सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध, सोमदत्त की पराजय, घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध और अश्वत्थामा द्वारा घटोत्कच के पुत्र का, एक अक्षौहिणी राक्षस-सेना का तथा द्रुपदपुत्रों का वध एवं पाण्डव-सेना की पराजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! आमरण उपवास का व्रत लेकर बैठे हुए अपने पुत्र भूरिश्रवा के सात्यकि द्वारा मारे जाने पर उस समय सोमदत्त को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सात्यकि से इस प्रकार कहा- ’सात्वत! पूर्वकाल में महात्माओं तथा देवताओं ने जिस क्षत्रिय धर्म का साक्षात्कार किया है, उसे छोड़कर तुम लुटेरो के धर्म में कैसे प्रवृत हो गये? ’सात्यके! जो युद्ध से विमुख एवं दीन होकर हथियार डाल चुका हो, उस पर रणभूमि में क्षत्रिय धर्म परायण विद्वान पुरुष कैसे प्रहार कर सकता है। ’सात्वत! वृष्णि वंशियों में दो ही महारथी युद्ध के लिये विख्यात हैं। एक तो महाबाहु प्रद्युम्न और दूसरे तुम। 'अर्जुन ने जिसकी बांह काट डाली थी तथा जो आमरण अनशन का निश्चय लेकर बैठा था, उस मेरे पुत्र पर तुमने वैसा पतन कारक क्रुर प्रहार क्यों किया? 'ओ दुराचारी मूर्ख! उस पापकर्म का फल तुम इस युद्ध स्थल में ही प्राप्त करो। आज मैं पराक्रम करके एक बाण से तुम्हारा सिर काट डालूंगा।
'वृष्णि कुल कलंक सात्वत! मैं अपने दोनों पुत्रों की तथा यज्ञ और पुण्य कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ कि यदि आज रात्रि बीतने के पहले ही कुन्तीपुत्र अर्जुन से अरक्षित रहने पर अपने को वीर मानने वाले तुम्हें पुत्रों और भाइयों सहित न मार डालूं तो घोर नरक में पड़ू’। ऐसा कहकर महाबली सोमदत्त ने अत्यन्त कुपित हो उच्च स्वर से शंख बजाया और सिंहनाद किया। तब कमल के समान नेत्र और सिंह के सदृश दांतवाले दुर्घर्ष वीर सात्यकि भी अत्यन्त कुपित हो सोमदत्त से इस प्रकार बोले,
सात्यकि बोले ;- ’कौरव! यदि सारी सेना से सुरक्षित होकर तुम मेरे साथ युद्ध करोगे तो भी तुम्हारे कारण मुझे कोई व्यथा नहीं होगी। ’मैं सदा क्षत्रियोचित आचार में स्थित हूँ। युद्ध ही जिसका सार है तथा दुष्ट पुरुष ही जिसे आदर देते हैं, ऐसे कटुवाक्य से तुम मुझे डरा नहीं सकते। 'नरेश्रवर! यदि मेरे साथ तुम्हारी युद्ध करने की इच्छा है तो निर्दयता पूर्वक पैने बाणों द्वारा मुझ पर प्रहार करो।
मैं भी तुम पर प्रहार करूंगा। 'महाराज! तुम्हारा वीर महारथी पुत्र भूरिश्रवा मारा गया। भाई के दुःख से दुखी होकर शल भी वीरगति को प्राप्त हुआ है। 'अब पुत्रों और बान्धवों सहित तुम्हें भी मार डालूंगा। तुम कुरुकुल के महारथी वीर हो। इस समय रणभूमि में सावधान होकर खड़े रहो। 'जिन महाराज युधिष्ठिर में दान, दम, शौच, अहिंसा, लज्जा, धृति और क्षमा आदि सारे सद्गुण अविनश्वरभाव से सदा विद्यमान रहते हैं, अपनी ध्वजा में मृदंग का चिह्न धारण करने वाले उन्हीं धर्मराज के तेज से तुम पहले ही मर चुके हो। अतः कर्ण और शकुनि के साथ ही इस युद्ध स्थल में तुम विनाश को प्राप्त होओगे। ’मैं श्रीकृष्ण के चरणों तथा अपने इष्टापूर्त कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ कि यदि मैं युद्ध में क्रुद्ध होकर तुम-जैसे पापी को पुत्रों सहित न मार डालूं तो मुझे उत्तम गति न मिले। ’यदि तुम उपर्युक्त बातें कहकर भी युद्ध छोड़कर भाग जाओगे तभी मेरे हाथ से छुटकारा पा सकोगे। 'परस्पर ऐसा कहकर क्रोध से लाल आंखे किये उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने एक दूसरे पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर दुर्योधन एक हजार रथों और दस हजार हाथियों द्वारा सोमदत्त को चारों ओर से घेरकर उनकी रक्षा करने लगा। समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाला आपका नवयुवक साला महाबाहु शकुनि भी अत्यन्त कुपित हो इन्द्र के समान पराक्रमी भाइयों तथा पुत्र-पौत्रों से घिरकर वहाँ आ पहुँचा। बुद्धिमान शकुनि के एक लाख से अधिक घुड़सवार महाधनुर्धर सोमदत्त की सब ओर से रक्षा करने लगे। बलवान सहायकों से सुरक्षित हो सोमदत्त ने अपने बाणों से सात्यकि को आच्छादित कर दिया। झुकी हुई गांठवाले बाणों से सात्यकि को आच्छादित होते देख क्रोध में भरे हुए धृष्टद्युम्न विशाल सेना साथ लेकर वहाँ आ पहुँचे। राजन! उस समय परस्पर प्रहार करने वाली सेनाओं का कोलाहल प्रचण्ड वायु से विक्षुब्ध हुए समुद्रों की गर्जना के समान प्रतीत होता था। सोमदत्त ने सात्यकि को नौ बाणों से बींध डाला। फिर सात्यकि ने भी कुरुश्रेष्ठ सोमदत्त को नौ बाणों से घायल कर दिया। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले बलवान सात्यकि के द्वारा समरभूमि में अत्यन्त घायल किये जाने पर सोमदत्त रथ की बैठक में जा बैठे और सुध-बुध खोकर मूर्च्छित हो गये। तब महारथी वीर सोमदत्त को मूर्च्छित हुआ देख सारथि बड़ी उतावली के साथ उन्हें रणभूमि से दूर हटा ले गया।
सोमदत्त को युयुधान के बाणों से पीड़ित एवं अचेत हुआ देख द्रोणाचार्य यदुवीर सात्यकि का वध करने की इच्छा से उनकी ओर दौड़ें। द्रोणाचार्य को आते देख युधिष्ठिर आदि पाण्डव वीर यदुकुल तिलक महामना सात्यकि की रक्षा के लिये उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। जैसे पूर्वकाल में त्रिलोकी पर विजय पाने की इच्छा से राजा बलि का देवताओं के साथ युद्ध हुआ था, उसी प्रकार द्रोणाचार्य का पाण्डवों के साथ घोर संग्राम आरम्भ हुआ। तत्पश्चात महातेजस्वी द्रोणाचार्य ने अपने बाणसमूह से पाण्डव सेना को आच्छादित कर दिया और युधिष्ठिर को बींध डाला। फिर महाबाहु द्रोण ने सात्यकि को दस, धृष्टद्युम्न को बीस, भीमसेन को नौ, नकुल को पांच, सहदेव को आठ, शिखण्डी को सौ, द्रौपदी-पुत्रों को पांच-पांच, मत्स्यराज विराट को आठ, द्रुपद को दस, युधामन्यु को तीन, उत्तमौजा को छः तथा अन्य सैनिकों को अन्यान्य बाणों से घायल करके युद्धस्थल में राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण किया।
राजन! द्रोणाचार्य की मार खाकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के सैनिक आर्तनाद करते हुए भय के मारे दसों दिशाओं में भाग गये। द्रोणाचार्य के द्वारा पाण्डव-सेना का संहार होता देख कुन्तीकुमार अर्जुन के हृदय में कुछ क्रोध हो आया। वे तुरंत ही आचार्य का सामना करने के लिये चल दिये। अर्जुन को युद्ध में द्रोणाचार्य पर धावा करते देख युधिष्ठिर की सेना पुनः वापस लौट आयी। राजन! तदनन्तर भरद्वाज नन्दन द्रोण का पाण्डवों के साथ पुनः युद्ध आरम्भ हुआ। आपके पुत्रों ने द्रोणाचार्य को सब ओर से घेर रखा था। जैसे आग रूई के ढेर को जला देती हैं, उसी प्रकार वे पाण्डव-सेना को तहस-नहस करने लगे। नरेश्रवर! प्रज्वलित अग्नि के समान कान्तिमान तथा निरन्तर बाणरूपी किरणों से युक्त सूर्य के समान अत्यन्त प्रकाशित होने वाले द्रोणाचार्य को धनुष को मण्डलाकार करके तपते हुए प्रभाकर के समान शत्रुओं को दग्ध करते देख पाण्डव-सेना में कोई वीर उन्हें रोक न सका।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-62 का हिन्दी अनुवाद)
जो-जो युद्धा पुरुष द्रोणाचार्य के सामने खड़ा होता, उसी-उसी का सिर काटकर द्रोणाचार्य के बाण धरती में समा जाते थे। इस प्रकार महात्मा द्रोण के द्वारा मारी जाती हुई पाण्डव-सेना पुनः भयभीत हो सव्यसाची अर्जुन के देखते-देखते भागने लगी। भरतनन्दन! रात में द्रोणाचार्य के द्वारा अपनी सेना को भगायी हुई देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'आप द्रोणाचार्य के रथ के समीप चलिये'। तब दशाई कुलनन्दन श्रीकृष्ण ने चांदी, गोदुग्ध, कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमा के समान श्वेत कान्ति वाले घोड़ों को द्रोणाचार्य के रथ की ओर हांका। अर्जुन को द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये जाते देख भीमसेन ने भी अपने सारथि से कहा,
भीमसेन बोले ;- 'तुम द्रोणाचार्य की सेना की ओर मुझे ले चलो'। भरतश्रेष्ठ! उनके सारथि विशोक ने उनकी बात सुनकर सत्य प्रतिज्ञ अर्जुन के पीछे अपने घोड़ों को बढ़ाया। महाराज! उन दोनों भाइयों को द्रोणाचार्य की सेना की ओर युद्ध के लिये उद्यत होकर जाते देख पांचाल, सृंजय, मत्स्य, चेदि, कारूष, कोसल तथा केकय महारथियों ने भी उन्हीं का अनुसरण किया। राजन! फिर तो वहाँ रोंगटे खड़े कर देने वाला घोर संग्राम आरम्भ हो गया। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना के दक्षिण भाग को और भीमसेन ने वामभाग को अपना लक्ष्य बनाया। उन दोनों भाइयों के साथ विशाल रथ तथा सेनाएं थी। राजन! पुरुषसिंह भीमसेन और अर्जुन को द्रोणाचार्य पर धावा करते देख धृष्टद्युम्न और महाबली सात्यकि भी वहीं जा पहुँचे। महाराज! उस समय परस्पर आघात-प्रतिघात करते हुए उन सैन्यसमूहों का कोलाहल प्रचण्ड वायु से विक्षुब्ध हुए समुद्र की गर्जना के समान प्रतीत होता था। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा के वध से अत्यन्त कुपित हो उठा था। उसने युद्धस्थल में सात्यकि को देखकर उनके वध का दृढ़ निश्चय करके उन पर आक्रमण किया। अश्वत्थामा को शिनिपौत्र के रथ की ओर जाते देख अत्यन्त कुपित हुए भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने अपने उस शत्रु को रोका।
घटोत्कच जिस विशाल रथ पर बैठकर आया था, वह काले लोहे का बना हुआ और अत्यन्त भयंकर था। उसके ऊपर रीछ की खाल मढ़ी हुई थी। उसके भीतरी भाग की लम्बाई-चौड़ाई तीस नल्व (बारह हजार हाथ) थी। उसमें यन्त्र और कवच रखे हुए थे। चलते समय उससे मेघों की भारी घटा के समान गम्भीर शब्द होता था। उसमें हाथी-जैसे विशालकाय वाहन जुते हुए थे, जो वास्तव में न घोड़े थे और न हाथी। उस रथ की ध्वजा का डंडा बहुत ऊँचा था। वह ध्वज पंख और पंजे फैलाकर आंखें फाड़-फाड़कर देखने और कूजने वाले एक गृघ्रराज से सुशोभित था। उसकी पताका खून से भीगी हुई थी और उस रथ को आंतों की माला से विभूषित किया गया था। ऐसे आठ पहियों वाले विशाल रथ पर बैठा हुआ घटोत्कच भयंकर रूपवाले राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना से घिरा हुआ था। उस समस्त सेना ने अपने हाथों में शूल, मुद्गर, पर्वत-शिखर और वृक्ष ले रखे थे। प्रलयकाल में दण्डधारी यमराज के समान विशाल धनुष उठाये घटोत्कच को देखकर समस्त राजा व्यथित हो उठे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद)
वह देखने में पर्वत-शिखर के समान जान पड़ता था। उसका रूप भयानक होने के कारण वह सब को भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बड़ा भीषण था; किंतु दाढ़ों के कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूंटे के समान जान पड़ते थे। ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। आंखें डरावनी थी। मुख आग के समान प्रज्वलित था, पेट भीतर की ओर धंसा हुआ था। उसके गले का छेद बहुत बड़े गडढे के समान जान पड़ता था। सिर के बाल किरीट से ढके हुए थे। वह मुंह बाये हुए यमराज के समान समस्त प्राणियों के मन में त्रास उत्पन्न करने वाला था। शत्रुओं को क्षुब्ध कर देने वाले प्रज्वलित अग्नि के समान राक्षसराज घटोत्कच को विशाल धनुष उठाये आते देख आपके पुत्र की सेना भय से पीड़ित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायु से विक्षुब्ध हुई गंगा में भयानक भंवरें और ऊँची-ऊँची लहरें उठ रहीं थी। घटोत्कच के द्वारा किये हुए सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झड़ने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे। तदनन्तर उस रणभूमि में चारों और संध्याकाल से ही अधिक बलवान हुए राक्षसों द्वारा की हुई पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र अविराम गति से गिरने लगे। उस अत्यन्त भयंकर और उस संग्राम को देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण- ये सभी पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये।
उस समय वहाँ अपने अस्त्र बल पर अभिमान करने वाला एकमात्र द्रोणकुमार स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। उसने घटोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों द्वारा नष्ट कर दी। माया नष्ट हो जाने पर अमर्ष में भरे हुए घटोत्कच ने बड़े भयंकर बाण छोड़े। वे सभी बाण अश्वत्थामा के शरीर में घुस गये। जैसे क्रोधातुर सर्प बड़े वेग से बांबी में घुसते हैं, उसी प्रकार शिला पर तेज किये हुए वे सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमार को विदीर्ण करके खून से लथपथ हो धरती में घुस गये। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ़ गया। फिर तो शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले उस प्रतापी वीर ने क्रोधी घटोत्कच को दस बाणों से घायल कर दिया।
द्रोणपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में गहरी चोट लगने के कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथ में लिया; जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभाग में छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरों से विभूषित वह चक्र प्रातःकाल के सूर्य के समान जान पड़ता था। भीमसेन कुमार ने अश्वत्थामा का वध करने की इच्छा से वह चक्र उसके ऊपर चला दिया, परंतु अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा बड़े वेग से आते हुए देख उस चक्र को दूर फेंक दिया। वह भाग्यहीन के संकल्प (मनोरथ) की भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर अपने चक्र को धरती पर गिराया हुआ देख घटोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्वत्थामा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहू सूर्य को आच्छादित कर देता है। घटोत्कच के तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वा ने, जो कटे हुए कोयले के ढेर के समान काला था; अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय आंधी को रोक देता हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 81-98 का हिन्दी अनुवाद)
भीमसेन के पौत्र अंजनपर्वा के बाणों से आच्छादित हुआ अश्वत्थामा मेघ की जलधारा से आवृत हुए मेरु पर्वत के समान सुशोभित हो रहा था। रुद्र, विष्णु तथा इन्द्र के समान पराक्रमी अश्वत्थामा के मन में तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने एक बाण से अंजनपर्वा की ध्वजा काट डाली। फिर दो बाणों से उसके दो सारथियों को, तीन से त्रिवेणु को, एक से धनुष को और चार से चारों घोड़ों को काट डाला। तत्पश्चात रथहीन हुए राक्षसपुत्र के हाथ से उठे हुए सुवर्ण-विन्दुओं से व्याप्त खंड को उसने एक तीखे बाण से मारकर उसके दो टूकड़े कर दिये।
राजन! तब घटोत्कच पुत्र ने तुरंत ही सोने के अंगद से विभूषित गदा घुमाकर अश्वत्थामा पर दे मारी, परंतु अश्वत्थामा बाणों से आहत होकर वह भी पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब आकाश में उछलकर प्रलयकाल के मेघ की भाँति गर्जना करते हुए अंजनपर्वा ने आकाश से वृक्षों की वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर द्रोणपुत्र ने आकाश में स्थित हुए मायाधारी घटोत्कच कुमार को अपने बाणों द्वारा उसी तरह घायल कर दिया, जैसे सूर्य किरणों द्वारा मेघों की घटा को गला देते हैं। इसके बाद वह नीचे उतरकर अपने स्वर्णभूषित रथ पर अश्वत्थामा के सामने खड़ा हो गया। उस समय वह तेजस्वी राक्षस पृथ्वी पर खड़े हुए अत्यन्त भयंकर कज्जल-गिरि के समान जान पड़ा। उस समय द्रोणकुमार ने लोहे के कवच धारण करके आये हुए भीमसेन पौत्र अंजनपर्वा को उसी प्रकार मार डाला, जैसे भगवान महेश्वर ने अन्धकारसुर का वध किया था। अपने महाबली पुत्र को अश्वत्थामा द्वारा मारा गया देख चमकते हुए बाजूबंद से विभूषित घटोत्कच बड़े रोष के साथ द्रोणकुमार के समीप आकर बढ़े हुए दावानल के समान पाण्डव सेना रूपी वन को दग्ध करते हुए उस वीर कृपी-कुमार से बिना किसी घबराहट के इस प्रकार बोला।
घटोत्कच ने कहा ;- द्रोणपुत्र! खड़े रहो, खड़े रहो। आज तुम मेरे हाथ से जीवित बचकर नहीं जा सकोगे। जैसे अग्रिपुत्र कार्तिकेय ने क्रौज पर्वत को विदीर्ण किया था, उसी प्रकार आज मैं तुम्हारा विनाश कर डालूंगा।
अश्वत्थामा ने कहा ;- देवताओं के समान पराक्रमी पुत्र! तुम जाओ, दूसरों के साथ युद्ध करो। हिडिम्बानन्दन! पुत्र के लिये यह उचित नहीं है कि वह पिता को भी सताये। हिडिम्बाकुमार! अभी मेरे मन में तुम्हारे प्रति तनिक भी रोष नहीं हैं, परंतु रोष हो जाय तो तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि रोष के वशीभूत हुआ प्राणी अपना भी विनाश कर डालता है फिर दूसरे की तो बात ही क्या है? अतः मेरे कुपित होने पर तुम सकुशल नहीं रह सकते।
संजय कहते हैं ;- राजन! पुत्रशोक में डूबे हुए भीमसेन कुमार ने अश्वत्थामा की यह बात सुनकर क्रोध से लाल आंखें करके रोष पूर्वक उससे कहा,
भीमसेन ने कहा ;- 'द्रोणकुमार! क्या मैं युद्ध स्थल में नीच लोगों के समान कायर हूं, जो तू मुझे अपनी बातों से डरा रहा है। तेरी यह बात नीचतापूर्ण है। 'देख, मैं कौरवों के विशाल कुल में भीमसेन से उत्पन्न हुआ हूं, समंरागण में कभी पीठ न दिखाने वाले पाण्डवों का पुत्र हूं, राक्षसों का राजा हूँ और दशग्रीव रावण के समान बलवान हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 99-119 का हिन्दी अनुवाद)
'द्रोणपुत्र! 'खड़ा रह, खड़ा रह, तू मेरे हाथ से छूटकर जीवित नहीं जा सकेगा। आज इस रणांगण में मैं तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूंगा। ऐसा कहकर क्रोध से लाल आंखें किये महाबली राक्षस घटोत्कच ने द्रोणपुत्र पर रोषपूर्वक धावा किया, मानो सिंह ने गजराज पर आक्रमण किया हो। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा पर रथ की धुरी के समान मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। परंतु द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अपने पास आने से पहले ही उस बाण-वर्षा को बाणों द्वारा नष्ट कर देता था। इससे आकाश में बाणों का दूसरा संग्राम-सा मच गया था। अस्त्रों से परस्पर टकराने से जो आग की चिनगारियां छूटती थीं, उससे रात्रि के प्रथम प्रहर में आकाश जुगनुओं से चित्रित-सा प्रतीत होता था। युद्धाभिमानी अश्वत्थामा के द्वारा अपनी माया नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षों से भरे हुए शिखरों द्वारा सुशोभित एक बहुत ऊँचा पर्वत बन गया। वह महान पर्वत शूल, प्रास, खग, और मूसलरूपी जल के झरने बहा रहा था। अंजनगिरि के समान उस काले पहाड़ को देखकर और वहाँ से गिरने वाले बहुतेरे अस्त्र-शस्त्रों से घायल होकर भी द्रोणकुमार अश्वत्थामा व्यथित नहीं हुआ। तदनन्तर द्रोणकुमार ने हंसते हुए-से वज्रास्त्र को प्रकट किया। उस अस्त्र का आघात होते ही वह पर्वतराज तत्काल अदृश्य हो गया। तत्पश्चात वह आकाश में इन्द्रधनूष सहित अत्यन्त भयंकल नील मेघ बनकर पत्थरों की वर्षा से रणभूमि में अश्वत्थामा को आच्छादित करने लगा। तब अस्त्र वेताओं में श्रेष्ठ द्रोणकुमार ने वायव्यास्त्र का संधान करके वहाँ प्रकट हुए नील मेघ को नष्ट कर दिया।
तत्पश्चात अश्वत्थामा ने देखा कि घटोत्कच बिना किसी घबराहट के बहुत-से राक्षसों से घिरा हुआ पुनः रथ पर आरूढ़ होकर आ रहा है। उसने अपने धनुष को खींचकर फैला रखा है। उसके साथ सिंह, व्याघ्र और मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी तथा विकराल मुख, मस्तक और कण्ठ वाले बहुत-से अनुचर हैं, जो हाथी, घोड़ों तथा रथ पर बैठे हुए हैं। उसके अनुचरों में राक्षस, यातुधान तथा तामस जाति के लोग हैं, जिनका पराक्रम इन्द्र के समान हैं। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले, भाँति-भाँति के कवच और आभूषणों से विभूषित, महाबली, भयंकर सिंहनाद करने वाले तथा क्रोध से घूरते हुए नेत्रों वाले बहु संख्यक रणदुर्मद राक्षस घटोत्कच की ओर से युद्ध के लिये उपस्थित हैं। यह सब देखकर दुर्योधन विषादग्रस्त हो रहा है।
इन सब बातों पर दृष्टिपात करके अश्वत्थामा ने आपके पुत्र से कहा- 'दुर्योधन! आज तुम चुपचाप खड़े रहो। तुम्हें इन्द्र के समान पराक्रमी इन राजाओं तथा अपने वीर भाइयों के साथ तनिक भी घबराना नहीं चाहिये। 'राजन! मैं तुम्हारे शत्रुओं को मार डालूंगा, तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; इसके लिये मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ। तुम अपनी सेना को आश्वासन दो'।
दुर्योधन बोला ;- गौतमीनन्दन! तुम्हारा यह हृदय इतना विशाल है कि तुम्हारे द्वारा इस कार्य का होना मैं अद्भुत नहीं मानता। हम लोगों पर तुम्हारा अनुराग बहुत अधिक है।
संजय कहते हैं ;- राजन! अश्वत्थामा से ऐसा कहकर दुर्योधन संग्राम में शोभा पाने वाले घोड़ों से युक्त एक हजार रथों द्वारा घिरे हुए शकुनि से इस प्रकार बोला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 120-139 का हिन्दी अनुवाद)
'मामा! तुम साठ हजार रथियों की सेना साथ लेकर अर्जुन पर आक्रमण करो। कर्ण, वृषसेन, कृपाचार्य, नील, उत्तर दिशा के सैनिक, कृतवर्मा, पुरूमित्र, सुतापन, दुःशासन, निकुम्भ, कुण्डभेदी, पराक्रमी पुरंजय, द्दढ़रथ, पताकी, हेम-कम्पन, शल्य, आरूणि, इन्द्रसेन, संजय, विजय, जय, कमलाक्ष, परऋाथी, जयवर्मा और सुदर्शन- ये सभी महारथी वीर तथा साठ हजार पैदल सैनिक तुम्हारे साथ जायंगे। ;मामा! जैसे देवराज इन्द्र असुरों का संहार करते हैं, उसी प्रकार तुम भीमसेन, नकुल, सहदेव तथा धर्मराज युधिष्ठिर का भी वध कर डालो। मेरी विजय की आशा तुम पर ही अवलम्बित है। 'मातुल! द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने कुन्तीकुमारों को अपने बाणों द्वारा विदीर्ण कर डाला है; उनके शरीरों को क्षत-विक्षत कर दिया है। इस अवस्था में असुरों का वध करने वाले कुमार कार्तिकेय की भाँति तुम कुन्तीपुत्रों को मार डालो’। राजन! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर सुबलपुत्र शकुनि आपके पुत्रों को प्रसन्न करने तथा पाण्डवों को दग्ध कर डालने की इच्छा से शीघ्र ही युद्ध के लिये चल दिया।
तदनन्तर रणभूमि में रात्रि के समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा तथा राक्षस घटोत्कच का इन्द्र और प्रह्लाद के समान अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। उस समय घटोत्कच ने अत्यन्त कुपित होकर विष और अग्निके समान भयंकर दस सुद्दढ बाणों द्वारा कृपीकुमार अश्वत्थामा की छाती में गहरा आघात किया। भीमपुत्र घटोत्कच के चलाये हुए उन बाणों द्वारा गहरी चोट खाकर रथ में बैठा हुआ अश्वत्थामा वायु के झकझोरे हुए वृक्ष के समान कांपने लगा। इतने ही में घटोत्कच ने पुनः अण्जलिक नामक बाण से अश्वत्थामा के हाथ में स्थित अत्यन्त कान्तिमान धनुष को शीघ्रतापूर्वक काट डाला। तब द्रोणकुमार भार सहन करने में समर्थ दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर, जैसे मेघ जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार तीखे बाणों की वर्षा करने लगा। भारत! तदनन्तर गौतमीपुत्र ने सुवर्णमय पंखवाले शत्रुनाशक आकाशचारी बाणों को उस राक्षस पर चलाया। उन बाणों से चौड़ी छाती वाले राक्षसों का वह समूह अत्यन्त पीड़ित हो सिंहों द्वारा व्याकुल किये गये मतवाले हाथियों के झुंड के समान प्रतीत होने लगा। जैसे भगवान अग्निदेव प्रलयकाल में सम्पूर्ण प्राणियों को दग्ध कर देते हैं, उसी प्रकार अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा घोड़े, सारथि, रथ और हाथियों सहित बहुतसे राक्षसों को जलाकर भस्म कर दिया। नरेश्वर! जैसे भगवान महेश्वर आकाश में त्रिपुर को दग्ध करके सुशोभित हुए थे, उसी प्रकार राक्षसों की अक्षौहिणी सेना को बाणों द्वारा दग्ध करके अश्वत्थामा शोभा पाने लगा। राजन! विजयी वीरो मे श्रेष्ठ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा प्रलयकाल में समस्त प्राणियों को भस्म कर देने वाले संवर्तक अग्नि के समान आपके शत्रुओं को दग्ध करके देदीप्यमान हो उठा।
तब घटोत्कच कुपित हो भयानक कर्म करने वाले राक्षसों की उस विशाल सेना को आदेश दिया, 'अरे! अश्वत्थामा को मार डालो’। घटोत्कच उस आज्ञा को शिरोधार्य करके दाढ़ों से प्रकाशित, विशाल मुख वाले, घोर रूपधारी, फैले मुंह और डरावनी जीभ वाले भयानक राक्षस क्रोध से लाल आंखे किये महान सिंहनाद से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए हाथों मे भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र ले अश्वत्थामा को मार डालने-के लिये उस पर टूट पड़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 140-163 का हिन्दी अनुवाद)
समरांगण में किसी से न डरने वाले तथा क्रोध से लाल नेत्रों वाले भयंकर पराक्रमी सैकड़ों और हजारों राक्षस अश्वत्थामा मस्तक पर शक्ति, शतघ्नी, परिघ, अशनि, शूल, पटिश, खग, गदा, भिन्दिपाल, मूसल, फरसे, प्रास, कटार, तोमर, कणप, तीखे, कम्पन, मोटे-मोटे पत्थर, भुशुण्डी, गदा, काले लोहे के खंभे तथा शत्रुओं को विदीर्ण करने में समर्थ महाघोर मुहरों की वर्षा करने लगे। द्रोणपुत्र के मस्तक पर अस्त्रों की वह बड़ी भारी वर्षा होती देख आपके समस्त सैनिक व्यथित हो उठे। परंतु पराक्रमी द्रोणकुमार ने शिला पर तेज किये हुए अपने वज्रोपम बाणों द्वारा वहाँ प्रकट हुई उस भयंकर अस्त्र वर्षा का विध्वंस कर डाला। तत्पश्चात महामनस्वी अश्वत्थामा ने दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित सुवर्णमय पंख वाले अन्य बाणों द्वारा तत्काल ही राक्षसों को घायल कर दिया। उन बाणों से चौड़ी छाती वाले राक्षसों का समूह अत्यन्त पीड़ित हो सिंहो द्वारा व्याकुल किये गये मतवाले हाथियों के झुंड के समान प्रतीत होने लगा। द्रोणपुत्र की मार खाकर, अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महाबली राक्षस उसे मार डालने की इच्छा से रोषपूर्वक दौड़े।
भारत! वहाँ अश्वत्थामा ने यह ऐसा अद्भुत पराक्रम दिखाया, जिसे समस्त प्राणियों में और किसी के लिये कर दिखना असम्भव था। क्योंकि महान अस्त्रवेता अश्वत्थामा ने अकेले ही उस राक्षसी सेना को राक्षसराज घटोत्कच के देखते-देखते अपने प्रज्वलित बाणों द्वारा क्षण भर में भस्म कर दिया। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक अग्नि समस्त प्राणियों को दग्ध कर देती हैं, उसी प्रकार राक्षसों की उस सेना का संहार करके युद्धस्थल में अश्वत्थामा की बड़ी शोभा हुई। युद्धस्थल में पाण्डव पक्ष के सहस्रों राजाओं में से वीर महाबली राक्षसराज घटोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई भी विषधर सर्पो के समान भयंकर बाणों द्वारा पाण्डवों की सेनाओं को दग्ध करते हुए अश्वत्थामा की ओर देख न सका। भरतश्रेष्ठ! पुनः क्रोध से घटोत्कच की आंखें घूमने लगी। उसने हाथ से हाथ मलकर ओठ चबा लिया और कुपित हो सारथि से कहा,
घटोत्कच ने कहा ;- ’सूत! तू मुझें द्रोणपुत्र के पास-ले चल’। शत्रुओं का संहार करने वाला घटोत्कच सुन्दर पताकाओं-से सुशोभित, प्रकाशमान एवं भयंकर रथ के द्वारा पुनः द्रोणपुत्र के साथ द्वैरथ युद्ध करने के लिये गया। उस भयंकर पराक्रमी राक्षस ने सिंह के समान बड़ी भारी गर्जना करके संग्राम में द्रोणपुत्र पर देवताओं द्वारा निर्मित तथा आठ घंटियों से सुषोभित एक महाभयंकर अशनि (वज्र) घुमाकर चलायी।
यह देख अश्वत्थामा ने रथ पर अपना धनुष रख उछल-कर उस अशनि को पकड़ लिया और उसे घटोत्कच के ही रथ पर दे मारा। घटोत्कच उस रथ से कूद पड़ा। यह अत्यन्त प्रकाशमान तथा परम दारुण अशनि घोड़े, सारथि और ध्वजसहित घटोत्कच के रथ को भस्म करके पृथ्वी को छेदकर उसके भीतर समा गयी। अश्वत्थामा भगवान शंकर द्वारा निर्मित उस भयंकर अशनि को जो उछल कर पकड़ लिया, उसके उस कर्म को देखकर समस्त प्राणियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रंशसा की। नरेश्वर! उस समय भीमसेन कुमार ने धृष्टद्युम्न के रथ पर आरूढ़ हो इन्द्रायुध के समान विशाल एवं घोर धनुष हाथ में लेकर अश्वत्थामा के विशाल वक्षःस्थल पर बहुत से तीखे बाण मारे। धृष्टद्युम्न ने भी बिना किसी घबराहट के विषधर सर्पो के समान सुवर्णमय पंख वाले बहुत से बाण द्रोणपुत्र के वक्षःस्थल पर छोड़े तब अश्वत्थामा ने भी उन पर सहस्रों नाराच चलाये। धृष्टद्युम्न और घटोत्कच ने भी अग्रि शिखा के समान तेजस्वी बाणों द्वारा अश्वत्थामा के नाराचों को काट डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 164-181 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुष सिंहों तथा अश्वत्थामा का वह अत्यन्त उग्र और महान युद्ध समस्त योद्धाओं का हर्ष बढ़ा रहा था। तदनन्तर एक हजार रथ, तीन सौ हाथी और छः हजार घुड़सवारों के साथ भीमसेन उस युद्धस्थल में आये। उस समय अनायास ही पराक्रम प्रकट करने वाला धर्मात्मा अश्वत्थामा भीमपुत्र राक्षस घटोत्कच तथा सेवकों-सहित धृष्टद्युम्न के साथ अकेला ही युद्ध कर रहा था। भारत! वहाँ द्रोणपुत्र ने अत्यन्त अद्भुत पराक्रम दिखाया, जिसे कर दिखाना समस्त प्राणियों में दूसरे के लिये असम्भव था। उसने पलक मारते-मारते अपने पैंने बाणों से घोड़े, सारथि, रथ और हाथियों सहित राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना का संहार कर दिया। भीमसेन, घटोत्कच, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते यह सब कुछ हो गया। शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने वाले नाराचों की गहरी चोट लाकर बहुत-से हाथी शिखरयुक्त पर्वतों के समान धराशायी हो गये। हाथियों के झुण्ड कटकर इधर-उधर छटपटा रहे थे। उनसे ढकी हुई पृथ्वी रेंगते हुए सर्पों से आच्छादित हुई-सी शोभा पा रही थी। इधर-उधर गिरे हुए सुवर्णमय दण्डवाले राजाओं के छत्रों से छायी हुई यह पृथ्वी प्रलयकाल में उदित हुए सूर्य, चन्द्रमा तथा ग्रहनक्षत्रों से परिपूर्ण आकाश के समान जान पड़ती थी।
अश्वत्थामा ने यु़द्धस्थल में खून की नदी बहा दी, जो शोणित के प्रवाह से अत्यन्त भयंकर प्रतीत होती थी, जिसमें कटकर गिरी हुई विशाल ध्वजाएं मेढकों के समान और रणभेरियां विशाल कछुओं के सदृश जान पड़ती थी। राजाओं के श्वेत छत्र हंसों की श्रेणी के समान उस नदी का सेवन करते थे। चंवरसमूह फेन का भ्रम उत्पन्न करते थे। कंक और गीध ही बड़े-बड़े ग्राह-से जान पड़ते थे। अनेक प्रकार के आयुध वहाँ मछलियों के समान भरे थे। विशाल हाथी शिलाखण्डों के समान प्रतीत होते थे। मरे हुए घोड़े वहाँ मगरों के समान व्याप्त थे। गिरे पड़े हुए रथ ऊँचे-ऊँचे टीलों के समान जान पड़ते थे। पताकाएं सुन्दर वृक्षों के समान प्रतीत होती थी। बाण ही मीन थे। देखने में वह बड़ी भयंकर थी। प्रास, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र डुण्डुभ सर्प के समान थे। मज्जा और मांस ही उस नदी में महापंक के समान प्रतीत होते थे। तैरती हुई लाशें नौका का भ्रम उत्पन्न करती थी। केशरूपी सेवारों से वह रंग-बिरंगी दिखायी दे रही थी। वह कायरों की मोह प्रदान करने वाली थी। गजराजों, घोड़ों और योद्धाओं के शरीरों का नाश होने से उस नदी का प्राकट्य हुआ था। योद्धाओं की आर्तवाणी ही उसकी कलकल ध्वनि थी। उस नदी से रक्त की लहरें उठ रही थी। हिंसक जन्तुओं के कारण उसकी भंयकरता और भी बढ़ गयी थी। वह यमराज के राज्यरूपी महासागर में मिलने वाली थी।
राक्षसों का वध करके बाणों द्वारा अश्वत्थामा ने घटोत्कच को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। फिर उस महाबली वीर ने अत्यन्त कुपित होकर अपने नाराचों से भीमसेन और धृष्टद्युम्न सहित समस्त कुन्तीकुमारों को घायल करके द्रुपदपुत्र सुरथ को मार डाला। तत्पश्चात उसने रणक्षेत्र में द्रुपदकुमार शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक और जयाश्व को भी मार गिराया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 182-190 का हिन्दी अनुवाद)
आर्य! इसके बाद द्रोणकुमार ने राजा श्रुतायुध को भी यमलोक पहुँचा दिया। फिर दूसरे तीन तीखे और सुन्दर पंखवाले बाणों द्वारा हेमशाली, पृषध्र और चन्द्रसेन का भी वध कर डाला। तदनन्तर दस बाणों से उसने राजा कुन्तिभोज के दस पुत्रों को काल के गाल में डाल दिया। इसके बाद अत्यन्त क्रोध में भरे हुए अश्वत्थामा ने एक सीधे जाने वाले अत्यन्त भयंकर एवं उत्तम बाण का संधान करके धनुष को कान तक खींचकर उसे शीघ्र ही घटोत्कच को लक्ष्य करके छोड़ दिया। वह बाण घोर यमदण्ड के समान था। पृथ्वीपते! वह सुन्दर पंखोवाला महाबाण उस राक्षस का हदय विदीर्ण करके शीघ्र ही पृथ्वी में समा गया। राजेन्द्र! घटोत्कच को मरकर गिरा हुआ जान महारथी धृष्टद्युम्न ने अपने उत्तम रथ को अश्वत्थामा के पास से हटा लिया।
नरेश्वर! फिर तो युधिष्ठिर सेना के सभी नरेश युद्ध से विमुख हो गये। उस सेना को परास्त करके वीर द्रोणपुत्र रणभुमि में गर्जना करने लगा। भारत! उस समय सम्पूर्ण प्राणियों में अश्वत्थामा का बड़ा समादर हुआ। आपके पुत्रों ने भी उसका बड़ा सम्मान किया। तदनन्तर सैकड़ों बाणों से शरीर छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण मरकर गिरे और मृत्यु को प्राप्त हुए निशाचरों की लाशों से पटी हुई चारों ओर की भूमि पर्वताशिखरो से आच्छादित हुई-सी अत्यन्त भयंकर और दुर्गम प्रतीत होने लगी। उस समय वहाँ सिद्धों, गन्धर्व, पिशाचों, नागों, सुपर्णों, पितरों, पक्षियों, राक्षसों, भूतों, अप्सराओं तथा देवताओं ने भी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त घटोत्कचपर्व मे रात्रियुद्धविषयक एक सौ छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“सोमदत्त की मूर्छा, भीम के द्वारा बाह्लीक का वध, धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के सात रथियों एवं पांच भाइयों का संहार तथा द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय”
संजय कहते हैं ;- राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा द्रुपद और कुन्तिभोज के पुत्रों तथा सहस्रों राक्षसों को मारा गया देख युधिष्ठिर, भीमसेन, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न तथा युयुघान ने भी सावधान होकर युद्ध में ही मन लगाया। भारत! युद्धस्थल में सात्यकि को देखकर सोमदत्त पुनः कुपित हो उठे और उन्होंने बड़ी भारी बाण वर्षा करके सात्यकि को आच्छादित कर दिया। फिर तो विजय की अभिलाषा रखने वाले आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध छिड़ गया। सोमदत्त को आते देख भीमसेन ने सात्यकि की सहायता के लिये शिला पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले दस बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। सोमदत्त ने भी वीर भीमसेन को सौ बाणों से बेंधकर बदला चुकाया। इधर सात्यकि ने भी अत्यन्त कुपित हो पुत्र शोक में डूबे हुए, नहुष नन्दन ययाति की भाँति वृध्दता के गुणों से युक्त बूढ़े सोमदत्त को मार गिराने वाले दस तीखे बाणों से बींघ डाला। फिर शक्ति से इन्हें विदीर्ण करके सात बाणों द्वारा पुनः गहरी चोट पहुँचायी। तत्पश्चात सात्यकके लिये भीमसेन ने सोमदत्त के मस्तक पर नूतन, सुदृढ़ एवं भयंकर परिघ का प्रहार किया। इसी समय सात्यकि ने भी युद्धस्थल में कुपित हो सोमदत्त की छाती पर सुन्दर पंख वाले, अग्नि के समान तेजस्वी, उत्तम और तीखे बाण का प्रहार किया। वे भयंकर परिघ और बाण वीर सोमदत्त के शरीर पर एक ही साथ गिरे। इससे महारथी सोमदत्त मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
अपने पुत्र के मूर्च्छित होने पर बाह्लीक ने वर्षा ऋतु में वर्षा करने वाले मेघ के समान बाणों की वृष्टि करते हुए वहाँ सात्यकि पर धावा किया। भीमसेन ने सात्यकि के लिये महात्मा बाह्लीक को पीड़ित करते हुए युद्ध के मुहाने पर उन्हें नौ बाणों से घायल कर दिया। तब महाबाहु प्रतीप के पुत्र बाह्लीक ने अत्यन्त कुपित हो भीमसेन की छाती में अपनी शक्ति धंसा दी, मानो देवराज इन्द्र ने किसी पर्वत पर वज्र मारा हो। इस प्रकार शक्ति से आहत होकर भीमसेन कांप उठे और मूर्च्छित हो गये। फिर सचेत होने पर बलवान भीम ने उन पर गदा का प्रहार किया। पाण्डुपुत्र भीमसेन द्वारा चलायी हुई उस गदा ने बाह्लीक का सिर उड़ा दिया। वे वज्र के मारे हुए पर्वतराज की भाँति मर कर पृथ्वी पर गिर पड़े।
राजन! वीर बाह्लीक के मारे जाने पर श्रीरामचन्द्र जी के समान पराक्रमी आपके दस पुत्र भीमसेन को पीड़ा देने लगे। उनके नाम इस प्रकार है- नागदत, दृढ़रथ(दृढ़रथाश्रय), महाबाहु, अयोभुज(अयोबाहु), दृढ़ (दृढ़क्षत्र), सुहस्त, विरजा, प्रमाथी, उग्र (उग्रश्रवा) और अनुयायी (अग्रयायी)। उनको सामने देखकर भीमसेन कुपित हो उठे। उन्होंने प्रत्येक के लिये एक-एक करके भार साधन में समर्थ दस बाण हाथ में लिये और उन्हें उनके मर्म-स्थानों पर चलाया। उन बाणों से घायल होकर आपके पुत्र अपने प्राणों से हाथ धो बैठे और पर्वत शिखर से प्रचण्ड वायु द्वारा उखाड़े हुए वृक्षों के समान तेजोहीन होकर रथों से नीचे गिर पड़े। आपके उन पुत्रों को दस नाराचों द्वारा मारकर भीमसेन ने कर्ण के प्यारे पुत्र वृषसेन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर कर्ण के सुविख्यात बलवान भ्राता वृकरथ ने आकर भीमसेन पर भी आक्रमण किया और उन्हें नाराचों द्वारा घायल कर दिया। भारत! तत्पश्चात वीर भीमसेन ने आपके सालों में से सात रथियों को नाराचों द्वारा मारकर शतचन्द्र को भी काल के गाल में भेज दिया। महारथी शतचन्द्र के मारे जाने पर अमर्ष में भरे हुए शकुनि के वीर भाई गवाक्ष, शरभ, विभु, सुभग और भानुदत्त -ये पांच शूर महारथी भीमसेन पर टूट पड़े और उन्हें पैने बाणों द्वारा घायल करने लगे। जैसे वर्षा के वेग से पर्वत आहत होता है, उसी प्रकार उनके नाराचों से घायल होकर बलवान भीमसेन ने अपने पांच बाणों द्वारा उन पांचों अतिरथी वीरों को मार डाला। उन पांचों वीरों को मारा गया देख सभी श्रेष्ठ नरेश विचलित हो उठे। निष्पाप नरेश्वर! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर द्रोणाचार्य तथा आप के पुत्रों के देखते-देखते आपकी सेना का संहार करने लगे।
राजन! उस युद्ध में क्रुद्ध होकर युधिष्ठिर ने अम्बष्ठों, मालवों, शूरवीर त्रिगतों तथा शिविदेशीय सैनिकों को भी मृत्यु के लोक में भेज दिया। अभीषाह, शूरसेन, बाह्लीक और वसाति देशीय योद्धाओं को नष्ट करके राजा युधिष्ठिर ने इस भूतल पर रक्त की कीच मचा दी। राजन! युधिष्ठिर ने अपने बाणों से यौधेय, मालव तथा शूरवीर मद्रक गणों को मृत्यु के लोक में भेज दिया। युधिष्ठिर के रथ के आसपास ’मारो, ले आओ, पकड़ो, घायल करो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो’ इत्यादि भयंकर शब्द गूंजने लगा। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को अपनी सेनाओं को खदेड़ते देख आपके पुत्र दुर्योधन से प्रेरित होकर उन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र से राजा युधिष्ठिर को बींध डाला। युधिष्ठिर ने भी उनके दिव्यास्त्रों को अपने दिव्यास्त्र से ही नष्ट कर दिया। उस अस्त्र के नष्ट हो जाने पर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर क्रमशः वारुण, याम्य, आग्नेय, त्वाष्ट्र और सावित्र नामक दिव्यास्त्र चलाया; क्योंकि वे अत्यन्त कुपित होकर पाण्डु-नन्दन युधिष्ठिर को मार डालना चाहते थे। परंतु महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से तनिक भी भय न खाकर उनके द्वारा चलाये गये और चलाये जाने वाले सभी अस्त्रों को अपने दिव्यास्त्रों ने नष्ट कर दिया।
भारत! द्रोणाचार्य ने अपनी प्रतिज्ञा को सच्ची करने की इच्छा से आपके पुत्र के हित में तत्पर हो धर्मपुत्र युधिष्ठिर को मार डालने की अभिलाषा लेकर उनके ऊपर ऐन्द्र और प्राजापत्य नामक अस्त्रों का प्रयोग किया। तब गज और सिंह के समान गतिवाले, विशाल वक्षःस्थल-से सुशोभित, बड़े-बड़े लाल नेत्रों वाले, उत्कृष्ट तेजस्वी कुरुपति युधिष्ठिर ने माहेन्द्र अस्त्र प्रकट किया और उसी से अन्य सभी दिव्यास्त्रों को नष्ट कर दिया। उन अस्त्रों के नष्ट हो जाने पर क्रोध भरे द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर का वध करने की इच्छा से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। महीपते! फिर तो मैं घोर अन्धकार से आवृत उस युद्ध स्थल में कुछ भी जान न सका और समस्त प्राणी अत्यन्त भयभीत हो उठे। राजेन्द्र! ब्रह्मास्त्र को उद्यत देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने ब्रह्मास्त्र से ही उस अस्त्र का निवारण कर दिया। तदनन्तर प्रधान-प्रधान सैनिक सम्पूर्ण युद्धकाल में प्रवीण, महाधनुर्धर, नरश्रेष्ठ द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर की बड़ी प्रशंसा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-49 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! उस समय द्रोणाचार्य ने कुन्तीकुमार का सामना करना छोड़कर क्रोध से लाल आंखें किये वायव्यास्त्र के द्वारा द्रुपद की सेना का संहार आरम्भ किया। द्रोणाचार्य की मार खाकर पांचाल सैनिक भीमसेन और महात्मा अर्जुन के देखते-देखते भय के मारे भागने लगे। यह देख किरीटधारी अर्जुन और भीमसेन विशाल रथ सेनाओं के द्वारा अपनी सेना की रोक-थाम करते हुए सहसा उस ओर लौट पड़े। अर्जुन ने द्रोणाचार्य के दाहिने पार्श्व में और भीमसेन ने बायें पार्श्व में महान बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी।
महाराज! उस समय केकय, संजय, महातेजस्वी पाण्जाल, मत्स्य तथा यादव सैनिकों ने भी उन दोनों का अनुसरण किया। उस समय किरीटधारी अर्जुन की मार खाती हुई कौरवी-सेना अंधकार और निद्रा से पीड़ित हो पुनः तितर-बितर हो गयी। महाराज! द्रोणाचार्य और स्वंय आपके पुत्र दुर्योधन के मना करने पर भी उस समय आपके योद्धा रोके न जा सके।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्धविषयक एक सौ सतावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ अठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन और कर्ण की बातचीत, कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना तथा कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान”
संजय कहते हैं ;- राजन! पाण्डवों की विशाल सेना का जोर बढ़ते देख उसे असह्य मानकर दुर्योधन ने कर्ण से कहा- मित्र वत्सल कर्ण! यही मित्रों के कर्त्तव्य पालन का उपयुक्त अवसर आया है। क्रोध में भरे हुए पांचाल , मत्स्य, केकय तथा पाण्डव महारथी फुफकारते हुए सर्पों के समान भयंकर हो उठे हैं। उनके चारों ओर से घिरे हुए मेरे समस्त महारथी योद्धाओं की आज तुम समंरागण में रक्षा करो। ’देखो, ये विजय से सुशोभित होने वाले पाण्डव तथा इन्द्र के समान पराक्रमी बहुसंख्यक पांचाल महारथी कैसे हर्षोत्फुल्ल होकर सिंहनाद कर रहे है?
कर्ण ने कहा ;- राजन! यदि साक्षात इन्द्र यहाँ कुन्तीकुमार अर्जुन की रक्षा करने के लिये आ गये हों तो उन्हें भी शीघ्र ही पराजित करके मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन को अवश्य मार डालूंगा। भरतनन्दन! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि युद्ध स्थल में आये हुए पाण्डवों तथा पांचालों को निश्चय ही मारूंगा। जैसे अग्निकुमार कार्तिकेय ने तारकासुर का विनाश करके इन्द्र को विजय दिलायी थी, उसी प्रकार मैं आज तुम्हें विजय प्रदान करूंगा। भूपाल! मुझे तुम्हारा प्रिय करना है, इसीलिये जीवन धारण करता हूँ। कुन्ती के सभी पुत्रों ने अर्जुन ही अधिक शक्तिशाली हैं, अतः मैं इन्द्र की दी हुई अमोघ शक्ति को अर्जुन पर ही छोडूंगा। मानद! महाधनुर्धर अर्जुन के मारे जाने पर उनके सभी भाई तुम्हारे वश में हो जायंगे अथवा पुनः वन में चले जायेगें। कुरुनन्दन! तुम मेरे जीते-जी कभी विषाद न करो। मैं समरभूमि में संगठित होकर आये हुए समस्त पाण्डवों को जीत लूंगा। मैं अपने बाणसमूहों द्वारा रणभूमि में पधारे हुए पांचालों, केकयों और वृष्णि वंशियों के भी टुकड़े-टुकड़े करके यह सारी पृथ्वी तुम्हें दे दूंगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस तरह की बाते करते हुए सूतपुत्र कर्ण से शरद्वान के पुत्र महाबाहु कृपाचार्य ने मुसकराते हुए-से यह बात कही,
कृपाचार्य ने कहा ;- कर्ण! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! राधापुत्र! यदि बात बनाने से ही कार्य सिद्ध हो जाय, तब तो तुम-जैसे सहायक को पाकर कुरुराज दुर्योधन सनाथ हो गये। 'कर्ण! तुम कुरुनन्दन सुयोधन के समीप तो बहुत बढ़ कर बातें किया करते हो। किंतु न तो कभी कोई तुम्हारा पराक्रम देखा जाता है और न उसका कोई फल ही सामने आता है। 'सूतनन्दन! पाण्डु के पुत्रों से युद्ध स्थल में तुम्हारी अनेकों बार मुठभेड़ हुई है। परंतु सर्वत्र पाण्डवों से तुम्ही परास्त हुए हो। 'कर्ण! याद है कि नहीं, जब गन्धर्व दुर्योधन को पकड़-कर लिये जा रहे थे, उस समय सारी सेना तो युद्ध कर रही थी और अकेले तुम ही सबसे पहले पलायन कर गये थे। 'कर्ण! विराट नगर में भी सम्पूर्ण कौरव एकत्र हुए थे; किंतु अर्जुन ने अकेले ही वहाँ सबको हरा दिया था। कर्ण! तुम भी अपने भाइयों के साथ परास्त हुए थे। 'समंरागण में अकेले अर्जुन का सामना करने की भी तुम में शक्ति नहीं हैं; फिर श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण पाण्डवों को जीत लेने का उत्साह कैसे दिखाते हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
'सूतपुत्र कर्ण! चुपचाप युद्ध करो। तुम बातें बहुत बनाते हो। जो बिना कुछ कहे ही पराक्रम दिखाये, वही वीर है और वैसा करना ही सत्पुरुषों का व्रत है। 'सूतपुत्र कर्ण! तुम शरद् ऋतु के निष्फल बादलों के समान गर्जना करके भी निष्फल ही दिखायी देते हो; किंतु राजा दुर्योधन इस बात को नहीं समझ रहे हैं। 'राधानन्दन! जब तक तुम अर्जुन को नहीं देखते हो, तभी तक गर्जना कर लो। कुन्तीकुमार अर्जुन को समीप देख लेने पर फिर यह गर्जना तुम्हारे लिये दुर्लभ हो जायगी। 'जब तक अर्जुन के वे बाण तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ रहे हैं, तभी तक तुम जोर-जोर से गरज रहे हो। अर्जुन के बाणों से घायल होने पर तुम्हारे लिये यह गर्जन-तर्जन दुर्लभ हो जायगा। 'क्षत्रिय अपनी भुजाओं से शौर्य का परिचय देते हैं। ब्राह्मण वाणी द्वारा प्रवचन करने में वीर होते हैं। अर्जुन धनुष चलाने-में शूर है’ किंतु कर्ण केवल मनसूबे बांधने में वीर हैं। जिन्होंने अपने पराक्रम से भगवान शंकर को भी संतुष्ट किया है, उन अर्जुन को कौन मार सकता है?
कृपाचार्य के ऐसा कहने पर योद्धाओं में श्रेष्ठ कर्ण ने उस समय रुष्ट होकर कृपाचार्य से इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- 'शूरवीर वर्षाकाल के मेघों की तरह सदा गरजते हैं और ठीक ऋतु में बोये हुए बीज के समान शीघ्र ही फल भी देते हैं। ’युद्ध स्थल में महान भार उठाने वाले शूरवीर यदि युद्ध के मुहाने पर अपनी प्रशंसा की भी बातें कहते हैं और इसमें मुझे उनका कोई दोष नहीं दिखायी देता। 'पुरुष अपने मनसे जिस भार को ढोने का निश्चय करता है, उसमें दैव अवश्य ही उसकी सहायता करता है। 'मैं मन से जिस कार्यभार का वहन कर रहा हूं, उसकी सिद्धि में दृढ़ निश्चय ही मेरा सहायक है। विप्रवर! मैं कृष्ण और सात्यकि सहित समस्त पाण्डवों को युद्ध में मारने का निश्चय करके यदि गरज रहा हूँ तो उसमें आपका क्या नष्ट हुआ जा रहा है। ‘शरद् ऋतु के बादलों के समान शूरवीर व्यर्थ नहीं गरजते हैं विद्वान पुरुष पहले अपनी सामर्थ्य को समझ लेते हैं, उसके बाद गर्जना करते हैं। ’गौतम! आज मैं रणभूमि में विजय के लिये साथ-साथ प्रयत्न करने वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन को जीत लेने के लिये मन ही मन उत्साह रखता हूँ। इसीलिये गर्जना करता हूँ। ब्राह्मण! मेरी इस गर्जना का फल देख लेना। मैं युद्ध में श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अनुगमियों सहित पाण्डवों को मारकर इस भूमण्डल का निष्कण्टक राज्य दुर्योधन को दे दूंगा’।
कृपाचार्य बोले ;- सूतपुत्र! तुम्हारे ये मनसूबे बांधने के निरर्थक प्रलाप मेरे लिये विश्वास के योग्य नहीं है। कर्ण! तुम सदा ही श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर आक्षेप किया करते हो; परंतु विजय उसी पक्ष की होगी, जहाँ युद्ध विशारद श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान हैं। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, सर्प और राक्षस भी कवच बांधकर युद्ध के लिये आ जायं तो रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन को वे भी जीत नहीं सकते। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्राह्मभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, गुरु और देवताओं का सम्मान करने वाले, सदा धर्मपरायण, अस्त्र विद्या में विशेष कुशल, धैर्यवान और कृतज्ञ हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-58 का हिन्दी अनुवाद)
इनके बलवान भाई भी सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की कला में परिश्रम किये हुए हैं। वे गुरु सेवा परायण, विद्वान, धर्म तत्पर और यशस्वी हैं। उनके सम्बन्धी भी इन्द्र के समान पराक्रमी, उनमें अनुराग रखने वाले और प्रहार करने में कुशल हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, दुर्मुख-पुत्र जनमेजय, चन्द्रसेन, रुद्रसेन, कीर्तिधर्मा, ध्रुव, धर, वसुचन्द्र, दामचन्द्र, सिंहचन्द्र, सुतेजन, द्रुपद के पुत्रगण तथा महान अस्त्रवेता द्रुपद। जिनके लिये शतानीक, सूर्यदत्त, श्रुतानीक, श्रुतध्वज, बलानीक, जयानीक, जयाश्व, रथवाहन, चन्द्रोदय तथा समरथ ये विराट के श्रेष्ठ भाई और इन भाइयों सहित मत्स्यराज विराट युद्ध करने को तैयार हैं, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच- ये वीर जिनके लिये युद्ध कर रहे हैं, उन पाण्डवों की कभी कोई क्षति नहीं हो सकती है। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के ये तथा और भी बहुत-से गुण हैं। भीमसेन और अर्जुन यदि चारों तो अपने अस्त्रबल से देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, भूत, नाग और हाथियों सहित इस सम्पूर्ण जगत का सर्वथा विनाश कर सकते हैं। युधिष्ठिर भी यदि रोषभरी द्दष्टी से देखें तो इस भूण्डल को भस्म कर सकते हैं। कर्ण! जिनके लिये अनन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्ण भी कवच धारण करके लड़ने को तैयार हैं, उन शत्रुओं को युद्ध में जीतने का साहस तुम कैसे कर रहे हो?
सुतपुत्र! तुम जो सदा समरभूमि में भगवान श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने का उत्साह दिखाते हो, यह तुम्हारा महान अन्याय (अक्षम्य अपराध) है।
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! कृपाचार्य के ऐसा कहने पर राधापुत्र कर्ण ठठाकर हंस पडा और शरद्वान के पुत्र गुरु कुपाचार्य से उस समय यों बोला,
कर्ण ने कहा ;- 'बाबाजी! पाण्डवों के विषय में तुमने जो बात कही है वह सब सत्य है। यही नहीं, पाण्डवों में और भी बहुत-से गुण हैं। यह भी ठीक है कि कुन्ती के पुत्रों को रणभूमि में इन्द्र आदि देवता, दैत्य यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस भी जीत नहीं सकते। 'तथापि मैं इन्द्र की दी हुई शक्ति से कुन्ती के पुत्रों को जीत लूंगा। ब्राह्मन! मुझे इन्द्र ने यह अमोघ शक्ति दे रखी है; इसके द्वारा मैं सव्यसाची अर्जुन को युद्ध में अवश्य मार डालूंगा।
'पाण्डुपुत्र अर्जुन के मारे जाने पर उनके बिना उनके सहोदर भाई किसी तरह उस पृथ्वी का राज्य नहीं भोग सकेंगे। 'गौतम! उन सबके नष्ट हो जाने पर किसी प्रयत्न के ही यह समुद्र सहित सारी पृथ्वी कौरव राज दुर्योधन के वश में हो जायगी। 'गौतम! इस संसार में सुनीतिपूर्ण प्रयत्नों से सारे कार्य सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं हैं। इस बात को समझकर ही मैं गर्जना करता हूँ। 'तुम तो ब्राह्मण और उसमें भी बूढ़े हो। तुममें युद्ध करने की शक्ति है ही नहीं। इसके सिवा, तुम कुन्ती के पुत्रों पर स्नेह रखते हो। इसलिये मोहवश मेरा अपमान कर रहे हो। ’दु्र्बुद्धि ब्राह्मण! यदि यहाँ पुनः इस प्रकार मुझे अप्रिय लगने वाली बात बोलोगे तो मैं अपनी तलवार उठाकर तुम्हारी जीभ काट लूंगा। ‘ब्राह्मन! दुर्भते! तुम जो युद्ध स्थल में समस्त कौरव सेनाओं को भयभीत करने के लिये पाण्डवों के गुण गाना चाहते हो, उसके विषय में भी मैं जो यथार्थ बात कह रहा हूं, उसे सुन लो।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-70 का हिन्दी अनुवाद)
'दुर्योधन, द्रोण, शकुनि, दुर्मुख, जय, दुःशासन, वृषसेन, मद्रराज शल्य, तुम स्वंय, सोमदत्त, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और विविंशति-ये युद्ध कुशल सम्पूर्ण वीर जहाँ कवच बांधकर खड़े हो जायंगे, वहाँ इन्हें कौन मनुष्य जीत सकता है? वह इन्द्र के तुल्य बलवान शत्रु ही क्यों न हो (इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता)। 'जो शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, बलवान, स्वर्ग-प्राप्ति की अभिलाषा रखने वाले, धर्मज्ञ और युद्ध कुशल हैं, वे देवताओं को भी युद्ध में मार सकते हैं। 'ये वीरगण कुरुराज दुर्योधन की जय चाहते हुए पाण्डवों के वध की इच्छा से संग्राम में कवच बांधकर डट जांयेगे।
'मैं तो बड़े से बड़े बलवानों की भी विजय दैव के ही अधीन मानता हूँ। दैवाधीन होने के ही कारण महाबाहु भीष्म आज सैकड़ों बाणों से विद्ध होकर रणभूमि में शयन करते हैं। 'विकर्ण, चित्रसेन, बाह्लीक, जयद्रथ, भूरिश्रवा, जय, जलसंघ, सुदक्षिण, रथियों में श्रेष्ठ शल तथा पराक्रमी भगदत्त और दूसरे भी बहुत-से राजा देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जय थे। 'परंतु उन अत्यन्त प्रबल तथा शूरवीर नरेशों को भी पाण्डवों ने युद्ध में मार डाला पुरुषाधम! तुम इसमें दैव संयोग के सिवा दूसरा कौन-सा कारण मानते हो। ब्रह्मन! तुम दुर्योधन के जिन शत्रुओं की सदा स्तुती करते रहते हों, उनके भी तो सैकड़ों और सहस्रों शूरवीर मारे गये हैं। 'कौरव तथा पाण्डव दोनों दलों की सारी सेनाएं प्रतिदिन नष्ट हो रही है। मुझे इसमें किसी प्रकार भी पाण्डवों का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखायी देता है। ’द्विजाधम! तुम जिन्हें सदा बलवान मानते रहते हो, उन्हीं के साथ मैं संग्रामभूमि में दुर्योधन के हित के लिये यथाशक्ति युद्ध करने का प्रयत्न करूंगा। विजय तो दैव के अधीन है’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में कृपाचार्य और कर्ण का विवादविषयक एक सौ अटानहवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना, दुर्योधन का उसे मनाना, पाण्डवों और पाञ्चालों का कर्ण पर आक्रमण, कर्ण का पराक्रम, अर्जुन के द्वारा कर्ण की पराजय तथा दुर्योधन का अश्वत्थामा से पाञ्चालों के वध के लिये अनुरोध”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार अपने मामा के प्रति सूतपुत्र कर्ण को कटु वचन सुनाते देख अश्वत्थामा बड़े वेग से तलवार उठाकर तुरंत कर्ण पर टूट पड़ा। जैसे सिंह मतवाले हाथी पर झपटता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोण कुमार अश्वत्थामा ने कुरूराज दुर्योधन के देखते-देखते कर्ण पर आक्रमण किया। अश्वत्थामा ने कहा- दुर्बुद्धि! नराधम! मेरे मामा सम्पूर्ण जगत के श्रेष्ठ धनुर्धर एवं शूरवीर हैं। ये अर्जुन के सच्चे गुणों का बखान कर रहे थे, तो भी तू द्वेषवश अपनी शूरता की डींग हाँकता हुआ और घमण्ड में आकर आज युद्ध में किसी को कुछ न समझता हुआ जो इन्हें फटकार रहा है, उसका क्या कारण है। जब युद्धस्थल में गाण्डीवधारी अर्जुन ने तुझे परास्त करके तेरे देखते-देखते जयद्रथ को मार डाला था, उस समय तेरा पराक्रम कहाँ था। तेरे वे अस्त्र-शस्त्र कहाँ चले गये थे। सूताधम! जिन्होंने समरागंण में पहले साक्षात महादेव जी के साथ युद्ध किया है, उन्हें केवल मनोरथों द्वारा जीतने की तू व्यर्थ इच्छा प्रकट कर रहा है। दुर्बुद्धि! सूत! जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तथा श्रीकृष्ण के साथ रहने पर जिन्हें इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी जीतने में समर्थ नहीं हैं, उन्हीं लोक के एकमात्र अराजित वीर अर्जुन को जीतने के लिये इन राजाओं सहित तेरी क्या शक्ति है। दुर्बुद्धि नराधम! कर्ण! तू देख और खड़ा रह। दुर्मते! मैं अभी तेरा सिर धड़ से उतार लेता हूँ।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार वेगपूर्वक उठे हुए अश्वत्थामा को महातेजस्वी स्वयं राजा दुर्योधन तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने रोका।
कर्ण बोला ;- कुरुश्रेष्ठ! यह दुर्बुद्धि एवं नीच ब्राह्मण बड़ा शूरवीर बनता है और युद्ध की श्लाघा रखता है। तुम इसे छोड़ दो। आज यह मेरे पराक्रम का सामना करे। अश्वत्थामा ने कहा- दुर्बुद्धि सूतपुत्र! हम लोग तेरे इस अपराध को क्षमा करते हैं। तेरे इस बढ़े हुए घमण्ड का नाश अर्जुन करेंगे।
दुर्योधन बोला ;- दूसरों को मानदेने वाले (भाई) अश्वत्थामा! प्रसन्न होओ। तुम्हें क्षमा करना चाहिये। सूतपुत्र कर्ण पर तुम्हें किसी प्रकार भी क्रोध करना उचित नहीं है। द्विजश्रेष्ठ! तुम पर, कर्ण पर तथा कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, मद्रराज शल्य और शकुनि पर महान कार्यभार रखा गया है, तुम प्रसन्न होओ। ब्रह्मन! ये सामने राधा पुत्र कर्ण के साथ युद्ध की अभिलाषा रखकर समस्त पाण्डव-सैनिक सब ओर से ललकारते आ रहे हैं।
संजय कहते हैं ;- महाराज! राजा दुर्योधन के मनाने पर क्रोध के वेग से युक्त महामना अश्वत्थामा शान्त एवं प्रसन्न हो गया। राजेन्द्र! तत्पश्चात सौम्य स्वभाव के कारण शीघ्रही मृदुता आ जाने से महामना कृपाचार्य भी शान्त हो गये और इस प्रकार बाले।
कृपाचार्य ने कहा ;- दुर्बुद्धि सूतपुत्र! हम लोग तो तेरे इस अपराध को क्षमा कर दते हैं, परंतु अर्जुन तेरे इस बढे़ हुए घमंड का अवश्य नाश करेंगे।
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर वे यशस्वी पाण्डव और पाञ्चाल एक साथ होकर गर्जन-तर्जन करते हुए चारों ओर से कर्ण पर चढ़ आये।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
रथियों में श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं तेजस्वी वीर कर्ण भी देवताओं से घिरे हुए इन्द्र के समान प्रधान कौरव वीरों से घिर कर अपने बाहुबल का भरोसा करके धनुष उठाकर युद्ध के लिये खड़ा हो गया। महाराज! तदनन्तर कर्ण का पाण्डवों के साथ भीषण युद्ध आरम्भ हुआ, जो सिंहनाद से सुशोभित हो रहा था। राजन! यशस्वी पाण्डव और पांचालों ने महाबाहु कर्ण को देखकर उच्चस्वर से इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘कहाँ कर्ण है। यह कर्ण है। दुरात्मन नराधम कर्ण! इस महायुद्ध में खड़ा रह और हमारे साथ युद्ध कर’। दूसरे लोगों ने राधा पुत्र कर्ण को देखकर क्रोध से लाल आँखें करके कहा,
पाण्डव बोले ;- ‘समस्त श्रेष्ठ राजा मिलकर इस घमंडी और मूर्ख सूतपुत्र को मार डालें। इसके जीने से कोई लाभ नहीं है। यह पापात्मा पुरुष सदा कुन्तीकुमारों के साथ अत्यन्त वैर रखता आया है। दुर्योधन की राय में रहकर यही सारे अनर्थों की जड़ बना हुआ है। अतः इसे मार डालो।’
ऐसा कहते हुए समस्त क्षत्रिय महारथी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से सूतपुत्र के वध के लिये प्रेरित हो बाणों की बड़ी भारी वर्षा द्वारा उसे आच्छादित करते हुए उस पर टूट पड़े। उन समस्त महारथियों को इस प्रकार धावा करते देख सूतपुत्र के मन में न तो व्यथा हुई और न त्रास ही हुआ। भरतश्रेष्ठ! प्रलयकाल के समान उस सैन्यसागर को उमड़ा हुआ देख संग्राम में पराजित न होने वाले बलवान, शीघ्रकारी और महान शक्तिशाली कर्ण ने आपके पुत्रों को प्रसन्न करने की इच्छा से बाण-समूह की वर्षा करके सब ओर से शत्रुओं की उस सेना को रोक दिया। तदनन्तर सैकड़ों और सहस्रों नरेशों ने अपने धनुषों को कम्पित करते हुए बाणों की वर्षा से कर्ण की भी प्रगति रोक दी। जैसे दैत्यों ने इन्द्र के साथ संग्राम किया था, उसी प्रकार वे राजा लोग राधा पुत्र कर्ण के साथ युद्ध करने लगे।
प्रभो! राजाओं द्वारा की हुई उस बाण-वर्षा को कर्ण ने बाणों की बड़ी भारी वृष्टि करके सब ओर बिखेर दिया। जैसे देवासुर-संग्राम में दानवों के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ था, उसी प्रकार घात-प्रतिघात की इच्छा वाले राजाओं तथा कर्ण का वह युद्ध बड़ा भयंकर हो रहा था। वहाँ हमने सूतपुत्र कर्ण की अद्भुत फुर्ती देखी, जिससे सब ओर से प्रयत्न करने पर भी शत्रुपक्षीय योद्धा उस युद्धस्थल में कर्ण को काबू में नहीं कर पा रहे थे। राजाओं के उन बाणसमूहों का निवारण करके महारथी राधा पुत्र कर्ण ने उनके रथ के जूओं, ईषादण्डों, छत्रों, ध्वजाओं तथा घोड़ों पर अपने नाम खुदे हुए भयंकर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात कर्ण के बाणों से पीड़ित और व्याकुल हुए राजा लोग सर्दी से कष्ट पाने वाली गायों के समान इधर-उधर चक्कर काटने लगे। कर्ण के बाणों की चोट खाकर मरने वाले घोड़ों, हाथियों और रथियों के झुंड के झुंड हमने वहाँ देखे थे। राजन! युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीरों के कट-कट कर गिरे हुए मस्तकों और भुजाओं से वहाँ की सारी भूमि सब ओर से पट गयी थी। कुछ लोग मारे गये थे, कुछ मारे जा रहे थे और कुछ लोग सब ओर पीड़ा से कराह रहे थे। इससे वह युद्धस्थल यमपुरी के समान भयंकर प्रतीत होता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय राजा दुर्योधन ने कर्ण का पराक्रम देख अश्वत्थामा के पास पहुँचकर यह बात कही,
दुर्योधन ने कहा ;- 'रणभूमि में वह कवचधारी कर्ण समस्त राजाओं के साथ अकेला ही युद्ध कर रहा है। देखो, कर्ण के बाणों से पीड़ित हुई यह पाण्डव सेना कार्तिकेय के द्वारा नष्ट की हुई असुर वाहिनी के समान भागी जा रही है। ‘बुद्धिमान कर्ण के द्वारा रणभूमि में पराजित हुई इस सेना को देखकर सूतपुत्र का वध करने की इच्छा से ये अर्जुन आगे बढ़े जा रहे हैं। ‘अतः हम लोगों के देखते-देखते युद्ध में पाण्डु पुत्र अर्जुन जैसे भी महारथी सूतपुत्र को न मार सके, वैसी नीति से काम लो’। तब दैत्य सेना पर आक्रमण करने वाले इन्द्र के समान अर्जुन को कौरव सेना की ओर आते देख अश्वत्थामा, कृपाचार्य, शल्य और महारथी कृतवर्मा सूतपुत्र की रक्षा करने की इच्छा से अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़े। राजेन्द्र! उस समय वृत्रासुर पर चढ़ाई करने वाले इन्द्र के समान पांचालों से घिरे हुए अर्जुन ने भी कर्ण पर धावा किया।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! काल, अन्तक और यम के समान क्रोध में भरे हुए अर्जुन को देखकर वैकर्तन कर्ण ने उन्हें किस प्रकार उत्तर दिया। कैसे उनका सामना किया। महारथी कर्ण सदा ही अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता था और युद्ध में अत्यन्त भयंकर अर्जुन को पराजित करने का विश्वास प्रकट करता था। संजय! उस समय अपने सदा के अत्यन्त वैरी अर्जुन को सहसा सामने पाकर सूर्य पुत्र कर्ण ने उन्हें किस प्रकार उत्तर देने का निश्चय किया। संजय ने कहा- राजन! जैसे एक हाथी को आते देख दूसरा हाथी उसका सामना करने के लिये आगे बढ़े, उसी प्रकार पाण्डु पुत्र धनंजय को आते देख कर्ण बिना किसी घबराहट के युद्ध में उनका सामना करने के लिये आगे बढ़ा।
वेग से आते हुए वैकर्तन कर्ण को अर्जुन ने अपने सीधे जाने वाले बाणों से आच्छादित कर दिया और कर्ण ने भी अर्जुन को अपने बाणों से ढक दिया। पाण्डु पुत्र अर्जुन ने पुनः अपने बाणों के जाल से कर्ण को आच्छादित कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए कर्ण ने तीन बाणों से अर्जुन को बींध डाला। शत्रुओं को संताप देने वाले महाबली अर्जुन कर्ण की इस फुर्ती को न सह सके। उन्होंने सूतपुत्र कर्ण को शिला पर तेज किये हुए स्वच्छ अग्रभाग वाले तीन सौ बाण मारे। इसके सिवा कुपित हुए पराक्रमी एवं बलवान अर्जुन ने हँसते हुए से एक नाराच नामक बाण के द्वारा कर्ण की बायीं भुजा के अग्रभाग में चोट पहुँचायी। उस बाण से घायल हुए कर्ण के हाथ से धनुष छूटकर गिर पड़ा। फिर आधे निमेष में ही उस महाबली वीर ने पुनः वह धनुष लेकर सिद्वहस्त योद्धा की भाँति बाण-समूहों की वर्षा करके अर्जुन को ढक दिया। भारत! सूतपुत्र द्वारा की हुई उस बाण वर्षा को अर्जुन ने मुसकराते हुए से बाणों की वृष्टि करके नष्ट कर दिया। राजन! वे दोनों महाधनुर्धर वीर आघात का प्रतिघात करने की इच्छा से परस्पर बाणों की वर्षा करके एक-दूसरे को आच्छादित करने लगे। जैसे दो जंगली हाथी किसी हथिनी के लिये क्रोधपूर्वक लड़ रहे हों, उसी प्रकार उस युद्धस्थल में कर्ण और अर्जुन का वह संग्राम महान एवं अद्भुत था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 61-82 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर महाधनुर्धर अर्जुन ने कर्ण का पराक्रम देखकर उसके धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से शीघ्रतापूर्वक काट दिया।। साथ ही उसके चारों घोड़ों को चार भल्लों द्वारा यमलोक पहुँचा दिया। फिर शत्रुसंतापी अर्जुन ने उसके सारथि का सिर धड़ से अलग कर दिया। धनुष कट जाने और घोड़ों तथा सारथि के मारे जाने पर कर्ण को पाण्डुनन्दन अर्जुन ने चार बाणों द्वारा घायल कर दिया। जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथ से तुरंत ही उतरकर बाण पीड़ित कर्ण शीघ्रता पूर्वक कृपाचार्य के रथ पर चढ़ गया। अर्जुन के बाण-समूहों से पीड़ित और व्याप्त होकर वह काँटों से भरे हुए साही के समान जान पड़ता था। अपने प्राण बचाने के लिये कर्ण कृपाचार्य के रथ पर जा बैठा था। भरतश्रेष्ठ! राधा पुत्र कर्ण को पराजित हुआ देख आपके सैनिक अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो दसों दिशाओं में भाग चले।
नरेश्वर! उन्हें भागते देख राजा दुर्योधन ने लौटाया और उस समय उनसे यह बात कही,
दुर्योधन ने कहा ;- ‘क्षत्रिय शिरोमणि शूरवीरों! ठहरो, तुम्हारे भागने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं अभी अर्जुन का वध करने के लिये युद्ध भूमि में चलता हूँ। मैं पांचालों और सोमकों सहित कुन्ती कुमारों का वध करूँगा। ‘आज गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ युद्ध करते समय कुन्ती के सभी पुत्र प्रलयकाल में काल के समान मेरा पराक्रम देखेंगे। ‘आज समरागंण में सहस्रों योद्धा मेरे छोड़े हुए हजारों बाण समूहों को शलभों की पंक्तियों के समान देखेंगे। ‘जैसे वर्षाकाल में मेघ जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार धनुष हाथ में लेकर मेरे द्वारा की हुई बाणमयी वर्षा को आज युद्धस्थल में समस्त सैनिक देखेंगे। ‘आज रणभूमि में झुकी हुई गाँठवाले बाणों द्वारा मैं अर्जुन को जीत लूँगा। शूरवीरो! तुम समरभूमि में डटे रहो और अर्जुन से भय छोड़ दो। ‘जैसे समुद्र तट भूमि तक पहुँचकर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार अर्जुन मेरे समीप आकर मेरा पराक्रम नहीं सह सकेंगे’। ऐसा कहकर दुर्धर्ष राजा दुर्योधन ने क्रोध से लाल आँखें करके विशाल सेना के साथ अर्जुन पर आक्रमण किया।
महाबाहु दुर्योधन को अर्जुन के सामने जाते देख शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उस समय अश्वत्थामा के पास जाकर यह बात कही ‘यह अमर्षशील महाबाहु राजा दुर्योधन क्रोध से अपनी सुधबुध खो बैठा है और पतंगों की वृत्तिका आश्रय ले अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता है। ‘यह पुरुषसिंह नरेश अर्जुन ने भिड़कर हमारे देखते-देखते जब तक अपने प्राणों को त्याग न दे, उसके पहले ही तुम जाकर उस कुरुवंशी राजा को रोको। ‘यह कौरव वंश का वीर भूपाल आज जब तक अर्जुन के बाणों की पहुँच के भीतर नहीं जाता है, तभी तक इसे रोक दो। ‘केंचुल से छूटे हुए सर्पों के समान अर्जुन के भयंकर बाणों द्वारा जब तक राजा दुर्योधन भस्म नहीं कर दिया जाता है, तब तक ही उसे युद्ध से रोक दो। ‘मानद! यह मुझे अनुचित सा दिखायी देता है कि हम लोगों के रहते हुए स्वयं राजा दुर्योधन बिना किसी सहायक के अर्जुन के साथ युद्ध के लिये जाये। ‘जैसे सिंह के साथ हाथी युद्ध करे तो उसका जीवित रहना असम्भव हो जाता है, उसी प्रकार किरीटधारी कुन्ती कुमार अर्जुन के साथ युद्ध में प्रवृत्त होने पर कुरुवंशी दुर्योधन के जीवन को मैं दुर्लभ ही मानता हूँ’।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 83-100 का हिन्दी अनुवाद)
मामा के ऐसा कहने पर शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोण कुमार अश्वत्थामा ने तुरंत ही दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘गान्धारी नन्दन! कुरुकुल रत्न! मैं सदा तुम्हारा हित चाहने वाला हूँ। तुम मेरे जीते-जी मेरा अनादर करके स्वयं युद्ध में न जाओ। ‘सुयोधन! अर्जुन पर विजय पाने के सम्बन्ध में तुम्हें किसी प्रकार संदेह नहीं करना चाहिये। तुम खडे़ रहो। मैं अर्जुन को रोकूँगा’।
दुर्योधन बोला ;- द्विजश्रेष्ठ! हमारे आचार्य तो अपने पुत्र की भाँति पाण्डवों की रक्षा करते हैं और तुम भी सदा उनकी उपेक्षा ही करते हो। अथवा मेरे दुर्भाग्य से युद्ध में तुम्हारा पराक्रम मन्द पड़ गया है। तुम धर्मराज युधिष्ठिर अथवा द्रौपदी का प्रिय करने के लिये ऐसा करते हो, इसका मुझे पता नहीं है। मुझ लोभी को धिक्कार है, जिसके कारण किसी से पराजित न होने वाले और सुख भोगने के योग्य मेरे सभी भाई-बन्धु महान दुख उठा रहे हैं। कृपीकुमार अश्वत्थामा के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो शस्त्र वेत्ताओं में प्रधान, महादेव जी के समान पराक्रमी तथा शक्तिशाली होकर भी युद्ध में शत्रु का संहार नहीं करेगा। अश्वत्थामन! प्रसन्न होओ। मेरे इन शत्रुओं का नाश करो। तुम्हारे अस्त्रों के मार्ग में देवता और दानव भी नहीं ठहर सकते हैं। द्रोणकुमार! तुम अनुगामियों सहित पांचालों और सोमकों को मार डालो, फिर तुमसे ही सुरक्षित हो हम लोग अपने शेष शत्रुओं का संहार कर डालेंगे।
विप्रवर! ये यशस्वी पांचाल और सोमक क्रोध में भरकर दावानल के समान मेरी सेनाओं में विचर रहे हैं। इन्हीं के साथ केकय भी है। महाबाहो! नरश्रेष्ठ! वे किरीटधारी अर्जुन से सुरक्षित हो मेरी सेना का सर्वनाश न कर डालें। अतः पहले ही उन्हें रोको। शत्रुओं का दमन करने वाले माननीय भाई अश्वत्थामा! तुम शीघ्र ही जाओ। पहले करो या पीछे, यह कार्य तुम्हारे ही वश का है। महाबाहो! तुम पांचालों का वध करने के लिये ही उत्पन्न हुए हो। यदि तुम तैयार हो जाओ तो निश्चय ही सारे जगत को पांचालों से शून्य कर दोगे। पुरुषसिंह! सिद्ध पुरुषों ने तुम्हारे विषय में ऐसी ही बातें कही हैं। वे उसी रूप में सत्य होंगी। अतः तुम सेवकों सहित पांचालों का वध करो। मैं तुमसे यह सच कहता हूँ कि तुम्हारे बाणों के मार्ग में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं ठहर सकते, फिर कुन्ती के पुत्रों और पांचालों की तो बिसात ही क्या है। वीर! सोमकों सहित पाण्डव संग्राम में तुम्हारे साथ बलपूर्वक युद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। महाबाहो! जाओ, जाओ। हमारे इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये। देखो, अर्जुन के बाणों से पीड़ित होकर यह सेना भागी जा रही है। दूसरों को मान देने वाले महाबाहु वीर! तुम अपने दिव्य तेज से पांचालों और पाण्डवों का निग्रह करने में समर्थ हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में दुर्योधन का वचनविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन देकर पाञ्चालों के साथ युद्ध करते हुए धृष्टद्युम्न के रथसहित सारथि को नष्ट करके उसकी सेना को भगाकर अद्भुत पराक्रम दिखाना”
संजय कहते हैं ;- राजन! दुर्योधन के ऐसा कहने पर रणदुर्भद अश्वत्थामा ने उसी प्रकार शत्रुवध के लिये प्रयत्न आरम्भ किया, जैसे इन्द्र दैत्य वध के लिये यत्न करते हैं। उस समय महाबाहु अश्वत्थामा ने आपके पुत्र से यह वचन कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘महाबाहु कौरव नन्दन! तुम जैसा कहते हो, यही ठीक है। ‘कुरूश्रेष्ठ! पाण्डव मुझे तथा मेरे पिताजी को भी बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार उनको भी हम दोनों पिता-पुत्र प्रिय हैं, किन्तु युद्ध स्थल में हमारा यह भाव नहीं रहता। ‘तात! हम अपने प्राणों का मोह छोड़कर निर्भय से होकर यथा शक्ति युद्ध करते हैं। नृपश्रेष्ठ! मैं, कर्ण, शल्य, कृप और कृतवर्मा पलक मारते-मारते पाण्डव सेना का संहार कर सकते हैं। ‘महाबाहु कुरुश्रेष्ठ! यदि युद्ध स्थल में हम लोग न रहें, तो पाण्डव भी आधे निमेष में ही कौरव सेना का संहार कर सकते हैं। ‘हम यथा शक्ति पाण्डवों से युद्ध करते हैं और वे हम लोगों से युद्ध करना चाहते हैं। भारत! इस प्रकार हमारा तेज परस्पर एक दूसरे से टकराकर शान्त हो जाता है।
‘राजन! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि पाण्डवों के जीते जी उनकी सेना को बलपूर्वक जीतना असम्भव है। ‘भरतनन्दन! पाण्डव शक्तिशाली हैं और अपने लिये युद्ध करते हैं, फिर वे किस लिये तुम्हारी सेनाओं का संहार नहीं करेंगे। ‘कौरव नरेश! तुम तो लोभी और छल-कपट की विद्या को जानने वाले हो। सब पर संदेह करने वाले और अभिमानी हो, इसीलिये हम लोगों पर भी शंका करते हो। ‘राजन! मेरी मान्यता है कि तुम निन्दित, पापात्मा एवं पाप पुरुष हो।’ क्षुद्र नरेश! तुम्हारा अन्तःकरण पाप भावना से ही पूर्ण है, इसीलिये तुम हम पर तथा दूसरों पर भी संदेह करते हो। ‘कुरूनन्दन! मैं अभी तुम्हारे लिये जीवन का मोह छोड़कर पूरा प्रयत्न करके संग्राम-भूमि में जा रहा हूँ। ‘शत्रुदमन! मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा और उनके प्रधान-प्रधान वीरों पर विजय पाऊँगा। संग्राम भूमि में तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं पांचालों, सोमकों, केकयों तथा पाण्डवों के साथ भी युद्ध करूँगा। ‘आज पांचाल और सोमक योद्धा मेरे बाणों से दग्ध होकर सिंह से पीड़ित हुई गौओं के समान सब ओर भाग जायेंगे। ‘आज सोमको सहित धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरा पराक्रम देखकर सम्पूर्ण जगत को अश्वत्थामा से भरा हुआ मानेंगे। ‘सोमकों सहित पांचालों को युद्ध में मारा गया देख आज धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में बड़ा निर्वेद खेद एवं वैराग्य होगा। ‘भारत! जो लोग रणभूमि में मेरे साथ युद्ध करेंगे, उन्हें मैं मार डालूँ। वीर! मेरी भुजाओं के भीतर आकर शत्रु सैनिक जीवित नहीं छूट सकेंगे’।
आपके पुत्र दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु अश्वत्थामा समस्त धनुर्धरों को त्रास देता हुआ युद्ध के लिये शत्रुओं के सामने डट गया। प्राणियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा आपके पुत्रों का प्रिय करना चाहता थ। तदनन्तर गौतमी नन्दन अश्वत्थामा ने केकयों सहित पांचालों से कहा- ‘महारथियों! अब सब लोग मिलकर मेरे शरीर पर प्रहार करो और अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखाते हुए सुस्थिर होकर युद्ध करो’।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर वे सभी वीर उसके ऊपर उसी प्रकार अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे, जैसे मेघ पर्वत पर पानी बरसाते हैं। प्रभो! द्रोणकुमार ने उनके बाणों को नष्ट करके उनमें से दस वीरों को पाण्डवों और धृष्टद्युम्न के सामने ही मार गिराया। समरागंण में मारे जाते हुए पांचाल और सोमक द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को छोड़कर दसों दिशाओं में भाग गये।
शूरवीर पांचालों और सोमकों को भागते देख धृष्टद्युम्न ने रणक्षेत्र में अश्वत्थामा पर धावा किया। तदनन्दर सुवर्णचित्रित, सजल जलधर के समान गम्भीर घोष करने वाले तथा युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले सौ रथों एवं शूरवीर रथियों से घिरे हुए पांचाल राजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न ने अपने योद्धाओं को मारा गया देख द्रोणकुमार अश्वत्थामा से इस प्रकार कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘खोटी बुद्धिवाले आचार्य पुत्र! दूसरों को मारने से तुम्हें क्या लाभ है। यदि शूरमा हो तो रणक्षेत्र में मेरे साथ भिड़ जाओ। इस समय मेरे सामने खड़े तो हो जाओ, मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा’। भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर प्रतापी धृष्टद्युम्न ने मर्मभेदी एवं पैने बाणों द्वारा आचार्य पुत्र को घायल कर दिया। सुवर्णमय पंख और स्वच्छ धारवाले, सबके शरीरों को विदीर्ण करने में समर्थ वे शीघ्रागमी बाण श्रेणीबद्ध होकर अश्वत्थामा के शरीर में वैसे ही घुस गये, जैसे मधु के लोभी उद्दाम भ्रमर फूले हुए वृक्ष पर बैठ जाते हैं। उन बाणों से अत्यन्त घायल होकर मानी द्रोणकुमार पैरों से कुचले गये सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा और हाथ में बाण लेकर संभ्रमरहित हो इस प्रकार बोला,
अश्वत्थामा ने कहा ;- धृष्टद्युम्न! स्थिर होकर दो घड़ी और प्रतीक्षा कर लो, तब तक मैं तुम्हें अपने पैने बाणों द्वारा यमलोक भेज देता हूँ’। शत्रुवीरों का संहार करने वाले अश्वत्थामा ने ऐसा कहकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले कुशल योद्धा की भाँति अपने बाण समूहों द्वारा धृष्टद्युम्न को सब ओर से आच्छादित कर दिया।
समरागंण में अश्वत्थामा द्वारा पीड़त होने पर रणदुर्मद पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने उसे वाणी द्वारा डाँट बतायी और इस प्रकार कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- ‘दुर्बुद्धि ब्राह्मण! क्या तू मेरी प्रतिज्ञा और उत्पत्ति का वृत्तान्त नहीं जानता। निश्चय ही, मुझे पहले द्रोणाचार्य का वध करके फिर तेरा विनाश करना है। ‘इसीलिये द्रोण के जीते जी अभी युद्धस्थल में तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। दुर्मते! इसी रात में प्रभात होने से पहले आज तेरे पिता का वध करके फिर तुझे भी युद्धस्थल में प्रेतलोक को भेजा दूँगा। यही मेरे मन का निश्चित विचार है।। ‘कुन्ती के पुत्रों के प्रति जो तेरा द्वेषभाव और कौरवों के प्रति जो भक्तिभाव है, उसे स्थिर होकर दिखा। तू जीते जी मेरे हाथ से छुटकारा नहीं पा सकेगा। ‘जो ब्राह्मण ब्राह्मणत्त्व का परित्याग करके क्षत्रिय धर्म में तत्पर हो, जैसा कि मनुष्यों में अधम तू है, वह सब लोगां के लिये वध्य है’। द्रुपद कुमार के इस प्रकार कठोर वचन कहने पर द्विज श्रेष्ठ अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। उसने धृष्टद्युम्न की ओर इस प्रकार देखा मानो अपने नेत्रों के तेज से उन्हें दग्ध कर डालेगा। साथ ही सर्प की भाँति फुफकारते हुए अश्वत्थामा ने उन्हें अपने बाणों द्वारा ढक दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षष्ट्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)
नृपश्रेष्ठ! समरागंण में अश्वत्थामा के द्वारा आच्छादित होने पर भी समस्त पांचाल सेनाओं से घिरे हुए महारथी महाबाहु धृष्टद्युम्न कम्पित नहीं हुए। उन्होंने अपने बल पराक्रम का आश्रय लेकर अश्वत्थामा पर नाना प्रकार के बाणों का प्रहार किया। वे दोनों महाधनुर्धर वीर अमर्ष में भरकर एक दूसरे पर चारों ओर से बाणों की वर्षा करते और उन बाणसमूहों द्वारा परस्पर पीड़ा देते हुए प्राणों की बाजी लगाकर रणभूमि में डटे रहे। अश्वत्थामा और धृष्टद्युम्न के उस घोर एवं भयानक युद्ध को देखकर सिद्ध, चारण तथा वायुचारी गरुड़ आदि ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे दोनों अपने बाण-समूहों से आकाश और दिशाओं को भरते हुए उनके द्वारा महान अन्धकार की सृष्टि करके अलक्ष्य होकर युद्ध करते रहे। उस रणक्षेत्र में धनुष को मण्डलाकार करके वे दोनों नृत्य-सा कर रहे थे।
एक दूसरे के वध के लिये प्रयत्नशील होकर समस्त प्राणियों के लिये वे भयंकर बन गये थे। वे महाबाहु वीर समरागंण में समस्त श्रेष्ठ योद्धाओं द्वारा हजारों बार प्रशंसित होते हुए शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंग से विचित्र युद्ध कर रहे थे। वन में लड़ने वाले दो जंगली हाथियों के समान उन दोनों को युद्ध में जागरूक देखकर दोनों सेनाओं में तुमुल हर्षनाद छा गया। सब ओर सिंहनाद होने लगा। सैनिक शंख ध्वनि करने लगे तथा सैकड़ों एवं सहस्रों प्रकार के रणवाद्य बजने लगे। कायरों का भय बढ़ाने वाले उस तुमुल संग्राम में दो घड़ी तक उन दोनों का समान रूप से युद्ध चलता रहा।
महाराज! तदनन्तर द्रोणकुमार ने महामना धृष्टद्युम्न के ध्वज, धनुष, छत्र, दोनों पार्श्वरक्षक, सारथि तथा चारों घोड़ों को नष्ट करके उस युद्ध में बड़े वेग से धावा किया।। अनन्त आत्मबल से सम्पन्न अश्वत्थामा ने झुकी हुई गाँठ वाले सैकड़ों और सहस्रों बाणों द्वारा उन समस्त पांचालों को दूर भगा दिया। भरतश्रेष्ठ! युद्ध स्थल में इन्द्र के समान अश्वत्थामा के उस महान कर्म को देखकर पाण्डव सेना व्यथित हो उठी। महारथी द्रोणकुमार ने पहले सौ बाणों से सौ पांचाल योद्धाओं का वध करके फिर तीन पैने बाणों द्वारा उने तीन महारथियों को भी मार गिराया और धृष्टद्युम्न तथा अर्जुन के देखते-देखते वहाँ जो बहुसंख्यक पांचाल योद्धा खडे़ थे, उन सबको नष्ट कर दिया। समरभूमि में मारे जाते हुए पांचाल और सृंजय सैनिक अश्वत्थामा को छोड़कर चल दिये, उनके रथ और ध्वज नष्ट-भ्रष्ट होकर बिखर गये थे। इस प्रकार रणभूमि में शत्रुओं को जीतकर महारथी द्रोण पुत्र वर्षाकाल के मेघ के समान जोर-जोर से गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकाल में अग्निदेव सम्पूर्ण भूतों को भस्म करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार अश्वत्थामा वहाँ बहुसंख्यक शूरवीरों का वध करके सुशोभित हो रहा था। जैसे देवराज इन्द्र शत्रुओं का संहार करके सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रतापी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा संग्राम में सहस्रों शत्रुसमूहों को परास्त करके कौरवों द्वारा पूजित एवं प्रशंसित होता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर अश्वत्थामा का पराक्रमविषयक एक सौ साठवां अध्याय पूरा हुआ)
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