सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन और द्रोणाचार्य का वार्तालाप तथा एवं द्रोणाचार्य को छोड़कर आगे बढे़ हुए अर्जुन का कौरव सैनिकों द्वारा प्रतिरोध”
संजय कहते हैं ;- राजन! दुःशासन की सेना का संहार करके सव्यसाची महारथी अर्जुन ने सिन्धुराज जयद्रथ को पाने की इच्छा रखकर द्रोणाचार्य की सेना पर धावा किया। व्यूह के मुहाने खडे़ हुए आचार्य द्रोण के पास पहुँचकर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति ले साथ जोड़कर इस प्रकार कहा। 'ब्रह्मन! आप मेरा कल्याण चिन्तन कीजिये। मुझे स्वस्ति कहकर आशीर्वाद दीजिये। मैं आप की कृपा से ही इस दुर्भेद्य सेना के भीतर प्रवेश करना चाहता हूँ।' 'आप मेरे लिये पिता पाण्डु भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर तथा सखा श्रीकृष्ण के समान हैं। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ।' 'तात! निष्पाप द्विजश्रेष्ठ! जैसे अश्वत्थामा आपके लिये रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मैं भी सदैव आपसे संरक्षण पाने का अधिकारी हूँ।'
नरश्रेष्ठ! मैं आपके प्रसाद से इस युद्ध में सिन्धुराज जयद्रथ को मारना चाहता हूँ। प्रभो! आप मेरी इस प्रतिज्ञा की रक्षा कीजिये।'
संजय कहते हैं ;- महाराज! अर्जुन के ऐसा कहने पर उस समय द्रोणाचार्य ने उन्हें हँसते हुए-से उत्तर दिया,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- 'अर्जुन! मुझे पराजित किये बिना जयद्रथ को जीतना असम्भव है।' अर्जुन से इतना ही कहकर द्रोणाचार्य ने हँसते-हँसते रथ, घोडे़, ध्वज तथा सारथि सहित उनके ऊपर तीखे बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी। तब अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य के बाण-समूहों का निवारण करके बड़े-बड़े़ भयंकर बाणों द्वारा उन पर आक्रमण किया।
प्रजानाथ! उन्होंने द्रोणाचार्य का समादर करते हुए क्षत्रिय-धर्म आश्रय ले पुनः नौ बाणों द्वारा उनके चरणों में आघात किया। द्रोणाचार्य ने अपने बाणों द्वारा अर्जुन के उन बाणों को काटकर प्रज्वलित विष एवं अग्नि के समान तेजस्वी बाणों से श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को घायल कर दिया। तब पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य के धनुष को काट देने की इच्छा की। महामना अर्जुन अभी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि पराक्रमी द्रोणाचार्य ने बिना किसी घबराहट के अपने बाणों द्वारा शीघ्र ही उनके धनुष की प्रत्यंचा काट डाली और अर्जुन के घोड़ों, ध्वज और सारथि को भी बींध डाला। इतना ही नहीं, वीर द्रोणाचार्य ने मुस्कराकर अर्जुन को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित कर दिया। इसी बीच में सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपने विशाल धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और आचार्य से बढ़कर पराक्रम दिखाने की इच्छा से तुरंत छः सौ बाण छोडे़। उन बाणों को उन्होंने इस प्रकार हाथ में ले लिया था, मानो एक ही बाण हो।
तत्पश्चात सात सौ और फिर एक हजार ऐसे बाण छोडे़ जो किसी प्रकार प्रतिहत होने वाले नहीं थे। तदनन्तर अर्जुन ने दस-दस हजार बाणों द्वारा प्रहार किया। उन सभी बाणों ने द्रोणाचार्य की उस सेना का संहार कर डाला। विचित्र रीति से युद्ध करने वाले अस्त्रवेत्ता महाबली अर्जुन के द्वारा भली-भाँति चलाये हुए उन बाणों से घायल हो बहुत-से मनुष्य, घोडे़ और हाथी प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पडे़। अर्जुन के बाणों से पीड़ित हुए बहुतेरे रथी, सारथि, अश्व, ध्वज, अस्त्र-शस्त्र और प्राणों से भी वंचित हो सहसा श्रेष्ठ रथों से नीचे जा गिरे।
वज्र के आघात से चुर-चुर हुए पर्वतों, वायु के द्वारा संचालित हुए भयंकर बादलों तथा आग में जले हुए ग्रहों के समान रुप वाले बहुत-से हाथी धराशायी हो रहे थे। अर्जुन के बाणों से मारे गये सहस्त्रों घोड़े रणभूमि में उसी प्रकार पड़े थे, जैसे वर्षा के जल से आहत हुए बहुत-से हंस हिमालय की तलहटी में पड़े हुए हों। प्रलयकाल के सूर्य की किरणों के समान अर्जुन के तेजस्वी बाणों द्वारा मारे गये रथ, घोड़े, हाथी और पैदलों के समूह सूर्यकिरणों द्वारा सोखे गये अद्भुत जलप्रवाह के समान जान पड़ते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 22-44 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे बादल सूर्य की किरणों को छिपा देता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य रुपी मेघ ने अपनी बाण वर्षा के वेग से अर्जुनरुपी सूर्य के इस बाण रुपी किरण समूह को आच्छादित कर दिया, जो युद्ध में मुख्य- मुख्य कौरव वीरों को संतप्त कर रहा था। तत्पश्रात शत्रुओं के प्राण लेने वाले एक नाराच का प्रहार करके द्रोणाचार्य ने अर्जुन की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। उस आघात से अर्जुन का सारा शरीर विहल हो गया, मानो भूकम्प होने पर पर्वत हिल उठा हो। तथापि अर्जुन ने धैर्य धारण करके पंखयुक्त बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। फिर द्रोण ने भी पांच बाणों से भगवान श्रीकृष्ण को, तिहत्तर बाणों से अर्जुन को तीन बाणों द्वारा उनके ध्वज को भी चोट पहुँचायी।
राजन! पराक्रमी द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य अर्जुन से अधिक पराक्रम प्रकट करने की इच्छा रखकर पलक मारते-मारते अपने बाणों की वर्षा द्वारा अर्जुन को अद्दश्य कर दिया। हमने देखा, द्रोणाचार्य के बाण परस्पर सटे हुए गिरते थे। उनका अद्भुत धनुष सदा मण्डलाकार ही दिखायी देता था। राजन्। उस समरागड़ण में द्रोणाचार्य के छोड़े हुए कंकपत्रविभूषित बहुत-से बाण श्रीकृष्ण और अर्जुन पर पड़ने लगे। उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुन का वैसा युद्ध देखकर परम बुद्धिमान वसुदेवनन्दन श्री कृष्ण मन-ही-मन कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। तत्पश्रात श्रीकृष्ण अर्जुन से इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘अर्जुन! अर्जुन! महाबाहो! हमारा अधिक समय यहाँ न बीत जाय, इसलिये द्रोणाचार्य को छोड़कर आगे चलें यही इस समय सबसे महान कार्य है’। तब अर्जुन ने भी सच्चिदानन्दस्वरुप केशव से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- ‘प्रभो! आपकी जैसी रूचि हो, वैसा कीजिये।, तत्पश्चात अर्जुन महाबाहु द्रोणाचार्य की परिक्रमा करके लौट पड़े और बाणों की वर्षा करते हुए आगे चले गये। यह देख द्रोणाचार्य ने स्वयं कहा-‘पाण्डुनन्दन! तुम इस प्रकार कहाँ चले जा रहे हो तुम तो रणक्षेत्र में शत्रु को पराजित किये बिना कभी नहीं लौटते थे’।
अर्जुन बोले ;- ब्रह्मन! आप मेरे गुरु हैं। शत्रु नहीं हैं। मैं आपका पुत्र के समान प्रिय शिष्य हूँ। इस जगत में ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो युद्ध में आपको पराजित कर सके। संजय कहते हैं-राजन! ऐसा कहते हुए महाबाहु अर्जुन ने जयद्रथ वध के लिये उत्सुक हो बड़ी उतावली के साथ आपकी सेना पर धावा किया। आपकी सेना में प्रवेश करते समय उनके पीछे-पीछे पाञ्चाल वीर महामना युधामन्यु और उत्तमौजा चक्र-रक्षक होकर गये। महाराज! तब जय, सात्वत-वंशी कृतवर्मा, काम्बोज-नरेश तथा श्रुतायु ने सामने आकर अर्जुन को रोका। इनके पीछे दस हजार रथी, अभीषाह, शूरसेन, शिबि, वसाति, मावेल्लक, ललित्थ, केकय, मद्रक, नारायण नामक गोपालगण तथा काम्बोजदेशीय सैनिकगण भी थे। इन सबको पूर्वकाल में कर्ण ने रण भूमि में जीतकर अपने अधीन कर लिया था। ये सब-के-सब शूरवीरों द्वारा सम्मानित योद्धा थे और प्रसन्नचित हो द्रोणाचार्य को आगे करके अर्जुन पर पढ़ आये थे। अर्जुन पुत्र शोक से संतप्त एवं कुपित हुए प्राणान्तक मृत्यु के समान प्रतीत होते थे। वे उस भयंकर युद्ध में अपने प्राणों को निछावर करने के लिये उद्यत, कवच आदि से सुसज्जित और विचित्र रीति से युद्ध करने वाले थे। जैसे यूथपति गजराज गज समूह में प्रवेश करता है, उसी प्रकार आपकी सेनाओं में घुसते हुए महाधनुर्धर परम पराक्रमी उन नरश्रेष्ठ अर्जुन को पूर्वोक्त योद्धाओं ने आकर रोका। तदनन्तर एक दूसरे को ललकारते हुए कौरव योद्धाओं तथा अर्जुन में रोमांचकारी एवं भयंकर युद्ध छिड़ गया। जैसे चिकित्साकी क्रिया उभड़ते हुए रोग को रोक देती है, उसी प्रकार जयद्रथ का वध करने की इच्छा से आते हुए पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन को समस्त कौरव वीरों ने एक साथ मिलकर रोक दिया।
(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथवध पर्व में द्रोणातिक्रमण विषयक इक्यानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
बानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का द्रोणाचार्य और कृतवर्मा के साथ युद्ध करते हुए कौरव-सेना में प्रवेश तथा श्रुतायुध का अपनी गदा से सुदक्षिणका अर्जुन द्वारा वध”
संजय कहते हैं ;- राजन! रथियों में श्रेष्ठ एवं महान बल और पराक्रम से सम्पन्न अर्जुन जब उन कौरव सैनिकों द्वारा रोक दिये गये, उस समय द्रोणाचार्य ने भी तुरंत ही उनका पीछा किया। जैसे रोगों का समुदाय संतप्त कर देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने कौरवों की उस सेना को अत्यन्त संताप दिया। जैसे सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों का प्रसार करते हैं, उसी प्रकार वे तीखे बाण समूहों की वर्षा करने लगे। उन्होंने घोड़ों को घायल कर दिया, रथ के टुकड़े –टुकड़े कर डाले, गजारोहियों सहित हाथी को मार गिराया, छत्र इधर-उधर बिखेर दिये तथा रथों को पहियों से सूना कर दिया। उनके बाणों से पीड़ित होकर सारे सैनिक सब ओर भाग चले। वहाँ इस प्रकार भयंकर युद्ध हो रहा था कि किसी को कुछ भी भान नहीं हो रहा था। राजन! उस युद्ध स्थल में कौरव-सैनिक एक दूसरे को काबू में रखने का प्रयत्न करते थे और अर्जुन अपने बाणों द्वारा उनकी सेना को बारंबार कम्पित कर रहे थे।
सत्यप्रतिज्ञ शवेतवाहन अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा सच्ची करने की इच्छा से लाल घोड़े वाले रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य पर धावा किया। उस समय आचार्य द्रोण ने अपने महाधनुर्धर शिष्य अर्जुन को पच्चीस मर्म भेदी बाणों द्वारा घायल कर दिया। तब सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने भी तुरंत ही उनके बाणों के वेग का विनाश करने वाले भल्लों का प्रहार करते हुए उन पर आक्रमण किया। अमेय आत्मबल से सम्पन्न द्रोणाचार्य ने अर्जुन के तुरंत चलाये हुए उन भल्लों को झुकी हुई गांठ वाले भल्लों द्वारा ही काट दिया और ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। उस युद्ध स्थल में द्रोणाचार्य अद्भुत अस्त्र शिक्षा हमने देखी कि नवयुवक अर्जुन प्रयत्नशील होने पर भी उन्हें अपने बाणों द्वारा चोट न पहंचा सके। जैसे महान मेघ जल की सहस्त्रों धाराएं बरसाता रहता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य रुपी मेघ ने अर्जुन रुपी पर्वत पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी।
पूजनीय नरेश! उस समय अपने बाणों द्वारा उनके बाणों को काटते हुए तेजस्वी अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र द्वारा ही आचार्य की उस बाण-वर्षा को रोका। तब द्रोणाचार्य ने पच्चीस बाण मारकर श्वेतवाहन अर्जुन को पीड़ित कर दिया। साथ ही श्रीकृष्ण की भुजाओं तथा वक्ष:स्थल में भी उन्होंने सत्तर बाण मारे। परम बुद्धिमान अर्जुन ने हंसते हुए ही युद्ध स्थल में तीखे बाणों की बौछार करने वाले द्रौणाचार्य को उनकी बाण-वर्षा सहित रोक दिया। तदनन्तर द्रोणाचार्य के द्वारा घायल किये जाते हुए वे दोनों रथि श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन उस समय प्रलय काल की अग्नि के समान उठे हुए उन दुर्धर्ष आचार्य को छोड़कर अन्यत्र चल दिये। द्रोणाचार्य के धनुष से छुटे हुए तीखे बाणों का निवारण करते हुए किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन ने कृतवर्मा की सेना का संहार आरम्भ किया वे मैनाक पर्वत की भाँति अविचल भाव से स्थित द्रोणाचार्य को छोड़ते हुए कृतवर्मा तथा काम्बोजराज सुदक्षिण के बीच से होकर निकले तब पुरुषसिंह कृतवर्मा ने कुरुकुल के श्रेष्ठ एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुन को कंकपत्र युक्त दस बाणों द्वारा तुरंत ही घायल कर दिया। उस समय उसके मन में तनिक भी व्यग्रता नहीं हुई।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्। अर्जुन कृत वर्मा को उस युद्ध स्थल में सौ बाणों-द्वारा बींध डाला। फिर उसे मोहित-सा करते हुए उन्होंने तीन बाण और मारे। राजन! अर्जुन कृतवर्मा को उस युद्ध स्थल में सौ बाणों-द्वारा बींध डाला। फिर उसे मोहित-सा करते हुए उन्होंने तीन बाण और मारे। तब कृतवर्मा ने भी हंसकर कुन्तीकुमार अर्जुन और मघु-वंशी भगवान वासुदेव में से प्रत्येक को पच्चीस-पच्चीस बाण मारे। यह देख अर्जुन ने उसके धनुष को काटकर क्रोध में भरे हुए विषधर को सर्प के समान भंयकर और आग की लपटों के समान तेजस्वी इक्कीस बाणों द्वारा उसे भी घायल कर दिया। भारत! तब महारथी कृतवर्मा ने दूसरा धनुष लेकर तुरंत ही पांच बाणों से अर्जुन की छाती में चोट पहुँचायी। फिर पांच तीखे बाण और मारकर अर्जुन को घायल कर दिया। यह देख अर्जुन ने कृतवर्मा की छाती में नौ बाण मारे। कुन्तीकुमार अर्जुन को कृतवर्मा के रथ से उलझे हुए देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन सोचा कि हम लोगों का अधिक समय यहीं न व्यतीत हो जाय। तत्पश्रात श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ‘तुम कृतवर्मा पर दया न करो। इस समय सम्बन्धी होने का विचार छोड़कर इसे मथकर मार डालो’। तब अर्जुन अपने बाणों द्वारा कृतवर्मा को मूर्च्छित करके अपने वेगशाली घोड़ों द्वारा काम्बोजों की सेना पर आक्रमण करने लगे।
श्वेतवहान अर्जुन के व्यूह में प्रवेश कर जाने पर कृतवर्मा को बड़ा क्रोध हुआ। वह बाण सहित धनुष को हिलाता हुआ पाञ्चाल राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा से भिड़ गया। वे दोनों पाञ्चाल वीर अर्जुन के चक्र रक्षक होकर उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। कृतवर्मा ने अपने रथ और बाणों द्वारा वहाँ आते हुए उन दोनों वीरों को रोक दिया। भोजवंशी कृतवर्मा ने अपने तीन तीखे बाणों द्वारा युधामन्यु को और चार बाणों से उत्तमौजा को घायल कर दिया। तब उन दोनों ने भी कृतवर्मा को दस-दस बाणों से बींध दिया। फिर युधामन्यु ने तीन और उत्तमौजा ने भी तीन बाणों द्वारा उसे चोट पहंचायी। साथ ही उन्होंने कृतवर्मा के ध्वज और धनुष को भी काट डाला। यह देख कृतवर्मा क्रोध से मूर्च्छित हो उठा और उसने दूसरा धनुष हाथ में लेकर उन दोनों वीरों के धनुष काट दिये। तत्पश्रात वह उन पर बाणों की वर्षा करने लगा।
इसी तरह वे दोनों पाञ्चाल वीर भी दूसरे धनुषों पर डोरी चढ़ाकर भोजवंशी कृतवर्मा को चोट पहुचाने लगे। इसी बीच में अवसर पाकर अर्जुन शत्रुओं की सेना में घुस गये। परंतु कृतवर्मा द्वारा रोक दिये जाने के कारण वे दोनों नर श्रेष्ठ युधामन्यु और उत्तमौजा प्रयत्न करने पर भी आपके पुत्रों की सेना में प्रवेश करने का द्वार न पा सके। श्वेत घोड़ों वाले शत्रुसूदन अर्जुन उस युद्ध स्थल में बड़ी उतावली के साथ शत्रु-सेनाओं को पीड़ा दे रहे थे। परंतु उन्होंने (सम्बन्धका ) विचार करके ) कृत वर्मा को सामने पाकर भी मारा नहीं। अर्जुन को इस प्रकार आगे बढ़ते देख शूरवीर राजा श्रुतायुध अत्यन्त कुपित हो उठे और अपना विशाल धनुष हिलाते हुए उन पर टूट पड़े। उन्होंने अर्जुन को तीन और श्री कृष्ण को सत्तर बाण मारे। फिर अत्यन्त तीखे क्षुरप्र से अर्जुन की ध्व्जा पर प्रहार किया। तब अर्जुन ने अत्यन्त कुपित होकर अंकुशों से महान गजराज को पीड़ित करने की भाँति झुकी हुई गांठवाले नब्बे बाणों से राजा श्रुतायुध को चोट पहुँचायी।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! उस समय राजा श्रुतायुध पाण्डुकुमार अर्जुन के उस पराक्रम को न सह सके। अत: उन्होंने अर्जुन को सतहत्तर बाण मारे। तब अर्जुन ने उनका धनुष काटकर उनके तरकस के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर कुपित हो झुकी हुई गांठ वाले सात बाणों द्वारा उनकी छाती पर प्रहार किया। फिर तो राजा श्रुतायुध ने क्रोध से अचेत होकर दूसरा धनुष हाथ में लिया और इन्द्रकुमार अर्जुन की भुजाओं तथा वक्ष:स्थल में नौ बाण मारे। भारत! यह देख शत्रुदमन अर्जुन ने मुस्कराते हुए ही श्रुतायुध को कई हजार बाण मारकर पीड़ित कर दिया। साथ ही उन महारथी एवं महाबली वीर ने उनके घोडों और सारथि को भी शीघ्रतापूर्वक मार डाला और सत्तर नाराचों से श्रुतायुध को भी घायल कर दिया।
घोड़ों के मारे जाने पर पराक्रमी राजा श्रुतायुध उस रथ को छोड़कर हाथ में गदा ले समरागंण में अर्जुन पर टूट पड़े। वीर राजा श्रुतायुध वरुण के पुत्र थे। शीतसलिला महानदी पर्णाशा उनकी माता थी। राजन! उनकी माता पर्णाशा अपने पुत्र के लिये वरुण से बोली,
पर्णाशा ने कहा ;- ‘प्रभो। मेरा यह पुत्र संसार में शत्रुओं के लिये अवध्य हो’। तब वरुण ने प्रसन्न होकर कहा,
वरूण ने कहा ;- ‘मैं इसके लिये हितकारक वर के रुप में यह दिव्य अस्त्र प्रदान करता हूं, जिसके द्वारा तुम्हारा यह पुत्र अवध्य होगा। ‘सरिताओं में श्रेष्ठ पर्णाशे! मनुष्य किसी प्रकार भी अमर नहीं हो सकता। जिन लोगों ने यहाँ जन्म लिया है, उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। ‘तुम्हारा यह पुत्र इस अस्त्र के प्रभाव से रण क्षैत्र में शत्रुओं के लिये सदा ही दुर्धर्ष होगा। अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता निवृत हो जानी चाहिये’।
ऐसा कहकर वरुण देव ने श्रुतायुध को मन्त्रोप देश पूर्वक वह गदा प्रदान की, जिसे पाकर वे सम्पूर्ण जगत में दुर्जय वीर माने जाते थे। गदा देकर भगवान वरुण ने उन से पुन: कहा,
वरुण ने फिर कहा ;- ‘वत्स! जो युद्ध न कर रहा हो, उस पर इस गदा का प्रहार न करना; अन्यथा यह तुम्हारे ऊपर ही आकर गिरेगी। शत्तिशाली पुत्र! यह गदा प्रतिकूल आचरण करने वाले प्रयोक्ता पुरुष को भी मार सकती है, परंतु काल आ जाने पर श्रुतायुध ने वरुण देव के उक्त आदेश का पालन नहीं किया। उन्होंने उस वीरघातिनी गदा के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को चोट पहुँचायी। पराक्रमी श्रीकृष्ण ने अपने हष्ट–पुष्ट कंधे पर उस गदा का आघात सह लिया। परंतु जैसे वायु विन्ध्यपर्वत को नहीं हिला सकती है, उसी प्रकार वह गदा श्रीकृष्ण को कम्पित न कर सकी। जैसे दोषयुक्त आभिचारिक क्रिया से उत्पन्न हुई कृत्या उसका प्रयोग करने वाले यजमान का ही नाश कर देती है, उसी प्रकार उस गदा ने लौटकर वहाँ खड़े हुए अमर्षशील वीर श्रुतायुध को मार डाला। वीर श्रुतायुध का वध करके वह गदा धरती पर जा गिरी। लौटी हुई उस गदा को और उसके द्वारा मारे गये वीर श्रुतायुध को देखकर वहाँ आपकी सेनाओं में महान हाहाकार मच गया। नरेश्रवर! शत्रुदमन श्रुतायुध को अपने ही अस्त्र से मारा गया देख यह बात ध्यान में आयी कि श्रुतायुध ने युद्ध न करने वाले श्रीकृष्ण पर गदा चलायी है। इसीलिये उस गदा ने उन्हीं का वध किया है। वरुण देव ने जैसा कहा था, युद्ध भूमि में श्रुतायुध की उसी प्रकार मृत्यु हुई। वे सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 59-76 का हिन्दी अनुवाद)
गिरते समय पर्णाशाके प्रिय पुत्र श्रुतायुध आंधी के उखाड़े हुए अनेक शाखाओं वाले वृक्ष के समान प्रतीत हो रहे थे। शत्रुसूदन श्रुतायुध को इस प्रकार मारा गया देख सारे सैनिक और सम्पूर्ण सेनापति वहाँ से भाग खड़े हुए। तत्पश्रात काम्बोजराज का शूरवीर पुत्र सुदक्षिण वेगशाली अश्रों द्वारा शत्रुसूदन अर्जुन का सामना करने के लिये आया। भारत! अर्जुन ने उसके ऊपर सात बाण चलाये। वे बाण उस शूरवीर के शरीर को विदीर्ण करके धरती में समा गये। गाण्डीव धनुष द्वारा छोड़े हुए तीखे बाणों से अत्यन्त घायल होने पर सुदक्षिण ने उस रणक्षेत्र में कंक की पांख वाले दस बाणों द्वारा अर्जुन को क्षत-विक्षत कर दिया। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को तीन बाणों से घायल करके उसने अर्जुन पर पुन: पांच बाणों का प्रहार किया। आर्य! तब अर्जुन ने उसका धनुष काटकर उसकी ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इसके बाद पाण्डुकुमार अर्जुन ने दो अत्यन्त तीखे भल्लों से सुदक्षिण को बींध डाला। फिर सुदक्षिण भी तीन बाणों से पार्थ को घायल करके सिंह के समान दहाड़ने लगा। शूरवीर सुदक्षिण ने कुपित होकर पूर्णत: लोहे की बनी हुई घण्टा युक्त भयंकर शक्ति गाण्डीवधारी अर्जुन पर चलायी। वह बड़ी भारी उल्का के समान प्रज्वलित होती और चिनगारियां बिखेरती हुई महारथी अर्जुन के पास जा उनके शरीर को विदीर्ण करके पृथ्वी पर गिर पड़ी।
उस शत्ति के द्वारा गहरी चोट खाकर महातेजस्वी अर्जुन मूर्च्छित हो गये। फिर धीरे-धीरे सचेत हो अपने मुख के दोनों कानों को जीभ से चाटते हुए अचिन्त्य पराक्रमी पार्थ ने कंक के पांखवाले चौदह नाराचों द्वारा घोड़े, ध्वज, धनुष और सारथि सहित सुदक्षिण को घायल कर दिया। फिर दूसरे बहुत-से बाणों द्वारा उसके रथ को टूक-टूक कर दिया और काम्बोजराज सुदक्षिण के संकल्प एवं पराक्रम को व्यर्थ करके पाण्डु पुत्र अर्जुन ने मोटी धारवाले बाण से उसकी छाती छेद डाली। इससे उसका कवच फट गया, सारे अंग शिथिल हो गये, मुकुट और बाजूबंद गिर गये तथा शूरवीर सुदक्षिण मशीन से फेंके गये ध्वज के समान मुंह के बल गिर पड़ा। जैसे सर्दी बीतने के बाद पर्वत के शिखर पर उत्पन्न हुआ सुन्दर शाखाओं से युक्त, सुप्रतिष्ठित एवं शोभासम्पन्न कनेर का वृक्ष वायु के वेग से टूटकर गिर जाता है, उसी प्रकार काम्बोज देश के मुलायम बिछौनों पर शयन करने के योग्य सुदक्षिण वहाँ मारा जाकर पृथ्वी पर सो रहा था।
बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित एवं शिखर युक्त पर्वत के समान सुदर्शनीय अरुण नेत्रों वाले काम्बोज राजकुमार सुदक्षिण को अर्जुन ने एक ही बाण से मार गिराया था। अपने मस्तक पर अग्नि के समान दमकते हुए सुवर्णमय हार को धारण किये महाबाहु सुदक्षिण यद्यपि प्राणशून्य करके पृथ्वी पर गिराया गया था, तथापि उस अवस्था में भी उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। तदनन्तर श्रुतायुध तथा काम्बोज राजकुमार सुदक्षिण को मारा गया देख आप के पुत्र की सारी सेनाएं वहाँ से भागने लगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के श्रुतायुध और सुदक्षिणका वध विषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन द्वारा श्रुतायु, अच्युतायु, नियतायु, दीर्घायु, म्लेच्छ सैनिक और अम्बष्ठ आदि का वध”
संजय कहते हैं ;- राजन! काम्बोजराज सुदक्षिण और वीर श्रुतायुध के मारे जाने पर आपके सारे सैनिक कुपित हो बड़े वेग से अर्जुन पर टूट पड़े। महाराज! वहाँ अभीषाह, शूरसेन, शिबि और वसाति देशीय सैनिकगण अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डुकुमार अर्जुन ने उपर्युक्त सेनाओं के छ: हजार सैनिकों तथा अन्य योद्धाओं को भी अपने बाणों द्वारा मथ डाला। जैसे छोटे-छोटे मृग बाघ से डरकर भागते है, उसी प्रकार वे अर्जुन से भयभीत हो वहाँ से पलायन करने लगे। उस समय अर्जुन रणक्षेत्र में शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा से उनका संहार कर रहे थे। यह देख उन भागे हुए सैनिकों ने पुन: लौटकर पार्थ को चारों ओर से घेर लिया। उन आक्रमण करने वाले योद्धाओं के मस्तकों और भुजाओं को अर्जुन ने गाण्डीव धनुष द्वारा छोड़े हुए बाणों से तुरंत ही काट गिराया। वहाँ गिराये हुए मस्तकों से वह रणभूमि ठसाठस भर गयी थी और उस युद्धस्थल में कौओं तथा गीधों की सेना के आ जाने से वहाँ मेघ की छाया-सी प्रतीत होती थी।
इस प्रकार जब उन समस्त सैनिकों का संहार होने लगा, तब श्रुतायु तथा अच्युतायु–ये दो वीर क्रोध और अमर्ष में भरकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगे। वे दोनों बलवान, अर्जुन से स्पर्धा रखने वाले, वीर, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले थे। उन दोनों ने अर्जुन पर दायें-बायें से बाण बरसाना आरम्भ किया। महाराज! वे दोनों वीर महान यश की अभिलाषा रखते हुए आपके पुत्र के लिये अर्जुन के वध की इच्छा रखकर हाथ में धनुष ले बड़ी उतावली के साथ बाण चला रहे थे। जैसे दो मेघ किसी तालाब को भरते हों, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरों ने झुकी हुई गांठ वाले सहस्त्रों बाणों द्वारा अर्जुन को आच्छादित कर दिया। फिर रथियों में श्रेष्ठ श्रुतायु ने कुपित होकर पानीदार तीखी धारवाले तोमर से अर्जुन पर आघात किया। उस बलवान शत्रु के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए शत्रुसूदन अर्जुन उस रणक्षेत्र में श्री कृष्ण को मोहित करते हुए स्वयं भी अत्यन्त मूर्च्छित हो गये। इसी समय महारथी अच्युतायु ने अत्यन्त तीखे शूल के द्वारा पाण्डुकुमार अर्जुन पर प्रहार किया।
उसने इस प्रहार द्वारा महामना पाण्डुपुत्र अर्जुन के घाव पर नमक छिड़क दिया। अर्जुन भी अत्यन्त घायल होकर ध्वज- दण्ड के सहारे टिक गये। प्रजानाथ! उस समय अर्जुन को मरा हुआ मानकर आपके सारे सैनिक जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। अर्जुन को अचेत हुआ देख भगवान श्रीकृष्ण अत्यन्त संतप्त हो उठे और मन को प्रिय लगने वाले वचनों द्वारा वहाँ उन्हें आश्रवासन देने लगे। तदनन्तर रथियों में श्रेष्ठ श्रुतायु और अच्युतायु ने अपना लक्ष्य सामने पाकर अर्जुन तथा वृष्णिवंशी श्रीकृष्ण पर चारों ओर से बाण वर्षा करके चक्र, कूबर, रथ, अश्र्व, ध्वज और पताका सहित उन्हें उस रणक्षेत्र में अदृश्य कर दिया। वह अद्भुत–सी बात हो गयी। भारत! फिर अर्जुन धीर-धीरे सचेत हुए, मानो यमराज के नगर में पहुंचकर पुन: वहाँ से लौटे हों। उस समय भगवान श्रीकृष्ण सहित अपने रथ को बाण समूह से आच्छादित और सामने खड़े हुए दोनों शत्रुओं को अग्नि के समान देदीप्यमान देखकर महारथी अर्जुन ने ऐन्द्रास्त्र प्रकट किया। उससे झुकी हुई गांठवाले सहस्त्रों बाण प्रकट होन लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)
उन बाणों ने उन दोनों महाधनुर्धरों को तथा उनके छोड़े हुए सायकों को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। अर्जुन के बाणों से टुकड़े-टुकड़े होकर उन शत्रुओं के बाण आकाश में विचरने लगे। अपने बाणों के वेग से शत्रुओं के बाणों को नष्ट करके पाण्डु कुमार अर्जुन ने जहाँ-तहाँ अन्य महारथियों से युद्ध करने के लिये प्रस्थान किया। अर्जुन के उन बाणसमूहों से श्रुतायु और अच्युतायु के मस्तक कट गये। भुजाएं छिन्न-भिन्न हो गयीं। वे दोनों आंधी के उखाड़े हुए वृक्षों के समान ध्राशायी हो गयी। श्रुतायु और अच्युतायुका वह वध समुद्रशोषण के समान सब लोगों को आश्रय में डालने वाला था। उन दोनों के पीछे आने वाले पचास रथियों को मारकर अर्जुन ने श्रेष्ठ-श्रेष्ठ वीरों को चुन-चुनकर मारते हुए पुन: कौरव सेना में प्रवेश किया।
भारत! श्रुतायु तथा अच्युतायु को मारा गया देख उन दोनों के पुत्र नरश्रेष्ठ नियुतायु और दीर्घायु पिता के वध से दुखी हो अत्यन्त क्रोध में भरकर नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन का सामना करने के लिये आये। तब अर्जुन ने अत्यन्त कुपित हो झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा दो ही घड़ी में उन दोनों को यमराज के घर भेज दिया। जैसे हाथी कमलों से भरे हुए सरोवर को मथ डालता हो, उसी प्रकार आपकी सेनाओं का मन्थन करते हुए पार्थ को आपके क्षत्रिय शिरोमणि योद्धा रोक न सके।
राजन! इसी समय युद्ध विषयक शिक्षा पाये हुए अंग देश के सहस्त्रों गजारोही योद्धाओं ने क्रोध में भरकर हाथियों के समूह द्वारा पाण्डुकुमार अर्जुन को सब ओर से घेर लिया। फिर दुर्योधन की आज्ञा पाकर पूर्व और दक्षिण देशों के कलिंग आदि नरेशों ने भी अर्जुन पर पर्वताकार हाथियों द्वारा घेरा डाल दिया। तब उग्र रुपधारी अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छोड़े हुए बाणों द्वारा उन सारे आक्रमणकारियों के मस्तकों तथा उत्तम भूषण भुषित भुजाओं को भी शीघ्र ही काट डाला। उस समय उन मस्तकों और भुजबंद सहित भुजाओं से आच्छादित हुई वहाँ की भूमि सर्पों से घिरी हुई स्वर्ण प्रस्तरयुक्त भूमि के समान शोभा पा रही थी।
बाणों से छिन्न भिन्न हुई भुजाएं और कटे हुए मस्तक इस प्रकार गिरते दिखायी दे रहे थे, मानो वृक्षों से पक्षी गिर रहे हों। सहस्त्रों बाणों से बिंधकर खून की धारा बहाते हुए हाथी वर्षा काल में गेरुमिश्रित जल के झरने बहाने वाले पर्वतों के समान दिखायी देते थी। अर्जुन के तीखे बाणों से मारे जाकर दूसरे-दूसरे म्लेच्छ– सैनिक हाथी की पीठ पर ही लेट गये थे। उनकी नाना प्रकार की आकृति बड़ी विकृत दिखायी देती थी। राजन! नाना प्रकार के वेश धारण करने वाले तथा अनेक प्रकार के अस्त्र–शस्त्रों से सम्पन्न योद्धा अर्जुन के विचित्र बाणों से मारे जाकर अद्भुत शोभा पा रहे थे। उनके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे। सवारों और अनुचरों सहित सहस्त्रों हाथी अर्जुन के बाणों से आहत हो मुंह से रक्त वमन करते थे। उनकें सम्पूर्ण अंग छिन्न-भिन्न हो रहे थे। बहुत से हाथी चिग्घाड़ रहे थे, बहुतेरे धराशायी हो गये थे, दूसरे कितने ही हाथी सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर काट रहे थे और बहुत से गज अत्यन्त भयभीत हो भागते हुए अपने ही पक्ष के योद्धाओं को कुचल रहे थे। तीक्ष्ण विषवाले सर्पो के समान भंयकर वे सभी गुप्तास्त्रधारी सैनिकों से युक्त थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद)
जो आसुरी माया को जानते हैं, जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है तथा जो भयानक नेत्रों से युक्त हैं एवं जो कौओं के समान काले, दुराचारी, स्त्रीलम्पट और कलहप्रिय होते हैं वे यवन, पारद, शक और बाह्लीक भी वहाँ युद्ध के लिये उपस्थित हुए। मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी द्राविड तथा नंदिनी गाय से उत्पन्न हुए काल के समान प्रहारकुशल म्लेच्छ भी वहाँ युद्ध कर रहे थे। दार्वातिसार, दादर और पुण्ड्र आदि हजारों लाखों संस्कार- शून्य म्लेच्छ वहाँ उपस्थित थे, जिनकी गणना नहीं की जा सकती थी। नाना प्रकार के युद्धों में कुशल वे सभी म्लेच्छगण पाण्डु पुत्र अर्जुन पर तीखे बाणों की वर्षा करके उन्हें आच्छादित करने लगे। तब अर्जुन ने उनके उपर भी तुरंत बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। उनकी वह बाण-वृष्टि टिड्डी-दलों की सृष्टि सी प्रतीत होती थी। बाणों द्वारा उस विशाल सेना पर बादलों की छाया-सी करके अर्जुन ने उपने अस्त्र के तेज से मुणिडत, अर्धमुणिडत, जटाधारी, अपवित्र तथा दाढ़ी भरे मुखवाले उन समस्त म्लेच्छों का, जो वहाँ एकत्र थे, संहार कर डाला। उस समय पर्वतों पर विचरने और पर्वतीय कन्दराओं में निवास करने वाले सैकड़ों म्लेचछ संघ अर्जुन के बाणों से विद्ध एवं भयभीत हो रणभूमि से भागने लगे।
अर्जुन के तीखे बाणों से मरकर पृथ्वी पर गिरे हुए उन हाथीसवार और घुड़सवार म्लेच्छों का रक्त कौंए, बुगले और भेड़िये बड़ी प्रसन्नता के साथ पी रहे थे। उस समय अर्जुन ने वहाँ रक्त की एक भयंकर नदी बहा दी, जो प्रलयकाल की नदी के समान डरावनी प्रतीत होती थी। उस में पैदल मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियों को बिछाकर मानो पुल तैयार किया गया था, बाणों की वर्षा ही नौका के समान जान पड़ती थी। केश सवार और घास के समान जान पड़ते थे। उस भयंकर नदी से रक्त प्रवाह की ही तरगड़ें उठ रही थीं। कटी हुई अंगुलियां छोटी-छोटी मछलियों के समान जान पड़ती थीं। हाथी, घोड़े और रथों की सवारी करने वाले राजकुमारों के शरीरों से बहने वाले रक्त से लबालब भरी हुई उस नदी को अर्जुन ने स्वयं प्रकट किया था। उसमें हाथियों की लाशें व्याप्त हो रही थी। जैसे इन्द्र के वर्षा करते समय उंचे-नीचे स्थल का भान नहीं होता है, उसी प्रकार वहाँ की सारी पृथ्वी रक्त की धारा में डुबकर समतल सी जान पड़़ती थी।
क्षत्रियशिरोमणि अर्जुन ने वहाँ छ: हजार घुड़सवारों तथा एक हजार श्रेष्ठ शूरवीर क्षत्रियों को मृत्यु के लोक में भेज दिया। विधि पूर्व सुसज्जित किये गये हाथी सहस्त्रों बाणों से बिंधकर वज्र के मारे हुए पर्वतों के समान धराशायी हो रहे थे। जैसे मद की धारा बहाने वाला मतवाला हाथी नरकुल के जंगलों को रौंदता चलता है, उसी प्रकार अर्जुन घोड़े, रथ और हाथियों सहित सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार करते हुए रणभूमि में विचर रहे थे। जैसे वायुप्रेरित अग्नि सूखे ईधन, तुण और लताओं से युक्त तथा बहुसंख्यक वृक्षों और लतागुल्मों से भरे हुए जंगल को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार श्री कृष्ण रुपी वायु प्रेरित हो बाणरुपी ज्वालाओं से युक्त पाण्डुपुत्र अर्जुन रुपी अग्नि ने कुपित होकर आपकी सेनारुप वन को दग्ध कर दिया। रथ की बैठकों को सूनी करके धरती पर मनुष्यों की लाशों-का बिछौना करते हुए चापधारी धनंजय उस युद्ध के मैदान में नृत्य-सा कर रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 59-70 का हिन्दी अनुवाद)
क्रोध में भरे हुए धनंजय ने वज्रोपम बाणों द्वारा पृथ्वी को रक्त से आप्लावित करते हुए कौरवी सेना में प्रवेश किया। उस समय सेना के भीतर जाते हुए अर्जुन को श्रुतायु तथा अम्बष्ठ ने रोका। मान्यवर! तब अर्जुन ने कंक की पंखों वाले तीखे बाणों द्वारा विजय के लिये प्रयत्न करने वाले अम्बष्ठ के घोड़ों को शीघ्र ही मार गिराया। फिर दूसरे बाणों से उसके धनुष को भी काटकर पार्थ ने विशेष बल विक्रम का परिचय दिया। तब अम्बष्ठ की आंखें क्रोध से व्याप्त हो गयीं। उसने गदा लेकर रणक्षेत्र में महारथी श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आक्रमण किया।
भारत! तदनन्तर वीर अम्बष्ठ ने प्रहार करने के लिये उधत हो गदा उठाये आगे बढ़कर अर्जुन के रथ को रोक दिया और भगवान श्रीकृष्ण पर गदा से आघात किया। भरतनन्दन! शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को गदा से आहत हुआ देख अम्बष्ठ के प्रति अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर तो जैसे बादल उदित हुए सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार अर्जुन ने समरागड़ण में सोने के पंखवाले बाणों द्वारा गदासहित रथियों में श्रेष्ठ अम्बष्ठ को आच्छादित कर दिया। तत्पचात दूसरे बहुत से बाण मारकर अर्जुन ने महामना अम्बष्ठ की उस गदा को उसी समय चूर-चूर कर दिया। वह अद्भुत-सी घटना हुई। उस गदा को गिरी हुई देख अम्बष्ठ ने दूसरी विशाल गदा ले ली और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर बारंबार प्रहार किया। तब अर्जुन ने उसकी गदा सहित, इन्द्रध्वज के समान उठी दोनों भुजाओं को क्षुरप्रों से काट डाला और पंख युक्त दूसरे बाण से उसके मस्तक को भी काट गिराया। राजन! यन्त्र द्वारा बन्धन मुक्त होकर गिरे हुए इन्द्रध्वज- के समान वह मरकर पृथ्वी पर धमाके की आवाज करता हुआ गिर पड़ा। उस समय रथियों की सेना में घुसकर सैकड़ों हाथियों और घोड़े से घिरे हुए कुन्तीकुमार अर्जुन बादलों में छिपे हुए सूर्य के समान दिखायी देते थे।
(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथवधपर्व में अम्बष्ठ विषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का उपालम्भ सुनकर द्रोणाचार्य का उसके शरीर में दिव्य कवच बांधकर उसी को अर्जुन के साथ युद्ध के लिये भेजना”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर जब कुन्तीकुमार अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथ का वध करने की इच्छा से द्रोणाचार्य और कृतवर्मा दुस्तर सेना-व्यूह भेदन करके आपकी सेना में प्रविष्ट हो गये और सव्यसाची अर्जुन के हाथ से जब काम्बोजराजकुमार सुदक्षिण तथा पराक्रमी श्रुतायुध मार दिये गये तथा जब सारी सेनाएं नष्ट भ्रष्ट होकर चारों ओर भाग खड़ी हुई, उस समय सम्पूर्ण सेना में भगदड़ मची देख आपका पु्त्र दुर्योधन बड़ी उतावली के साथ एकमात्र रथ के द्वारा द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे मिलकर इस प्रकार बोला,
दुर्योधन बोला ;- ‘गुरुदेव! पुरुषसिंह अर्जुन हमारी इस विशाल सेना को मथकर व्यूह के भीतर चला गया। अब आप अपनी बुद्धि से यह विचार कीजिये कि इसके बाद अर्जुन के विनाश के लिये क्या करना चाहिये इस भंयकर नरसंहार में जिस प्रकार भी पुरुषसिंह जयद्रथ न मारे जायं; वैसा उपाय कीजिये। आपका कल्याण हो। हमारा सबसे बड़ा सहारा आप ही हैं।
‘जैसे सहसा उठा हुआ दावानल सूखे घास-फूंस अथवा जंगल को जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार यह धनंजय-रुपी अग्नि कोपरुपी प्रचण्ड वायु से प्रेरित हो मेरे सैन्य रुपी सूखे वन को दग्ध किये देती है। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य। जब से कुन्तीकुमार अर्जुन आप की सेना का व्यूह भेदकर आपको भी लांघकर आगे चले गये हैं, तब से जयद्रथ की रक्षा करने वाले योद्धा महान संशय में पड़ गये हैं। ‘ब्रहावेत्ताओं में श्रेष्ठ गुरुदेव! हमारे पक्ष के नरेशों को यह दृढ़ विश्वास था कि अर्जुन द्रोणाचार्य के जीते जी उन्हें लांघ कर सेना के भीतर नहीं घुस सकेगा। ‘पंरतु महातेजसवी वीर! आपके देखते-देखते वह कुन्ती कुमार अर्जुन आपको लांघकर जो व्यूह में घुस गया है, इससे मैं अपनी इस सारी सेना को व्याकुल और विनष्ट हुई सी मानता हूँ। अब मेरी इस सेना का अस्तित्व नहीं रहेगा।
‘ब्रह्मन! महाभाग! मैं यह जानता हूँ कि आप पाण्डवों के हित में तत्पर रहने वाले हैं; इसीलिये अपने कार्य की गुरुता का विचार करके मोहित हो रहा हूँ। ‘विप्रवर! मैं यथाशक्ति आपके लिये उत्तम जीविका वृति की व्यवस्था करता रहता हूँ और अपनी शक्ति भर आपको प्रसन्न रखने की चेष्टा करता रहता हूं; परंतु इन सब बातों को आप याद नहीं रखते हैं। ‘अमितपराक्रमी आचार्य! हम आप के चरणों के सदा भक्ति रखते हैं तो भी आप हमें नही चाहते हैं और जो सदा हम लोगों का अप्रिय करने में तत्पर रहते हैं, उन पाण्डवों को आप निरन्तर प्रसन्न रखते हैं। ‘हम से आप की जीविका चलती है तो भी आप हमारा ही अप्रिय करने में संलग्र रहते हैं। मैं नहीं जानता था कि आप शहद में डुबोये हुए छुरे के समान हैं। ‘यदि आप मुझे अर्जुन को रोके रखने का वर न देते तो मैं अपने घर को जाते हुए सिन्धुराज जयद्रथ को कभी मना नहीं करता। ‘मुझ मूर्ख ने आप से संरक्षण पाने का भरोसा कर के सिन्धुराज जयद्रथ को समझा-बुझाकर यहीं रोक लिया और इस प्रकार मोहवश मैंने मौत के हाथ में सौंप दिया। ‘मनुष्य यमराज की दाढ़ो में पड़कर भले ही बच जाय, परंतु रणभूमि में अर्जुन के वश में पड़े हुए जयद्रश के प्राण नहीं बच सकते।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
‘लाल घोड़ों वाले आचार्य! आप कोई ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे सिन्धुराज जयद्रथ मृत्यु से छुटकारा पा सके। मैंने आर्त होने के कारण जो प्रलाप किये हैं, उनके लिये क्रोध न कीजियेगा; जैसे भी हो, सिन्धुराज की रक्षा कीजिये’।
द्रोणाचार्य ने कहा ;- राजन! तुमने जो बात कही है, उसके लिये मैं बुरा नहीं मानता; क्योंकि तुम मेरे लिये अश्वत्थामा के समान हो। पंरतु जो सच्ची बात है, वह तुम्हें बता रहा हूं; उसे ध्यान देकर सुनो। श्रीकृष्ण अर्जुन के श्रेष्ठ सारथि हैं तथा उनके उत्तम घोड़े भी तेज चलने वाले हैं। इसलिये थोड़ा-सा भी अवकाश बनाकर अर्जुन तत्काल सेना में घुस जाते हैं। क्या तुम देखते नहीं हो कि मेरे चलाये हुए बाणसमूह शीघ्रगामी अर्जुन के रथ के एक कोस पीछे पड़े हैं। मैं बूढ़ा हो गया। अत: अब मैं शीघ्रतापूर्वक रथ चलाने में असमर्थ हूँ। इधर मेरी सेना के सामने यह कुन्तीकुमारों की भारी सेना उपस्थित है। महाबाहो! मैंने क्षत्रियों के बीच में यह प्रतिज्ञा की है कि समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते युधिष्ठिर को कैद कर लूंगा। नरेश्वर! इस समय युधिष्ठिर अर्जुन से सहित होकर मेरे सामने खड़े हैं। ऐसी अवस्था में मैं व्यूह का द्वारा छोड़कर अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिये नहीं जाऊँगा। तुम्हारे शत्रु भी तो तुम्हारे-जैसे ही कुल और पराक्रम से युक्त हैं। इस समय वे अकेले हैं और तुम सहायकों से सम्पन्न हो। (वे राज्य से च्युत हो गये हैं और तुम) इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी हो। अत: डरो मत। जाकर अर्जुन से युद्ध करो। तुम राजा, शूरवीर, विद्वान और युद्ध कुशल हो। वीर! तुमने ही पाण्डवों के साथ वैर बांधा है। अत: जहाँ कुन्तीकुमार अर्जुन गये हैं, वहाँ उनसे युद्ध करने के लिये स्वयं ही शीघ्रतापूर्वक जाओ।
दुर्योधन बोला ;- आचार्य! आप सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं। जो आपको भी लांघकर आगे बढ़ गया, वह अर्जुन मेरे द्वारा कैसे रोका जा सकता है। युद्ध में व्रजधारी इन्द्र को भी जीता जा सकता है; परंतु समरागड़ण में शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले अर्जुन को जीतना असम्भव। जिसने भोजवंशी कृतवर्मा तथा देवताओं के समान तेजस्वी आपको भी अपने अस्त्र के प्रताप से पराजित कर दिया, श्रुतायुध को भी मार डाला, श्रुतायु, अच्युतायु तथा सहस्त्रों म्लेच्छ सैनिकों के भी प्राण ले लिये, युद्ध में अग्नि के समान शत्रुओं को दग्ध करने वाले और अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता उस दुर्धर्ष वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ मैं कैसे युद्ध कर सकूंगा। यदि आज युद्ध स्थल में आप अर्जुन के साथ मेरा युद्ध करना उचित मानते हैं तो मैं एक सेवक की भाँति आपकी आज्ञा के अधीन हूँ। आप मेरे यज्ञ की रक्षा कीजिये।
द्रोणाचार्य ने कहा ;- कुरुनन्दन! तुम ठीक कहते हो। अर्जुन अवश्य दुर्जय वीर हैं। परंतु मैं एक ऐसा उपाय कर दूंगा, जिससे तुम उनका वेग सह सकोगे। आज संसार के सम्पूर्ण धनुर्धर भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही कुन्तीकुमार अर्जुन को तुम्हारे साथ युद्ध में उलझे रहने की अद्भुत घटना देखें। राजन! मैं यह सुवर्णमय कवच तुम्हारे शरीर में इस प्रकार बांध देता हूं, जिससे युद्ध स्थल में छूटने वाले बाण और अन्य अस्त्र तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकेंगे। यदि मनुष्यों सहित देवता, असुर, यक्ष, नाग, राक्षस तथा तीनों लोक के प्राणी युद्ध करते हों तो भी आज तुम्हें कोई भय नहीं होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 37-58 का हिन्दी अनुवाद)
इस कवच के रहते हुए श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा दूसरे कोई शस्त्रधारी योद्धा भी तुम्हें बाणों द्वारा चोट पहुँचाने में समर्थ न हो सकेंगे। अत: तुम यह कवच धारण करके शीघ्रतापूर्वक रणक्षेत्र में कुपित हुए अर्जुन का सामना करने के लिये स्वयं ही जाओ। वे तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे।
संजय कहते हैं ;- राजन! ऐसा कहकर वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने अपनी विद्या के प्रभाव से सब लोगों को आश्चर्य में डालने की इच्छा रखते हुए तुरंत आचमन करके उस महायुद्ध में आप के पुत्र दुर्योधन की विजय के लिये उसके शरीर में विधिपूर्वक् मन्त्रजप के साथ-साथ वह अत्यन्त तेजस्वी अद्भुत कवच बांध दिया।
द्रोणाचार्य बोले ;– भरतनन्दन! परव्रहा परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें। ब्रह्माजी तथा ब्राह्मण तुम्हारा मगंल करें। जो श्रेष्ठ सर्प हैं, उन से भी तुम्हारा कल्याण हो। नहुष पुत्र ययाति, धुन्धुमार और भगीरथ आदि सभी राजर्षि सदा तुम्हारी भलाई करें। इस महायुद्ध में एक पैरवाले, अनेक पैरवाले तथा पैरों से रहित प्राणियों से तुम्हारा नित्य मगंल हो। निष्पाप नरेश! स्वाहा, स्वधा और शची आदि देवियां तुम्हारा सदा कल्याण करें। लक्ष्मी और अरुन्धती भी तुम्हारा मगंल करें। नरेश्वर! असित, देवल, विश्वामित्र, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप तुम्हारा भला करें। धाता, विधाता, लोकनाथ ब्रहा, दिशाएं, दिक्पाल तथा षडानन कार्तिकेय भी आज तुम्हें कल्याण प्रदान करें। भगवान सूर्य सब प्रकार से तुम्हारा मगंल करें। चारों दिग्गज, पृथ्वी, आकाश और ग्रह तुम्हारा भला करें। राजन! जो सदा इस पृथ्वी के नीचे रहकर इसे अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वे पन्नगश्रेष्ठ भगवान शेषनाग तुम्हें कल्याण प्रदान करें।
गान्धारीनन्दन! प्राचीन काल की बात है, वृत्रासुर ने युद्ध में पराक्रम पूर्वक सहस्त्रों श्रेष्ठ देवताओं के शरीर को विदीर्ण करके उन्हें परास्त कर दिया था। उस समय तेज और बल से हीन हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता महान असुर वृत्र से भयभीत हो ब्रह्माजी की शरण में गये। देवता बोले-देवप्रवर! सुरश्रेष्ठ! वृत्रासुर ने जिन्हें सब प्रकार से कुचल दिया है, उन देवताओं के लिये आप आश्रय दाता हों। महान भय से हमारी रक्षा करें। तब अपने पास खडे़ हुए भगवान विष्णु तथा विषाद में भरे हुए इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओं से ब्रह्माजी ने यह यथार्थ बात कही,
ब्रह्माजी ने कहा ;- ‘देवताओं! इन्द्र आदि देवता और ब्राह्मण सदा ही मेरे रक्षणीय हैं। परंतु वृत्रासुर का जिससे निर्माण हुआ है, वह त्वष्टा प्रजापति का अत्यन्त दुर्धर्ष तेज है। ‘देवगण! प्राचीन काल में त्वष्टा प्रजापति ने दस लाख वर्षों तक तपस्या करके भगवान शंकर से वरदान पाकर वृत्रासुर- को उत्पन्न किया था। ‘वह बलवान शत्रु भगवान शंकर के ही प्रसाद से निश्चय ही तुम सब लोगों को मार सकता है। अत: भगवान शंकर के निवास स्थान गये बिना उनका दर्शन नहीं हो सकता। ‘उनका दर्शन पाकर तुम लोग वृत्रासुर को जीत सकोगे। अत: शीघ्र ही मन्दराचल को चलो, जहाँ तपस्या के उत्पति स्थान, दक्षयज्ञ विनाशक तथा भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाले सर्वभुतेश्वर पिनाकधारी भगवान शिव विराजमान है, ‘तब एकत्र हुए उन सब देवताओं ने ब्रह्माजी के साथ मन्दरा चल पर जाकर करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमान तेजोराशि भगवान शिव का दर्शन किया। उस समय भगवान शिव ने कहा,
भगवान शिव ने कहा ;- ‘देवताओं। तुम्हारा स्वागत है। बोलो, मैं तुम्हारे लिये क्या करुं मेरा दर्शन अमोघ है। अत: तुम्हें अपने अभीष्ट मनोरथों की प्राप्ति हो’
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 59-76 का हिन्दी अनुवाद)
उनके ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता इस प्रकार बोले,
सभी देव बोले ;- ‘देव! वृत्रासुर ने हमारा तेज हर लिया है। आप देवताओं के आश्रयदाता हों। महेश्वर! आप हमारे शरीरों की दशा देखिये। हम वृत्रासुर के प्रहारों से जर्जर हो गये हैं, इसलिये आपकी शरण में आये हैं। आप हमें आश्रय दीजिये’।
भगवान शिव बोले ;- देवताओं! तुम्हें विदित हो कि यह प्रजापति त्वष्टा के तेज से उत्पन्न हुई अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर कृत्या है। जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये इस कृत्या का निवारण करना अत्यन्त कठिन है। तथापि मुझे सम्पूर्ण देवताओं की सहायता अवश्य करनी चाहिये। अत: इन्द्र! मेरे शरीर से उत्पन्न हुए इस तेजस्वी कवच को ग्रहण करो। सुरेश्रवर! मेरे बताये हुए इस मन्त्र का मानसिक जप करके असुर मुख्य देवशत्रु वृत्रासुर का वध करने के लिये इसे अपने शरीर में बांध लो।
द्रोणाचार्य कहते हैं ;- राजन! ऐसा कहकर वरदायक भगवान शंकर ने वह कवच और उसका मन्त्र उन्हें दे दिया। उस कवच से सुरक्षित हो इन्द्र वृत्रासुर की सेना का सामना करने के लिये गये। उस महान युद्ध में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के समुदाय उन के ऊपर चलाये गये; परंतु उनके द्वारा इन्द्र के उस कवच-बन्धन की सन्धि भी नहीं काटी जा सकी। तदनन्तर देवराज इन्द्र स्वयं ही समरागंण में वृत्रासुर को मार डाला। इसके बाद उन्होंने वह कवच तथा उसे बांधने की मन्त्र युक्त विधि अंगिरा को दे दी। अंगिरा अपने मंत्रज्ञ पुत्र बृहस्पति को उसका उपदेश दिया और बृहस्पति ने परम बुद्धिमान अग्निवेश्य को यह विद्या प्रदान की। अग्निवेश्य ने मुझे उसका उपदेश किया था। नृपश्रेष्ठ! उसी मन्त्र से आज तुम्हारे शरीर की रक्षा के लिये मैं यह कवच बांध रहा हूँ।
संजय कहते हैं ;- महाराज! वहाँ आप के महातेजस्वी पुत्र को यह प्रसंग सुनाकर आचार्य शिरोमणि द्रोण ने पुन: धीरे से यह बात कही- ‘भारत! जैसे पूर्व काल में रण क्षेत्र में भगवान ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण के शरीर में कवच बांधा था, उसी प्रकार मैं भी ब्रह्मसूत्र से तुम्हारे इस कवच को बांधता हूँ। ‘तारकामय संग्राम में ब्रह्माजी ने इन्द्र के शरीर में जिस प्रकार दिव्य कवच बांधा था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे शरीर में बांध रहा हूं’। इस प्रकार मन्त्र के द्वारा राजा दुर्योधन के शरीर में विधि पूर्वक कवच बांधकर विप्रवर द्रोणाचार्य ने उसे महान युद्ध के लिये भेजा। महामना आचार्य के द्वारा अपने शरीर में कवच बंध जाने पर महाबाहु दुर्योधन प्रहार करने में कुशल एक सहस्त्र त्रिगर्तदेशीय रथियों, एक सहस्त्र पराक्रमशाली मतवाले हाथी सवारों एक लाख घुड़सवारों तथा अन्य महारथियों से घिरकर नाना प्रकार के रणवाद्यों की ध्वनी के साथ अर्जुन के रथ की ओर चला। ठीक उसी तरह, जैसे राजा बलि (इन्द्र के साथ युद्ध के लिये) यात्रा करते हैं। भारत! उस समय अगाध समुद्र के समान कुरुनन्दन दुर्योधन को युद्ध के लिये प्रस्थान करते देख आप की सेना में बड़े जोर से कोलाहल होने लगा।
(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में दुर्योधन का कवच-बन्धन विषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोण और धृष्टद्युम्न का भीषण संग्राम तथा उभय पक्ष के प्रमुख वीरों का परस्पर संकुल युद्ध”
संजय कहते हैं ;- महाराज! उस रणक्षेत्र में जब श्रीकृष्ण और अर्जुन कौरव सेना के भीतर प्रवेश कर गये तथा पुरुषप्रवर दुर्योधन उनका पीछा करत हुआ आगे बढ़ गया, तब सोमकों सहित पाण्डवों ने बडी़ भारी गर्जना के साथ द्रोणाचार्य पर वेगपूर्वक धावा किया। फिर तो वहाँ बड़े जोर से युद्ध होने लगा। व्यूह के द्वार पर होने वाला कौरवों तथा पाण्डवों का वह अद्भुत युद्ध अत्यन्त तीव्र एवं भयंकर था। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। राजन! प्रजानाथ! वहाँ मध्याह्न काल में जैसा वह युद्ध हुआ था, वैसा न तो मैंने कभी देखा था और न सुना था। धृष्टद्युम्न आदि पाण्डवपक्षीय सब प्रहारकुशल योद्धा अपनी सेना का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य की सेना पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय हम लोग सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य को आगे करके धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव सैनिकों पर बाण वर्षा कर रहे थे। रथों से विभूषित हुई वे दोनों प्रधान एवं सुन्दर सेनाएं हेमन्त के अन्त (शिशिर) में उठे हुए वायु युक्त दो महा मेघों के समान प्रकाशित हो रही थीं।
वे दोनों विशाल सेनाएं परस्पर भिड़ कर विजय के लिये बड़े वेग से आगे बढ़ने का प्रयत्न करने लगीं; मानो वर्षा ऋतु में जल की बाढ़ आने से बढ़ी हुई गंगा और यमुना दोनों नदियां बड़े वेग से मिल रही हों। उस समय महान सैन्य दल से संयुक्त एवं हाथी, घोड़े और रथों से भरा हुआ वह संग्राम महान मेघ के समान जान पड़ता था। नाना प्रकार के शस्त्र पूर्ववात (पुरवैया) के तुल्य चल रहे थे। गदाएं विद्युत के समान प्रकाशित होती थीं। देखने में वह संग्राम मेघ बड़ा भयंकर जान पड़ता था। द्रोणाचार्य वायु के समान उसे संचालित कर रहे थे तथा उससे बाण रुपी जल की सहस्त्रों धाराएं गिर रही थी और इस प्रकार वह अग्नि के समान उठी हुई पाण्डव-सेना पर सब ओर से वर्षा कर रहा था। जैसे ग्रीष्म ऋतु के अन्त में बड़े जोर से उठी हुई भयंकर वायु महासागर में क्षोभ उत्पन्न करके वहाँ ज्वार का दृश्य उपस्थित कर देती है, उसी प्रकार विप्रवर द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेना में हलचल मचा दी। पाण्डव योद्धाओं ने भी सारी शक्ति लगाकर द्रोण पर ही धावा किया था; मानो पानी के प्रखर प्रवाह किसी महान पुल को तोड़ डालना चाहते हों। जैसे सामने खड़ा हुआ पर्वत आती हुई जलराशि को रोक देता है, उसी प्रकार समरागंण में द्रोणाचार्य ने कुपित हुए पाण्डवों, पाञ्चालों तथा केकयों को रोक दिया था। इसी प्रकार दूसरे महाबली शूरवीर नरेश भी उस युद्ध स्थल में सब ओर से लौटकर पाञ्चालों का ही प्रतिरोध करने लगे।
तदनन्तर रणक्षेत्र में पाण्डवों सहित नर श्रेष्ठ धृष्टद्युम्न ने शत्रु सेना के व्यूह का भेदन करने की इच्छा से द्रोणाचार्य पर बारंबार प्रहार किया। आचार्य द्रोण धृष्टद्युम्न पर जैसे बाणों की वर्षा करते थे, धृष्टद्युम्न भी द्रोण पर वैसे ही बाण बरसाते थे। उस समय धृष्टद्युम्न एक महामेघ के समान जान पड़ते थे। उनकी तलवार पुरवैया हवा के समान चल रही थी। वे शक्ति, प्राप्त एवं ऋष्टि आदि अस्त्र–शस्त्रों से सम्पन्न थे। उनकी प्रत्यच्चा विद्युत के समान प्रकाशित होती थी। धनुष की टंकार मेघगर्जना के समान जान पड़ती थी। उस धृष्टद्युम्न रुपी मेघ ने श्रेष्ठ रथी और घुड़सवारों के समूह रुपी खेती को नष्ट करने के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में बाणरुपी जल की धारा और अस्त्र-शस्त्र रुपी पत्थर बरसाते हुए शत्रु-सेना को आप्लावित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)
द्रोणाचार्य बाणों द्वारा पाण्डवों की जिस जिस रथ सेना पर आक्रमण करते थे, धृष्टद्युम्न तत्काल बाणों की वर्षा करके उस-उस ओर से उन्हें लौटा देते थे। भारत! युद्ध में इस प्रकार विजय के लिये प्रयत्नशील हुए द्रोणाचार्य की सेना धृष्टद्युम्न के पास पहुँचकर तीन भागों में बंट गयी पाण्डव-योद्धाओं की मार खाकर कुछ सैनिक कृतवर्मा के पास चले गये, दूसरे जल संघ के पास भाग गये और शेष सभी योद्धा द्रोणाचार्य का ही अनुसरण करने लगे। रथियों में श्रेष्ठ द्रोण बारंबार अपनी सेनाओं को संगठित करते और महारथी धृष्टद्युम्न उनकी सब सेनाओं को छिन्न-भिन्न कर देते थे। जैसे वन में बिना रक्षक के पशुओं को बहुत-से हिंसक जन्तु मार डालते है, उसी प्रकार पाण्डव और सृंजय आप के सैनिकों का वध कर रहे थे। उस भयंकर संग्राम में सब लोग ऐसा मानने लगे कि काल ही धृष्टद्युम्न के द्वारा कौरव योद्धाओं को मोहित कर के उन्हें अपना ग्रास बना रहा है। जैसे दुष्ट राजा का राज्य दुर्भिक्ष, भाँति-भाँति की बीमारी और चोर-डाकुओं के उपद्रव के कारण उजाड़ हो जाता है, उसी प्रकार पाण्डव सैनिकों द्वारा विपत्ति में पडी़ हुई आप की सेना इधर-उधर खदेडी़ जा रही थी।
योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्रों और कवचों पर सूर्य की किरणें पड़ने से वहाँ आंखें चौंधिया जाती थी और सेना से इतनी धूल उठती थी कि उससे सब के नेत्र बंद हो जाते थे। जब पाण्डवों के द्वारा मारी जाती हुई कौरव सेना तीन भागों में बंट गयी, तब द्रोणाचार्य ने अत्यन्त कुपित होकर अपने बाणों द्वारा पाञ्चालों का विनाश आरम्भ किया। पाञ्चालों की उन सेनाओं को रौंदते और बाणों द्वारा उनका संहार करते हुए द्रोणाचार्य का स्वरुप प्रलयकाल की प्रज्वलि अग्नि के समान जान पड़ता था। प्रजानाथ! महारथी द्रोण ने उस युद्ध स्थल में शत्रुसेना के प्रत्येक रथ, हाथी, अश्व और पैदल सैनिक को एक-एक बाण से घायल कर दिया। भारत! प्रभो! उस समय पाण्डवों की सेना में कोई ऐसा वीर नहीं था, जो रणक्षेत्रों में द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए बाणों को धैर्यपूर्वक सह सका हो। भरतनन्दन! सूर्य के द्वारा अपनी किरणों से पकायी जाती हुई सी धृष्टद्युम्न की सेना द्रोणाचार्य के बाणों से संतप्त हो जहाँ तहां चक्कर काटने लगी। इसी प्रकार धृष्टद्युम्न के द्वारा खदेडी़ जाती हुई आप की सेना भी सब ओर से आग लग जाने के कारण प्रज्वलित हुए सूखे वन की भाँति दग्ध हो रही थी। द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न के बाणों द्वारा सेनाओं के पीड़ित होने पर सब लोग प्राणों का मोह छोड़कर पूरी शक्ति से सब ओर युद्ध कर रहे थे।
भरतभूषण! महाराज! वहाँ युद्ध करते हुए आपके और शत्रुओं के योद्धाओं में कोई ऐसा नहीं था, जिसने भय के कारण युद्ध का मैदान छोड़ दिया हो। उस समय विविंशति, चित्रसेन तथा महारथी विकर्ण-इन तीनों भाइयों ने कुन्ती पुत्र भीमसेन को घेर लिया। अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द तथा पराक्रमी क्षेमधूर्ति- ये तीनों ही आपके पूर्वोक्त तीनों पुत्रों के अनुयायी थे। उत्तम कुल में उत्पन्न हुए तेजस्वी महारथी बाह्लीक राज ने सेना और मन्त्रियों सहित जाकर द्रौपदी पुत्रों को रोका। शिबिदेशीय राजा गोवासन ने कम से कम एक सहस्र योद्धा साथ लेकर काशिराज अभिभू के पराक्रमी पुत्र का सामना किया। प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी अजातशत्रु कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर का सामना मद्र देश के स्वामी राजा शल्य ने किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद)
अमर्षशील शूरवीर दु:शासन ने अपनी भागती हुई सेना को पुन: स्थिरता पूर्वक स्थापित करके कुपित हो युद्ध स्थल में रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि पर आक्रमण किया। अपनी सेना तथा चार सौ महाधनुर्धरों के साथ कवच धारण करके सुसज्जित हो मैंने चेकितान को रोका। सेना सहित शकुनि ने माद्री पुत्र नकुल का प्रतिरोध किया। उसके साथ हाथों में धनुष, शक्ति और तलवार लिये सात सौ गान्धार-देशीय योद्धा मौजूद थे। अवन्ती के राजकुमार बिन्द और अनुविन्द ने मत्स्य नरेश विराट पर आक्रमण किया। उन दोनों महाधनुर्धर वीरों ने प्राणों का मोह छोड़कर अपने मित्र दुर्योधन के लिये हथियार उठाया था। किसी से परास्त न होने वाले पराक्रमी यज्ञसेन कुमार शिखण्डी को, जो राह रोक कर खड़ा था, बाह्लीक ने पूर्ण प्रयत्नशील होकर रोका।
अवन्ती के एक दूसरे वीर ने क्रूर स्वभाव वाले प्रभद्र कों और सौवीरदेशीय सैनिकों के साथ आकर क्रोध में भरे हुए पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न को रोका। क्रोध में भरकर युद्ध के लिये आते हुए क्रुरकर्मा तथा शूरवीर राक्षस घटोत्कच पर अलायुध ने शीघ्रता पूर्वक आक्रमण किया। पाण्डवपक्ष के महारथी राजा कुन्तिभोज ने विशाल सेना के साथ आकर कुपित हुए कौरव पक्षीय राक्षसराज अलम्बुष का सामना किया। भरतनन्दन! उस समय सिंधुराज जयद्रथ सारी सेना के पीछे महाधनुर्धर कृपाचार्य आदि रथियों से सुरक्षित था। राजन! जयद्रथ के दो महान चक्र रक्षक थे। उसके दाहिने चक्र की अश्वत्थामा और बायें चक्र की रक्षा सूतपुत्र कर्ण कर रहा था। भूरिश्रवा आदि वीर उसके पृष्टभाग की रक्षा करते थे। कृप, वृषसेन, शल और दुर्जय वीर शल्य–ये सभी नीतिश, महान धनुर्धर एवं युद्धकुशल थे और इस प्रकार सिंधुराज की रक्षा का प्रबन्ध करके वहाँ युद्ध कर रहे थे।
(इस प्रकार श्री महाभारत द्राणपर्वक अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में संकुल युद्ध विषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हूआ)
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