सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का अद्भुत पराक्रम और सिन्धुराज जयद्रथ का वध”
संजय कहते हैं ;- राजन! उस समय अर्जुन के द्वारा खींचे जाने वाले गाण्डीव धनुष की अत्यन्त भयंकर टंकार यमराज की सुस्पष्ट गर्जना तथा इन्द्र के वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर आपकी सेना भय से उद्विग्न हो बड़ी घबराहट में पड़ गयी। उस समय उसकी दशा प्रलयकाल की आंधी से क्षोभ को प्राप्त एवं उत्ताल तरंगों से परिपूर्ण हुए उस महासागर के जल की सी हो गयी, जिसमें मछली और मगर आदि जलजन्तु छिप जाते हैं। उस रणक्षेत्र में कुन्तीकुमार अर्जुन एक साथ सम्पूर्ण दिशाओं में देखते और सब प्रकार के अस्त्रों का कौशल दिखाते हुए विचर रहे थे। महाराज! उस समय अर्जुन की अद्भुत फुर्ती के कारण हम लोग यह नहीं देख पाते थे कि वे कब बाण निकालते हैं, कब उसे धनुष पर रखते हैं, कब धनुष को खींचते हैं और कब बाण छोड़ते हैं।
नरेश्वर! तदनन्तर महाबाहु अर्जुन ने कुपित हो कौरव सेना के समस्त सैनिकों को भयभीत करते हुए दुर्धर्ष इन्द्रास्त्र को प्रकट किया। इससे दिव्यास्त्र सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित सैकड़ों तथा सहस्रों प्रज्वलित अग्नि मुख बाण प्रकट होने लगे। धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये अग्नि शिखा तथा सूर्यकिरणों के समान तेजस्वी बाणों से भरा हुआ आकाश उल्काओं से व्याप्त सा जान पड़ता था। उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। तदनन्तर कौरवों ने अस्त्र शस्त्रों की इतनी वर्षा की कि वहाँ अंधेरा छा गया। दूसरे कोई योद्धा उस अन्धकार को नष्ट करने का विचार भी मन में नहीं ला सकते थे; परंतु पाण्डुपुत्र अर्जुन ने बड़ी शीघ्रता सी करते हुए दिव्यास्त्र सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित बाणों से पराक्रम पूर्वक उसे नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे प्रातःकाल में सूर्य अपनी किरणों द्वारा रात्रि के अन्धकार को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। तत्पश्चात् जैसे ग्रीष्मऋतु के शक्तिशाली सूर्य छोटे-छोटे गड्डों के पानी को शीघ्र ही सुखा देते हैं, उसी प्रकार सामर्थ्यशाली अर्जुन रूपी सूर्य ने अपनी बाणमयी प्रज्वलित किरणों द्वारा आपकी सेना रूपी जल को शीघ्र ही सोख लिया। इसके बाद दिव्यास्त्रों के ज्ञाता अर्जुन रूपी सूर्य की छिटकायी हुई बाण रूपी किरणों ने शत्रुओं की सेना को उसी प्रकार आप्लावित कर दिया, जैसे सूर्य की रश्मियां सारे जगत को व्याप्त कर लेती हैं। तदनन्तर अर्जुन के छोड़े हुए दूसरे प्रचण्ड तेजस्वी बाण वीर योद्धाओं के हृदय में प्रिय बन्धु की भाँति शीघ्र ही प्रवेश करने लगे। समरांगण में अपने को शूरवीर मानने वाले आपके जो-जो योद्धा अर्जुन के सामने गये, वे जलती आग में पड़े हुए पतंगों के समान नष्ट हो गये। इस प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन शत्रुओं के जीवन और यश को धूल में मिलाते हुए मूर्तिमान मृत्यु के समान संग्रामभूमि में विचरण करने लगे। वे अपने बाणों से किन्हीं शत्रुओं के मुकुटमण्डित मस्तकों, किन्हीं के बाजूबंद विभूषित विशाल भुजाओं तथा किन्हीं के दो कुण्डलों से अलंकृत दोनों कानों को काट गिराते थे। पाण्डुकुमार अर्जुन ने हाथी सवारों की तोमरयुक्त, घुड़सवारों की प्रासयुक्त, पैदल सिपाहियों की ढालयुक्त, रथियों की धनुषयुक्त और सारथियों की चाबुक सहित भुजाओं को काट डाला। उद्दीप्त एवं उग्र बाण रूपी शिखाओं से युक्त तेजस्वी अर्जुन वहाँ चिनगारियों और लपटों से युक्त प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
देवराज इन्द्र के समान रथ पर बैठे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ नरश्रेष्ठ अर्जुन एक ही साथ सम्पूर्ण दिशओं में महान् अस्त्रों का प्रहार करते हुए सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। वे अपने धनुष की टंकार करते हुए रथ के मार्गो पर नृत्य सा कर रहे थे। जैसे आकाश में तपते हुए दोपहर के सूर्य की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उनकी ओर राजा लोग यत्न करने पर भी देख नहीं पाते थे। प्रज्वलित एवं भयंकर बाण लिये किरीटघारी अर्जुन वर्षाऋतु में अधिक जल से भरे हुए इन्द्रधनुष सहित महा मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे। उस युद्धस्थल में अर्जुन ने बड़े-बड़े अस्त्रों की ऐसी बाढ़ ला दी थी, जो परम दुस्तर और अत्यन्त भयंकर थी। उसमें कौरवदल के बहुसंख्यक श्रेष्ठ योद्धा डूब गये।
भूपाल! अर्जुन का वह महान् युद्ध मृत्यु का क्रीड़ास्थल बना हुआ था, जो शस्त्रों के आघात से ही सुन्दर लगता था। वहाँ बहुत सी ऐसी लाशें पड़ी थीं, जिनके मस्तक कट गये थे और भुजाएं काट दी गयी थीं। बहुत सी ऐसी, भुजाएं दृष्टिगोचर होती थीं, जिनके हाथ नष्ट हो गये और बहुत से हाथ भी अंगुलियों से शून्य थे। कितने ही मदोन्मत्त हाथी धराशायी हो गये थे, जिनकी सूंड़ के अग्रभाग और दांत काट डाले गये थे। बहुतेरे घोड़ों की गर्दनें उड़ा दी गयी थीं और रथों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये थे। किन्हीं की आंतें कट गयी थीं, किन्हीं के पांव काट डाले गये थे तथा कुछ दूसरे लोगों की संधियां (अंगों के जोड़) खण्डित हो गयी थीं। कुछ लोग निश्चेष्ट हो गये थे और कुछ पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। इनकी संख्या सैकड़ों तथा सहस्रों थी। हमने देखा कि वह युद्धस्थल कायरों के लिये भयवर्धक हो रहा है। मानो पूर्व (प्रलय) काल में पशुओं (जीवों) को पीड़ा देने वाले रुद्रदेव का क्रीडास्थल हो।
क्षुर से कटे हुए हाथियों के शुण्डदण्डों से यह पृथ्वी सर्प युक्त सी जान पड़ती थी। कहीं-कहीं योद्धाओं के मुखकमलों से व्याप्त होने के कारण रणभूमि कमल पुष्पों की मालाओं से अलंकृत सी प्रतीत होती थी। विचित्र पगड़ी, मुकुट, केयूर, अंगद, कुण्डल, स्वर्ण जटित कवच, हाथी-घोड़ों के आभूषण तथा सैकड़ों किरीटों से यत्र-तत्र आच्छादित हुई वह युद्धभूमि नववधू के समान अत्यन्त अद्भुत शोभा से सुशोभित हो रही थी।
अर्जुन ने कायरों का भय बढ़ाने वाली वैतरणी के समान एक अत्यन्त भयंकर रौद्र और घोर रक्त की नदी बहा दी, जो प्राणशून्य योद्धाओं के सैकड़ों निश्चेष्ट शरीरों को बहाये लिये जाती थी। मजा और मेद ही उसकी कीचड़ थे। उसमें रक्त का ही प्रवाह था और रक्त की ही तरंगें उठती थीं। वीरों के मर्म स्थान एवं हड्डियों से व्याप्त हुई वह नदी अगाध जान पड़ती थी। केश ही उस नदी के सेवार और घास थे। योद्धाओं के कटे हुए मस्तक और भुजाएं ही किनारे के छोटे-छोटे प्रस्तर खण्डों का काम देती थीं। टूटी हुई छाती की हड्डियों से वह दुर्गम हो रही थी। विचित्र ध्वज और पताकाएं उसके भीतर पड़ी हुई थीं। छत्र और धनुषरूपी तरंगमालाओं से वह अलंकृत थी। प्राणशून्य प्राणी ही उसके विशल शरीर के अवयव थे, हाथियों की लाशों से वह भरी हुई थी, रथरूपी सैकड़ों नौकाएं उस पर तैर रही थीं, घोड़ों के समूह उसके तट थे, रथ के पहिये, जूए, ईषादण्ड, धुरी और कूबर आदि के कारण वह नदी अत्यन्त दुर्गम जान पड़ती थी। प्रास, खग, शक्ति, फरसे और बाणरूपी सर्पों से युक्त होने के कारण उसके भीतर प्रवेश करना कठिन था। कौए और कंक आदि जन्तु उसके भीतर निवास करने वाले बड़े-बड़े नक ( घडि़याल ) थे। गीदड़रूपी मगरों के निवास से उसकी उग्रता और बढ़ गयी थी। गीध ही उसमें प्रचण्ड एवं बड़े-बड़े ग्राह थे। गीदड़ियोंके चीत्कार से वह नदी बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। नाचते हुए प्रेत पिशाचादि सहस्रों भूतों से वह व्याप्त थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-59 का हिन्दी अनुवाद)
समरांगण में मूर्तिमान यमराज के समान अर्जुन के उस अभूतपूर्व पराक्रम को देखकर कौरवों पर भय छा गया। तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन अपने अस्त्रों द्वारा विपक्षी वीरों के अस्त्र लेकर रौद्रकर्म में तत्पर हो अपने को रौद्र सूचित करने लगे। राजन! तत्पश्चात् अर्जुन बड़े-बड़े रथियों को लांघ कर आगे बढ़ गये। उस समय आकाश में तपते हुए दोपहर के सूर्य के समान पाण्डुपुत्र अर्जुन की ओर सम्पूर्ण प्राणी देख नहीं पाते थे। उन महात्मा के गाण्डीव धनुष से छूटकर संग्राम में फैले हुए बाण समूहों को हम आकाश में हंसों की पंक्ति के समान देखते थे। वीरों के अस्त्र शस्त्रों को अस्त्रों द्वारा सब ओर से रोककर अपने रौद्रभाव का दर्शन कराते हुए वे उग्र कर्म में संलग्न हो गये। राजन! उस समय जयद्रथ वध की इच्छा से अर्जुन नाराचों द्वारा उन महारथियों को मोहित करते हुए से लांघ गये। श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे धनंजय सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों की वृष्टि करते हुए रथ सहित तुरंत वहाँ विचरने लगे। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। शूरवीर महात्मा अर्जुन के चलाये हुए सैकड़ों और हजारों बाणसमूह आकाश में घूमते हुए से दिखायी देते थे। उस समय हम कुन्तीकुमार महाधनुर्धर अर्जुन को बाण लेते, चढ़ाते और छोड़ते समय देख नहीं पाते थे।
राजन्! इस प्रकार अर्जुन ने रणक्षेत्र में सम्पूर्ण दिशाओं और समस्त रथियों को कदम्ब के फूल के समान रोमान्चित करके जयद्रथ पर धावा किया। साथ ही उसे झुकी हुई गांठ वाले चौंसठ बाणों से क्षत विक्षत कर दिया। पाण्डुपुत्र अर्जुन को सिंधुराज के सम्मुख जाते देख हमारे पक्ष के वीर योद्धा उसके जीवन से निराश होकर युद्ध से निवृत्त हो गये। प्रभो! उस घोर संग्राम में आपके पक्ष का जो-जो योद्धा पाण्डुपुत्र अर्जुन की ओर बढ़ा, उस-उस के शरीर पर प्राणान्तकारी बाण पड़ने लगे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ महारथी अर्जुन ने अग्नि की ज्वाला के समान तेजस्वी बाणों द्वारा आपकी सेना को कबन्धो से भर दिया।
राजेन्द्र! उस समय इस प्रकार आपकी उस चतुरगिणी सेना को व्याकुल करके कुन्तीकुमार अर्जुन जयद्रथ की ओर बढ़े। उन्होंने अश्वत्थामा को पचास और वृषसेन को तीन बाणों से बींध डाला। कृपाचार्य को कृपापूर्वक केवल नौ बाण मारे। शल्य को सोलह, कर्ण को बत्तीस और सिंधुराज को चैंसठ बाणों से घायल करके अर्जुन ने सिंह के समान गर्जना की। गाण्डीवधारी अर्जुन के चलाये हुए बाणों से उस प्रकार घायल होने पर सिंधुराज सहन न कर सका। वह अंकुश की मार खाये हुए हाथी के समान अत्यन्त कुपित हो उठा। उसकी ध्वजा पर वाराह का चिह्न था। उसने गीध की पांखों से युक्त, सीधे जाने वाले, सोनार के मांजे हुए तथा कुपित विषधर के समान बहुत से बाण धनुष को कान तक खींचकर शीघ्रतापूर्वक अर्जुन के रथ की ओर चलाये। तीन बाणों से श्रीकृष्ण को, छः नाराचों से अर्जुन को तथा आठ बाणों से घोड़ों को घायल करके जयद्रथ ने एक बाण से अर्जुन की ध्वजा को भी बींध डाला। परंतु अर्जुन ने तुरंत ही जयद्रथ के चलाये हुए बाणों को काट गिराया और एक ही साथ दो बाणों से सिंधुराज के सारथीका सिर तथा अलंकारों से सुशोभित उसका ध्वज भी काट डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 60-81 का हिन्दी अनुवाद)
धनंजय के बाणों से आहत हो अग्निशिखा के समान तेजस्वी वह सिंधुराज का महान वाराह ध्वज दण्ड कट जाने से पृथ्वी पर गिर पड़ा। राजन! इसी समय जबकि सूर्यदेव तीव्रगति से अस्ताचल की ओर जा रहे थे, अतावले हुए भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डुपुत्र अर्जुन से कहा,
भगवान श्री कृष्ण ने कहा ;- महाबाहु पार्थ! यह सिंधुराज जयद्रथ प्राण बचाने की इच्छा से भयभीत होकर खड़ा है और उसे छः वीर महारथियों ने अपने बीच में कर रखा है। नरश्रेष्ठ अर्जुन! रणभूमि में इन छः महारथियों को परास्त किये बिना सिंधुराज को बिना माया के जीता नहीं जा सकता है। अतः मैं यहाँ सूर्यदेव को ढकने के लिये कोई युक्ति करूंगा, जिससे अकेला सिंधुराज ही सूर्य को स्पष्ट रूप से अस्त हुआ देखेगा।
प्रभो! वह दुराचारी हर्षपूर्वक अपने जीवन की अभिलाषा रखते हुए तुम्हारे विनाश के लिये उतावला होकर किसी प्रकार भी अपने आपको गुप्त नहीं रख सकेगा। कुरुश्रेष्ठ! वैसा अवसर आने पर तुम्हें अवश्य उसके ऊपर प्रहार करना चाहिये। इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिये कि सूर्यदेव अस्त हो गये। यह सुनकर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा-‘प्रभो! ऐसा ही हो।’ तब योगी, योगयुक्त और योगीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सूर्य को छिपाने के लिये अन्धकार की सृष्टि की। नरेश्वर! श्रीकृष्ण द्वारा अन्धकार की सृष्टि होने पर सूर्यदेव अस्त हो गये, ऐसा मानते हुए आपके योद्धा अर्जुन का विनाश निकट देख हर्षमग्न हो गये। राजन! उस रणक्षेत्र में हर्षमग्न हुए आपके सैनिकों ने सूर्य की ओर देखा तक नहीं। केवल राजा जयद्रथ उस समय बारंबार मुंह ऊंचा करके सूर्य की ओर देख रहा था। जब इस प्रकार सिंधुराज दिवाकर की ओर देखने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण पुनः अर्जुन से इस प्रकार बोले-। भरतश्रेष्ठ! देखो, यह वीर सिंधुराज अब तुम्हारा भय छोड़कर सूर्यदेव की ओर दृष्टिपात कर रहा है।
महाबाहो! इस दुरात्मा के वध का यही अवसर है। तुम शीघ्र इसका मस्तक काट डालो और अपनी प्रतिज्ञा सफल करो। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर प्रतापी पाण्डुपुत्र अर्जुन ने सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा आपकी सेना का वध आरम्भ किया। उन्होंने कृपाचार्य को बीस, कर्ण को पचास तथा शल्य और दुर्योधन को छः छः बाण मारे। साथ ही वृषसेन को आठ और सिंधुराज जयद्रथ को साठ बाणों से घायल कर दिया। राजन! इसी प्रकार महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुन ने आपके अन्य सैनिकों को भी बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचाकर जयद्रथ पर धावा किया। अपनी लपटों से सबको चाट जाने वाली आग के समान अर्जुन को निकट खड़ा देख जयद्रथ के रक्षक भारी संशय में पड़ गये। महाराज! उस समय विजय की अभिलाषा रखने वाले आपके समस्त योद्धा युद्धस्थल में इन्द्रकुमार अर्जुन का बाणों की धाराओं से अभिषेक करने लगे। इस प्रकार बारम्बार बाण समूहों से आच्छादित किये जाने पर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले अपराजित वीर कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर उन पुरुषसिंह इन्द्रकुमार ने आपकी सेना के संहार की इच्छा से बाणों का भयंकर जाल बिछाना आरम्भ किया। राजन उस समय रणभूमि में वीर अर्जुन की मार खाने वाले योद्धा भयभीत हो सिंधुराज को छोड़ भाग चले। ये इतने डर गये थे कि दो सैनिक भी एक साथ नहीं भागते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 82-100 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ हम लोगों ने कुन्तीकुमार का अद्भुत पराक्रम देखा। उन महायशस्वी वीरने उस समय जो पुरुषार्थ प्रकट किया था, वैसा न तो पहले कभी प्रकट हुआ था और न आगे कभी होगा ही। जैसे संहारकारी रुद्र समस्त प्राणियों का विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार उन्होंने हाथियों और हाथी सवारों को, घोडों और घुडसवारों को तथा रथों एवं रथियों को भी नष्ट कर दिया। नरेश्रर! उस समरभूमि में मैंने कोई भी ऐसा हाथी, घोडा या मनुष्य नहीं देखा, जो अर्जुन के बाणों से क्षत विक्षत न हो गया हो। उस समय धूल और अन्धकार से सारे योद्धाओं के नेत्र आच्छादित हो गये थे। वे भयंकर मोह में पड़ गये। उनके लिये एक दूसरे को पहचानना भी असम्भव हो गया।
भारत! अर्जुन के चलाये हुए बाणों से जिनके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये थे, वे सैनिक चक्कर काटते, लड़खडाते, गिरते, व्यथित होते और प्राणशून्य होकर मलिन हो जाते थे। समस्त प्राणियों के प्रलयकाल के समान जब वह महाभीषण अत्यन्त दारुण महान एवं दुर्लभय संग्राम चल रहा था, उस समय रक्त की वर्षा से और वायु के वेगपूर्वक चलने से रूधिर से भीगे हुए धरातल की धूल शान्त हो गयी। रथ के पहिये नाभि तक खून में डूबे हुए थे। राजन्! जिनके सवार मार डाले गये थे और समस्त अंग बाणों से विदीर्ण हो रहे थे, वे आपके योद्धाओं के वेगवान और पदमत सहस्रों हाथी समरभूमि में अपनी ही सेनाओं को रौंदते और आर्तनाद करते हुए जोर-जोर से भागने लगे। नरेश्रवर! राजन! घुड़सवार गिर गये थे और घोडे एवं पैदल सैनिक धनंजय बाणों से अत्यन्त घायल हो भय के मारे भागे जा रहे थे। लोगों के बाल खुले हुए थे, कवच कटकर गिर गये थे और वे अत्यन्त भयभीत हो युद्ध का मुहाना छोड़कर अपने घावों से रक्त की धारा बहाते हुए जान बचाने के लिये भाग रहे थे। कुछ लोग बिना हिले-डुले इस प्रकार भूमि पर खडे़ थे, मानो उनकी जांघें अकड़ गयी हों। दूसरे बहुत से सैनिक वहाँ मारे गये हाथियों के बीच में जा छिपे थे।
राजन्! इस प्रकार अर्जुनने आपकी सेना को भगाकर भयंकर बाणों द्वारा सिंधुराज के रक्षकों को मारना आरम्भ किया। संजय कहते हैं- महाराज! पाण्डुकुमार अर्जुन ने अपने तीखे बाणसमूह से अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शल्य, वृषसेन तथा दुर्योधन को आच्छादित कर दिया। राजन! उस समय युद्धस्थल में अर्जुन इतनी फुर्ती से बाण चलाते थे कि कोई किसी प्रकार भी यह न देख सका कि वे कब बाण लेते हैं, कब उसे धनुष पर रखते हैं, कब प्रत्यंचा खींचते हैं और कब वह बाण छोडते हैं। निरन्तर बाण छोड़ते हुए अर्जुन का केवल मण्डलाकार धनुष ही लोगों की दृष्टि में आता था एवं चारों और फैलते हुए उनके बाण भी दृष्टिगोचर होते थे। अर्जुन ने कर्ण और वृषसेन के धनुष काटकर एक भल्ल के द्वारा शल्य के सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने रणभूमि में मामा-भानजे कृपाचार्य और अश्वत्थामा दोनों को बाणों द्वारा बींधकर गहरी चोट पहॅुंचायी। इस प्रकार आपके उन महारथियों को व्याकुल करके पाण्डुकुमार अर्जुन ने एक अग्नि के समान तेजस्वी एवं भयंकर बाण निकाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 101-122 का हिन्दी अनुवाद)
वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित होकर इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकार का भार सहन करने में समर्थ और महान था। उसकी गन्ध और मालाओं द्वारा सदा पूजा की जाती थी। कुरुनन्दन महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्रास्त्र से संयोजित करके शीघ्र ही गाण्डीव धनुष पर रखा। नरेश्वर! जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियों में महान कोलाहल होने लगा।
उस समय वहाँ भगवान श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे- धनंजय! तुम दुरात्मा सिंधुराज का मस्तक शीघ्र काट लो। क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्तांचल पर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथ-वध के विषय में तुम मेरी यह बात ध्यान से सुन लो। सिंधुराज के पिता वृद्धक्षत्र इस जगत में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकाल के पश्चात इस सिंधुराज जयद्रथ को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया। इसके जन्मकाल में मेघ के समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्य आकाशवाणी ने शत्रुसूदन जयद्रथ के विषय में राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा- शक्तिशाली नरेन्द्र! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्गुणों के द्वारा वशों के अनुरूप होगा। इस जगत के क्षत्रियों में यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समय में संग्रामभूमि में युद्ध करते समय कोई क्षत्रिय शिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खड़ा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा।। यह सुनकर शत्रुओं का दमन करने वाले सिंधुराज वृद्धक्षत्र देर तक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेह से प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयों से इस प्रकार बोले- संग्राम में युद्ध तत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्र के मस्तक को जो पृथ्वी पर गिरा देगा, उसके सिर के भी सैकड़ों टुकडे़ हो जायेगें, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर समय आने पर वृद्धक्षत्र ने जयद्रथ को राज्य-सिंहासन पर स्थापित कर दिया और स्वयं वन में जाकर वे उग्र तपस्या में संलग्न हो गये।
कपिध्वज अर्जुन! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं। अतः शत्रुसूदन! तुम अद्भुत कर्म करने वाले किसी भयंकर दिव्यास्त्र के द्वारा इस महासमर में सिंधुराज जयद्रथ का कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। भारत! तुम भीमसेन के छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)। यदि तुम इसके मस्तक को पृथ्वी पर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो जायेंगे। इसमें संशय नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्या में संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्र का आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बात का पता न चले।
इन्द्रकुमार! सम्पूर्ण त्रिलोकी में कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो अथवा जिसे तुम कर न सको। श्रीकृष्ण यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिये धनुष पर रखे हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारों को सहने में समर्थ था और जिसकी प्रतिदिन चन्दन और पुष्पमाला द्वारा पूजा की जाती थी। गाण्डीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 123-144 का हिन्दी अनुवाद)
सिंधराज जयद्रथ के उस मस्तक को उन्होंने बाणों द्वारा ऊपर ही ऊपर ढोना आरम्भ किया। इससे अर्जुन के शत्रुओं-को बड़ा दुःख और मित्रों को महान हर्ष हुआ। उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन ने एक के बाद एक करके अनेक बाण मारकर उस मस्तक को कदम्ब के फूल-सा बना दिया। साथ ही वे पूर्वोक्त छः महारथियों से युद्ध भी करते रहे। भारत! उस समय हमने समन्तपंचक से बाहर जहाँ वह बाण उस मस्तक को ले गया था, वहाँ बड़े भारी आश्चर्य की घटना देखी। आर्य! इसी समय आपके तेजस्वी सम्बन्धी राजा वृद्धक्षत्र संध्योपासना कर रहे थे। संध्योपासना में बैठे हुए वृद्धक्षत्र के अंक में उस बाण ने सिंधुराज जयद्रथ का वह काले केशों वाला कुण्डलमण्डित मस्तक डाल दिया। शत्रुदमन नरेश! जयद्रथ का वह सुन्दर कुण्डलों से सुशोभित सिर राजा वृद्धक्षत्र की गोद में उनके बिना देखे ही गिर गया।
भरतनन्दन! जप समाप्त करके जब वृद्धक्षत्र सहसा उठने लगे, तब उनकी गोद से वह मस्तक पृथ्वी पर जा गिरा। शत्रुदमन महाराज! पुत्र का मस्तक पृथ्वी पर गिरते ही राजा वृद्धक्षत्र के मस्तक के भी सौ टुकडे़ हो गये। तदनन्तर सारी सेनाएं भारी आश्चर्य में पड़ गयी और सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। राजन! भरतश्रेष्ठ! किरीटधारी अर्जुन के द्वारा सिंधुराज जयद्रथ के मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने रचे हुए अन्धकार को समेट लिया। नृपश्रेष्ठ! महीपाल! पीछे सेवकों सहित आपके पुत्रों को यह ज्ञात हुआ कि इस अन्धकार के रूप मे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा फैलायी हुई माया थी। राजन! इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुन ने आपकी आठ अक्षौहिणी सेनाओें के संहार की पूर्ति करके आपके दामाद सिंधुराज जयद्रथ को मार डाला। नरेश्रवर! जयद्रथ को मारा गया देख आपके पुत्र दुःख से आंसू बहाने लगे और अपनी विजय से निराश हो गये।
राजन! कुन्तीकुमार द्वारा जयद्रथ के मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण तथा शत्रुतापन महाबाहु अर्जुन ने अपना-अपना शंख बजाया। भारत! तत्पश्चात भीमसेन, वृष्णि वंश के सिंह युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा ने पृथक्-पृथक् शंख बजाये। उस महान शंखनाद को सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को यह निश्चय हो गया कि महात्मा अर्जुन ने सिंधुराज जयद्रथ को मार डाला। तदनन्तर युधिष्ठिर भी विजय के बाजे बजाकर अपने योद्धाओं का हर्ष बढ़ाने लगे। वे युद्ध की इच्छा से संग्रामभूमि में द्रोणाचार्य के सामने डटे रहे। राजन! तदनन्तर सूर्यास्त होते समय द्रोणाचार्य का सोमकों के साथ रोमांचकारी संग्राम छिड़ गया। नरेश्वर! सिंधुराज के मारे जाने पर समस्त सोमक महारथी द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने लगे। पाण्डव सिंधुराज को मारकर विजय पा चुके थे। अतः वे विजयोल्लास से उन्मत हो जहाँ-तहाँ से आकर द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करने लगे। महाबाहु अर्जुन ने भी सिंधुराज को मारकर आपके श्रेष्ठ रथी योद्धाओं के साथ युद्ध छेड़ दिया। जैसे देवराज इन्द्र देवशत्रुओं का संहार करते हैं तथा जैसे तिमिरारि सूर्य उदित होकर अन्धकार का विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार किरीटधारी वीर अर्जुन ने अपनी पहली प्रतिज्ञा पूरी करके सब ओर से आपकी सेना का संहार आरम्भ कर दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथपर्व में जयद्रथवध विषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ सैतालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्च्छित होना, अर्जुन का खेद तथा कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- भरतनन्दन! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाण की भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया। रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी बाण-वर्षा से पीड़ित हो रथियों में श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन अत्यन्त व्यथित हो उठे। वे युद्धस्थल में गुरु तथा गुरुपुत्र का वध करना नहीं चाहते थे। अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहाँ अपने आचार्य का सम्मान किया। उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्रत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये। अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुँची। वे बड़ी वेदना का अनुभव करने लगे। राजन! कृपाचार्य अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो मूर्च्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे। अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विहल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझकर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया।
महाराज! युद्धस्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहाँ से हट जाने पर अश्वत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर दूसरे किसी रथी का सामना करने के लिये चला गया। कृपाचार्य को बाणों से एवं मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन दयावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे। उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी। वे दीनभाव से इस प्रकार कहने लगे- जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था, उस समय महाज्ञानी विदुर जी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा; क्योंकि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियों को महान भय उत्पन्न होगा। सत्यवादी विदुर जी का यह कथन आज सत्य हो रहा है। दुर्योधन के ही कारण आज मैं अपने गुरु को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूँ।
क्षत्रिय के आचार, बल और पुरुषार्थ को धिक्कार है। मेरे जैसा कौन पुरुष ब्राहाण एवं आचार्य से द्रोह करेगा! ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्य के परमसखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पड़े हैं। मैंने इच्छा न रहते हुए भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुँचायी है। वे रथ की बैठक में पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यन्त पीड़ित सा कर रहे हैं। मैंने पुत्रशोक से संतप्त, बाणों द्वारा पीड़ित तथा भारी दुरवस्था को प्राप्त होकर बहुसंख्यक बाणों द्वारा उन्हें अनेक बार चोट पहुँचायी है। निश्चय ही ये कृपाचार्य आहत होकर मुझे पुत्रवध की अपेक्षा भी अधिक शोक में डाल रहे हैं। श्रीकृष्ण! देखिये, वे अपने रथ पर कैसे सन्न और दीन होकर पड़े है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)
आचार्यों से विद्या ग्रहण करके जो श्रेष्ठ पुरुष उन्हें उनकी अभीष्ट वस्तुएं देते हैं, वे देवत्व को प्राप्त होते हैं। गुरु विद्या ग्रहण करके जो नराधम ही चोट करते हैं, वे दुराचारी मानव निश्चय ही नरकगामी होते हैं। मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है। निश्चय ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है। पूर्वकाल में मुझे अस्त्रविद्या की शिक्षा देकर कृपाचार्य ने जो मुझसे यह कहा था कि कुरुनन्दन! तुम्हें गुरु के ऊपर किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये। उन श्रेष्ठ महात्मा आचार्य का यह वचन युद्धस्थल में उन्हीं पर बाणों की वर्षा की वर्षा करके मैंने नहीं माना है। वार्ष्णेय! युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है मैं जो उन पर प्रहार करता हूं, इसके लिये मुझे धिक्कार है।
सव्यसाची अर्जुन कृपाचार्य के लिये विलाप कर ही रहे थे कि सिंधुराज को मारा गया देख राधानन्दन कर्ण ने उन पर धावा कर दिया। राधापुत्र कर्ण को अर्जुन के रथ की ओर आते देख दोनों भाई पांचाल राजकुमार (युधामन्यु और उत्तमौजा) तथा सात्वतवंशी सात्यकि सहसा उसकी ओर दौडे़। राधापुत्र को अपने समीप आते देख महारथी कुन्तीकुमार अर्जुन ने देवकीनन्दन श्रीकृष्ण से हंसते हुए कहा- 'यह अधिरथपुत्र कर्ण सात्यकि के रथ की ओर जा रहा है। अवश्य ही युद्धस्थल में भूरिश्रवा का मारा जाना इसके लिये असह हो उठा है। जनार्दन! यह जहाँ जाता है, वही आप भी अपने घोड़ों को हांकिये। कहीं ऐसा न हो कि कर्ण सात्यकि को भूरिश्रवा के पथ पर पहुँचा दे।' सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर महातेजस्वी महाबाहु केशव ने उनसे यह समयोचित वचन कहा- 'पाण्डुनन्दन! यह महाबाहु सात्वतशिरोमणी सात्यकि अकेला भी कर्ण के लिये पर्याप्त है। फिर इस समय जब द्रुपद के दोनों पुत्र इसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है। कुन्तीकुमार! इस समय कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं हैं; क्योंकि उसके पास बड़ी भारी उल्का-के समान प्रज्वलित होने वाली इन्द्र की दी हुई शक्ति है। शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन! तुम्हारे लिये कर्ण उसकी प्रतिदिन पूजा करते हुए उसे सदा सुरक्षित रखता है; अतः कर्ण सात्यकि के पास जैसे-तैसे जाये और युद्ध करे। कुन्तीकुमार! मैं उस दुरात्मा का अन्तकाल जानता हूं, जबकि तुम अपने तीखे बाणों द्वारा उसे पृथ्वी पर मार गिराओगे।'
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! भूरिश्रवा के मारे जाने और सिंधुराज के धराशायी किये जाने पर कर्ण के साथ वीरवर सात्यकि का जो संग्राम हुआ, वह कैसा था? संजय! सात्यकि भी तो रथहीन हो चुके थे। वे किस रथ पर आरूढ हुए तथा चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा इन दोनों पांचाल वीरों ने किसके साथ युद्ध किया? यह सब मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! मैं बड़े खेद के साथ उस महासमर में घटित हुई घटनाओं का आपके समक्ष वर्णन करूंगा। आप स्थिर होकर अपने दुराचार का परिणाम सुनें। प्रभो! भगवान श्रीकृष्ण के मन में पहले ही यह बात आ गयी थी कि आज वीर सात्यकि को सोमदतपुत्र भूरिश्रवा परास्त कर देगा। राजन! ये जनार्दन भूत और भविष्य दोनों कालों को जानते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने सारथि दारुक को बुलाकर पहले ही दिन यह आज्ञा दे दी थी कि कल सवेरे से ही मेरा रथ जोतकर तैयार रखना। महाराज! श्रीकृष्ण का बल महान है। श्रीकृष्ण और अर्जुन को परास्त करने वाले न तो कोई देवता हैं, न गन्धर्व हैं, न यक्ष, नाग तथा राक्षस हैं और न मनुष्य ही हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद)
उन्हें ब्रह्म आदि देवता और सिद्ध पुरुष ही यथार्थ रूप से जान पाते हैं। उन दोनों के प्रभाव की कहीं तुलना नहीं है। अच्छा, अब युद्ध का वृतान्त सुनिये। सात्यकि को रथहीन और कर्ण को युद्ध के लिये उद्यत देख भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े जोर की ध्वनि करने वाले शंख को ऋषभस्वर से बजाया। दारुक ने उस शंख ध्वनि को सुनकर भगवान के संदेश को स्मरण करके तुरंत ही उनके लिये अपना रथ ला दिया, जिस पर गरुड़ चिह्न से युक्त ऊँची ध्वजा फहरा रही थी। भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति पाकर शिनिपौत्र सात्यकि दारुक द्वारा जोते हुए अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी उस रथ पर आरूढ़ हुए। उसमें इच्छानुसार चलने वाले महान वेगशाली और सुवर्णमय अलंकारों से विभूषित शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे। वह रथ विमान के समान जान पड़ता था। उस पर आरूढ़ होकर बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए सात्यकि ने राधा-पुत्र कर्ण पर धावा किया। उस समय चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा ने भी धनंजय का रथ छोड़कर कर्ण पर ही आक्रमण किया।
महाराज! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए कर्ण ने भी उस युद्धस्थल में अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले सात्यकि पर बाणों की वर्षा करते हुए धावा किया। राजन! मैंने इस पृथ्वी पर या स्वर्ग में देवताओं, गन्धर्वों, असुरों तथा राक्षसों का भी वैसा युद्ध नहीं सुना था। महाराज! उन दोनों का वह संग्राम देखकर सबके चित मे मोह छा गया। राजन! सभी दर्शक के समान उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों के उस अतिमानव युद्ध को और दारुक के सारथ्य कर्म को देखने लगे। हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्यों से युक्त वह चतुरंगिणी सेना भी युद्ध से उपरत हो गयी थी। रथ पर बैठे हुए कश्यपगोत्रीय सारथि दारुक के रथ संचालन की गमन, प्रत्यागमन, आवर्तन, मण्डल तथा संनिवर्तन आदि विविध रीतियों से आकाश में खडे़ हुए देवता, गन्धर्व और दानव भी चकित हो उठे तथा कर्ण और सात्यकि के युद्ध को देखने के लिये अत्यन्त सावधान हो गये। वे दोनों बलवान वीर रणभूमि में एक दूसरे से स्पर्धा रखते हुए अपने-अपने मित्र के लिये पराक्रम दिखा रहे थे। महाराज! देवताओं के समान तेजस्वी कर्ण तथा सत्यकिपुत्र युयुधान दोनों एक दूसरे पर बाणों की बौछार करने लगे। कर्ण ने भूरिश्रवा और जलसंघ के वध को सहन न करने के कारण अपने बाणों की वर्षा से शिनिपौत्र सात्यकि को मथ डाला।
शत्रुदमन नरेश! कर्ण उन दोनों की मृत्यु से शोकमग्न हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी सांसें खींच रहा था। वह युद्ध में क्रुद्ध हो अपने नेत्रों से सात्यकि की ओर इस प्रकार देख रहा था; मानो वह उन्हें जलाकर भस्म कर देगा। उसने बारम्बार वेगपूर्वक सात्यकि पर धावा किया। कर्ण को कुपित देख सात्यकि बाणों की बड़ी भारी वर्षा करते हुए उसका सामना करने लगे, मानो एक हाथी दूसरे हाथी से लड़ रहा हो। वेगशाली व्याघ्रों के समान परस्पर भिडे़ हुए वे दोनों पुरुषसिंह युद्ध में अनुपम पराक्रम दिखाते हुए एक दूसरे को क्षत-विक्षत कर रहे थे। शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज! तदनन्तर शिनिपौत्र सत्यकि ने सम्पूर्णतः लोहमय बाणों द्वारा कर्ण को उसके सारे अंगो में बारंबार चोट पहुँचायी और एक भल्ल द्वारा उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 64-83 का हिन्दी अनुवाद)
नरश्रेष्ठ! इसके बाद सात्यकि ने तीखे बाणों द्वारा कर्ण के चारों श्वेत घोड़ों को मार डाला और उसके ध्वज को काटकर रथ के सैकड़ों टूकडे़ करके आपके पुत्र के देखते-देखते कर्ण को रथहीन कर दिया। राजन! इससे खिन्नचित होकर आपके महारथी वीर कर्ण-पुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य तथा द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने सात्यकि को सब ओर से घेर लिया। सात्यकि के द्वारा वीरवर सूतपुत्र कर्ण को रथहीन कर दिये जाने पर सारा सैन्यदल सब ओर से व्याकुल हो उठा। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। राजन! उस समय सारी सेनाओें में महान हाहाकार होने लगा। महाराज! सात्यकि के बाणों से रथहीन किया गया कर्ण भी लंबी सांस खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधन के रथ पर जा बैठा। बचपन से लेकर सदा ही किये हुए आपके पुत्र के सौहार्द का वह समादर करता था और दुर्योधन को राज्य दिलाने की जो उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी, उसके पालन में वह तत्पर था।
राजन! अपने मन को वश में करने वाले सात्यकि ने रथहीन हुए कर्ण को तथा दुःशासन आदि आपके वीर पुत्रों को भी उस समय इसलिये नहीं मारा कि वे भीमसेन और अर्जुन की पहले से की हुई प्रतिज्ञा की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने उन सबको रथहीन और अत्यन्त व्याकुल तो कर दिया, परंतु उनके प्राण नहीं लिये। जब दुबारा द्यूत हुआ था, उस समय भीमसेन ने आपके पुत्रों के वध की प्रतिज्ञा की थी और अर्जुन ने कर्ण को मार डालने की घोषणा की थी। कर्ण आदि श्रेष्ठ महारथियों ने सात्यकि के वध के लिये पूरा प्रयत्न किया; परंतु वे उन्हें मार न सके। अश्वत्थामा, कृतवर्मा अन्यान्य महारथी तथा सैकड़ों क्षत्रिय शिरोमणि सात्यकि द्वारा एकमात्र धनुष से परास्त कर दिये गये। सात्यकि धर्मराज का प्रिय करना और परलोक पर विजय पाना चाहते थे। शत्रुओं के संताप देने वाले सात्यकि श्रीकृष्ण और अर्जुन के समान पराक्रमी थे। उन्होंने आपकी सारी सेनाओं को हंसते हुए से जीत लिया था। नरव्याघ्र! संसार में श्रीकृष्ण, कुन्तीकुमार अर्जुन और शिनिपौत्र सात्यकि- ये तीन ही वास्तव में धनुर्धर हैं। इनके समान चौथा कोई नहीं है।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! सात्यकि युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के समान हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के ही अजेय रथ पर आरूढ़ होकर कर्ण को रथहीन कर दिया। उस समय उनके साथ दारुक जैसा सारथि था और उन्हें अपने बाहुबल का अभिमान तो था ही; परंतु शत्रुओं को संताप देने वाले सात्यकि क्या किसी दूसरे रथ पर भी आरूढ़ हुए थे। मैं यह सुनना चाहता हूँ। तुम कथा कहने में बड़े कुशल हो। मैं तो सात्यकि को किसी के लिये भी असहाय मानता हूं, अतः संजय! तुम मुझसे सारी बातें स्पष्ट रूप से बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! सारा वृतान्त यथार्थ रूप से सुनिये। दारुक का एक छोटा भाई था, जो बड़ा बुद्धिमान था। वह तुरंत ही रथ सजाने की विधि से सुसज्जित किया हुआ एक दूसरा रथ ले आया। लोहे और सेना के पट्टों से उसका कूबर अच्छी तरह कसा हुआ था। उसमें सहस्रों तारे जडे़ गये थे। उसकी ध्वजा-पताकाओं में सिंह का चिह्न बना हुआ था। उस रथ में सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित, वायु के समान वेगशाली, सम्पूर्ण शब्दों को लांघ जाने वाले, सुद्दढ़ तथा चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण घोडे़ जुते हुए थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 84-92का हिन्दी अनुवाद)
प्रजानाथ! उन घोड़ों को विचित्र स्वर्णमय कवचों से सुसज्जित किया गया था। वे सभी अब अच्छी श्रेणी के थे। उनसे जुते हुए उस रथ में क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से निकलती हुई मधुर ध्वनि व्याप्त हो रही थीं। वहाँ रखे हुए शक्ति और तोमर शस्त्र विद्युत के समान प्रकाशित होते थे। उसमें बहुत-से अस्त्र शस्त्र आदि युद्धोपयोगी आवश्यक सामान एवं द्रव्य यथास्थान रखे गये थे। उस रथ के चलने पर मेघों की गर्जना के समान गम्भीर शब्द होता था। दारुक का छोटा भाई उस रथ को सात्यकि के पास ले आया। सात्यकि ने उसी पर आरूढ़ होकर आपकी सेना पर आक्रमण किया। दारुक भी इच्छानुसार भगवान श्रीकृष्ण के निकट चला गया।
राजन! कर्ण के लिये भी एक सुन्दर रथ लाया गया, जिसमें शंख और गोदुग्ध के समान श्वेतवर्ण वाले, विचित्र सुवर्णमय कवच से सुसज्जित और अत्यन्त वेगशाली श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे। उसमें सुवर्णमयी रज्जु से आवेष्टित ध्वजा फहरा रही थी। वह रथ यन्त्र और पताकाओं से सुशोभित था। उसके भीतर बहुत से अस्त्र-शस्त्र आदि आवश्यक सामान रखे गये थे। उस श्रेष्ठ रथ का सारथि भी सुयोग्य था। दुर्योधन के सेवक वह रथ लेकर आये और कर्ण ने उसके ऊपर आरूढ़ होकर शत्रुओं पर धावा किया। राजन! आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे थे, वह सब मैंने आपको बता दिया। अब पुनः आपके ही अन्याय से होने वाले इस महान जनंसहार का वृतान्त सुनिये। भीमसेन ने अब तक सदा विचित्र युद्ध करने वाले दुमुर्ख आदि आपके इकतीस पुत्रों को मार गिराया है। भारत! इसी प्रकार सात्यकि और अर्जुन ने भी भीष्म और भगदत्त आदि सैकड़ों शूरवीरों का संहार कर डाला है। राजन! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप यह विनाशकार्य सम्पन्न हुआ है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में कर्ण और सात्यकि का युद्धविषयक एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन के वध की प्रतिज्ञा करना, श्रीकृष्ण का अर्जुन को बधाई देकर उन्हें रणभूमि का भयानक दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास ले जाना”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! अब पाण्डव पक्ष के और मेरे शूरवीर सैनिक पूर्वोक्त रूप से युद्ध के लिये उद्यत हो गये, तब भीमसेन ने क्या किया? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन! रथहीन भीमसेन कर्ण के वाग्बाणों से पीड़ित हो अमर्ष के वशीभूत हो गये थे। वे अर्जुन से इस प्रकार बोले,
भीमसेन बोले ;- धनंजय! कर्ण ने तुम्हारे सामने ही मुझसे बांरबार कहा है कि अरे! तू निमूछिया, मूर्ख, पेटू, अस्त्रविद्या को न जानने वाला, बालक और संग्राम भीरू है; अतः युद्ध न कर। भारत! जो ऐसा कह दे, वह मेरा वध्य होता है। उसने मुझे ऐसा कह दिया। महाबाहु कुन्तीकुमार! ऐसा कहने वाले के वध की यह प्रतिज्ञा मैंने तुम्हारे साथ ही की थी। यह कर्ण का वध जैसे मेरा कार्य हैं, वैसे ही तुम्हारा भी है, इसमें संशय नहीं है। नरश्रेष्ठ! कर्ण के वध के लिये तुम मेरे इस कथन पर भी ध्यान दो। धनंजय! जैसे भी मेरी वह प्रतिज्ञा सत्य हो सके, वैसा प्रयत्न करो।
भीमसेन का यह वचन सुनकर अमित पराक्रमी अर्जुन युद्धस्थल में कर्ण के कुछ निकट जाकर उससे इस प्रकार बोले,
अर्जुन ने कहा ;- कर्ण! कर्ण! तेरी दृष्टि मिथ्या है। सूतपुत्र! तू स्वयं ही अपनी प्रंशसा करता है। अधर्म बुद्धे! मैं इस समय तुझसे जो कुछ कहता हूं, उसे सुन- राधानन्दन! युद्ध में शूरवीरों के दो प्रकार के कर्म (परिणाम) देखे जाते हैं- जय और पराजय। यदि इन्द्र भी युद्ध करें तो उनके लिये भी वे दोनों परिणाम अनिश्चित हैं। (अर्थात यह निश्चित नहीं कि कब किस की विजय होगी और कब किसकी पराजय)। ओ निर्लज्ज कर्ण! तू बार-बार युद्ध छोड़कर भाग जाता है, तो भी तुझ भागते हुए के प्रति भीमसेन ने कोई कटुवचन नहीं कहा। भीमसेन के इस माहात्म्य और उनके उत्तम कुल में जन्म लेने के कारण प्राप्त हुए अच्छे शील-स्वभाव को प्रत्यक्ष देख लें।। सूतपुत्र! फिर तूने भी पुनः युद्ध करके केवल एक ही बार दैवेच्छा से पाण्डुपुत्र वीरवर भीमसेन को रथहीन किया है।
राधापुत्र! तूने भीम को कटुवचन सुनाकर अपने कुल के अनुरूप कार्य किया है। ’नरश्रेष्ठ! इस समय जो संकट तेरे सामने प्रस्तुत है, उसे तू नहीं जानता है। जैसे सियार जंगली व्याध्र आदि जन्तुओं की अवहेलना करे, उसी प्रकार तू भी क्षत्रिय समाज का अपमान कर रहा है। संग्राम भीमसेन का तो पैतृक कर्म है और तेरा काम तेरे कुल के अनुरूप रथ हांकना है। राधापुत्र! मैं इस युद्ध के मुहाने पर सम्पूर्ण शस्त्रधारी योद्धाओं के बीच में तुझसे कहे देता हूं, तू अपने सारे कार्य सब प्रकार से पूर्ण कर ले। संग्राम में इन्द्र को भी एकान्ततः सिद्धि नहीं प्राप्त होती। सात्यकि ने तुझे रथहीन करके मृत्यु के निकट पहुँचा दिया था। तेरी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थी, तो भी तू मेरा वध्य है यह जानकर उन्होंने तुझे जीतकर भी जीवित छोड़ दिया। परंतु तूने रणभूमि में युद्ध परायण महाबली भीमसेन को दैवेच्छा से किसी प्रकार रथहीन करके जो उनके प्रति कठोर बातें कही थीं, यह तेरा महान अधर्म है। नीच मनुष्य वैसा कार्य करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 12-31 का हिन्दी अनुवाद)
'नरश्रेष्ठ शूरवीर सज्जन शत्रु को जीतकर बढ़-बढ़कर बातें नहीं बनाते, किसी को कटुवचन नहीं कहते और न किसी की निन्दा ही करते हैं। सूतपुत्र! तेरी बुद्धि बहुत ओछी है। इसीलिये तू चपलावश बिना जांचे-बूझे बहुत-सी न सुनने योग्य असम्बद्ध बातें बक जाया करता है। तूने युद्ध में संलग्न, श्रेष्ठ व्रत के पालन में तत्पर, पराक्रमी और शूरवीर भीमसेन के प्रति जो अप्रिय वचन कहा है, तेरा यह कथन ठीक नहीं है। सारी सेनाओं के देखते-देखते मेरे और श्रीकृष्ण के सामने युद्धस्थल में भीमसेन ने तुझे अनेक बार रथहीन कर दिया है। परंतु उन पाण्डुनन्दन भीम ने तुझसे कोई कटुवचन नहीं कहा। तूने जो भीम को बहुत-सी रूखी बातें सुनायी हैं और परोक्ष में तुम लोगों ने जो मेरे पुत्र सुभद्राकुमार अभिमन्यु को अन्यायपूर्वक मार डाला है, अपने उस घमंड का तत्काल ही उचित फल तू प्राप्त कर ले।
दुर्भते! मूढ! तूने अपने विनाश के लिये अभिमन्यु का धनुष काट दिया था, अतः तू मेरे द्वारा भृत्य, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों सहित प्राण दण्ड पाने योग्य है। तू अपने सारे कर्त्तव्य पूर्ण कर ले। तुझे भारी भय आ पहुँचा है। मैं युद्धस्थल में तेरे देखते-देखते तेरे पुत्र वृषसेन को मार डालूंगा। दूसरे भी जो राजा अपनी बुद्धि पर मोह छा जाने के कारण मेरे समीप आ जायेंगे, उन सबका संहार कर डालूंगा। इस सत्य को सामने रखकर मैं अपना धनुष छूता (शपथ खाता) हूँ। ओ मूढ़! तुझ अपवित्र बुद्धि वाले अत्यन्त घमंडी सहायक को युद्धस्थल में धराशायी हुआ देखकर मूर्ख दुर्योधन को भी बड़ा पश्चाताप होगा।
इस प्रकार अर्जुन के द्वारा कर्णपुत्र वृषसेन के वध की प्रतिज्ञा होने पर उस समय वहाँ रथियों का महान एवं भयंकर कोलाहल छा गया। उस महाभयानक तुमूल संग्राम के छिड़ जाने पर मन्द किरणों वाले भगवान सूर्य देव अस्ताचल को चले गये। राजन! तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने प्रतिज्ञा से पार होकर युद्ध के मुहाने पर खडे़ हुए अर्जुन को हृदय से लगाकर इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- विजयशील अर्जुन! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने अपनी बड़ी भारी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। सौभाग्य से पापी वृद्धक्षत्र पुत्र सहित मारा गया। भारत! दुर्योधन की सेना में पहुँचकर समरभूमि में देवताओं की सेना भी शिथिल हो सकती है। जिष्णों! इस विषय में कोई दूसरा विचार नहीं करना चाहिये। पुरुषसिंह! मैं बहुत सोचने पर भी तीनों लोकों में कहीं तुम्हारे सिवा किसी दूसरे पुरुष को ऐसा नहीं देखता, जो इस सेना के साथ युद्ध कर सके। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन के लिये बहुत से महान प्रभावशाली राजा यहाँ एकत्र हो गये हैं, जिनमें से कितने ही तुम्हारे समान या तुमसे भी अधिक बलशाली हैं। वे भी रणक्षेत्र में कवच बांधकर कुपित हो तुम्हारा सामना करने के लिये आये, परंतु टिक न सके। तुम्हारा बल और पराक्रम रुद्र, इन्द्र तथा यमराज के समान है। युद्ध में कोई भी ऐसा पराक्रम नहीं कर सकता, जैसा कि आज तुमने अकेले ही कर दिखाया है। वास्तव में तुम शत्रुओं को संताप देने वाले हो। इसी प्रकार सगे-सम्बन्धियों सहित दुरात्मा कर्ण के मारे जाने पर शत्रुओं को जीतने और द्वेषी विपक्षियों को मार डालने वाले तुझ विजयी वीर को पुनः बधाई दूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 32-52 का हिन्दी अनुवाद)
तब अर्जुन ने उनकी बातों का उत्तर देते हुए कहा,
अर्जुन ने कहा ;- माधव! आपकी कृपा से ही मैं इस प्रतिज्ञा को पार कर सका हूं; अन्यथा इसका पार पाना देवताओं के लिये भी कठिन था। केशव! आप जिनके रक्षक हैं, उनकी विजय हो; इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपके कृपा-प्रसाद से राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लेंगे। वृष्णिनन्दन! प्रभो! यह आपका ही प्रभाव और आपकी ही विजय है। मधूसुदन! आपकी बधाई के पात्र तो हम लोग सदा ही बने रहेंगे। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने धीरे-धीरे घोडों को बढ़ाते हुए उस विशाल एवं क्रुरतापूर्ण संग्राम का दृश्य अर्जुन को दिखाना आरम्भ किया।
श्रीकृष्ण बोले ;- अर्जुन! युद्ध में विजय और सब ओर फैले हुए महान सुयश की अभिलाषा रखने वाले ये शूरवीर भूपाल तुम्हारे बाणों से मरकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। इनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण बिखरे पड़े हैं, घोडे, रथ और हाथी नष्ट हो गये हैं तथा मर्मस्थल छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण ये नरेश भारी व्याकुलता में पड़ गये हैं। कितने ही राजाओं के प्राण चले गये हैं और कितनों के प्राण अभी नहीं निकले हैं। जिनके प्राण निकल गये हैं, वे नरेश भी अत्यन्त कान्ति से प्रकाशित होने के कारण जीवित से दिखायी देते हैं।
देखो, यह सारी पृथ्वी उन राजाओं के सुवर्णमय पंख-वाले बाणों, तेज धार वाले नाना प्रकार के शस्त्रों, वाहनों और आयुधों से भरी हुई है। भारत! चारों ओर गिरे हुए कवच, डाल, हार, कुण्डलयुक्त मस्तक, पगड़ी, मुकुट, माला, चूड़ामणि, वस्त्र, कण्ठसूत्र, बाजूबंद, चमकीले निष्क एवं अन्यान्य विचित्र आभूषणों से इस रणभूमि की बड़ी शोभा हो रही है। बहुत से अनुकर्ष, उपासंग, पताका, ध्वज, सजावट की सामग्री, बैठक, ईषादण्ड, बन्धनरज्जु, टूटे-फूटे पहिये, विचित्र धुरे, नाना प्रकार के जुए, जोत, लगाम, धनुष-बाण, हाथी की रंगीन शूल, हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले गलीचे, परिघ, अकुंश, शक्ति, भिन्दिपाल, तरकस, शूल, फरसे, प्रास, तोमर, कुन्त, डंडे, शतघ्नी, भुसुण्डी, खड्ग, परशु, मुसल, मुद्गर, गदा, कुणप, सोने के चाबुक, गजराजों के घण्टे, नाना प्रकार के हौदे और जीन, माला, भाँति-भाँति के अलंकार तथा बहुमूल्य वस्त्र रणभूमि में सब ओर बिखरे पड़े हैं।
भरतश्रेष्ठ! इनके द्वारा यह भूमि नक्षत्रों द्वारा शरद ऋतु के आकाश की भाँति सुशोभित हो रही है। इस पृथ्वी के राज्य के लिये मारे गये ये पृथ्वीपति अपने सम्पूर्ण अंगो द्वारा प्यारी प्राण बल्लाभा के समान इस भूमिका आलिंगन करके इस पर सो रहे हैं। वीर! देखो, ये पर्वत शिखर के समान प्रतीत होने वाले ऐरावत- जैसे हाथी शस्त्रों द्वारा बने हुए घावों के छिद्र से उसी प्रकार अधिकाधिक रक्त की धारा बहा रहे हैं, जैसे पर्वत अपनी कन्दराओं के मुख से गेरू मिश्रित जल के झरने बहाया करते हैं। वे बाणों से मारे जाकर धरती पर लोट रहे हैं। सोने के जीन एवं साजबाज से विभूषित इन घोड़ों को तो देखो, ये भी प्राणशून्य होकर पड़े हैं। वे रथ जिनके स्वामी मारे गये है, गन्धर्व नगर के समान दिखायी देते हैं। इनकी ध्वजा, पताका और धुरे छिन्न-भिन्न हो गये हैं, पहिये नष्ट हो चुके हैं और सारथि भी मार डाले गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 53-59 का हिन्दी अनुवाद)
प्रभो! इन रथों के कूबर और जुए खण्डित हो गये हैं। ईषादण्ड टुकडे़-टुकडे़ कर दिये गये हैं और इनकी बन्धन-रज्जुओं की भी धज्जियां उड़ गयी हैं। पार्थ! भूमि पर पड़े हुए इन घोड़ों को तो देखो, ये विमान के समान दिखायी दे रहे हैं। वीर! अपने मारे हुए इन सैकड़ों और हजारों पैदल सैनिकों को देखो, जो धनुष और ढाल लिये खून से लथपथ हो धरती पर सो रहे हैं। महाबाहो! तुम्हारे बाणों से जिनके शरीर छिन्न-भिन्न हो रहे हैं, उन योद्धाओं की दशा तो देखो। उनके बाल धूल में सन गये हैं और वे अपने सम्पूर्ण अंगों से इस पृथ्वी का आलिंगन करके सो रहे हैं।
नरश्रेष्ठ! इस भूतल की दशा देख लो। इसकी ओर दृष्टि डालना कठिन हो रहा है। यह मारे गये हाथियों, चौपट हुए रथों और मरे हुए घोड़ों से पट गया है। रक्त, चर्बी और मांस से यहाँ कीच जम गयी है। यह रणभूमि निशाचरों, कुत्तों, भेड़ियों और पिशाचों के लिये आनन्द-दायिनी बन गयी है। प्रभो! समरांगन में यह यशोवर्धक महान कर्म करने की शक्ति तुम में तथा महायुद्ध में दैत्यों और दानवों का संहार करने वाले देवराज इन्द्र में ही सम्भव है।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार किरीटधारी अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ जुटे हुए स्वजनों सहित पांचजन्य शंख बजाया। शत्रुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए अनायास ही अजातशत्रु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के पास पहुँचकर उनसे यह निवेदन किया कि जयद्रथ मारा गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से विजय का समाचार सुनाना और युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति तथा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर अर्जुन द्वारा सिंधुराज जयद्रथ के मारे जाने पर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास पहुँच कर भगवान श्रीकृष्ण ने हर्षपूर्ण हृदय से उन्हें प्रणाम किया और कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- राजेन्द्र! सौभाग्य से आपका अभ्युदय हो रहा है। नरश्रेष्ठ! आपका शत्रु मारा गया। आपके छोटे भाई ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली, यह महान सौभाग्य की बात है। भारत! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले राजा युधिष्ठिर हर्ष में भरकर अपने रथ से कूद पड़े और आनन्द के आंसू बहाते हुए उन्होंने उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन को हृदय से लगा लिया। फिर उनके कमल के समान कान्तिमान सुन्दर मुख पर हाथ फेरते हुए वे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन से इस प्रकार बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- कमलनयन कृष्ण! जैसे तैरने की इच्छा वाला पुरुष समुद्र का पार नहीं पाता, उसी प्रकार आपके मुख से यह प्रिय समाचार सुनकर मेरे हर्ष की सीमा नहीं रह गयी है। बुद्धिमान अर्जुन ने यह अत्यन्त अद्भुत पराक्रम किया है। आज सौभाग्यवश संग्रामभूमि में मैं आप दोनों महारथियों को प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हुआ देखता हूँ। यह बड़े हर्ष की बात है कि पापी नराधम सिंधुराज जयद्रथ मारा गया।
श्रीकृष्ण! गोविन्द! सौभाग्यवश आपके द्वारा सुरक्षित हुए अर्जुन ने पापी जयद्रथ को मारकर मुझे महान हर्ष प्रदान किया है। परंतु जिनके आप आश्रय हैं, उन हम लोगों के लिये विजय और सौभाग्य की प्राप्ति अत्यन्त अद्भुत बात नहीं है। मधुसूदन! सम्पूर्ण जगत के गुरु आप जिनके रक्षक हैं, उनके लिये तीनों लोको में कहीं कुछ भी दुश्कर नहीं है। गोविन्द! हम आपकी कृपा से शत्रुओं पर निश्चय ही विजय पायेंगे। उपेन्द्र! आप सदा सब प्रकार से हमारे प्रिय और हित-साधन में लगे हुए हैं। हम लोगों ने आपका ही आश्रय लेकर शस्त्रों द्वारा युद्ध की तैयारी की है; ठीक उसी तरह, जैसे देवता इन्द्र का आश्रय लेकर युद्ध में असुरों के वध का उद्योग करते हैं। जनार्दन! आपकी ही बुद्धि, बल और पराक्रम से इस अर्जुन ने यह देवताओं के लिये भी असम्भव कर्म कर दिखाया है। श्रीकृष्ण! बाल्यावस्था से ही आपने जो बहुत से अलौकिक, दिव्य एवं महान कर्म किये हैं, उन्हें जब से मैंने सुना है, तभी से यह निश्चित रूप से जान लिया है कि मेरे शत्रु मारे गये और मैंने भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लिया।
शत्रुसूदन! आपकी कृपा से प्राप्त हुए पराक्रम द्वारा इन्द्र सहस्रों दैत्यों का संहार करके देवराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। वीर ऋषीकेश! आपके ही प्रसाद से यह स्थावर- जंगम रूप जगत अपनी मर्यादा में स्थित रहकर जप और होम आदि सत्कर्मों में संलग्न होता है। महाबाहो! नरश्रेष्ठ! पहले यह सारा जगत एकार्णव के जल में निमग्न हो अन्धकार में विलीन हो गया था। फिर आपकी ही कृपा दृष्टि से यह वर्तमान रूप में उपलब्ध हुआ है।। जो सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने वाले आप अविनाशी परमात्मा ऋषीकेश का दर्शन पा जाते हैं, वे कभी मोह के वशीभूत नहीं होते हैं। आप पुराण पुरुष, परमदेव, देवताओं के भी देवता, देवगुरु एवं सनातन परमात्मा हैं। जो लोग आपकी शरण में जाते हैं, वे कभी मोह में नहीं पड़ते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद)
ऋषीकेष! आप आदि-अन्त से रहित विश्व-विधाता और अविकारी देवता हैं। जो आपके भक्त हैं, वे बड़े-बड़े़ संकटों से पार हो जाते हैं। आप परम पुरातन पुरुष हैं परसे भी पर हैं। आप परमेश्वर की शरण लेने वाले पुरुष को परम ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। चारों वेद जिनके यश का गान करते हैं, जो सम्पूर्ण वेदों में गाये जाते हैं, उन महात्मा श्रीकृष्ण की शरण लेकर मैं सर्वोत्तम ऐश्वर्य (कल्याण) प्राप्त करूंगा। पुरुषोतम! आप परमेश्वर हैं। पशु, पक्षी तथा मनुष्यों के भी ईश्वर हैं। ‘परमेश्वर’ कहे जाने वाले इन्द्रादि लोकपालों के भी स्वामी हैं। सर्वेश्वर! जो सबके ईश्वर हैं, उनके भी आप ही ईश्वर हैं। आपको नमस्कार है। विशाल नेत्रों वाले माधव! आप ईश्वरों के भी ईश्वर और शासक हैं। प्रभो! आपका अभ्युदय हो। सर्वात्मन! आप ही सबके उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं। जो अर्जुन के मित्र, अर्जुन के हितैषी और अर्जुन के रक्षक हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेकर मनुष्य सुखी होता है।
निष्पाप श्रीकृष्ण! प्राचीनकाल के महर्षि मार्कण्डेय आपके चरित्र को जानते हैं। उन मुनिश्रेष्ठ ने पहले (वनवास के समय) आपके प्रभाव और माहात्मय का मुझसे वर्णन किया था। असित, देवल, महातपस्वी नारद तथा मेरे पितामह व्यास ने आपको ही सर्वोत्तम विधि बताया है। आप ही तेज, आप ही परबह्म, आप ही सत्य, आप ही महान तप, आप ही श्रेय, आप ही उत्तम यश और आप ही जगत के कारण हैं। आपने ही इस सम्पूर्ण स्थावर जंगम जगत की सृष्टि की है और प्रलयकाल आने पर यह पुनः आप में ही लीन हो जाता है। जगत्यते! वेदवेत्ता पुरुष आपको आदि-अन्त से रहित, दिव्य-स्वरूप, विश्वेश्वर, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, भूतात्मा, महात्मा, अनन्त तथा विश्वतोमुख आदि नामों से पुकारते हैं। आपका रहस्य गूढ़ है। आप सबके आदि कारण और इस जगत के स्वामी हैं। आप ही परमदेव, नारायण, परमात्मा और ईश्वर हैं। ज्ञान स्वरूप श्रीहरि तथा मुमुक्षुओं के परम आश्रय भगवान विष्णु भी आप ही हैं। आपके यथार्थ स्वरूप को देवता भी नहीं जानते हैं। आप ही परम पुराण-पुरुष तथा पुराणों से भी परे हैं। आपके ऐसे-ऐसे गुणों तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्य-काल में होने वाले कर्मों की गणना करने वाला इस भूलोक में या स्वर्ग में भी कोई नहीं है। जैसे इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार हम सब लोग आपके द्वारा सर्वंथा रक्षणीय हैं। हमें आप सर्वगुण सम्पन्न सुहृदय के रूप में प्राप्त हुए हैं।
धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर महायशस्वी भगवान जनार्दन ने उनके कथन के अनुरूप इस प्रकार उत्तर दिया- धर्मराज! आपकी उग्र तपस्या, परम धर्म, साधुता तथा सरलता से ही पापी जयद्रथ मारा गया है। पुरुषसिंह! आपने जो निरन्तर शुभ-चिन्तन किया है, उसी से सुरक्षित हो अर्जुन ने सहस्रों योद्धाओं का संहार करके जयद्रथ का वध किया है। अस्त्रों के ज्ञान, बाहुबल, स्थिरता, शीघ्रता और अमोघ-बुद्धिता आदि गुणों में कहीं कोई भी कुन्तीकुमार अर्जुन की समता करने वाला नहीं है। भरतश्रेष्ठ! इसीलिये आज आपके इस छोटे भाई अर्जुन ने संग्राम में शत्रुसेना का संहार करके सिंधुराज का सिर काट लिया है।
तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उन का मुंह पोछकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा। फाल्गुन! आज तुमने बड़ा भारी कर्म कर दिखाया। इसका सम्पादन करना अथवा इसके भार को सह लेना इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी असम्भव था। शत्रुसूदन! आज तुम अपने शत्रु को मारकर प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गये। यह सौभाग्य की बात है। हर्ष का विषय है कि तुमने जयद्रथ को मारकर अपनी यह प्रतिज्ञा सत्य कर दिखायी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)
महायशस्वी धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने विजयी अर्जुन से ऐसा कहकर उनकी पीठ पर पवित्र सुगन्ध से युक्त अपना हाथ फेरा। उनके ऐसा कहने पर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उस समय उन पृथ्वीपति नरेश से इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण और अर्जुन बोले ;- महाराज! पापी राजा जयद्रथ आपकी क्रोधाग्नि से दग्ध हो गया हैं तथा रणभूमि में दुर्योधन की विशाल सेना से पार पाना भी आपकी कृपा से ही सम्भव हुआ है। भारत! शत्रुसुदन! ये सारे कौरव आपके क्रोध से ही नष्ट होकर मारे गये हैं, मारे जाते हैं और भविष्य में भी मारे जायेंगे। क्रोधपूर्ण दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर देने वाले आप- जैसे वीर को कुपित करके दुर्बुद्धि दुर्योधन अपने मित्रों और बन्धुओं के साथ समरभूमि में प्राणों का परित्याग कर देगा। जिन पर विजय पाना पहले देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था; वे कुरुकुल के पितामह भीष्म आपके क्रोध से ही दग्ध होकर इस समय बाण शय्या पर सो रहे हैं। शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन! आप जिन पर कुपित हैं, उनके लिये युद्ध में विजय दुर्लभ है। वे निश्चय ही मृत्यु के वश में हो गये हैं। दूसरों को मान देने वाले नरेश! जिन पर आपका क्रोध हुआ है, उनके राज्य, प्राण, सम्पति, पुत्र तथा नाना प्रकार के शौक शीघ्र नष्ट हो जायेगे। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! सदा राजधर्म के पालन में तत्पर रहने वाले आपके कुपित होने पर मैं कौरवों को पुत्र, पशु तथा बन्धु-बन्धर्वों सहित नष्ट हुआ ही मानता हूं’।
तदनन्तर, बाणों से क्षत-विक्षत हुए महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि अपने ज्येष्ठ गुरु युधिष्ठिर को प्रणाम करके भूमि पर खडे़ हो गये। पांचालों से घिरे हुए उन दोनों महाधनुर्धर वीरों को प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोडे़ सामने खडे़ देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भीम और सात्यकि दोनों का अभिनन्दन किया।
वे बोले ;- बड़े सौभाग्य की बात है कि मैं तुम दोनों शूरवीरों को शत्रुसेना के समुद्र से पार हुआ देख रहा हूँ। वह सैन्य सागर द्रोणाचार्यरूपी ग्राह्य के कारण दुर्द्धर्ष हैं और कृतवर्मा जैसे मगरों का वासस्थान बना हुआ हैं। युद्ध में सारे भूपाल पराजित हो गये और संग्राम-भूमि में मैं तुम दोनों को विजयी देख रहा हूं- यह बड़े हर्ष का विषय है। हमारे सौभाग्य से ही आचार्य द्रोण और महाबली कृतवर्मा युद्ध में परास्त हो गये। भाग्य से ही कर्ण भी तुम्हारे बाणों द्वारा रणक्षेत्र में पराभव को पहुँच गया।
नरश्रेष्ठ वीरो! तुम दोनों ने राजा शल्य को भी युद्ध से विमुख कर दिया। रथियों में श्रेष्ठ तथा युद्ध में कुशल तुम दोनों वीरों को मैं पुनः रणभूमि से सकुशल लौटा हुआ देख रहा हूँ - यह मेरे लिये बड़े आनन्द की बात हैं। मेरे प्रति गौरव से बंधकर मेरी आज्ञा का पालने करने वाले तुम दोनों वीरों को मैं सैन्य-समुद्र से पार हुआ देख रहा हूं, यह सौभाग्य का विषय है। तुम दोनों वीर मेरे कथन के अनुरूप ही युद्ध की श्लाघा रखने वाले तथा समरांगण में पराजित न होने वाले हो। सौभाग्य से मैं तुम दोनों को यहाँ सकुशल देख रहा हूँ। राजन! पुरुषसिंह सात्यकि और भीमसेन से ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने उन दोनों को हृदय से लगा लिया और वे हर्ष के आंसू बहाने लगे। प्रजानाथ! तदनन्तर पाण्डवों की सारी सेना ने युद्धस्थल में प्रसन्न एवं उत्साहित होकर संग्राम में ही मन लगाया।
(इसी प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में युधिष्ठिर का हर्षविषयक एक सौ उनचासवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
एक सौ पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“व्याकुल हुए दुर्योधन का खेद प्रकट करते हुए द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना”
संजय कहते हैं ;- राजन! सिंधुराज जयद्रथ के मारे जाने पर आपका पुत्र दुर्योधन बहुत दुखी हो गया। उसके मुंह पर आंसुओं की धारा बहने लगी। शत्रुओं को जीतने का उसका सारा उत्साह जाता रहा। जिसके दांत तोड़ दिये गये हैं, उस दुष्ट सर्प के समान वह मन ही मन दुखी हो लंबी सांस खींचने लगा। सम्पूर्ण जगत का अपराध करने वाले आपके पुत्र को बड़ी पीड़ा हुई। युद्धस्थल में अर्जुन, भीमसेन और सात्यकि के द्वारा अपनी सेना का अत्यन्त घोर संहार हुआ देखकर वह दीन, दुर्बल और कान्तिहीन हो गया। उसके नेत्रों में आंसू भर आये। माननीय नरेश! उसे यह निश्चय हो गया कि इस भूतल पर अर्जुन के समान कोई दूसरा योद्धा नहीं है। समरांगण में कुपित हुए अर्जुन के सामने न द्रोण, न कर्ण, न अश्वत्थामा और न कृपाचार्य ही ठहर सकते हैं। वह सोचने लगा कि आज के युद्ध में अर्जुन ने हमारे सभी महारथियों को जीतकर सिंधुराज का वध कर डाला, किंतु कोई भी उन्हें समरांगण में रोक न सका। कौरवों की यह विशाल सेना अब सर्वथा नष्ट प्राय ही है। साक्षात देवराज इन्द्र भी इसकी रक्षा नहीं कर सकते। जिसका भरोसा करके मैंने युद्ध के लिये शस्त्र-संग्रह की चेष्टा की, वह कर्ण भी युद्धस्थल में परास्त हो गया और जयद्रथ भी मारा ही गया। जिसके पराक्रम का आश्रय लेकर मैंने संधि की याचना करने वाले श्रीकृष्ण को तिनके के समान समझा था, वह कर्ण युद्ध में पराजित हो गया।
राजन! भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत का अपराध करने वाला आपका पुत्र जब इस प्रकार सोचते-सोचते मन ही मन बहुत खिन्न हो गया, तब आचार्य द्रोण का दर्शन करने के लिये उनके पास गया। तदनन्तर वहाँ उसने कौरवों के महान संहार का वह सारा समाचार कहा और यह भी बताया कि शत्रु विजयी हो रहे हैं और महाराज धृतराष्ट्र के सभी पुत्र विपत्ति के समुद्र में डूब रहे हैं। दुर्योधन बोला- आचार्य! जिनके मस्तक पर विधिपूर्वक राज्याभिषेक किया गया था, उन राजाओं का यह महान संहार देखिये। मेरे शूरवीर पितामह भीष्म से लेकर अब तक कितने ही नरेश मारे गये। व्याधों- जैसा बर्ताव करने वाला वह शिखण्डी भीष्म को मारकर मन ही मन उत्साह से भरा हुआ है और समस्त पांचाल सैनिकों के साथ सेना के मुहाने पर खड़ा है।
सव्यसाची अर्जुन ने मेरी सात अक्षौहिणी सेनाओं का संहार करके आपके दूसरे दुर्धर्ष शिष्य राजा जयद्रथ को भी मार डाला है। मुझे विजय दिलाने की इच्छा रखने वाले मेरे जो-जो उपकारी सुहृद युद्ध में प्राण देकर यमलोक में जा पहुँचे हैं, उनका ऋण मैं कैसे चुका सकूंगा। जो भूमिपाल मेरे लिये इस भूमि को जीतना चाहते थे, वे स्वंय भूण्डल का ऐश्वर्य त्याग कर भूमि पर सो रहे हैं। मैं कायर हूं, अपने मित्रों का ऐसा संहार कराकर हजारों अश्वमेध यज्ञों से भी अपने को पवित्र नहीं कर सकता। हाय! मुझ लोभी तथा धर्म नाशक पापी के लिये युद्ध के द्वारा विजय चाहने वाले मेरे मित्रगण यमलोक चले गये। मुझ आचारभ्रष्ट और मित्रद्रोही के लिये राजाओं के समाज में यह पृथ्वी फट क्यों नही जाती, जिससे मैं उसी में समा जाऊ।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
मेरे पितामह भीष्म राजाओं के बीच युद्धस्थल में मारे गये और अब खून से लथपथ होकर बाण शय्या पर पड़े है; परंतु मैं उनकी रक्षा न कर सका। ये परलोक विजयी दुर्घर्ष वीर भीष्म यदि मैं उनके पास जाऊं तो मुझ नीच, मित्रद्रोही तथा पापात्मा पुरुष से क्या कहेंगे? आचार्य! देखिये तो सही, मेरे लिये प्राणों का मोह छोड़कर राज्य दिलाने को उद्यत हुए महाधनुर्धर शूरवीर महारथी जलसंघ को सात्यकि ने मार डाला। काम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य बहुत से सुहृदों को मारा गया देखकर भी अब मेरे जीवित रहने का क्या प्रयोजन है? शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य! जो युद्ध से विमुख न होने वाले शूरवीर सुहृद मेरे लिये जूझते और मेरे शत्रुओं को जीतने के लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करते हुए मारे गये हैं, उनका अपनी शक्ति भर ऋण उतारकर आज मैं यमुना के जल से उस सभी का तर्पण करूंगा।
समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गुरुदेव! आज मैं अपने यज्ञ-यागदि तथा कुँआ, बावली बनवाने आदि शुभ कर्मों की, पराक्रम की तथा पुत्रों की शपथ खाकर आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं पाण्डवों के सहित समस्त पांचालों को युद्ध में मारकर ही शान्ति पाऊंगा अथवा मेरे वे सुहृद युद्ध में मरकर जिन लोकों में गये हैं, उसी में मैं भी चला जाउंगा। वे पुरुष शिरोमणि सुहृद रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते-करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं मैं भी जाउंगा।
महाबाहो! इस समय जो मेरे सहायक हैं, वे अरक्षित होने के कारण हमारी सहायता करना नहीं चाहते हैं। वे जैसा पाण्डवों का कल्याण चाहते हैं, वैसा हम लोगों का नहीं। युद्धस्थल में सत्यप्रतिज्ञ भीष्म ने स्वयं ही अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली और आप भी हमारी इसलिये उपेक्षा करते हैं कि अर्जुन आपके प्रिय शिष्य हैं। इसलिये हमारी विजय चाहने वाले सभी योद्धा मारे गये। इस समय तो मैं केवल कर्ण को ही ऐसा देखता हूं, जो सच्चे हृदय से मेरी विजय चाहता है। जो मूर्ख मनुष्य मित्र को ठीक-ठीक पहचाने बिना ही उसे मित्र के कार्य में नियुक्त कर देता है, उसका वह काम बिगड़ जाता है। मेरे परम सुहृद कहलाने वालों ने मोहवश धन (राज्य) चाहने वाले मुझ लोभी, पापी और कुटिल के इस कार्य को उसी प्रकार चौपट कर दिया है। जयद्रथ और सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा मारे गये। अभीषाह, शूरसेन, शिवि तथा वसाति गण भी चल बसे। वे नरश्रेष्ठ सुहृद रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं आज मैं भी जाउंगा। उन पुरुष रत्न मित्रों के बिना अब मेरे जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। आप हम पाण्डु पुत्रों के आचार्य हैं, अतः मुझे जाने की आज्ञा दें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में दुर्याधन का अनुतापविषयक एक सौ पचासवां अध्याय पूरा हुआ)
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