सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के एक सौ एकवें अध्याय से एक सौ पांचवें अध्याय तक (From the 101 chapter to the 105 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“श्री कृष्‍ण और अर्जुन को आगे बढ़ा देख कौरव सैनिकों की निराशा तथा दुर्योधन का युद्ध के लिये आना”

    संजय कहते हैं ;- नरेश्‍वर! भगवान श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को सबको लांघकर आगे बढ़ा हुआ देख भय के कारण आपके सैनिकों की मज्‍जा खिसकने लगी। फिर वे लज्जित हुए समस्‍त महामनस्‍वी सैनिक धैर्य और साहस से प्रेरित हो युद्ध के लिये स्थिरचित्‍त होकर रोषपूर्वक अर्जुन की ओर जाने लगे। जो लोग युद्ध में रोष और अमर्ष से भरकर पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के सामने गये, वे समुद्र तक गयी हुई नदियों के समान आज तक नहीं लौटे। जैसे नास्तिक पुरुष वेदों से उनकी बतायी हुई विधियों से दूर रहते हैं, उसी प्रकार जो अधम मनुष्‍य थे, वे ही अर्जुन के सामने जाकर भी लौट आये वे नरक में पड़कर अपने पाप का फल भोग रहे होंगे। रथियों की सेना को लांघकर उनके घेरे से मुक्‍त हुए पुरुष श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण और अर्जुन राहु के मुंह छूटे हुए सूर्य और चन्‍द्रमा के समान दिखायी दिये। जैसे दो मत्‍स्‍य किसी महाजाली को फाड़कर निकल जाने पर क्‍लेश शून्‍य हो जाते हैं, उसी प्रकार उस सेना समूह को विदीर्ण करके श्रीकृष्‍ण और अर्जुन क्‍लेश रहित दिखायी देते थे।

      शस्त्रों से भरे हुए आचार्य द्रोण के दुर्भेद्य सैन्‍य-व्‍यूह से छुटकारा पाकर महात्‍मा श्रीकृष्‍ण और अर्जुन उदित हुए प्रलयकाल के सूर्य के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। शत्रुओं को संतप्‍त करने वाले वे दोनों महात्‍मा श्रीकृष्‍ण और अर्जुन अग्नि के समान दाहक स्‍पर्श वाले मगर के मुख से छुटे हुए दो मत्‍स्‍यों के समान अस्त्र–शस्त्रों की बाधाओं तथा संकटों से मुक्‍त दिखायी दे रहे थे। जैसे दो मगर समुद्र को क्षुब्‍ध कर देते हैं, उसी प्रकार उन दोनों ने सारी सेना को व्‍याकुल कर दिया। आपके सैनिकों तथा पुत्रों ने उस समय द्रोणाचार्य के सैन्‍यव्‍यूह में घुसे हुए श्री कृष्‍ण और अर्जुन के सम्‍बन्‍ध में यह विचार किया था कि ये दोनों द्रोण को नहीं लांघ सकेंगे। परंतु महाराज! जब वे दोनों महातेजस्‍वी वीर द्रोणाचार्य के सैन्‍य व्‍यूह को लांघ गये, तब उन्‍हें देखकर आप के पुत्रों को सिन्‍धुराज के जीवित रहने की आशा नहीं रह गयी।

    राजन! प्रभु! सब लोगों को यह सोचकर कि श्रीकृष्‍ण और अर्जुन द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा के हाथ से नहीं छूट सकेंगे, सिन्‍धुराज के जीवन की आशा प्रबल हो उठी थी। महाराज! शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों वीर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन लोगों की उस आशा को विफल करके द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा की दुस्‍तर सेना को लांघ गये। दो प्रज्‍वलित अग्रियों के समान सारी सेना को लांघकर खड़े हुए उन दोनों वीरों को सकुशल देख आप के सैनिकों ने निराश होकर सिन्‍धुराज के जीवन की आशा त्‍याग दी। दूसरों का भय बढ़ाने और स्‍वयं निर्भय रहने वाले श्रीकृष्‍ण और अर्जुन आपस में जयद्रथ वध के विषय में इस प्रकार बाते करने लगे ‘यद्यपि धृतराष्‍ट्र के छ: महारथी पुत्रों ने जयद्रथ को अपने बीच में छिपा रखा है, तथापि यदि वह मेरी आंखों को दीख गया तो मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकेगा। ‘यदि देवताओं सहित साक्षात इन्‍द्र भी समरागंण में इसकी रक्षा करें, तो भी हम दोनों इसे अवश्‍य मार डालेंगे’। इस प्रकार दोनों कृष्‍ण आपस में बात कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

   सिन्‍धुराज जयद्रथ की खोज करते हुए महाबाहु श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने उस समय जब आपस में उपर्युक्‍त बातें कहीं, तब आपके पुत्र बहुत कोलाहल करने लगे। जैसे मरुभूमि को लांघकर जाते हुए दो प्‍यासे हाथी पानी पीकर तृप्‍त एवं संतुष्‍ट हो गये हों, उसी प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भी शत्रुसेना को लांघकर अत्‍यन्त प्रसन्‍न हुए थे। जैसे व्‍याघ्र, सिंह और हाथियों से भरे हुए पर्वतों को लांघकर दो व्‍यापारी प्रसन्‍न दिखायी देते हों, उसी प्रकार मृत्यु और जरा से रहित श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भी उस सेना को लांघकर संतुष्‍ट दीखते थे। इन दोनों मुख की कान्ति वैसी ही थी, ऐसा सभी सैनिक मान रहे थे। विपधर सर्प और प्रज्‍वलित अग्नि के समान भयंकर द्रोणाचार्य तथा अन्‍य नरेशों के हाथ से छुटे हुए दो प्रकाशमान सूर्यों के सदृश श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को वहाँ देखकर आप के समस्‍त सैनिक सब ओर से कोलाहल मचा रहे थे।

    समुद्र के समान विशाल द्रोण सेना से मुक्‍त हुए वे दोनों शत्रुदमन वीर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ऐसे प्रसन्‍न दिखायी देते थे, मानो महासागर लांघ गये हों। द्रोणाचार्य और कृतवर्मा द्वारा सुरक्षित महान अस्त्र-समुदाय से छूटकर वे दोनों वीर समरागंण में इन्‍द्र और अग्नि के समान प्रकाशमान दिखायी देते थे। द्रोणाचार्य के तीखे बाणों से श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के शरीर छिदे हुए थे और उनसे रक्‍त की धारा बह रही थी। उस समय वे लाल कनेर से भरे हुए दो पर्वतों के समान सुशोभित होते थे। द्रोणाचार्य जिस सैन्‍य-सरोवर के ग्राहतुल्‍य जन्‍तु थे, जो शक्तिरुपी विषधर सर्पों से भरा था, लोहे के बाण जिसके भीतर जल के समान शोभा उत्‍पन्‍न करते थे, बडे-बड़े क्षत्रिय जिसमें जल के समान सुनायी पड़ती थी, गदा और खगड़ जहाँ विद्युत के समान चमक रहे थे और द्रोणाचार्य के बाण ही जहाँ मेघ बनकर बरस रहे थे, उससे मुक्‍त हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन राहू से छूटे हुए सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रकाशित हो रहे थे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वर्षा ऋृतु में जल से लबालब भरी हुई बड़े-बड़े ग्राहों से व्‍याप्‍त समुद्र गामिनी इरावती (रावी), विपाशा (ब्‍यास), वितस्‍ता (झेलम), शतद्रू, (शतलज) ,(शतलज)और चन्‍द्रभागा (चुनाब) इन पांचों नदियों के साथ छठी सिंधु नदी को श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने अपनी भुजाओं से तैरकर पार किया हो। इस प्रकार द्रोणाचार्य के अस्त्र-बल का निवारण करने के कारण समस्‍त प्राणी श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को लोकविख्‍यात प्रशस्‍त गुणयुक्‍त महाधनुर्धर मानने लगे। जैसे पानी पीने के घाट पर आये हुए रुरुमृग को दबोच लेने की इच्‍छा से दो व्‍याघ्र खडे़ हों, उसी प्रकार निकटवर्ती जयद्रथ को मार डालने की इच्‍छा से उसकी ओर देखते हुए वे दोनों वीर खडे़ थे।

     महाराज! उस समय उन दोनों के मुख पर जैसी समुज्‍ज्वल कान्ति थी, उसके अनुसार आप के योद्धाओं ने जयद्रथ को मरा हुआ ही माना। एक साथ बैठे हुए लाल नेत्रों वाले महाबाहु श्रीकृष्‍ण और अर्जुन सिन्‍धुराज जयद्रथ को देखकर हर्ष से उल्‍लसित हो बारंबार गर्जना करने लगे। राजन! हाथों में बागडोर लिये श्रीकृष्‍ण और धनुष धारण किये अर्जुन-इन दोनों की प्रभा सूर्य और अग्नि के समान जान पड़ती थी। जैसे मांस का टुकड़ा देखकर दो बाजों को प्रसन्‍नता होती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य सेना से मुक्‍त हुए उन दोनों वीरों को अपने पास ही जयद्रथ को देखकर सब प्रकार से हर्ष ही हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)

     अपने समीप ही खड़े हुए से सिन्‍धुराज जयद्रथ को देख कर तत्‍काल वे दोनों वीर कुपित हो उसी प्रकार सहसा उस पर टूट पड़े, जैसे दो बाज मांस पर झपट रहे हों। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन सारी सेना को लांघकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। यह देखकर आपके पुत्र दुर्योधन ने सिन्‍धुराज की रक्षा के लिये पराक्रम दिखाना आरम्‍भ किया। प्रभो! घोड़ों के संस्‍कार को जानने वाला राजा दुर्योधन उस समय द्रोणाचार्य के बांधे हुए कवच को धारण करके एकमात्र रथ की सहायता से युद्ध भूमि में गया था। नरेश्रवर! महाधनुर्धर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को लांघकर आपका पुत्र कमल नयन श्रीकृष्‍ण के सामने जा पहुँचा। तदनन्‍तर आपका पुत्र दुर्योधन जब अर्जुन को भी लांघकर आगे बढ़ गया, तब सारी सेनाओं में हर्ष पूर्ण बाजे बजने लगे। दुर्योधन को वहाँ श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के सामने खड़ा देख शंखों ध्‍वनि से मिले हुए सिंहनाद के शब्‍द सब ओर गूंजने लगे। प्रभो! सिन्‍धुराज की रक्षा करने वाले जो अग्नि के समान तेजस्‍वी वीर थे, वे आपके पुत्र को समरागंण में डटा हुआ देख बड़े प्रसन्‍न हुए। राजन! सेवकों सहित दुर्योधन सब को लांघकर सामने आ गया– यह देखकर श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से यह समयोचित बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथववध पर्व में दुर्योधन का आगमन विषयक एक सौ एकवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“श्री कृष्‍ण अर्जुन की प्रशंसा पूर्वक उसे प्रोत्‍साहन देना, अर्जुन और दुर्योधन का एक दूसरे के सम्‍मुख आना, कौरव-सैनिकों का भय तथा दुर्योधन का अर्जुन को ललकारना”

   श्रीकृष्‍ण बोले ;- धनंजय! सबको लांघकर सामने आये हुए दुर्योधन को देखो। मैं तो इसे अत्‍यन्‍त अद्भुत योद्धा मानता हूँ। इसके समान दूसरा कोई रथी नहीं है। यह महाबली धृतराष्‍ट्र दूर तक के लक्ष्य को मार गिराने वाला, महान धनुर्धर, अस्त्र विद्या में निपुण और युद्ध में दुर्मद है। इसके अस्त्र-शस्त्र अत्‍यन्‍त सुद्दढ़ हैं तथा यह विचित्र रीति से युद्ध करने वाला है। कुन्‍तीकुमार! महारथी दुर्योधन अत्‍यन्‍त सुख से पला हुआ सम्‍मानित और विद्वान है। यह तुम जैसे बन्‍धु बान्‍धवों से नित्‍य-निरन्‍तर द्वेष रखता है। निष्‍पाप अर्जुन! मैं समझता हूं, इस समय इसी के साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्‍त हुआ है। यहाँ तुम लोगों के अधीन जो रणद्यूत होने वाला है, वही विजय अथवा पराजय का कारण होगा। पार्थ! तुम बहुत दिनों से संजोकर रखे हुए अपने क्रोध रुपी विष को इसके उपर छोड़ों। महारथी दुर्योधन ही पाण्‍डवों के सारे अनर्थों की जड़ है। आज यह तुम्‍हारे बाणों के मार्ग में आ पहुँचा है। इसे तुम अपनी सफलता समझो; अन्‍यथा राज्‍य की अभिलाषा रखने वाला राजा दुर्योधन तुम्‍हारे साथ युद्ध भूमि में कैसे उतर सकता था। धनंजय! सौभाग्‍यवश यह दुर्योधन इस समय तुम्‍हारे बाणों के पथ में आ गया है। तुम ऐसा प्रयत्‍न करो, जिससे यह अपने प्राणों को त्‍याग दे। पुरुष रत्‍न! ऐश्वर्य के घमंड में चूर रहने वाले इस दुर्योधन ने कभी कष्‍ट नहीं उठाया है। य‍ह युद्ध में तुम्‍हारे बल पराक्रम को नहीं जानता है।

      पार्थ! देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित तीनों लोक भी रणक्षेत्र में तुम्‍हें जीत नहीं सकते। फिर अकेले दुर्योधन की तो औकात ही क्‍या है। कुन्‍तीकुमार! सौभाग्‍य की बात है कि यह तुम्‍हारे रथ के निकट आ पहुँचा है। महाबाहो! जैसे इन्‍द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार तुम भी इस दुर्योधन को मार डालो। अनघ! यह सदा तुम्‍हारा अनर्थ करने में ही पराक्रम दिखाता आया है। इसने धर्मराज युधिष्ठिर को जूए में छल कपट से ठग लिया है। मानद! तुम लोग कभी इसकी बुराई नहीं करते थे, तो भी इस पाप बुद्धि दुर्योधन ने सदा तुम लोगों के साथ बहुत से क्रुरता पूर्ण बर्ताव किये हैं। पार्थ! तुम युद्ध में श्रेष्‍ठ बुद्धि का आश्रय ले बिना किसी सोच-विचार के, सदा क्रोध में भरे रहने वाले इस स्‍वेच्‍छाचारी दुष्‍ट पुरुष को मार डालो।

      पाण्‍डुनन्‍दन! दुर्योधन ने छल से तुम लोगों का राज्‍य छीन लिया है, तुम्‍हें जो वनवास का कष्‍ट भोगना पड़ा है तथा द्रौपदी को जो दु:ख और अपमान उठाना पड़ा है-इन सब बातों को मन ही मन याद करके पराक्रम करो। सौभाग्‍य ही यह दुर्योधन तुम्‍हारे बाणों की पहुँच के भीतर चक्‍कर लगा रहा है। यह भी भाग्‍य की बात है कि यह तुम्‍हारे कार्य में बाधा डालने के लिये सामने आकर प्रयत्‍नशील हो रहा है। पार्थ! भाग्‍यवश समरागंण में तुम्‍हारे साथ युद्ध करना यह अपना कर्तव्‍य समझता है और भाग्‍य से ही न चाहने पर भी तुम्‍हारे सारे मनोरथ सफल हो रहे हैं। कुन्‍तीकुमार! जैसे पूर्वकाल में इन्‍द्र ने देवासुर संग्राम में जम्‍भ का वध किया था, उसी प्रकार तुम रणक्षेत्र में कुलकलकड़ धृतराष्‍ट्र दुर्योधन को मार डालो। इसके मारे जाने पर अनाथ हुई इस कौरव सेना का संहार करो, दुरात्‍माओं की जड़ काट डालो, जिससे इस वैर रुपी यज्ञ का अन्‍त होकर अवभृथ स्‍नान का अवसर प्राप्‍त हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय कहते है ;- राजन! तत्र कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा,

   अर्जुन ने कहा ;– ‘यह मेरे लिये सबसे महान कर्त्तव्‍य प्राप्‍त हुआ है। अन्‍य सब कार्यों की अवहेलना करके आप वहीं चलिये, जहाँ दुर्योधन खड़ा है। ‘जिसने दीर्घकाल त‍क हमारे इस अकंटक राज्‍य का उपभोग किया है, मैं युद्ध में पराक्रम करके उस दुर्योधन का मस्‍तक काट डालूंगा। ‘माधव! जो क्‍लेश भोगने के योग्‍य नहीं है, उसी द्रौपदी का केश पकड़कर जो उसे अपमानित किया गया है, उसका बदला इस दुर्योधन को मारकर ही चुका सकता हूँ। ‘श्रीकृष्‍ण! समरागंण में दुर्योधन का वध करके मैं किसी प्रकार उन सभी दु:खों से छुटकारा पा जाउंगा, जो पूर्वकाल में भोगने पड़े है’। इस प्रकार की बातें करते हुए उन दोनों कृष्‍णों ने युद्ध स्‍थल में राजा दुर्योधन को अपना लक्ष्‍य बनाने के लिए हर्ष पूर्वक अपने उत्‍तम सफेद घोड़ों को उसकी ओर बढ़ाया। आर्य! भरतभूषण! आपके पुत्र ने उन दोनों के समीप पहुँचकर महान भय का अवसर प्राप्‍त होने पर भी भय नहीं माना। अपने सामने आये हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को दुर्योधन ने जो रोक दिया, उसके इस कार्य की वहाँ सभी क्षत्रियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।

    राजन! युद्धस्‍थल में राजा दुर्योधन को उपस्थित देख आपकी सारी कौरव सेना में महान सिंहनाद होने लगा। जिस समय वह भयंकर जन कोलाहल हो रहा था, उसी समय आपके पुत्र ने अपने शत्रु अर्जुन को कुछ भी न समझकर आगे बढ़ने से रोक दिया। आपके धनुर्धर पुत्र दुर्योधन द्वारा रोके जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्‍तीकुमार अर्जुन पुन: उसके उपर अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे। दुर्योधन तथा अर्जुन को परस्‍पर कुपित देख भयंकर नरेश गण सब ओर खड़े हो चुपचाप देखने लगे। आर्य! अर्जुन और श्रीकृष्‍ण को अत्‍यन्‍त रोष में भरे देख आपके पुत्र जोर-जोर से हंसते हुए ही युद्ध की इच्‍छा से उन दोनों को ललकारा।

     तब हर्ष में भरे हुए श्रीकृष्‍ण और पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने बड़े जोर से सिंहनाद किया और अपने उत्तम शंखों को बजाया। उन दोनों को हर्षोल्‍लास से परिपूर्ण देख सम्‍पूर्ण कौरव-सैनिक आपके पुत्र के जीवन से निराश हो गये। अन्‍य सब कौरव भी शोकमग्‍न हो गये और आपके पुत्र आग के मुख में होम दिया गया– ऐसा मानने लगे। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को इस प्रकार हर्षमग्‍न देख आप के समस्‍त सैनिक भय से पीड़ित हो ऐसा कहते हुए कोलाहल करने लगे कि ‘हाय! राजा दुर्योधन मारे गये, मारे गये’। लोगों का वह आर्तनाद सुनकर दुर्योधन बोला-‘तुम लोगों का भय दूर हो जाना चाहिये। मैं इन दोनों कृष्‍णों को मृत्‍यु के घर भेज दूंगा। अपने सम्‍पूर्ण सैनिकों से ऐसा कहकर विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा दुर्योधन ने कुन्‍तीकुमार को सम्‍बोधित करके क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा-। ‘पार्थ! यदि तुम पाण्‍डु के बेटे हो तो तुमने जो लौकिक एवं दिव्‍य अस्त्रों की शिक्षा प्राप्‍त की है, उन सबको मेरे ऊपर शीघ्र दिखाओ। ‘तुममें और श्रीकष्‍ण में जो बल और पराक्रम हो, उसे मेरे ऊपर शीघ्र प्रकट करो। हम देखते हैं कि तुम में कितना पुरुषार्थ है। ‘हमारे परोक्ष में लोग स्‍वामी के सत्‍कार से युक्‍त तुम्‍हारे किये हुए जिन कर्मों का वर्णन करते हैं, उन्‍हें यहाँ दिखाओ’।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथवपर्व में दुर्योधन वचन विषयक एक सौ दोवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय कहते हैं ;- राजन! अर्जुन से ऐसा कहकर राजा दुर्योधन ने तीन अत्‍यन्‍त वेगशाली मर्म भेदी बाणों द्वारा उन्‍हें बींध डाला और चार बाणों द्वारा उनके चारो घोड़ों को भी घायल कर दिया। इस प्रकार दस बाण मारकर उसने श्रीकृष्‍ण की भी छाती छेद डाली और एक भल्‍ल से उनके चाबुक को काटकर पृथ्‍वी पर गिरा दिया।

     तब व्‍यग्रता रहित अर्जुन ने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए विचित्र पंखवाले उनके वे बाण दुर्योधन के कवच पर जाकर फिसल गये। उन्‍हें निष्‍फल हुआ देख अर्जुन ने पुन: चौदह तीखे बाण चलाये; परंतु वे भी कवच से फिसल गये। अर्जुन चलाये हुए उन अट्ठाईस बाणों को निष्‍फल हुआ देख शत्रुवीरों का संहार करने वाले श्रीकृष्‍ण ने उनसे इस प्रकार कहा। ‘पार्थ! आज तो मैं प्रस्‍तर खण्‍डों के चलने के समान ऐसी बात देख रहा हूं, जिसे पहले कभी नहीं देखा था। तुम्‍हारे चलाये हुए बाण तो कोई काम नहीं कर रहे हैं। ‘भरत श्रेष्‍ठ! तुम्‍हारे गाण्‍डीव-धनुष की शक्ति पहले जैसी ही है न; तुम्‍हारी मुटठी एवं बाहुबल भी पूर्ववत हैं न। ‘आज तुम्‍हारी और तुम्‍हारे इस शत्रु की अन्तिम भेंट का समय नहीं आया है क्‍या मैं जो पूछता हूं, उसका उत्‍तर दो। ‘कुन्‍तीनन्‍दन! आज युद्ध स्‍थल में दुर्योधन के रथ के पास निष्‍फल होकर गिरे हुए तुम्‍हारे इन बाणों को देखकर मुझे महान आश्रचर्य हो रहा है। ‘पार्थ! वज्र और अशनि के समान भयंकर तथा शत्रुओं के शरीर को विदीर्ण कर देने वाले तुम्‍हारे वे बाण आज कुछ काम नहीं कर रहे हैं, यह कैसी विडम्‍बना है।

    अर्जुन बोले ;– श्रीकृष्‍ण! मेरा तो यह विश्‍वास है कि दुर्योधन को द्रोणाचार्य ने अमेद्य कवच बांधकर उसमें यह अद्भुत शक्ति स्‍थापित कर दी है। यह कवच धारण मेरे अस्त्रों के लिये अमेद्य है। श्रीकृष्‍ण! इस कवच के भीतर तीनों लोकों की शक्ति संनिहित है। एकमात्र आचार्य द्रोण ही इस विद्या को जानते हैं और उन्‍हीं सदुरु से सीखकर मैं भी इसे जान पाया हूँ। इस कवच को किसी प्रकार बाणों द्वारा विदीर्ण नहीं किया जा सकता। गोविन्‍द! युद्ध स्‍थल में साक्षात्‌ देवराज इन्‍द्र अपने वज्र से भी इसका विदारण नहीं कर सकते।

     श्रीकृष्‍ण! आप यह सब कुछ जानते हुए भी मुझे मोह में कैसे डाल रहे हैं; केशव! तीनों लोकों में जो बात हो चुकी है, जो हो रही है तथा जो कुछ आगे होने वाली है, वह सब आपको विदित है। मधुसूदन! इसे आप जैसा जानते हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं जानता है। श्रीकृष्‍ण! द्रोणाचार्य द्वारा विधि पूर्वक धारण करायी हुई इस कवच धारणा को ग्रहण करके यह दुर्योधन युद्धस्‍थल में निर्भय-सा खड़ा है। माधव! इसे धारण करने पर जिस कर्तव्‍य के पालन का विधान किया गया है, उसे यह नहीं जानता है। जैसे स्त्रियां गहने पहन लेती हैं, उसी प्रकार यह दूसरे के द्वारा दी हुई इस कवच धारणा को अपनाये हुए है। जनार्दन! अब आप मेरी भुजाओं और धनुष का बल देखिये। मैं कवच से सुरक्षित होने पर भी दुर्योधन को पराजित कर दूंगा। देवेश्रवर! ब्रह्मा जी ने तेजस्‍वी कवच अ‍गिंरा को दिया था। उनसे बृहस्‍पति जी ने प्राप्‍त किया था। बृहस्‍पति जी से वह इन्‍द्र को मिला।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

      फिर देवराज इन्‍द्र ने विधि एवं रहस्‍य सहित वह कवच मुझे प्रदान किया। यदि दुर्योधन का यह कवच देवताओं द्वारा निर्मित हो अथवा स्‍वयं ब्रह्मा जी का बनाया हुआ हो तो भी आज मेरे बाणों द्वारा मारे गये इस दुर्बुद्धि दुर्योधन को यह बचा नहीं सकेगा। संजय कहते हैं- राजन! ऐसा कहकर माननीय अर्जुन ने कठोर आवरण का भेदन करने वाले मानवास्त्र से अपने बाणों को अभिमन्त्रित करके धनुष की डोरी को खींचा। धनुष के बीच में रखकर अर्जुन के द्वारा खींचे जाने वाले उन बाणों को अश्वत्‍थामा ने सर्वास्त्र घातक अस्त्र के द्वारा काट डाला। ब्रह्मवादी अश्वत्‍थामा के दूर से काट दिये गये उन बाणों को देखकर श्‍वेतवाहन अर्जुन चकित हो उठे और श्रीकृष्‍ण को सूचित करते हुए बोले। ‘जनार्दन! इस प्रकार अस्त्र का मैं दो बार प्रयोग नहीं कर सकता; क्‍योंकि ऐसा करने पर यह मुझे ही मार डालेगा और मेरी सेना का भी संहार कर देगा’।

     राजन! इसी समय दुर्योधन ने रणक्षेत्र में विषधर सर्प के समान भयंकर नौ-नौ बाणों से श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को घायल कर दिया। उसने समरभूमि में बड़ी भारी बाण वर्षा करके श्रीकृष्‍ण और पाण्‍डुकुमार धनंजय पर पुन: बाणों की झड़ी लगा दी। इससे आप के सैनिक बड़े प्रसन्‍न हुए। वे बाजे बजाने और सिंहनाद करने लगे। तदनन्‍तर युद्धस्‍थल में कुपित हुए अर्जुन अपने मुंह के कोने चाटने लगे। उन्‍होंने दुर्योधन का कोई भी ऐसा अंग नहीं देखा, जो कवच से सुरक्षित न हो। तदनन्‍तर अर्जुन ने अच्‍छी तरह छोड़े हुए कालोपम तीखे बाणों द्वारा दुर्योधन के चारों घोड़ों और दोनों पृष्‍ठ- रक्षकों को मार डाला। तत्‍पश्रात पराक्रमी सव्‍यसाची अर्जुन ने तुरंत ही उसके धनुष और दस्‍ताने को काट दिया और रथ को टूक-टूक करना आरम्‍भ किया। उस समय पार्थ ने रथहीन हुए दुर्योधन की दोनों हथेलियों में दो पैने बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उपाय को जानने वाले कुन्‍तीकुमार ने अपने बाणों द्वारा दुर्योधन के नखों के मांस में प्रहार किया। तब वह वेदना से व्‍याकुल हो युद्ध भूमि से भाग चला।

      धनंजय के बाणों से पीड़ित हुए दुर्योधन को भारी विपत्ति में पड़ा हुआ देख श्रेष्‍ठ धनुर्धर योद्धा उसकी रक्षा के लिये आ पहुँचे। उन्‍होंने कई हजार रथों, सजे सजाये हाथियों, घोड़ों तथा रोष में भरे पैदल सैनिकों द्वारा अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया। उस समय बड़ी भारी बाण वर्षा और जन समुदाय से घिरे हुए अर्जुन, श्रीकृष्‍ण और उनका रथ- इनमें से कोई भी दिखायी नहीं देता था। तब अर्जुन अपने अस्त्र बल से उस कौरव सेना का विनाश करने लगे। वहाँ सैकड़ों रथ और हाथी अंग-भंग होने के कारण धराशायी हो गये। उन हताहत होने वाले कौरव सैनिकों ने उत्‍तम रथी अर्जुन को आगे बढ़ने से रोक दिया। वे जयद्रथ से एक कोस की दूरी पर चारों ओर से रथ सेना द्वारा घिरे हुए खड़े थे। तब वृष्णिवीर श्रीकृष्‍ण ने तुरंत ही अर्जुन से कहा ‘तुम जोर-जोर से धनुष खींचो और मैं अपना शंख बजाउंगा’। यह सुनकर अर्जुन ने बड़े जोर से गाण्‍डीव धनुष को खींचकर हथेली के चटपट श्‍ब्‍द के साथ भारी बाण वर्षा करते हुए शत्रुओं का संहार आरम्‍भ किया। बलवान केशव ने उच्‍चस्‍वर से पाच्‍चजन्‍य शंख बजाया। उस समय उनकी पलकें धूलधूसरित हो रही थी और उनके मुख पर बहुत सी पसीने की बूंदें छा रही थीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रयधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-49 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘नरेश्रवर! भगवान श्रीकृष्‍ण के दोनों ओठों से भरी हुई वायु शंख भीतरी भाग में प्रवेश करके पुष्‍ट हो जब गम्‍भीर नाद के रुप में बाहर निकली, उस समय असुरलोक (पाताल), अन्‍तरिक्ष, देवलोक और लोकपालों सहित सम्‍पूर्ण जगत भय से उद्विग्‍न हो विदीर्ण होता-सा जान पड़ा। उस शंख की ध्‍वनि और धनुष की टंकार से उद्विग्‍न हो निर्मल और सबल सभी शत्रु-सैनिक उस समय पृथ्‍वी पर गिर पड़े। उनके घेरे से मुक्‍त हुआ अर्जुन का रथ वायु संचालित मेघ के समान शोभा पाने लगा।

     इससे जयद्रथ के रक्षक सेवकों सहित क्षुब्‍ध हो उठे। जयद्रथ की रक्षा में नियुक्त हुए महाधनुर्धर वीर सहसा अर्जुन को देखकर पृथ्‍वी को कंपाते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उन महानस्‍वी वीरों ने शंख ध्‍वनि से मिले हुए बाण जनित भयंकर शब्‍दों और सिंहनाद को भी प्रकट किया। आपके सैनिकों द्वारा किये हुए उस भयंकर कोलाहल को सुनकर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने अपने श्रेष्‍ठ शंख को बजाया। प्रजानाथ! उस महान शब्‍द से पर्वत, समुद्र, द्वीप और पाताल सहित य‍ह सारी पृथ्‍वी गूंज उठी। भरतश्रेष्‍ठ! वह शब्‍द सम्‍पूर्ण दसों दिशाओं में व्‍याप्‍त होकर वहीं कौरव-पाण्‍डव सेनाओं में प्रतिध्‍वनित होता रहा। आप के रथी और महारथी वहाँ श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को उपस्थित देख बड़े भारी उद्वेग में पड़कर उतावले हो उठे। आपके योद्धा कवच धारण किये महाभाग श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को आया हुआ देख कुपित हो उनकी ओर दौड़े, यह एक अद्भुत-सी बात हुई।

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में दुर्योधन पराजय विषयक एक सौ तीनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का कौरव महारथियों के साथ घोर युद्ध”

   संजय कहते हैं ;- राजन! आपके सैनिक इस प्रकार वृष्णि और अन्‍धवंश के श्रेष्‍ठ पुरुष तथा कुरुकुल रत्न अर्जुन को आगे देखकर उनका वध करने की इच्‍छा से उतावले हो उठे। इसी प्रकार अर्जुन भी शत्रुओं के वध की अभिलाषा से शीघ्रता करने लगे। वे कौरव सैनिक व्‍याघ्रचर्म से आच्‍छादित सुवर्णजटित और गम्‍भीर घोष करने वाले प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी विशाल रथों द्वारा सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। पृथ्‍वीपते! वे सोने के पंखवाले दुर्लभ्‍य बाणों और क्रोध में भरे हुए घोड़ों के समान अनुपम टंकार ध्‍वनि करने वाले धनुषों के द्वारा भी समस्‍त दिशाओं में दीप्ति बिखेर रहे थे। भूरिश्रवा, शल, कर्ण, वृषसेन, जयद्रथ, कृपाचार्य, मद्रराज शल्य तथा रथियों में श्रेष्‍ठ अश्वत्‍थामा- ये आठ महारथी व्‍याघ्रचर्म द्वारा आच्‍छादित तथा सुवर्णमय चन्‍द्रचिहों से सुशोभित कर रहे थे। रोस में भरे हुए उन कवचधारी वीरों ने मेघ के समान गम्‍भीर गर्जना करने वाले रथों और पैने वाणों द्वारा अर्जुन की दसों दिशाओं को आच्‍छादित कर दिया कुलूत देश के विचित्र एवं दिशाओं को प्रकाशित करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। राजन! नाना देशों में उत्‍पन्‍न महान वेगशाली आजानेय, पर्वतीय (पहाड़ी), नदीज (दरियाई) तथा सिंधु देशीय उत्‍तम घोड़ों द्वारा आप के पुत्र की रक्षा के लिये उत्‍सुक हुए श्रेष्‍ठ कौरव योद्धा सब ओर से शीघ्र ही अर्जुन के रथ पर टूट पड़े।
     नरेश्वर! उन पुरुषप्रवर योद्धाओं ने पृथ्‍वी और आकाश को शब्‍दों से व्‍याप्‍त करते हुए बड़े-बड़े शंख लेकर बजाये। इसी प्रकार सम्‍पूर्ण देवताओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भूतल के समस्‍त शंखों में उत्‍तम अपने दिव्‍य शंख बजाने लगे। कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने देवदत्‍त नामक शंख और श्रीकृष्‍ण ने पांचजन्‍य। धनंजय के बजाये हुए देवदत्त का शब्‍द पृथ्‍वी, आकाश तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में व्‍याप्‍त हो गया। इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्‍ण के बजाये हुए पाञ्चजन्‍य ने भी सम्‍पूर्ण शब्‍दों को दबाकर अपनी ध्‍वनि से पृथ्‍वी और आकाश को भर दिया। राजेन्‍द्र! इस प्रकार जब वहाँ भयंकर शब्‍द व्‍याप्‍त हो गया, जो कायरों को डराने और शूरवीरों के हर्ष को बढ़ाने वाला था, जब मेरी, झांझ, ढोल और मृदंग आदि अनेक प्रकार के बाजे बजने और बजाये जाने लगे, उस समय दुर्योधन का हित चाहने वाले विख्‍यात महारथी उस शब्‍द को न सह सकने के कारण कुपित हो उठे। वे नाना देशों में उत्‍पन्‍न वीर, महारथी, महाधनुर्धर महीपाल, जो अपनी सेना का संरक्षण कर रहे थे, अमर्ष में भरकर बड़े-बड़े शंख बजाने लगे; वे श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के प्रत्‍येक कार्य का बदला चुकाने को उद्यत थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रभो! आप की वह सेना शंख के शब्‍द से व्‍याप्‍त होने के कारण अस्‍वस्‍थ-सी दिखायी देती थी। उसके हाथी, घोड़े और रथी सभी उद्विग्‍न हो उठे थे। शूरवीरों ने शंख ध्‍वनि से आकाश को विद्ध सा कर डाला। वह वज्र की गड़गड़ाहट से व्‍याप्‍त सा होकर अत्‍यन्त उद्वेग जनक हो गया। राजन! प्रलयकाल के समान सब ओर फैला हुआ वह महान शब्‍द सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करने और आपकी सेना को डराने लगा।
       तदनन्‍तर दुर्योधन तथा आठ महारथी नरेशों ने जयद्रथ की रक्षा के लिये अर्जुन को घेर लिया। उस समय अश्वत्‍थामा ने भगवान श्रीकृष्‍ण को तिहत्‍तर बाण मारे, तीन भल्‍लों से अर्जुन को चोट पहुँचायी और पांच से उनके ध्‍वज एवं घोड़ों को घायल कर दिया। श्रीकृष्‍ण के घायल हो जाने पर अर्जुन अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे। उन्‍होंने छ: सौ बाणों द्वारा अश्वत्‍थामा को क्षत-विक्षत कर दिया। फिर पराक्रमी अर्जुन ने दस बाणों से कर्ण को और तीन बाणों द्वारा वृषसेन को घायल करके राजा शल्‍य के बाण सहित धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट डाला। तब शल्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन को बींध डाला। भूरिश्रवा ने सान पर तेज किये हुए सूवर्णमय पंख वाले तीन बाणों से उन्‍हें घायल कर दिया। फिर कर्ण ने बत्‍तीस , वृषसेन ने सात, जयद्रथ ने तिहत्‍तर, कृपाचार्य ने दस तथा मद्रराज शल्‍य ने भी दस बाण मारकर रणक्षेत्र में अर्जुन को बींध डाला। तत्‍पश्रात अश्वत्‍थामा ने अर्जुन पर साठ बाण बरसाये, फिर श्रीकृष्‍ण को बीस और अर्जुन को भी पांच बाण मारे।
      तब श्रीकृष्‍ण जिनके सारथि हैं, उन श्वेतवाहन पुरुषसिंह अर्जुन ने जोर-जोर से हंसते और हाथों की फुर्ती दिखाते हुए उन सबको बींधकर बदला चुकाया। कर्ण को बारह और वृषसेन को तीन बाणों से घायल कर‍के राजा शल्य के बाण सहित धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से पुन: काट डाला। इसके बाद भूरिश्रवा को तीन और शल्य को दस बाणों से बींधकर अग्‍नि की ज्‍वाला के समान आकार वाले आठ तीखे बाणों द्वारा अश्वत्‍थामा को घायल कर दिया। तत्‍पश्रात पचीस, जयद्रथ को सौ तथा अश्वत्‍थामा को पुन: उन्‍होंने सत्‍तर बाण मारे। भूरिश्रवा ने कुपित होकर श्रीकृष्‍ण का चाबुक काट डाला और अर्जुन को तिहत्‍तर बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। तदनन्‍तर जैसे प्रचंण्‍ड वायु बादलों को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है, उसी प्रकार श्‍वेत वाहन अर्जुन ने कुपित हो सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा उन शत्रुओं को तुरंत पीछे हटा दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में संकुलयुद्ध विषयक एक सौ चारवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

एक सौ पाँचवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन तथा कौरव-महारथियों के ध्‍वजों का वर्णन और नौ महारथियों के साथ अकेले अर्जुन का युद्ध”

    धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! मेरे तथा कुन्‍ती के पुत्रों के जो नाना प्रकार के ध्‍वज अत्‍यन्‍त शोभा से उद्भासित हो रहे थे, उनका मुझसे वर्णन करो। 
   संजय ने कहा ;- राजन! उन महामनस्‍वी वीरों के जो नाना प्रकार की आकृति वाले ध्‍वज फहरा रहे थे, उनका रुप रंग और नाम मैं बता रहा हूं, सुनिये।
      राजेन्‍द्र! उन श्रेष्‍ठ महारथियों के रथों पर भाँति-भाँति के ध्‍वज प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी दिखायी देते थे। वे ध्‍वज सोने के बने थे। उनके ऊपरी भाग को सुवर्ण से ही सजाया गया था। सोने की ही मालाओं से वे अलंकृत थे। अत: सुवर्णमय महापर्वत सुमेरु के स्‍वर्णमय शिखरों के समान सुशोभित होते। वे परम शोभा सम्‍पन्‍न अनेक प्रकार के बहुरंगे ध्‍वज सब ओर से नाना रंग की पताकाओं द्वारा घिरकर बड़ी शोभा पाते। उनकी वे पताकाएं वायु से संचालित हो रंगमंच पर नृत्‍य करने वाली विलासिनियो के समान दिखायी देती थी। भरत श्रेष्‍ठ! इन्‍द्र धनुष के समान प्रभावाली फहराती हुई पताकाएं रथियों के विशाल रथों की शोभा बढ़ाती थीं। उस संग्राम में अर्जुन का भंयकर ध्‍वज वानर के चिह्न से सुशोभित दिखायी देता था। उस वानर की पूंछ सिंह के समान थी और उसका मुख बड़ा ही उग्र था। राजन! श्रेष्‍ठ वानर से सुशोभित तथा पताकाओं से अलंकृत गाण्‍डीवधारी अर्जुन का वह ध्‍वज आपकी उस सेना को भयभीत किये देता था। भारत! इसी प्रकार हम लोगों ने द्रोण पुत्र अश्वत्‍थामा के श्रेष्‍ठ ध्‍वज को प्रात:कालीन सूर्य के समान अरुण कान्ति से प्रकाशित देखा था। उसमें सिंह की पूंछ का चिह्न था। अश्वत्‍थामा का इन्‍द्रध्‍वज के समान प्रकाशमान सुवर्णमय ऊँचा ध्‍वज वायु की प्रेरणा से फहराता हुआ कौरव नरेशों का आनन्‍द बढ़ा रहा था। अधिरथ पुत्र कर्ण का ध्‍वज हाथी की सुवर्णमयी रस्‍सी के चिह्न युक्‍त था। महाराज! वह संग्राम में आकाश को भरता हुआ-सा दिखायी देता था। युद्धस्‍थल में कर्ण के ध्‍वज पर सुवर्णमयी माला से विभूषित पताका वायु से आन्‍दोलित हो रथ की बैठक पर नृत्‍य-सा कर रही थी।
     पाण्‍डवों के आचार्य, तपस्‍वी ब्राह्मण, गौतम गोत्रीय कृपाचार्य के ध्‍वज पर एक बैल का सुन्‍दर चिह्न अंकित था, राजन! उनका वह विशाल रथ उस वृषभ चिह्न से बड़ी शोभा पा रहा था; ठीक उसी तरह, जैसे त्रिपुर नाशक महादेवजी का रथ सुन्‍दर वृषभ चिह्न से शोभायमान होता था। वृषसेन का मणिरत्‍न विभूषित सुवर्णमय ध्‍वज मयूर चिह्न से युक्‍त था। वह मयूर सेना के अग्रभाग की शोभा बढ़ाता हुआ इस प्रकार खड़ा था, मानो बोल देगा। राजेन्‍द्र! जैसे स्‍वामी स्‍कन्‍द का रथ सुन्‍दर मयूर चिह्न से शोभित होता है, उसी प्रकार महामना वृषसेन का रथ उस मयूर चिह्न से शोभा पा रहा था। मद्रराज शल्य की ध्‍वजा के अग्रभाग में हम ने अग्रि शिखा के समान उज्‍जवल, सुवर्णमय, अनुपम तथा शुभ लक्षणों से युक्‍त एक 'सीता' (हल से खींची हुई रेखा) देखी थी। माननीय नरेश! जैसे खेत में हल की नोक से बनी हुई रेखा सभी बीजों के अंकुरित होने पर शोभा सम्‍पन्‍न दिखायी देती है, उसी प्रकार मद्रराज के रथ का आश्रय ले वह सीता (हल द्वारा बनी हुई रेखा) बड़ी शोभा पा रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

     सिन्‍धुराज जयद्रथ की ध्वजा के अग्रभाग में उज्‍ज्वल सूर्य के समान श्‍वेत कान्तिमान और सोने की जाली से विभूषित चांदी का बना हुआ वराहचिह्न अत्‍यन्‍त सुशोभित हो रहा था। जैसे पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम में पूषा शोभा पाते थे, उसी प्रकार उस रजत निर्मित ध्‍वज से जयद्रथ की शोभा हो रही थी। सदा यज्ञ में लगे रहने वाले बुद्धिमान भूरिश्रवा के रथ में यूप का चिह्न बना था। वह ध्‍वज सूर्य के समान प्रकाशित होता था और उसमें चन्‍द्रमा का चिह्न भी दृष्टि गोचर होता था। राजन! जैसे यज्ञों में श्रेष्‍ठ राजसूय में ऊँचा यूप सुशोभित होता है, भूरिश्रवा का वह सुवर्णमय यूप वैसे ही शोभा पा रहा था। जैसे श्‍वेत वर्ण का महान ऐरावत हाथी देवराज की सेना को सुशोभित करता है, उसी प्रकार राजा दुर्योधन का सुवर्ण मण्डित ध्‍वज गजराज के चिह्न से उपलक्षित होता था। प्रजानाथ! वह विचित्र ध्वज दुर्योधन के उत्तम रथ पर सैकड़ों क्षुद्रघंटिकाओं की ध्‍वनि से शोभायमान था। उस महान ध्‍वज से युद्ध स्‍थल में आपके पुत्र कुरुश्रेष्‍ठ दुर्योधन की उस समय बड़ी शोभा हो रही थी। ये नौ उत्‍तम ध्‍वज आपकी सेना मे बहुत उंचे थे और प्रलय काल के सूर्य के समान अपना प्रकाश फैलाये हुए आपकी सेना को उद्भासित कर रहे थे। दसवां ध्‍वज एकमात्र अर्जुन का ही था, जो विशाल वानरचिह्न से सुशोभित था। उससे अर्जुन उसी प्रकार देदीप्‍यमान हो रहे थे, जैसे अग्नि से हिमालय पर्वत उद्भासित होता है।
      तदनन्‍तर शत्रुओं को संताप देने वाले उन सब महारथियों ने अर्जुन को मारने के लिये तुरंत ही विचित्र, चमकीले और विशाल धनुष हाथ में ले लिये। राजन! उसी प्रकार दिव्‍य कर्म करने वाले शत्रु नाशन पार्थ ने भी आपकी कुमन्त्रणा के फलस्‍वरुप अपने गाण्‍डीव धनुष को खींचा। महाराज! आपके अपराध से उस युद्धस्‍थल में अनेक दिशाओं से आमन्त्रित होकर आये हुए बहुत से राजा अपने घोड़ों, रथों और हाथियों सहित मारे गये हैं। उस समय एक दूसरे को लक्ष्‍य करके गर्जना करने वाले दुर्योधन आदि महारथियों तथा पाण्‍डव श्रेष्‍ठ अर्जुन में परस्‍पर आघात प्रतिघात होने लगा।
     वहाँ श्रीकृष्‍ण जिनके सारथि हैं, उन कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने यह अत्‍यन्‍त अद्भुत पराक्रम किया कि अकेले ही बहुतों के साथ निर्भय होकर युद्ध आरम्‍भ कर दिया। उन पर विजय पाने की इच्‍छा रखकर जयद्रथ के वध की अभिलाषा से गाण्‍डीव धनुष को खींचते हुए पुरुष सिंह महाबाहु अर्जुन की बड़ी शोभा हो रही थी। उस समय शत्रुओं को संताप देने वाले नरव्‍याघ्र अर्जुन ने अपने छोड़े हुए सहस्‍त्रों बाणों द्वारा आपके योद्धाओं को अदृश्‍य कर दिया। तब उन सभी पुरुषसिंह महारथियों ने भी समरागंण में सब ओर से बाणसमूहों की वर्षा करके अर्जुन को अदृश्‍य कर दिया। जब कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन उन पुरुषसिंहों द्वारा घेर लिये गये, तब उस सेना में महान कोलाहल प्रकट हुआ। अ

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में ध्‍वज वर्णन विषयक एक सौ पांचवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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