सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ इक्यासीवें अध्याय से एक सौ पचासीवें अध्याय तक (From the 181 chapter to the 185 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंघ आदि धर्मद्रोहियों के वध करने का कारण बताना”

     अर्जुन ने पूछा ;- जनार्दन! आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन-किन उपायों से जरासंघ आदि राजाओं का वध कराया है।

     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- अर्जुन! जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते। दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही कौरवों का पक्ष लेते। वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़तापूर्वक युद्ध करने वाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे। सूतपुत्र कर्ण, जरासंघ, चेदिराज शिशुपाल और निषाद-नन्दन एकलव्य-ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते।

       धनंजय! वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें बतलाता हूँ, मुझसे सुनो! बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे। कुन्तीनन्दन! उनमें से अलग-अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समरांगण में अकेला ही युद्ध कर सकता थ। एक समय की बात है, रोहिणी नन्दन बलराम जी ने युद्ध में जरासंघ को पछाड़ दिया था। इससे कुपित होकर जरासंघ ने हम लोगों के वध के लिये अपनी सर्वघातिनी गदा का प्रहार किया। अग्नि के समान प्रज्वलित वह गदा इन्द्र के चलाये हुए वज्र की भाँति आकाश में सीमन्त रेखा सी बनाती हुई वहाँ गिरती दिखायी दी। वहाँ गिरती हुई उस गदा को देखते ही उसके प्रतिघात (निवारण) के लिये रोहिणी नन्दन बलराम जी ने स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र के वेग से प्रतिहत होकर वह गदा पृथ्वी देवी को विदीर्ण करती और पर्वतों को कँपाती हुई सी भूतल पर गिर पड़ी। जिस स्थान पर गदा गिरी, वहाँ उत्तम बल-पराक्रम से सम्पन्न जरा नामक एक भयंकर राक्षसी रहती थी। उसी ने जन्म के पश्चात शत्रुदमन जरासंघ के शरीर को जोड़ा था। उसका आधा-आधा शरीर अलग-अलग दो माताओं के पेट से पैदा हुआ था। जरा ने उसे जोड़ा था, इसीलिये उसका नाम जरासंघ हुआ। पार्थ! भूमि के भीतर रहने वाली वह राक्षसी उस गदा से तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र के आघात से पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित मारी गयी। धनंजय! उस महासमर में जरासंघ बिना गदा के हो गया था, इसीलिये तुम्हारे देखते-देखते भीमसेन ने उसे मार डाला। नरश्रेष्ठ! यदि प्रतापी जरासंघ के हाथ में वह गदा होती तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे युद्ध में मार नहीं सकते थे।

      तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्यपराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था। सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय वह दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। कुन्तीकुमार! यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग- ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था? उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्या का विद्वान था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)

     तुम्हारे हित के लिये मैंने ही युद्ध के मुहाने पर उसे मार डाला था। पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखों के सामने ही मारा गया था। वह भी संग्राम में सम्पूर्ण देवताओं और असुरों द्वारा जीता नहीं जा सकता था। नरव्याघ्र! मैं सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये और शिशुपाल एवं अन्य देव द्रोहियों का वध करने के लिये ही तुम्हारे साथ इस जगत में अवतीर्ण हुआ हूँ। हिडिम्ब, वक और किर्मीर- ये रावण के समान बलवान थे और ब्राह्मणों तथा यज्ञों का विनाश किया करते थे। इन तीनों को भीमसेन ने मार गिराया है।

      मायावी अलायुध घटोत्कच के हाथ से मारा गया है और घटोत्कच को भी मैंने ही युक्ति लगाकर कर्ण की चलायी हुई शक्ति से मरवा दिया है। यदि महासमर में कर्ण अपनी शक्ति द्वारा भीमसेन पुत्र घटोत्कच को नहीं मारता तो एक दिन मुझे उसका वध करना पड़ता। तुम लोगों का प्रिय करने की इच्छा से ही मैंने इसे पहले नहीं मारा था। यह ब्राह्मणों और यज्ञों से द्वेष रखने वाला तथ धर्म का लोप करने वाला पापात्मा राक्षस था, इसीलिये इसे मरवा दिया है। निष्पाप पाण्डुनन्दन! इसी उपाय से मैंने इन्द्र की दी हुई शक्ति भी कर्ण के हाथ से दूर कर दी है। धर्म का लोप करने वाले सभी प्राणी मेरे वध्य हैं। धर्म की स्थापना के लिये ही मैंने यह अटल प्रतिज्ञा कर रखी है, मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, जहाँ वेद, सत्य, दम, शौच, धर्म, लज्जा, श्री, धृति और क्षमा का निवास है, वहीं मैं सदा सुखपूर्वक रहता हूँ। तुम्हें वैकर्तन कर्ण के विषय में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम उसका सामना कर सकोगे। पाण्डुनन्दन! युद्ध में दुर्योधन का भी वध भीमसेन करेंगे। उसके वध का उपाय भी मैं तुम्हें बताऊँगा। शत्रुओं की सेना में यह भयंकर गर्जना का शब्द बढ़ता जा रहा है और तुम्हारे सैनिक दसों दिशाओं में भाग रहे हैं। कौरवों का निशाना अचूक हो रहा है। वे तुम्हारी सेना का विनाश कर रहे हैं। इधर ये योद्धाओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य तुम्हारे सैनिकों को दग्ध किये देते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय श्रीकृष्‍ण का कथनविषयक एक सौ इक्‍यासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ बयासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण ने अर्जुन पर शक्ति क्यों नहीं छोड़ी, इसके उत्तर में संजय का धृतराष्ट्र से और श्रीकृष्ण का सात्यकि से रहस्ययुक्त कथन”

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! कर्ण के पास जो शक्ति थी, वह यदि एक ही वीर का वध करके निष्फल हो जाने वाली थी तो उसने सबको छोड़कर अर्जुन पर ही उसका प्रहार क्यों नहीं किया? अर्जुन के मारे जाने पर समस्त सृंजय और पाण्डव अपने आप नष्ट हो जाते। अतः एक वीर अर्जुन का ही वध करके उसने युद्ध में क्यों नहीं विजय प्राप्त की? अर्जुन का तो यह महान व्रत ही है कि युद्ध में किसी के बुलाने पर मैं पीछे नहीं लौट सकता, ऐसी दशा में सूतपुत्र कर्ण को स्वयं ही अर्जुन की खोज करनी चाहिये थी। संजय! इस प्रकार अर्जुन को द्वैरथ-युद्ध में लाकर धर्मात्मा कर्ण ने इन्द्र की दी हुई शक्ति से उन्हें क्यों नहीं मार डाला? यह मुझे बताओ। निश्चय ही मेरा पुत्र दुर्योधन बुद्धिहीन और असहाय है। शत्रुओं ने उसे ठग लिया। अब वह पापी अपने शत्रुओं पर कैसे विजय पा सकता है? जो इसकी सबसे बड़ी शक्ति और विजय का आधार स्तम्भ थी, उस दिव्य शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर श्रीकृष्ण ने व्यर्थ कर दिया। जैसे कोई बलवान पुरुष लुंजे (टूंटे) के हाथ का फल छीन ले, उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने उस अमोघ शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर अन्यत्र के लिये निष्फल कर दिया। विद्वन! जैसे सूअर और कुत्तों के आपस में लड़ने पर उन दोनों में से किसी की भी मृत्यु हो जाय तो चाण्डाल को लाभ ही होता है, उसी प्रकार कर्ण और घटोत्कच के युद्ध में मैं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का ही लाभ हुआ मानता हूँ। घटोत्कच यदि कर्ण को मार देगा तो पाण्डवों को बहुत बड़ा लाभ होगा और यदि वैकर्तन कर्ण घटोत्कच को मार डालेगा तो भी इन्द्र की दी हुई शक्ति का नाश हो जाने से उनका ही प्रयोजन सिद्ध होगा। मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी बुद्धिमान वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने अपनी बुद्धि से यही सोचकर पाण्डवों का प्रिय तथा हित करते हुए युद्ध में सूतपुत्र कर्ण के द्वारा घटोत्कच को मरवा दिया।

     संजय ने कहा ;- राजन! कर्ण भी उस शक्ति से अर्जुन को ही वध करना चाहता था। उसके इस अभिप्राय को जानकर परम बुद्धिमान मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने उस अमोघ शक्ति को नष्ट करने के लिये ही कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध में उस समय महापराक्रमी राक्षसराज घटोत्कच को लगाया। महाराज! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का ही फल है। कुरुश्रेष्ठ! यदि श्रीकृष्ण महारथी कर्ण से कुन्तीकुमार अर्जुन की रक्षा न करते तो हम लोग उसी समय कृतकार्य हो गये होते। महाराज धृतराष्ट्र! यदि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण न हों तो अर्जुन घोड़े, ध्वज और रथसहित निश्चय ही युद्ध में धराशायी हो जायँ। राजन! नाना प्रकार के विभिन्न उपायों से श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित रहकर ही अर्जुन सम्मुख युद्ध में शत्रुओं पर विजय पाते हैं। श्रीकृष्ण ने विशेष प्रयत्न करके उस अमोघ शक्ति से पाण्डु पुत्र अर्जुन की रक्षा की है, नहीं तो जैसे वज्र गिरकर वृक्ष को भस्म कर देता है, उसी प्रकार वह शक्ति कुन्तीकुमार अर्जुन को शीघ्र ही नष्ट कर देती।

    धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! मेरा पुत्र दुर्योधन सबका विरोधी और अपने को ही सबसे अधिक बुद्धिमान समझने वाला है। उसके मंत्री भी अच्छे नहीं हैं, इसीलिये अर्जुन के वध और विजय-लाभ का यह अमोघ उपाय उसके हाथ से निकल गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

     सूत! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण तो बड़ा बुद्धिमान है, उसने स्वयं ही उस अमोघ शक्ति को अर्जुन पर कैसे नहीं छोड़ा? परम बुद्धिमान गवल्गणकुमार! तुम्हारे ध्यान से यह बात कैसे निकल गयी कि तुमने कर्ण को इसके विषय में कुछ नहीं समझाया।

    संजय ने कहा ;- राजन! प्रतिदिन रात को दुर्योधन, शकुनि और दुःशासन का तथा मेरा भी कर्ण से यही आग्रह रहता था कि ‘कर्ण! कल सबेरे तुम सारी सेनाओं को छोड़कर अर्जुन को मार डालो। फिर तो पाण्डवों और पांचालों का हम भृत्यों के समान उपभोग करेंगे। ‘यदि ऐसा सोचे कि अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण दूसरे किसी पाण्डव को युद्ध के लिये खड़ा कर लेंगे तो श्रीकृष्ण को ही मार डालो। ‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवों की जड़ हैं, अर्जुन ऊपर के तने के समान हैं, अन्य कुन्ती पुत्र शाखाएँ हैं तथा पांचाल सैनिक पत्तों के समान हैं। ‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवों के आश्रय, बल और रक्षक हैं। जैसे नक्षत्रों के परम आश्रय चन्द्रमा हैं, उसी प्रकार इन पाण्डवों का सबसे बड़ा सहारा श्रीकृष्ण हैं। ‘अतः सूतनन्दन! तुम पत्तो, डालियों और तने को छोड़कर जड़ को ही काट दो। सर्वत्र और सदा श्रीकृष्ण को ही पाण्डवों की जड़ समझो’। राजन! यदि कर्ण यादव नन्दन श्रीकृष्ण को मार डालता, तो यह सारी पृथ्वी उसके वश में हो जाती, इसमें संशय नहीं है। नरेन्द्र! यदि यदुकुल और पाण्डवों को आनन्दित करने वाले महात्मा श्रीकृष्ण उस शक्ति से मारे जाकर रणभूमि में सो जाते, तो पर्वत, समुद्र और वनों सहित यह सारी पृथ्वी आपके वश में आ जाती। ऐसा निश्चय कर लेने के बाद भी जब वह युद्ध के समय सदा सजग रहने वाले अप्रमेयस्वरूप देवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के समीप जाता तो उस पर मोह छा जाता था। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सदा राधानन्दन कर्ण से बचाये रखते थे। उन्होंने रणभूमि में अर्जुन को सूत पुत्र कर्ण के सम्मुख खड़ा करने की कभी इच्छा नहीं की। प्रभो! अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण अन्यान्य महारथियों को कर्ण के पास इसलिये भेजा करते थे कि किसी प्रकार उस अमोष शक्ति को व्यर्थ कर दूँ।

      राजन! जो महामनस्वी पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण कर्ण से अर्जुन की इस प्रकार रक्षा करते हैं, वे अपनी रक्षा कैसे नहीं करेंगे? मैं भली-भाँति सोच-विचार कर देखता हूँ तो तीनों लोकों में कोई ऐसा वीर उपलब्ध नहीं होता, तो शत्रुओं का दमन करने वाले चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण को जीत सके। तदनन्तर रथियों में सिंह के समान शूरवीर सत्यपराक्रमी महारथी सात्यकि ने महाबाहु श्रीकृष्ण से कर्ण के विषय में इस प्रकार प्रश्न किया,

    सात्यकि ने कहा ;- ‘प्रभो! कर्ण को उस शक्ति के प्रभाव पर विश्वास तो था ही। वह अमित पराक्रम कर दिखाने वाली दिव्य शक्ति उसके हाथ में मौजूद भी थी, तथापि सूतपुत्र ने अर्जुन पर उसका प्रयोग कैसे नहीं किया?’ भगवान श्रीकृष्ण बोले- सात्यके! दुःशासन, कर्ण, शकुनि और जयद्रथ- ये दुर्योधन को आगे रखकर सदा गुप्त मन्त्रणा करते और कर्ण को यह सलाह देते थे कि ‘रणभूमि में अनन्त पराक्रम प्रकट करने वाले, विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर कर्ण! तुम कुन्ती पुत्र महारथी अर्जुन को छोड़कर दूसरे किसी पर इस शक्ति को न छोड़ना। ‘क्योंकि देवताओं में इन्द्र के समान उन पाण्डवों में अर्जुन ही सबसे अधिक यशस्वी हैं। अर्जुन के मारे जाने पर सृंजयों सहित पाण्डव मुखस्वरूप अग्नि से हीन देवताओं के समान मृतप्राय हो जायँगे’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 39-47 का हिन्दी अनुवाद)

     शिनिप्रवर! कर्ण ने वैसा ही करने की उनके सामने प्रतिज्ञा भी की थी। कर्ण के हृदय में नित्य निन्तर गाण्डीवधारी अर्जुन के वध का संकल्प उठता रहता था। योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यके! परंतु मैं ही राधा पुत्र कर्ण को मोहित किये रहता था, इसीयिले श्वेतवाहन अर्जुन पर उसने वह शक्ति नहीं छोड़ी। वीरवर! वह शक्ति अर्जुन के लिये मृत्युस्वरूप है, इस चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने के कारण न तो मुझे नींद आती थी और न मेरे मन में कभी हर्ष का उदय होता था। शिनिवंश शिरोमणे! वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ दी गयी, यह देखकर आज मैं यह समझता हूँ कि अर्जुन मौत के मुख से निकल आये हैं। मुझे युद्ध में अर्जुन की रक्षा जितनी आवश्यक प्रतीत होती है, उतनी पिता, माता, तुम-जैसे भाइयों तथा अपने प्राणों की रक्षा भी नहीं प्रतीत होती। सात्यके! तीनों लोकों के राज्य से भी बढ़कर यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी मैं कुन्तीनन्दन अर्जुन के बिना नहीं पाना चाहता। युयुधान! इसीलिये जैसे कोई मरकर लौट आया हो उसी प्रकार कुन्ती पुत्र अर्जुन को देखकर आज मुझे बड़ा भारी हर्ष हुआ था। इसी उद्देश्य से मैंने युद्ध में कर्ण का सामना करने के लिये उस राक्षस को भेजा था। उसके सिवा दूसरा कोई रात्रि के समय समरांगण में कर्ण को पीड़ित नहीं कर सकता था।

     संजय कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार अर्जुन के हित में संलग्न और उनके प्रिय साधन में निरन्तर तत्पर रहने वाले भगवान देवकीनन्दन ने उस समय सात्यकि से यह बात कही थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय श्रीकृष्‍ण वाक्‍य विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ तिरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्ट्र का पश्चात्ताप, संजय का उत्तर एवं राजा युधिष्ठिर का शोक और भगवान श्रीकृष्ण तथा महर्षि व्यास द्वारा उसका निवारण”

     धृतराष्ट्र बोले ;- तात संजय! कर्ण, दुर्योधन और सुबल पुत्र शकुनि का तथा विशेषतः तुम्हारा इस विषय में महान अन्याय है। यदि तुम लोग जानते थे कि यह शक्ति रणभूमि में सदा किसी एक ही वीर को मार सकती है तथा इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी न तो इसे रोक सकते हैं और न इसका आघात ही सह सकते हैं, तब तुम्हारे सुझाने से युद्ध आरमभ होने पर कर्ण ने पहले ही देवकीनन्दन श्रीकृष्ण अथवा अर्जुन पर वह शक्ति क्यों नहीं छोड़ी?

     संजय ने कहा ;- प्रजानाथ! कुरुकुल श्रेष्ठ! प्रतिदिन संग्राम से लौटने पर रात्रि में हम लोगों की यही सलाह हुआ करती थी कि ‘कर्ण! तुम कल सवेरा होते ही श्रीकृष्ण अथवा अर्जुन पर यह शक्ति चला देना’। परंतु राजन! प्रातःकाल आने पर देवता लोग कर्ण तथा अन्य योद्धाओं के उस विचार को पुनः नष्ट कर देते थे। मैं तो दैव (प्रारब्ध) को ही सबसे बड़ा मानता हूँ, जिससे कर्ण ने हाथ में आयी हुई शक्ति के द्वारा रणभूमि में कुन्ती कुमार अर्जुन अथवा देवकीनन्दन श्रीकृष्ण का वध नहीं किया। कर्ण के हाथ में स्थित हुई वह शक्ति कालरात्रि के समान शत्रुवध के लिये उद्यत थी, परंतु दैव के द्वारा बुद्धि मारी जाने के कारण देवमाया से मोहित हुए कर्ण ने इन्द्र की दी हुई उस शक्ति को देवकीनन्दन श्रीकृष्ण अथवा इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन पर उनके वध के लिये नहीं छोड़ा।

      धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! निश्चय ही तुम लोग दैव के द्वारा मारे गये थे। श्रीकृष्ण की अपनी बुद्धि से वह इन्द्र की शक्ति तिनके के समान घटोत्कच का वध करके चली गयी। अब तो मैं समझता हूँ कि उस दुर्नीति के कारण कर्ण, मेरे सभी पुत्र तथा अन्य भूपाल यमलोक में जा पहुँचे। अब घटोत्कच के मारे जाने पर कौरवों तथा पाण्डवों में पुनः जिस प्रकार युद्ध आरम्भ हुआ, उसी का मुझसे वर्णन करो। प्रहार करने में कुशल जिन सृंजयों और पाञ्चालों ने अपनी सेना का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य पर धावा किया था, उन्होंने किस प्रकार संग्राम किया? भूरिश्रवा तथा जयद्रथ के वध से कुपित हो जब द्रोणाचार्य आये और जीवन का मोह छोड़कर पाण्डव-सेना में उसका मन्थन करते हुए प्रवेश करने लगे, उस समय जँभाई लेते हुए व्याघ्र तथा मुँह बाये हुए यमराज के समान बाण वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य के सम्मुख पाण्डव और सृंजय योद्धा कैसे आ सके? तात! अश्वत्थामा, कर्ण, कृपाचार्य तथा दुर्योधन आदि जो महारथी रणभूमि में आचार्य द्रोण की रक्षा करते थे, उन्होंने वहाँ क्या किया? संजय! द्रोणाचार्य को मार डालने की इच्छा वाले अर्जुन और भीमसेन पर युद्ध स्थल में मेरे सैनिकों ने किस प्रकार आक्रमण किया? यह मुझे बताओ। सिंधुराज जयद्रथ के वध से अमर्ष में भरे हुए कौरवों तथा घटोत्कच के मारे जाने से अत्यन्त कुपित हुए पाण्डवों ने रात्रि में किस प्रकार युद्ध किया?

     संजय ने कहा ;- राजन! जब रात में कर्ण के द्वारा राक्षस घटोत्कच मारा गया, आपके सैनिक हर्ष में भरकर युद्ध की इच्छा से गर्जना करते हुए वेगपूर्वक आक्रमण करने लगे तथा पाण्डव सेना मारी जाने लगी, उस समय प्रगाढ़ रजनी में राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दीन एवं दुखी हो गये। उन महाबाहु नरेश ने भीमसेन से इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! तुम्हीं दुर्योधन की सेना को रोको। घटोत्कच के मारे जाने से मेरे मन में महान मोह छा गया है’। इस प्रकार भीम को आदेश देकर राजा युधिष्ठिर बारंबार सिसकते हुए अपने रथ पर जा बैठे। उस समय उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वे कर्ण का पराक्रम देखकर घोर चिन्ता में डूब गये थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)

उन्हें इस प्रकार व्यथित देखकर भगवान श्रीकृष्ण बोले,

     श्री कृष्ण बोले ;- ‘कुन्तीनन्दन! भरतश्रेष्ठ! आप दुःख न मानिये। आपके लिये मूढ़ मनुष्यों की सी यह व्याकुलता शोभा नहीं देती। ‘राजन! उठिये और युद्ध कीजिये। इस महासंग्राम का गुरुतर भार सँभालिये। प्रभो! आपके घबरा जाने पर विजय मिलने में संदेह है’। श्रीकृष्ण का कथन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दोनों हाथों से अपनी आँखें पोंछकर उनसे इस प्रकार कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘महाबाहो! मुझे धर्म की श्रेष्ठ गति विदित है। जो मनुष्य किसी के किये हुए उपकार को याद नहीं रखता, उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगता है।

         ‘जनार्दन! जब हम लोग वन में थे, उन दिनों महामनस्वी हिडिम्बाकुमार ने बालक होने पर भी हमारी बड़ी भारी सहायता की थी। ‘श्रीकृष्ण! श्वेतवाहन अर्जुन को अस्त्र प्राप्ति के लिये अन्यत्र गया हुआ जानकर महाधनुर्धर घटोत्कच काम्यक वन में मेरे पास आया और जब तक अर्जुन लौट नहीं आये तब तक हमारे साथ ही रहा। ‘गन्धमादन की यात्रा में उसने बड़े-बड़े संकटों से हमें बचाया है, पांचालराजकुमारी द्रौपदी जब थक गयीं तो उस महाकाय वीर ने उन्हें अपनी पीठ पर बिठाकर ढोया। ‘प्रभो! युद्ध के आरम्भ से ही इसने मेरा बहुत सहयोग किया है, इसने महायुद्ध में मेरे लिये दुष्कर कर्म कर दिखाया है। ‘जनार्दन! सहदेव पर जो मेरा स्वाभाविक प्रेम है, वही उत्तम प्रेम राक्षसराज घटोत्कच पर भी रहा है। ‘वार्ष्णेय! वह महाबाहु मेरा भक्त था। मैं उसे प्रिय था और वह मुझे, इसीलिये उसके शोक से संतप्त होकर मैं मोह को प्राप्त हो रहा हूँ। ‘वृष्णिनन्दन! देखिये, कौरव किस प्रकार मेरी सेनाओं को खदेड़ रहे हैं तथा महारथी द्रोण और कर्ण किस प्रकार युद्ध में प्रयत्न पूर्वक लगे हुए हैं? ‘जैसे दो मतवाले हाथी नरकुल के विशाल वन को रौंद रहे हों, उसी प्रकार इस आधी रात के समय उनकी सेना द्वारा यह पाण्डव सेना कुचल दी गयी है। ‘माधव! भीमसेन के बाहुबल और अर्जुन के विचित्र अस्त्र-कौशल का अनादर करके कौरव योद्धा अपना पराक्रम प्रकट कर रहे हैं। ‘ये द्रोण, कर्ण तथा राजा दुर्योधन युद्ध में राक्षस घटोत्कच का वध करके बड़े हर्ष के साथ सिंहनाद कर रहे हैं। ‘जनार्दन! हमारे और आपके जीते-जी हिडिम्बाकुमार घटोत्कच सूत पुत्र के साथ संग्राम करके मृत्यु को कैसे प्राप्त हुआ? ‘श्रीकृष्ण! हम सबकी अवहेलना करके सव्यसाची अर्जुन के देखते-देखते भीमसेन कुमार महाबली राक्षस घटोत्कच मारा गया है।

      ‘श्रीकृष्ण! धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्रों ने जब युद्ध में अभिमन्यु को मारा था, उस समय महारथी अर्जुन वहाँ उपस्थित नहीं थे। ‘दुरात्मा जयद्रथ ने हम सब लोगों को भी व्यूह के बाहर ही रोक लिया था। वहाँ अभिमन्यु के वध में पुत्रसहित द्रोणाचार्य ही कारण हुए थे। ‘गुरु द्रोणाचार्य ने स्वयं ही कर्ण को अभिमन्यु के वध का उपाय बताया था और जब वह तलवार लेकर परिश्रम पूर्वक युद्ध कर रहा था, उस समय उन्होंने ही उसकी तलवार के दो टुकड़े कर दिये थे। ‘इस प्रकार जब वह संकट में पड़ गया, तब कृतवर्मा ने क्रूर मनुष्य की भाँति सहसा उसके घोड़ों तथा दोनों पार्श्व-रक्षकों को मार डाला। ‘इसी प्रकार दूसरे महाधनुर्धरों ने सुभद्राकुमार को युद्ध में मार गिराया था। यादव श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! अभिमन्यु के वध में जयद्रथ का बहुत कम अपराध था, तो भी उस छोटे से कारण को लेकर ही गाण्डवीधारी अर्जुन ने जयद्रथ को मार डाला है। यह कार्य मुझे अधिक प्रिय नहीं लगा है। ‘यदि पाण्डवों के लिये अपने शत्रु का वध करना न्याय संगत है, तो युद्धभूमि में सबसे पहले कर्ण और द्रोणाचार्य को ही मार डालना चाहिये, मेरा तो यही मत है।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 47-67 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘पुरुषोत्तम! ये कर्ण और द्रोण ही हमारे दुःखों के मूल कारण हैं। रणभूमि में इन्हीं का सहारा लेकर दुर्योधन का ढाढ़स बँधा हुआ है। ‘जहाँ द्रोणाचार्य का वध होना चाहिये था तथा जहाँ सेवकों सहित सूत पुत्र कर्ण को मार गिराना चाहिय था, वहाँ महाबाहु अर्जुन ने दूर रहने वाले सिंधुराज जयद्रथ का वध किया है। ‘मुझे तो अवश्य ही सूत पुत्र कर्ण का दमन करना चाहिये। अतः वीर! मैं स्वयं ही कर्ण का वध करने की इच्छा से युद्धभूमि में जाऊँगा। महाबाहु भीमसेन द्रोणाचार्य की सेना के साथ युद्ध कर रहे हैं’। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर भयंकर शंख बजाकर अपने विशाल धनुष की टंकार करते हुए बड़ी उतावली के साथ तुरंत वहाँ से चल दिये। तदनन्तर शिखण्डी, एक सहस्र रथ, तीन सौ हाथी, पाँच हजार घोड़े तथा पांचालों और प्रभद्रकों की सेना साथ ले उनसे घिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे गया। तब पाञ्चालों और पाण्डवों ने युधिष्ठिर को आगे करके कवच आदि से सुसज्जित हो डंके पीटे और शंख बजाये।

उस समय महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने कहा,

    अर्जुन ने कहा ;- ‘ये राजा युधिष्ठिर क्रोध के आवेश से युक्त हो सूत पुत्र कर्ण का वध करने की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े जा रहे हैं। इस समय इन्हें अकेले छोड़ देना उचित नहीं है’। ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही घोड़ों को हाँका और दूर जाते हुए राजा का अनुसरण किया। धर्मराज युधिष्ठिर का संकल्प (विचार-शक्ति) शोक से नष्ट सा हो गया था। वे क्रोध की आग में चलते हुए से जान पड़ते थे।

     उन्हें सूत पुत्र के वध की इच्छा से सहसा जाते देख महर्षि व्यास उनके समीप प्रकट हो गये और इस प्रकार बोले। 

    व्यास ने कहा ;- राजन! बड़े सौभाग्य की बात है कि संग्राम में कर्ण का सामना करके भी अर्जुन अभी जीवित है, क्योंकि उसने उन्हीं के वध की इच्छा से अपने पास इन्द्र की दी हुई शक्ति रख छोड़ी थी। उस महासमर में कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध करने के लिये अर्जुन नहीं गये, यह बहुत अच्छा हुआ। ये दोनों वीर एक दूसरे से स्पर्धा रखते हैं, अतः युधिष्ठिर! यदि ये सब प्रकार से दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते तो फिर अपने अस्त्रों के नष्ट होने पर सूतनन्दन कर्ण पीड़ित हो समरांगण में इन्द्र की दी हुई शक्ति को निश्चय ही अर्जुन पर चला देता। भरतश्रेष्ठ! उस दशा में तुम पर और भयंकर विपत्ति टूट पड़ती। मानद! यह हर्ष की बात है कि युद्ध में सूत पुत्र कर्ण ने उस राक्षस को ही मारा है। वास्तव में इन्द्र की शक्ति को निमित्त बनाकर काल ने ही उसका वध किया है।

      तात! भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे हित के लिये ही वह राक्षस युद्ध में मारा गया है, ऐसा समझकर न तो तुम किसी पर क्रोध करो और न मन में शोक को ही स्थान दो। युधिष्ठिर! इस जगत के समस्त प्राणियों की अन्त में यही गति होती है। भरतवंशी नरेश! तुम अपने समस्त भाइयों तथा महामना भूपालों के साथ जाकर समरभूमि में कौरवों का सामना करो। तात! आज के पाँचवें दिन यह सारी पृथ्वी तुम्हारी हो जायगी। पुरुषसिंह पाण्डुनन्दन! तुम सदा धर्म का ही चिन्तन करो तथा कोमलता (दयाभाव), तपस्या, दान, क्षमा और सत्य आदि सद्गुणों का ही अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक सेवन करो, क्योंकि जिस पक्ष में धर्म है, उसी की विजय होती है। पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर से ऐसा कहकर महर्षि व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में व्‍यासववाक्‍य विषयक एक सौ तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ चौरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“निद्रा से व्याकुल हुए उभयपक्ष के सैनिकों का अर्जुन के कहने से सो जाना और चन्द्रोदय के बाद पुनः उठकर युद्ध में लग जाना”

     संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! व्यास जी के समझाने पर वीर धर्मराज युधिष्ठिर स्वयं कर्ण का वध करने के विचार से हट गये। सूत पुत्र के द्वारा घटोत्कच के मारे जाने पर उस रात में धर्मराज युधिष्ठिर दुःख और अमर्ष के वशीभूत हो गये। भीमसेन के द्वारा आपकी विशाल सेना का निवारण होता देख उन्होंने धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा,

     भीमसेन ने कहा ;- 'वीर! तुम द्रोणाचार्य को आगे बढ़ने से रोको। 'तुम तो शत्रुओं को संताप देने वाले हो और द्रोण का विनाश करने के लिये ही बाण, कवच, खड्ग और धनुषसहित अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुए हो। 'अतः हर्ष में भरकर रणभूमि में द्रोणाचार्य पर धावा करो। तुम्हें किसी प्रकार भय नहीं होना चाहिये। जनमेजय, शिखण्डी तथा दुर्मुख पुत्र यशोधर- ये हर्ष और उत्साह में भरकर चारों ओर से द्रोणाचार्य पर धावा करे। 'नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, प्रभद्रकगण, पुत्रों और भाइयों सहित द्रुपद और विराट, सात्यकि, केकय तथा पाण्डु पुत्र अर्जुन- ये द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक उन पर धावा बोल दें। 'इसी प्रकार हमारे समस्त रथी, हाथी-घोड़ों की जो कुछ भी सेना अवशिष्ट है वह और पैदल सैनिक- ये सभी रणभूमि में महारथी द्रोणाचार्य को मार गिरावें'।

      पाण्डुनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के इस प्रकार आदेश देने पर वे सब वीर द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक उन पर टूट पड़े। उन समस्त पाण्डव सैनिकों को पूरे उद्योग के साथ सहसा आक्रमण करते देख शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने समरभूमि में आगे बढ़कर उनका सामना किया। उस समय द्रोणाचार्य के जीवन की रक्षा चाहते हुए राजा दुर्योधन ने अत्यन्त कुपित हो पूरे प्रयत्न के साथ पाण्डवों पर धावा किया। तदनन्तर एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जते हुए पाण्डव तथा कौरव योद्धाओं में पुनः युद्ध आरम्भ हो गया। वहाँ जितने वाहन और सैनिक थे, वे सभी थक गये थे। महाराज! युद्ध में अत्यन्त थके हुए महारथी योद्धा निद्रा से अंधे हो रहे थे, अतः संग्राम में कोई चेष्टा नहीं कर पाते थे। यह तीन पहर की रात उनके लिये सहस्रों प्रहरों की रात्रि के समान घोर, भयानक एवं प्राणहारिणी प्रतीत होती थी। वहाँ बाणों की चोट सहते और विशेषतः क्षत-विक्षत होते हुए निद्रान्ध सैनिकों की आधी रात बीत गयी। उस समय आपकी और शत्रुओं की सेना के समस्त क्षत्रिय उत्साहहीन एवं दीनचित्त हो गये थे, उनके हाथों से अस्त्र और बाण गिर गये थे। वे उस समय अच्छी तरह युद्ध नहीं कर पा रहे थे, तो भी विशेषतः लज्जाशील होने के कारण अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपनी सेना छोड़कर जा न सके।

       भारत! दूसरे बहुत से सैनिक अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़कर नींद से अन्धे होकर सो रहे थे। कुछ लोग रथों पर, कुछ हाथियों पर और कुछ लोग घो़ड़ों पर ही सो गये थे। नरेश्वर! नींद से बेसुध होने के कारण वे किसी भी चेष्टा को समझ नहीं पाते थे और उन्हें दूसरे योद्धा समरांगण में यमलोक भेज देते थे। दूसरे सैनिक शत्रुओं को स्वप्न में पड़कर अत्यन्त बेसुध हुए देख उन्हें मार बैठते थे। कुछ लोग उस महासमर में निद्रान्ध होकर नाना प्रकार की बातें कहते हुए कभी अपने आप पर ही प्रहार कर बैठते थे, कभी अपने पक्ष के ही लोगों को मार डालते थे और कभी शत्रुओं का भी वध करते थे। महाराज! हमारे पक्ष के भी बहुत से सैनिक शत्रुओं के साथ युद्ध करना है, ऐसा समझकर खड़े थे, परंतु नींद से उनकी आँखें लाल हो गयी थीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद)

       कुछ शूरवीर निद्रान्ध होकर भी रणभूमि में विचरते थे और उस दारुण अन्धकार में शत्रुपक्ष के शूरवीरों का वध कर डालते थे। बहुत से मनुष्य निद्रा से अत्यन्त मोहित हो जाने के कारण शत्रुओं की ओर से समरभूमि में अपने को जो मारने की चेष्टा होती थी, उसे समझ ही नहीं पाते थे उनकी ऐसी अवस्था जानकर पुरुषप्रवर अर्जुन ने सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए उच्च स्वर से इस प्रकार कहा,,

    अर्जुन ने कहा ;- 'सैनिको! तुम सब लोग अपने वाहनों सहित थक गये हो और नींद से अन्धे हो रहे हो। इधर यह सारी सेना घोर अन्धकार और बहुत सी धूल से ढक गयी है। अतः यदि तुम ठीक समझो तो युद्ध बंद कर दो और दो घड़ी तक इस रणभूमि में ही सो लो। 'तत्पश्चात चन्द्रोदय होने पर विश्राम करने के अनन्तर निद्रारहित हो तुम समस्त कौरव-पाण्डव योद्धा परस्पर पूर्ववत संग्राम आरम्भ कर देना'।

    प्रजानाथ! धर्मात्मा अर्जुन का यह वचन समस्त धर्मज्ञों को ठीक लगा। सारी सेनाओं ने उसे पसंद किया और सब लोग परस्पर यही बात कहने लगे। कौरव सैनिक 'हे कर्ण! हे राजा दुर्योधन! ' इस प्रकार पुकारते हुए उच्चस्वर से बोले,

    सैनिक बोले ;- 'आप लोग युद्ध बंद कर दें, क्योंकि पाण्डव सेना युद्ध से विरत हो गयी है'। भारत! जब अर्जुन ने सब ओर इधर-उधर उच्चस्वर से पूर्वोक्त प्रस्ताव उपस्थित किया, तब पाण्डवों की तथा आपकी सेना भी युद्ध से निवृत्त हो गयी। महात्मा अर्जुन के इस श्रेष्ठ वचन का सम्पूर्ण देवताओं, ऋषियों और समस्त सैनिकों ने बड़े हर्ष के साथ स्वागत किया। भरतवंशी नरेश! भरत कुलभूषण! अर्जुन के उस क्रूरता शून्य वचन का आदर करके थकी हुई सारी सेनाएँ दो घड़ी तक सोती रहीं। भारत! आपकी सेना विश्राम का अवसर पाकर सुख का अनुभव करने लगी। उसने वीर अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा,

    सेनिक फिर बोले ;- 'महाबाहु निष्पाप अर्जुन! तुम में वेद तथा अस्त्रों का ज्ञान है। तुम में बुद्धि और पराक्रम है तथा तुम में धर्म एवं सम्पूर्ण भूतों के प्रति दया है। 'कुन्तीनन्दन! हम लोग तुम्हारी प्रेरणा से सुस्ताकर सुखी हुए हैं, इसलिये तुम्हारा कल्याण चाहते हैं। तुम्हे सुख प्राप्त हो। वीर! तुम शीघ्र ही अपने मन को प्रिय लगने वाले पदार्थ प्राप्त करो'।

     प्रजानाथ! इस प्रकार आपके महारथी नरश्रेष्ठ अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए निद्रा के वशीभूत हो मौन हो गये। कुछ लोग घोड़ों की पीठों पर, दूसरे रथों की बैठकों में, कुछ अन्य योद्धा हाथियों पर तथा दूसरे बहुत से सैनिक पृथ्वी पर ही सो रहे। कुछ लोग सभी प्रकार के आयुध लिये हुए थे। किन्हीं के हाथों में गदाएँ थीं। कुछ लोग तलवार और फरसे लिये हुए थे तथा दूसरे बहुत से मनुष्य प्राप्त और कवच से सुशोभित थे। वे सभी अलग-अलग सो रहे थे। नींद से अंधे हुए हाथी सर्पों के समान धूल में सनी हुई सूँड़ों से लंबी-लंबी साँसें छोड़कर इस वसुधा को शीतल करने लगे। धरती पर सोकर निःश्वास खींचते हुए गजराज ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानों पर्वत बिखरे पड़े हों और उनमें रहने वाले बड़े-बड़े सर्प लंबी साँसें छोड़ रहे हों। सोने की बागडोर में बँधे हुए घोड़े अपने गर्दन के बालों पर रथ के जूए लिये टापों से खोद-खोदकर समतल भूमि कों भी विषम बना रहे थे। राजेन्द्र! वे रथों में जुते हुए ही चारों ओर सो गये। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार घोड़े, हाथी और सैनिक भारी थकावट से युक्त होने के कारण युद्ध से विरत हो सो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद)

      इस प्रकार निद्रा से बेसुध हुआ वह सैन्यसमूह गहरी नींद में सो रहा था। वह देखने में ऐसा जान पड़ता था, मानो किन्हीं कुशल कलाकारों ने पट पर अद्भुत चित्र अंकित कर दिया हो। वे कुण्डलधारी तरुण क्षत्रिय परस्पर सायकों की मार से सम्पूर्ण अंगों में क्षत-विक्षत हो हाथियों के कुम्भस्थलों से सटकर ऐसे सो रहे थे, मानो कामिनियों के कुचों का आलिंगन करके सोये हों।

     तत्पश्चात कामिनियों के कपोलों के समान श्वेतपीत वर्ण वाले नयना नन्ददायी कुमुदनाथ चन्द्रमा ने पूर्व दिशा को सुशोभित किया। उदयाचल के शिखर पर चन्द्रमारूपी सिंह का उदय हुआ, जो पूर्व दिशारूपी कन्दरा से निकला था। वह किरणरूपी केसरों से प्रकाशित एवं पिंगलवर्ण का था और अन्धकाररूपी गजराजों के यूथ को विदीर्ण कर रहा था। भगवान शंकर के वृषभ नन्दिकेश्वर के उत्तम अंगों के समान जिसकी श्वेत कान्ति है, जो कामदेव के श्वेत पुष्पमय धनुष के समान पूर्णतः उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित होता है और नव वधू की मन्द मुस्कान के सदृश सुन्दर एवं मनोहर जान पड़ता है, वह कुमुदकुल-बान्धव चन्द्रमा क्रमशः ऊपर उठकर आकाश में अपनी चाँदनी छिटकाने लगा। उस समय दो घड़ी के बाद शशचिह्न से सुशोभित प्रभावशाली भगवान चन्द्रमा ने अपनी ज्योत्स्ना से नक्षत्रों की प्रभा को क्षीण करते हुए पहले अरुण कान्ति का दर्शन कराया। अरुण कान्ति के पश्चात चन्द्रदेव ने धीरे-धीरे सुवर्ण के समान प्रभा वाले विशाल किरण जाल का प्रसार आरम्भ किया। फिर वे चन्द्रमा की किरणें अपनी प्रभा से अन्धकार का निवारण करती हुई शनैः-शनैः सम्पूर्ण दिशाओँ, आकाश और भूमण्डल में फैलने लगीं। तदनन्तर एक ही मुहूर्त में समस्त संसार ज्योतिर्मय सा हो गया। अन्धकार का कहीं नाम भी नहीं रह गया। वह अदृश्यभाव से तत्काल कहीं चला गया। चन्द्रदेव के पूर्णतः प्रकाशित होने पर जगत में दिन का सा उजाला हो गया। राजन! उस समय रात्रि में विचरने वाले कुछ प्राणी विचरण करने लगे और कुछ जहाँ के वहाँ पड़े रहे।

      नरेश्वर! चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से सारी सेना उसी प्रकार जाग उठी, जैसे सूर्य रश्मियों का स्पर्श पाकर कमलों का समूह खिल उठता है। जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा का उदय होने पर उससे प्रभावित होने वाले महासागर में ज्वार उठने लगता है, उसी प्रकार उस समय चन्द्रोदय होने से उस सारे सैन्य समुद्र में खलबली मच गयी। प्रजानाथ! तदनन्तर इस जगत में महान जनसंहार के लिये परलोक की इच्छा रखने वाले योद्धाओं का वह युद्ध पुनः आरम्भ हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय सेना की निद्राविषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)

एक सौ पचासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंगपूर्ण उत्तर”

     संजय कहते हैं ;- राजन! जब दोनों पक्षों के बीच पुन: युद्ध प्रारम्भ हो गया। तदनन्तर अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर उनमें हर्षोत्साह और उत्तेजना पैदा करते हुए इस प्रकार कहा। 

    दुर्योधन बोला ;- आचार्य! युद्ध में विशेषतः वे शत्रु, जो लक्ष्य बेधने में कभी चूकते न हों, यदि थककर विश्राम ले रहे हों और मन में ग्लानि भरी होने से युद्ध विषयक उत्साह खो बैठे हों, उनके प्रति कभी क्षमा नहीं दिखानी चाहिये। इस समय जो हमने क्षमा की है- सोते समय शत्रुओं पर प्रहार नहीं किया है, वह केवल आपका प्रिय करने की इच्छा से ही हुआ है। इसका फल यह हुआ कि ये पाण्डव-सैनिक पूर्णतः विश्राम करके पुनःअत्यन्त प्रबल हो गये हैं। हम लोग तेज और बल से सर्वथा हीन हो गये हैं और वे पाण्डव आपसे सुरक्षित होने के कारण बारंबार बढ़ते जा रहे हैं। ब्रह्मास्त्र आदि जितने भी दिव्यास्त्र हैं, वे सब के सब विशेष रूप से आप ही में प्रतिष्ठित हैं। युद्ध करते समय आपकी समानता न तो पाण्डव, न हम लोग और न संसार के दूसरे धनुर्धर ही कर सकते हैं, यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आप सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता हैं। अतः चाहें तो अपने दिव्यास्त्रों द्वारा देवता, असुर और गन्धर्वो सहित इन सम्पूर्ण लोकों का विनाश कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। फिर भी आप इन पाण्डवों को क्षमा करते जाते हैं। यद्यपि वे आपसे विशेष भयभीत रहते हैं, तो भी वे आपके शिष्य हैं, इस बात को सामने रखकर या मेरे दुर्भाग्य का विचार करके आप उनकी उपेक्षा करते हैं।

    संजय कहते हैं ;- राजन! जब इस प्रकार आपके पुत्र ने द्रोणाचार्य को उत्साहित करते हुए उनका क्रोध बढ़ाया, तब वे कुपित होकर दुर्योधन से इस प्रकार बोले,

   द्रोणाचार्य बोले ;- ‘दुर्योधन! यद्यपि मैं बूढ़ा हो गया, तथापि युद्ध स्थल में अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारी विजय के लिये चेष्टा करता हूँ, परंतु जान पड़ता है, अब तुम्हारी जीत की इच्छा से मुझे नीच कार्य भी करना पड़ेगा। ‘ये सब लोग दिव्यास्त्रों को नहीं जानते और मैं जानता हूँ, इसलिये मुझे उन्हीं अस्त्रों द्वारा इन सबको मारना पड़ेगा। कुरुनन्दन! तुम शुभ या अशुभ जो कुछ भी कराना उचित समझो, वह तुम्हारे कहने से करूँगा, उसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा। ‘राजन! मैं सत्य की शपथ खाकर अपने धनुष को छूते हुए कहता हूँ कि ‘युद्ध में पराक्रम करके समस्त पांचालों का वध किये बिना कवच नहीं उतारूँगा’। ‘परंतु तुम जो कुन्तीकुमार अर्जुन को युद्ध में थका हुआ समझते हो, वह तुम्हारी भूल है।

     महाबाहु करूराज! मैं उनके पराक्रम का सच्चाई के साथ वर्णन करता हूँ, सुनो। ‘युद्ध में कुपित हुए सव्यसाची अर्जुन को न देवता, न गन्धर्व, न यक्ष और न राक्षस ही जीत सकते हैं। ‘उस महामनस्वी वीर ने खाण्डववन में वर्षा करते हुए भगवान देवराज इन्द्र का सामना किया और अपने बाणों द्वारा उन्हें रोक दिया। ‘पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने उस समय यक्ष, नाग, दैत्य तथा दूसरे भी जो बल का घमंड रखने वाले वीर थे, उन सबको मार डाला था। यह बात तुम्हें मालूम ही है। ‘घोष यात्रा के समय जब चित्रसेन आदि गन्धर्व तुम्हें हर कर लिये जा रहे थे, उस समय दुदृढ़ धनुष धारण करने वाले अर्जुन ने ही उन सबको परास्त किया और तुम्हें बन्धन से छुड़ाया। ‘देवशत्रु निवातकवच नामक दानव, जिन्हें संग्राम में देवता भी नहीं मार सकते थे, उसी वीर अर्जुन से पराजित हुए हैं। ‘जिन पुरुषसिंह अर्जुन ने हिरण्यपुर निवासी सहस्रों दानवों पर विजय पायी है, वे मनुष्यों द्वारा कैसे जीते जा सकते हैं?

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘प्रजानाथ! हमारे बहुत चेष्टा करने पर भी पाण्डु पुत्र अर्जुन ने जिस प्रकार तुम्हारी इस सेना का संहार कर डाला है, यह सब तो तुम्हारी आँखों के सामने ही है।’ 

    संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार अर्जुन की प्रशंसा करते हुए द्रोणाचार्य से उस समय आपके पुत्र ने कुपित होकर पुनः इस प्रकार कहा,

   दुर्योधन ने कहा ;- ‘आज मैं, दुःशासन, कर्ण और मेरे मामा शकुनि कौरव सेना को दो भागों में बाँटकर युद्ध में अर्जुन को मार डालेंगे। महाबाहो! आप चुपचाप खडे़ रहिये, क्योंकि अर्जुन सदा से ही आपके प्रिय शिष्य हैं’। दुर्योधन की यह बात सुनकर द्रोणाचार्य ने हँसते हुए से उसकी बात का अनुमोदन किया और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा कहकर वे राजा दुर्योधन से पुनः इस प्रकार बोले,

    द्रोणाचार्य ने कहा ;- ‘नरेश्वर! अपने तेज से प्रज्वलित होने वाले क्षत्रि शिरोमणि गाण्डीवधारी अविनाशी अर्जुन को कौन क्षत्रिय मार सकता है? ‘हाथ में धनुष धारण किये हुए अर्जुन को न तो घनाध्यक्ष कुबेर, न इन्द्र, न यमराज, न जल के स्वामी वरुण और न असुर, नाग एवं राक्षस ही नष्ट कर सकते हैं। ‘भारत! तुम जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बातें मूर्ख मनुष्य कहा करते हैं। भला, युद्ध में अर्जुन का सामना करके कौन कुशलपूर्वक घर को लौट सकता है ?

    ‘तुम निष्ठुर और पापपूर्ण विचार रखने वाले हो, अतः तुम्हारे मन में सब पर संदेह बना रहता है, इसीलिये तुम्हारे हित में ही तत्पर रहने वाले श्रेष्ठ पुरुषों को भी तुम ऐसी-ऐसी बातें सुनाने की इच्छा रखते हो। ‘तुम भी जाओ, अपने हित के लिये कुन्तीकुमार अर्जुन को शीघ्र ही मार डालो। तुम भी तो कुलीन क्षत्रिय हो। मैं आश करता हूँ, तुममें भी युद्ध करने की शक्ति है ही, फिर इन सम्पूर्ण निरपराध क्षत्रियों को क्यों व्यर्थ कटवाओगे ? ‘तुम इस वैर की जड़ हो, अतः स्वयं ही जाकर अर्जुन का सामना करो, गान्धारीनन्दन! ये कपट द्यूत के खिलाड़ी तुम्हारे मामा शकुनि भी बड़े बुद्धिमान और क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले हैं। ये ही युद्ध में अर्जुन पर चढ़ाई करें। ‘ये पासे फेंकने में बड़े कुशल हैं। कुटिलता, शठता और धूर्तता तो इनमें कूट-कूटकर भरी है। ये जूए के खिलाड़ी तो हैं ही, छल-विद्या के भी अच्छे जानकर हैं। युद्ध में पाण्डवों को अवश्य जीत लेंगे। ‘दुर्योधन! तुमने एकान्त स्थान के समान भरी सभा में धृतराष्ट्र के सुनते हुए कर्ण के साथ अत्यन्त प्रसन्न से होकर मोहवश बारंबार बहुत जोर देकर यह बात कही है कि ‘तात! मै, कर्ण और भाई दुःशासन- ये तीन ही समरभूमि में एक साथ होकर पाण्डवों का वध कर डालेंगे।’ प्रत्येक सभा में ऐसी ही शेखी बघारते हुए तुम्हारी बात मैंने सुनी है।

     ‘अपनी उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। उन सबके साथ सत्यवादी बनो। ये तुम्हारे शत्रु पाण्डुपुत्र अर्जुन निर्भय होकर सामने खड़े हैं। क्षत्रिय धर्म की ओर दृष्टिपात करो। युद्ध में विजय की अपेक्षा अर्जुन के हाथ से तुम्हारा वध भी हो जाय तो वह तुम्हारे लिये प्रशंसा की बात होगी। ‘तुमने बहुत सा दान कर लिया, भोग भोग लिये, स्वाध्याय भी कर लिया और मनमाना ऐश्वर्य भी पा लिया। अब तुम कृतकृत्य और देवताओं, ऋषियों तथा पितरों के ऋण से मुक्त हो गये, अतः डरो मत। पाण्डु पुत्र अर्जुन के साथ युद्ध करो’। ऐसा कहकर द्रोणाचार्य समरभूमि में जिस ओर शत्रुओं की सेना थी, उधर ही लौट पड़े। तत्पश्चात सेना के दो विभाग करके उसी क्षण युद्ध आरम्भ हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में द्रोणाचार्य और दुर्योधन का सम्‍भाषण विषयक एक सौ पचासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


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