए घोड़ों, लौटते हुए रथों तथा चीखते-चिल्लाते और गरजते हुए शूरवीरों का मिला हुआ महाभयंकर शब्द वहाँ गूँज रहा था। वह बढ़ा हुआ अत्यन्त भयानक शब्द उस समय स्वर्गलोक तक जहां पहुँचा था। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से कटकर छटपटाते हुए योद्धाओं का महान आर्तनाद धरती पर सुनायी दे रहा था। गिरते और गिराये जाते हुए पैदल, घोड़े, रथ और हाथियों की अत्यन्त दयनीय दशा दिखायी देती थी। उन सभी सेनाओं में बारंबार मुठभेड़ होती थी और उसमें अपने ही पक्ष के लोग अपने ही पक्षवालों को मार डालते थे। शत्रुपक्ष के लोग भी अपने पक्ष के लोगों को मारते थे। शत्रुपक्ष के जो स्वजन थे उनको तथा शत्रुओं को भी शत्रुपक्ष के योद्धा मार डालते थे। जैसे कपड़े धोने के घाटों पर ढेर के ढेर वस्त्र दिखायी देते हैं, उसी प्रकार योद्धाओं और हाथियों पर वीरों की भुजाओं द्वारा छोड़े गये अस्त्र-शस्त्रों की राशियाँ दिखायी देती थीं।

     शूरवीरों के हाथों में उठकर विपक्षी योद्धाओं के शस्त्रों से टकराये हुए खड्गों का शब्द वैसा ही जान पड़ता था, जैसे धोबियों के पटहों पर पीटे जाने वाले कपड़ों का शब्द होता है। एक ओर धारवाली और दुधारी तलवारों, तोमरों तथा फरसों द्वारा जो अत्यन्त निकट से युद्ध चल रहा था, वह भी बहुत ही क्रूरतापूर्ण एवं भयंकर था। वहाँ युद्ध करने वाले वीरों ने खून की नदी बहा दी, जिसका प्रवाह परलोक की ओर ले जाने वाला था। वह रक्त की नदी हाथी और घोड़ों की लाशों से प्रकट हुई थी। मनुष्यों के शरीरों को बहाये लिये जाती थी। उसमें शस्त्ररूपी मछलियाँ भरी थीं। मांस और रक्त ही उसकी कीचड़ थे। पीड़ितों के आर्तनाद ही उसकी कलकल ध्वनि थे तथा पताका और शस्त्र उस में फेन के समान जान पड़ते थे। रात्रि के युद्ध से मोहित, अल्प चेतना वाले, बाणों और शक्तियों से पीड़ित तथा थके-माँदे हाथी एवं घोड़े आदि वाहन अपने सारे अंगों को स्तब्ध करके वहाँ खड़े थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

     योद्धाओं की कटी हुई भुजाओं, विचित्र कवचों, मनोहर कुण्डलमण्डित मस्तकों तथा इधर-उधर बिखरी हुई अन्यान्य युद्ध सामग्रियों से रणभूमि के विभिन्न प्रदेश प्रकाशित हो रहे थे। कहीं कच्चा मांस खाने वाले प्राणियों का समुदाय भरा था, कहीं मरे और अधमरे जीव पड़े थे। इन सबके कारण उस सारी युद्धभूमि में कहीं भी रथ के जाने के लिये रास्ता नहीं मिलता था। रथों के पहिये रक्त की कीच में डूब जाते थे, तो भी उन रथों को बाणों से पीड़ित हो काँपते हुए और परिश्रम से थके-माँदे घोड़े किसी प्रकार धैर्य धारण करके ढोते थे। वे सभी घोड़े उत्तम कुल, साहस और बल से सम्पन्न तथा हाथियों के समान विशालकाय थे (इसीलिये ऐसा पराक्रम कर पाते थे)।

     भारत! उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुन- इन दो वीरों को छोड़कर शेष सारी सेना तुरंत विहल, उदभ्रान्त, भयभीत और आतुर हो गयी। वे ही दोनों अपने-अपने पक्ष के योद्धाओं के लिये छिपने के स्थान थे और वे ही पीड़ितों के आश्राय बने हुए थे। परंतु विपक्षी योद्धा इन्हीं दोनों के समीप जाकर यमलोक पहुँच जाते थे। कौरवों तथा पाञ्चालों के सारे विशाल सैन्य परस्पर मिलकर व्यग्र हो उठे थे। उस समय उनमें से किसी दल को अलग-अलग पहचाना नहीं जाता था। वह समरांगण यमराज का क्रीड़ा स्थल सा हो रहा था और कायरों का भय बढ़ा रहा था। राजन! भूमण्डल के राजवंश में उत्पन्न हुए क्षत्रियों का वह महान संहार उपस्थित होने पर वहाँ युद्ध में तत्पर हुए सब लोग सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से ढक गये थे। इसीलिये हम लोग वहाँ न तो कर्ण को देख पाते थे, न द्रोणाचार्य को। न अर्जुन दिखायी देते थे, न युधिष्ठिर। भीमसेन, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न और सात्यकि को भी हम नहीं देख पाते थे। दुःशासन, अश्वत्थामा, दुर्योधन, शकुनि, कृपाचार्य, शल्य, कृतवर्मा तथा अन्य महारथी भी हमारी दृष्टि में नहीं आते थे। औरों की तो बात ही क्या है ?

      हम अपने शरीर को भी नहीं देख पाते थे, पृथ्वी और दिशाएँ भी नहीं सूझती थीं। वहाँ धूलरूपी मेघ की भयंकर एवं घोर घटा घुमड़-घुमड़कर घिर आयी थी, जिससे सब लोगों को उस समय ऐसा मालूम होता था, मानो दूसरी रात्रि आ पहुँची हो। उस अन्धकार में न तो कौरव पहचाने जाते थे और न पांचाल तथा पाण्डव ही। दिशा, आकाश, भूमण्डल और सम-विषय स्थान आदि का भी पता नहीं चलता था। जो हाथ की पकड़ में आ गये या छू गये, वे अपने हों या पराये, विजय की इच्छा रखने वाले मनुष्य उन्हें तत्काल युद्ध में मार गिराते थे। उस समय तेज हवा चलने से कुछ धूल तो ऊपर उड़ गयी और कुछ योद्धाओं के रक्त से सिंचकर नीचे बैठ गयी। इससे भूतल की वह सारी धूलराशि शान्त हो गयी। तदनन्तर वहाँ खून से लथपथ हुए हाथी, घोड़े, रथी और पैदल सैनिक पारिजात के जंगलजों के समान सुशोभित होने लगे। उस समय दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य और दुःशासन ये चार महारथी चार पाण्डवों के साथ युद्ध करने लगे। दुर्योधन अपने भाई दुःशसन को साथ लेकर नकुल और सहदेव से भिड़ गया। राधा पुत्र कर्ण भीमसेन के साथ और अर्जुन आचार्य द्रोण के साथ युद्ध करने लगे। उस उग्र महारथियों का वह घोर, अत्यन्त आश्चर्यजनक और अमानुषिक संग्राम वहाँ सब लोग सब ओर से देखने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद)

     रथ के विचित्र पैंतरों से विचरने वाले तथा विचित्र युद्ध करने वाले उन महारथियों का विचित्र रथों से व्याप्त वह विचित्र युद्ध वहाँ सब रथी दर्शक की भाँति देखने लगे। एक दूसरे को जीतने की इच्छा वाले वे वीर योद्धा प्रयत्नपूर्वक पराक्रम में तत्पर हो वर्षाकाल के मेघों की भाँति बाणरूपी जल की वर्षा कर रहे थे। सूर्य के समान तेजस्वी रथों पर बैठे हुए वे पुरुष प्रवर योद्धा चन्चल चपलाओं की चमक से युक्त शरत्काल के मेघों की भाँति शोभा पा रहे थे। महाराज! क्रोध और अमर्ष में भरे हुए वे परस्पर स्पर्धा रखने वाले, विजय के लिये प्रयत्नशील और विशाल धनुष धारण करने वाले धनुर्धर योद्धा मतवाले गजराजों के समान एक दूसरे से जूझ रहे थे। राजन! निश्चय ही अन्तकाल आये बिना किसी के शरीर का नाश नहीं होता है, तभी तो उस संग्राम में क्षत-विक्षत हुए वे समस्त महारथी एक साथ ही नष्ट नहीं हो गये।

     उस समय योद्धाओं के कटे हुए हाथ, पैर, कुण्डल-मण्डित मस्तक, धनुष, बाण, प्रास, खड्ग, परशु, पट्टिश, नालीक, छोटे नाराच, नखर, शक्ति, तोमर, अन्याय नाना प्रकार के साथ किये हुए उत्तम आयुध, भाँति-भाँति के विचित्र कवच, टूटे हुए विचित्र रथ तथा मरे गये हाथी, घोड़े, इधर-उधर पड़े थे। वायु के समान वेगशाली, सारथि शून्य, भयभीत घोड़े जिन्हें बारंबार इधर-उधर खींच रहे थे, जिनके रथी योद्धा और ध्वज नष्ट हो गये थे, ऐसे नगराकार सुनसान रथ भी वहाँ दृष्टिगोचर हो रहे थे। आभूषणों से विभूषित वीरों के मृत शरीर यत्र-तत्र गिरे हुए थे, काटकर गिराये हुए व्यजन, कवच, ध्वज छत्र, आभूषण, वस्त्र, सुगन्धित फूलों के हार, रत्नों के हार, किरीट, मुकुट, पगड़ी, किंकिणी समूह, छाती पर धारण की जाने वाली मणि, सोने के निष्क और चूड़ामणि आदि वस्तुएँ भी इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। इन सबसे भरा हुआ वह युद्धस्थल वहाँ नक्षत्रों से व्याप्त आकाश के समान सुशोभित हो रहा था। इसी समय क्रुद्ध और असहिष्णु दुर्योधन का रोष और अमर्ष से भरे हुए नकुल के साथ युद्ध आरम्भ हुआ। माद्री पुत्र नकुल ने आपके पुत्र दुर्योधन को दाहिने कर दिया और हर्ष में भरकर उस पर सैकड़ों बाणों की झड़ी लगा दी, फिर तो वहाँ महान कोलाहल हुआ। अमर्षशील शत्रु के द्वारा युद्ध स्थल में अपने आपको दाहिने किया हुआ देख दुर्योधन इसे सहन न कर सका।

     महाराज! फिर आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने भी तुरंत ही रणभूमि में नकुल को भी अपने दाहिने ला देने का प्रयत्न किया। तेजस्वी नकुल युद्ध की विचित्र प्रणालियों के ज्ञाता थे। उन्होंने यह देखकर कि धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मुझे दाहिने लाने की चेष्टा कर रहा है, उसे सहसा रोक दिया। नकुल ने दुर्योधन को अपने बाण समूहों द्वारा पीड़ित करते हुए उसे सब ओर से रोककर युद्ध से विमुख कर दिया। उनके इस पराक्रम की समस्त सैनिक सराहना करने लगे। उस समय आपकी कुमन्त्रणा तथा अपने को प्राप्त हुए सम्पूर्ण दुःखों को स्मरण करके नकुल ने आपके पुत्र को ललकारते हुए कहा- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में नकुल का युद्ध विषयक एक सौ सतासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ अठासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दुःशासन और सहदेव का, कर्ण और भीमसेन का तथा द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर अपने रथ के तीव्र वेग से पृथ्वी को कँपाते हुए से दुःशासन ने कुपित होकर सहदेव पर आक्रमण किया। उसके आते ही शत्रुसूदन माद्री कुमार सहदेव ने शीघ्र ही एक भल्ल मारकर दुःशासन के सारथि का मस्तक शिरस्त्राण सहित काट डाला। इस कार्य में उन्होंने ऐसी फुर्ती दिखायी कि न तो दुःशासन और न दूसरा ही कोई सैनिक इस बात को जान सका कि सहदेव ने सारथि का सिर काट डाला है। जब रास छूट जाने के कारण घोड़े अपनी मौज से इधर-उधर भागने लगे, तब दुःशासन को यह ज्ञात हुआ कि मेरा सारथि मारा गया। रथियों में श्रेष्ठ दुःशासन अश्व-संचालन की कला में निपुण था। वह रणभूमि में स्वयं ही घोड़ों को काबू में करके शीघ्रतापूर्वक विचित्र रीति से अच्छी तरह युद्ध करने लगा। सारथि के मारे जाने पर भी दुःशासन उस रथ के द्वारा युद्धभूमि में निर्भय सा विचरता रहा, उसके इस कर्म की अपने और शत्रुपक्ष के लोगों ने भी प्रशंसा की। सहदेव उन घोड़ों पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। उन बाणों से पीड़ित हुए वे घोड़े शीघ्र ही इधर-उधर भागने लगे। दुःशासन जब घोड़ों की रास सँभालने लगता तो धनुष छोड़ देता और जब धनुष से काम लेता तो विवश होकर घोड़ों की रास छोड़ देता था। उसकी दुर्बलता के इन्हीं अवसरों पर माद्री कुमार सहदेव उसे बाणों से ढक देते थे। उस समय आपके पुत्र की रक्षा के लिये कर्ण बीच में कूद पड़ा।

      तब भीमसेन ने भी सावधान होकर धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये तीन भल्लों द्वारा कर्ण की दोनों भुजाओं और छाती में गहरी चोट पहुँचायी। फिर वे जोर-जोर से गर्जना करने लगे। तदनन्तर पैरों से कुचल गये सर्प के समान कुपित हो कर्ण लौट पड़ा और तीखे बाणों की वर्षा करके भीम को रोकने लगा। फिर तो भीमसेन और राधा पुत्र कर्ण में घोर युद्ध होने लगा। दोनों ही एक दूसरे की ओर विकृत दृष्टि से देखते हुए साँड़ों के समान गर्जने लगे। फिर दोनों परस्पर अत्यन्त कुपित हो बड़े वेग से टूट पड़े।
      उन युद्ध कुशल योद्धाओं के परस्पर अत्यन्त निकट आ जाने के कारण उनके बाण चलाने का क्रम टूट गया, इसलिये उनमें गदा युद्ध आरम्भ हो गया। राजन! भीमसेन ने अपनी गदा से कर्ण के रथ का कूबर तोड़कर उसके सौ टुकड़े कर दिये, वह अद्भुत सा कार्य हुआ। फिर पराक्रमी राधा पुत्र कर्ण ने भीम की ही गदा उठा ली और उसे घुमाकर उन्हीं के रथ पर फेंका, किन्तु भीम ने दूसरी गदा से उस गदा को तोड़ डाला। तत्पश्चात उन्होंने अधिरथ पुत्र कर्ण पर पुनः एक भारी गदा छोड़ी। परंतु कर्ण ने तेज किये हुए सुन्दर पंखवाले दूसरे-दूसरे बहुत से बाण मारकर उस गदा को बींध डाला। इससे वह पुनः भीम पर ही लौट आयी। कर्ण के बाणों से आहत हो वह गदा मन्त्र से मारी गयी सर्पिणी के समान लौटकर भीमसेन के ही रथ पर गिरी। उसके गिरने से भीमसेन की विशाल ध्वजा धराशायी हो गयी और उधर गदा की चोट खाकर उनका सारथि भी मूर्च्छित हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)

     तब क्रोध से व्याकुल हुए भीमसेन ने कर्ण को आठ बाण मारे। भारत! शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली भीमसेन ने हँसते हुए से उन तेज धारवाले तीखे बाणों द्वारा कर्ण के ध्वज, धनुष और तरकस को काट गिराया। तत्पश्चात राधा पुत्र कर्ण ने पुनः सोने की पीठ वाला दूसरा दुर्जय धनुष हाथ में लेकर रथ पर रखे हुए बाणों द्वारा भीमसेन के रीछ के समान रंगवाले काले घोड़ों और दोनों पार्श्व रक्षकों को शीघ्र ही मार डाला। इस तरह रथ नष्ट हो जाने से शत्रुदमन भीमसेन जैसे सिंह पर्वत के शिखर पर चढ़ जाता है, उसी प्रकार उछलकर नकुल के रथ पर जा बैठे।

      संजय कहते हैं ;- राजेन्द्र! इसी प्रकार युद्धस्थल में आचार्य और शिष्य महारथी द्रोण तथा अर्जुन परस्पर प्रहार करते हुए विचित्र रीति से युद्ध कर रहे थे। शीघ्रतापूर्वक बाणों के संधान और रथों के योग से अपने संग्राम द्वारा वे दोनों वीर लोगों के नेत्रों और मन को भी मोह लेते थे। भरतश्रेष्ठ! गुरु और शिष्य के उस अपूर्व युद्ध को देखते हुए सब योद्धा संग्राम से विरत हो गये। वे दोनों वीर सेना के बीच में रथ के विचित्र पैंतरे प्रकट करते हुए उस समय एक दूसरे को दायें कर देने की चेष्टा करने लगे। उन द्रोणाचार्य और पाण्डु पुत्र अर्जुन के पराक्रम को वे सब सैनिक अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। महाराज! जैसे मांस के टुकडे़ के लिये आकाश में दो बाज लड़ रहे हों, उसी प्रकार राज्य के लिये उन दोनों गुरु-शिष्यों में बड़ा भारी युद्ध हो रहा था। द्रोणाचार्य कुन्ती पुत्र अर्जुन को जीतने की इच्छा से जिस-जिस अस्त्र का प्रयोग करते थे, उस-उसको पाण्डु पुत्र अर्जुन हँसते हुए तत्काल काट देते थे। जब द्रोणाचार्य पाण्डु पुत्र अर्जुन की अपेक्षा अपनी विशेषता न सिद्ध कर सके, तब अस्त्रमार्गो के ज्ञाता गुरुदेव ने दिव्यास्त्रों को प्रकट किया।

     द्रोणाचार्य के धनुष से क्रमशः छूटे हुए ऐन्द्र, पाशुपत, त्वाष्ट्र, वायव्य तथा वारूण नामक अस्त्र को अर्जुन ने तत्काल शान्त कर दिया। जब पाण्डुकुमार अर्जुन आचार्य के सभी अस्त्रों को अपने अस्त्रों द्वारा विधिपूर्वक नष्ट करने लगे, तब द्रोण ने परम दिव्य अस्त्रों के द्वारा अर्जुन को ढक दिया। परंतु विजय की इच्छा से वे पार्थ पर जिस-जिस अस्त्र का प्रयोग करते थे, उस-उसके विनाश के लिये अर्जुन वैसे ही अस्त्रों का प्रयोग करते थे। जब अर्जुन के द्वारा उनके विधिपिूर्वक चलाये हुए दिव्यास्त्र भी प्रतिहत होने लगे, तब द्रोण ने अर्जुन की मन ही मन सराहना की। भारत! शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य उस शिष्य के द्वारा अपने आपको भूमण्डल के सभी शस्त्र वेत्ताओं से श्रेष्ठ मानने लगे। महामनस्वी वीरों के बीच में अर्जुन के द्वारा इस प्रकार रोके जाते हुए द्रोणाचार्य प्रयत्न करके प्रसन्तापूर्वक मुसकराते हुए स्वयं भी अर्जुन को आगे बढ़ने से रोकने लगे। तदनन्तर वह युद्ध देखने की इच्छा से आकाश में बहुत से देवता, सहस्रों गन्धर्व, ऋषि और सिद्ध समुदाय खड़े हो गये। अप्सराओं, यक्षों और गन्धवों से भरा हुआ आकाश ऐसी विशिष्ट शोभा पा रहा था, मानो उसमें मेघों की घटा घिर आयी हो। नरेश्वर! वहाँ द्रोणाचार्य और अर्जुन की स्तुति से युक्त अदृश्य व्यक्तियों के मुखों से निकली हुई बातें बारंबार सुनायी देने लगीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-54 का हिन्दी अनुवाद)

      जब दिव्यास्त्रों के प्रयोग होने लगे और उनके तेज से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं, उस समय आकाश में एकत्र हुए सिद्ध और ऋषि इस प्रकार वार्तालाप करने लगे- ‘यह युद्ध न तो मनुष्यों का है, न असुरों का, न राक्षसों का है और न देवताओं एवं गन्धर्वों का ही। निश्चय ही यह परम उत्तम ब्राह्य युद्ध है। ऐसा विचित्र एवं आश्चर्यजनक संग्राम हम लोगों ने न तो कभी देखा था और न सुना ही था। ‘आचार्य द्रोण पाण्डु पुत्र अर्जुन से बढ़कर हैं और पाण्डु पुत्र अर्जुन भी आचार्य द्रोण से बढ़कर हैं। इन दोनों में कितना अन्तर है, इसे दूसरा कोई नहीं देख सकता। ‘यदि भगवान शंकर अपने दो रूप बनाकर स्वयं ही अपने साथ युद्ध करें तो उसी युद्ध से इनकी उपमा दी जा सकती है, और कहीं इन दोनों की समता नहीं है। ‘आचार्य द्रोण में सारा ज्ञान एकत्र संचित है, परंतु पाण्डु पुत्र अर्जुन में ज्ञान के साथ-साथ योग भी है। इसी प्रकार आचार्य द्रोण में सारा शौर्य एक स्थान पर आ गया है, परंतु पाण्डु नन्दन अर्जुन में शौर्य के साथ बल भी है। ‘ये दोनों महाधनुर्धर वीर युद्ध में दूसरे किन्हीं योद्धाओं के द्वारा नहीं मारे जा सकते। परंतु यदि ये दोनों चाहें तो देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत का विनाश कर सकते हैं’। महाराज! उन दोनों पुरुषप्रवर वीरों को देखकर आकाश में छिपे हुए तथा प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले प्राणी भी सब ओर यही बातें कह रहे थे।
      तत्पश्चात परम बुद्धिमान द्रोणाचार्य ने रणभूमि में अर्जुन को तथा आकाशवर्ती अदृश्य प्राणियों का संताप देते हुए ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। फिर तो पर्वत, वन और वृक्षों सहित धरती डोलने लगी, आँधी उठ गयी और समुद्रों में ज्वार आ गया। महामना द्रोण के द्वारा ब्रह्मास्त्र के उठाये जाते ही कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं पर तथा समस्त प्राणियों में बड़ा भारी आतंक छा गया। राजेन्द्र! तब अर्जुन ने भी बिना किसी घबराहट के ब्रह्मास्त्र से ही द्रोणाचार्य के उस अस्त्र को दबा दिया, फिर सारा उपद्रव शान्त हो गया। जब द्रोणाचार्य और अर्जुन में से कोई भी किसी को परास्त न कर सका, तब सामूहिक युद्ध के द्वारा उस संग्राम को व्यापक बना दिया गया। प्रजानाथ! रणभूमि में द्रोणाचार्य और अर्जुन में घमासान युद्ध छिड़ जाने पर फिर किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था।
      द्रोणाचार्य ने युद्ध स्थल में अर्जुन को छोड़कर पांचालों पर धावा किया और अर्जुन ने भी वहाँ द्रोणाचार्य का मुकाबला छोड़कर कौरव सैनिकों को वेगपूर्वक खदेड़ना आरम्भ किया। राजन! उस महासमर में उन दोनों ने अपने बाण समूहों द्वारा सब कुछ अन्धकार से आच्छन्न कर दिया। वह तुमुल युद्ध सम्पूर्ण जगत के लिये भयदायक प्रतीत हो रहा था।। आकाश में इस प्रकार बाणों का जाल बिछ गया, मानो वहाँ मेघों की घटा घिर आयी हो। इससे वहाँ उस समय कोई आकाशचारी पक्षी भी कहीं उड़कर न जा सका।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में घमासान युद्ध विषयक एक सौ अटठासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ नवासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण, नकुल-सहदेव द्वारा उनकी रक्षा, दुर्योधन तथा सात्‍यकि का संवाद तथा युद्ध, कर्ण और भीमसेन का संग्राम और अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण”

    संजय कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार हाथी, घोडों और मनुष्‍यों का संहार करने वाले उस वर्तमान में दु:शासन धृष्टद्युम्न के साथ जूझने लगा। धृष्टद्युम्न पहले द्रोणाचार्य के साथ उलझे हुए थे, दु:शासन के बाणों से पीड़ित होकर उन्‍होंने आपके पुत्र के घोड़ों पर वेषपूर्वक बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी। महाराज! एक ही क्षण में धृष्टद्युम्न के बाणों का ऐसा ढेर लग गया दु:शासन रथ ध्‍वजा और सारथि सहित अदृश्‍य हो गया। राजेन्‍द्र! महामना धृष्टद्युम्न के बाण समूहों से अत्‍यन्‍त पीड़ित हो दु:शासन उनके सामने ठहर न सका। इस प्रकार अपने बाणों द्वारा दु:शासन को सामने से भगा कर सहस्रों बाणों की वर्षा करते हुए धृष्टद्युम्न ने रण भूमि में पुन: द्रोणाचार्य पर ही आक्रमण किया। यह देख हृदिक पुत्र कृतवर्मा तथा दु:शासन के तीन भाई बीच में आ धमके। वे चारों मिलकर धृष्टद्युम्न को रोकने लगे।
       प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी धृष्टद्युम्न को द्रोणाचार्य के सम्‍मुख जाते देख नरश्रेष्‍ठ नकुल और सहदेव उनकी रक्षा करते हुए पीछे-पीछे चले। उस समय अमर्ष से भरे हुए सभी धैर्यशाली महारथियों ने मृत्यु को सामने रखकर परस्‍पर युद्ध आरम्‍भ कर दिया। राजन! उन सबके हृदय शुद्ध और आचार-व्‍यवहार निर्मल थे। वे सभी स्‍वर्ग की प्राप्ति रूप लक्ष्‍य को अपने सामने रखते थे, अत: परस्‍पर विजय की अभिलाषा से वे आर्यजनोचित युद्ध करने लगे। जनेश्‍वर! उन सबके वंश शुद्ध और कर्म निष्‍कलंक थे, अत: वे बुद्धिमान योद्धा उत्‍तम गति पाने की इच्‍छा से धर्म युद्ध में तत्‍पर हो गये। वहाँ अधर्मपूर्ण और निन्‍दनीय युद्ध नहीं हो रहा था, उसमें कणीं, नालीक, विष लगाये हुए बाण और वस्तिक नामक अस्त्र कर प्रयोग नहीं होता था। न सूची, कपिश, न गाय की हड्डी का बना हुआ, न हाथी की हड्डी का बना हुआ, न दो फलों का कांटोवाला, न दुर्गन्‍ध युक्‍त और न जिहाग (टेढ़ा जाने वाला) बाण ही काम में लाया जाता था। वे सब योद्धा न्‍याय युक्‍त युद्ध के द्वारा उत्तम लोक और कीर्ति पाने की अभिलाषा रखकर सरल और शुद्ध शस्त्रों को ही धारण करते थे। आपके चार योद्धाओं का तीन पाण्‍डव वीरों के साथ घमासान युद्ध चल रहा था, वह सब प्रकार के दोषों से रहित था। राजन! धृष्टद्युम्न शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले थे। वे नकुल और सहदेव के द्वारा कौरव पक्ष के उन वीर महारथियों को रोका गया देख स्‍वयं द्रोणाचार्य की ओर बढ़ गये। वहाँ रोके गये वे चारों वीर उन दोनों पुरुष सिंह पाण्‍डवों के साथ इस प्रकार भिड़ गये मानों चौआई हवा दो पर्वतों से टकरा रही हो। रथियों में श्रेष्‍ठ नकुल और सहदेव दो-दो कौरव रथियों के साथ जूझने लगे। इतने में ही धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य के सामने जा पहुँचे।
       महाराज! रणदुर्मद धृष्टद्युम्न को द्रोणाचार्य की ओर जाते और अपने दल के उन चारों वीरों वाले बाणों की वर्षा करता हुआ उनके बीच में आ धमका। यह देख सात्‍यकि बड़ी शीघ्रता के साथ पुन: दुर्योधन के सम्‍मुख आ गये। वे दोनों मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी थे। कुरुवंशी दुर्योधन और मधुवंशी सात्‍यकि एक दूसरे को समीप पाकर निर्भय हो हंसते हुए युद्ध करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

     बचपन की सारी बातें याद करके वे दोनों वीर एक दूसरे की ओर देखते हुए बारंबार प्रसन्‍नतापूर्वक मुसकरा उठते थे। तदनन्तर राजा दुर्योधन अपने बर्ताव की निरन्‍तर निन्‍दा करते हुए वहाँ अपने प्रिय सखा सात्‍यकि से इस प्रकार कहा,
       दुर्योधन ने कहा ;- सखे! क्रोध को धिक्‍कार है, लोभ को धिक्‍कार है, मोह को धिक्‍कार है, अमर्ष को धिक्‍कार है, इस क्षत्रियोचित आचार को धिक्‍कार है तथा और इस बल को भी धिक्‍कार है। शिनिप्रवर! इन क्रोध, लोभ आदि के अधीन होकर तुम मुझे अपने बाणों का निशाना बनाते हो और तुम्‍हें मैं वैसे तो तुम मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय रहे हो और मैं भी तुम्‍हारा सदा ही प्रीति पात्र राह हूँ। हम दोनों के बचपन में परस्‍पर जो बर्ताव रहे हैं, उन सबको इस समय मैं याद कर रहा हूं, परन्‍तु अब इस समरांगण में हमारे वे सभी सद्व्‍यवहार जीर्ण हो गये हैं।
      सात्‍वत वीर! आज का यह युद्ध ही क्रोध और लोभ के सिवा दूसरा क्‍या है उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता सात्‍यकि ने हंसते हुए तीखे बाणों को ऊपर उठाकर वहाँ पूर्वोक्‍त बातें करने वाले दुर्योधन को इस प्रकार उत्‍तर दिया,
      सात्यकि ने कहा ;- राजकुमार! कौरव नरेश! न तो यह सभा है और न आचार्य का घर ही है जहाँ एकत्र होकर हम सब लोग खेला करते थे। दुर्याधन बोला शिनिप्रवर! हमारा बचपन का वह खेल कहाँ चला गया और फिर यह युद्ध कहाँ से आ धमका हाय! काल का उल्‍लंघन करना अत्‍यन्‍त ही कठिन है। हमें धन से या धन पाने की इच्‍छा से क्‍या प्रयोजन है जो हम सब लोग यहाँ धन के लोभ से एकत्र होकर जूझ रहे हैं। 
     संजय कहते है ;- महाराज! ऐसी बात कहने वाले राजा दुर्योधन से सात्‍यकि ने इस प्रकार कहा,
     सात्यकि ने कहा ;- राजन! क्षत्रियों का सनातन आचार ही ऐसा है कि वे यहाँ गुरुजनों के साथ भी युद्ध करते हैं। यदि मैं तुम्‍हारा प्रिय हूँ तो तुम मुझे शीघ्र मार डालो, विलम्‍ब न करो। भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारे ऐसा करने पर मैं पुण्‍यवानों के लोकों में जाऊँगा। तुम में जितनी शक्ति और बल है, वह सब शीघ्र मेरे ऊपर दिखाओ, क्‍योंकि मैं अपने मित्रों का वह महान संकट नहीं देखना चाहता हूँ।
      इस प्रकार स्‍पष्‍ट बोलकर दुर्योधन की बात का उत्तर दे सात्यकि ने नि:शंगत होकर तुरंत आगे बढ़े, उन्‍होंने अपने ऊपर दया नहीं दिखायी। राजन! सामने आते हुए उन महाबाहु सात्‍यकि को आपके पुत्र ने रोका और उन्‍हें बाणों से ढक दिया। तदन्‍तर हाथी और सिंह के समान क्रोध में भरे हुए उन कुरूवंशी और मधुवंशी सिंहों में परस्‍पर घोर युद्ध होने लगा। तत्‍पश्‍चात कुपित हुए दुर्योधन ने धनुष को पूर्णत: खींचकर छोड़ गये दस बाणों द्वारा रणदुर्मद सात्‍यकि को घायल कर दिया। इसी प्रकार सात्‍यकि ने भी युद्ध स्‍थल में पहले पचास, फिर तीस और फिर दस बाणों द्वारा दुर्योधन को बींध डाला और उसे भी अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया। राजन! तब हंसते हुए आपके पुत्र ने धनुष को कान तक खींचकर छोडे हुए तीखे बाणों द्वारा रणभूमि में सात्‍यकि को क्षत-विक्षत कर डाला। इसके बाद उसने क्षुरप्र से सात्‍यकि के बाण सहित धनुष को काटकर उसके दो टुकड़े कर डाले। तब सात्‍यकि ने दूसरा सुदृढ़ धनुष हाथ में लेकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए वहाँ आपके पुत्र पर बाणों की श्रेणियां बरसानी आरम्‍भ कर दीं। वध के लिय अपने ऊपर सहसा आती हुई उन बाण पंक्तियों के राजा दुर्योधन ने अनेक टुकड़े कर डाले, इससे सब लोग हर्षध्‍वनि करने लगे। फिर शिला पर साफ किये हुए सुनहरी पांख वाले तिहत्‍तर बाणों से, जो धनुष को कान तक खींचकर छोडे़ गये थे, दुर्योधन ने वेगपूर्वक सात्‍यकि को पीड़ित कर दिया। तब सात्‍यकि ने संधान करते हुए दुर्योधन के बाणों और जिस पर वह बाण रखा गया था उस धनुष को तुरंत ही काट डाला तथा बहुत-से बाण मारकर दुर्योधन को भी घायल कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-66 का हिन्दी अनुवाद)

     महाराज! उस समय दुर्योधन सात्‍यकि के बाणों से गहरी चोट खाकर पीड़ित एवं व्‍यथित हो उठा और रथ के भीतर चला गया। फिर धीरे-धीरे कुछ आराम मिलने पर आपका पुत्र पुन: सात्‍यकि पर चढ़ आया और उनके रथ पर बाणों के जाल बिछाने लगा। राजन! इसी प्रकार सात्‍यकि भी दुर्योधन रथ पर निरन्‍तर बाण-वर्षा करने लगे। इससे वह संग्राम संकुल (घमासान) युद्ध के रूप में परिणत हो गया। वहाँ चलाये गये बाण जब देहधारियों के ऊपर पड़ते थे, उस समय सूखे बांस आदि के भारी ढेर में लगी हुई आग के समान बड़े जोर से शब्‍द होता था। उन दोनों के हजारों बाणों से पृथ्‍वी ढक गयी और आकाश में भी बाणों के कारण (पक्षियों तक का) चलना-फिरना बंद हो गया।
      उस युद्ध में सात्यकि को प्रबल होते देख कर्ण आपके पुत्र की रक्षा के लिये शीघ्र ही बीच में कूद पड़ा। परंतु महाबली भीमसेन उसका यह कार्य सहन न कर सके, अत: बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए उन्‍होनें तुरंत ही कर्ण पर धावा किया। तब कर्ण ने हंसते हुए-से उनके तीखे बाणों को नष्‍ट करके धनुष और बाण भी काट डाले, फिर अनेक बाणों द्वारा उनके सारथि को भी मार डाला। इससे अत्‍यन्‍त कुपित होकर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन ने गदा हाथ में ले ली और उसके द्वारा युद्ध स्‍थल में शत्रु के ध्‍वज, धनुष और सारथि को भी कुचल डाला। इतना ही नहीं महाबली भीम ने कर्ण के रथ का एक पहिया भी तोड़ डाला तो भी कर्ण टूटे पहिये वाले उस रथ पर गिरिराज के समान अविचल भाव से खड़ा रहा। कर्ण के घोड़े उसके एक पहिये वाले रथ को बहुत देर तक ढोते रहे, मानो सूर्य के सात अश्व उनके एक चक्र वाले रथ को खींच रहे हैं। कर्ण को भीमसेन का यह पराक्रम सहन नहीं हुआ। वह नाना प्रकार के बाण समूहों तथा अनेकानेक शस्त्रों से रणभूमि में उनके साथ युद्ध करने लगा। इससे भीमसेन अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे और सूतपुत्र कर्ण के साथ घोर युद्ध करने लगे।
       इस प्रकार जब वह युद्ध चल रहा था, उसी समय क्रोध में भरे हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने पांचालों के नरव्‍याघ्र वीरों और पुरुष रत्‍न मत्‍स्‍य देशीय योद्धाओं से कहा,
    युधिष्ठिर ने कहा ;- जो पुरुष शिरोमणि महारथी योद्धा हमारे प्राण और मस्‍तक हैं, वे ही धृतराष्‍ट्र पुत्रों के साथ जूझ रहे हैं, फिर तुम सब लोग मूर्ख और अचेत मनुष्‍य के समान यहाँ क्‍यों खड़े हो? वहाँ जाओ, जहाँ ये मेरे सब रथी क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर निश्चिंत भाव से युद्ध कर रहे हैं। तुम लोग वियजी होओ अथवा मारे जाओ, दोनों ही दशाओं में उत्‍तम गति प्राप्‍त करोगे। जीतकर तो तुम प्रचुर दक्षिणाओं से युक्‍त बहुसंख्‍यक यज्ञों द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष की आराधना करो अथवा मारे जाने पर देवरूप होकर बहुत-से पुण्‍य लोक प्राप्‍त करो।
       राजा युधिष्ठिर इस प्रकार प्रेरित हो उन वीर महारथियों ने युद्ध के लिये उद्यत होकर क्षत्रिय धर्म को सामने रखते हुए बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। एक ओर से पांचाल वीर तीखे बाणों से द्रोणाचार्य को मारने लगे और दूसरी ओर से भीमसेन आदि वीरों ने उन्‍हें घेर रखा था। पाण्‍डवों के तीन महारथी कुछ कुटिल स्‍वभाव के थे- नकुल, सहदेव और भीमसेन। इन तीनों ने अर्जुन को पुकारा- अर्जुन! दौड़ो और शीघ्र ही द्रोणाचार्य के पास से इन कौरवों को भगाओ। जब इनके रक्षक मारे जायेंगे, तभी पांचाल वीर इन्‍हें मार सकेंगे। तब अर्जुन ने सहसा कौरव योद्धाओं पर आक्रमण किया। भारत! उधर द्रोण ने धृष्टद्युम्न आदि पांचालों पर ही धावा किया। उस पांचवें दिन के युद्ध में सभी वीर वेगपूर्वक एक दूसरे को रौंदने लगे।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोण वध पर्व में संकुल युद्धविषयक एक सौ नवासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य का घोर कर्म, ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्‍यागने का आदेश तथा अश्वत्‍थामा की मृत्‍यु सुनकर द्रोण का जीवन से निराश होना”


    संजय कहते है ;- राजन! तदनन्‍तर द्रोणाचार्य ने कुपित होकर रणभूमि में पांचालों का उसी प्रकार संहार आरम्‍भ किया, जैसे पूर्वकाल में इन्‍द्र नें दानवों का विनाश किया था। महाराज! द्रोणाचार्य के अस्त्र से मारे जाने वाले शत्रुदल के महारथी वीर बड़े धैर्यशाली थे, अत: वे रणभूमि में उनसे तनिक भी भयभीत न हुए। राजेन्‍द्र! युद्ध परायण पांचाल और सृंजय महारथी संग्राम में द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करते हुए उन्‍हीं की ओर बढ़े आ रहे थे। बाणों की वर्षा से आच्‍छादित हो सब ओर से मारे जाने वाले पांचाल वीरों का भयंकर आर्तनाद सुनायी देने लगा। संग्राम में जब इस प्रकार महामनस्‍वी द्रोणाचार्य के द्वारा पाचांल सैनिक मारे जाने लगे और आचार्य द्रोण के अस्त्र लगातार बरसने लगे, तब पाण्‍डवों के मन में बड़ा भय समा गया।
      महाराज! युद्ध स्‍थलों में घोड़ों और मनुष्‍य योद्धाओं का वह महान विनाश देखकर पाण्‍डवों की अपनी विजयी की आशा जाती रही। (वे सोचने लगे) जैसे ग्रीष्‍म-ऋतु में प्रज्‍वलित अग्नि सूखे जंगल या घास-फूस को जलाकर भस्‍म कर देती है, उसी प्रकार उत्‍तम अस्त्रों के ज्ञाता आचार्य द्रोण कहीं हम सब लोगों का संहार न कर डालें। रणभूमि में दूसरा कोई योद्धा उनकी ओर देखने में भी समर्थ नहीं है (युद्ध करना तो दूर की बात है) और धर्म के ज्ञाता अर्जुन कदापि उनके साथ (मन लगाकर) युद्ध नहीं करेंगे। कुन्‍ती के पुत्रों को द्रोणाचार्य के बाणों से पीड़ित एवं भयभीत देखकर उनके कल्‍याण में लगे हुए बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहा,
    श्री कृष्ण ने कहा ;- पार्थ! ये द्रोणाचार्य सम्‍पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्‍ठ है, जब तक इनके हाथों में धनुष रहेगा, तब तक इन्‍हें यु‍द्ध में इन्‍द्र सहित सम्‍पूर्ण देवता भी किसी प्रकार जीत नहीं सकते। जब ये संग्राम में हथियार डाल देंगे, तभी मनुष्‍यों द्वारा मारे जा सकते हैं। अत: पाण्‍डवों! गुरु का वध करना उचित नहीं है इस धर्म भावना को छोड़कर उन पर विजय पाने के लिये कोई यत्र करो, जिससे सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य तुम सब लोगों का वध न कर डालें। मेरा विश्‍वास है कि अश्वत्‍थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं कर सकते। कोई मनुष्‍य उनसे जाकर कहे कि युद्ध में अश्वत्‍थामा मारा गया।
      राजन! कुन्‍ती पुत्र अर्जुन को यह बात अच्‍छी नहीं लगी, किंतु अन्‍य सब लागों ने इस युक्ति को पसंद कर लिया। केवल कुन्‍ती नन्‍दन युधिष्ठिर बड़ी कठिनाई से इस बात पर राजी हुए। राजन! तब महाबाहू भीमसेन ने अपनी ही सेना के एक विशाल हा‍थी को गदा से मार डाला। उसका नाम था अश्वत्‍थामा। शत्रुओं को मथ डालने वाला वह भंयकर गजराज मालवा के राजा इन्‍द्र वर्मा का था। उसे मारकर भीमसेन लजाते-लजाते युद्ध स्‍थल में द्रोणाचार्य के पास गये और बड़े जोर से बोले,
     भीमसेन बोले ;- अश्वत्‍थामा मारा गया। अश्वत्‍थामा नाम से विख्‍यात हाथी मारा गया था, उसी को मन में रखकर भीमसेन ने उस समय वह झूठी बात कही थी। भीमसेन का वह अत्‍यन्‍त अप्रिय वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन ही मन शोक से व्‍याकुल हो सन्‍न रह गये। जैसे पानी पड़ते ही बाल गल जाता है, उसी प्रकार उस दु:खद संवाद से उनका सारा शरीर शिथिल हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)

     फिर उनके मन में यह संदेह हुआ कि सम्‍भव है, यह बात झूठी हो, क्‍योंकि वे अपने पुत्र के बल-पराक्रम को जानते थे, अत: उसके मारे जाने की बात सुनकर भी धैर्य से विचलित न हुए। उनके मन में बारंबार यह विचार आया कि मेरा पुत्र तो शत्रुओं के लिय असहाय है, अत: क्षण भर में ही सचेत होकर उन्‍होनें अपने आपको संभाल लिया। तत्‍पश्‍चात अपनी मृत्‍युस्‍वरूप धृष्टद्युम्न को मार डालने की इच्‍छा से वे उस पर टूट पड़े और कंक पत्र युक्‍त सहस्रों तीखे बाणों द्वारा उन्‍हें आच्‍छादित करने लगे। इस प्रकार संग्राम में विचरते हुए द्रोणाचार्य पर बीस हजार पांचाल-वीर नरश्रेष्ठ सब ओर से बाणों की वर्षा करने लगे।
       प्रजानाथ! जैसे वर्षाकाल में मेघों की घटा से आच्‍छादित हुए सूर्य नहीं दिखायी देते है, उसी प्रकार उन बाणों के ढेर से दबे हुए महारथी द्रोण को हम लोग नहीं देख पाते थे। तब शत्रुओं को संताप देने वाले महारथी द्रोणाचार्य ने पांचाल के उन बाण-समूहों को नष्‍ट करके शूरवीर पांचाल के वध के लिये अमर्षयुक्‍त होकर ब्रह्मास्‍त्र प्रकट किया। तदन्‍तर सम्‍पूर्ण सैनिकों का विनाश करते हुए द्रोणाचार्य की बड़ी शोभा होने लगी। उन्‍होंने उस महासमर में पांचाल वीरों के मस्‍तक ओर सुवर्ण भूषित परिघ जैसी मोटी भुजाएं काट गिरायी। समरांगण में द्रोणाचार्य के द्वारा मारे जाने वाले वे पांचाल नरेश आंधी के उखाड़े हुए वृक्षों के समान धरती पर बिछ गये। भरतनन्‍दन! धराशायी होते हुए हाथियों और अश्व समूहों के मांस तथा रक्‍त से कीच जम जाने के कारण वहाँ की भूमि पर चलना-फिरना असम्‍भव हो गया। उस समय पांचालों के बीस हजार रथियों का संहार करके द्रोणाचार्य युद्ध स्‍थल में धूमरहित प्रज्‍ज्‍वलित अग्नि के समान खड़े थे। प्रतापी भरद्वाज नन्‍दन ने पुन: पूर्ववत कुपित होकर एक भल्‍ल के द्वारा वसुदान का मस्‍तक धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद मत्‍स्‍य देश के पचास योद्धाओं का, सृंजय वंश के छ: हजार सैनिकों का तथा दस हजार हाथियों का संहार करके उन्‍होंने पुन: दस हजार घुड़सवारों की सेना का सफाया कर दिया।
       इस प्रकार द्रोणाचार्य को क्षत्रियों का विनाश करने के लिये उद्यत देख तुरंत ही अग्निदेव को आगे करके बहुत से महर्षि वहाँ आये। विश्वामित्र, जम‍दग्नि,भरद्वाज , गौतम (महर्षि), वसिष्ठ, कश्‍यप और अत्रि- ये सब लोग उन्‍हें ब्रह्मलोक ले जाने की इच्‍छा से वहाँ पधारे थे। साथ ही सिकत, पृश्नि, गर्ग, सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्‍य, भृगु, अंगिरा तथा अन्‍य सूक्ष्‍मरूप धारी महर्षि भी वहाँ आये थे। उन सबने संग्राम में शोभा पाने वाले द्रोणाचार्य से इस प्रकार कहा,- द्रोण! तुम हथियार नीचे डालकर यहाँ खड़े हुए हम लोगों की ओर देखो। अब तक तुमने अधर्म से युद्ध किया है, अब तुम्‍हारी मृत्यु का समय आ गया है, इसलिये अ‍ब फिर यह क्रूरतापूर्ण कर्म न करो। तुम वेद ओर वेदांगो के विद्वान हो, विशेषत: सत्‍य और धर्म में तत्‍पर रहने वाले ब्राह्मण हो, तुम्‍हारे लिये यह क्रूर कर्म शोभा नही देता। अमोघ बाण वाले द्रोणाचार्य! अस्त्र-शस्त्रों का परित्‍याग कर दो और अपने सनातन मार्ग पर स्थित हो जाओ। आज इस मनुष्‍य-लोक में तुम्‍हारे रहने का समय पूरा हो गया। इस भूतल पर जो लोग ब्रह्मास्त्र नहीं जानते थे, उन्‍हें भी तुमने ब्रह्मास्त्र से ही दग्‍ध किया है। ब्रह्मन! तुमने जो ऐसा कर्म किया है, यह कदापि उत्‍तम नहीं है। विप्रवर द्रोण! रणभूमि में अपना अस्त्र-शस्त्र रख दो, इस कार्य में विलम्‍ब न करो। ब्रह्मन! अब फिर ऐसा अत्‍यन्‍त पापपूर्ण कर्म न करना।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-59 का हिन्दी अनुवाद)

      उन ऋषियों की यह बात सुनकर, भीमसेन के कथन पर विचार कर और रणभूमि में धृष्टद्युम्न को सामने देखकर आचार्य द्रोण का मन उदास हो गया। वे संदेह में पड़े हुए थे, अत: उन्‍होंने व्‍यथित होकर अपने पुत्र को मारे जाने या नहीं मारे जाने का समाचार कुन्‍ती पुत्र युधिष्ठिर से पूछा। द्रोणाचार्य के मन में यह दृढ़ विश्‍वास था कि कुन्‍ती पुत्र युधिष्ठिर तीनों लोकों के राज्‍य के लिये भी किसी प्रकार झूठ नहीं बोलेंगे। अत: उन द्विजश्रेष्‍ठ ने उन्‍हीं से वह बात पूछी, दूसरे किसी से नहीं, क्‍योंकि बचपन से ही पाण्‍डु पुत्र की सच्चाई में आचार्य का विश्‍वास था। उस समय योद्धाओं में श्रेष्‍ठ द्रोण इस पृथ्‍वी को पाण्‍डव रहित कर डालने के लिय उद्यत थे।
      उनका य‍ह विचार जानकर भगवान श्रीकृष्‍ण ने व्‍यथित हो धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,
      श्री कृष्ण ने कहा ;- राजन! यदि क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य आधे दिन भी युद्ध करते रहें, तो मैं सच कहता हूं, तुम्‍हारी सेना का सर्वनाश हो जायगा। अत: तुम द्रोण से हम लोगों को बचाओं, इस अवसर पर असत्‍य भाषण का महत्त्व सत्‍य से भी बढ़कर है। किसी की प्राण रक्षा के लिये यदि कदाचित असत्‍य बोलना पड़े तो उस बोलने वाले झूठ का पाप नहीं लगता'। वे दोनों इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि भीमसेन बोल उठे,
    भीमसेन बोले ;- महाराज! महामना द्रोण के वध का ऐसा उपाय सुनकर मैंने आपकी सेना में विचरने वाले मालव नरेश इन्‍द्र वर्मा के अश्वत्‍थामा नाम से विख्‍यात गजराज को, जो ऐरावत के समान शक्तिशाली था, युद्ध में पराक्रम करके मार डाला। फिर द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा,
    भीमसेन ने कहा ;- ब्रह्मन! अश्वत्‍थामा मारा गया, अब युद्ध से निवृत हो जाइये। परंतु इन पुरुष प्रवर द्रोण ने निश्‍चय ही मेरी बात पर विश्‍वास नहीं किया है। नरेश्‍वर! अत: आप विजय चाहने वाले भगवान श्रीकृष्ण की बात मान लीजिये और द्रोणाचार्य से कह दीजिये कि अश्वत्‍थामा मारा गया। राजन! जनेश्‍वर! आपके कह देने पर द्विजश्रेष्‍ठ द्रोण कदापि युद्ध नहीं करेगे, क्‍योंकि आप तीनों लोकों मे सत्‍यवादी के रूप में विख्‍यात हैं।
      'महाराज! भीम की यह बात सुनकर श्रीकृष्‍ण के आदेश से प्रेरित हो भावीवश राजा युधिष्ठिर वह झूठी बात कहने को तैयार हो गये। एक ओर तो वे असत्‍य के भय में डूबे हुए थे और दूसरी ओर विजय की प्राप्ति के लिये भी आसक्तिपूर्वक प्रयत्‍नशील थे, अत: राजन! उन्‍होंने 'अश्वत्‍थामा मारा गया' यह बात तो उच्‍च स्‍वर से कही, परंतु 'हाथी का वध हुआ है', यह बात धीरे से कही। इसके पहले युधिष्ठिर का रथ पृथ्‍वी से चार अंगुल ऊँचे रहा करता था, किंतु उस दिन उनके इस प्रकार असत्‍य बोलते ही उनके रथ के घोड़े धरती का स्‍पर्श करके चलने लगे। युधिष्ठिर के मुंह से यह वचन सुनकर महारथी द्रोणाचार्य पुत्र शोक से संत‍प्‍त हो अपने जीवन से निराश हो गये। अपने पुत्र के मारे जाने की बात सुनकर महर्षियों के कथनानुसार वे अपने आपको महात्‍मा पाण्‍डवों का अपराधी-सा मानने लगे। उनकी चेतना शक्ति लुप्‍त होने लगी। वे अत्‍यन्‍त उद्विग्‍न हो उठे। राजन! उस समय धृष्टद्युम्न को सामने देखकर भी शत्रुओं का दमन करने वाले द्रोणाचार्य पूर्ववत युद्ध न कर सके।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में युधिष्ठिर का असत्‍य भाषण विषयक एक सौ नब्‍बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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