सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ इकसठवें अध्याय से एक सौ पैसठवें अध्याय तक (From the 161 chapter to the 165 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ इकसठवाँ अध्याय

 (सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण ओर कौरव सेना का पलायन”

   संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर और भीमसेन ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया। यह देख द्रोणाचार्य की सेना से घिरे हुए राजा दुर्योधन ने भी रणभूमि में पांडवों पर आक्रमण किया। महाराज! फिर तो कायरों का भय बढ़ाने वाला घोर युद्ध होने लगा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने अम्बष्ठ, मालव, वंग, शिबि तथा त्रिगर्त देश के योद्धाओं को मृत्यु के लोक में भेज दिया। अभीषाह तथा शूरसेन जनपद के रणदुर्मद क्षत्रियों को भी काट-काटकर भीमसेन ने वहाँ की भूमि को खून से कीचड़मयी बना दिया। राजन! इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा यौधेय, पर्वतीय, मद्रक तथा मालव योद्धाओं को भी मृत्यु के लोक का पथिक बना दिया। अनायास ही दूर तक जाने वाले उनके नाराचों की गहरी चोट खाकर दो दाँतों वाले हाथी दो शिखरों वाले पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़ते थे।

     हाथियों के शुण्डदण्ड कटकर इधर-उधर तड़पते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सर्प चल रहे हों। उनके द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी। प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों से व्याप्त हुए द्युलोक की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार इधर-उधर फेंके पड़े हुए राजाओं के सुवर्णचित्रित छत्रों द्वारा उस रणभूमि की भी शोभा हो रही थी। लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य के रथ के समीप ‘मार डालो, निर्भय होकर प्रहार करो, बाणों से बींध डालो, टुकडे़-टुकड़े कर दो’ इत्यादि भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे दुर्जय महावायु मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र के द्वारा युद्ध में समस्त शत्रुओं को तहस-नहस कर डाला। द्रोणाचार्य की मार खाकर भीमसेन और महात्मा अर्जुन के देखते-देखते पांचाल सैनिक भय के मारे भागने लगे। तत्पश्चात अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसमूह से युक्त भारी सेना साथ लेकर सहसा द्रोणाचार्य की ओर लौट पड़े। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना पर दक्षिण पार्श्व से ओर भीमसेन ने बायें पार्श्व से अपने बाणसमूहों की भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी।

     महाराज! उस समय महातेजस्वी पांचालों, सृंजयों, मत्स्यों तथा सोमकों ने भी उन्हीं दोनों के मार्ग का अनुसरण किया। राजन! इसी प्रकार प्रहार करने में कुशल आपके पुत्र के श्रेष्ठ रथी भी विशाल सेना के साथ द्रोणाचार्य के रथ के समीप जा पहुँचे। उस समय किरीटधारी अर्जुन के द्वारा मारी जाती हुई कौरवी सेना अन्धकार और निद्रा दोनों से पीड़ित हो पुनः भागने लगी। महाराज! द्रोणाचार्य ने तथा स्वयं आपके पुत्र ने भी उन्हें बहुतेरा रोका, तथापि उस समय आपके सैनिक रोके न जा सके। पाण्डुपुत्र अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होती हुई वह विशाल सेना उस तिमिराच्छन्न जगत में सब ओर भागने लगी। महाराज! कुछ नरेश, जो सैकड़ों की संख्या में थे, अपने वाहनों को वहीं छोड़कर भय से व्याकुल हो सब ओर भाग गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर संकुलयुद्ध विषयक एक सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध, द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध तथा भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश”

  संजय कहते हैं ;- राजन! सोमदत्त को अपना विशाल धनुष हिलाते देख सात्यकि ने अपने सारथि से कहा,

    सात्यकि ने कहा ;- ‘मुझे सोमदत्त के पास ले चलो। सूत! आज मैं रणभूमि में अपने महाबली शत्रु सोमदत्त का वध किये बिना वहाँ से पीछे नहीं लौटूँगा। मेरी यह बात सत्य है’। तब सारथि ने शंख के समान श्वेत वर्ण वाले तथा सम्पूर्ण शब्दों का अतिक्रमण करने वाले मन के समान वेगशाली सिंधी घोड़ों को रणभूमि में आगे बढ़ाया। राजन! मन और वायु के समान वेगशाली वे घोड़े युयुधान को उसी प्रकार ले जाने लगे, जैसे पूर्वकाल में दैत्यवध के लिये उद्यत देवराज इन्द्र को उनके घोड़े ले गये थे। वेगशाली सात्यकि को रणभूमि में अपनी ओर आते देख महाबाहु सोमदत्त बिना किसी घबराहट के उनकी ओर लौट पड़े।

      वर्षा करने वाले मेघ की भाँति बाण समूहों की वृष्टि करते हुए सोमदत्त ने जैसे बादल सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार शिनि पौत्र सात्यकि को आच्छादित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उस समरागंण में सम्भ्रमरहित सात्यकि ने भी अपने बाण समूहों द्वारा सब ओर से कुरुप्रवर सोमदत्त को आच्छादित कर दिया। राजन! फिर सोमदत्त ने सात्यकि की छाती में साठ बाण मारे और सात्यकि ने भी उन्हें तीखे बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। वे दोनों नरश्रेष्ठ एक दूसरे के बाणों से घायल होकर वसन्त ऋतु में सुन्दर पुष्प वाले दो विकसित पलाश वृक्षों के समान शोभा पा रहे थे। कुरुकुल और वृष्णि वंश के यश बढ़ाने वाले उन दोनों वीरों के सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे। वे नेत्रों द्वारा एक दूसरे को जलाते हुए से देख रहे थे। रथ मण्डल के मार्गों पर विचरते हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर वर्षा करने वाले दो बादलों के समान भयंकर रूप धारण किये हुंए थे। राजेन्द्र! उनके शरीर बाणों से क्षत-विक्षत होकर सब ओर से खण्डित से हो बाणविद्ध हिंसक पशुओं के समान दिखायी दे रहे थे।

     राजन! सुवर्णमय पंख वाले बाणों से व्याप्त होकर वे दोनों योद्धा वर्षकाल में जुगनुओं से व्याप्त हुए दो वृक्षों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन दोनों महारथियों के सारे अंग उन बाणों से उद्भासित हो रहे थे, इसीलिये वे दोनों, रणक्षेत्र में उल्काओं से प्रकाशित एवं क्रोध में भरे हुए दो हाथियों के समान दिखायी देते थे। महाराज! तदनन्तर युद्धस्थल में महारथी सोमदत्त ने अर्धचन्द्राकार बाण से सात्यकि के विशाल धनुष को काट दिया और तत्काल ही उन पर पच्चीस बाणों का प्रहार किया। शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करने वाले सोमदत्त ने सात्यकि को पुनः दस बाणों से घायल कर दिया। तदनन्तर सात्यकि ने अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लेकर तुरंत ही पाँच बाणों से सोमदत्त को बींध डाला। राजन! फिर सात्यकि ने हँसते हुए से रणभूमि में एक दूसरे भल्ल के द्वारा वाह्लीकपुत्र सोमदत्त के सुवर्णमय ध्वज को काट दिया। ध्वज को गिराया हुआ देख सम्भ्रमरहित सोमदत्त ने सात्यकि के शरीर में पच्चीस बाण चुन दिये। तब रणक्षेत्र में कुपित हुए सात्यकि ने भी तीखे क्षुरप्र नामक भल्ल से धनुर्धर सोमदत्त के धनुष को काट दिया। राजन! तत्पश्चात उन्होंने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंख वाले सौ बाणों से टूटे दाँत वाले हाथी के समान सोमदत्त के शरीर को अनेक बार बींध दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)

      इसके बाद महारथी महाबली सोमदत्त ने दूसरा धनुष लेकर सात्यकि को बाणों की वर्षा से ढक दिया। उस युद्ध में क्रुद्ध हुए सात्यकि ने सोमदत्त को गहरी चोट पहुँचायी और सोमदत्त ने भी अपने बाणसमूह द्वारा सात्यकि को पीड़ित कर दिया। उस समय भीमसेन ने सात्यकि की सहायता के लिये सोमदत्त को दस बाण मारे। इससे सोमदत्त को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने भी तीखे बाणों से भीमसेन को पीड़ित कर दिया। तत्पश्चात सात्यकि की ओर से भीमसेन ने सोमदत्त की छाती को लक्ष्य करके एक नूतन सुदृढ़ एवं भयंकर परिघ छोड़ा। समरागंण में बड़े वेग से आते हुए उस भयंकर परिघ के कुरुवंशी सोमदत्त ने हँसते हुए से दो टुकडे़ कर डाले। लोहे का वह महान परिघ दो खण्डों में विभक्त होकर वज्र से विदीर्ण किये गये महान पर्वत शिखर के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।

      राजन! तदनन्तर संग्राम भूमि में सात्यकि ने एक भल्ल से सोमदत्त का धनुष काट दिया और पाँच बाणों से उनके दस्ताने नष्ट कर दिये। भारत! फिर तत्काल ही चार बाणों से उन्होंने सोमदत्त के उन उत्तम घोड़ों को प्रेतराज यम के समीप भेज दिया। इसके बाद पुरुषसिंह शिनिप्रवर सात्यकि ने हँसते हुए झुकी हुई गाँठ वाले भल्ल से सोमदत्त के सारथि का सिर धड़ से अलग कर दिया। राजन! तत्पश्चात सात्वतवंशी सात्यकि ने प्रज्वलित पावक के समान एक महाभयंकर, सुवर्णमय पंख वाला और शिला पर तेज किया हुआ बाण सोमदत्त पर छोड़ा। भरतनन्दन! प्रभो! शिनिवंशी बलवान सात्यकि के द्वारा छोड़ा हुआ वह श्रेष्ठ एवं भयंकर बाण शीघ्र ही सोमदत्त की छाती पर जा पड़ा। महाराज! सात्यकि के चलाये हुए उस बाण से अत्यन्त घायल होकर महारथी महाबाहु सोमदत्त पृथ्वी पर गिरे और मर गये। सोमदत्त को मारा गया देख आपके बहुसंख्यक महारथी बाणों की भारी वृष्टि करते हुए वहाँ सात्यकि पर टूट पड़े।

      महाराज! उस समय सात्यकि को बाणों द्वारा आच्छादित होते देख युधिष्ठिर तथा अन्य पाण्डवों ने समस्त प्रभद्रकों सहित विशाल सेना के साथ द्रोणाचार्य की सेना पर धावा किया। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर ने अपने बाणों की मार से आपकी विशाल वाहिनी को द्रोणाचार्य के देखते-देखते खदेड़ना आरम्भ किया। द्रोणाचार्य ने देखा कि युधिष्ठिर मेरे सैनिकों को खदेड़ रहे हैं, तब वे क्रोध से लाल आँखें करके बड़े वेग से उनकी ओर दौडे़। फिर उन्होंने सात तीखे बाणों से कुन्तीकुमार युधिष्ठिर को घायल कर दिया। अत्यन्त क्रोध में भरे हुए युधिष्ठिर ने भी उन्हें पाँच बाणों से बींधकर बदला चुकाया। तब अत्यन्त घायल हुए महाबाहु द्रोणाचार्य अपने दोनों गलफर चाटने लगे। उन्होंने युधिष्ठिर के ध्वज और धनुष को भी काट दिया। शीघ्रता के समय शीघ्रता करने वाले नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने समरागंण में धनुष कट जाने पर दूसरे सुदृढ़ धनुष को वेगपूर्वक हाथ में ले लिया। फिर सहस्रों बाणों की वर्षा करके राजा ने घोड़े, सारथि, रथ और ध्वजसहित द्रोणाचार्य को बींध डाला। वह अद्भुत सा कार्य हुआ। भरतश्रेष्ठ! उन बाणों के आघात से अत्यन्त पीड़ित एवं व्यथित होकर द्रोणाचार्य दो घड़ी तक रथ के पिछले भाग में बैठे रहे। तत्पश्चात सचेत होने पर द्विजश्रेष्ठ द्रोण ने महान क्रोध में भरकर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-55 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! तदनन्तर पराक्रमी युधिष्ठिर ने सम्भ्रम रहित हो धनुष खींचकर उनके उस अस्त्र को अपने दिव्यास्त्र द्वारा कुण्ठित कर दिया। इतना ही नहीं, उन पाण्डुकुमार ने विप्रवर द्रोणाचार्य के विशाल धनुष को भी काट दिया। फिर क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाले द्रोणाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लिया। परंतु कुरुप्रवर युधिष्ठिर ने अपने तीखे भल्लों से उसको भी काट दिया। तदनन्तर महाराज! वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘महाबाहु युधिष्ठिर! मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्ठ! तुम युद्ध में द्रोणाचार्य से अलग रहो। क्योंकि द्रोणाचार्य युद्धस्थल में सदा तुम्हें कैद करने के प्रयत्न में रहते हैं, अतः तुम्हारे साथ इनका युद्ध होना मैं उचित नहीं मानता। जो इनके विनाश के लिये उत्पन्न हुआ है, वही इन्हें मारेगा। तुम अपने गुरुदेव को छोड़कर जहाँ राजा दुर्योधन हैं, वहाँ जाओ। क्योंकि राजा को राजा के ही साथ युद्ध करना चाहिये। जो राजा नहीं है, उसके साथ उसका युद्ध अभीष्ट नहीं है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम हाथी, घोड़े और रथों की सेना से घिरे रहकर वहीं जाओ। तब तक मेरे साथ रहकर अर्जुन तथा रथियों में सिंह के समान पराक्रमी भीमसेन कौरवों के साथ युद्ध करते हैं’।

       भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दो घड़ी तक उस दारुण युद्ध के विषय में सोचा। फिर वे तुरंत वहाँ चले गये, जहाँ शत्रुओं का संहार करने वाले भीमसेन आपके योद्धाओं का वध करते हुए मुँह फैलाये यमराज के समान खडे़ थे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अपने रथ की भारी घर्घराहट से भूतल को उसी प्रकार प्रतिध्वनित कर रहे थे, जैसे वर्षाकाल में गर्जना करता हुआ मेघ दसों दिशाओं को गुँजा देता है। उन्होंने शत्रुओं का संहार करने वाले भीमसेन के पार्श्वभाग की रक्षा का भार ले लिया। उधर द्रोणाचार्य भी रात्रि के समय पाण्डव तथा पांचाल सैनिकों का संहार करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध विषयक एक सौ बासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं में प्रदीपों (मशालों ) का प्रकाश”

     संजय कहते हैं ;- राजन! जिस समय वह भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय सम्पूर्ण जगत अन्धकार और धूल से आच्छादित था, इसीलिये रणभूमि में खड़े हुए योद्धा एक दूसरे को देख नहीं पाते थे। वह महान् युद्ध अनुमान से तथा नाम या संकेतों द्वारा चलता हुआ उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। उस समय अत्यन्त रोमाञ्चकारी युद्ध हो रहा था। उसमें मनुष्य, हाथी और घोड़े मथे जा रहे थे। एक ओर से द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य ये तीन वीर युद्ध करते थे तथा दूसरी ओर से भीमसेन, धृष्टद्युम्न एवं सात्यकि सामना कर रहे थे। नृपश्रेष्ठ! ये एक दूसरे की सेनाओं में हलचल मचाये हुए थे। उन महारथियों द्वारा उस अन्धकाराच्छन्न प्रदेश में सब ओर से मारी जाती हुई सेनाएँ चारों ओर भागने लगीं। महाराज! वे योद्धा अचेत होकर सब ओर भागते थे और भागते हुए ही उस युद्धस्थल में मारे जाते थे। आपके पुत्र दुर्योधन की सलाह से होने वाले उस युद्ध के भीतर प्रगाढ़ अन्धकार में किंकर्तव्यविमूढ़ हुए सहस्रों महारथियों ने एक दूसरे को मार डाला। भरतनन्दन। तदनन्तर उस रणभूमि के तिमिराच्छन्न हो जाने पर समस्त सेनाएँ और सेनापति मोहित हो गये।

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जिस समय तुम सब लोग अन्धकार में डूबे हुए थे और पाण्डव तुम्हारे बल और पराक्रम को नष्ट करके तुम्हें मथे डालते थे, उस समय तुम्हारे और उन पाण्डवों के मन की कैसी अवस्था थी? संजय जबकि सारा जगत् अन्धकार से आवृत था, उस समय पाण्डवों को अथवा मेरी सेना को कैसे प्रकाश प्राप्त हुआ।

     संजय ने कहा ;- राजन! तदनन्तर जितनी सेनाएँ मरने से बची हुई थीं, उन सबको तथा सेनापतियों को आदेश देकर दुर्योधन ने उनका पुनः व्यूह-निर्माण करवाया। राजन! उस व्यूह के अग्रभाग में द्रोणाचार्य, मध्यभाग में शल्य तथा पार्श्वभाग में अश्वत्थामा और शकुनि थे। स्वयं राजा दुर्योधन उस रात्रि के समय सम्पूर्ण सेनाओं की रक्षा करता हुआ युद्ध के लिये आगे बढ़ रहा था। पृथ्वीनाथ! उस समय दुर्योधन ने समस्त पैदल सैनिकों से सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- 'वीरों। तुम सब लोग उत्तम आयुध छोड़कर अपने हाथों में जलती हुई मशालें ले लो'। नृपश्रेष्ठ दुर्योधन की आज्ञा पाकर उन पैदल सिहाहियों ने बड़े हर्ष के साथ हाथों में मशालें ले लीं। आकाश में खड़े हुए देवता, ऋषि, गन्धर्व, देवर्षि, विद्याधर, अप्सराओं के समूह, नाग, यक्ष, सर्प और किन्नर आदि ने भी प्रसन्न होकर हाथों में प्रदीप ले लिये। दिशाओं की अधिष्ठात्री देवियों के यहाँ से भी सुगन्धित तैल से भरे हुए दीप वहाँ उतरते दिखायी दिये। विशेषतः नारद और पर्वत नामक मुनियों ने कौरव और पाण्डवों की सुविधा के लिये वे दीप जलाये थे। रात के समय अग्नि की प्रभा से वह सेना पुनः विभागपूर्वक प्रकाशित हो उठी। बहुमूल्य आभूषणों तथा सैनिकों पर गिरने वाले दीप्तिमान दिव्यास्त्रों से भी वह सेना बड़ी शोभा पा रही थी। एक-एक रथ के पास पाँच-पाँच मशालें थीं। प्रत्येक हाथी के साथ तीन-तीन प्रदीप जलते थे। प्रत्येक घोड़े के साथ एक महाप्रदीप की व्यवस्था की गयी थी। पाण्डवों तथा कौरवों के द्वारा इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक जलाये गये समस्त प्रदीप क्षणभर में आपकी सारी सेना को प्रकाशित करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

       सब लोगों ने देखा कि मशाल और तेल हाथ में लिये पैदल सैनिकों द्वारा सेवित सारी सेनाएँ रात्रि के समय उसी प्रकार प्रकाशित हो उठी हैं, जैसे आकाश में बादल बिजलियों के प्रकाश से प्रकाशित हो उठते हैं। राजेन्द्र! सारी सेना में प्रकाश फैल जाने पर अग्नि के समान प्रतापी द्रोणाचार्य सुवर्णमय कवच धारण करके दोपहर के सूर्य की भाँति सब ओर देदीप्यमान होने लगे। उस समय सोने के आभूषणों, शुद्ध निष्कों, धनुषों तथा चमकीले शस्त्रों में वहाँ उन मशालों की आग के प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे।

      अजमीढकुलनन्दन! वहाँ जो गदाएँ, शैक्य, चमकीले परिघ तथा रथ-शक्तियाँ घुमायी जा रही थीं, उनमें जो उन मशालों की प्रभाएँ प्रतिबिम्बित होती थीं, वे मानों पुनः पुनः बहुत से नूतन प्रदीप प्रकट करती थीं। राजन! छत्र, चँवर, खड्ग, प्रज्वलित विशाल उल्काएँ तथा वहाँ युद्ध करते हुए वीरों की हिलती हुई सुवर्णमालाएँ उस समय प्रदीपों के प्रकाश से बड़ी शोभा पा रही थी। नरेश्वर! उस समय चमकीले अस्त्रों, प्रदीपों तथा आभूषणों की प्रभाओं से प्रकाशित एवं सुशोभित आपकी सेना अत्यन्त प्रकाश से उद्भासित होने लगी। पानीदार एवं खून से रँगे हुए शस्त्र तथा वीरों द्वारा कँपाये हुए कवच वहाँ प्रदीपों के प्रतिबिम्ब ग्रहण करके वर्षाकाल के आकाश में चमकने वाली बिजली की भाँति अत्यन्त उज्ज्वल प्रभा बिखेर रहे थे। आघात के वेग से कम्पित, आघात करने वाले तथा वेगपूर्वक शत्रु की ओर झपटने वाले वीर मनुष्यों के मुखमण्डल उस समय वायु से हिलाये हुए बडे़-बड़े कमलों के समान सुशोभित हो रहे थे। भरतनन्दन! जैसे सूखे काठ के विशाल वन में आग लग जाने पर वहाँ सूर्य की भी प्रभा फीकी पड़ जाती है, उसी प्रकार उस समय अधिक प्रकाश से प्रज्वलित होती हुई सी आपकी भयानक सेना महान भय उत्पन्न करने वाली प्रतीत होती थी। हमारी सेना को मशालों के प्रकाश से प्रकाशित देख कुन्ती के पुत्रों ने भी तुरंत ही सारी सेना के पैदल सैनिकों को मशाल जलाने की आज्ञा दी, अतः उन्होंने भी मशालें जला लीं। उनके एक-एक हाथी के लिये सात-सात और एक-एक रथ के लिये दस-दस प्रदीपों की व्यवस्था की गयी।

       घोड़ों के पृष्ठभाग में दो प्रदीप थे। अगल-बगल में ध्वजाओं के समीप तथा रथ के पिछले भागों में अन्यान्य दीपकों की व्यवस्था की गयी थी। सारी सेनाओं के पार्श्वभाग में, आगे, पीछे, बीच में एवं चारों ओर भिन्न-भिन्न सैनिक जलती हुई मशाले हाथ में लेकर पाण्डुपुत्र की सेना को प्रकाशित करने लगे। दोनों ही सेनाओं के अन्यान्य पैदल सैनिक हाथों में प्रदीप धारण किये दोनों ही सेनाओं के भीतर विचरण करने लगे। सारी सेनाओं के पैदल-समूह हाथी, रथ और अश्व समूहों के साथ मिलकर आपकी सेना को तथा पाण्डवों द्वारा सुरक्षित वाहिनी को भी अत्यन्त प्रकाशित करने लगे। जैसे किरणों द्वारा सुशोभित और अपनी प्रभा बिखेरने वाले सूर्य ग्रह के द्वारा सुरक्षित अग्निदेव और भी प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार प्रदीपों की प्रभा से अत्यन्त प्रकाशित होने वाले उस पाण्डव सैन्य के द्वारा आपकी सेना का प्रकाश और भी बढ़ गया। उन दोनों सेनाओं का बढ़ा हुआ प्रकाश पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं को लाँघकर चारों ओर फैल गया। प्रदीपों के उस प्रकाश से आपकी तथा पाण्डवों की सेना भी अधिक प्रकाशित हो उठी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 33-38 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन! स्वर्ग लोक तक फैले हुए उस प्रकाश से उद्बोधित होकर देवता, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय तथा सम्पूर्ण अप्सराएँ भी युद्ध देखने के लिये वहाँ आ पहुँचीं। देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों, असुरेन्द्रों और अप्सराओं के समुदाय से भरा हुआ वह युद्धस्थल वहाँ मारे जाकर स्वर्ग लोक पर अरूढ़ होने वाले शूरवीरों के द्वारा दिव्यलोक सा जान पड़ता था। रथ, घोड़े और हाथियों से परिपूर्ण, प्रदीपों की प्रभा से प्रकाशित, रोष में भरे हुए योद्धाओं से युक्त, घायल होकर भागने वाले घोड़ों से उपलक्षित तथा व्यूहबद्ध रथ, घोड़े एवं हाथियों से सम्पन्न दोनों पक्षों का वह महान सैन्यसमूह देवताओं और असुरों के सैन्यव्यूह के समान जान पड़ता था।

     रात में होने वाला वह युद्ध मेघों की घटा से आच्छादित दिन के समान प्रतीत होता था। उस समय शक्तियों का समूह प्रचण्डवायु के समान चल रहा था। विशाल रथ मेघसमूह के समान दिखायी देते थे। हाथियों और घोड़ों के हींसने और चिग्घाड़ने का शब्द ही मानो मेघों का गम्भीर गर्जन था। अस्त्रसमूहों की वर्षा ही जल की वृष्टि थी तथा रक्त की धारा ही जलधारा के समान जान पड़ती थी। नरेन्द्र! जैसे शरत्काल में मध्यान्ह का सूर्य अपनी प्रखर किरणों से भारी संताप देता है, उसी प्रकार उस युद्धस्थल में महान अग्नि के समान तेजस्वी महामना विप्रवर द्रोणाचार्य पाण्डवों के लिये संतापकारी हो रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर पद्रोण का प्रकाश विषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुःषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध और दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा के लिये सैनिकों को आदेश”

    संजय कहते हैं ;- राजन! उस समय धूल और अन्धकार से ढकी हुई रणभूमि में इस प्रकार उजेला होने पर एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वीर सैनिक आपस में भिड़ गये। महाराज! समरागंण में परस्पर भिड़कर वे नाना प्रकार के शस्त्र, प्रास और खड्ग आदि धारण करने वाले योद्धा, जो परस्पर अपराधी थे, एक दूसरे की ओर देखने लगे। चारों ओर हजारों मशालें जल रही थीं। उनके डंडे सोने के बने हुए थे और उनमें रत्न जड़े हुए थे। उन मशालों पर सुगन्धित तेल डाला जाता था। भारत। उन्हीं में देवताओं और गन्धर्वों के भी दीप आदि जल रहे थे, जो अपनी विशेष प्रभा के कारण अधिक प्रकाशित हो रहे थे। उनके द्वारा उस समय रणभूमि नक्षत्रों से आकाश की भाँति सुशोभित हो रही थी।

       सैकड़ों प्रज्वलित उल्काओं (मशालों) में वह रणभूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो प्रलयकाल में यह सारी पृथ्वी दग्ध हो रही हो। उन प्रदीपों से सब ओर सारी दिशाएँ ऐसी प्रदीप्त हो उठी, मानो वर्षा के सायंकाल में जुगनुओं से घिरे हुए वृक्ष जगमगा रहे हों। उस समय वीरगण विपक्षी वीरों के साथ पृथक्-पृथक् भिड़ गये। हाथी हाथियों के और घुड़सवार घुड़सवारों के साथ जूझने लगे। इसी प्रकार रथी श्रेष्ठ रथियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक युद्ध करने लगे। उस भयंकर प्रदोषकाल में आपके पुत्र की आशा से वहाँ चतुरंगिणी सेना में भारी मारकाट मच गयी। महाराज! तदनन्तर अर्जुन बड़ी उतावली के साथ समस्त राजाओं का संहार करते हुए कौरव सेना का विनाश करने लगे।

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! क्रोध और अमर्ष में भरे हुए दुर्धर्ष वीर अर्जुन जब मेरे पुत्र की सेना में प्रविष्ठ हुए, उस समय तुम लोगों के मन की कैसी अवस्था हुई? शत्रुओं को पीड़ा देने वाले अर्जुन के प्रवेश करने पर मेरी सेनाओं ने क्या किया तथा दुर्योधन ने उस समय के अनुरूप कौन सा कार्य उचित माना? समरागंण में शत्रुओं का दमन करने वाले कौन-कौन से योद्धा वीर अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़े। श्वेत वाहन अर्जुन के कौरव सेना के भीतर घुस आने पर किन लोगों ने द्रोणाचार्य की रक्षा की। कौन-कौन से योद्धा द्रोणाचार्य के रथ के दाहिने पहिये की रक्षा करते थे और कौन-कौन से बायें पहिये की? कौन-कौन से वीर वीरों का वध करने वाले द्रोणाचार्य के पृष्ठभाग के रक्षक थे और रण में शत्रुसैनिकों का संहार करने वाले कौन-कौन से योद्धा आचार्य के आगे-आगे चलते थे? महाधनुर्धर, पराक्रमी एवं किसी से पराजित न होने वाले पुरुषसिंह द्रोणाचार्य ने रथ के मार्गों पर नृत्य सा करते हुए वहाँ पाञ्चालों की सेना में प्रवेश किया था। जिन आचार्य द्रोण ने क्रोध में भरे हुए अग्निदेव के समान अपने बाणों की ज्वाला से पाञ्चाल महारथियों के समुदायों को जलाकर भस्म कर दिया था, वे कैसे मृत्यु को प्राप्त हुए? सूत! तुम मेरे शत्रुओं को तो व्यग्रतारहित, अपराजित, हर्ष और उत्साह से युक्त तथा संग्राम में वेगपूर्वक आगे बढ़ने वाले ही बता रहे हो, परंतु मेरे पुत्रों की ऐसी अवस्था नहीं बताते। सभी युद्धों में मेरे पक्ष के रथियों को तुम हताहत, छिन्न-भिन्न, तितर-बितर तथा रथहीन हुआ ही बता रहे हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुःषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय कहते हैं ;- कुरुनन्दन महाराज! युद्ध की इच्छा वाले द्रोणाचार्य का मत जानकर दुर्योधन ने उस रात में अपने वशवर्ती भाइयों से तथा कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, दुर्धर्ष, दीर्घबाहु तथा जो-जो उनके पीछे चलने वाले थे, उन सबसे इस प्रकार कहा,

      दुर्योधन ने कहा ;- ‘तुम सब लोग सावधान रहकर पराक्रमपूर्वक पीछे की ओर से द्रोणाचार्य की रक्षा करो। कृतवर्मा उनके दाहिने पहिये की और राजा शल्य बायें पहिये की रक्षा करें’। राजन! त्रिर्गतों के जो शूरवीर महारथी मरने से शेष रह गये थे, उन सबको आपके पुत्र ने द्रोणाचार्य के आगे-आगे चलने की आज्ञा देते हुए कहा,- ‘आचार्य पूर्णतः सावधान हैं, पाण्डव भी विजय के लिये विशेष यत्नशील एवं सावधान हैं। तुम लोग रणभूमि में शत्रु सैनिकों का संहार करते हुए आचार्य की पूरी सावधानी के साथ रक्षा करे। क्योंकि द्रोणाचार्य बलवान, प्रतापी और युद्ध में शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले हैं। वे संग्राम में देवताओं को भी परास्त कर सकते हैं। फिर कुन्ती के पुत्रों और सोमकों की तो बात ही क्या है? इसलिये तुम सब महारथी एक साथ होकर पूर्णतः प्रयत्नशील रहते हुए पाञ्चाल महारथी धृष्टद्युम्न से द्रोणाचार्य की रक्षा करो। हम पाण्डवों की सेनाओं में धृष्टद्युम्न के सिवा ऐसे किसी वीर नरेश को नहीं देखते, जो रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कर सके। अतः मैं सब प्रकार से द्रोणाचार्य की रक्षा करना ही इस समय आवश्यक कर्तव्य मानता हूँ। वे सुरक्षित रहें तो पाण्डवों, सृंजयों और सोमकों का भी संहार कर सकते हैं। युद्ध के मुहाने पर सारे सृंजयों के मारे जाने पर अश्वत्थामा रणभूमि में धृष्टद्युम्न को भी मार डालेगा, इसमें संशय नहीं है। योद्धाओं! इसी प्रकार महारथी कर्ण अर्जुन का वध कर डालेगा तथा रणयज्ञ की दीक्षा लेकर युद्ध करने वाला मैं भीमसेन को और तेजोहीन हुए दूसरे पाण्डवों को भी बलपूर्वक जीत लूँगा। इस प्रकार अवश्य ही मेरी यह विजय चिरस्थायिनी होगी, अतः तुम सब लोग मिलकर संग्राम में महारथी द्रोण की ही रक्षा करो'।

      भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर आपके पुत्र दुर्योधन ने उस भयंकर अन्धकार में अपनी सेना को युद्ध के लिये आज्ञा दे दी। भरतसत्तम! फिर तो रात्रि के समय दोनों सेनाओं में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से घोर युद्ध आरम्भ हो गया। अर्जुन कौरव सेना पर और कौरव सैनिक अर्जुन पर नाना प्रकार के शस्त्र-समूहों की वर्षा करते हुए एक दूसरे को पीड़ा देने लगे। अश्वत्थामा ने पाञ्चालराज द्रुपद को और द्रोणाचार्य ने सृंजयों को युद्धस्थल में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा आच्छादित कर दिया। भारत! एक ओर से पाण्डव और पाञ्चाल सैनिकों का और दूसरी ओर से कौरव योद्धाओं का, जो एक दूसरे पर गहरी चोट कर रहे थे, घोर आर्तनाद सुनायी पड़ता था। हमने तथा पूर्ववर्ती लोगों ने भी वैसा रौद्र एवं भयानक युद्ध न तो पहले कभी देखा था और न सुना ही था, जैसा कि वह युद्ध हो रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में संकुलयुद्धविषयक एक सौ चौसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

एक सौ पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों सेनाओं का युद्ध और कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय”

     संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! जब सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाला वह भयंकर रात्रि युद्ध आरम्भ हुआ, उस समय धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने पाण्डवों, पांचालों और सोमकों से कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘दौड़ो, द्रोणाचार्य पर ही उन्हें मार डालने की इच्छा से आक्रमण करो’। राजन! राजा युधिष्ठिर के आदेश से पांचाल और सृंजय भयानक गर्जना करते हुए द्रोणाचार्य पर ही टूट पड़े। वे सब के सब अमर्ष में भरे हुए थे और युद्धस्थल में अपनी शक्ति, उत्साह एवं धैर्य के अनुसार बारंबार गर्जना करते हुए द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। जैसे मतवाला हाथी किसी मतवाले हाथी पर आक्रमण कर रहा हो, उसी प्रकार युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य पर धावा करते देख हृदिकपुत्र कृतवर्मा ने आगे बढ़कर उन्हें रोका। राजन! युद्ध के मुहाने पर चारों ओर बाणों की बौछार करते हुए शिनिपौत्र सात्यकि पर कुरुवंशी भूरि ने धावा किया। राजन! द्रोणाचार्य को पकड़ने के लिये आते हुए महारथी पाण्डुपुत्र सहदेव को वैकर्तन कर्ण ने रोका। मुँह बाये यमराज के समान अथवा विपक्षी बनकर आयी हुई मृत्यु के समान भीमसेन का सामना स्वयं राजा दुर्योधन ने किया। राजन! सम्पूर्ण युद्धकला में कुशल योद्धाओं में श्रेष्ठ नकुल को सुबलपुत्र शकुनि ने शीघ्रतापूर्वक आकर रोका।

    नरेश्वर! रथ से आते हुए रथियों में श्रेष्ठ शिखण्डी को युद्धस्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने रोका। महाराज! मयूर के समान रंग वाले घोड़ों द्वारा आते हुए प्रयत्नशील प्रतिविन्ध्य को दुःशासन ने यत्नपूर्वक रोका। राजन! सैकड़ों मायाओं के प्रयोग में कुशल भीमसेन कुमार राक्षस घटोत्कच को आते देख अश्वत्थामा ने रोका। समरागंण में द्रोण को पराजित करने की इच्छा वाले सेना और सेवकों सहित महारथी द्रुपद को वृषसेन ने रोका। भारत! द्रोण को मारने के उद्देश्य से शीघ्रतापूर्वक आते हुए राजा विराट को अत्यन्त क्रोध में भरे हुए मद्रराज शल्य ने रोक दिया। द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से रणक्षेत्र में वेगपूर्वक आते हुए नकुलपुत्र शतानीक को चित्रसेन ने अपने बाणों द्वारा तुरंत रोक दिया। महाराज! कौरव सेना पर धावा करते हुए योद्धाओं में श्रेष्ठ महारथी अर्जुन को राक्षसराज अलम्बुष ने रोका। इसी प्रकार रणभूमि में शत्रुसैनिकों का संहार करने वाले, हर्ष और उत्साह से युक्त, महाधनुर्धर द्रोणाचार्य को पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने आगे बढ़ने से रोक दिया।

    राजन! इसी तरह आक्रमण करने वाले पाण्डव पक्ष के अन्य महारथियों को अपकी सेना के महारथियों ने बलपूर्वक रोका। उस महासमर में सैकड़ों और हजारों हाथीसवार तुरंत ही विपक्षी गजारोहियों से भिड़कर परस्पर जूझने और सैनिकों को रौंदने लगे। राजन! रात के समय एक दूसरे पर वेग से धावा करते हुए घोड़े पंखधारी पर्वतों के समान दिखायी देते थे। महाराज! हाथ में प्रास, शक्ति और ऋष्टि धारण किये घुड़सवार सैनिक पृथक्-पृथक् गर्जना करते हुए शत्रुपक्ष के घुड़सवारों के साथ युद्ध कर रहे थे। उस युद्धस्थल में बहुसंख्यक पैदल मनुष्य गदा और मुसल आदि नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा एक दूसरे पर आक्रमण करते थे। जैसे उत्ताल तरंगो वाले महासागर को तटभूमि रोक देती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र युधिष्ठिर को अत्यन्त क्रोध में भरे हुए हृदिकपुत्र कृतवर्मा ने रोक दिया। युधिष्ठिर ने कृतवर्मा का पहले पाँच बाणों से घायल करके फिर बीस बाणों से बींध डाला और कहा- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचषष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-41 का हिन्दी अनुवाद)

    माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए कृतवर्मा ने भी एक भल्ल से धर्मपुत्र युधिष्ठिर का धनुष काट दिया और उन्हें भी सात बाणों से बींध डाला। तदनन्तर महारथी धर्मकुमार युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष लेकर कृतवर्मा की छाती और भुजाओं में दस बाण मारे। आर्य! रणभूमि में धर्म पुत्र युधिष्ठिर के बाणों से घायल होकर कृतवर्मा काँपने लगा और उसने क्रोधपूर्वक युधिष्ठिर को भी सात बाण मारे। राजन! तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने कृतवर्मा के धनुष और दस्ताने को काटकर उसके ऊपर पाँच तीखे बाण चलाये जो शिला पर तेज किये गये थे। जैसे सर्प बाँबी में घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे बाण कृतवर्मा के सुवर्ण जटित बहुमूल्य कवच को छिन्न-भिन्न करके धरती फाड़कर उसके भीतर घुस गये।

     कृतवर्मा ने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथ में लेकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को साठ और उनके सारथि को नौ बाणों से घायल कर दिया। भरतश्रेष्ठ! तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने विशाल धनुष को रथ पर रखकर कृतवर्मा पर एक सर्पाकार शक्ति चलायी। पाण्डुकुमार युधिष्ठिर की चलायी हुई वह सुवर्णचित्रित विशाल शक्ति कृतवर्मा की दाहिनी भुजा को छेदकर धरती में समा गयी। इसी समय युधिष्ठिर ने पुनः धनुष हाथ में लेकर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कृतवर्मा को ढक दिया। फिर तो वृष्णि वंश के शूरवीर श्रेष्ठ महारथी कृतवर्मा ने समरागंण में आधे निमेष में ही युधिष्ठिर को घोड़ों, सारथि और रथ से हीन कर दिया। तब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने ढाल-तलवार हाथ में ले ली। किन्तु कृतवर्मा ने रणक्षेत्र में तीखे बाण मारकर उनके उस खड्ग को नष्ट कर दिया। तब समरागंण में युधिष्ठिर ने सुवर्णमय दण्ड से युक्त दुर्धर्ष तोमर हाथ में लेकर उसे तुरंत ही कृतवर्मा पर चला दिया।

      धर्मराज के हाथ से छूटकर सहसा अपने ऊपर आते हुए उस तोमर के सिद्धहस्त कृतवर्मा ने मुसकराते हुए से दो टुकडे़ कर दिये। तब युद्धस्थल में कृतवर्मा ने सैकड़ों बाणों से धर्मपुत्र युधिष्ठिर को ढक दिया और अत्यन्त कुपित होकर उसने उनके कवच को भी तीखे बाणों से विदीर्ण कर डाला। राजन! कृतवर्मा के बाणों से आच्छादित हुआ वह बहुमूल्य कवच आकाश से तारों के समुदाय की भाँति रणभूमि में बिखर गया। इस प्रकार धनुष कट जाने, रथ नष्ट होने और कवच छिन्न-भिन्न हो जाने पर बाणों से पीड़ित हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही युद्ध से पलायन कर गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर को जीतकर कृतवर्मा पुनः महात्मा द्रोण के रथचक्र की ही रक्षा करने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर युधिष्ठिर का पलायन विषयक एक सौ पैसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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