सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ छिहत्तरवें अध्याय से एक सौ अस्सीवें अध्याय तक (From the 176 chapter to the 180 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“अलायुद्ध का युद्धस्थल में प्रवेश तथा उसके स्वरूप और रथ आदि का वर्णन”

    संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार कर्ण और घटोत्कच का वह युद्ध चल ही रहा था कि पराक्रमी राक्षसराज अलायुध वहाँ उपस्थित हुआ। वह सहस्रों विकराल रूप वाले राक्षसों से घिकर अपनी विशाल सेना के साथ दुर्योधन के पास आया। उसके साथ अनेक रूप धारण करने वाले वीर राक्षस मौजूद थे। वह पहले के वैर का स्मरण करके वहाँ आया था। उसका कुटुम्बी बन्धु ब्राह्मणभक्षी पराक्रमी बकासुर भीमसेन के द्वारा मारा गया था। उसके सखा हिडिम्ब और महातेजस्वी किर्मीर भी उन्हीं के हाथ से मारे गये थे। इस प्रकार दीर्घकाल से मन में रखे हुए पहले के वैर को उस समय वह बारंबार स्मरण कर रहा था। रात्रि में होने वाले इस संग्राम का समाचार पाकर रणभूमि में भीमसेन को मार डालने की इच्छा से वह मतवाले हाथी और क्रोध में भरे हुए सर्प की भाँति युद्ध की लालसा मन में रखकर दुर्योधन से इस प्रकार बोला- ‘महाराज! आपको तो मालूम ही होगा कि भीमसेन ने हमारे राक्षस भाई-बन्धु हिडिम्ब, बक और किर्मीर का किस प्रकार वध कर डाला है। ‘इतना ही नहीं, उन्होंने मेरा तथा दूसरे राक्षसों का अपमान करके पूर्वकाल में राक्षस कन्या हिडिम्बा के साथ भी बलात्कार किया था। इससे बढ़कर दूसरा अपराध क्या हो सकता है। ‘अतः राजन! मैं सैन्यसमूह, घोड़े, हाथी और रथों सहित भीमसेन को तथा मन्त्रियों सहित हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच को मार डालने के लिये स्वयं यहाँ आया हूँ। ‘श्रीकृष्ण जिनके अगुआ हैं, उन सभी कुन्ती पुत्रों को मारकर आज मैं समस्त अनुचरों के साथ उन्हें खा जाऊँगा। ‘अतः आप अपनी सारी सेना को रोक दीजिये। पाण्डवों के साथ हम लोग युद्ध करेंगे।’

      उसकी यह बात सुनकर भाइयों से घिरे हुए राजा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अलायुध का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- ‘राक्षसराज! सैनिकों सहित तुम्हें आगे रखकर हम लोग भी शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे, क्योंकि जिनका मन वैर का अन्त करने में लगा हुआ है, वे मेरे सैनिक चुपचाप खड़े नहीं रहेंगे’। ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहकर राक्षसराज अलायुध तुरंत ही राक्षसों के साथ भीमसेन पुत्र घटोत्कच के सामने गया।

     राजेन्द्र! उसका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। वह भी सूर्य के समान तेजस्वी वैसे ही रथ पर आरूढ़ होकर गया, जैसे रथ से घटोत्कच आया था। उसका विशाल रथ भी अनेक तोरणों से विचित्र शोभा पा रहा था। उसकी घर्घराहट भी अनुपम थी। उसके ऊपर भी रीछ का चाम मढ़ा हुआ था और उसकी लम्बाई-चैड़ाई भी चार सौ हाथ थी। उसके रथ में जुते हुए घोड़े भी हाथी के समान मोटे शरीर वाले, शीघ्रगामी और मदहों के समान उच्चस्वर से हिन-हिनाने वाले थे। उनकी संख्या सौ थी। वे विशालकाय अश्व मांस और रक्त भोजन करते थे। उसके रथ का गम्भीर घोष भी महामेघ की गर्जना के समान जान पड़ता था। उसका धनुष भी विशाल, सुदृढ़ प्रत्यञ्चा से युक्त तथा सुवर्णजटित होने के कारण प्रकाशमान था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-22 का हिन्दी अनुवाद)

    उसके बाण भी शिला पर तेज किये हुए थे। वे भी धुरे के समान मोटे और सुवर्णमय पंखों से सुशोभित थे। अलायुध भी वैसा ही महाबाहु वीर था, जैसा कि घटोत्कच था। अलायुध का ध्वज भी अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी था। वह गीदड़-समूह से चिह्नित दिखायी देता था। उसका स्वरूप भी घटोत्कच के ही समान अत्यन्त कान्तिमान था। उसका मुख भी विकराल एवं प्रज्वलित जान पड़ता था। उसकी भुजाओं में बाजूबंद चमक रहे थे।

       मस्तक पर दीप्तिमान मुकुट प्रकाशित हो रहा था। उसने हार पहन रखे थे। उसकी पगड़ी में तलवार बँधी हुई थी। उसका शरीर हाथी के समान था तथा वह गदा, भुशुण्डी, मूसल, हल और धनुष आदि अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। अग्नि के समान तेजस्वी पूर्वोक्त रथ के द्वारा उस समय पाण्डव सेना को खदेड़ता हुआ अलायुध युद्धस्थल में सब ओर घूमकर आकाश में विद्युन्माला से प्रकाशित मेघ के समान सुशोभित हो रहा था। राजन्! तब पाण्डव पक्ष के सर्वश्रेष्ठ महाबली वीर योद्धा नरेश भी कवच और ढाल से सुसज्जित हो हर्ष और उत्साह में भरकर सब ओर से उस राक्षस के साथ युद्ध करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में अलायुधयुद्ध विषयक एक सौ छिहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! युद्धस्थल में भयंकर कर्म करने वाले अलायुध को आया हुआ देख सभी कौरव-योद्धा बड़े प्रसन्न हुए। उसी प्रकार आपके दुर्योधन आदि पुत्रों को भी बड़ा हर्ष हुआ, मानो समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले नौकाहीन पुरुषों को जहाज मिल गया हो। वे पुरुषप्रवर कौरव अपना नया जन्म हुआ मानने लगे। उन्होंने राक्षसराज अलायुध का स्वागत पूर्वक सत्कार किया। उस रात्रिकाल में जब कर्ण और घटोत्कच का अत्यन्त भयंकर और दारुण अमानुषिक युद्ध चल रहा था। उस समय न तो अश्वत्थामा, न कृपाचार्य, न द्रोणाचार्य, न शल्य और न कृतवर्मा ही घटोत्कच का सामना कर सके। अकेला दानवीर कर्ण ही रणभूमि में उसके साथ जूझ रहा था। राजन! पांचाल योद्धा अन्यान्य राजाओं के साथ विस्मित होकर वह युद्ध देखने लगे। उसी प्रकार आपके सैनिक भी इधर-उधर से उसी युद्ध का दृश्य देख रहे थे। समरांगण में हिडिम्बाकुमार घटोत्कच का वह अलौकिक कर्म देखकर घबराये हुए द्रोणाचार्य, अश्वत्थाम और कृपाचार्य आदि चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे कि ‘अब हमारी यह सेना नहीं बचेगी’। महाराज! कर्ण के जीवन से निराश होकर आपकी सारी सेना उद्विग्न हो उठी थी। सर्वत्र हाहाकार मचा था। सबके होश उड़ गये थे।

      उस समय कर्ण को बड़े भारी संकट में पड़ा देख दुर्योधन ने राक्षसराज अलायुध को बुलाकर इस प्रकार कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- ‘वीरवर! देखो, यह सूर्य पुत्र कर्ण हिडिम्बाकुमार घटोत्कच के साथ जूझ रहा है। युद्धस्थल में जहाँ तक इसके प्रयत्न से होना सम्भव है, वहाँ तक यह महान पराक्रम प्रकट कर रहा है। ‘भीमसेन के पुत्र ने नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जिन शूरवीर नरेशों को घायल करके मार डाला है, वे हाथी के गिराये हुए वृक्षों के समान यहाँ पड़े हैं, इन्हें देखो। ‘वीर! तुम्हारी अनुमति से ही समरांगण में सम्पूर्ण राजाओं के बीच इस घटोत्कच को मैंने तुम्हारा भाग नियत किया है, अतः तुम पराक्रम करके इसे मार डालो। ‘शत्रुसूदन! कहीं ऐसा न हो कि यह पापी घटोत्कच मायाबल का आश्रय ले वैकर्तन कर्ण को पहले ही नष्ट कर दे’।

       राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर उस भयंकर पराक्रमी महाबाहु राक्षस ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर घटोत्कच पर धावा किया। प्रभो! तब घटोत्कच ने भी कर्ण को छोड़कर अपने समीप आते हुए शत्रु को बाणों द्वारा पीड़ित करना आरम्भ किया। फिर तो क्रोध में भरे हुए उन दोनों राक्षस राजों में वन के भीतर हथिनी के लिये लड़ने वाले दो मतवाले हाथियों के समान घोर युद्ध होने लगा। राक्षस से छूटने पर रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने भी सूर्य के समान तेजस्वी रथ के द्वारा भीमसेन पर धावा किया। आते हुए कर्ण की उपेक्षा करके समरांगण में सिंह के चंगुल में फँसे हुए साँड़ की भाँति घटोत्कच को अलायुध का ग्रास बनते देख योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन सूर्य के समान तेजस्वी रथ के द्वारा बाण समूहों की वर्षा करते हुए अलायुध के रथ की ओर बड़े वेग से बढ़े। प्रभो! उस समय उन्हें आते देख अलायुध ने घटोत्कच को छोड़कर भीमसेन को ललकारा। राजन! राक्षसों का विनाश करने वाले भीम ने सहसा निकट जाकर सैनिक गणों सहित राक्षस राज अलायुध को अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

     शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश! उसी प्रकार अलायुध भी कुन्तीकुमार भीमसेन ने शिला पर तेज किये हुए बाणों की बारंबार वर्षा करने लगा। आपके पुत्रों की विजय चाहने वाले वे समस्त भयंकर राक्षस हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर भीमसेन पर टूट पड़े। बहुत से योद्धाओं की मार खाकर महाबली भीमसेन ने उन सबको पाँच-पाँच तीखे बाणों से घायल कर दिया।

      भीमसेन के बाणें की चोट खाकर वे क्रूरबुद्धि राक्षस भयंकर चीत्कार करने और दसों दिशाओं में भागने लगे। भीम के द्वारा उन राक्षसों को भयभीत होते देख महाबली राक्षस अलायुध ने बड़े वेग से भीमसेन पर धावा किया और उन्हें बाणों से ढक दिया। तब भीमसेन ने समरांगण में तीखी धारवाले बाणों से अलायुध को क्षत-विक्षत कर दिया। अलायुध ने भीमसेन के चलाये हुए कुछ बाणों को रणभूमि में काट दिया और कुछ बाणों को बड़ी शीघ्रता के साथ हाथ से पकड़ लिया। भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने राक्षसराज अलायुध को ऐसा पराक्रम करते देख उस समय उसके ऊपर वज्रपात के समान अपनी भयंकर गदा बड़े वेग से चलायी। ज्वाला से व्याप्त हुई उस गदा को वेग से आती देख अलायुध ने उस पर अपनी गदा से आघात किया। फिर वह गदा भीम के पास ही लौट आयी। फिर कुन्तीकुमार भीमसेन ने राक्षसराज अलायुध पर बाणों की झड़ी लगा दी, परंतु उस राक्षस ने अपने तीखे बाणों द्वारा उनके ये सभी बाण व्यर्थ कर दिये। उस रात में भयंकर रूपधारी सम्पूर्ण राक्षसों ने भी राक्षसराज अलायुध की आज्ञा से कितने ही रथों और हाथियों को नष्ट कर दिया। उन राक्षसों से अत्यन्त पीड़ित होकर पाञ्चाल और सृंजयवंशी क्षत्रिय तथा उनके घोड़े और बड़े-बड़े हाथी भी शान्ति न पा सके।

     उस महाभयंकर वर्तमान महायुद्ध को देखकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहा,

     श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘पाण्डुनन्दन! देखो, महाबाहु भीमसेन राक्षसराज अलायुध के वश में पड़ गये हैं। तुम शीघ्र उन्हीं के मार्ग पर चलो। कोई दूसरा विचार मन में न लाओ। ‘धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, साथ रहने वाले युधामन्यु और उत्तमौजा तथा द्रौपदी के पाँचो पुत्र- ये सभी महारथी एक साथ होकर कर्ण पर धावा करें। ‘पाण्डु पुत्र! नकुल, सहदेव और पराक्रमी सात्यकि- ये तुम्हारे आदेश से अन्य राक्षसों का वध करें। ‘महाबाहु! तुम भी द्रोण जिसके अगुआ हैं, इस कौरव सेना को आगे बढ़ने से रोको, क्योंकि नरव्याघ्र! पाण्डव सेना पर महान भय आ पहुँचा है’। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर वे सभी महारथी उने आदेश के अनुसार रणभूमि में वैकर्तन कर्ण तथा उन राक्षसों का सामना करने के लिये चले गये। तदनन्तर प्रतापी राक्षसराज अलायुध ने धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा भीमसेन के धनुष को काट डाला। साथ ही, उस महाबली निशाचर ने युद्ध में भीमसेन के देखते-देखते पैने बाणों द्वारा उनके सारथि और घोड़ों को भी मार डाला। घोड़ों और सारथि के मारे जने पर रथ की बैठक से नीचे उतरकर गर्जते हुए भीमसेन ने उस राक्षस पर अपनी भारी एवं भयंकर गदा दे मारी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-47 का हिन्दी अनुवाद)

     भयानक शब्द करने वाली उस विशाल गदा को आती देख भयंकर राक्षस अलायुध ने अपनी गदा से उस पर आघात किया और बड़े जोर से गर्जना की। राक्षसराज अलायुध के उस भयदायक घोर कर्म को देखकर भीमसेन का हृदय हर्ष और उत्साह से भर गया और उन्होंने शीघ्र ही गदा हाथ में ले ली। फिर गदाओं के टकराने की आवाज से भूतल को अत्यन्त कम्पित करते हुए उन दोनों मनुष्य और राक्षसों में वहाँ भयंकर युद्ध होने लगा। गदा से छूटते ही वे दोनों फिर एक दूसरे से गुथ गये और वज्रपात की सी आवाज करने वाले मुक्कों से एक दूसरे को मारने लगे। तत्पश्चात अमर्ष में भरकर वे दोनों रथ के पहियों, जूओं, धुरों, बैठकों और अन्य उपकरणों से तथा जो भी वस्तु समीप मिल जाती, उसी को लेकर एक दूसरे पर चोट करने लगे। वे मदस्त्रावी मतवाले गजराजों के समान अपने अंगों से रूधिर की धारा बहाते हुए एक दूसरे से भिड़कर बारंबार खींचातानी करने लगे। पाण्डवों के हित में तत्पर रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब वह युद्ध देखा, तब भीमसेन की रक्षा के लिये हिडिम्बा कुमार घटोत्कच को भेजा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में अलायुध युद्ध विषयक एक सौ सतहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं में परस्पर घोर युद्ध और घटोत्कच के द्वारा अलायुध का वध एवं दुर्योधन का पश्चात्ताप”

   संजय कहते हैं ;- राजन! समरभूमि में राक्षस राज अलायुध के चंगुल में फँसे हुए भीमसेन को निकट से देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने घटोत्कच से यह बात कही,

   श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘महातेजस्वी महाबाहु वीर! देखो, युद्धस्थल में उस राक्षस ने सम्पूर्ण सेना के और तुम्हारे देखते-देखते भीमसेन को वश में कर लिया है। महाबाहो! अतः तुम कर्ण को छोड़कर पहले राक्षसराज अलायुध को शीघ्रता पूर्वक मार डालो। पीछे कर्ण का वध करना’।

      भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर पराक्रमी वीर घटोत्कच ने कर्ण को छोड़कर वक के भाई राक्षसराज अलायुध के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। भरतनन्दन! उस रात्रि के समय अलायुध और हिडिम्बाकुमार घटोत्कच दोनों राक्षसों में अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध होने लगा। अलायुध के सैनिक राक्षस देखने में बड़े भयंकर और शूरवीर थे। वे हाथ में धनुष लेकर बड़े वेग से आक्रमण करते थे। परंतु अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महारथी युयुधान, नकुल और सहदेव ने उन सबको अपने पैने बाणों से काट डाला। राजन! किरीटधारी अर्जुन ने समरांगण में सब ओर बाणों की वर्षा करके कौरव पक्ष के समस्त क्षत्रिय शिरोमणियों को मार भगाया। नरेश्वर! कर्ण ने भी रणभूमि में धृष्टद्युम्न और शिखण्डी आदि पाञ्चाल महारथी नरेशों को दूर भगा दिया। उन सबको बाणों की मार से पीड़ित होते देख भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने युद्धस्थल में अपने बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ तुरंत ही कर्ण पर आक्रमण किया। तत्पश्चात वे नकुल, सहदेव और महारथी सात्यकि भी राक्षसों को मारकर वहीं आ पहुँचे, जहाँ सूतपुत्र कर्ण था। वे तीनों योद्धा कर्ण के साथ युद्ध करने लगे और पांचाल देशीय वीरों ने द्रोणाचार्य का सामना किया।

    उधर क्रोध में भरे हुए अलायुध ने एक विशाल परिघ के द्वारा शत्रुदमन घटोत्कच के मस्तक पर आघात किया। उस प्रहार से भीमसेन पुत्र घटोत्कच को कुछ मूर्छा आ गयी। परंतु उस महाबली और पराक्रमी वीर ने पुनः अपने आपको सँभाल लिया। तदनन्तर घटोतच ने समरांगण में प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्विनी, एक सौ घंटियों से अलंकृत और सुवर्णभूषित अपनी गदा उसके ऊपर चलायी। भयंकर कर्म करने वाले उस राक्षस द्वारा वेगपूर्वक फेंकी गयी उस भारी आवाज करने वाली गदा ने अलायुध के रथ, सारथि और घोड़ों को चूर-चूर कर दिया। जिसके घोड़े, पहिये और धुरे नष्ट हो गये थे, ध्वज और कूबर बिखर गये थे, उस रथ से अलायुध राक्षसी माया का आश्रय लेकर तुरंत ही ऊपर को उड़ गया। उसने माया का आश्रय लेकर बहुत रक्त की वर्षा की। उस समय आकाश में भयंकर मेघों की घटा घिर आयी थी और बिजली चमक रही थी। तत्पश्चात उस महासमर में वज्रपात, मेघ गर्जना के साथ विद्युत की गड़गड़ाहट तथा महान चटचट शब्द होने लगे। राक्षस की उस विशाल माया को देखकर राक्षसजातीय हिडिम्बाकुमार घटोत्कच ने ऊपर उड़कर अपनी माया से उस माया को नष्ट कर दिया। अपनी माया को माया से ही नष्ट हुई देखकर मायावी अलायुध घटोत्कच पर पत्थरों की भयंकर वर्षा करने लगा। किन्तु पराक्रमी घटोत्कच ने बाणों की वृष्टि करके उस भयंकर प्रस्तर वर्षा का उन-उन दिशाओं में ही विध्वंस कर दिया। वह अद्भुत सा कार्य हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)

    भारत! तत्पश्चात वे एक दूसरे पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। लोहे के परिघ, शूल, गदा, मूसल, मुद्गर, पिनाक, खड्ग, तोमर, प्रास, कम्पन, तीखे नाराच, भल्ल, बाण, चक्र, फरसे, लोहे की गोली, भिन्दिपाल, गोशीर्ष, उलूखल, बड़ी-बड़ी शाखाओं वाले उखाड़े हुए नाना प्रकार के वृक्ष- शमी, पीलु, कदम्ब, चम्पा, इंगुद, बेर, विकसित कोविदार, पलाश, अरिमेद, बड़े-बड़े पाकड़, बरगद और पीपल- इन सबके द्वारा उस महासमर में वे एक दूसरे पर चोट करने लगे। नाना प्रकार की धातुओं से व्याप्त विशाल पर्वत शिखरों द्वारा भी वे परस्पर आघात करते थे। उस पर्वत-शिखरों के टकराने से ऐसा महान शब्द होता था, मानो वज्र फट पड़े हों।

      नरेश्वर! घटोत्कच और अलायुध का वह भयंकर युद्ध वैसा ही हो रहा था, जैसे पहले त्रेतायुग में वानरराज बाली और सुग्रीव का युद्ध सुना गया गया है। नाना प्रकार के भयंकर आयुधों और बाणों से युद्ध करके वे दोनों राक्षस तीखी तलवारें लेकर एक दूसरे पर टूट पड़े। उन दोनों महाबली और विशालकाय राक्षसों ने परस्पर आक्रमण करके दोनों हाथों से दोनों के केश पकड़ लिये। नरेश्वर! अत्यन्त वर्षा करने वालें दो मेघों के समान उन विशालकाय राक्षसों के शरीर पसीने से तर हो रहे थे। वे अपने अंगों से पसीनों के साथ-साथ खून भी बहा रहे थे। तदनन्तर बड़े वेग से झपटकर हिडिम्बाकुमार घटोत्कच ने उस राक्षस को पकड़ लिया और उसे घुमाकर बलपूर्वक पटक दिया। फिर उसके विशाल मस्तक को उसने काट डाला। इस प्रकार महाबली घटोत्कच ने उसके कुण्डलमण्डित मस्तक को काटकर उस समय बड़ी भयानक गर्जना की।

      बकासुर के विशालकाय भ्राता शत्रुदमन अलायुध को मारा गया देख पांचाल और पाण्डव सिंहनाद करने लगे। युद्धस्थल में उस राक्षस के मारे जाने पर पाण्डव दल के सैनिकों ने सहस्रों नगाड़े और हजारों शंख बजाये। चारों ओर से दीपावलियों द्वारा प्रकाशित होने वाली वह रात्रि उनके लिये विजयदायिनी होकर अत्यन्त शोभा पाने लगी। उस समय दुर्योधन अचेत सा हो रहा था। महाबली घटोत्कच ने अलायुध का वह मस्तक दुर्योधन के सामने फेंक दिया। भारत! अलायुध को मारा गया देख सेनासहित राजा दुर्योधन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा। अलायुध ने अपने भारी बैरी को याद करते हुए स्वयं आकर दुर्योधन के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं युद्ध में भीमसेन को मार डालूँगा। इससे राजा दुर्योधन यह मान बैठा था कि अलायुध निश्चय ही भीमसेन को मार डालेगा और यही सोचकर उसने यह भी समझ लिया था कि अभी मेरे भाइयों का जीवन चिरस्थायी है। परंतु भीमसेन पुत्र घटोत्कच के द्वारा अलायुध को मारा गया देख उसने यह निश्चित रूप से मान लिया कि अब भीमसेन की प्रतिज्ञा पूरी होकर ही रहेगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय अलायुध का वधविषयक एक सौ अठहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ उन्यासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“घटोत्कच का घोर युद्ध तथा कर्ण के द्वारा चलायी हुई इन्द्रप्रदत्त शक्ति से उसका वध”

   संजय कहते हैं ;- राजन! राक्षस अलायुध का वध करके घटोत्कच मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ और वह आपकी सेना के सामने खड़ा हो नाना प्रकार से सिंहनाद करने लगा। महाराज! उसकी वह भयंकर गर्जना हाथियों को भी कँपा देने वाली थी। उसे सुनकर आपके योद्धाओं के मन में अत्यन्त दारुण भय समा गया। जिस समय महाबली घटोत्कच अलायुध के साथ उलझा हुआ था, उस समय उसे उस अवस्था में देखकर महाबाहु कर्ण ने पांचालों पर धावा किया। उसने पूर्णतः खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँठवाले दस-दस सुदृढ़ बाणों द्वारा धृष्टद्युम्न और शिखण्डी को घायल कर दिया। तत्पश्चात उसने अच्छे-अच्छे नाराचों द्वारा युधामन्यु और उत्तमौजा को तथा अनेक बाणों से उदार महारथी सात्यकि को भी कम्पित कर दिया।

     नरेश्वर! वे सात्यकि आदि भी बायें-दायें बाण चला रहे थे। उस समय उन सबके धनुष भी मण्डलकार ही दिखायी देते थे। उस रात्रि के समय उनकी प्रत्यञ्चा की टंकार तथा रथ के पहियों की घर्घराहट का शब्द वर्षाकाल के मेघों की गर्जना के समान भयंकर जान पड़ता था। राजन! वह संग्राम वर्षाकालीन मेघ के समान प्रतीत होता था। प्रत्यंचा की टंकार और पहियों की घर्घराहट का शब्द ही उस मेघ की गर्जना के समान था। धनुष ही विद्युन्मण्डल के समान प्रकाशित होता था और ध्वजा का अग्रभाग ही उस मेघ का उच्चतम शिखर था तथा बाण-समूहों की वृष्टि ही उसके द्वारा की जाने वाली वर्षा थी। नरेन्द्र! महान पर्व के समान शक्तिशाली एवं अविचल रहने वाले शत्रुदल संहारक सूर्य पुत्र कर्ण ने रणभूमि में उस अद्भुत बाण-वर्षा को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात आपके पुत्र के हित में तत्पर रहने वाले महामनस्वी वैकर्तन कर्ण ने समरांगण में सोने के विचित्र पंखों से युक्त एवं वज्रपात के तुल्य भयंकर, तुलनारहित तीखे बाणों द्वारा शत्रुओं का संहार आरम्भ किया। वैकर्तन कर्ण ने वहाँ शीर्घ ही किन्हीं की ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये, किन्हीं के शरीरों को बाणों से पीड़ित करके विदीर्ण कर डाला, किन्हीं के सारथि नष्ट कर दिये और किन्हीं के घोड़े मार डाले।

     योद्धा लोग युद्ध में किसी तरह चैन न पाकर युधिष्ठिर की सेना में घुसने लगे। उन्हें तितर-बितर और युद्ध से विमुख हुआ देख घटोत्कच को बड़ा रोष हुआ। वह सुवर्ण एवं रत्नों से जटित होने के कारण विचित्र शोभायुक्त उत्तम रथ पर आरूढ़ हो सिंह के समान गर्जना करने लगा और वैकर्तन कर्ण के पास जाकर उसे वज्रतुल्य बाणों द्वारा बींधने लगा। वे दोनों कर्णी, नाराच, शिलीमुख, नालीक, दण्ड, असन, वत्सदन्त, वाराहर्ण, विपाठ, सींग तथा क्षुरप्रों की वर्षा करते हुए अपनी गर्जना से आकाश को गुँजाने लगे।। समरांगण में बाण धाराओं से भरा हुआ आकाश उन बाणों के सुवर्णमय पंखों की तिरछी दिशा में फैलने वाली देदीप्यमान प्रभाओं से ऐसी शोभा पा रहा था, मानो वह विचित्र पुष्पों वाली मनोहर मालाओं से अलंकृत हो। दोनों के ही चित्त एकाग्र थे, दोनों ही अनुपम प्रभावशाली थे और उत्तम अस्त्रों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचा रहे थे। उन दोनों वीर शिरोमणियों में से कोई भी युद्ध में अपनी विशेषता न दिखा सका। सूर्य पुत्र कर्ण और भीमकुमार घटोत्कच का वह अत्यन्त विचित्र एवं घमासान युद्ध आकाश में राहु और सूर्य के उन्मत्त संग्राम सा प्रतीत होता था। उसकी कहीं तुलना नहीं थी। शस्त्रों के प्रहार से वह बड़ा भयंकर जान पड़ता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय कहते हैं ;- राजन! जब अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ कर्ण घटोत्कच से अपनी विशेषता न दिखा सका, तब उसने एक भयंकर अस्त्र प्रकट किया। उस अस्त्र के द्वारा उसने घटोत्कच के रथ को घोड़े और सारथिसहित नष्ट कर दिया। रथहीन होने पर घटोत्कच शीघ्र ही वहाँ से अदृश्य हो गया। 

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! बताओ, माया युद्ध करने वाले उस राक्षस के तत्काल अदृश्य हो जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या सोचा और क्या किया। 

     संजय ने कहा ;- महाराज! राक्षसराज घटोत्कच को अदृश्य हुआ जानकर समस्त कौरव योद्धा चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे ‘माया द्वारा युद्ध करने वाला यह निशाचर जब रणभूमि में स्वयं दिखायी ही नहीं देता है, तब कर्ण को कैसे नहीं मार डालेगा’। तब शीघ्रतापूर्वक विचित्र रीति से अस्त्र युद्ध करने वाले कर्ण ने अपने बाणों के समूह से सम्पूर्ण दिशाओं को ढक दिया। उस समय बाणों से आकाश में अँधेरा छा गया था तो भी वहाँ कोई प्राणी ऊपर से मरकर गिरा नहीं। सूतपुत्र कर्ण जब शीघ्रतापूर्वक बाणों द्वारा समूचे आकाश को आच्छादित कर रहा था, उस समय यह नहीं दिखायी देता था कि वह कब अपने हाथ की अंगुलियों से तरकस को छूता है, कब बाण निकालता है और कब उसे धनुष पर रखता है।

     तदनन्तर हमने अन्तरिक्ष में उस राक्षस द्वारा रची गयी घोर, दारुण एवं भयंकर माया देखी। पहले तो वह लाल रंग के बादलों के रूप में प्रकाशित हुई, फिर आग की भयंकर लपटों के समान प्रज्वलित हो उठी। कौरवराज! तत्पश्चात उससे बिजलियाँ प्रकट हुई और जलती हुई उल्काएँ गिरने लगी। साथ ही, हजारों दुन्दुभियों के बजने के समान बड़ी भयानक आवाज होने लगी। फिर उससे सोने के पंखवाले बाण गिरने लगे। शक्ति, ऋष्टि, प्रास, मूसल आदि आयुध, फरसे, तेल में साफ किये गये खड्ग चमचमाती हुई धारवाले तोमर, पट्टिश, तेजस्वी परिघ, लोहे से बँधी हुई विचित्र गदा, तीखी धारवाले शूल, सोने के पत्र से मढी गयी भारी गदाएँ और शतध्नियाँ चारों ओर प्रकट हाने लगी। जहाँ-तहाँ हजारों बड़ी-बड़ी शिलाएँ गिरने लगीं, बिजलियों सहित वज्र पड़ने लगे और अग्नि के समान दीप्तिमान कितने ही चक्रों तथा सैकड़ों छुरों का प्रादुर्भाव होने लगा। शक्ति, प्रस्तर, फरसे, प्रास, खड्ग, वज्र, बिजली और मुद्गरों की गिरती हुई उस ज्वालापूर्ण विशाल वर्षा को कर्ण अपने बाणसमूहों द्वारा नष्ट न कर सका। बाणों से घायल होकर गिरते हुए घोड़ों, वज्र से आहत होकर धराशायी होते हुंए हाथियों तथा शिलाओं की मार खाकर गिरते हुए महारथियों का महान आर्तनाद वहाँ सुनायी देता था। घटोत्कच के द्वारा चलाये हुए अत्यन्त भयंकर एवं नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से हताहत हुई दुर्योधन की सेना आर्त होकर चारों ओर घूमती और चक्कर काटती दिखायी देने लगी।

      साधारण सैनिक विषाद की मूर्ति बनकर हाहाकार करते हुए सब ओर भाग-भागकर छिपने लगे, परंतु जो पुरुषों में श्रेष्ठ वीर थे, वे आर्यपुरुषों के धर्म पर स्थित रहने के कारण उस समय भी युद्ध से विमुख नहीं हुए। राक्षस द्वारा की हुई बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्रों की वह अत्यन्त घोर एवं भयानक वर्षा तथा अपने सैन्यसमूहों का विनाश देखकर आपके पुत्रों के मन में बड़ा भारी भय समा गया। नरेन्द्र! अग्नि के समान जलती हुई जीभ और भयंकर शब्दवाली सैकड़ों गीदड़ियों को चीत्कार करते तथा राक्षस-समूहों को गर्जते देखकर आपके सैनिक व्यथित हो उठे। पर्वत के समान विशाल शरीर वाले और प्रज्वलित जिह्वा से आग उगलने वाले तीखी दाढ़ों से युक्त भयानक राक्षस हाथों में शक्ति लिये आकाश में पहुँचकर मेघों के समान कौरव दल पर शस्त्रों की उग्र वर्षा करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद)

      उन निशाचरों के बरसाये हुए बाण, शक्ति, शूल, गदा, उग्र प्रज्वलित परिघ, वज्र, पिनाक, बिजली, शतघ्नी और चक्र आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रहारों से रौंदे गये कौरव योद्धा मर-मरकर पृथ्वी पर गिरने लगे। राजन! वे राक्षस आपके पुत्र की सेना पर लगातार शूल, भुशुण्डी, पत्थरों के गोले, शतघ्नी और लोहे के पत्रों से मढ़े गये स्थूणाकार शस्त्र बरसाने लगे। इससे आपके सैनिकों पर भयंकर मोह छा गया। उस समय पत्थरों की मार से आपके शूरवीरों के मस्तक कुचल गये थे, अंग-भंग हो गये थे, उनकी आँतें बाहर निकलकर बिखर गयी थीं और इस अवस्था में वे वहाँ पृथ्वी पर पड़े हुए थे। घोड़ों के टुकड़े-टुकड़़े हो गये थे, हाथियों के सारे अंग कुचल गये थे और रथ चूर-चूर हो गये। इस प्रकार बड़ी भारी शस्त्र वर्षा करते हुए वे निशाचर इस भूतल पर भयंकर रूप धारण करके प्रकट हुए थे। घटोत्कच की माया से उनकी सृष्टि हुई थी। वे डरे हुए तथा प्राणों की भिक्षा माँगते हुए को भी नहीं छोड़ते थे।

     कौरव-वीरों का विनाश करने वाला वह घोर संग्राम मानो क्षत्रियेां का अन्त करने के लिये साक्षत काल द्वारा उपस्थित किया गया था। उसमें विद्यमान सभी कौरव योद्धा हतोत्साह हो निम्नांकित रूप से चीखते-चिल्लाते हुए सहसा भाग चले। ‘कौरवो! भागो, भागो, अब किसी तरह यह सेना बच नहीं सकती। पाण्डवों के लिये इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता हमें आकर मार रहे हैं।’ इस प्रकार उस समर-सागर में डूबते हुए कौरव सैनिकों के लिये सूत पुत्र कर्ण द्वीप के समान आश्रयदाता बन गया। उस घमासान युद्ध के आरम्भ होने पर जब कौरव सेना भागकर छिप गयी और सैनिकों के विभाग लुप्त हो गये, उस समय कौरव अथवा पाण्डव योद्धा पहचाने नहीं जाते थे। उस मर्यादारहित और भयंकर युद्ध में जब भगदड़ पड़ गयी, उस समय भागे हुए सैनिक सारी दिशाओं को सूनी देखते थे।

      राजन! वहाँ लोगों को एकमात्र कर्ण ही उस शस्त्र वर्षा को छाती पर झेलता हुआ दिखायी दिया। तदनन्तर राक्षस की दिव्य माया के साथ युद्ध करते हुए लज्जाशील सूत पुत्र कर्ण ने आकाश को अपने बाणों से ढक दिया और युद्ध में वह श्रेष्ठ वीरोचित दुष्कर कर्म करता हुआ भी मोह के वशीभूत नहीं हुआ। राजन! तब सिन्ध और बाल्हीक देश के योद्धा युद्धस्थल में राक्षस की विजय देखकर भी कर्ण के मोहित न होने की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसकी ओर भयभीत होकर देखने लगे। इसी समय घटोत्कच ने एक शतघ्नी छोड़ी, जिसमें पहिये लगे हुए थे। उस शतघ्नी ने कर्ण के चारों घोड़ों को एक साथ ही मार डाला। उन घोड़ों ने प्राण शून्य होकर धरती पर घुटने टेक दिये। उनके दाँत, नेत्र और जीभें बाहर निकल आयी थीं। तब कर्ण उस अश्वहीन रथ से उतरकर मन को एकाग्र करके कुछ सोचने लगा। उस समय सारे कौरव सैनिक भाग रहे थे। उसके दिव्यास्त्र भी घटोत्कच की माया से नष्ट होते जा रहे थे, तो भी वह समयोचित कर्त्तव्य का चिन्तन करता हुआ मोह में नहीं पड़ा। तत्पश्चात राक्षस की उस भयंकर माया को देखकर सभी कौरव कर्ण से इस प्रकार बोले- ‘कर्ण! तुम आज (इन्द्र की दी हुई ) शक्ति से तुरंत इस राक्षस को मार डालो, नहीं तो ये धृतराष्ट्र के पुत्र और कौरव नष्ट होते जा रहे हैं। ‘भीमसेन और अर्जुन हमारा क्या कर लेंगे। आधी रात के समय संताप देने वाले इस पापी राक्षस को मार डालो। हममें से जो भी इस भयानक संग्राम से छुटकारा पायेगा वही सेना सहित पाण्डवों के साथ युद्ध करेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 50-64 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘इसलिये तुम इन्द्र की दी हुई शक्ति से इस घोर रूपधारी राक्षस को मार डालो। कर्ण! कहीं ऐसा न हो कि ये इन्द्र के समान पराक्रमी समस्त कौरव रात्रि युद्ध में अपने योद्धाओं के साथ नष्ट हो जायँ’। राजन! निशीथकाल में राक्षस के प्रहार से घायल होते हुए कर्ण ने अपनी सेना को भयभीत देख कौरवों का महान आर्तनाद सुनकर घटोत्कच पर शक्ति छोड़ने का निश्चय कर लिया।

     क्रोध में भरे हुए सिंह के समान अत्यन्त अमर्षशील कर्ण रणभूमि में घटोत्कच द्वारा अपने अस्त्रों का प्रतिघात न सह सका। उसने उस राक्षस का वध करने की इच्छा से श्रेष्ठ एवं असहया वैजयन्ती नामक शक्ति को हाथ में लिया। राजन! जिसे उसने युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिये कितने ही वर्षों से सत्कारपूर्वक रख छोड़ा था, जिस श्रेष्ठ शक्ति को इन्द्र ने सूत पुत्र कर्ण के हाथ में उसके दोनों कुण्डलों के बदले में दिया था, जो सबको चाट जाने के लिये उद्यत हुई यमराज के जिह्वा के समान जान पड़ती थी तथा जो मृत्यु की सगी बहिन एवं जलती हुई उल्का के समान प्रतीत होती थी, उसी पाशों से युक्त, प्रज्वलित दिव्य शक्ति को सूर्य पुत्र कर्ण ने राक्षस घटोत्कच पर चला दिया। राजन! दूसरे के शरीर को विदीर्ण कर डालने वाली उस उत्तम एवं प्रज्वलित शक्ति को कर्ण के हाथ में देखकर भयभीत हुआ राक्षस घटोत्कच अपने शरीर को विन्ध्य पर्वत के समान विशाल बनाकर भागा। नरेन्द्र! कर्ण के हाथ में उस शक्ति को स्थित देख आकाश के प्राणी भय से कोलाहल करने लगे। राजन! उस समय भयंकर आँधी चलने लगी और घोर गड़गड़ाहट के साथ पृथ्वी पर वज्रपात हुआ। वह प्रज्वलित शक्ति राक्षस घटोत्कच की उस माया को भस्म करके उसके वक्षःस्थल को गहराई तक चीरकर रात्रि के समय प्रकाशित होती हुई ऊपर को चली गयी और नक्षत्रों में जाकर विलीन हो गयी। घटोत्कच का शरीर पहले से ही दिव्य नाग, मनुष्य और राक्षस सम्बन्धी नाना प्रकार के अस्त्र-समूहों द्वारा छिन्न-भिन्न हो गया था। वह विविध प्रकार से भयंकर आर्तनाद करता हुआ इन्द्र शक्ति के प्रभाव से अपने प्यारे प्राणों से वन्चित हो गया।

     राजन! मरते समय उसने शत्रुओं का संहार करने के लिये यह दूसरा विचित्र एवं आश्चर्ययुक्त कर्म किया। यद्यपि शक्ति के प्रहार से उसके मर्मस्थल विदीर्ण हो चुके थे तो भी वह अपना शरीर बढ़ाकर पर्वत और मेघ के समान लंबा-चैड़ा प्रतीत होने लगा। इस प्रकार विशाल रूप धारण करके विदीर्ण शरीर वाला राक्षस राज घटोत्कच नीचे सिर करके प्राणशून्य हो आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय उसका अंग-अंग अकड़ गया था और जीभ बाहर निकल आयी थी। महाराज! भयंकर कर्म करने वाला भीमसेन पुत्र घटोत्कच अपना वह भीषण रूप बनाकर नीचे गिरा। इस प्रकार मरकर भी उसने अपने शरीर से आपकी सेना के एक भाग को कुचलकर मार डाला। पाण्डवों का प्रिय करने वाले उस राक्षस ने प्राणशून्य हो जाने पर भी अपने बढ़ते हुए अत्यन्त विशाल शरीर से गिरकर आपकी एक अक्षौहिणी सेना को तुरंत नष्ट कर दिया। तदनन्तर सिंहनादों के साथ-साथ भेरी, शंख, नगाडे़ और आनक आदि बाजे बजने लगे। माया भस्म हुई और राक्षस मारा गया- यह देखकर हर्ष में भरे हुए कौरव सैनिक जोर-जोर से गर्जना करने लगे। तत्पश्चात जैसे वृत्रासुर का वध होने पर देवताओं ने इन्द्र का सत्कार किया था, उसी प्रकार कौरवों से पूजित होते हुए कर्ण ने आपके पुत्र के रथ पर आरूढ़ हो बड़े हर्ष के साथ अपनी उस सेना में प्रवेश किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय घटोत्‍कच का वधविषयक एक सौ उन्‍यासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ अस्सीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“घटोत्कच के वध से पाण्डवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता और उसका कारण”

    संजय कहते हैं ;- राजन! जैसे पर्वत ढह गया हो, उसी प्रकार हिडिम्बाकुमार घटोत्कच को कर्ण द्वारा मारा गया देख समस्त पाण्डवों के नेत्रों में शोक के आँसू भर आये। परंतु वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण बड़े हर्ष में मग्न होकर सिंहनाद करने लगे। उन्होंने अर्जुन को छाती से लगा लिया। वे बड़े जोर से गर्जना करके घोड़ों की रास रोककर हवा के हिलाये हुए वृक्ष के समान हर्ष से झूमकर नाचने लगे। तत्पश्चात पुनः अर्जुन को हृदय से लगाकर बारंबार उनकी पीठ ठोंक कर रथ के पिछले भाग में बैठे हुए बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण फिर जोर-जोर से गर्जना करने लगे।

     राजन! भगवान श्रीकृष्ण के मन में अधिक प्रसन्नता हुई जानकर महाबली अर्जुन कुछ अप्रसन्न से होकर बोले,

    अर्जुन बोले ;- ‘मधुसूदन! हिडिम्बाकुमार घटोत्कच के वध से आज हमारे लिये तो शोक का अवसर प्राप्त हुआ है, परंतु आपको यह बेमौके अधिक हर्ष हो रहा है। ‘घटोत्कच को मारा गया देख हमारी सेनाएँ यहाँ युद्ध से विमुख होकर भागी जा रही हैं। हिडिम्बाकुमार के धराशायी होने से हम लोग भी अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। ‘परंतु जनार्दन! आपको जो इतनी खुशी हो रही है उसका कोई छोटा-मोटा कारण न होगा। वही मैं आपसे पूछता हूँ। सत्य वक्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! आप इसका मुझे यथार्थ कारण बताइये। ‘शत्रुदमन! यदि कोई गोपनीय बात न हो तो मुझे अवश्य बतावें। मधुसूदन! आपके इस हर्ष प्रदर्शन से आज हमारा धैर्य छूटा जा रहा है, अतः आप इसका कारण अवश्य बतावें। ‘जनार्दन! जैसे समुद्र का सूखना और मेरु पर्वत का विचलित होना आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार आज मैं आपे इस हर्ष प्रकाशनरूपी कर्म को आश्चर्यजनक मानता हूँ’।

      भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- धनंजय! आज वास्तव में मुझे वह अत्यन्त हर्ष का अवसर प्राप्त हुआ है, इसका क्या कारण है, यह तुम मुझसे सुनो। मेरे मन को तत्काल अत्यन्त प्रसन्नता प्रदान करने वाला वह उत्तम कारण इस प्रकार है। महातेजस्वी धनंजय! इन्द्र की दी हुई शक्ति को घटोत्कच के द्वारा कर्ण के हाथ से दूर कराकर अब तुम युद्ध में कर्ण को शीघ्र मरा हुआ ही समझो। इस संसार में कौन ऐसा पुरुष है, जो युद्धस्थल में कार्तिकेय के समान शक्तिशाली कर्ण के सामने खड़ा हो सके। सौभाग्य की बात है कि कर्ण का दिव्य कवच उतर गया, सौभाग्य से ही उसके कुण्डल छीने गये तथा सौभाग्य से ही उसकी वह अमोषशक्ति घटोत्कच पर गिरकर उसके हाथ से निकल गयी। यदि कर्ण कवच और कुण्डलों से सम्पन्न होता तो वह अकेला ही रणभूमि में देवताओं सहित तीनों लोकों को जीत सकता था। उस अवस्था में इन्द्र, कुबेर, जलेश्वर वरुण अथवा यमराज भी रणभूमि में कर्ण का सामना नहीं कर सकते थे। तुम गाण्डीव उठाकर और मैं सुदर्शन चक्र लेकर दोनों एक साथ जाते तो भी समरागंण में कवच-कुण्डलों से युक्त नरश्रेष्ठ कर्ण को नहीं जीत सकते थे। तुम्हारे हित के लिये इन्द्र ने शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले कर्ण के दोनों कुण्डल माया से हर लिये और उसे कवच से भी वन्चित कर दिया। कर्ण ने कवच तथा उन निर्मल कुण्डलों को स्वयं ही अपने शरीर से कुतरकर इन्द्र को दे दिया था, इसीलिये उसका नाम वैकर्तन हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)

      जैसे क्रोध में भरे हुए सर्प को मन्त्र के तेज से स्तब्ध कर दिया जाय तथा प्रज्वलित आग की ज्वाला को बुझा दिया जाय, शक्ति से वन्चित हुआ कर्ण भी आज मुझे वैसा ही प्रतीत होता है। महाबाहो! जब से महात्मा इन्द्र ने कर्ण को उसके दिव्य कवच और कुण्डलों के बदले में अपनी शक्ति दी थी, जिसे उसने घटोत्कच पर चला दिया है, उस शक्ति को पाकर धर्मात्मा कर्ण सदा तुम्हें रणभूमि में मारा गया ही मानता था।। पुरुषसिंह! आज ऐसी अवस्था में आकर भी कर्ण तुम्हारे सिवा किसी दूसरे योद्धा से नहीं मारा जा सकता। अनघ! मैं सत्य की शपथ खाकर यह बात कहता हूँ। कर्ण ब्राह्मण भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, नियम और व्रत का पालक तथा शत्रुओं पर भी दया करने वाला है, इसीलिये उसे वृष (धर्मात्मा) कहा गया है। महाबाहु कर्ण युद्ध में कुशल है। उसका धनुष सदा उठा ही रहता है। वन में दहाड़ने वाले सिंह के समान वह सदा गर्जता रहता है। जैसे मतवाला हाथी कितने ही यूथपतियों को मदरहित कर देता है, उसी प्रकार कर्ण युद्ध के मुहाने पर सिंह के समान पराक्रमी महारथियों का भी घमंड चूर कर देता है।

      पुरुषसिंह! तुम्हारे महामनस्वी श्रेष्ठ योद्धा दोपहर के तपते हुए सूर्य की भाँति कर्ण की ओर देख भी नहीं सकते। जैसे शरद ऋतु के निर्मल आकाश में सूर्य अपनी सहस्रों किरणें बिखेरता है, उसी प्रकार कर्ण युद्ध में अपने बाणों का जाल सा बिछा देता है। जैसे वर्षाकाल में बरसने वाला मेघ पानी की धारा गिराता है, उसी प्रकार दिव्यास्त्ररूपी जल प्रदान करने वाला कर्णरूपी मेघ बारंबार बाणधारा की वर्षा करता रहता है। चारों ओर बाणों की वृष्टि करके शत्रुओं के शरीरों से रक्त और मांस बहाने वाले देवता भी कर्ण को परास्त नहीं कर सकते। पाण्डुनन्दन! कर्ण कवच और कुण्डल से हीन तथा इन्द्र की दी हुई शक्ति से शून्य होकर अब साधारण मनुष्य के समान हो गया है। इतने पर भी इसके वध का एक ही उपाय है। कोई छिद्र प्राप्त होने पर जब वह असावधान हो, तुम्हारे साथ युद्ध होते समय जब कर्ण के रथ का पहिया (शापवश) धरती में धँस जाय और वह संकट में पड़ जाय, उस समय तुम पूर्ण सावधान हो मेरे संकेत पर ध्यान देकर उसे पहले ही मार डालना। अन्यथा जब वह युद्ध के लिये अस्त्र उठा लेगा, उस समय उस अजेय वीर कर्ण को त्रिलोकी के एकमात्र शूरवीर वज्रधारी इन्द्र भी नहीं मार सकेंगे। मगधराज जरासंघ, महामनस्वी चेदिराज शिशुपाल और निषादजातीय महाबाहु एकलव्य- इन सबको मैंने ही तुम्हारे हित के लिये विभिन्न् उपायों द्वारा एक-एक करके मार डाला है। इनके सिवा हिडिम्ब, किर्मीर और बक आदि दूसरे-दूसरे राक्षसराज, शत्रुदल का संहार करने वाला अलायुध और भयंकर कर्म करने वाला वेगशाली घटोत्कच भी तुम्हारे हित के लिये ही मारे और मरवाये गये हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय घटोत्‍कच का वध होने पर श्रीकृष्‍ण का हर्षविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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