सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छियानबेवें अध्याय से सौवें अध्याय तक (From the 96 chapter to the 100 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

छियानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षण्‍णवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दोनों पक्षों के प्रधान वीरों का द्वन्‍द्व–युद्व”

    संजय कहते हैं ;- राजन! कौरवों और पाण्‍डवों में जिस प्रकार युद्ध हुआ था, उस आश्चर्यमय संग्राम का मैं वर्णन करता हूं, ध्‍यान देकर सुनिये। व्‍यूह के द्वार पर खड़े हुए द्रोणाचार्य के पास आकर पाण्‍डवगण उनकी सेना के व्‍यूह का भेदन करने की इच्‍छा से रणक्षेत्र में उनके साथ युद्ध करने लगे। द्रोणाचार्य भी महान यश की अभिलाषा रखकर अपने व्‍यूह की रक्षा करते हुए बहुत-से सैनिकों को साथ लेकर समरागड़ण में कुन्‍ती पुत्रों के साथ युद्ध में संलग्‍न हो गये। आपके पुत्र का हित चाहने वाले अवन्‍ती के राजकुमार विन्‍द और अनुविन्‍द ने अत्‍यन्‍त कुपित हो राजा विराट को दस बाण मारे। महाराज! राजा विराट ने समरभूमि में अनुचरों सहित खड़े हुए उन दोनों प्रराक्रमी वीरों के साथ पराक्रम पूर्वक युद्ध किया। जैसे वन में सिंह का दो मदस्‍त्रावी महान हाथियों के साथ युद्ध हो रहा हो, उसी प्रकार विराट और विन्‍द-अनुविन्‍द में बड़ा भयंकर संग्राम होने लगा, जहाँ पानी की तरह खून बहाया जा रहा था।

     महाबली शिखण्‍डी ने युद्ध स्‍थल में वेगशाली बाह्लीक को मर्म स्‍थानों और हड्डियों को विदीर्ण कर देने वाले भयंकर तीखे बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। इससे बाह्लीक अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे। उन्‍होंने शान पर तेज किये हुए सुवर्णमय पंख से युक्‍त और झुकी हुई गाठं वाले नौ बाणों द्वारा शिखण्‍डी को घायल कर दिया। उन दोनों के उस युद्ध ने बड़ा भयंकर रुप धारण किया। उसमें बाणों और शक्‍त‍ियों का ही अधिक प्रहार हो रहा था। वह भीरु पुरुषों के हदय में भय और शूरवीरों के हदय में हर्ष की वृद्धि करने वाला था। उन दोनों भाइयों के छोड़े हुए बाणों से वहाँ आकाश और दिशाएं-सब कुछ व्‍याप्‍त हो गया। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था।

     शिबिदेशीय गोवासन ने सेना सहित सामने जा काशिराज के महारथी पुत्र के साथ रणक्षेत्र में उसी प्रकार युद्ध किया, जैसे एक हाथी अपने प्रतिद्वन्‍द्वी दूसरे हाथी के साथ युद्ध करता है। क्रोध में भरे हुए बाह्लीक राज महारथी द्रौपदी पुत्रों के साथ रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे मन पांचों इन्द्रियों से युद्ध करता हुआ शुभोभित होता है। देहधारियों में श्रेष्‍ठ महाराज! द्रौपदी के पुत्र भी चारों ओर से बाण समूहों की वर्षा करते हुए वहाँ बाह्लीक राज के साथ उसी प्रकार बड़े वेग से युद्ध करने लगे, जैसे इन्द्रियों के विषय शरीर के साथ सदा जूझते रहते हैं। आपके पुत्र दु:शासन ने युद्ध स्‍थल में झुकी गांठ वाले नौ तीखे बाणों द्वारा वृष्णिवंशी सात्‍यकि को  घायल कर दिया। बलवान एवं महान धनुर्धन दु:शासन के बाणों से अत्‍यन्‍त बिंध जाने के कारण सत्‍य पराक्रमी सात्‍यकि को तुरंत ही थोड़ी सी मूर्छा आ गयी। थोड़ी देर में स्‍वस्‍थ होने पर सात्‍यकि ने आप के महारथी पुत्र दु:शासन को कंक की पांख वाले दस बाणों द्वारा तुरंत ही घायल कर दिया। राजन वे दोनों एक दूसरे के बाणों से पीड़ित और अत्‍यन्‍त घायल हो समरागड़ण में दो लिखे हुए पलाश के वृक्षों की भाँति शोभा पाने लगे। राजा कुन्तिभोज के बाणों से पीड़ित हो अत्‍यन्‍त क्रोध में भरा हुआ राक्षक अलम्‍बुष फूलों से लदे हुए पलाश वृक्ष के समान एक विशेष शोभा से सम्‍पन्‍न दिखायी देने लगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षण्‍णवतितम अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

    फिर राक्षस ने बहुत-से लोहे के बाणों द्वारा राजा कुन्तिभोज को घायल करके आप की सेना के प्रमुख भाग में बड़ी भयंकर गर्जना की। तदनन्‍तर सम्‍पूर्ण सेनाएं पूर्वकाल में एक दूसरे से युद्ध करने वाले इन्‍द्र और जम्‍भासुर के समान समरागंण में परस्‍पर जूझते हुए उन दोनों शूरवीरों को देखने लगीं। भारत! क्रोध में भरे हुए दोनों माद्रीकुमारों ने पहले से वैर बांधने वाले और युद्ध में वेगपूर्वक आगे बढ़ने वाले शकुनि को अपने बाणों से अत्‍यन्‍त पीड़ित किया। राजन! इस प्रकार वह महाभयंकर जनसंहार चालू हो गया, जिसकी परिस्थिति को आपने ही उत्‍पन्‍न किया है और कर्ण ने उसे अत्‍यन्‍त बढ़ावा दिया है। महाराज! आपके पुत्रों ने उस क्रोधमूलक वैर की आग को सुरक्षित रखा है, जो सारी पृथ्‍वी को भस्‍म कर डालने के लिये उधत है। पाण्‍डुकुमार नकुल और सहदेव ने अपने बाणों द्वारा शकुनि को युद्ध से विमुख कर दिया। उस समय उसे युद्ध विषयक कर्तव्‍य का ज्ञान न रहा और न कुछ पराक्रम का ही भान हुआ। 

      उसे युद्ध से विमुख हुआ देखकर भी महारथी माद्री कुमार नकुल, सहदेव उसके उपर पुन: उसी प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, जैसे दो मेघ किसी महान पर्वत पर जल की धारा बरसा रहे हों। इुकी हुई गांठ वाले बहुत से बाणों की मार खाकर सुबल पुत्र शकुनि वेगशाली घोड़ों की सहायता से द्रोणाचार्य की सेना के पास जा पहुँचा। इधर घटोत्‍कच ने अपने प्रतिद्वन्‍द्वी शूर राक्षक अलायुध का जो युद्ध में बड़ा वेगशाली था, मध्‍यम वेग का आश्रय ले सामना किया। महाराज! पूर्वकाल में श्रीराम और रावण के युद्ध में जैसे आश्रर्यजनक घटना घटित हुई थी, उसी प्रकार उन दोनों राक्षसों का युद्ध भी विचित्र सा ही हुआ। तदनन्‍तर राजा युधिष्ठिर ने मद्रराज शल्‍य को पचास बाणों से घायल कर के पुन: सात बाणों द्वारा उन्‍हें बींध डाला। नरेश्वर! जैसे पूर्वकाल में शम्‍बरासुर और देवराज इन्‍द्र में महान युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उस समय उन दोनों में अत्‍यन्‍त अभ्‍दुत संग्राम होने लगा। आपके पुत्र विविंशति, चित्रसेन और विकर्ण-ये तीनों विशाल सेना के साथ रहकर भीमसेन के साथ युद्ध करने लगे।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथवध पर्व में द्वन्‍द्व युद्ध विषयक छियानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तनवतितम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य और धृष्‍टद्युम्‍न का युद्ध तथा सात्‍यकि द्वारा धृष्‍टद्युम्‍न की रक्षा”

    संजय कहते हैं ;- राजन! उस रोमाञ्चकारी संग्राम के होते समय वहाँ तीन भागों में बंटे हुए कौरवों पर पाण्‍डव सैनिकों ने धावा किया। भीमसेन ने महाबाहु जलसंध पर आक्रमण किया और सेना सहित युधिष्ठिर ने युद्ध स्‍थल में कृतवर्मा पर धावा बोल दिया। महाराज! जैसे प्रकाशमान सूर्य सहस्‍त्रों किरणों का प्रसार करते है, उसी प्रकार धृष्‍टद्युम्‍न ने बाण समूहों की वर्षा करते हुए रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। तदनन्‍तर परस्‍पर क्रोध में भरे और उतावले हुए कौरव पाण्‍डव पक्ष के सम्‍पूर्ण धनुर्धरों का आपस में युद्ध होन लगा। इस प्रकार जब महाभंयकर जनसंहार होने लगा और सारे सैनिक निर्भय से होकर द्वन्‍द्व युद्ध करने लगे, उस समय बलवान द्रोणाचार्य ने शक्तिशाली पांचाल राजकुमार धृष्‍टद्युम्र के साथ युद्ध करते हुए जो बाण समूहों की वर्षा आरम्‍भ की, वह अद्भुत सी प्रतीत होने लगी।

     द्रोणाचार्य और धृष्‍टद्युम्‍न ने मनुष्‍यों के बहुत से मस्‍तक काट गिराये, जो चारों ओर नष्‍ट होकर पड़े हुए कमलवानों के समान जान पड़ते थे। चारों ओर सेनाओं में वीरों के बहुत से वस्‍त्र, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, ध्‍वज, कवच तथा आयुध छिन्‍न-भिन्‍न होकर बिखरे पड़े थे। सुवर्ण का कवच बांधे तथा खून से लथपथ हुए सैनिक परस्‍पर सटे हुए बिजलियों सहित मेघ-समूहों के समान दिखायी देते थे। बहुत से दूसरे महारथी चार हाथ के धनुष खींचते हुए अपने पंखयुक्‍त बाणों द्वारा हाथी, घोड़े और पैदल मनुष्‍यों को मार गिराते थे। उन महामनस्‍वी वीरों के संग्राम में योद्धाओं के खड्ग, ढाल, धनुष, मस्‍तक और कवच कटकर इधर-उधर बिखरे जाते थे। महाराज! उस महाभयानक युद्ध में चारों ओर असंख्‍य कबन्‍ध खड़े दिखायी देते थे। आर्य! वहाँ बहुत से गीध, कंक, बगले, बाज, कौए, सियार तथा अन्‍य मांसभक्षी प्राणी दृष्टिगोचर होते थे। नरेश्रवर! वे मांस खाते, रक्‍त पीते और केशों तथा मज्‍जा को बारंबार नोचते थे। मनुष्‍यों, घोड़ों तथा हाथियों के समूहों के सम्‍पूर्ण शरीरों और अवयवों एवं मस्‍तकों को इधर-उधर खींचते थे।

     अस्त्र विद्या के ज्ञाता और युद्ध में शोभा पाने वाले वीर रणयज्ञ की दीक्षा लेकर संग्राम में विजय चाहते हुए उस समय बड़े जोर से युद्ध करने लगे। समस्‍त सैनिक उस रणक्षेत्र में तलवार के बहुत से पैंतरे दिखाते हुए विचर रहे थे। युद्ध की रंगभूमि में आये हुए मनुष्‍य परस्‍पर कुपित हो एक दूसरे पर ऋष्टि, शक्ति, प्रास, शूल, तोमर, पट्टिश अस्त्र, गदा, परिघ, अन्‍यान्‍य आयुध तथा भुजाओं द्वारा चोट पहुँचाते थे। रथी रथियों के, घुड़सवार घुड़सवाररों के , मतवाले हाथी श्रेष्‍ठ गज राजों के और पैदल योद्धा पैदलों के साथ युद्ध कर रहे थे। रंगस्‍थल के समान उस रणक्षेत्र में अन्‍य बहुत से मत्त और उन्‍मत हाथी एक दूसरे को देखकर चिग्‍घाड़ते और परस्‍पर आघात-प्रत्‍याघात करते थे। राजन! जिस समय वह मर्यादाशून्‍य युद्ध हो रहा था, उसी समय धृष्‍टद्युम्‍न ने अपने रथ के घोड़ों को द्रोणाचार्य के घोड़ों से मिला दिया। धृष्‍टद्युम्‍न के घोड़ों का रंग कबूतर के समान था और द्रोणाचार्य के घोड़े लाल थे। उस युद्ध के मैदान में परस्‍पर मिले हुए वे वायु के समान वेगशाली अश्व बड़ी शोभा पा रहे थे। राजन् कबूतर के समान वर्णवाले घोड़े लाल रंग के घोड़ों से मिलकर बिजलियों सहित मेघों के समान सुशोभित हो रहे थे। भारत वीर धृष्‍टद्युम्र ने द्रोणाचार्य अत्‍यन्‍त निकट आया हुआ देख धनुष छोड़कर हाथ में ढाल और तलवार लेली।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तनवतितम अध्याय के श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)

    शत्रुवीरों का संहार करने वाले धृष्‍टद्युम्‍न दुष्‍कर कर्म करना चाहते थे। अत: ईषादण्‍ड के सहारे अपने रथ को लांघकर द्रोणाचार्य के रथ पर जा चढ़े। वे एक पैर जूए के ठीक बीच में और दूसरा पैर उस जूए से सटे हुए (आचार्य) घोड़ों के पिछले आधे भागों पर रखकर खड़े हो गये। उनके इस कार्य की सभी सैनिकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। लाल घोड़ों पर खड़ें हो तलवार घुमाते हुए धृष्‍टद्युम्र के ऊपर प्रहार करने के लिये आचार्य द्रोण को थोड़ा-सा भी अवसर नहीं दिखायी दिया। वह अद्भुत सी बात हुई। जैसे वन में मांस की इच्‍छा रखने वाला बाज झपट्टा मारता है, उसी प्रकार द्रोण को मार डालने की इच्‍छा उन पर धृष्‍टद्युम्र का सहसा आक्रमण हुआ था। तदनन्‍तर द्रोणाचार्य ने सौ बाण मारकर द्रुपदकुमार की ढाल को, जिसमें सौ चन्‍द्राकार चिह्न बने हुए थे, काट गिराया और दस बाणों से उनकी तलवार के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये।

     बलवान आचार्य ने चौसठ बाणों से धृष्‍टद्युम्र के चारों घोड़ों को मार डाला। फिर दो भल्‍लों से ध्‍वज और छत्र काटकर उनके दोनों पार्श्व रक्षकों को भी मार गिराया। तदनन्‍तर तुरंत ही एक दूसरा प्राणान्‍तकारी बाण कान तक खींचकर उनके ऊपर चलाया, मानो वज्रधारी इन्‍द्र ने वज्र मारा हो। उस समय सात्‍यकि ने चौदह तीखे बाण मारकर उस बाण को काट डाला और इस प्रकार आचार्य प्रवर के चंगुल में फंसे हुए धृष्‍टद्युम्‍न को बचा लिया। पूजनीय नरेश! जैसे सिंह ने किसी मृग को दबोच लिया हो, उसी प्रकार नरसिंह द्रोणाचार्य ने धृष्‍टद्युम्‍न को ग्रस लिया था; परंतु शिनिप्रवर सात्‍यकि ने उन्‍हें छुड़ा लिया। उस महासमर में सात्‍यकि धृष्‍टद्युम्‍न के रक्षक हो गये, यह देखकर द्रोणाचार्य ने तुरंत ही उन पर छब्‍बीस बाणों से प्रहार किया। तब शिनि के पौत्र सात्‍यकि ने सृंजयों के संहार में लगे हुए द्रोणाचार्य की छाती में छब्‍बीस तीखे बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। जब द्रोणाचार्य सात्‍यकि के साथ उलझ गये, तब विजया भिलाषी समस्‍त पांचाल रथी तुरंत ही धृष्‍टद्युम्‍न को अपने रथ पर बिठाकर दूर हटा ले गये।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवधपर्व में द्रोणाचार्य और धृष्‍टद्युम्‍न का युद्धविषयक सत्‍तानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य और सात्‍यकिका अदभूत युद्ध”

    धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;- संजय! जब वृष्णिवंश के प्रमुख वीर युयुधान ने आचार्य द्रोण के उस बाण को काट दिया और धृष्‍टधुम्न को प्राणसंकट से बचा लिया, तब अमर्ष में भरे हुए सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ महाधनुर्धर नरव्‍याघ्र द्रोणाचार्य ने उस युद्ध स्‍थल में सात्‍यकि के प्रति क्‍या किया। 

    संजय ने कहा ;– महाराज! उस समय क्रोध और अमर्ष से लाल आंखे किये द्रोणाचार्य ने फुफकारते हुए महानाग के समान बड़े वेग से सात्‍यकि पर धावा किया। क्रोध ही उस महानाग का विष था, खींचा हुआ धनुष फैलाये हुए मुख के समान जान पड़ता था, तीखी धारवाले बाण दांतों के समान थे और तेज धार वाले नाराच दाढ़ों का काम देते थे। हर्ष में भरे हुए नरवीर द्रोणाचार्य ने अपने महान वेगशाली लाल घोड़ों द्वारा, जो मानो आकाश में उड़ रहे और पर्वत को लांघ रहे थे, सुवर्णमय पंखवाले बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ युयुधान पर आक्रमण किया। उस समय द्रोणाचार्य अश्वरुपी वायु से संचालित अनिवार्य मेघ के समान हो रहे थे। बाणों का प्रहार ही उनके द्वारा की जाने वाली महावृष्टि था। रथ की घर्घराहट ही मेघ की गर्जना थी, धनुष का खींचना ही धारावाहिक वृष्टि का साधन था, बहुत से नाराच ही विद्युत के समान प्रकाशित होते थे, उस मेघ ने खंग और शक्तिरुपी अशनि को धारण कर रखा था और क्रोध के वेग से ही उसका उत्‍थान हुआ था।

    शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले रणदुर्मद शूरवीर सात्‍यकि द्रोणाचार्य को अपने उपर आक्रमण करते देख सारथि से जोर-जोर हंसते हुए बोले। ‘सूत! ये शौर्यसम्‍पन्‍न ब्राह्मण देवता अपने ब्राह्मणो चित्त कर्म में स्थिर नहीं हैं। ये धृतराष्‍ट्र पुत्र राजा दुर्योधन के आश्रय होकर उसके दु:ख और भय का निवारण करने वाले हैं। समस्‍त राजकुमारों के ये ही आचार्य हैं और सदा अपने वेग शाली अश्वों द्वारा शीघ्र इनका सामना करने के लिये चलो’। तदनन्‍तर चांदी के समान श्‍वेत रंग वाले और वायु के समान वेगशाली सात्‍यकि के उत्‍तम घोड़े द्रोणाचार्य के सामने शीघ्रता पूर्वक जा पहुँचे।

    फिर तो शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य और सात्‍यकि एक दूसरे पर सहस्‍त्रों बाणों का प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों पुरुषशिरोमणि वीरों ने आकाश को बाणों के समूह से आच्‍छादित कर दिया और दसों दिशाओं को बाणों से भर दिया। जैसे वर्षाकाल में दो मेघ एक दूसरे पर जल की धाराएं गिराते हों, उसी प्रकार वे परस्‍पर बाण वर्षा कर रहे थे। उस समय न तो सूर्य का पता चलता था और न हवा ही चलती। चारों ओर बाणों का जाल-सा बिछ जाने के कारण वहाँ घोर अन्‍धकार छा गया था। उस समय अन्‍य शूरवीरों का वहाँ पहुँचना असम्‍भव-सा हो गया। शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने की कला को जानने वाले द्रोणाचार्य तथा सात्‍वतवंशी सात्‍यकि के बाणों से लोक में अन्‍धकार छा जाने पर उस समय उन दोनों पुरुष सिंह की बाण-वर्षा में कोई अन्‍तर नहीं दिखायी देता था। बाणों के परस्‍पर टकराने से उनकी धारों के आघात प्रत्‍याघात से जो शब्‍द होता था, वह इन्‍द्र के छोडे़ हुए वज्रास्‍त्रों की गड़गड़ाहट के समान सुनायी पड़ता था। भरतनन्‍दन! नाराचों से अत्‍यन्‍त विद्ध हुए बाणों का स्‍वरुप विषधर नागों के डंसे सर्पों के समान जान पड़ता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टनवतितम अध्याय के श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद)

    उन दोनों युद्धकुशल वीरों के धनुषों की प्रत्‍यञ्चा की टंकार ध्‍वनि ऐसी सुनायी देती थी, मानो पर्वतों के शिखरों पर निरन्‍तर वज्र से आघात किया जा रहा हो। राजन! उन दोनों के वे रथ, वे घोड़े और वे सारथि सुवर्णमय पंखवाले बाणों से क्षत-विक्षत होकर उस समय विचित्ररुप से सुशोभित हो रहे थे। प्रजानाथ! केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान निर्मल और सीधे जाने वाले नाराचों का प्रहार वहाँ बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। दोनों के छत्र कटकर गिर गये, ध्‍वज धराशायी हो गये और दोनों ही विजय की अभिलाषा रखते हुए खून से लथपथ हो रहे थे। सारे अगड़ों से रक्‍त की धारा बहने के कारण वे दोनों वीर मदवर्षी गजराजों के समान जान पड़ते थे। वे एक दूसरे को प्राणन्‍तकारी बाणों से बेध रहे थे।

    महाराज! उस समय गरज ने, ललकार ने और सिंहनाद के शब्‍द तथा शंखों और दुन्‍दुभियों के साथ घोष बंद हो गये थे। कोई बातचीत तक नहीं करता था। सारी सेनाएं मौन थीं, योद्धा युद्ध से विरत हो गये थे, सब लोग कौतुहलवश उन दोनों के द्वैरथ युद्ध का दृश्‍य देखने लगे। रथी, महावत, घुड़सवार और पैदल सभी उन दोनों नरश्रेष्‍ठ वीरों को घेरकर उन्‍हें एकटक नेत्रों से निहारने लगे। हाथियों की सेनाएं चुपचाप खड़ी थी, घुड़सवार सैनिकों की भी दशा थी तथा रथ सेनाएं भी व्‍यूह बनाकर वहाँ स्थिर भाव से खड़ी थीं। भारत! मोती और मूंगों से चित्रित तथा मणियों और सुवर्णों से विभूषित, ध्‍वज, विचित्र आभूषण, सुवर्णमय कवच, वैजयन्‍ती, पताका, हाथियों के झूल और कम्‍बल, चमचमाते हुए तीखे शस्त्र, घोड़ों की पीठ पर बिछाये वस्‍त्र , हाथियों के कुम्‍भ स्‍थल में और मस्‍तकों पर सुशोभित होने वाले सोने-चांदी की मालाएं तथा दन्‍तवेष्‍टन- इन सब वस्‍तुओं के कारण उभय पक्ष की सेनाएं वर्षाकाल में बगलों की पां‍ति, खद्योत, ऐरावत और बिजलियों से युक्‍त मेघ समूहों के समान दृष्टि गोचर हो रही थीं। राजन! हमारी और युधिष्ठिर की सेना के सैनिक वहाँ खड़े होकर महामना द्रोण और सात्‍यकि का वह युद्ध देख रहे थे।

      ब्रह्मा और चन्‍द्रमा आदि सब देवता विमानों पर बैठकर वहाँ युद्ध देखने के लिये आये थे। उनके साथ ही सिद्धों और चारणों के समूह, विद्याधर और बड़े-बड़े नागगण भी थे। वे सब लोग उन दोनों पुरुषसिंहों के विचित्र गमन प्रत्‍यागमन, आक्षेप तथा नाना प्रकार के अस्त्र निवारक व्‍यापारों से आश्चर्यचकित हो रहे थे। महावीर द्रोणाचार्य और सात्‍यकि अस्त्र चलाने में अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को बेध रहे थे। इसी बीच में सात्‍यकि ने महातेजस्‍वी द्रोणाचार्य के धनुष और बाणों को पंखयुक्‍त सुदृढ़ बाणों द्वारा युद्ध स्‍थल में शीघ्र ही काट डाला। तब भरद्वाजनन्द द्रोण ने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथा में लेकर उस पर प्रत्यचां चढ़ायी; परंतु सात्यकि ने उनके उस धनुष को भी काट डाला। तब द्रोणाचार्य पुन: बड़ी उतावली के साथ दूसरा धनुष हाथ में लेकर खड़े हो गये; परन्‍तु ज्‍यों ही वे धनुष पर डोरी चढ़ाते, त्‍यों ही सात्‍यकि अपने तीखे बाणों द्वारा उसे काट देते थे। इस प्रकार सुद्यढ़ धनुष धारण करने वाले सात्‍यकि ने आचार्य के एक सौ धनुष काट डाले; परंतु कब वे संधान करते हैं और सात्‍यकि कब उस धनुष को काट देते है, उन दोनों के इस कार्य में किसी को कोई अन्‍तर नहीं दिखायी दिया। राजेन्‍द्र! तदनन्‍तर रणक्षेत्र में सात्‍यकि के उस अमानुषिक पराक्रम को देखकर द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टनवतितम अध्याय के श्लोक 41-57 का हिन्दी अनुवाद)

    सात्‍वकुल के श्रेष्‍ठ वीर सात्‍यकि में जो यह अस्त्रबल दिखायी देता है, ऐसा तो केवल परशुराम में, कार्तवीर्य अर्जुन में, धनंजय में तथा पुरुषसिंह भीष्‍म में ही देखा-सुना गया है। द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन उसके पराक्रम की बड़ी प्रशंसा की। इन्द्र के समान सात्‍यकि के उस हस्‍तलाघव तथा पराक्रम को देखकर अस्त्रवेताओं में श्रेष्‍ठ विप्रवर द्रोणाचार्य और इन्‍द्र आदि देवता भी बड़े प्रसन्‍न हुए। प्रजानाथ! रणभूमि में शीघ्रतापूर्वक विचरने वाले सात्‍यकि की उस फुर्ती को देवताओं, गन्धर्वो, सिद्धों और चारण समूहों ने पहले कभी नहीं देखा था। वे जानते थे कि केवल द्रोणाचार्य ही वैसा पराक्रम कर सकते हैं परंतु उस दिन उन्‍होंने सात्‍यकि का पराक्रम भी प्रत्‍यक्ष देख लिया।

     भारत! तत्‍पश्रात अस्त्रवेताओं में श्रेष्‍ठ क्षत्रियसंहारक द्रोणाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर विभिन्‍न अस्त्रों द्वारा युद्ध आरम्‍भ किया। सात्‍यकि ने अपने अस्त्रों की माया से आचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उन्‍हें तीखे बाणों से घायल कर दिया। वह अद्भुत सी घटना हुई। उस रणक्षेत्र में सात्‍यकि के उस युक्ति युक्‍त अलौकिक कर्म को, जिसकी दूसरों से कोई तुलना नहीं थी, देखकर आपके रणकौशल वेता सैनिक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। द्रोणाचार्य जिस अस्त्र का प्रयोग करते, उसी का सात्‍यकि भी करते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य द्रोण भी घबराहट छोड़‍कर सात्‍यकि से युद्ध करते रहे। महाराज तदनन्‍तर धनुर्वेद के पारगंत विद्वान द्रोणाचार्य ने कुपित हो सात्‍यकि के वध के लिये एक दिव्यास्त्र प्रकट किया। शत्रुओं का नाश करने वाले उस अत्‍यन्‍त भयंकर आग्‍नेयास्त्र को देखकर महाधनुर्धर सात्‍यकि ने वारुणनामक दिव्‍यास्‍त्र का प्रयोग किया। उन दोनों दिव्‍यास्‍त्र धारण किये देख वहाँ महान हाहाकार मच गया। उस समय आकाशचारी प्राणी भी आकाश में विचरण नहीं करते थे। वे वारुण और आग्‍नेय दोनों अस्त्र उन दोनों के द्वारा अपने बाणों में स्‍थापित होकर जब तक एक दूसरे के प्रभाव से प्रतिहत नहीं हो गये, तभी तक भगवान सूर्य दक्षिण से पश्चिम के आकाश में ढल गये।

     तब राजा युधिष्ठिर, पाण्‍डुकुमार भीमसेन, नकुल और सहदेव सब ओर से सात्‍यकि की रक्षा करने लगे। धृष्‍टद्युम्‍न आदि वीरों के साथ विराट, केकय राजकुमार मत्‍स्‍य देशीय सैनिक तथा शाल्‍व देश की सेनाएं-ये सब के सब अनायास ही द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। उधर से सहस्‍त्रों राजकुमार दु:शासन को आगे करके शत्रुओं से घिरे हुए द्रोणाचार्य के पास उनकी रक्षा के लिये आ पहुँचे। राजन! तदनन्‍तर पाण्‍डवों के और आपके धनुर्धरों का परस्‍पर युद्ध होने लगा। उस समय सब लोग धूल से आवृत और बाण समूह से आच्‍छादित हो गये थे। वहाँ का सब कुछ उद्विग्‍न हो रहा था। सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से ध्‍वस्‍त होने के कारण किसी को कुछ ज्ञात नहीं होता था। वहाँ मर्यादाशून्‍य युद्ध चल रहा था।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथवधपर्व में द्रोण और सात्‍यकि का युद्ध विषयक अट्ठानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

निन्यानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवनवतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा तीव्र गति से कौरव सेना में प्रवेश, विन्‍द और अनुविन्‍द का वध तथा अद्भुत जलाशय का निर्माण”

    संजय कहते हैं ;- राजन! जब द्रोणाचार्य का पाण्‍डवों के साथ युद्ध हो रहा था और सूर्य अस्‍ताचल के शिखर की ओर ढल चुक थे, उस समय धूल से आवृत होने के कारण दिवाकर की रश्मियां मन्‍द दिखायी देने लगी थी। योद्धाओं में से कोई तो खड़े थे, कोई युद्ध करते थे, कोई भागकर पुन: पीछे लौटते थे, और कोई विजयी हो रहे थे। इस प्रकार उन सब लोगों का वह दिन धीरे-धीरे बीतता चला जा रहा था। विजय की अभिलाषा रखने वाली वे समस्‍त सेनाएं जब युद्ध में इस प्रकार अनुरक्‍त हो रही थीं, तब अर्जुन और श्रीकृष्‍ण सिन्‍धुराज जयद्रथ को प्राप्‍त करने के लिये ही आगे बढ़ते चले गये। कुन्‍तीकुमार अर्जुन अपने तीखे बाणों द्वारा वहाँ रथ के जाने योग्‍य रास्‍ता बना लेते थे, जिससे श्रीकृष्‍ण रथ लिये आगे बढ़ जाते थे। प्रजानाथ! महामना पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन का रथ जहां-जहाँ जाता था, वहीं-वहीं आप की सेना में दरार पड़ जाती थी।
     दशार्हवंशी परम पराक्रमी भगवान श्री कृष्‍ण उत्‍तम, मध्‍यम और अधम तीनों प्रकार के मण्‍डल दिखाते हुए अपनी उत्‍तम रथ शिक्षा का प्रदर्शन करते थे। अर्जुन के बाणों पर उनका नाम अंकित था। उन पर पानी चढ़ाया गया था। वे कालाग्रि के समान भयंकर, तांत में बंधे हुए, सुन्‍दर पंखवाले, मोटे तथा दूर तक जाने वाले थे। उनमें से कुछ तो बांस के बने हुए थे और कुछ लोहे के। वे सभी भयंकर थे और नाना प्रकार के शत्रुओं का संहार करते हुए पक्षियों के साथ उड़कर युद्धस्‍थल में प्राणियों का रक्‍त पीते थे। रथ पर बैठै हुए अर्जुन अपने आगे एक कोस की दूरी तक जिन बाणों को फेंकते थे, वे बाण उनके शत्रुओं का जब तक संहार करते, तब तक उनका रथ एक कोस और निकल जाता था। उस समय भगवान हृषीकेश अच्‍छी प्रकार से रथ का भार वहन करने वाले गरुड़ एवं वायु के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा सम्‍पूर्ण जगत को आश्रर्यचकित करते हुए आगे बढ़ रहे थे। प्रजानाथ! सूर्य, इन्‍द्र, रुद्र तथा कुबेर का भी रथ वैसी तीव्र गति से नहीं चलता था, जैसे अर्जुन का चलता था। राजन! समरभूमि में दूसरे किसी का रथ पहले कभी उस प्रकार तीव्र-गति से नहीं चला था, जैसे अर्जुन का रथ मन की अभिलाषा के अनुरुप शीघ्र गति से चलता था।
      महाराज! शत्रुवीरों का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण ने रणभूमि में सेना के भीतर प्रवेश करके अपने घोड़ों को तीव्र वेग से हांका। तदनन्‍तर रथियों के समूह के मध्‍य भाग में पहुँचकर भूख और प्यास से पीड़ित हुए वे उत्‍तम घोडे़ बडी़ कठिनाई से उस रथ का भार वहन कर पाते थे। युद्धकुशल योद्धाओं ने बहुत से शस्त्रों द्वारा उन्‍हें अनेक बार घायल कर दिया और वे क्षत विक्षत हो बारंबार विचित्र मण्‍डलाकार गति से विचरण करते रहे। रणभूमि में सहस्‍त्रों पर्वताकार हाथी, घोडे़, रथ और पैदल मनुष्‍य मरे पड़े थे। उन सबको अर्जुन के घोडे़ ऊपर ही ऊपर लांघ जाते थे राजन! वे वायु के समान वेगशाली अश्व उस युद्ध स्‍थल में अधिक परिश्रम से थक जाने के कारण मन्‍दगति से चलने लगे। नरेश्रवर! इसी बीच में अवन्ती के वीर राजकुमार दोनों भाई विन्‍द और अनुविन्‍द थके हुए घोड़ों वाले पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन का सामना करने के लिये अपनी सेना के साथ आये।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवनवतितम अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)

    उन दोनों ने अर्जुन को चौसठ और श्रीकृष्‍ण को सत्‍तर बाण मारे तथा उनके घोड़ों को सौ बाणों से घायल कर दिया। ऐसा करके उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नता हुई। महाराज! मर्म को जानने वाले अर्जुन ने रणक्षेत्र में कुपित होकर झुकी हुई गांठ वाले नौ मर्म भेदी बाणों द्वारा उन दोनों को चोट पहुँचायी। तब उन दोनों भाइयों ने कुपित हो श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन को अपने बाण समुहों से आच्‍छादित कर दिया और बड़े जोर से सिंहनाद किया। तदनन्‍तर श्‍वेत घोडो़ं वाले अर्जुन ने समरागंण में दो बाणों द्वारा उनके दोनों विचित्र धनुषों और सुवर्ण के समान प्रकाशित होने वाले दोनों ध्‍वजों को भी तुरंत ही काट डाला। राजन! फिर वे दोनों भाई अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे और उस समय समरागंण में दूसरे धनुष लेकर उन्‍होंने बाणों द्वारा पाण्‍डुकुमार अर्जुन को गहरी पीड़ा दी। यह देख पाण्‍डुनन्‍दन धनंजय अत्‍यन्‍त क्रोध से जल उठे और दो बाण मारकर तुरंत ही उन्‍होंने उन दोनों के धनुष पुन: काट डाले।
     फिर सुवर्णमय पंखों वाले और शानदार चढ़ाकर तेज किये हुए दूसरे बाणों द्वारा उनके घोड़ों को एवं दोनों सारथियों, पार्श्व रक्षकों तथा पदानुगामी सेवकों को भी शीघ्र ही मार डाला। इसके बाद एक क्षुरप्र द्वारा बड़े भाई विन्‍द का मस्‍तक धड़ से काट दिया। विन्‍द आंधी के उखाडे़ हुए वृक्ष के समान मरकर पृथ्‍वी पर गिेर पड़ा। विन्‍द को मारा गया देख महाबली और प्रतापी अनुविन्‍द अपने भाई के वध का बारंबार चिन्‍तन करता हुआ अश्वहीन रथ को त्‍यागकर हाथ में गदा ले संग्राम भूमि में डटा रहा। रथियों में श्रेष्‍ठ महारथी अनुविन्‍द ने कुपित हो नृत्‍य सा करते हुए गदा द्वारा मधुसूदन भगवान श्रीकृष्‍ण के ललाट में आघात किया; परंतु मैनाक पर्वत के समान श्रीकृष्‍ण को कम्पित न कर सका। तब अर्जुन ने छ: बाणों द्वारा उसकी गर्दन, दोनों पैरों दोनों भुजाओं तथा मस्‍तक को काट डाला। इस प्रकार छिन्‍न–भिन्‍न होकर वह पर्वत समूह के समान धराशायी हो गया। राजन! तब उन दोनों भाइयों को मारा गया देख उनके सेवकगण अत्‍यन्‍त कुपित हो अर्जुन पर सैकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए टूट पड़े। भरतश्रेष्‍ठ! अर्जुन बाणों द्वारा तुरंत ही उन सबका संहार करके ग्रीष्‍म ऋृतु में वन को जलाकर प्रकाशित होने वाले अग्नि देव के समान सुशोभित हुए। उन दोनों सेना का बड़ी कठिनाई से उल्लघंन करके अर्जुन मेघों का आवरण भेदकर उदित हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे।
      उन्‍हें देखकर कौरव सैनिक पहले तो भयभीत हुए। फिर प्रसन्‍न भी हो गये। वे चारों ओर से कुन्‍तीकुमार का सामना करने के लिये डट गये। अर्जुन को थका हुआ देख और सिन्‍धुराज जयद्रथ को उनसे बहुत दूर जानकर आप के सैनिकों ने महान सिंहनाद करते हुए उन्‍हें सब ओर से घेर लिया। उन सबको क्रोध में भरा देख पुरुष शिरोमणि अर्जुन ने मुसकराते हुए धीरे-धीरे भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा। ‘मेरे घोडे़ बाणों से पीड़ित हो बहुत थक गये है और सिन्‍धुराज जयद्रथ अभी बहुत दूर है। अत: इस समय यहाँ कौन सा कार्य आपको श्रेष्‍ठ जान पड़ता है। ‘श्रीकृष्‍ण! आप ही सदा सर्वश्रेष्‍ठ ज्ञानी हैं। अत: मुझे यथार्थ बात बताइये। आपको नायक बनाकर ही पाण्‍डव इस रणक्षेत्र में शत्रुओं पर विजयी होंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवनवतितम अध्याय के श्लोक 38-55 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘माधव! मेरी दृष्टि में इस समय जो कर्त्तव्‍य है, वह बताता हूं, आप मुझसे सुनिये। घोड़ों को खोलकर इन्‍हें सुख पहुँचाने के लिये इनके शरीर से बाण निकाल दीजिये’। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें इस प्रकार उत्‍तर दिया-‘पार्थ! तुमने इस समय जो बात कही है, यही मुझे भी अभीष्‍ट है,। अर्जुन बोले-केशव! मैं इन समस्‍त सेनाओं को रोक रखूंगा। आप भी यहाँ इस समय करने योग्‍य यथोचित कार्य सम्‍पन्‍न करें।
    संजय कहते हैं ;- राजन! अर्जुन बिना किसी घबराहट के रथ की बैठक से उतर पड़े और गाण्‍डीव धनुष हाथ में लेकर पर्वत के समान अविचल भाव से खडे़ हो गये। धनंजय को धरती पर खड़ा जान ‘यही अवसर है’ ऐसा कहते हुए विजया भिलाषी क्षत्रिय हल्‍ला मचाते हुए उनकी ओर दौडे़। उन सब ने महान रथ समूह के द्वारा एक मात्र अर्जुन को चारों ओर घेर लिया। वे सब के सब धनुष खींचते और उन के ऊपर बाणों की वर्षा करते थे। जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार बाणों द्वारा कुन्‍तीकुमार अर्जुन को आच्‍छादित करते हुए कुपित कौरव सैनिक वहाँ विचित्र अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करने लगे। जैसे मतवाले हाथी सिंह पर धावा करते हों, उसी प्रकार वे श्रेष्‍ठ रथी क्षत्रिय, क्षत्रिय शिरोमणि नरसिंह अर्जुन पर बड़े वेग से टूट पड़े थे।
     उस समय वहाँ अर्जुन दोनों भुजाओं का महान बल देखने में आया। उन्‍होंने कुपित होकर उन विशाल सेनाओं को सब ओर जहाँ की तहां रोक दिया। शक्तिशाली अर्जुन ने अपने अस्त्रों द्वारा शत्रुओं के सम्‍पूर्ण अस्त्रों का सब ओर से निवारण करके अपने बहुसंख्‍यक बाणों द्वारा तुरंत उन सबको ही आच्‍छादित कर दिया। प्रजनाथ! वहाँ अन्‍तरिक्ष में ठसाठस भरे हुए बाणों की रगड़ से भारी लपटों से युक्‍त आग प्रकट हो गयीं। तदनन्‍तर जहाँ तहां हांफते और खून से लथपथ हुए महाधनुर्धर योद्धाओं, अर्जुन के शत्रुनाशक बाणों द्वारा विदीर्ण हो चीत्‍कार करते हुए हाथियों और घोड़ों तथा युद्ध में विजयी की अभिलाषा लिये रोषावेश में भरकर एक जगह कुपित खड़े हुए बहुतेरे वीर शत्रुओं के जमघट से उस स्‍थान पर गर्मी-सी होने लगी। उस समय अर्जुन ने उस असंख्‍य, अपार, दुर्लंघ्य एवं अक्षोभ्‍य रण समुद्र को सीमावर्ती तटप्रान्‍त के समान होकर अपने बाणों द्वारा रोक दिया। उस रण सागर में बाणों की तरगें उठ रही थीं, फहराते हुए ध्‍वज भौंरों के समान जान पड़ते थे, हाथी ग्राह थे, पैदल सैनिक मत्‍स्‍य और कीचड़ के समान प्रतीत होते थे, शखों और दुन्‍दुभियों की ध्‍वनि ही उस रणसिन्‍धु की गम्‍भीर गर्जना थी, रथ उंची-उची लहरों के समान जान पड़ते थे, योद्धाओं की पगड़ी और टोप कछुओं के समान थे छत्र और पताकाएं फेनराशि-सी प्रतीत होती थीं तथा मतवाले हाथियों की लाशें ऊंचे-ऊंचे शिलाखण्‍डों के समान उस सैन्‍य सागर को व्‍याप्‍त किये हुए थीं।
     धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;– संजय! जब अर्जुन धरती पर आये और भगवान श्रीकृष्‍ण ने घोड़ों की चिकित्‍सा में हाथ लगाया, तब यह अवसर पाकर मेरे सैनिकों ने कुन्‍तीकुमार का वध क्‍यों नहीं कर डाला।
     संजय ने कहा ;– महाराज उस समय पार्थ ने पृथ्‍वी पर खडे़ होकर रथ पर बैठे हुए समस्‍त भूपालों को सहसा उसी प्रकार रोक दिया, जैसे वेद विरुद्ध वाक्‍य आग्रह्य कर दिया जाता।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) नवनवतितम अध्याय के श्लोक 56-63 का हिन्दी अनुवाद)

    अर्जुन ने अकेले ही पृथ्‍वी पर खड़े रहकर भी रथ पर बैठै हुए समस्‍त पृथ्‍वीपतियों को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे लोभ सम्‍पूर्ण गुणों का निवारण कर देता है। तदनन्‍तर सम्‍भ्रमरहित महाबाहु भगवान श्रीकृष्‍ण ने युद्ध स्‍थल में अपने प्रिय सखा पुरुष प्रबर अर्जुन से यह बात कही। ‘अर्जुन! यहाँ घोड़ों के पानी के लिये पर्याप्‍त जल नहीं है ये पीने योग्‍य जल चाहते हैं। इन्‍हें स्‍नान की इच्‍छा नहीं है,। ‘यह रहा इन के पीने के लिये जल’ ऐसा कहकर अर्जुन ने बिना किसी घबराहट के अस्त्र द्वारा पृथ्‍वी पर आघात करके घोड़ों के पीने योग्‍य जल से भरा हुआ सुन्‍दर सरोवर उत्‍पन्‍न कर दिया।
     उस में हंस और कारण्‍डव आदि जल पक्षी भरे हुए थे, चक्रवाक उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। स्‍वच्‍छ जल से युक्‍त उस विशाल सरोवर में सुन्‍दर कमल खिले हुए थे। वह अगाध जलाशय कछुओं और मछलियों से भरा था। ऋषिगण उसका सेवन करते थे। तत्‍काल प्रकट किये हुए ऐसी योग्‍यता वाले उस सरोवर का दर्शन करने के लिये देवर्षि नारदजी वहाँ आये। विश्वकर्मा के समान अद्भुत कर्म करने वाले अर्जुन ने वहाँ बाणों का एक अद्भुत घर बना दिया था, जिन में बाणों के ही बांस, बांणों के ही खम्‍भे और बांणों की ही छाजन थी। महामना अर्जुन के द्वारा वह बाणमय ग्रह निर्मित हो जाने पर भगवान श्रीकृष्‍ण ने हंसकर कहा-‘शाबास अर्जुन, शाबास’।

(इसी प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथवध पर्व में विन्‍द और अनुविन्‍द का वध तथा अर्जुन के द्वारा जलाशयका निर्माण विषयक निन्‍यानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

सौवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) शततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्‍ण के द्वारा अश्‍वपरिचर्या तथा खा-पीकर हष्‍ट-पुष्‍ट हुए अश्‍वों द्वारा अर्जुन का पुन: शत्रु सेना पर आक्रमण करते हुए जयद्रथ की ओर बढ़ना”

    संजय कहते हैं ;- राजन! जब महात्‍मा कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने वह जल उत्‍पन्‍न कर दिया, शत्रुओं की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया और बाणों का घर बना दिया, तब महातेजस्‍वी भगवान श्रीकृष्‍ण तुरंत ही रथ से उतरकर कंकपत्र युक्‍त बाणों से क्षत-विक्षत हुए घोड़ों को खोल दिया। यह अद्दष्‍टपूर्व कार्य देखकर सिद्ध, चारण तथा सैनिकों के मुख से निकला हुआ महान साधुवाद सब ओर गूंज उठा। पैदल युद्ध करते हुए कुन्‍तीकुमार अर्जुन को समस्‍त महारथी भी मिलकर भी न रोक सके; यह अद्भुत सी बात हुई। रथियों के समूह तथा बहुत से हाथी घोड़े स‍ब ओर से उन पर टूट पड़े थे, तो भी उस समय कुन्‍तीकुमार अर्जुन को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उनका यह धैर्य और साहस समस्‍त पुरुषों से बढ़ चढ़कर था। सम्‍पूर्ण भूपाल पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन पर बाण समूहों की वर्षा कर रहे थे, तो भी शत्रुवीरों का संहार करने वाले इन्‍द्रकुमार धर्मात्‍मा पार्थ तनिक भी व्‍यथित नहीं हुए। उन पराक्रमी कुन्‍तीकुमार ने शत्रुओं के उन बाण समूहों, गदाओं और प्रासों को अपने पास आने पर उसी प्रकार ग्रस लिया, जैसे समुद्र सरिताओं को अपने में मिला लेता है। अर्जुन ने अस्त्रों के महान वेग और बाहुबल से समस्‍त राजाधिराजों के उत्‍तमोत्‍तम बाणों को नष्‍ट कर दिया। महाराज! अर्जुन और भगवान श्रीकृष्‍ण दोनों के उस अत्‍यन्‍त अद्भुत पराक्रमी समस्‍त कौरवों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। संसार में इससे बढ़कर और कोई अत्‍यन्‍त अद्भुत घटना क्‍या होगी अथवा हुई होगी कि अर्जुन और श्रीकृष्‍ण ने उस भयंकर संग्राम में भी घोड़ों को रथ से खोल दिया। उन दोनों नरश्रेष्‍ठ वीरों ने हम लोगों में महान भय उत्‍पन्‍न कर दिया और युद्ध के मुहाने पर निर्भय और निश्चिन्‍त होकर अपने भयानक तेज का प्रदर्शन किया।
     भरतनन्‍दन! युद्ध स्‍थल में अर्जुन के बनाये हुए उस बाण निर्मित गृह में भगवान श्रीकृष्‍ण उसी प्रकार मुसकराते हुए निर्भय खडे़ थे, मानो वे स्त्रियों के बीच में हों। प्रजानाथ! कमल नयन श्रीकृष्ण ने आप के सम्‍पूर्ण सैनिकों के देखते-देखते उद्वेग शून्‍य होकर उन घोड़ों को टहलाया। घोड़ों की चिकित्‍सा करने में कुशल श्रीकृष्‍ण ने उनके परिश्रम, थकावट, वमन, कम्‍पन और घाव सारे कष्‍टों को दूर कर दिया। उन्‍होंने अपने दोनों हाथों से बाण निकालकर उन घोड़ों को मला और यथोचित रुप से टहलाकर उन्‍हें पानी पिलाया। श्रीकृष्‍ण ने पानी पिलाकर उन्‍हें नहलाया, घास और दाने खिलाये तथा जब उनकी सारी थकावट दूर हो गयी, तब पुन: उस उत्‍तम रथ में उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नता के साथ जोत दिया। तदनन्‍तर सम्‍पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ महातेजस्‍वी श्रीकृष्‍ण उस उत्‍तम रथ पर अर्जुन सहित आरुढ़ हो बड़े वेग से आगे बढ़े। रथियों में श्रेष्‍ठ अर्जुन के उस रथ को समरागंण में पानी पीकर सुस्‍ताये हुए घोड़ों से जुता हुआ देख कौरव सेना के श्रेष्‍ठ वीर फिर उदास हो गये। राजन! टूटे दांतवाले सर्पों के समान लंबी सांस खींचते हुए वे पृथक-पृथक कहने लगे-‘अहो! हमें धिक्‍कार है, धिक्‍कार है, अर्जुन और श्रीकृष्‍ण तो चले गये’। आपकी सम्‍पूर्ण सेनाएं वह अद्भुत रोमाञ्चकारी व्‍यापार देखकर अपने साथियों को पुकार-पुकार कर कहने लगीं- वीरों! ऐसा नहीं हो सकता। तुम सब लोग शीघ्रतापूर्वक उनका पीछा करो’।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) शततम अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

      हम लोग चीखते-चिल्‍लाते तथा रोकने की चेष्‍टा करते ही रह गये: परंतु कुछ न हो सका। शत्रुओं को संताप देने वाले हमारे बल की अवहेलना करके एकमात्र रथ के द्वारा सम्‍पूर्ण राज मण्‍डली में अपना पराक्रम दिखाकर उसी प्रकार बेरोक टोक आगे बढ़ गये हैं, जैसे बालक खिलौनों से खेलता हुआ निकल जाता है। राजन! पूर्व काल में जैसे देवासुर-संग्राम में जम्‍भासुर का वध करने की इच्‍छा वाले इन्‍द्र और भगवान विष्‍णु दानवों को तिनकों के समान तुच्‍छ मानते हुए आगे बढ़ गये थे (उसी प्रकार श्री कृष्‍ण और अर्जुन जयद्रथ को मारने के लिये बड़े वेग से अग्रसर हो रहे हैं उन दोनों को पुन: आगे बढ़ते देख दूसरे सैनिक बोल उठे-‘कौरवो! श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का वध करने के लिये तुम सब लोग शीघ्र चेष्‍टा करो। इस रणक्षेत्र में रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्‍ण हमारी अवहेलना करके हम सब धनुर्धरों के देखते-देखते जयद्रथ की ओर बढ़े जा रहे है’। राजन! कुछ भूमिपाल समरागंण में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का वह अत्‍यन्‍त अद्भुत अद्यष्‍ट पूर्व कार्य देखकर आपस में इस प्रकार बातें करने लगे। ‘एकमात्र दुर्योधन के अपराध से राजा धृतराष्‍ट्र तथा उनकी सम्‍पूर्ण सेनाएं भारी वितत्ति में फंस गयी। सारा क्षत्रिय समाज और सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी विनाश के द्वार पर जा पहुँची है। इस बात को राजा धृतराष्‍ट्र नहीं समझ रहे हैं’। भारत! इसी प्रकार वहाँ दूसरे क्षत्रिय निम्‍नाकिंत बातें कहते थे-‘योग्‍य उपाय को न जानने वाले और मिथ्‍या दृष्ट्रि रखने वाले राजा धृतराष्‍ट्र यमलोक में गये हुए सिन्‍धुराज जयद्रथ का जो और्ध्‍व दैहिक कृत्‍य है, उसका सम्‍पादन करें।
      तदनन्‍तर पानी पीकर हर्ष और उत्‍साह में भरे हुए घोड़ों द्वारा पाण्‍डुकुमार अर्जुन सिन्‍धुराज जयद्रथ की ओर बड़े वेग से बढ़ने लगे। उस समय सूर्य देव अस्‍ताचल के शिखर की ओर ढलते चले जा रहे थे। जैसे क्रोध में भरे हुए यमराज को रोकना असम्‍भव है, उसी प्रकार आगे प्रकार बढ़ते हुए समस्‍त शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ महाबाहु अर्जुन को आपके सैनिक रोक न सके। जैसे सिंह मृगों के झुंड को खदेड़ता हुआ उन्‍हें मथ डालता है, उसी प्रकार शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्‍डु कुमार अर्जुन आपकी सेना को खदेड़-खदेड़कर मारने और मथने लगे। सेना के भीतर घुसते हुए श्रीकृष्‍ण ने तीव्र वेग से अपने घोड़ों को आगे बढ़ाया और बगुलों के समान श्‍वेत रंग वाले अपने पाञ्चजन्‍य शंख को बड़े जोर से बजाया। वायु के समान वेगशाली अश्‍व इतनी तीव्रातितीव्र गति से रथ को लिये हुए भाग रहे थे कि कुन्‍तीकुमार अर्जुन द्वारा आगे की ओर फेंके हुए बाण उनके रथ के पीछे गिरते थे।
     तत्‍पश्रात् क्रोध में भरे हुए बहुत से नरेशों तथा अन्‍य क्ष्‍िात्रियों ने जयद्रथ वध की इच्‍छा रखने वाले अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया। सेनाओं के सहसा आक्रमण करने पर पुरुष श्रेष्‍ठ अर्जुन कुछ टहर गये। इसी समय उस महासमर में राजा दुर्योधन ने बड़ी उतावली के साथ उनका पीछा किया। हवा लगने से अर्जुन के रथ की पताका फहरा रही थी। उस रथ से मेघ की गर्जना के समान गम्‍भीर ध्‍वनि हो रही थी। और भयंकर रथ को देखकर सम्‍पूर्ण रथी विषाद ग्रस्‍त हो गये। उस समय सब ओर इतनी धूल उड़ रही थी कि सूर्य देव छिप गये। उस रणक्षेत्र में बाणों से पीड़ित हुए सैनिक श्रीकृष्‍ण और अर्जुन की ओर आंख उठाकर देख भी नहीं सकते थे।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में सेना विस्‍मय विषयक सौवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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