सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ छाछठवें अध्याय से एक सौ सत्तरवें अध्याय तक (From the 166 chapter to the 170 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ छाछठवाँ अध्याय

 (सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततमअध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि के द्वारा भूरिका वध, घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध तथा भीम के साथ दुर्योधन का युद्ध एवं दुर्योधन का पलायन”

    संजय कहते हैं ;- राजन! जैसे कोई हाथी को उसके निकलने के स्थान से ही रोक दे, उसी प्रकार भूरि ने आक्रमण करते हुए रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि को समरभूमि में आगे बढ़ने से रोक दिया। यह देख सात्यकि कुपित हो उठे और उन्होंने पाँच तीखे बाणों से भूरि की छाती छेद डाली। उससे रक्त की धारा बहने लगी। इसी प्रकार युद्धस्थल में कुरुवंशी भूरि ने भी रणदुर्मद सात्यकि की छाती में दस तीखे बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! उन दोनों के नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे। वे दोनों ही रोष से अपने-अपने धनुष खींचकर बाणों की वर्षा से एक-दूसरे को अत्यन्त घायल कर रहे थे। राजेन्द्र! उन दोनों पर अस्त्र-शस्त्रों की अत्यन्त भयंकर वर्षा हो रही थी। ये यम और अन्तक के समान कुपित हो परस्पर बाणों का प्रहार कर रहे थे। राजन! वे दोनों ही एक-दूसरे को बाणों द्वारा आच्छादित करके खड़े थे। दो घड़ी तक उनमें समान रूप से ही युद्ध चलता रहा। महाराज! तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि ने हँसते हुए से समरागंण में महामना कुरुवंशी भूरि के धनुष को काट दिया।

     धनुष कट जाने पर उसकी छाती में सात्यकि ने तुरंत ही नौ तीखे बाण मारे और कहा,

     सात्यकि ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। बलवान शत्रु के आघात से अत्यन्त घायल हुए शत्रुतापन भूरि ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर सात्यकि को भी गहरी चोट पहुँचायी। प्रजानाथ! तीन बाणों से ही सात्यकि को घायल करके भूरि ने हँसते हुए से अत्यन्त तीखे भल्ल द्वारा उनके धनुष को भी काट दिया। महाराज! धनुष कट जाने पर क्रोधातुर हुए सात्यकि ने भूरि के विशाल वक्षःस्थल पर एक अत्यन्त वेगशालिनी शक्ति का प्रहार किया। उस शक्ति से भूरि के सारे अंग विदीर्ण हो गये और वह अपने उत्तम रथ से नीचे गिर पड़ा, मानो दैववश प्रदीप्त किरणों वाला मंगलग्रह आकाश से नीचे गिर गया हो। शूरवीर भूरि को युद्धस्थल में मारा गया देख महारथी अश्वत्थामा सात्यकि की ओर बड़े वेग से दौड़ा।

     नरेश्वर! वह सात्यकि से ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ ऐसा कहकर उनके ऊपर उसी प्रकार बाणसमूहों की वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरु पर्वत पर जल बरसा रहा हो। क्रोध में भरे हुए अश्वत्थामा को सात्यकि के रथ पर आक्रमण करते देख महारथी घटोत्कच ने सिंहनाद करके कहा- ‘द्रोणपुत्र! खड़ा रह, खड़ा रह, मेरे हाथ से जीवित छूटकर नहीं जा सकेगा। जैसे कार्तिकेय ने महिषासुर का वध किया था, उसी प्रकार मैं भी तुझे मार डालूँगा। ‘आज समरागंण में मैं तेरी युद्धविषयक श्रद्धा दूर कर दूँगा।’ ऐसा कहर क्रोध से लाल आँखें किये, शत्रुवीरों का हनन करने वाले कुपित राक्षस घटोत्कच ने अश्वत्थामा पर उसी प्रकार धावा किया, जैसे सिंह किसी गजराज पर आक्रमण करता है। जैसे मेघ पर्वत पर जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा पर रथ के धुरे के समान मोटे-मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। परंतु अश्वत्थामा ने मुसकराते हुए समरभूमि में अपने ऊपर आयी हुई उस बाणवर्षा को विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा वेगपूर्वक नष्ट कर दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-43 का हिन्दी अनुवाद)

      तत्पश्चात मर्मस्थल को विदीर्ण कर देने वाले सैकड़ों पैने बाणों द्वारा उसने शत्रुदमन राक्षसराज घटोत्कच को बींध दिया। महाराज! अश्वत्थामा द्वारा उन बाणों से बिंधा हुआ वह राक्षस काँटों से भरे हुए साही के समान सुशोभित हो रहा था। तत्पश्चात भीमसेन के प्रतापी पुत्र घटोत्कच ने क्रोध में भरकर वज्र एवं बिजली के समान चमकने वाले भयंकर बाणों द्वारा अश्वत्थामा को क्षत-विक्षत कर दिया तथा उसके ऊपर क्षुरप्र, अर्धचन्द्र, नाराच, शिलीमुख, वराहकर्ण, नालीक और विकर्ण आदि अस्त्रों की चारों ओर से वर्षा आरम्भ कर दी। जैसे वायु बड़े-बड़े बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार व्यथारहित इन्द्रियों वाले महातेजस्वी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने कुपित हो दिव्यास्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित भयंकर बाणों से अपने ऊपर पड़ती हुई उस अत्यन्त दुःसह, अनुपम एवं वज्रपात के समान शब्द करने वाली अस्त्र शस्त्रों की वर्षा को नष्ट कर दिया। महाराज! तत्पश्चात अन्तरिक्ष में बाणों का दूसरा भयंकर संग्राम सा होने लगा, जो योद्धाओं का हर्ष बढ़ा रहा था। अस्त्रों के परस्पर टकराने से जो चारों ओर चिनगारियाँ छूट रही थीं, उनसे आकाश प्रदोषकाल में जुगनुओं से व्याप्त सा जान पड़ता था। द्रोणपुत्र ने आपके पुत्रों का प्रिय करने के लिये अपने बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करते हुए उस राक्षस को भी ढक दिया।

      तदनन्तर गाढ़ अन्धकार से भरी हुई आधी रात के समय रणभूमि में इन्द्र और प्रह्लाद के समान अश्वत्थामा और घटोत्कच का घोर युद्ध आरम्भ हुआ। अत्यन्त क्रोध में भरे हुए घटोत्कच ने युद्धस्थल में कालाग्नि के समान दस तेजस्वी बाणों द्वारा अश्वत्थामा की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राक्षस द्वारा चलाये हुए उन विशाल बाणों से घायल हो महाबली अश्वत्थामा समरागंण में आँधी के हिलाये हुए वृक्ष के समान काँपने लगा। वह ध्वजदण्ड का सहारा ले मूर्च्छित हो गया। नरेश्वर! फिर तो आपकी सारी सेना में हाहाकार मच गया। प्रजानाथ! आपके समस्त योद्धाओं ने यह मान लिया कि अश्वत्थामा भाग गया। रणभूमि में अश्वत्थामा की वैसी अवस्था देख पांचाल और सृंजय योद्धा सिंहनाद करने लगे। तदनन्तर सचेत हो महाबली शत्रुसूदन अश्वत्थामा ने बायें हाथ से धनुष को दबाकर कान तक खींचे हुए धनुष से घटोत्कच को लक्ष्य करके यमदण्ड के समान एक भयंकर एवं उत्तम बाण शीघ्र छोड़ दिया। पृथ्वीपते! वह उत्तम एवं भयंकर बाण उस राक्षस की छाती छेदकर पंखसहित पृथ्वी में समा गया। महाराज! युद्ध में शोभा पाने वाले अश्वत्थामा द्वारा अत्यन्त घायल हुआ महाबली राक्षसराज घटोत्कच रथ के पिछले भाग में बैठ गया। हिडिम्बाकुमार को मूर्च्छित देख उसका सारथि घबरा गया और तुरंत ही उसे समरागंण से, विशेषतः अश्वत्थामा के निकट से दूर हटा ले गया। इस प्रकार समरभूमि में राक्षसराज घटोत्कच को घायल करके महारथी द्रोणपुत्र ने बड़े जोर से गर्जना की। भरतनन्दन! उस समय सम्पूर्ण योद्धाओं तथा आपके पुत्रों द्वारा पूजित हुआ अश्वत्थामा अपने शरीर से मध्यान्हकाल के सूर्य की भाँति अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था। द्रोणाचार्य के रथ की ओर आते हुए युद्धपरायण भीमसेन को स्वयं राजा दुर्योधन ने पैने बाणों से बींध डाला। माननीय नरेश! तब भीमसेन ने भी दुर्योधन को दस बाणों से घायल किया। फिर दुर्योधन ने भी उन्हें बीस बाण मारे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततमअध्याय के श्लोक 44-64 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे कभी-कभी चन्द्रमा और सूर्य आकाश में मेघों के समूह से आच्छादित हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार समरागंण में वे दोनों वीर सायकसमूहों से आच्छन्न दिखायी देते थे। भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन ने भीमसेन को पाँच बाणों से घायल कर दिया और कहा- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। तब भीमसेन ने दस बाण मारकर उसके धनुष और ध्वज काट डाले और झुकी हुई गाँठ वाले नब्बे बाणों से कौरवश्रेष्ठ दुर्योधन को गहरी चोट पहुँचायी। तत्पश्चात भरतश्रेष्ठ दुर्योधन ने कुपित हो दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर युद्ध के मुहाने पर सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते पैने बाणों द्वारा भीमसेन को पीड़ा देनी आरम्भ की। दुर्योधन के धनुष से छूटे हुए उन सभी बाणों को नष्ट करके भीमसेन ने उस कौरव-नरेश को पच्चीस बाण मारे।

     आर्य! इससे दुर्योधन अत्यन्त कुपित हो उठा और उसने एक क्षुरप्र से भीमसेन का धनुष काटकर उन्हें दस बाणों से घायल कर दिया। तब महाबली भीमसेन ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर तुरंत ही कौरव-नरेश को सात तीखे बाणों से बींध डाला। दुर्योधन ने शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले कुशल योद्धा की भाँति भीमसेन के उस धनुष को भी शीघ्र ही काट दिया। महाराज! भीमसेन के हाथ में लिये हुए दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें धनुष को भी विजय से उल्लसित होने वाले आपके मदोन्मत्तपुत्र ने काट डाला। इस प्रकार जब बारंबार धनुष काटे जाने लगे, तब भीमसेन ने समरभूमि में सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई एक सुन्दर शक्ति चलायी, जो मौत की सगी बहिन के समान जान पड़ती थी। वह आप की ज्वाला के समान प्रकाशित हो रही थी। आकाश में सीमन्त की रेखा सी बनाती हुई अग्नि के समान देदीप्यमान होने वाली उस शक्ति के अपने पास आने से पहले ही कौरव-नरेश ने तीन टुकड़े कर दिये। सम्पूर्ण योद्धाओं तथा महामना भीमसेन के देखते-देखते यह कार्य हो गया। महाराज! तब भीमसेन ने अपनी अत्यन्त तेजस्विनी गदा को बड़े वेग से घुमाकर दुर्योधन के रथ पर दे मारा।

     युद्धस्थल में उस भारी गदा ने सहसा आपके पुत्र के चारों घोड़ों, सारथि और रथ का भी मर्दन कर दिया। राजेन्द्र! उस समय आपका पुत्र भीमसेन से भयभीत हो पहले ही भागकर महामना नन्दक के रथ पर जा बैठा था। उस समय भीमसेन ने आपके महारथी पुत्र को मारा गया मानकर रात के समय कौरवों को डाँट बताते हुए बड़े जोर-जोर से सिंहनाद किया। आपके सैनिकों ने भी राजा दुर्योधन को मरा हुआ ही मान लिया था, अतः वे सब ओर जोर-जोर से हाहाकार करने लगे। राजन! उन भयभीत हुए सम्पूर्ण योद्धाओं का आर्तनाद तथा महामनस्वी भीमसेन की गर्जना सुनकर दुर्योधन को मरा हुआ मान राजा युधिष्ठिर बड़े वेग से उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ कुन्तीकुमार भीमसेन दहाड़ रहे थे। प्रजानाथ! फिर तो पाञ्चाल, मत्स्य, केकय और सृंजय योद्धा युद्ध की इच्छा से पूर्ण उद्योग करके द्रोणाचार्य पर ही टूट पड़े। वहाँ शत्रुओं के साथ द्रोणाचार्य का बड़ा भारी संग्राम हुआ। सब लोग घोर अन्धकार में डूबकर एक-दूसरे पर घातक प्रहार कर रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में दुर्योधन का पलायन विषयक एक सौ छाछठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ सड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण के द्वारा सहदेव की पराजय, शल्य के द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय तथा अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन”

     संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! भरतनन्दन! द्रोणाचार्य को लक्ष्य करके आते हुए सहदेव को युद्धस्थल में वैकर्तन कर्ण ने रोका। सहदेव ने राधापुत्र कर्ण को नौ बाणों से बींधकर झुकी हुई गाँठ वाले दस बाणों द्वारा पुनः घायल कर दिया। कर्ण ने बदले में झुकी हुई गाँठ वाले सौ बाण मारे और शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले वीर योद्धा की भाँति उसने उनके प्रत्यञ्चासहित धनुष को भी शीघ्र ही काट दिया। तदनन्तर प्रतापी माद्रीकुमार सहदेव ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर कर्ण को बीस बाणों से घायल कर दिया। वह अद्भुत सा कार्य हुआ। तब कर्ण ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से सहदेव के घोड़ों को मारकर एक भल्ल का प्रकार करके उनके सारथि को भी शीघ्र ही यमलोक पहुँचा दिया। रथहीन हो जाने पर सहदेव ने ढाल और तलवार हाथ में ले ली, परंतु कर्ण ने हँसते हुए से बाण मारकर उनकी उस तलवार के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तब सहदेव ने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णजटित अत्यन्त भयंकर विशाल गदा सूर्यपुत्र कर्ण के रथ पर दे मारी।

     सहदेव के द्वारा चलायी हुई उस गदा को सहसा अपने ऊपर आती देख कर्ण ने बहुत से बाणों द्वारा उसे स्तम्भित कर दिया और पृथ्वी पर गिरा दिया। अपनी गदा को असफल होकर गिरी हुई देख सहदेव ने बड़ी उतावली के साथ कर्ण पर शक्ति चलायी, किन्तु उसने बाणों द्वारा उस शक्ति को भी काट डाला। महाराज! तब सहदेव अपने उस उत्तम रथ से शीघ्र ही वेगपूर्व कूद पड़े और युद्धस्थल में अधिरथपुत्र कर्ण को सामने खड़ा देख रथ का एक चक्का लेकर उसके ऊपर चला दिया। उठे हुए कालचक्र के समान सहसा अपने ऊपर गिरते हुए उस रथचक्र को सूतनन्दन कर्ण ने कई हजार बाणों से काट गिराया। महामनस्वी सूतपुत्र कर्ण के द्वारा उस रथचक्र के नष्ट कर दिये जाने पर ईषादण्ड, जोते, नाना प्रकार के जूए, हाथी के कटे हुए अंग, मरे घोड़े और बहुत सी मृत मनुष्यों की लाशें कर्ण को लक्ष्य करके चलायीं, परंतु कर्ण ने अपने बाणों द्वारा उन सबकी धज्जियाँ उड़ा दी। तत्पश्चात माद्रीकुमार सहदेव ने अपने आपको आयुधों से रहित समझकर कर्ण के बाणों से अवरुद्ध हो उस रणभूमि को त्याग दिया।

     भरतश्रेष्ठ! प्रजानाथ! तदनन्तर राधा पुत्र कर्ण ने दो घड़ी तक सहदेव का पीछा करके उनसे हँसते हुए इस प्रकार कहा,

   कर्ण ने कहा ;- 'ओ अधीर बालक! तू युद्धस्थल में विशिष्ट रथियों के साथ संग्राम न करना। माद्रीकुमार! अपने समान योद्धाओं के साथ युद्ध किया कर। मेरी इस बात पर संदेह न करना'। तदनन्तर धनुष की नोक से उन्हें पीड़ा देते हुए कर्ण ने पुनः इस प्रकार कहा- 'माद्रीपुत्र! ये अर्जुन कौरवों के साथ रणभूमि में शीघ्रतापूर्वक युद्ध कर रहे हैं। तू उन्हीं के पास चला जा अथवा तेरा मन हो तो घर को लौट जा'। सहदेव से ऐसा कहकर रथियों मे श्रेष्ठ कर्ण पाञ्चालों और पाण्डवों की सेनाओं को द्ग्ध करता हुआ सा रथ के द्वारा उनकी ओर वेगपूर्वक चल दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

    यद्दपि सहदेव उस समय वध करने योग्य अवस्था में पहुँच गये थे, तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन को याद करके समरागंण में शत्रुसूदन सत्यप्रतिज्ञ एवं महायशस्वी कर्ण ने उनका वध नहीं किया। राजन! तदनन्तर सहदेव कर्ण के बाणों से पीड़ित और उसके वचनरूपी बाणों से संतप्त एवं खिन्नचित्त हो अपने जीवन से विरक्त हो गये। फिर वे महारथी सहदेव बड़ी उतावली के साथ महामना पाञ्चाल राजकुमार जनमेजय के रथ पर आरूढ़ हो गये।

     द्रोणाचार्य पर वेगपूर्वक आक्रमण करने वाले सेनासहित धनुर्धर राजा विराट को मद्रराज शल्य ने अपने बाणसमूहों से आच्छादित कर दिया। राजन! फिर तो समरागंण में उन दोनों सुदृढ़ धनुर्धर योद्धाओं में वैसा ही घोर युद्ध होने लगा, जैसा कि पूर्वकाल में इन्द्र और जम्भासुर में हुआ था। महाराज! मद्रराज शल्य ने सेनापति राजा विराट को बड़ी उतावली के साथ झुकी हुई गाँठ वाले सौ बाण मारकर तुरंत घायल कर दिया। राजन! तब विराट ने मद्रराज को पहले नौ, फिर तिहत्तर और पुनः सौ तीखे बाणों से घायल करके बदला चुकाया। तदनन्तर मद्रराज ने विराट के रथ के चारों घोड़ों को मारकर दो बाणों से समरागंण में सारथि और ध्वज को भी काट गिराया। तब उस अश्वहीन रथ से तुरंत ही कूदकर महारथी राजा विराट धनुष की टंकार करते और तीखे बाणों को छोड़ते हुए भूमि पर खड़े हो गये।

     महाराज! तत्पश्चात शतानीक अपने भाई के वाहन को नष्ट हुआ देख सब लोगों के देखते-देखते शीघ्र ही रथ के द्वारा उनके पास आ पहुँचे। उस महासमर में वहाँ आते हुए शतानीक को बहुत से बाणों द्वारा घायल करके मद्रराज शल्य ने उन्हें यमलोक पहुँचा दिया। वीर शतानीक के मारे जाने पर रथियों में श्रेष्ठ विराट तुरंत ही ध्वज माला से विभूषित उसी रथ पर आरूढ़ हो गये। तब क्रोध से आँखें फाड़कर दूना पराक्रम दिखाते हुए विराट ने अपने बाणों द्वारा मद्रराज के रथ को शीघ्र ही आच्छादित कर दिया। इससे कुपित हुए मद्रराज शल्य ने झुकी हुई गाँठ वाले एक बाण से सेनापति विराट की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! भरतभूषण! राजा विराट अत्यन्त घायल होकर रथ के पिछले भाग मे धम्म से बैठ गये और उन्हें तीव्र मूर्च्छा ने दबा लिया। भरतनन्दन! समरागंण में बाणों से क्षत-विक्षत हुए राजा विराट को उनका सारथि दूर हटा ले गया। तब संग्राम में शोभा पाने वाले शल्य के सैकड़ों सायकों से पीड़ित हुई वह विशाल सेना उस रात्रि के समय भाग खड़ी हुई।

     राजेन्द्र! उस सेना को भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुन उसी ओर चल दिये, जहाँ राजा शल्य खड़े थे। राजन! उस समय राक्षसराज अलम्बुष आठ पहियों से युक्त श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो उन दोनों का सामना करने के लिये आगे बढ़ आया। उसके उस रथ में घोड़ों के समान मुख वाले भयंकर पिशाच जुते हुए थे। उस पर लाल रंग की आर्द्र पताका फहरा रही थी। उस रथ को लाल रंग के फूलों की माला से सजाया गया था। वह भयंकर रथ काले लोहे का बना था और उसके ऊपर रीछ की खाल मढ़ी हुई थी। उसकी ध्वजा पर विचित्र पंख और फैले हुए नेत्रों वाला भयंकर गृध्रराज अपनी बोली बोलता था। उससे उपलक्षित उस ऊँचे डंडे वाले कान्तिमान ध्वज से कटे-छटे कोयले के पहाड़ के समान वह राक्षस बड़ी सोभा पा रहा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक क 41-50 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! अर्जुन के मस्तक पर सैकड़ों बाण-समूहों की वर्षा करते हुए उस राक्षस ने अपनी ओर आते हुए अर्जुन को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय प्रचण्ड वायु को रोक देता है। भारत! उस समय वहाँ मनुष्य और राक्षस में बड़े जोर से महान संग्राम होने लगा, जो समस्त दर्शकों का आनन्द बढ़ाने वाले और गीध, कौए, बगले, उल्लू, कंक तथा गीदड़ों को हर्ष प्रदान करे वाला था। भरतनन्दन! अर्जुन ने सौ बाणों से उस राक्षस को घायल कर दिया और नौ तीखे बाणों से उसकी ध्वजा काट डाली। फिर तीन बाणों से उसके सारथि को, तीन से ही रथ के त्रिवेणु को, एक से उसके धनुष को और चार बाणों से चारों घोड़ों को काट डाला। जब उसने पुनः दूसरे धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी तो अर्जुन ने उसके भी दो टुकड़े कर दिये। रथहीन होने पर उस राक्षस ने जब खड्ग उठाया, तब अर्जुन ने एक बाण मारकर उसके भी दो खण्ड कर डाले।

      भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात कुन्तीकुमार अर्जुन ने चार तीखे बाणों द्वारा उस राक्षसराज को बींध डाला। उन बाणों से विद्ध होकर अलम्बुष भय के मारे भाग गया राजन! उसे परास्त करके अर्जुन मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ों पर बाणसमूहों की वर्षा करते हुए तुरंत ही द्रोणाचार्य के समीप चले गये। महाराज! उन यशस्वी पाण्डुकुमार के द्वारा मारे जाते हुए आपके सैनिक आँधी के उखाड़े हुए वृक्षों के समान धड़ाधड़ पृथ्वी पर गिर रहे थे। प्रजानाथ! जब इस प्रकार महात्मा अर्जुन के द्वारा उनका संहार होने लगा, तब आपके पुत्रों की सारी सेना भाग चली।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर अलम्‍बुध की पराजय विषयक एक सौ सरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ अडसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“शतानीक के द्वारा चित्रसेन की और वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय तथा प्रतिबिन्ध्य एवं दुःशासन का युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- भारत! एक ओर से नकुलपुत्र शतानीक अपनी शराग्नि से आपकी सेना को भस्म करता हुआ आ रहा था। उसे आपके पुत्र चित्रसेन ने रोका। शतानीक ने चित्रसेन को पाँच बाण मारे। चित्रसेन ने भी दस पैने बाण मारकर बदला चुकाया। महाराज! चित्रसेन ने युद्धस्थल में पुनः नौ तीखे बाणों द्वारा शतानीक की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। तब नकुलपुत्र ने झुकी हुई गाँठ वाले अनेक बाण मारकर चित्रसेन के शरीर से उसके कवच को काट गिराया। वह अद्भुत सा कार्य हुआ। नरेश्वर! राजेन्द्र! कवच कट जाने पर आपका पुत्र चित्रसेन समय पर केंचुल छोड़ने वाले सर्प के समान अत्यन्त सुशोभित हुआ। महाराज! मदनन्तर नकुलपुत्र शतानीक ने युद्धस्थल में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले चित्रसेन के ध्वज और धनुष को पैने बाणों द्वारा काट दिया। राजेन्द! समरागंण में धनुष और कवच कट जाने पर महारथी चित्रसेन ने दूसरा धनुष हाथ में लिया, जो शत्रु को विदीर्ण करने में समर्थ था। उस समय समरभूमि में कुपित हुए भरतकुल के महारथी वीर चित्रसेन ने नकुलपुत्र शतानीक को नौ बाणों से घायल कर दिया।

     माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए नरश्रेष्ठ शतानीक ने चित्रसेन के चारों घो़ड़ों और सारथि को मार डाला। तब बलवान महारथी चित्रसेन ने उस रथ से कूदकर नकुलपुत्र शतानीक को पचास बाण मारे। यह देख रणक्षेत्र में नकुल पुत्र ने पूर्वोक्त कर्म करने वाले चित्रसेन के रत्नविभूषित धनुष को एक अर्धचन्द्रकार बाण से काट डाला। धनुष कट गया, घोड़े और सारथि मारे गये और वह रथहीन हो गया। उस अवस्था में चित्रसेन तुरंत भागकर महामना कृतवर्मा के रथ पर जा चढ़ा।

     द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये आते हुए महारथी द्रुपद पर वृषसेन ने सौकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए तत्काल आक्रमण कर दिया। निष्पाप नरेश! समरागंण में राजा यज्ञसेन (द्रुपद) ने महारथी कर्णपुत्र वृषसेन की छाती और भुजाओं में साठ बाण मारे। तब वृषसेन अत्यन्त कुपित होकर रथ पर बैठे हुए यज्ञसेन की छाती में बहुत से पैने बाण मारे। महाराज! उन दोनों के ही शरीर एक दूसरे के बाणों से क्षत-विक्षत हो गये थे। वे दोनों ही बाणरूपी कंटकों से युक्त हो काँटों से भरे हुए दो साही नामक जन्तुओं के समान शोभित हो रहे थे। सोने के पंख और स्वच्छ धार वाले बाणों से उस महासमर में दोनों के कवच कट गये थे और दोनों ही लहू-लुहान होकर अद्भुत शोभा पा रहे थे। वे दोनों सुवर्ण के समान विचित्र, कल्प वृक्ष के समान अद्भुत और खिले हुए दो पलाश वृक्षों के समान अनूठी शोभा से सम्पन्न हो रणभूमि में प्रकाशित हो रहे थे।

    राजन! तदनन्तर वृषसेन ने राजा द्रुपद को नौ बाणों से घायल करके फिर सत्तर बाणों से बींध डाला। तत्पश्चात उन्हें तीन-तीन बाण और मारे। महाराज! तदनन्तर सहस्रों बाणों का प्रहार करता हुए कर्णपुत्र वृषसेन जल की वर्षा करने वाले मेघ के समान सुशोभित होने लगा। इससे क्रोध में भरे हुए राजा द्रुपद ने एक पानीदार पैने भल्ल से वृषसेन के धनुष के दो टुकड़े कर डाले। तब उसने सोने से मढ़े हुए दूसरे नवीन एवं सुदृढ़ धनुष को हाथ में लेकर तरकस से एक चमचमाता हुआ पानीदार, तीखा और मजबूत भल्ल निकाला। उसे धनुष पर रखा और कान तक खींचकर समस्त सोमकों को भयभीत करते हुए वृषसेन ने राजा द्रुपद को लक्ष्य करके वह भल्ल छोड़ दिया। वह भल्ल द्रुपद की छाती छेदकर धरती पर जा गिरा। वृषसेन के उस भल्ल से आहत होकर राजा द्रुपद मूर्च्छित हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-47 का हिन्दी अनुवाद)

      राजेन्द्र! तब सारथि अपने कर्त्तव्य का स्मरण करके उन्हें रणभूमि से दूर हटा ले गया। पाञ्चालों के महारथी द्रुपद के हट जाने पर बाणों से कटे हुए कवच वाली द्रुपद की सारी सेना उस भयंकर आधी रात के समय वहाँ से भाग चली। राजन! भागते हुए सैनिकों ने जो मशालें फेंक दी थीं, वे सब ओर जल रही थीं। उनके द्वारा वह रणभूमि ग्रह-नक्षत्रों से भरे हुए मेघहीन आकाश के समान सुशोभित हो रही थी। महाराज! वीरों के गिरे हुए चमकीले बाजूबन्दों से वहाँ की भूमि वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे वर्षाकाल में बिजलियों से मेघ प्रकाशित होता है। तदनन्तर कर्णपुत्र वृषसेन के भय से त्रस्त हो सोमकवंशी क्षत्रिय उसी प्रकार भागने लगे, जैसे तारकामय संग्राम में इन्द्र के भय से डरे हुए दानव भागे थे। महाराज! समरभूमि में वृषसेन से पीड़ित होकर भागते हुए सोमक योद्धा प्रदीपों से प्रकाशित हो बड़ी शोभा पा रहे थे। भारत! युद्धस्थल में उन सबको जीतकर कर्णपुत्र वृषसेन भी दोपहर के प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य के समान उद्भासित हो रहा था। आपके और शत्रुपक्ष के सहस्रों राजाओं के बीच एकमात्र प्रतापी वृषसेन ही अपने तेज से प्रकाशित होता हुआ रणभूमि में खड़ा था। वह युद्ध के मैदान में शूरवीर सोमक महारथियों को परास्त करके तुरंत वहाँ चला गया, जहाँ राजा युधिष्ठिर खड़े थे।

     दूसरी ओर क्रोध में भरा हुआ प्रतिविन्ध्य रणक्षेत्र में शत्रुओं को दग्ध कर रहा था। उसका सामना करने के लिये आपका महारथी पुत्र दुःशासन आ पहुँचा। राजन! जैसे मेघरहित आकाश में बुध और सूर्य का समागम हो, उसी प्रकार युद्धस्थल में उन दोनों का अद्भुत मिलन हुआ। समरागंण में दुष्कर कर्म करने वाले प्रतिबिन्ध्य के ललाट में दुःशासन ने तीन बाण मारे। आपके बलवान धनुर्धर पुत्र द्वारा चलाये हुए उन बाणों से अत्यन्त घायल हो महाबाहु प्रतिविन्ध्य तीन शिखरों वाले पर्वत के समान सुशोभित हुआ। तत्पश्चात महारथी प्रतिविन्ध्य ने समरभूमि में दुःशासन को नौ बाणों से घायल करके फिर सात बाणों से बींध डाला।

      भारत! उस समय वहाँ आपके पुत्र ने एक दुष्कर पराक्रम कर दिखाया। उसने अपने भयंकर बाणों द्वारा प्रतिविन्ध्य के घोड़ों को मार गिराया। राजन! फिर एक भल्ल मारकर उसने धनुर्धर वीर प्रतिविन्ध्य के सारथि और ध्वज को धराशायी कर दिया तथा रथ के भी तिल के समान टुकड़े-टुकड़े कर डाले। प्रभो! क्रोध में भरे हुए दुःशासन ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से प्रतिविन्ध्य की पताकाओं, तरकसों, उनके घोड़ों की बागडोरों और रथ के जोतों को भी तिल-तिल करके काट डाला। धर्मात्मा प्रतिविन्ध्य रथहीन हो जाने पर हाथ में धनुष लिये पृथ्वी पर खड़ा हो गया और सैकड़ों बाणों की वर्षा करता हुआ आपके पुत्र के साथ युद्ध करने लगा। तब आपके पुत्र ने एक क्षुरप्र से प्रतिविन्ध्य का धनुष काट दिया और धनुष कट जाने पर उसे दस बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। उसे रथहीन हुआ देख उसके अन्य महारथी भाई विशाल सेना के साथ बड़े वेग से उसकी सहायता के लिये आ पहुँचे। महाराज! तब प्रतिविन्ध्य उछलकर सुतसोम के तेजस्वी रथ पर जा बैठा और हाथ में धनुष लेकर आपके पुत्र को घायल करने लगा। यह देख आपके सभी योद्धा आपके पुत्र दुःशासन को तब ओर से घेरकर विशाल सेना के साथ वहाँ युद्ध के लिये डट गये। भारत! तदनन्तर उस भयंकर निशीथकाल में आपके पुत्र और द्रौपदीपुत्रों का घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जो यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय शता‍नीक आदि का युद्धविषयक एक सौ अरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय तथा शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध”

    संजय कहते हैं ;- राजन! वेगशाली नकुल युद्ध में आपकी सेना का संहार कर रहे थे। उनका सामना करने के लिये क्रोध में भरा हुआ सुबलपुत्र शकुनि आया और बोला,

    शकुनि बोला ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। उन दोनों वीरों ने पहले से ही आपस में वैर बाँध रखा था, वे एक दूसरे का वध करना चाहते थे, इसलिये पूर्णतः कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से वे एक दूसरे को घायल करने लगे। राजन! नकुल जैसे-जैसे बाणों की वर्षा करते, शकुनि भी वैसे ही वैसे युद्धविषयक शिक्षा का प्रदर्शन करता हुआ बाण छोड़ता था। महाराज! ये दोनों शूरवीर समरागंण में बाणरूपी कंटकों से युक्त होकर काँटेदार शरीर वाले साही के समान सुशोभित हो रहे थे। सोने के पंख और सीधे अग्रभाग वाले बाणों से उन दोनों के कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे। दोनों ही उस महासमर में खून से लथपथ हो सुवर्ण के समान विचित्र कान्ति से सुशोभित हो रहे थे। वे दो कल्पवृक्षों और खिले हुए दो ढाक के पेड़ों के समान समरागंण में प्रकाशित हो रहे थे। महाराज! जैसे काँटों से सेमर का वृक्ष सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे दोनों शूरवीर समरभूमि में बाणरूपी कंटकों से युक्त दिखायी देते थे। राजन! वे अत्यन्त कुटिलभाव से परस्पर आँखें फाड़ फाड़कर देख रहे थे और क्रोध से लाल नेत्र करके एक दूसरे को ऐसे देखते थे, मानो भस्म कर दें। तदनन्तर अत्यन्त क्रोध में भरकर हँसते हुए से आपके साले ने एक तीखे कणीं नामक बाण से माद्रीपुत्र नकुल की छाती में गहरा आघात किया। आपके धनुर्धर साले के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए नकुल रथ के पिछले भाग में बैठ गये और भारी मूर्छा में पड़ गये।

    राजन! अपने अत्यन्त बैरी और अभिमानी शत्रु को वैसी अवस्था में पड़ा देख शकुनि वर्षाकाल के मेघ के समान जोर-जोर से गर्जना करने लगा। इतने में ही पाण्डुनन्दन नकुल होश में आकर मुँह बाये हुए यमराज के समान पुनः सुबलपुत्र का सामना करने के लिये आगे बढे़। भरतश्रेष्ठ! इन्होंने कुपित होकर शकुनि को साठ बाणों से घायल कर दिया। फिर उसकी छाती में इन्होंने सौ नाराच मारे। तत्पश्चात नकुल ने शकुनि के बाणसहित धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और तुरंत ही उसकी ध्वजा को भी काटकर रथ से भूमि पर गिरा दिया। इसके बाद एक पानीदार पैने एवं तीखे बाण से पाण्डुनन्दन नकुल ने शकुनि की दोनों जाँघों को विदीर्ण करके व्याध द्वारा विद्व हुए पंखयुक्त बाज पक्षी के समान उसे गिरा दिया। महाराज! उस बाण से अत्यन्त घायल हुआ शकुनि, जैसे कामी पुरुष कामिनी का आलिंगन करता है, उसी प्रकार ध्वज यष्टि (ध्वजा के डंडे) को दोनों भुजाओं से पकड़कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। निष्पाप नरेश! आपके साले को बेहोश पड़ा देख सारथि रथ के द्वारा शीघ्र ही उसे सेना के आगे से दूर हटा ले गया। फिर तो कुन्ती के पुत्र और उनके सेवक बड़े जोर से सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार रणभूमि में शत्रु को परास्त करके क्रोध में भरे हुए शत्रुसंतापी नकुल ने अपने सारथि से कहा,

     नकुल ने कहा ;- ‘सूत! मुझे द्रोणाचार्य की सेना के पास ले चलो’। राजन! माद्रीकुमार का वह वचन सुनकर सारथि उस रथ के द्वारा जहाँ द्रोणाचार्य खड़े थे, वहाँ तत्काल जा पहुँचा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रजानाथ! द्रोणाचार्य के साथ युद्ध की इच्छा वाले शिखण्डी का समरभूमि में सामना करने के लिये प्रयत्नशील हो शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य बड़े वेग से आगे बढ़े। शत्रुओं को दमन करने वाले, द्रोण-रक्षक, गौतमगोत्रीय कृपाचार्य को शीघ्रतापूर्वक आते देख हँसते हुए से शिखण्डी ने उन्हें नौ भल्लों से बींध डाला। महाराज! तब आपके पुत्रों का प्रिय करने वाले कृपाचार्य ने शिखण्डी को पाँच बाणों से बींधकर फिर बीस बाणों से घायल कर दिया। पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर शम्बरासुर और इन्द्र में जैसा युद्ध हुआ था, वैसा ही घोर भयानक एवं महान युद्ध उन दोनों में भी हुआ। उन दोनों रणदुर्मद वीर महारथियों ने वर्षाकाल के दो मेघों के समान आकाश को बाणसमूहों से व्याप्त कर दिया।

     भरतश्रेष्ठ! स्वभाव से ही भयंकर दिखायी देने वाला आकाश उस समय और भी घोरतर हो उठा। युद्धभूमि में शोभा पाने वाले योद्धाओं के लिये वह घोर एवं भयानक रात्रि कालरात्रि के समान प्रतीत होती थी। महाराज! शिखण्डी ने उस समय अर्धचन्द्रकार बाण मारकर प्रत्यन्चा और बाणसहित कृपाचार्य के विशाल धनुष को काट दिया। राजन! तब कृपाचार्य ने कुपित होकर सोने के दण्ड और अप्रतिहत धार वाली तथा कारीगर के द्वारा साफ की हुई एक भयंकर शक्ति उसके ऊपर चलायी। अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति को शिखण्डी ने बहुत से बाण मारकर काट दिया। वह अत्यन्त कान्तिमती एवं प्रकाशमान शक्ति खण्डित हो सब ओर प्रकाश बिखेरती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। महाराज! तब रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर पैने बाणों द्वारा शिखण्डी को ढक दिया। समरभूमि में यशस्वी कृपाचार्य द्वारा बाणों से आच्छादित किया जाता हुआ रथियों में श्रेष्ठ शिखण्डी रथ के पिछले भाग में शिथिल होकर बैठ गया। भरतनन्दन! युद्धस्थल में शिखण्डी को शिथिल हुआ देख शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उस पर बहुत से बाणों का प्रहार किया, मानो वे उसे मार डालना चाहते हो।

     राजा द्रुपद के उस महारथी पुत्र को युद्धविमुख हुआ देख पाञ्चालों और सोमकों ने उसे चारों ओर से घेरकर अपने बीच में कर लिया। इसी प्रकार आपके पुत्रों ने भी विशाल सेना के साथ आकर द्विजश्रेष्ठ कृपाचार्य को अपने बीच में कर लिया। फिर दोनों दलों में घेर युद्ध होने लगा। राजन! रणभूमि में परस्पर धावा करने वाले रथों की घर्घराहट का भयंकर शब्द मेघों की गर्जना के समान जान पड़ता था। प्रजापालक नरेश! चारों ओर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले घुड़सवारों और हाथी सवारों के संघर्ष से वह रणभूमि अत्यन्त दारुण प्रतीत होने लगी। महाराज! दौड़ते हुए पैदल सैनिकों के पैरों की धमक से यह पृथ्वी भयभीत अबला के समान काँपने लगी। राजन! जैसे कौए दौड़-दौड़कर टिड्डियों को पकड़ते हैं, उसी प्रकार रथ पर बैठकर बड़े वेग से धावा करने वाले बहुसंख्यक रथी शत्रुपक्ष के सैनिकों को दबोच लेते थे। भरतनन्दन! मदस्त्रावी विशाल हाथी मद की धारा बहाने वाले दूसरे गजराजों से सहसा भिड़कर एक दूसरे को यत्नपूर्वक काबू में कर लेते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-50 का हिन्दी अनुवाद)

     रणभूमि में घुड़सवार घुड़सवारों से और पैदल पैदल से भिड़कर परस्पर कुपित होते हुए भी एक दूसरे को लाँघकर आगे नहीं बढ़ पाते थे। उस रात्रि के समय दौड़ते, भागते और पुनः लौटते हुए सैनिकों का महान कोलाहल सुनायी पड़ता था। महाराज! रथों, हाथियों और घोड़ों पर जलती हुई मशालें आकाश से गिरी हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान दिखायी देती थीं। भरतभूषण नरेश! प्रदीपों से प्रकाशित हुई वह रात्रि युद्ध के मुहाने पर दिन के समान हो गयी थी। जैसे सूर्य के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत में फैला हुआ अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इधर-उधर जलती हुई मशालों से वहाँ का भयानक अँधेरा नष्ट हो गया था। धूल और अन्धकार से व्याप्त आकाश, पृथ्वी, दिशा और विदिशाएँ प्रदीपों की प्रभा से पुनः प्रकाशित हो उठी थीं।

     महामनस्वी योद्धाओं के अस्त्रों, कवचों और मणियों की सारी प्रभा उन प्रदीपों के प्रकाश से तिरोहित हो गयी थी। भारत! उस रात्रि के समय जब वह भयंकर कोलाहलपूर्ण संग्राम चल रहा था, तब योद्धाओं को कुछ भी पता नहीं चलता था। वे अपने विषय में भी यह नहीं जान पाते थे कि ‘मैं अमुक हूँ’। भरतश्रेष्ठ! उस समरागंण में मोहवश पिता ने पुत्र का वध कर डाला और पुत्र ने पिता का। मित्र ने मित्र के प्राण ले लिये। मामा ने भानजे को मार डाला और भानजे ने मामा को। अपने पक्ष के योद्धा अपने ही सैनिकों पर तथा शत्रुपक्ष के सैनिक भी अपने ही योद्धाओं पर परस्पर घातक प्रहार करने लगे। इस प्रकार रात्रि में वह युद्ध मर्यादारहित होकर कायरों के लिये अत्यन्त भयानक हो उठा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय संकुलयुद्ध विषयक एक सौ उनहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध, धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध, सात्यकि और कर्ण का युद्ध, कर्ण की दुर्योधन को सलाह तथा शकुनि का पाण्डव सेना पर आक्रमण”

     संजय कहते हैं ;- महाराज! जिस समय वह भयंकर घमासान युद्ध चल रहा था, उसी समय धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य पर चढ़ाई की। उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुष पर बाणों का संधान करके बारंबार उसकी प्रत्यञ्चा खींचते हुए द्रोणाचार्य के स्वर्णभूषित रथ पर आक्रमण किया। महाराज! द्रोणाचार्य का अन्त करने की इच्छा से आते हुए धृष्टद्युम्न को पाण्डवों सहित पांचालों ने घेरकर अपने बीच में कर लिया। धृष्टद्युम्न को इस प्रकार रक्षकों से घिरा हुआ देख आपके पुत्र भी सावधान हो युद्धस्थल में सब ओर से आचार्यप्रवर द्रोण की रक्षा करने लगे। जैसे वायु के वेग से उद्वेलित तथा विक्षुब्ध जल-जन्तुओं से मरे हुए दो भयंकर समुद्र एक-दूसरे से मिल रहे हों, उसी प्रकार उस रात्रि के समय वे सागर-सदृश दोनों सेनाएँ एक-दूसरे से भिड़ गयीं।

     महाराज! उस समय धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य की छाती में तुरंत ही पाँच बाण मारे और सिंह के समान गर्जना की। भरतनन्दन! तब द्रोणाचार्य ने युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न को पच्चीस बाणों से घायल करके एक दूसरे भल्ल के द्वारा उनके घोर टंकार करने वाले धनुष को काट दिया। भरतश्रेष्ठ! द्रोणाचार्य के द्वारा घायल किये हुए धृष्टद्युम्न ने रोषपूर्वक अपने ओठ को दाँतों से दबा लिया और उस टूटे हुए धनुष को तुरंत फेंक दिया। महाराज! तदनन्तर क्रोध से भरे हुए प्रतापी धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य का विनाश करने की इच्छा से दूसरा श्रेष्ठ धनुष हाथ में ले लिया। फिर शत्रुवीरों का संहार करने वाले उस पांचाल वीर ने उस विचित्र धनुष को कानों तक खींचकर उसके द्वारा द्रोणाचार्य का अन्त करने में समर्थ एक भयंकर बाण छोड़ा। उस महासमर में बलवान वीर के द्वारा छोड़ा हुआ वह घोर बाण उदित हुए सूर्य के समान उस सेना को प्रकाशित करने लगा। राजन! समरभूमि में उस भयंकर बाण को देखकर देवता, गन्धर्व और मनुष्य सभी कहने लगे कि ‘द्रोणाचार्य का कल्याण हो’। नरेश्वर! आचार्य के रथ की ओर आते हुए उस बाण के कर्ण ने सिद्धहस्त योद्धा की भाँति बारह टुकडे़ कर डाले।

     संजय बोले ;- राजन! धनुर्धर सूतपुत्र के द्वारा अनेक टुकड़ों में कटा हुआ वह बाण विषहीन भुजंग के समान तुरंत पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर धृष्टद्युम्न को कर्ण ने दस, अश्वत्थामा ने पाँच और स्वयं द्रोण ने सात बाण मारे। फिर शल्य ने दस, दुःशासन ने तीन, दुर्योधन ने बीस और शकुनि ने पाँच बाणों से उन्हें घायल कर दिया। राजन! इस प्रकार सभी महारथियों ने बड़ी उतावली के साथ पांचाल राजकुमार पर अपने-अपने बाणों का प्रहार किया। उस महासमर में द्रोणाचार्य की रक्षा के लिये सात वीरों द्वारा घायल किये जाने पर भी धृष्टद्युम्न ने बिना किसी घबराहट के उन सबको तीन-तीन बाणों से बींध डाला। फिर द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण तथा आपके पुत्र दुर्योधन को भी घायल कर दिया। उन धनुर्धरवीर धृष्टद्युम्न के बाणों से क्षत-विक्षत हो उन सभी योद्धाओं ने युद्धस्थल में पुनः उन्हें पाँच-पाँच बाणों से शीघ्र ही बींध डाला। प्रत्येक महारथी ने उन पर प्रहार किया था। राजन! उस समय द्रुमसेन ने अत्यन्त कुपित होकर एक बाण से धृष्टद्युम्न को बींध डाला। फिर तुरंत ही अन्य तीन बाणों से उन्हें घायल करके कहा,

द्रुमसेन ने कहा ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’-

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

      तब धृष्टद्युम्न ने रणभूमि में सोने के पंख वाले, शिला पर स्वच्छ किये हुए, तीन तीखे एवं प्राणान्तकारी बाणों द्वारा द्रुमसेन को घायल कर दिया। फिर दूसरे भल्ल द्वारा उस पराक्रमी वीर ने द्रुमसेन के सुवर्णनिर्मित कान्तिमान कुण्डलों द्वारा मण्डित मस्तक को धड़ से काट गिराया। रणभूमि में उस मस्तक ने अपने ओठ को दाँतों से दबा रखा था। वह आँधी के द्वारा गिराये हुए पके ताल-फल के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात वीर धृष्टद्युम्न ने अत्यन्त तीखे बाणों द्वारा उन सभी योद्धाओं को पुनः घायल करके विचित्र युद्ध करने वाले राधापुत्र कर्ण के धनुष को भल्लों से काट डाला। जैसे सिंह की पूँछ काट लेना अत्यन्त भयंकर कर्म है, उसे कोई महान सिंह नहीं सह सकता, उसी प्रकार कर्ण अपने धनुष का काटा जाना सहन न कर सका। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। वह दूसरा धनुष हाथ में लेकर लंबी साँस खींचता हुआ महाबली धृष्टद्युम्न की ओर दौड़ा और उन पर बाण-समूहों की वर्षा करने लगा।

      कर्ण को क्रोध में भरा हुआ देख उन छहों श्रेष्ठ रथी वीरों ने पांचाल-राजकुमार धृष्टद्युम्न को मार डालने की इच्छा से तुरंत ही घेर लिया। आपकी सेना के इन छः प्रमुख वीर योद्धाओं के सामने खड़े हुए धृष्टद्युम्न को हम लोग मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ ही मानने लगे। इसी समय दशार्हकुलभूषण सात्यकि बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ पराक्रमी धृष्टद्युम्न के पास आ पहुँचे। वहाँ आते हुए महाधनुर्धर युद्धदुर्मद सात्यकि को राधापुत्र कर्ण ने सीधे जाने वाले दस बाणों से बींध डाला। महाराज! तब सात्यकि ने भी समस्त वीरों के देखते-देखते कर्ण को दस बाणों से घायल कर दिया और कहा- ‘खड़े रहो, भाग न जाना’ राजन! उस समय बलवान सात्यकि और महामनस्वी कर्ण का वह संग्राम राजा बलि और इन्द्र के युद्ध सा प्रतीत होता था। अपने रथ की घर्घराहट से क्षत्रियों को भयभीत करते हुए क्षत्रियशिरोमणि सात्यकि ने कमललोचन कर्ण को अच्छी तरह घायल कर दिया। महाराज! बलवान सूतपुत्र कर्ण भी अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी को कम्पित करता हुआ सा सात्यकि के साथ युद्ध करने लगा। कर्ण ने शिनिपौत्र सात्यकि को विपाठ, कर्णी, नाराच, वत्सदन्त, क्षुरप्र तथा सैकड़ों बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया।

       इसी प्रकार रणभूमि में वृष्णि वंश के श्रेष्ठ वीर सात्यकि भी युद्ध-तत्पर हो कर्ण पर बाणों की वर्षा कने लगे। उन दोनों का वह युद्ध समान रूप से चलने लगा। महाराज! आपके अन्य योद्धा तथा कर्ण का पुत्र कवचधारी वृषसेन- ये सब के सब चारों ओर से तीखे बाणों द्वारा सात्यकि को बींधने लगे। प्रभो! इससे कुपित हुए सात्यकि ने उन सब योद्धाओं तथा कर्ण के अस्त्रों का अस्त्रों द्वारा निवारण करके वृषसेन की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। प्रजानाथ! सात्यकि के बाण से घायल हो बलवान वृषसेन धनुष छोड़कर मूर्च्छित हो रथ पर गिर पड़ा। तब महारथी वृषसेन को मारा गया मानकर कर्ण पुत्र शोक से संतप्त हो सात्यकि को पीड़ा देने लगा। कर्ण से पीड़ित होते हुए महारथी युयुधान बड़ी उतावली के साथ कर्ण को अपने बहुसंख्यक बाणों द्वारा बारंबार बींधने लगे। सात्वतवंशी सात्यकि ने कर्ण को दस और वृषसेन को सात बाणों से घायल करके उन दोनों के दस्ताने और धनुष काट दिये। तब उन दोनों ने दूसरे शत्रु-भयंकर धनुषों पर प्रत्यन्चा चढ़ाकर सब ओर से तीखे बाणों द्वारा युयुधान को बींधना आरम्भ किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-60 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन! जब बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला वह संग्राम चल रहा था, उसी समय वहाँ गाण्डीव धनुष की गम्भीर टंकार-ध्वनि बड़े जोर-जोर से सुनायी देने लगी। नरेश्वर! अर्जुन के रथ का गम्भीर घोष और गाण्डीव धनुष की टंकार सुनकर सूतपुत्र कर्ण ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा- ‘राजन! ये महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन हमारी सारी सेना का संहार और मुख्य-मुख्य कुरूवंशी श्रेष्ठ पुरुषों का वध करके अपने उत्तम धनुष की टंकार करते हुए विजयी हो रहे हैं। उधर गाण्डीव धनुष का महान घोष तथा गरजते हुए मेघ के समान पार्थ के रथ की घोर घर्घराहट सुनायी दे रही है। इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि अर्जुन वहाँ अपने अनुरूप पुरुषार्थ कर रहे हैं। राजन! भरतवंशियों की इस सेना को वे अनेक भागों में विदीर्ण (विभक्त) किये देते हैं। उनके द्वारा तितर-बितर किये हुए हमारे बहुत से सैन्यदल कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं। जैसे हवा घिरे हुए बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन के सामने पड़कर अपनी सारी सेना अनेक टुकड़ियों में बँटकर भागने लगी है। उसकी अवस्था समुद्र में फटी हुई नौका के समान हो रही है। राजन! गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा बिद्ध होकर भागते हुए सैकड़ों मुख्य-मुख्य योद्धाओं का वह महान आर्तनाद सुनायी पड़ता है। नृपश्रेष्ठ! इस रात्रि के समय आकाश में मेघ की गर्जना के समान जो अर्जुन के रथ के समीप नगाड़ों की ध्वनि हो रही है, उसे सुनो।

     अर्जुन के रथ के आसपास जो भाँति-भाँति के हाहाकार, बारंबार सिंहनाद तथा अनेक प्रकार के और भी बहुत से शब्द हो रहे हैं, उनको भी श्रवण करो। ये सात्वतशिरोमणि सात्यकि इस समय हम लोगों के बीच में खडे़ हैं। यदि यहाँ इन्हें हम अपने बाणों का निशाना बना सकें तो निश्चय ही सम्पूर्ण शत्रुओं पर विजय पा सकेंगे। ये पांचालराज द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न, जो आचार्य द्रोण के साथ जूझ रहे हैं, हमारे रथियों में श्रेष्ठतम शूरवीर योद्धाओं द्वारा चारों ओर से घिर गये हैं। महाराज! यदि हम सात्यकि तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न को मार डालें तो हमारी स्थायी विजय होगी, इसमें संदेह नहीं है। राजेन्द्र! अतः हम लोग सुभद्राकुमार अभिमन्यु के समान वृष्णि वंश तथा पार्षतकुल के इन दोनों महारथी वीरों को सब ओर से घेरकर मार डालने का प्रयत्न करें। भारत! सात्यकि को बहुत से प्रधान कौरव वीरों के साथ उलझा हुआ जानकर सव्यसाची अर्जुन सामने से द्रोणाचार्य की सेना की ओर आ रहे हैं। अतः बहुत से श्रेष्ठ महारथी वहाँ उनका सामना करने के लिये जायँ। जब तक अर्जुन यह नहीं जानते कि सात्यकि बहुसंख्यक योद्धाओं से घिर गये हैं, तभी तक तुम सभी शूरवीर बाणों का प्रहार करने में अधिकाधिक शीघ्रता करो। महाराज! जिस उपाय से भी यहाँ ये मधुवंशी सात्यकि परलोकगामी हो जायँ, अच्छी तरह प्रयोग में लायी हुई सुन्दर नीति के द्वारा वैसा ही प्रयत्न करो’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 60-70 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय बोले ;- राजन! जैसे इन्द्र समरागंण में परमयशस्वी भगवान विष्णु से कोई बात कहते हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण की सलहा मानकर सुबलपुत्र शकुनि से इस प्रकार कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- ‘मामा! तुम युद्ध से पीछे न हटने वाले दस हजार हाथियों और उतने ही रथों के साथ तुरंत ही अर्जुन का सामना करने के लिये जाओ। दुःशासन, दुर्विषह, सुबाहु और दुष्प्रधर्षण- ये (महारथी) बहुत से पैदल सैनिकों को साथ लेकर तुम्हारे पीछे-पीछे जायँगे। मेरे महाबाहु मामा! तुम श्रीकृष्ण, अर्जुन, धर्मराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा भीमसेन को भी मार डालो। मामा! जैसे देवताओं की आशा देवराज इन्द्र पर लगी रहती है, उसी प्रकार मेरी विजय की आशा तुम पर अवलम्बित है। जैसे अग्निकुमार स्कन्द ने असुरों का संहार किया था, उसी प्रकार तुम भी कुन्तीकुमारों का वध करो'।

     प्रभो! आपके पुत्र दुर्योधन के ऐसा कहने पर शकुनि विशाल सेना और आपके अन्य पुत्रों के साथ कुन्तीकुमारों का सामना करने के लिये गया। वह आपके पुत्रों का प्रिय करने के लिये पाण्डवों को भस्म कर देना चाहता था। फिर तो आपके योद्धाओं का शत्रुओं के साथ घोर युद्ध आरम्भ हो गया। राजन! जब शकुनि पाण्डव सेना की ओर चला गया, तब विशाल सेना के साथ सूतपुत्र कर्ण ने युद्धस्थल में कई सौ बाणों की वर्षा करते हुए तुरंत ही सात्यकि पर आक्रमण किया। इसी प्रकार अन्य सब राजाओं ने भी सात्यकि को घेर लिया। भारत! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न के रथ पर आक्रमण किया। उस रात्रि के समय वीर धृष्टद्युम्न और पाञ्चालों के साथ द्रोणाचार्य का महान एवं अद्भुत युद्ध हुआ। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर संकुल युद्ध विषयक एक सौ सत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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