सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिये प्रस्थान”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! समरांगण में सव्यसाची अर्जुन के द्वारा सिंधुराज जयद्रथ के तथा सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा के मारे जाने पर उस समय तुम लोगों के मन की कैसी अवस्था हुई? संजय! दुर्योधन ने जब कौरव-सभा में द्रोणाचार्य से वैसी बातें कहीं, तब उन्होंने उसे क्या उतर दिया? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- भारत! सिंधुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवा को मारा गया देखकर आपकी सेनाओं में महान आर्तनाद होने लगा। वे सब लोग आपके पुत्र दुर्योधन की उस सारी मन्त्रणा का अनादर करने लगे, जिससे सैकड़ों क्षत्रिय-शिरोमणि काल के गाल में चले गये। आपके पुत्र के कटु वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन ही मन दुखी हो उठे। उन्होंने दो घड़ी तक कुछ सोच विचार कर अत्यन्त आर्तभाव से इस प्रकार कहा।
द्रोणाचार्य बोले ;- दुर्योधन! तुम क्यों इस प्रकार अपने वचनरूपी बाणों से मुझे छेद रहे हो ? मैं तो सदा से ही कहता आया हूँ कि सव्यसाची अर्जुन युद्ध में अजेय है। कुरुनन्दन! अर्जुन को तो केवल इसी बात से समझ लेना चाहिये था कि उनके द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्डी ने भी युद्ध के मैदान में भीष्म को मार डाला। जो देवताओं और दानवों के लिये भी अवध्य थे, उन्हें युद्ध में मारा गया देख मैंने उसी समय यह जान लिया कि यह कौरव सेना अब नहीं रह सकेगी। हम लोग जिन्हें तीनों लोको के पुरुषों में सबसे अधिक शूरवीर मानते थे, उन शौर्य सम्पन्न भीष्म के मारे जाने पर हम दूसरों का क्या भरोसा करें? द्यूतक्रीड़ा के समय विदुर जी ने तुमसे कहा था कि ‘तात! कौरव-सभा में शकुनि जिन पासों को फेंक रहा हैं, उन्हें पासे न समझो, वे किसी दिन शत्रुओं को संताप देने वाले तीखे बाण बन सकते हैं’। परंतु वत्स! उस समय विदुरजी की कही हुई बातों को तुमने कुछ नहीं समझा। तात! वे ही पासे ये अर्जुन के चलाये हुए बाण बनकर हमें मार रहे हैं। दुर्योधन! विदुर जी वीर हैं, महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने तुम्हारे कल्याण के लिये जो मंगलकारक वचन कहे थे और जिन्हें तुमने विजय के उल्लास में अनसुना कर दिया था, उनके उन वचनों के अनादर से ही तुम्हारे लिये यह घोर महासंहार प्राप्त हुआ है। जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रों के हितकर वचन की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोडे़ ही समय में शोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है। इसके सिवा तुमने हम लोगों के सामने ही जो द्रौपदी को सभा में बुलाकर अपमानित किया, वह अपमान उसके योग्य नहीं था। वह उत्तम कुल में उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण धर्मों का निरन्तर पालन करती है।
गान्धारीनन्दन! द्रौपदी के अपमानरूपी तुम्हारे अधर्म का ही यह महान फल प्राप्त हुआ है कि तुम्हारे दल का विनाश हो रहा है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोक में तुम्हें उस पाप का इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता। इतना ही नहीं, तुमने पाण्डवों को जुए में बेईमानी से जीतकर और मृगचर्ममय वस्त्र पहनाकर उन्हें वनवास दे दिया (इस अधर्म का भी फल तुम्हें भोगना पड़ता है)। पाण्डव मेरे पुत्र के समान हैं और वे सदा धर्म का आचरण करते रहते हैं। संसार मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य हैं, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे। तुमने राजा धृतराष्ट्र की सम्मति से कौरवों की सभा में शकुनि के साथ बैठकर पाण्डवों का यह क्रोध मोल लिया है। इस कार्य में दुःशासन ने तुम्हारा साथ दिया है, कर्ण से भी उस क्रोध को बढ़ावा मिला है और विदुर जी के उपदेश की अवहेलना करके तुमने बारंबार पाण्डवों के उस क्रोध को बढ़ने का अवसर दिया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
तुम सब लोगों ने बड़ी सावधानी से अर्जुन को घेर लिया था। फिर सब के सब पराजित कैसे हो गये ? तुमने सिंधुराज को आश्रय दिया था। फिर तुम्हारे बीच में वह कैसे मारा गया? कुरुनन्दन! तुम और कर्ण तो नहीं मर गये थे, कृपाचार्य, शल्य और अश्वत्थामा तो जीवित थे; फिर तुम्हारे रहते सिंधुराज की मृत्यु क्यों हुई? युद्ध करते हुए समस्त राजा सिंधुराज की रक्षा के लिये प्रचण्ड तेज का आश्रय लिये हुए थे। फिर वह आप लोगों के बीच में कैसे मारा गया? दुर्योधन! राजा जयद्रथ विषेशतः मुझ पर और तुम पर ही अर्जुन से अपनी जीवन-रक्षा का भरोसा किये बैठा था। तो भी जब अर्जुन से उसकी रक्षा न की जा सकी, तब मुझे अब अपने जीवन की रक्षा के लिये भी कोई स्थान दिखायी नहीं देता। मैं धृष्टद्युम्न और शिखण्डी सहित समस्त पांचालो का वध न करके अपने- आपको धृष्टद्युम्न के पापपूर्ण संकल्प में डूबता-सा देख रहा हूँ।
भारत! ऐसी दशा में तुम स्वयं सिंधुराज की रक्षा में असमर्थ होकर मुझे अपने वाग्बाणों से क्यों छेद रहे हो ? मैं तो स्वयं ही संतृप्त हो रहा हूँ। अनायास ही महान कर्म करने वाले सत्यप्रतिज्ञ भीष्म के सुवर्णमय ध्वज को अब युद्धस्थल में फहराता न देखकर भी तुम विजय की आशा कैसे करते हो? जहाँ बड़े-बड़े़ महारथियों के बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तुम किसके बचने की आशा करते हो? पृथ्वीपते! दुर्धर्ष वीर कृपाचार्य यदि जीवित हैं, यदि सिंधुराज के पथ पर नहीं गये हैं तो मैं उनके बल और सौभाग्य की प्रशंसा करता हूँ। कुरुनन्दन! नरेश! जिन्हें इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी युद्ध में नहीं मार सकते थे, दुष्कर कर्म करने वाले उन्हीं भीष्म को जब से मैंने तुम्हारे छोटे भाई दुःशासन के देखते देखते मारा गया देखा हैं, तब से मैं यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में नहीं रह सकती। भारत! वह देखो, पाण्डवों और सृंजयों की सेनाएं एक साथ मिलकर इस समय मुझ पर चढ़ी आ रही हैं।
दुर्योधन! अब मैं समस्त पाञ्चालों को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूंगा। मैं समरांगण में यही कार्य करूंगा, जिससे तुम्हारा हित हो। राजन! तुम मेरे पुत्र अश्वत्थामा से जाकर कहना कि वह युद्ध में अपने जीवन की रक्षा करते हुए जैसे भी हो, सोमकों को जीवित न छोड़े’। यह भी कहना कि ’पिता ने जो तुम्हें उपदेश दिया है, उसका पालन करो। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्गुणों में स्थिर रहो। ’तुम धर्म, अर्थ और काम के साधन में कुशल हो। अतः धर्म और अर्थ को पीड़ा ने देते हुए बारंबार धर्म प्रधान कर्मों का ही अनुष्ठान करो। ’विनयपूर्ण दृष्टि और श्रद्धायुक्त हदय से ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना, यथाशक्ति उनका आदर-सत्कार करते रहना। कभी उनका अप्रिय न करना; क्योंकि वे अग्नि की ज्वाला के समान तेजस्वी होते हैं’। राजन! शत्रुसूदन! अब मैं तुम्हारे वाग्बाणों से पीड़ित हो महान युद्ध के लिये शत्रुओं की सेना में प्रवेश करता हूँ। दुर्योधन! यदि तुममें शक्ति हो तो सेना की रक्षा करना; क्योंकि इस समय क्रोध में भरे हुए कौरव और सृंजय रात्रि में भी युद्ध करेंगें। जैसे सूर्य नक्षत्रों के तेज हर लेते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियों-के तेज का अपहरण करते हुए आचार्य द्रोण दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर पाण्डवों और सृंजयों से युद्ध करने के लिये चल दिये।
(इसी प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अंतगर्त जयद्रथपर्व में द्रोणवाक्यविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-161 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुनः युद्ध का आरम्भ”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर द्रोणाचार्य से इस प्रकार प्रेरित हो अमर्ष में भरे हुए राजा दुर्योधन ने मन ही मन युद्ध करने का ही निश्चय किया। उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण से इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ’कर्ण! देखो, श्रीकृष्ण सहित पाण्डुपुत्र अर्जुन ने आचार्य द्वारा निर्मित व्यूह को, जिसका भेदन करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था, भेदकर तुम्हारे और महात्मा द्रोण के युद्ध में तत्पर रहते हुए भी मुख्य-मुख्य योद्धाओं के देखते-देखते सिंधुराज जयद्रथ को मार गिराया है। ‘राधानन्दन! देखो, जैसे सिंह दूसरे वन्य पशुओं संहार कर डालता है, उसी प्रकार एकमात्र कुन्तीकुमार अर्जुन द्वारा मारे गये ये भूमण्डल के श्रेष्ठ भूपाल युद्धभूमि में पड़े हैं। 'मेरे और महात्मा द्रोण के परिश्रमपूर्वक युद्ध करते रहने पर भी इन्द्र पुत्र अर्जुन ने मेरी सेना को अल्पमात्रा में ही जीवित छोड़ा है' (अधिकांश सेना को तो मार ही डाला है)। 'यदि इस युद्ध में आचार्य द्रोण अर्जुन को रोकने की पूरी चेष्टा करते तो प्रयत्न करने पर भी वे समरांगण में उस दुर्मेद्य व्यूह को कैसे तोड़ सकते थे'?
सिंधुराज को मारकर अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गये। राधाकुमार! संग्रामभूमि में पार्थ के मारे और पृथ्वी पर गिराये हुए इन बहुसंख्यक भूपतियों को देखो, ये सब के सब देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी थे। वीर! यदि बलवान द्रोणाचार्य पूरा प्रयत्न करके उन्हें व्यूह में नहीं घुसने देना चाहते तो वे उस दुर्मेघ व्यूह को कैसे तोड़ सकते थे? 'शत्रुसूदन! किंतु अर्जुन तो महात्मा आचार्य द्रोण को सदा ही परम प्रिय हैं। इसीलिये उन्होंने युद्ध किये बिना ही उन्हें व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य ने सिंधुराज को अभय-दान देकर भी किरीटधारी अर्जुन को व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया। देखो, मुझमें कितनी गुणहीनता है। यदि उन्होंने पहले ही सिंधुराज को घर जाने की आज्ञा दे दी होती तो वह इतना बड़ा जनसंहार नहीं होता। सखे! जयद्रथ अपनी जीवन रक्षा के लिये घर की ओर पधार रहे थे, परंतु मुझ अधमने ही द्रोणाचार्य से अभय पाकर उन्हें रोक लिया। मैं युद्ध में सिंधुराज की रक्षा करूंगा। अर्जुन उसे नहीं पा सकेंगे’ ऐसा कहकर इस ब्राह्मण ने मेरी सेना का संहार कराने के लिये सिंधुराज को रोक लिया। युद्ध में प्रयत्न करने पर भी मुझ भाग्यहीन की सारी सेनाएं नष्ट हो गयीं और राजा जयद्रथ भी मारे डाले गये। कर्ण! इन सैकड़ों-हजारों श्रेष्ठ योद्धाओं को देखो, ये सब के सब अर्जुन के नाम से अगणित बाणों द्वारा यमलोक पहुँचाये गये हैं। ’हम बहुसंख्यक योद्धा देखते ही रह गये और युद्धस्थल में एकमात्र रथ की सहायता से अर्जुन ने मेरे इन सहस्रों योद्धाओं तथा सिंधुराज जयद्रथ को भी मार डाला। यह कैसे सम्भव हुआ। ’आज युद्ध में हम दुरात्माओं के देखते-देखते मेरे चित्रसेन आदि भाई भीमसेन से भिड़कर नष्ट हो गये’।
कर्ण बोला ;- भाई! तुम आचार्य की निन्दा न करो। वह ब्राह्मण तो अपने बल, शक्ति और उत्साह के अनुसार प्राणों का भी मोह छोड़कर युद्ध करता ही है। यदि श्वेतवाहन अर्जुन आचार्य द्रोण का उल्लघंन करके सेना में घुस गये तो इसमें किसी प्रकार आचार्य का कोई सुक्ष्म से भी सुक्ष्म दोष नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन अस्त्रविद्या के विद्वान, दक्ष, युवावस्था से सम्पन्न, शूरवीर, अनेक दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले हैं वे दिव्यास्त्रों से सम्पन्न एवं वानर ध्वज से उपलक्षित रथ पर बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण ने उनके घोड़ों की बागडोर ले रखी थी। वे अमेद्य कवच से सुरक्षित थे। उन्हें अपने बाहुबल का अभिमान है ही। ऐसी दशा में पराक्रमी अर्जुन कभी जीर्ण न होने वाले दिव्य गाण्डीव धनुष को लेकर तीखे बाणों की वर्षा करते हुए यदि वहाँ आचार्य द्रोण को लांघ गये तो वह उनके योग्य ही कर्म था। राजन! नरेश्वर! आचार्य द्रोण अब बूढ़े हुए। वे शीघ्रतापूर्वक चलने में भी असमर्थ हैं। भुजाओं द्वारा परिश्रमपूर्वक की जाने वाली प्रत्येक चेष्टा में अब उनकी शक्ति उतनी काम नहीं देती हैं। इसीलिये श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन द्रोणाचार्य को लांघ गये। यही कारण है कि मैं इसमें द्रोणाचार्य का दोष नहीं देख रहा हूँ। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि अस्त्रवेता होने पर भी द्रोण युद्ध में पाण्डवों को नही जीत सकते, तभी तो उन्हें लांघकर श्वेतवाहन अर्जुन व्यूह में घुस गये।
सुयोधन! दैव के विधान में कहीं कोई उलट-फेर नहीं हो सकता, वह मेरी मान्यता है; क्योंकि हमलोग सम्पूर्ण शक्ति लगाकर युद्ध कर रहे थे, तो भी रणभूमि में सिंधुराज मारे गये। इस विषय में दैव (प्रारब्ध) को ही प्रधान माना गया है। समरांगण में तुम्हारे साथ हमलोग भी विजय के लिये महान प्रयत्न करते हैं, छल-कपट तथा पराक्रम द्वारा भी सदा विजय की चेष्टा में लगे रहते हैं, तो भी दैव हमारे पुरुषार्थ को नष्ट करके हमें पीछे ढकेल देता है। दैव या दुर्भाग्य का मारा हुआ पुरुष कहीं जो भी कर्म करता है, उसके किये हुए प्रत्येक कर्म को दैव उलट देता है। मनुष्य को सदा उद्योगशील होकर निःराश भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये; परंतु उसकी सिद्धि दैव के ही अधीन है। भारत! हम लोगों ने कपट करके कुन्तीकुमार कों छला, उन्हें मारने के लिये विष का प्रयोग किया, लाक्षागृह में जलाया, जूए में हराया और राजनीति का सहारा लेकर उन्हें वन में भी भेजा। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक किये हुए हमारे उन सभी कार्यो को दैव ने नष्ट कर दिया। फिर भी तुम दैव कों व्यर्थ समझकर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो।
तुम्हारे और पाण्डवों के अपनी-अपनी विजय के लिये प्रयत्न करते रहने पर दैव अपने गन्तव्य मार्ग से जाता रहेगा। वीर कुरुश्रेष्ठ! मुझे तो पाण्डवों का बुद्धिपूर्वक किया हुआ कहीं कोई सुकृत नहीं दिखायी देता अथवा तुम्हारा बुद्धि हीनतापूर्वक किया हुआ कोई दुष्कृत भी देखने में नहीं आता। सुकृत हो या दुष्कृत, सब पर दैव का ही अधिकार है। वही उसका फल देने वाला है। अपना ही पूर्वकृत कर्म दैव हैं, जो मनुष्यों के सो जाने पर भी जागता रहता है। पहले तुम्हारे पास बहुत-सी सेनाएं और बहुत-से योद्धा थे। पाण्डवों के पास उतने सैनिक नहीं थे। इस अवस्था में युद्ध आरम्भ हुआ था। तथापि उन अल्पसंख्यकों ने तुम बहुसंख्यक योद्धाओं को क्षीण कर दिया। मैं समझता हूँ, वह दैव का ही कर्म है। जिसने तुम्हारे पुरुषार्थ का नाश कर दिया है।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार जब कर्ण और दुर्योधन परस्पर बहुत-सी बातें कर रहे थे, उसी समय युद्धस्थल में पाण्डवों की सेनाएं दिखायी दी। राजन! तदनन्तर आपकी कुमन्त्रणा के अनुसार आपके पुत्रों का शत्रुओं के साथ घोर युद्ध छिड गया, जिसमें रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गये थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त जयद्रथपर्वमें पुनः युद्धारम्भविषयक एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ तिरेपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-पाण्डव सेना का युद्ध, दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय”
संजय कहते हैं ;- जनेश्वर! आपकी प्रचण्ड गजसेना पांडव सेना का उल्लघंन करके सब ओर फैलकर युद्ध करने लगी। पांचाल और कौरव योद्धा महान यमराज्य एवं परलोक की दीक्षा लेकर परस्पर युद्ध करने लगे। एक पक्ष के शूरवीर दूसरे पक्ष के शूरवीरों से भिड़कर बाण, तोमर और शक्तियों में समरभूमि में एक-दूसरे को चोट पहुँचाने और यमलोक भेजने लगे। परस्पर प्रहार करने वाले रथियों का रथियों के साथ महान युद्ध होने लगा, जो खून की धारा बहाने के कारण अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। महाराज! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए मदमत हाथी परस्पर भिड़कर दांतों के प्रहार से एक-दूसरे को विदीर्ण करने लगे। उस भयंकर युद्ध में महान यश की अभिलाषा रखते हुए घुड़सवार घुड़सवारों को प्रास, शक्ति और फरसों द्वारा घायल कर रहे थे। राजन! हाथों में शस्त्र लिये सैकड़ों पैदल सैनिक सदा पराक्रम के लिये प्रयत्नशील हो एक दूसरे पर चोट कर रहे थे। आर्य! नाम, गोत्र और कुलों का परिचय सुनकर ही हम लोग उस समय कौरवों के साथ युद्ध करने वाले पांचालों को पहचान पाते थे। उस समरांगण में वे समस्त योद्धा निर्भय-से विचरते हुए बाण, शक्ति और फरसों की मार से एक दूसरे को परलोक भेज रहे थे। ‘राजन! सूर्यास्त हो जाने के कारण उन योद्धाओं के छोड़े हुए सहस्रों बाण दसों दिशाओं में फैलकर अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो पाते थे।
भरतवंशी महाराज! जब इस प्रकार पाण्डव-सैनिक युद्ध कर रहे थे, उस समय दुर्योधन ने उस सेना में प्रवेश किया। वह सिंधुराज के वध से बहुत दुखी हो गया था। अतः मरने का ही निश्चय करके उसने शत्रुओं की सेना में प्रवेश किया। अपने रथ की घरघराहट से दिशाओं को प्रतिध्वनित करता और पृथ्वी को कंपाता हुआ-सा आपका पुत्र पाण्डव सेना के सम्मुख आया। भारत! पाण्डव सैनिकों तथा दुर्योधन का वह भंयकर संग्राम समस्त सेनाओं का महान विनाश करने वाला था। धृतराष्ट्र ने पूछा- द्रोण, कर्ण, कृप तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा- ये तो राजा के चाहने वालों में से हैं, इन्होंने उसे युद्ध में जाने से रोका क्यों नही? युद्ध में सभी उपायों से राजा की रक्षा करनी चाहिये। महषिर्यों ने युद्ध विषयक इसी सर्वोत्तम नीति का साक्षात्कार किया है। संजय! जब मेरा पुत्र शत्रुओं की विशाल सेना में घुस गया, उस समय मेरे पक्ष के श्रेष्ठ रथियों ने क्या किया ?
संजय ने कहा ;- भरतवंशी नरेश! आपके पुत्र के आश्चर्यजनक एवं अद्भुत संग्राम का, जो एक का बहुत-से योद्धाओं के साथ हुआ था, वर्णन करता हूं, सुनिये। द्रोणाचार्य, कर्ण और कृपाचार्य के मना करने पर भी जैसे मगर समुद्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार दुर्योधन पांडव सेना में घुस गया था। जहाँ-तहाँ और सहस्रों बाणों की वर्षा करते हुए उसने तीखे बाणों द्वारा पांचालों और पाण्डवों को घायल कर दिया था। जैसे उदयकाल का सूर्य अपनी किरणों द्वारा सर्वत्र फेले हुए अंधकार का नाश कर देता हैं, उसी प्रकार आपके महाबली पुत्र ने शत्रुसेना का विनाश कर दिया। जैसे अपनी किरणों से तपते हुए दोपहर के सूर्य की ओर कोई देख नहीं पाता, उसी प्रकार अपने बाणों की ज्वालाओं-से शत्रुओं को संताप देते हुए सेना के मध्यम भाग में खड़े आपके पुत्र एवं अपने भाई दुर्योधन की ओर उस युद्धस्थल में पाण्डव देख नही पाते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)
महामनस्वी दुर्योधन की मार खाकर पांचाल सैनिक इधर-उधर भागने लगे। अब वे पलायन करने में ही उत्साह दिखा रहे थे। उनमें शत्रुओं को जीतने का उत्साह नहीं रह गया था। आपके धनुर्धर पुत्र के द्वारा चलाये हुए सुवर्णमय पंख तथा चमकती हुई धार वाले बाणों से पीड़ित होकर बहुतेरे पाण्डव सैनिक तुरंत धराशायी हो गये। प्रजानाथ! आपके सैनिकों ने रणभूमि में वैसा पराक्रम नहीं किया था, जैसा की आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने किया। जैसे हाथी सब ओर से खिले हुए कमल पुष्पों से सुशोभित पोखरे को मथ डालता है, उसी प्रकार आपके पुत्र ने रणभूमि में पाण्डव-सेना को मथ डाला। जैसे हवा और सूर्य से पानी सूख जाने के कारण पद्मनी हतप्रभ हो जाती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र के तेज से तप्त होकर पाण्डव-सेना श्रीहीन हो गयी थी।
भारत! आपके पुत्र द्वारा पाण्डव सेना को मारी गयी देख पांचालों ने भीमसेन को अगुआ बनाकर उस पर आक्रमण किया। उस समय दुर्योधन ने भीमसेन को दस, माद्रीकुमारों को तीन-तीन, विराट और द्रुपद को छः-छः शिखण्डी को सौ, धृष्टद्युम्न को सत्तर, धर्मपुत्र युधिष्ठिर को सात और केकय तथा चेदिदेश के सैनिकों को बहुत-से तीखे बाण मारे। फिर सात्यकि को पांच बाणों से घायल करके द्रौपदी के पुत्रों को तीन-तीन बाण मारे। तत्पश्चात समरभूमि में [घटोत्कच] को घायल करके दुर्योधन ने सिंह के समान गर्जना की। उस महायुद्ध में हाथियों सहित सैकड़ों दूसरे योद्धाओं को क्रोध में भरे हुए दुर्योधन ने अपने भयंकर बाणों द्वारा उसी प्रकार काट डाला, जैसे यमराज प्रजा का विनाश करते हैं। नरेश्वर! उस संग्राम में आपके पुत्र के चलाये हुए बाणों की मार खाकर पाण्डव-सेना इधर-उधर भागने लगी। राजन! उस महासमर में तपते हुए सूर्य के समान कुरुराज दुर्योधन की ओर पाण्डव सैनिक देख भी न सके।
नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधन को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर दौड़े। शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों कुरूवंशी वीर दुर्योधन और युधिष्ठिर अपने-अपने स्वार्थ के लिये युद्ध में पराक्रम प्रकट करते हुए एक दूसरे से भिड़ गये। तब दुर्योधन ने कुपित होकर झुकी हुई गांठवाले दस बाणों द्वारा तुरंत ही युधिष्ठिर को घायल कर दिया और एक बाण से उनका ध्वज भी काट डाला। नरेश्वर! उन्होंने तीन बाणों द्वारा महात्मा पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के प्रिय सारथि इन्द्रसेन को उसके ललाट प्रदेश में चोट पहुँचायी। फिर दूसरे बाण से महारथी दुर्योधन ने राजा युधिष्ठिर का धनुष भी काट दिया और चार बाणों से उनके चारों घोड़ों को बींघ डाला। तब राजा युधिष्ठिर ने कुपित हो पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और बड़े वेग से कुरुवंशी दुर्योधन को रोका। माननीय नरेश! ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने दो भल्ल मारकर शत्रुओं के संहार में लगे हुए दुर्योधन के सुवर्णमय पृष्ठ-वाले विशाल धनुष के तीन टुकड़े कर डाले। साथ ही, उन्होंने अच्छी तरह चलाये हुए दस पैने बाणों-से दुर्योधन को भी घायल कर दिया। वे सारे बाण दुर्योधन के मर्मस्थानों में लगकर उन्हें विदीर्ण करते हुए पृथ्वी में समा गये। फिर तो भागे हुए पाण्डव-योद्धा लौट आये और युधिष्ठिर को वैसे ही घेरकर खड़े हो गये, जैसे वृत्रासुर के वध के लिये सब देवता इन्द्र को घेरकर खड़े हुए थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-44 का हिन्दी अनुवाद)
आर्य! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने आपके पुत्र राजा दुर्योधन पर सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी, अत्यन्त भयंकर तथा अनिवार्य बाण यह कहकर चलाया कि ’हाय! तुम मारे गये’। कानों तक खींचकर चलाये हुए उस बाण से घायल हो कुरुवंशी दुर्योधन अत्यन्त मूर्च्छित हो गया और रथ के पिछले भाग में धम्म से बैठ गया। आदरणीय राजेन्द्र! उस समय प्रसन्न हुए पांचाल-सैनिकों ने ‘राजा दुर्योधन मारा गया’ ऐसा कहकर चारों ओर अत्यन्त महान कोलाहल मचाया। वहाँ बाणों का भयंकर शब्द भी सुनायी दे रहा था।
तत्पश्चात तुरंत ही वहाँ युद्ध-स्थल में द्रोणाचार्य दिखायी दिये। इधर, राजा दुर्योधन ने भी इस हर्ष और उत्साह में भरकर सुदृढ धनुष हाथ में ले ’खड़े रहो, खड़े रहो’ कहते हुए वहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। यह देख विजयाभिलाषी पांचाल सैनिक तुरंत ही उसका सामना करने के लिये आग बढे; परंतु कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन की रक्षा के लिये द्रोणाचार्य ने उन सबको उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे प्रचण्ड वायु द्वारा उठाये हुए मेघों को सूर्य देव नष्ट कर देते हैं। राजन! तदनन्तर युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों का महान संग्राम होने लगा, जिसमें बहुसंख्यक प्राणियों का संहार हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अंतगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रिकालिक युद्ध के प्रसंग में दुर्योधन की पराजयविषयक एक सौ तिरपनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुष्पण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“रात्रियुद्ध में पाण्डव-सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और द्रोणाचार्य द्वारा उनका संहार”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! मेरी आज्ञा का उल्लघंन करने वाले मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर क्रोध में भरे हुए बलवान आचार्य द्रोण ने जब वहाँ पांडव सेना में प्रवेश किया, उस समय रथ पर बैठकर सेना के भीतर प्रवेश करके सब ओर विचरते हुए महाधनुर्धर शूरवीर द्रोणाचार्य को पाण्डवों ने किस प्रकार रोका। उस महासमर में बहुसंख्यक शत्रु योद्धाओं का संहार करने वाले आचार्य द्रोण के चक्र की किन लोगों ने रक्षा की तथा किन लोगों ने उनके रथ के बायें पहिये की रखवाली की? युद्ध परायण वीर रथी आचार्य के पीछे कौन-से वीर थे और शत्रुपक्ष के कौन-कौन से वीर उनके सामने खड़े हुए थे। मैं तो समझता हूँ शत्रुओं को बहुत देर तक बिना मौसम- के ही सर्दी लगने लगी होगी। जैसे शिशिर ऋतु में गायें सर्दी के मारे कांपने लगती हैं, उसी तरह वे शत्रु सैनिक भी आचार्य के भय से थर-थर कांपने लगे होंगे। क्योंकि किसी से परास्त न होने वाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने पांचालों की सेना में रथ के मार्गों पर नृत्य-सा करते हुए प्रवेश किया था। रथियों में श्रेष्ठ द्रोण क्रोध में भरे हुए धूमकेतु के समान प्रकट होकर पांचालों की समस्त सेनाओं को दग्ध कर रहे थे; फिर उनकी मृत्यु कैसी हो गयी?
संजय ने कहा ;- राजन! सांयकाल सिंधुराज जयद्रथ का वध करके राजा युधिष्ठिर से मिलकर कुन्तीकुमार अर्जुन और महाधनुर्धर सात्यकि दोनों ने द्रोणाचार्य पर ही धावा किया। इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर और पाण्डुपुत्र भीमसेन ने भी पृथक-पृथक सेनाओं के साथ तैयार हो शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्य पर ही आक्रमण किया। इसी तरह बुद्धिमान नकुल, दुर्जय वीर सहदेव, सेना-सहित धृष्टद्युम्न, राजा विराट, केकयराजकुमार तथा मत्स्य और शाल्वदेश के सैनिक अपनी सेनाओं के साथ युद्ध स्थल में द्रोणाचार्य पर ही चढ़ आये। राजन! पांचाल सैनिकों से सुरक्षित धृष्टद्युम्न पिता राजा द्रुपद ने भी द्रोणाचार्य का ही सामना किया। महाधनुर्धर द्रौपदीकुमार तथा राक्षस घटोत्कच भी अपनी सेनाओं के साथ महातेजस्वी द्रोणाचार्य की ही ओर लौट आये। प्रहार करने मे कुशल छः हजार प्रभद्रक और पांचाल योद्धा भी शिखण्डी को आगे करके द्रोणाचार्य पर ही चढ़ आये। इसी प्रकार पांडव सेना के अन्य महारथी वीर पुरुष-सिंह भी एक साथ द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य की ओर ही लौट आये। भरतश्रेष्ठ! युद्ध के उन शूरवीरों के आ पहुँचने पर वह रात बड़ी भयंकर हो गयी, जो भीरू पुरुषों के भय को बढ़ाने वाली थी।
राजन! वह रात्रि समस्त योद्वाओं के लिये अमगंल-कारक, भयंकर, यमराज के पास ले जाने वाली तथा हाथी, घोड़े और मनुष्यों के प्राणों का अन्त करने वाली थी। उस घोर रजनी में सब ओर कोलाहल करती हुई सियारिनें अपने मुंह से आग उगलती हुई घोर भय की सूचना दे रही थी। विषेशतः कौरव सेना में महान भय की सूचना देने वाले अत्यन्त दारुण उल्लू पक्षी भी दिखायी दे रहे थे। राजेन्द्र! तदनन्तर सारी सेनाओं में रणभेरी की भारी आवाज, मृदंड़ों की ध्वनि, हाथियों के चिग्घाडनें, घोड़ों के हिनहिनाने और धरती पर उनकी टाप पड़ने से चारों ओर अत्यन्त भयंकर शब्द गूंजने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुष्पण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तत्पश्चात संध्याकाल में समस्त सृंजय-वीरों तथा द्रोणाचार्य का अत्यन्त दारुण संग्राम होने लगा। सारा जगत अंधकार से तथा सेना द्वारा सब ओर उड़ायी हुई धूल से आच्छादित होने के कारण किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के रक्त में सन जाने के कारण हमें धरती की धूल दिखायी नहीं देती थी। हम सब लोगों पर मोह सा छा गया था। जैसे पर्वत पर रात के समय बांसों का जंगल जल रहा हो और उन बांसों के चटखने का घोर शब्द सुनायी दे रहा हो, उसी प्रकार शस्त्रों के आघात-प्रत्याघात से घोर चटखट शब्द कानों में पड़ रहा था। मृदंग और ढोलों की आवाज से, झांझ और पटहों की ध्वनि से तथा हाथी-घोड़ों के फुंकार और हींसने के शब्दों से वहाँ का सब कुछ व्याप्त जान पड़ता था। राजन! उस अन्धकाराच्छन्न प्रदेश में अपने और पराये-की पहचान नहीं होती थी। उस प्रदोषकाल में सब कुछ उन्मत-सा जान पड़ता था।
राजेन्द्र! रक्त की धारा ने धरती की धूल को नष्ट कर दिया। सोने के कवचों और आभूषणों की चमक से अंधकार दूर हो गया। भरतश्रेष्ठ! उस समय रात्रिकाल में मणियों तथा सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित हुई वह कौरव सेना नक्षत्रों से युक्त आकाश के समान सुशोभित होती थी। उस सेना के आसपास सियारों के समूह अपनी भयंकर बोली बोल रहे थे। शक्तियों और ध्वजों से सारी सेना व्याप्त थी। कहीं हाथी चिग्घाड़ रहे थे, कहीं योद्धा सिंहनाद कर रहे थे और कहीं एक सैनिक दूसरे को पुकारते तथा ललकारते थे। इन शब्दों से कोलाहल पूर्ण हुई वह सेना बड़ी भयानक जान पड़ती थी। थोडी देर में रोंगटे खड़े कर देने वाला अत्यन्त भयंकर महान शब्द गूंज उठा। ऐसा जान पड़ता था देवराज इन्द्र के वज्र की गड़गड़ाहट फैल गयी हो। वह शब्द वहाँ सारी दिशा में छा गया था। महाराज! रात के समय कौरव सेना अपने बाजूबन्द, कुण्डल, सोने के हार तथा अस्त्र-शस्त्रों से प्रकाशित हो रही थी। वहाँ रात्रि में सुवर्णभूषित हाथी और रथ बिजली सहित मेघों के समान दिखायी दे रहे थे।
वहाँ चारों ओर गिरते हुए ऋष्टि, शक्ति, गदा, बाण मूसल, प्रास और पट्टिश आदि अस्त्र आग के अंगारों के समान प्रकाशित दिखायी देते थे। युद्ध करने की इच्छा वाले सैनिकों ने उस अत्यन्त भयंकर सेना में प्रवेश किया, जो मेघों की घटा के समान जान पड़ती थी। दुर्योधन उसके लिये पुरवैया हवा के समान था। रथ और हाथी बादलों के दल थे। रणवाद्यों की गम्भीर ध्वनि मेघों की गर्जना के समान जान पड़ती थी। धनुष और ध्वज बिजली के समान चमक रहे थे। द्रोणाचार्य और पाण्डव पर्जन्य का काम देते थे। खंड, शक्ति और गदा का आघात ही वज्रपात था। बाणरूपी जल की वहाँ वर्षा होती थी। अस्त्र ही पवन के समान प्रतीत होते थे। सर्दी ओर गर्मी से व्याप्त हुई वह अत्यन्त भयंकर उग्र सेना सबको विस्मय में डालने वाली और योद्धाओं के जीवन का उच्छेद करने वाली थी। उससे पार होने के लिये नौकास्वरूप कोई साधन नहीं था। महान शब्द से मुखरित एवं भयंकर रात्रि का प्रथम पहर बीत रहा था, जो कायरों को डराने वाला और शूरवीरों- का हर्ष बढ़ाने वाला था।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) चतुष्पण्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-40 का हिन्दी अनुवाद)
जब वह अत्यन्त भयंकर और दारुण रात्रियुद्ध चल रहा था, उस समय क्रोध में भरे हुए पाण्डवों तथा सृंजयों ने द्रोणाचार्य पर एक साथ धावा किया। राजन! जो-जो प्रमुख महारथी द्रोणाचार्य के सामने आये, उस सबको उन्होंने युद्ध से विमुख कर दिया और कितनों को यमलोक पहुँचा दिया। उस प्रदोषकाल में अकेले द्रोणाचार्य ने अपने नाराचों-द्वारा एक हजार हाथी, दस हजार रथ तथा लाखों-करोड़ों पैदल एवं घुड़सवार नष्ट कर दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्धविषयक एक सौ चौवनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
एक सौ पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य द्वारा शिवि का वध तथा भीमसेन द्वारा घुस्से और थप्पड़ से कलिंग राजकुमार का एवं ध्रुव, जयरात तथा धृतराष्ट्र पुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! अमित तेजस्वी दुर्धर्ष वीर आचार्य द्रोण ने जब रोष और अमर्ष में भरकर सृंजयों की सेना में प्रवेश किया, उस समय तुम लोगों की मनोवृति कैसी हुई ? गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले मेरे पुत्र दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर जब अमेय आत्मबल से सम्पन्न द्रोणाचार्य ने शत्रुसेना में पदार्पण किया, तब कुन्तीकुमार अर्जुन ने क्या किया? सिंधुराज जयद्रथ तथा वीर भूरिश्रवा के मारे जाने पर अपराजित वीर महातेजस्वी द्रोणाचार्य जब पांचालों की सेना में घुसे, उस समय शत्रुओं को संताप देने वाले उन दुर्धर्ष वीर के प्रवेश कर लेने पर दुर्योधन ने उस अवसर के अनुरूप किस कार्य को मान्यता प्रदान की। उन वरदायक वीर विप्रवर द्रोणाचार्य के पीछे-पीछे कौन गये तथा युद्ध परायण शूरवीर आचार्य के पृष्ठ भाग में कौन-कौन-से वीर गये? रणभूमि में शत्रुओं का संहार करते हुए कौन-कौन-से वीर आचार्य के आगे खड़े थे।
प्रभो! मैं तो समझता हूं, द्रोणाचार्य के बाणों से पीड़ित होकर समस्त पाण्डव शिशिर ऋतु में दुबली-पतली गायों के समान थर-थर कांपने लगे होंगे। शत्रुओं का मर्दन करने वाले महाधनुर्धर पुरुषसिंह द्रोणाचार्य पांचालों की सेना में प्रवेश करके कैसे मृत्यु को प्राप्त हुए? रात्रि के समय जब समस्त योद्धा और महारथी एकत्र होकर परस्पर जूझ रहे थे और पृथक-पृथक सेनाओं का मन्थन हो रहा था, उस समय तुम लोगों में से किन-किन बुद्धिमानों की बुद्धि ठिकाने रह सकी? तुम प्रत्येक युद्ध में मेरे रथियों को हताहत, पराजित तथा रथहीन हुआ बताते हो। जब पाण्डवों ने उन सबको मथकर अचेत कर दिया और वे घोर अन्धकार में डूब गये, तब मेरे उन सैनिकों ने क्या विचार किया? संजय! तुम पाण्डवों को तो हर्ष और उत्साह से युक्त, आगे बढ़ने वाले और संतुष्ट बताते हो और मेरे सैनिकों को दुखी एवं युद्ध से विमुख बताया करते हो। सूत! युद्ध से पीछे न हटने वाले इन कुन्तीकुमारों के दल में रात के समय कैसे प्रकाश हुआ और कौरवदल में भी किस प्रकार उजाला सम्भव हुआ ?
संजय ने कहा ;- राजन! जब यह अत्यन्त दारुण रात्रियुद्ध चलने लगा, उस समय सोमकों सहित समस्त पाण्डवों ने द्रोणाचार्य पर धावा किया। तदनन्तर द्रोणाचार्य ने केकयों और धृष्टद्युम्न के समस्त पुत्रों को अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा यमलोक भेज दिया। भरतवंशी नरेश! जो-जो महारथी उनके सामने आये, उन सबको आचार्य ने पितृलोक में भेज दिया। इस प्रकार शत्रुवीरों का संहार करते हुए महारथी द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये प्रतापी शिवि क्रोध पूर्वक आये। पाण्डव पक्ष के उन महारथी वीर को आते देख आचार्य ने सम्पूर्णतः लोहे के बने हुए दस पैने बाणों से उन्हें घायल कर दिया। तब शिवि ने तीस तीखे सायको से बेधकर बदला चुकाया और मुस्कुराते हुए उन्होंने एक भल्ल से उनके सारथि को मार गिराया। यह देख द्रोणाचार्य ने भी महामना शिवि के घोड़ों को मारकर सारथि का भी वध कर दिया। फिर उनके शिरस्त्राण-सहित मस्तक को धड़ से काट लिया। तत्पश्चात दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को शीघ्र ही दूसरा सारथि दे दिया। जब उस नये सारथि ने उनके घोड़ों की बागडोर संभाली, तब उन्होंने पुनः शत्रुओं पर धावा किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
उस रणभूमि में कलिंग राजकुमार ने कलिंगों की सेना साथ लेकर भीमसेन पर आक्रमण किया। भीमसेन ने पहले उसके पिता का वध किया था। इससे उनके प्रति उसका क्रोध बढ़ा हुआ था। उसने भीमसेन को पहले पांच बाणों से बेधकर पुनः सात बाणों से घायल कर दिया। उनके सारथि विशोक को उसने तीन बाण मारे और एक बाण से उनकी ध्वजा छेद डाली। क्रोध में भरे हुए कलिंग देश के उस शूरवीर को कुपित हुए भीमसेन ने अपने रथ से उसके रथ पर कूदकर मुक्के से मारा। युद्धस्थल में बलवान पाण्डुपुत्र के मुक्के की मार खाकर कलिंगराज की सारी हड्डियां सहसा चूर-चूर हो पृथक-पृथक गिर गयी।
परंतप! कर्ण और उसके भाई भीमसेन के इस पराक्रम को सहन न कर सके। उन्होंने विषधर सर्पों के समान विषैले नाराचों द्वारा भीमसेन को गहरी चोट पहुँचायी। तदनन्तर भीमसेन शत्रु के उस रथ को त्याग कर दूसरे शत्रु ध्रुव के रथ पर जा चढ़े। ध्रुव लगातार बाणों की वर्षा कर रहा था। भीमसेन ने उसे भी एक मुक्के से मार गिराया। बलवान पाण्डुपुत्र के मुक्के की चोट लगते ही वह धराशायी हो गया। महाराज! ध्रुव को मारकर महाबली भीमसेन जयरात के रथ पर जा पहुँचे और बारंबार सिंहनाद करने लगे। गर्जना करते हुए उन्होंने बायें हाथ से जयरात को झटका देकर उस थप्पड़ से मार डाला। फिर वे कर्ण के ही सामने जाकर खड़े हो गये। तब कर्ण ने पाण्डुनन्दन भीम पर सोने की बनी हुई शक्ति का प्रहार किया; परंतु पाण्डुनन्दन भीम ने हंसते हुए ही उसे हाथ से पकड़ लिया। दुर्धर्ष वीर वृकोदर ने उस युद्धस्थल में कर्ण पर ही वह शक्ति चला दी; परंतु शकुनि ने कर्ण पर आती हुई शक्ति को तेल पीने वाले बाण से काट डाला। अद्भुत पराक्रमी भीमसेन रणभूमि में यह महान पराक्रम करके पुनः अपने रथ पर आ बैठे और आपकी सेना को खदेड़ने लगे।
राजन! क्रोध में भरे हुए यमराज के समान महाबाहु भीमसेन को शत्रुवध की इच्छा से सामने आते देख आपके महारथी पुत्रों ने बाणों की बड़ी भारी वर्षा करके उन्हें आच्छादित करते हुए रोका। तब युद्धस्थल में हंसते हुए-से भीमसेन दुर्मद के सारथि और घोड़ों को अपने बाणों से मार कर यमलोक पहुँचा दिया। तब दुर्मद दुष्कर्ण के रथ पर जा बैठा। फिर शत्रुओं को संताप देने वाले उन दोनों भाइयों ने एक ही रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के मुहाने पर भीमसेन पर धावा किया; ठीक उसी तरह, जैसे वरुण और मित्र ने दैत्यराज तारक पर आक्रमण किया था। तत्पश्चात आपके पुत्र दुर्मद (दुधर्ष) और दुष्कर्ण एक ही रथ पर बैठकर भीमसेन को बाणों से घायल करने लगे। तदनन्तर कर्ण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, कृपाचार्य, सोमदत्त और बाह्लीक के देखते-देखते शत्रुदमन पाण्डुपुत्र भीम ने वीर दुर्मद और दुष्कर्ण के उस रथ को लात मारकर धरती में धंसा दिया। फिर आप के बलवान एवं शूरवीर पुत्र दुर्मद और दुष्कर्ण को क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने मुक्के से मारकर मसल डाला और वे जोर-जोर से गर्जना करने लगे। यह देख कौरव सेना में हाहाकार मच गया। भीमसेन को देखकर राजा लोग कहने लगे ’ये साक्षात भगवान रुद्र ही भीमसेन का रूप धारण करके धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ युद्ध कर रहे हैं’। भारत! ऐसा कहकर सब राजा अचेत होकर अपने वाहनों को हांकते हुए रणभूमि से पलायन करने लगे। उस समय दो व्यक्ति एक साथ नहीं भागते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-46 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर रात्रि के प्रथम प्रहर में जब कौरव सेना अत्यन्त भयभीत हो इधर-उधर भाग गयी, तब श्रेष्ठ राजाओं ने विकसित कमल के समान सुन्दर नेत्रों वाले महाबली भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की और बलवान भीम ने राजा युधिष्ठिर का समादर किया। तत्पश्चात जैसे अन्धकासूर के मारे जाने पर देवताओं ने भगवान शंकर का स्तवन और पूजन किया था, उसी प्रकार नकुल, सहदेव, द्रुपद, विराट, केकयराजकुमार तथा युधिष्ठिर भी भीमसेन की विजय से बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने वृकोदर की बड़ी प्रंशसा की।
इसके बाद वरुण पुत्र के समान पराक्रमी आपके सभी पुत्र रोष में भरकर युद्ध की इच्छा से रथ, पैदल और हाथियों की सेना साथ ले महात्मा गुरु द्रोणाचार्य के साथ आये और वेगपूर्वक भीमसेन को सब ओर से घेर कर खड़े हो गये। यह देख नकुल, सहदेव, सैनिकों सहित द्रुपदपुत्र, युधिष्ठिर, द्रुपद, विराट, सात्यकि, घटोत्कच, जय, विजय, द्रुम, वृक तथा सृंजय योद्धाओं ने आपके पुत्रों को आगे बढ़ने से रोका। नृपश्रेष्ठ! फिर तो घने अन्धकार से आवृत महाभयंकर प्रदोषकाल में उन महामनस्वी वीरों का अत्यन्त दारुण, भयदायक तथा भेड़ियों, गीधों और कौवों को आनन्दित करने वाला अद्भुत युद्ध होने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व क अंतगर्त घटोत्कवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में भीमसेन को पराक्रमविषयक एक सौ पचनपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें