सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्यकि से दुर्योधन की, अर्जुन से शकुनि और उलूक की तथा धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! तत्पश्चात वे समस्त रणदुर्मद योद्धा बड़ी उतावली के साथ अमर्ष और क्रोध में भरकर युयुधान के रथ की ओर दौडे़। नरेश्वर! उन्होंने सोने-चाँदी से विभूषित एवं सुसज्जित रथों, घुड़सवारों और हाथियों के द्वारा चारों ओर से सात्यकि को घेर लिया। इस प्रकार सब ओर से सात्यकि को कोष्ठबद्ध सा करके वे महारथी योद्धा सिंहनाद करने और उन्हें डाँट बताने लगे। इतना ही नहीं, मधुवंशी सात्यकि का वध करने की इच्छा से उतावले हो वे महावीर सैनिक उन सत्यपराक्रमी सात्यकि पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबाहु शिनिपौत्र सात्यकि ने उन लोगों को अपने पर धावा करते देख स्वयं भी तुरंत ही बहुत से बाणों का प्रहार करते हुए उनका स्वागत किया। वहाँ महाधनुर्धर रणदुर्मद वीर सात्यकि ने झुकी हुई गाँठ वाले भयंकर बाणों द्वारा बहुतेरे शत्रु-योद्धाओं के मस्तक काट डाले। उन मधुवंशी वीर ने आपकी सेना के हाथियों के शुण्डदण्डों, घोड़ों की गर्दनों तथा योद्धाओं की आयुधों सहित भुजाओं को भी क्षुरप्रों द्वारा काट डाला। भरतनन्दन! प्रभो! वहाँ गिरे हुए चामरों और श्वेत छत्रों से भरी हुई भूमि नक्षत्रों से युक्त आकाश के समान जान पड़ती थी।
भारत! युद्धस्थल में युयुधान के साथ जूझते हुए इन योद्धाओं का भयंकर आर्तनाद प्रेतों के करूण-क्रन्दन सा प्रतीत होता था। उस महान कोलाहल से भरी हुई वह रणभूमि और रात्रि अत्यन्त उग्र एवं भयंकर जान पड़ती थी। राजन! युयुधान के बाणों से आहत हुई अपनी सेना में भगदड़ पड़ी देख और उस रोमान्चकारी निशीथकाल में वह महान कोलाहल सुनकर रथियों में श्रेष्ठ आपके पुत्र दुर्योधन ने अपने सारथि से बारंबार कहा- ‘जहाँ यह कोलाहल हो रहा है, वहाँ मेरे घोड़ों को हाँक ले चलो’। उसका आदेश पाकर सारथि ने उन श्रेष्ठ घोड़ों को सात्यकि के रथ की ओर हाँक दिया। तदनन्तर दृढ़ धनुर्धर, श्रमविजयी, शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले और विचित्र रीति से युद्ध करने वाले दुर्योधन ने क्रोध में भरकर सात्यकि पर धावा किया। तब मधुवंशी युयुधान ने धनुष को पूर्णतः खींचकर छोडे़ गये बारह रक्तभोजी बाणों द्वारा दुर्योधन को घायल कर दिया। सात्यकि ने जब पहले ही अपने बाणों से दुर्योधन को पीड़ित कर दिया, तब उसने भी अमर्ष में भरकर उन्हें दस बाण मारे।
भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर समस्त पाञ्चालों और भरतवंशियों का वहाँ भयंकर युद्ध होने लगा। भारत! रणभूमि में कुपित हुए सात्यकि ने आपके महारथी पुत्र की छाती में असी सायकों द्वारा प्रहार किया। फिर समरागंण में अपने बाणों द्वारा घायल करके उसके घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया और एक पंखयुक्त बाण से मारकर उसके सारथि को भी तुरंत ही रथ से नीचे गिरा दिया। प्रजानाथ! तब आपका पुत्र उस अश्वहीन रथ पर खड़ा हो सात्यकि के रथ की ओर पैने बाण छोड़ने लगा। राजन! परंतु आपके पुत्र द्वारा छोड़े गये पचास बाणों को समरागंण में सात्यकि ने एक सिद्धहस्त योद्धा की भाँति काट डाला। तत्पश्चात उन मधुवंशी वीर ने एक दूसरे भल्ल से युद्धभूमि में आपके पुत्र के विशाल धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से वेगपूर्वक काट दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद)
प्रजानाथ! उस आधी रात के समय दुर्योधन के परांमुख हो जाने पर सात्यकि ने आपकी सेना को अपने बाणों द्वारा खदेड़ना आरम्भ किया। राजन! उधर शकुनि ने कई हजार रथों, सहस्रों हाथियों और सहस्रों घोड़ों द्वारा अर्जुन को चारों ओर से घेरकर उन पर नाना प्रकार के शस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। वे कालप्रेरित क्षत्रिय अर्जुन पर बड़े-बड़े अस्त्रों की वर्षा करते हुए उनके साथ युद्ध करने लगे। यद्यपि अर्जुन कौरव सेना का महान संहार करते-करते थक गये थे, तो भी उन्होंने उन सहस्रों रथों, हाथियों और घुड़सवारों की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। उस समय समरभूमि में सुबलकुमार शूरवीर शकुनि ने हँसते हुए से तीखे बाणों द्वारा अर्जुन को बींध डाला। फिर सौ बाण मारकर उनके विशाल रथ को अवरुद्ध कर दिया।
भारत! उस युद्ध के मैदान में अर्जुन ने शकुनि को बीस बाण मारे और अन्य महाधनुर्धरों को तीन-तीन बाणां से घायल कर दिया। राजन! युद्धस्थल में अर्जुन ने अपने बाण-समूहों द्वारा आपके उन योद्धाओं को रोककर जैसे वज्रपाणि इन्द्र असुरों का संहार करते हैं, उसी प्रकार उन सबका वध कर डाला। भूपाल! हाथी की सूँड़ के समान मोटी एवं कटी हुई भुजाओं से आच्छादित हुई वह रणभूमि पाँ मुँहवाले सर्पों से ढकी हुई सी जान पड़ती थी। जिन पर किरीट शोभादेता था, जो सुन्दर नासिका और मनोहर कुण्डलों से विभूषित थे, जिन्होंने क्रोधपूर्वक अपने ओठों को दाँतों से दबा रखा था, जिनकी आँखें बाहर निकल आयी थीं तथा जो निष्क एवं चूड़ामणि धारण करते और प्रिय वचन बोलते थे, क्षत्रियोंके वे मस्तक वहाँ कटकर गिरे हुए थे। उनके द्वारा रणभूमि की वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो वहाँ कमल बिछा दिये गये हो।
भयंकर पराक्रमी अर्जुन ने वह वीरोचित कर्म करके झुकी हुई गाँठ वाले पाँच बाणों द्वारा पुनः शकुनि को घायल किया। साथ ही तीन बाणों से उलूक को भी व्यथित कर दिया। इस प्रकार घायल होने पर उलूक ने भगवान श्रीकृष्ण पर प्रहार किया और पृथ्वी को गुँजाते हुए से बड़े जोर से गर्जना की। उस समय अर्जुन ने रणभूमि में अपने बाणों द्वारा शकुनि का धनुष काट दिया और उसके चारों घोड़ों को भी यमलोक भेज दिया। प्रजापालक भरतश्रेष्ठ! तब सुबलपुत्र शकुनि अपने रथ से कूदकर तुरंत ही उलूक के रथ पर जा चढ़ा। एक रथ पर आरूढ़ हुए पिता और पुत्र दोनों महारथियेां ने अर्जुन पर उसी प्रकार बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, जैसे दो मेघखण्ड अपने जल से किसी पर्वत को सींच रहे हों।महाराज! परंतु पाण्डुनन्दन अर्जुन ने उन दोनों को तीखे बाणों से घायल करके आपकी सेना को भगाते हुए उसे सैकड़ों बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया।
प्रजापालक नरेश! जैसे हवा बादलों को चारों ओर उड़ा देती है, उसी प्रकार अर्जुन ने आपकी सेनाओं को छिन्न-भिन्न कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उस समय रात्रि में अर्जुन द्वारा मारी जाती हुई आपकी सेना भय से पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखती हुई भाग चली। कुछ लोग अपने वाहनों को समरागंण में ही छोड़कर भाग चले। दूसरे लोग उन्हें तेजी से हाँकते हुए भाग और कितने ही सैनिक भ्रान्त होकर उस दारुण अन्धकार में चारों ओर चक्कर काटते रहे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-54 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! रणभूमि में आपके योद्धाओं को जीतकर प्रसन्नता से भरे हुए भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपना-अपना शंख बजाने लगे। महाराज! उधर धृष्टद्युम्न ने तीन बाणों से द्रोणाचार्य को बींधकर तुरंत ही तीखे बाण से उनके धनुष की प्रत्यन्चा काट डाली। तब क्षत्रियमर्दन शूरवीर द्रोणाचार्य ने उस धनुष को भूमि पर रखकर दूसरा अत्यन्त प्रबल और वेगशाली धनुष हाथ में लिया। राजन! तत्पश्चात द्रोण ने युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न को सात बाणों से बींधकर उनके सारथि को पाँच बाणों से घायल कर दिया। महारथी धृष्टद्युम्न ने तुरंत ही अपने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को रोककर कौरव सेना का उसी प्रकार विनाश आरम्भ किया, जैसे इन्द्र आसुरी सेना का संहार करते हैं।
माननीय नरेश! इस प्रकार जब आपके पुत्र की उस सेना का वध होने लगा, तब वहाँ रक्तराशि के प्रवाह से तरंगित होने वाली एक भयंकर नदी बह चली। राजन! दोनों सेनाओं के बीच में बहने वाली वह नदी मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को भी बहाये लिये जाती थी, मानो वैतरणी नदी यमराजपुरी की ओर जा रही हो। उस सेना को भगाकर प्रतापी धृष्टद्युम्न देवताओं के समूह में तेजस्वी इन्द्र के समान सुशोभित होने लगे। तदनन्तर धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, नकुल, सहदेव, सात्यकि तथा पाण्डुपुत्र भीमसेन ने भी अपने महान शंख को बजाया। प्रजानाथ! विजय से उल्लसित होने वाले रणोन्मत्त पाण्डव महारथी आपके पुत्र दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य तथा शूरवीर अश्वत्थामा के देखते-देखते आपकी सेना के सहस्रों रथियों को परास्त करके सिंहनाद करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंगमें संकुल युद्ध विषयक एक सौ एकहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ बहोत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध, पाण्डव सेना का पलायन, भीमसेन का सेना को लौटाकर लाना और अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण करना”
संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! अपनी सेना को उन महामनस्वी वीरों की मार खाकर भागती देख आपके पुत्र दुर्योधन को महान क्रोध हुआ। बातचीत की कला जानने वाले दुर्योधन ने सहसा विजयी वीरों में श्रेष्ठ कर्ण और द्रोणाचार्य के पास जाकर अमर्ष के वशीभूत हो इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;-- सव्यसाची अर्जुन के द्वारा युद्धस्थल में सिंधुराज जयद्रथ को मारा गया देख क्रोध में भरे हुए आप दोनों वीरों ने यहाँ रात के समय इस युद्ध को जारी रखा था। ‘परंतु इस समय पांडव सेना द्वारा मेरी विशाल वाहिनी का विनाश हो रहा है और आप लोग उसे जीतने में समर्थ होकर भी असमर्थ की भाँति देख रहे हैं। ‘दूसरों को मान देने वाले वीरो! यदि आप लोग मुझे त्याग देना ही उचित समझते थे तो आपको उसी समय मुझसे यह नहीं कहना चाहिये था कि ‘हम लोग पाण्डवों को युद्ध में जीत लेंगे’। ‘उसी समय आप लोगों की सम्मति सुनकर मैं कुन्ती पुत्रों के साथ यह वैर नहीं करता, जो सम्पूर्ण योद्धाओं के लिये विनाशकारी हो रहा है। ‘अत्यन्त पराक्रमी पुरुषप्रवर वीरो! यदि आप मुझे त्याग देना न चाहते हों तो अपने अनुरूप पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये’।
इस प्रकार जब आपके पुत्र ने अपने वचनों की चाबुक से उन दोनों वीरों को पीड़ित किया, तब उन्होंने कुचले हुए सर्पों की भाँति कुपित हो पुनः घोर युद्ध आरम्भ किया। सम्पूर्ण लोक में विख्यात धनुर्धर, रथियों में श्रेष्ठ उन द्रोणाचार्य और कर्ण ने रणभूमि में पुनः सात्यकि आदि पाण्डव महारथियों पर धावा किया। इसी प्रकार सम्पूर्ण सेनाओं के साथ संगठित होकर आये हुए कुन्ती के पुत्र भी बारंबार गर्जने वाले उन दोनों वीरों का सामना करने लगे। तदनन्तर सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने कुपित होकर तुरंत ही दस बाणों से शिनिप्रवर सात्यकि को बींध डाला। फिर कर्ण ने दस, आपके पुत्र ने सात, वृषसेन ने दस और शकुनि ने भी सात बाण मारे। कुरुराज! इन वीरों ने युद्ध में शिनिपौत्र सात्यकि पर चारों ओर से बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
समरागंण में द्रोणाचार्य को पाण्डव सेना का संहार करते देख सोमकों ने चारों ओर से बाणों की वर्षा करके उन्हें तुरंत घायल कर दिया। प्रजापालक नरेश! जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा चारों ओर के अन्धकार को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य वहाँ क्षत्रियों के प्राण लेने लगे। प्रजानाथ! द्रोणाचार्य की मार खाकर परस्पर चीखते-चिल्लाते हुए पांचालों का घोर आर्तनाद सुनायी देने लगा। कोई पुत्रों को, कोई पिताओं को, कोई भाइयों को, कोई मामा, भानजों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बान्धवों को छोड़-छोड़कर अपनी जान बचाने के लिये तुरंत ही भाग चले। कुछ पाण्डव सैनिक रणभूमि में मोहित होकर मोहवश पुनः द्रोणाचार्य के ही सामने चले गये और मारे गये। बहुत से सैनिक परलोक सिधार गये राजन! महामना द्रोणाचार्य से इस प्रकार पीड़ित हुई पाण्डव सेना उस रात के समय सहस्रों मशालें फेंक-फेंककर भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठिर और धृष्टद्युम्न के सामने ही उन्हें देखते-देखते भाग रही थी। उस समय पाण्डव दल अन्धकार से आच्छन्न हो गया था। किसी को कुछ जान नहीं पड़ता था। कौरव दल में जो प्रकाश हो रहा था, उसी से कुछ भागते हुए सैनिक दिखायी देते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! महारथी द्रोणाचार्य और कर्ण बहुत से बाणों की वर्षा करते हुए उस भागती हुई पाण्डव सेना को पीछे से मार रहे थे। जब पांचाल योद्धा सब ओर से नष्ट होने और भागने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने दीनचित्त होकर अर्जुन से इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘कुन्तीनन्दन! द्रोणाचार्य और कर्ण इन दोनों महाधनुर्धरों ने एक साथ होकर धृष्टद्युम्न, सात्यकि और पांचालों को अपने बाणों द्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। ‘पार्थ! इन दोनों की बाण वर्षा से हमारे महारथियों के पाँव उखड़ गये हैं। हमारी सेना रोकने पर भी रुक नहीं रही है’। अपनी सेना को भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उससे कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘पाण्डव वीरो! भयभीत होकर भागो मत। भय छोड़ो। ‘हम दोनों अस्त्र-शस्त्रों से भली-भाँति सुसज्जित सम्पूर्ण सेनाओं का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य और सूत पुत्र कर्ण को बाधा देने का प्रयन्त कर रहे हैं। ‘ये दोनों द्रोण और कर्ण बलवान, शूरवीर, अस्त्रवेत्ता तथा विजयश्री से सुशोभित हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गयी तो ये इसी रात में तुम लोगों की सारी सेना का विनाश कर डालेंगे’। वे दोनों इस प्रकार अपने सैनिकों से बातें कर ही रहे थे कि भयंकर कर्म करने वाले महाबली भीमसेन पुनः अपनी सेना को लौटाकर शीघ्र वहाँ आ पहुँचे।
राजन! भीमसेन को वहाँ आते देख भगवान श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन का हर्ष बढ़ाते हुए से पुनः इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘ये युद्ध की स्पृहा रखने वाले भीमसेन सोमक और पाण्डव योद्धाओं से घिरकर महारथी द्रोण और कर्ण का सामना करने के लिये बड़े वेग से आ रहे हैं। ‘पाण्डुनन्दन! इनके और पांचाल महारथियों के साथ रहकर तुम अपनी सारी सेनाओं को सान्त्वना देने के लिये यहाँ युद्ध करो’। तदनन्तर वे दोनों पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध के मुहाने पर द्रोणाचार्य और कर्ण के सामने जाकर खडे़ हो गये।
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर युधिष्ठिर की वह विशाल सेना पुनः लौट आयी। तत्पश्चात द्रोणाचार्य और कर्ण युद्ध के मैदान में शत्रुओं को रौंदने लगे। राजन! उस रात्रि में चन्द्रोदय काल में उमडे़ हुए दो महासागरों के सदृश उन दोनों दलों का वह महान संग्राम अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। तदनन्तर आपकी सेना अपने हाथों से मशालें फेंककर उन्मत्त के समान असंकुल भाव से पाण्डव सैनिकों के साथ युद्ध करने लगी। धूल और अंधकार से छाये हुए उस अत्यन्त भयंकर संग्राम में विजयाभिलाषी योद्धा केवल नाम और गोत्र का परिचय पाकर युद्ध करते थे। महाराज! स्वयंवर की भाँति उस युद्धस्थल में भी प्रहार करने वाले नरेशों द्वारा सुनाये जाते हुए नाम श्रवण गोचर हो रहे थे। क्रोध में भरकर युद्ध करते हुए पराजित एवं विजयी होने वाले योद्धाओं का शब्द वहाँ सहसा बंद होकर कभी सन्नाटा छा जाता था और कभी पुनः महान कोलाहल होने लगता था। कुरुश्रेष्ठ! जहाँ-जहाँ मशालें दिखायी देती थीं, वहाँ-वहाँ शूरवीर सैनिक पतंगों की तरह टूट पड़ते थे। राजेन्द्र! इस प्रकार युद्ध में लगे हुए पाण्डवों और कौरवों की वह महारात्रि सर्वथा प्रगाढ़ हो चली।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर सुकुलयुद्ध विषयक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ तिहोत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय, युधिष्ठिर की घबराहट तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को प्रोत्साहन देकर कर्ण के साथ युद्ध के लिये भेजना”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले कर्ण ने रणभूमि में धृष्टद्युम्न को उपस्थित देख उनकी छाती में दस मर्मभेदी बाण मारे। माननीय नरेश! तब धृष्टद्युम्न ने भी हर्ष और उत्साह में भरकर दस बाणों द्वारा तुरंत ही कर्ण को घायल करके बदला चुकाया और कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। वे दोनों विशाल रथ पर आरूढ़ हो युद्धस्थल में एक दूसरे को अपने बाणों द्वारा आच्छादित करके पुनः धनुष को पूर्णरूप से खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा परस्पर आघात-प्रत्याघात करने लगे। तत्पश्चात रणभूमि में कर्ण ने अपने बाणों द्वारा पांचाल देश के प्रमुख वीर धृष्टद्युम्न के सारथि और चारों घोड़ों को घायल कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपने तीखे बाणों से धृष्टद्युम्न के श्रेष्ठ धनुष को भी काट दिया और एक भल्ल मारकर उनके सारथि को भी रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। घोड़े और सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए धृष्टद्युम्न ने एक भयंकर परिघ उठाकर उसके द्वारा कर्ण के घोड़ों को पीस डाला। उस समय कर्ण ने विषधर सर्प के समान भयंकर एवं बहुसंख्यक बाणों द्वारा उन्हें क्षत-विक्षत कर दिया।
फिर कर्ण युधिष्ठिर की सेना में पैदल ही चले गये। आर्य! वहाँ धृष्टद्युम्न सहदेव के रथ पर जा चढे़ और पुनः कर्ण का सामना करने के लिये जाने को उद्यत हुए, किन्तु धर्म पुत्र युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। उधर महातेजस्वी कर्ण ने सिंहनाद के साथ-साथ अपने धनुष की महती टंकार ध्वनि फैलायी और उच्च स्वर से शंख बजाया। युद्ध में धृष्टद्युम्न को परास्त हुआ देख अमर्ष में भरे हुए वे पांचाल और सोमक महारथी सूतपुत्र कर्ण के वध के लिये सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्त होने की अवधि निश्चित करके उसकी ओर चल दिये। उधर कर्ण के रथ में भी उसके सारथि ने दूसरे घोड़े जोत दिये। वे सिंधी घोड़े अच्छी तरह सवारी का काम देते थे। उनका रंग शंख के समान सफेद था और वे बड़े वेगशाली थे।
राधा पुत्र कर्ण का निशाना कभी चूकता नहीं था। जैसे मेघ किसी पर्वत पर जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार वह प्रयत्नपूर्वक बाणों की वर्षा करके पांचाल महारथियों को पीड़ा देने लगा। कर्ण के द्वारा पीड़ित होने वाली पाञ्चालों की वह विशाल वाहिनी सिंह से सतायी गयी हरिणी की भाँति अत्यन्त भयभीत होकर वेगपूर्वक भागने लगी। कितने ही मनुष्य वहाँ इधर-उधर घोड़ों, हाथियों और रथों से तुरंत ही गिरकर धराशायी हुए दिखायी देने लगे।। कर्ण उस महासमर में अपने क्षुरप्रों द्वारा भागते हुए योद्धा की दोनों भुजाओं तथा कुण्डल मण्डित मस्तक को भी काट डाला था। माननीय प्रजानाथ! दूसरे योद्धा जो हाथियों पर बैठे थे, घोड़ों की पीठ पर सवार थे और पृथ्वी पर पैदल चलते थे, उनकी भी जाँघें कर्ण ने काट डाली। भागते हुए बहुत से महारथी उस युद्धस्थल में अपने कटे हुए अंगों और वाहनों को नहीं जान पाते थे। समरागंण में मारे जाते हुए पांचाल और सृंजय एक तिनके के हिल जाने से भी सूत पुत्र कर्ण को ही आया हुआ मानने लगते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)
उस रणभूमि में अचेत होकर भागते हुए अपने योद्धा को भी वे कर्ण ही समझ लेते और उसी से डरकर भागने लगते थे। भारत! कर्ण से भयभीत होकर भागते हुए सैनिकों के पीछे बाणों की वर्षा करता हुआ कर्ण बड़े वेग से धावा करता था। महामनस्वी कर्ण के द्वारा काल के गाल में भेजे जाते हुए मोहित एवं अचेत पांचाल सैनिक एक दूसरे की ओर देखते हुए कहीं भी ठहर न सके। राजन! कर्ण और द्रोणाचार्य के चलाये हुए उत्तम बाणों से घायल होकर पांचाल सैनिक सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए भाग रहे थे। उस समय राजा युधिष्ठिर ने अपनी सेना को भागती देख स्वयं भी युद्धभूमि से हट जाने का विचार करके अर्जुन से इस प्रकार कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘पार्थ! महाधनुर्धर कर्ण को देखो, वह हाथ में धनुष लिये खड़ा है और इस भयंकर आधी रात के समय सूर्य के समान तप रहा है ‘अर्जुन! कर्ण के बाणों से घायल होकर अनाथ के समान चीखते-चिल्लाते हुए तुम्हारे सहायक बन्धुओं का यह आर्तनाद निरन्तर सुनायी दे रहा है। ‘कर्ण कब बाणों को धनुष पर रखता है और कब उन्हें छोड़ता है, इसमें तनिक भी अन्तर मुझे नहीं दिखायी देता है। इससे जान पड़ता है यह निश्चय ही हमारी सारी सेना का संहार कर डालेगा। ‘धनंजय! अब यहाँ कर्ण के वध के सम्बन्ध में तुम्हें जो समयोचित कर्त्तव्य दिखायी देता हो, उसे करो’।
महाराज! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से बोले,
अर्जुन बोले ;- ‘प्रभो! आज कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर राधा पुत्र कर्ण के पराक्रम से भयभीत हो गये हैं। ‘ऐसी अवस्था में कर्ण की सेना के पास हमारा जो समयोचित कर्त्तव्य हो, उसका आप शीघ्र निश्चय करें, क्योंकि हमारी सेना बारंबार भाग रही है। ‘मधुसूदन! द्रोणाचार्य के बाणों से घायल और कर्ण से भयभीत होकर भागते हुए हमारे सैनिक कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं। ‘मैं देखता हूँ, कर्ण निर्भय सा विचर रहा है और भागते हुए श्रेष्ठ रथियों पर भी पीछे से तीखे बाणों की वर्षा कर रहा है। ‘वृष्णि सिंह! जैसे सर्प किसी के चरणों का स्पर्श नहीं सह सकता, उसी प्रकार मैं युद्ध के मुहानों पर अपनी आँखों के सामने कर्ण का इस प्रकार विचरना नहीं सह सकूँगा। ‘मधुसूदन! अतः आप शीघ्र वहीं चलिये, जहाँ महारथी कर्ण है। आज मैं इसे मार डालूँगा या यह मुझे मार डालेगा’।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- कुन्तीनन्दन! आज युद्धस्थल में मैं पुरुषसिंह कर्ण को देवराज इन्द्र के समान अमानुषिक पराक्रम प्रकट करते और विचरते देख रहा हूँ। पुरुषसिंह धनंजय! संग्रामभूमि में तुम्हें अथवा राक्षस घटोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो इसका सामना कर सके। निष्पाप महाबाहु अर्जुन! इस समय रणक्षेत्र में सूतपुत्र के साथ तुम्हारा युद्ध करना मैं उचित नहीं मानता। क्योंकि उसके पास इन्द्र की दी हुई शक्ति है, जो प्रज्वलित उल्का के समान प्रकाशित होती है। महाबाहो! सूत पुत्र ने युद्धस्थल में तुम्हारे ऊपर प्रयोग करने के लिये ही इस शक्ति को सुरक्षित रखा है, यह बड़ा भयंकर रूप धारण करती है। अतः मेरी राय में इस समय महाबली घटोत्कच ही राधा पुत्र कर्ण का सामना करने के लिये जाय, क्योंकि वह बलवान भीमसेन का बेटा है, देवताओं के समान पराक्रमी है तथा उसके पास राक्षस-सम्बन्धी एवं असुर-सम्बन्धी सभी प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं। घटोत्कच तुम लोगों का हितैषी है और सदा तुम्हारे प्रति अनुराग रखता है। वह रणभूमि में कर्ण को जीत लेगा, इसमें मुझे संशय नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर महाबाहु कमल नयन कुन्तीकुमार ने राक्षस घटोत्कच का आवाहन किया और वह तत्काल उनके सामने प्रकट हो गया। प्रजानाथ! उसने कवच, धनुष, बाण और खड्ग धारण कर रखे थे। वह श्रीकृष्ण और पाण्डु पुत्र धनंजय को प्रणाम करके उस समय भगवान श्रीकृष्ण से बोला,
घटोत्कच बोला ;- ‘प्रभो! यहा मैं सेवा में उपस्थित हूँ। मुझे आज्ञा दीजिये, क्या करूँ’। तदनन्तर प्रज्वलित मुख और प्रकाशित कुण्डलों वाले मेघ के समान काले हिडिम्बाकुमार घटोत्कच से भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए से कहा।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- बेटा घटोत्कच! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनो और समझो। यह तुम्हारे लिये ही पराक्रम दिखाने का अवसर आया है, दूसरे किसी के लिये नहीं। तुम्हारे ये बन्धु संकट के समुद्र में डूब रहे हैं, तुम इनके लिये जहाज बन जाओ। तुम्हारे पास नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं और तुम में राक्षसी माया का भी बल है। हिडिम्बानन्दन! देखो, जैसे चरवाहा गायों को हाँकता है, उसी प्रकार युद्ध के मुहाने पर खड़ा हुआ कर्ण पाण्डवों की इस विशाल सेना को खदेड़ रहा है। यह कर्ण महाधनुर्धर, बुद्धिमान और दृढ़तापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाला है। यह पाण्डवों की सेनाओं में जो श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर है, उनका विनाश कर रहा है। इसके बाणों की आग से संतप्त हो बाणों की बड़ी भारी वर्षा करने वाले सुदृढ़ धनुर्धर वीर भी युद्धभूमि में ठहर नहीं पाते हैं। देखो, जैसे सिंह से पीड़ित हुए मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस आधी रात के समय सूत पुत्र के द्वारा की हुई बाण वर्षा से व्यथित हो ये पांचाल सैनिक भागे जा रहे हैं।
भयंकर पराक्रमी वीर! इस युद्धथल में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा योद्धा नहीं है, जो इस प्रकार आगे बढ़ने वाले सूत पुत्र कर्ण को रोक सके। महाबाहो! इसलिये तुम अपने पिता, मामा, से तेज, अस्त्रबल में तथा अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप युद्ध में पराक्रम करो।। हिडिम्बाकुमार! मनुष्य इसीलिये पुत्र की इच्छा करते है कि वह किसी प्रकार हमें दुःख से छुड़ायेगा, अतः तुम अपने बन्धु-बान्धवों को उबारो। घटोत्कच! प्रत्येक पिता अपने इसी स्वार्थ के लिये पुत्रो की इच्छा करता है कि वे पुत्र मेरे हितैषी होकर मुझे इस लोक से परलोक में तार देंगे। भीमनन्दन! संग्राम भूमि में युद्ध करते समय सदा तुम्हारा भयंकर बल बढ़ता है और तुम्हारी मायाएँ दुस्तर होती हैं।। परंतप! रात के समय कर्ण के बाणों से क्षत-विक्षत होकर पाण्डव सैनिकों के पाँव उखड़ गये हैं और वे कौरव सेनारूपी समुद्र में डूब रहे हैं। तुम उनके लिये तटभूमि बन जाओ।। रात्रि के समय राक्षसों का अनन्त पराक्रम और भी बढ़ जाता है। वे बलवान, परम दुर्धर्ष, शूरवीर और पराक्रम पूर्वक विचरने वाले होते हैं। तुम आधी रात के समय अपनी माया द्वारा रणभूमि में महाधनुर्धर कर्ण को मार डालो और धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव सैनिक द्रोणाचार्य का वध करेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-67 का हिन्दी अनुवाद)
संजय कहते हैं ;- कुरुराज! भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर अर्जुन ने भी शत्रुओं का दमन करने वाले राक्षस घटोत्कच से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘घटोत्कच! मेरी सम्पूर्ण सेनाओं में तीन ही वीर श्रेष्ठ माने गये हैं- तुम, महाबाहु सात्यकि तथा पाण्डुनन्दन भीमसेन। ‘अतः तुम इस निशीथकाल में कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध करो और महारथी सात्यकि तुम्हारे पृष्ठ रक्षक होंगे। ‘जैसे पूर्वकाल में स्कन्द के साथ रहकर इन्द्र ने तारकासुर का वध किया था, उसी प्रकार तुम भी सात्यकि की सहायता पाकर रणभूमि में शूरवीर कर्ण को मार डालो’।
घटोत्कच ने कहा ;- महाबाहो! प्रभो! आप मुझे जैसा कह रहे हैं, वैसा ही है। मैं आपका भेजा हुआ कर्ण के वध की इच्छा से जा रहा हूँ। भारत! मैं कर्ण का सामना करने में तो समर्थ हूँ ही, द्रोणाचार्य का भी अच्छी तरह सामना कर सकता हूँ। अस्त्र-विद्या के जानने वाले ये जो दूसरे महामनस्वी क्षत्रिय हैं, उनके साथ भी लोहा ले सकता हूँ। आज मैं इस रात में सूत पुत्र कर्ण के साथ ऐसा संग्राम करूँगा, जिसकी चर्चा जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक लोग करते रहेंगे। इस युद्ध में मैं न तो शूरवीरों को जीवित छोडूँगा, न डरने वालों को और न हाथ जोड़ने वालों को ही। राक्षस-धर्म का आश्रय लेकर सच का ही संहार कर डालूँगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! श्रेष्ठ वीरों का संहार करने वाला महाबाहु हिडिम्बाकुमार ऐसा कहकर उस भयंकर युद्ध में आपकी सेना को भयभीत करता हुआ कर्ण का सामना करने के लिये गया। क्रोध में भरे हुए उस प्रज्वलित मुख और चमकीले केशों वाले राक्षस को आते हुए देख पुरुष सिंह सूत पुत्र कर्ण ने हँसते हुए उसे अपने प्रतिद्वन्द्वी के रूप में ग्रहण किया। नृपश्रेष्ठ! संग्राम भूमि में गर्जना करते हुए कर्ण और राक्षस दोनों में इन्द्र और प्रह्लाद के समान युद्ध होने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय घटोत्कच को भगवानका प्रोत्साहन देना विषयक एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय
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