सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“संजय का धृतराष्ट्र को उपालम्भ”
संजय कहते हैं ;- महाराज! मैंने सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है, वह सब आपको सभी बताऊँगा। स्थिर होकर सुनने की इच्छा कीजिये। इस परिस्थितियों में आपका महान अन्याय ही कारण है। भरतश्रेष्ठ राजन! जैसे पानी निकल जाने पर वहाँ पुल बाँधना व्यर्थ है, उसी प्रकार इस समय आपका यह विलाप भी निष्फल है। आप शोक न कीजिये। काल के इस अद्भुत विधान का उल्लंघन करना असम्भव है। भरतभूषण! शोक त्याग दीजिये। यह सब पुरातन प्रारब्ध का फल है।
यदि आप कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा अपने पुत्रों को पहले ही जूए से रोक देते तो आप पर यह संकट नहीं आता। फिर जब युद्ध का अवसर आया, उसी समय यदि आपने क्रोध में भरे हुए अपने पुत्रों को बलपूर्वक रोक दिया होता तो आप पर यह संकट नहीं आ सकता था।
यदि आप पहले ही कौरवों को यह आज्ञा दे देते कि इस दुर्विनीत दुर्योधन को कैद कर लो तो आप पर यह संकट नहीं आता। आपकी बुद्धि के वैपरीत्य का फल पाण्डव, पांचाल, समस्त वृष्णिवंशी तथा अन्य जो-जो नरेश हैं, वे सभी भोगेंगे। यदि आपने अपने पुत्र को सन्मार्ग में स्थापित करके पिता कर्तव्य का पालन करते हुए धर्म के अनुसार बर्ताव किया होता तो आप पर यह संकट नहीं आता। आप संसार में बड़े बुद्धिमान समझे जाते हैं तो भी आपने सनातन धर्म का परित्याग करके दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के मत का अनुसरण किया है। राजन! आप स्वार्थ में सने हुए हैं। आपका यह सारा विलाप-कलाप मैंने सुन लिया। यह विषमिश्रित मधु के समान ऊपर से ही मीठा है।
अपनी महिमा से च्युत न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण पहले आपका जैसा सम्मान करते थे, वैसा उन्होंने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीष्म तथा द्रोणाचार्य का भी समादर नहीं किया है। परंतु जब से श्रीकृष्ण ने यह जान लिया है कि आप राजोचित धर्म से नीचे गिर गये हैं, तब से वे आपका उस तरह अधिक आदर नहीं करते हैं। पुत्रों को राज्य दिलाने की अभिलाषा रखने वाले महाराज! कुन्ती के पुत्रों को कठोर बातें सुनायी जाती थीं और आप उनकी उपेक्षा करते थे आज उसी अन्याय का फल आपको प्राप्त हुआ है।
निष्पाप नरेश! आपने उन दिनों बाप-दादों के राज्य को तो अपने अधिकार में कर ही लिया था; फिर कुन्ती के पुत्रों द्वारा जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वी विशाल साम्राज्य भी हड़प लिया। राजा पाण्डु ने भूमण्डल का राज्य जीता और कौरवों के यश का विस्तार किया था। फिर धर्मपरायण पाण्डवों ने अपने पिता से भी बढ़-चढ़ कर राज्य और सुयश का प्रसार किया है। परंतु उनका वैसा महान कर्म भी आपको पाकर अत्यन्त निष्फल हो गया; क्योंकि आपने राज्य के लोभ में पड़कर उन्हें अपने पैतृक राज्य से भी वंचित कर दिया।
नरेश्वर! आज जब युद्ध का अवसर उपस्थित है, ऐसे समय में जो आप अपने पुत्रों के नाना प्रकार के दोष बताते हुए उनकी निंदा कर रहे हैं यह इस समय आपकी शोभा नहीं देता है। राजा लोग रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए अपने जीवन की रक्षा नहीं कर रहे हैं। वे क्षत्रियशिरोमणि नरेश पाण्डवों की सेना में घुसकर युद्ध करते हैं।
श्रीकृष्ण, अर्जुन, सात्यकि तथा भीमसेन जिस सेना की रक्षा करते हों, उस के साथ कौरवों के सिवा दूसरा कौन युद्ध कर सकता है? जिनके योद्धा गुडाकेश अर्जुन हैं, जिनके मन्त्री भगवान श्रीकृष्ण हैं तथा जिनकी ओर से युद्ध करने वाले योद्धा सात्यकि और भीमसेन हैं, उनके साथ कौरवों तथा उनके चरणचिह्नों पर चलने वाले अन्य नरेशों को छोड़कर दूसरा कौन मरणधर्मा धनुर्धर युद्ध करने का साहस कर सकता है?
अवसर को जानने वाले, क्षत्रिय-धर्मपरायण, शूरवीर राजा लोग जितना कर सकते हैं, कौरवपक्षी नरेश उतना पराक्रम करते हैं। पुरुषसिंह पाण्डवों के साथ कौरवों का जिस प्रकार अत्यन्त संकटपूर्ण युद्ध हुआ है, वह सब आप ठीक-ठीक सुनिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में संजयवाक्यविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सतासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-सैनिकों का उत्साह तथा आचार्य द्रोण के द्वारा चक्रशकटव्यूह का निर्माण”
संजय कहते हैं ;- राजन! वह रात बीतने पर प्रातःकाल शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने अपनी सारी सेनाओं का व्यूह बनाना आरम्भ किया। राजन उस समय अत्यन्त क्रोध में भरकर एक-दूसरे के वध की इच्छा से गर्जना करने वाले अमर्शशील शूरवीरों की विचित्र बातें सुनायी देती थीं। कोई धनुष खींचकर और कोई प्रत्याचं पर हाथ फेरकर रोषपूर्ण उच्छ्वास लेते हुए चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि इस समय अर्जुन कहाँ है? कितने ही योद्धा आकाश के समान निर्मल पानीदार,संभाल कर रखी हुई, सुन्दर मूठ और तेज धार वाली तलवार को म्यान से निकालकर चलाने लगे। मन में संग्राम के लिए पूर्ण उत्साह रखने वाले सहस्रों शूरवीर अपनी शिक्षा के अनुसार खड्गयुद्ध और धनुर्युद्ध के मार्गों (पैतरों) का प्रदर्शन करते दिखायी देते थे।
दूसरे बहुत-से योद्धा घंटानाद से युक्त, चन्दनचर्चित तथा सुर्वण एवं हीरों से विभूषित गदाएँ ऊपर उठाकर पूछते थे कि पाण्डुपुत्र अर्जुन कहाँ है? अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले कितने योद्धा अपने बल के मध्य से उन्मक्त हो ऊँचे फहराते हुए इन्द्रध्वज के समान उठे हुए परिघों से सम्पूर्ण आकाश को व्याप्त कर रहे थे। दूसरे शूरवीर योद्धा विचित्र मालाओं से अंलकृत हो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये मन में युद्ध के लिये उत्साहित होकर जहाँ तहाँ खड़े थे। वे उस समय रणक्षेत्र में शत्रुओं को ललकारते हुए इस प्रकार कहते थे, कहाँ है अर्जुन? कहाँ हैं श्रीकृष्ण कहाँ है घमण्डी भीमसेन? और कहाँ हैं उनके सारे सुहृद? तदनन्तर द्रोणाचार्य शंख बजाकर स्वयं ही अपने घोड़ों को उतावली के साथ हाँकते और उन सैनिकों का व्यूह-निर्माण करते हुए इधर-उधर बड़े वेग से विचर रहे थे।
महाराज! युद्ध से प्रसन्न होने वाले उन समस्त सैनिकों के व्युहबद्ध हो जाने पर द्रोणाचार्य ने जयद्रथ से कहा। 'राजन! तुम, भूरिश्रवा, महारथी कर्ण ,अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन तथा कृपाचार्य, एक लाख घुड़सवार, साठ हजार रथ, चौदह हजार मदस्त्रावी गजराज तथा इक्कीस हजार कवचधारी पैदल सैनिकों को साथ लेकर मुझसे छः कोस की दूरी पर जाकर डटे रहो।' 'सिंधुराज! वहाँ रहने पर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारा सामना नहीं कर सकते, तो समस्त पाण्डव तो कर ही कैसे सकते हैं? अतः तुम धैर्य धारण करो।'
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद)
उनके ऐसा कहने पर सिधुंराज जयद्रथ को बड़ा आश्वासन मिला। वह गान्धार महारथियों से घिरा हुआ युद्ध के लिये चल दिया। कवचधारी घुड़सवार हाथों में प्रास लिये पूरी सावधानी के साथ उन्हें घेरे हुए चल रहे थे। राजेन्द्र! जयद्रथ के घोडे़ सवारी में बहुत अच्छा काम देते थे। वे सब-के-सब चँवर की कलँगी से सुशोभित और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित थे। उन सिंधुदेशीय अश्वों की संख्या दस हजार थी। जिन पर युद्ध कुशल हाथीसवार आरूढ़ थे, ऐसे भयंकर रूप तथा पराक्रम वाले डेढ़ हजार कवचधारी मतवाले गजराजों के साथ आकर आपका पुत्र दुर्मर्षण युद्ध के लिये उद्यत हो सम्पूर्ण सेनाओं के आगे खड़ा हुआ। तत्पश्चात आपके दो पुत्र दुःशासन और विकर्ण सिन्धुराज जयद्रथ के अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये सेना के अग्रभाग में खड़े हुए। आचार्य द्रोण ने चक्रगर्भ शकट-व्यूह का निर्माण किया था, जिसकी लम्बाई बारह गव्यूति थी और पिछले भाग की चैड़ाई पाँच गव्यूति थी।
यत्र-तत्र खड़े हुए अनेक नरपतियों तथा हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल सैनिकों द्वारा द्रोणाचार्य ने स्वयं उस व्यूह की रचना की थी। उस चक्रशकटव्यूह के पिछले भाग में पद्मनामक एक गर्भव्यूह बनाया था, जो अत्यन्त दुर्भेद्य था। उस पद्यव्यूह के मध्यभाग में सूची नामक एक गूढ़ व्यूह और बनाया गया था। इस प्रकार इस महाव्यूह की रचना करके द्रोणाचार्य युद्ध के लिये तैयार खड़े थे। सूचीमुख व्यूह के प्रमुख भाग में महाधनुर्धर कृतवर्मा को खड़ा किया गया था। आर्य! कृतवर्मा के पीछे काम्बोजराज और जलसंध खड़े हुए, तदनन्तर दुर्योधन और कर्ण स्थित हुए।
तत्पश्चात युद्ध में पीठ न दिखाने वाले एक लाख योद्धा खड़े हुए थे। वे सब-के-सब शकटव्यूह के प्रमुख भाग की रक्षा के लिये नियुक्त थे। उनके पीछे विशाल सेना के साथ स्वयं राजा जयद्रथ सूचीव्यूह के पार्श्वभाग में खड़ा था। राजेन्द्र! उस शकटव्यूह के मुहाने पर भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य थे और उनके पीछे भोज था, जो स्वयं आचार्य की रक्षा करता था। द्रोणाचार्य का कवच श्वेत रंग का था। उनके वस्त्र और उष्णीष (पगड़ी) भी श्वेत ही थे। छाती चौड़ी और भुजाएँ विशाल थी। उस समय धनुष खींचते हुए द्रोणाचार्य वहाँ क्रोध में भरे हुए यमराज के समान खड़े थे। उस समय वेदी और काले मृगचर्म के चिह्न से युक्त ध्वज वाले, पताका से सुशोभित और लाल घोड़ों से जुते हुए द्रोणाचार्य के रथ को देखकर समस्त कौरव बड़े प्रसन्न हुए। द्रोणचार्य द्वारा रचित वह महाव्यूह महासागर के समान जान पड़ता था। उसे देखकर सिद्धों और चारणों के समुदायों को महान विस्मय हुआ।
उस समय प्राणी ऐसा मानने लगे कि वह व्यूह पर्वत, समुद्र और काननों सहित अनेकानेक जनपदों से भरी हुई इस सारी पृथ्वी को अपना ग्रास बना लेगा। बहुत-से रथ, पैदल मनुष्य, घोड़े और हथियों से परिपूर्ण, भयंकर कोलाहल से युक्त एवं शत्रुओं के हृदय को विदीर्ण करने में समर्थ, अद्भुत और समय के अनुरूप बने हुए उस महान शकटव्यूह को देखकर राजा दुर्योधन बहुत प्रसत्र हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में कौरव-सेना के व्यूह का निर्माण्विषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
अठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव-सेना के लिये अपशकुन, दुर्मर्ण का अर्जुन से लड़ने का उत्साह तथा अर्जुन का रणभूमि में प्रवेश एवं शंखनाद”
संजय कहते हैं ;- आर्य! जब इस प्रकार कौरव-सेनाओं की व्यूह-रचना हो गयी, युद्ध के लिये उत्सुक सैनिक कोललाहल करने लगे, नगाड़े पीटे जाने लगे, मृदंग बजने लगे, सैनिकों की गर्जना के साथ-साथ रणवाद्यों की तुमुल ध्वनि फैलने लगी शंख फूँके जाने लगे, रोमांचकारी शब्द गूँजने लगा और युद्ध के इच्छुक भरतवंशी वीर जब कवच धारण करके धीरे-धीरे प्रहार लिये उद्यत होने लगे, उस समय उग्र मुहूर्त आने पर युद्धभूमि में सव्यसाची अर्जुन दिखायी दिये। भारत! वहाँ सव्यसाची अर्जुन के सम्मुख आकाश में कई हजार कौए और वायस क्रीडा करते हुए उड़ रहे थे। और जब हम लोग आगे बढ़ने लगे, तब भयंकर शब्द करने वाले पशु और अशुभ दर्शन वाले सियार हमारे दाहिने आकर कोलाहल करने लगे।
महाराज! उस लोक-संहारकारी युद्ध में जैसे-तैसे अपशकुन प्रकट होने लगे, जो आपके पुत्रों के लिये अमगंलकारी और अर्जुन के लिये मगंलकारी थे। महान भय उपस्थित होने के कारण आकाश से भयंकर गर्जना के साथ सहस्रों जलती हुई उल्काएँ गिरने लगीं और सारी पृथ्वी काँपने लगी। अर्जुन के आने और संग्राम का अवसर उपस्थित होने पर रेत की वर्षा करने वाली विकट गर्जन-तर्जन के साथ रूखी एवं चौबाई हवा चलने लगी। उस समय नकुलपुत्र शतानीक और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न- इन दोनों बुद्धिमान वीरों ने पाण्डव सैनिकों के व्यूह का निर्माण किया। तदनन्तर एक हजार रथी, सौ हाथीसवार, तीन हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सैनिकों के साथ आकर अर्जुन से डेढ़ हजार धनुष की दूरी पर स्थित हो समस्त कौरव सैनिकों के आगे होकर आपके पुत्र दुर्मर्षण ने इस प्रकार कहा।
'जिस प्रकार तटभूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोकती है,उसी प्रकार आज मैं युद्ध में उन्मुक्त होकर लड़ने वाले शत्रुसंतापी गाण्डीवधारी अर्जुन को रोक दूँगा।' 'आज सब लोग देखें, जैसे पत्थर दूसरे प्रस्तरसमूह से टकराकर रह जाता है, उसी प्रकार अमर्शषील दुर्घर्ष अर्जुन युद्धस्थल में मुझसे भिड़कर अवरुद्ध हो जायँगे।' 'संग्राम की इच्छा रखने वाले रथियो! आप लोग चुपचाप खड़े रहें। मैं कौरवकुल के यश और मान की वृद्धि करता हुआ आज इन संगठित होकर आये हुए शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा।'
राजन! महाराज! ऐसा कहता हुआ वह महामनस्वी महाबुद्धिमान एवं महाधनुर्धर दुर्मर्षण बड़े-बड़े धनुर्धरों से घिरकर युद्ध के लिये खड़ा हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 15-23 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, दण्डधारी असह्य अन्तक, कालप्रेरक मृत्यु, किसी से भी क्षुब्ध न होने वाले त्रिशूलधारी रुद्र, पाशधारी वरुण तथा पुनः समस्त प्रजा को दग्ध करने के लिये उठे हुए ज्वालाओं से युक्त प्रलयकालीन अग्नि देव के समान दुर्घर्ष वीर अर्जुन युद्ध स्थल में अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए नवोदित सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। वे क्रोध, अमर्ष और बल से प्रेरित होकर आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने ही पूर्वकाल में निवातकवच नामक दानवों का संहार किया था। वे जय नाम के अनुसार ही विजयी होते थे। सत्य में स्थित होकर अपने महान व्रत को पूर्ण करने के लिये उद्यत थे। उन्होंने कवच बाँध रखा था। मस्तक पर जाम्बूनद सुवर्ण का बना हुआ किरीट धारण किया था। उनके कमर में तलवार लटक रही थी। वे नरस्वरूप अर्जुन नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का अनुसरण करते हुए सुन्दर अंगदों और मनोहर कुण्डलों से सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने श्वेत माला और श्वेत वस्त्र पहन रखे थे। राजन प्रतापी अर्जुन ने अपने सामने खड़ी हुई विशाल शत्रुसेना के सम्मुख, जितनी दूर से बाण मारा जा सके उतनी ही दूरी पर अपने रथ को खड़ा करके शंख बजाया।
आर्य! तब श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के साथ बिना किसी घबराहट के अपने श्रेष्ठ शंख पाँचजन्य को बलपूर्वक बजाया। प्रजानाथ! उन दोनों के शंखनाद से आपकी सेना के समस्त योद्धाओं के रोंगटे खड़े हो गये, सब लोग काँपते हुए अचेत-से हो गये। जैसे वज्र की गडगड़ाहट से सारे प्राणी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार उन दोनों वीरों की शंखध्वनि से आपके समस्त सैनिक संत्रस्त हो उठे। सेना के सभी वाहन भय के मारे मल-मूत्र करने लगे। इस प्रकार सवारियों सहित सारी सेना उद्विग्न हो गयी। आदरणीय महाराज! अपनी सेना के सब मनुष्य वह शंखनाद सुनकर शिथिल हो गये। नरेश्वर! कितने ही तो मूर्च्छित हो गये और कितने ही भय से थर्रा उठे।
तत्पश्चात अर्जुन की ध्वजा में निवास करने वाले भूतगणों के साथ वहाँ बैठे हुए हनुमान जी ने मुंह बाकर आपके सैनिकों को भयभीत करते हुए बड़े जोर से गर्जना की। तब आपकी सेना में भी पुनः मृदंग और ढोल के साथ शंख तथा नगाडे़ बज उठे, जो आपके सैनिको के हर्ष और उत्साह को बढ़ाने वाले थे। नाना प्रकार के रणवाद्यों की ध्वनि से, गर्जन-तर्जन करने से, ताल ठोंकने से, सिंहनाद से और महारथियों के ललकारने से जो शब्द होते थे, वे सब मिलकर भयंकर हो उठे और भीरू पुरुषों के हृदय में भय उत्पन्न करने लगे। उस समय अत्यन्त हर्ष में भरे हुए इन्द्रपुत्र अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में अर्जुन का रणभूमि में प्रवेशविषयक अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन के द्वारा दुर्मर्षण की गजसेना का संहार और समस्त सैनिकों का पलायन”
अर्जुन बोले ;- हृषीकेश! जहाँ दुर्मर्षण खड़ा है, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइये। मैं उसकी इस गजसेना का भेदन करके शत्रुओं की विशालवाहिनी में प्रवेश करूँगा।
संजय कहते हैं ;- राजन! सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर महाबाहु श्रीकृष्ण ने, जहाँ दुर्मर्षण खड़ा था, उसी ओर घोड़ों को हाँका। उस समय एक वीर का बहुत-से योद्धाओं के साथ बड़ा भयंकर घमासान युद्ध छिड़ गया, जो रथों, हाथियों और मनुष्यों का संहार करने वाले था। तदनन्तर अर्जुन बाणों की वर्षा करते हुए जल बरसाने वाले मेघ के समान प्रतीत होने लगे। जैसे मेघ पानी की वर्षा करके पर्वतों को आच्छादित कर देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपनी बाणवर्षा से शत्रुओं को ढक दिया।
उधर उन समस्त कौरव रथियों ने भी सिद्धहस्त पुरुषों की भाँति शीघ्रतापूर्वक अपने बाणसमूहों द्वारा वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित कर दिया। उस समय युद्धस्थ में शत्रुओं के द्वारा रोके जाने पर महाबाहु अर्जुन कुपित हो उठे और अपने बाणों द्वारा रथियों के मस्तकों उनके शरीरों से गिराने लगे। कुण्डल और टोपों सहित उन रथियों के घूमते हूए नेत्रों तथा दाँतों द्वारा चबाये जाते हुए ओठों वाले सुन्दर मुखों से सारी रणभूमि पट गयी।
सब ओर बिखरे हुए योद्धाओं के मुख कटकर गिरे हुए कमल-समूहों के समान सुशोभित होने लगे। सुवर्णमय कवच धारण किये और खून से लथपथ हो एक दूसरे से सटे हुए हताहत योद्धाओं के शरीर विद्युतसहित मेघसमूहों के समान दिखायी देते थे। राजन! काल से परिपक्व हुए ताड़ के फलों के पृथ्वी पर गिरने से जैसा शब्द होता है, उसी प्रकार रणभूमि में कटकर गिरते हुए योद्धाओं के मस्तकों का शब्द होता था। कोई-कोई कबन्ध धनुष लेकर खड़ा था और कोई तलवार खींचकर उसे हाथ में उठाये खड़ा हुआ था।
संग्राम में विजय की अभिलाषा रखने वाले कितने ही श्रेष्ठ पुरुष कुन्तीपुत्र अर्जुन के प्रति अमर्षशील होकर यह भी न जान पाये कि उनके मस्तक कब कटकर गिर गये। घोड़ों के मस्तकों, हाथियों की सूँड़ों और वीरों की भुजाओं तथा सिरों से सारी रणभूमि आच्छादित हो गयी थी। प्रभो! आपकी सेनाओं के समस्त योद्धओं की दृष्टि में सब ओर अर्जुनमय-सा हो रहा था। वे बार-बार 'यह अर्जुन है, कहाँ अर्जुन है? यह अर्जुन है' इस प्रकार चिल्ला उठते थे।
बहुत-से दूसरे सैनिक आपस में ही एक दूसरे पर तथा अपने ऊपर भी प्रहार कर बैठते थे। वे काल से मोहित होकर सारे संसार को अर्जुनमय ही मानने लगे। बहुत-से वीर रक्त से भीगे शरीर से धराशायी होकर गहरी वेदना के कारण कराहते हुए अपनी चेतना खो बैठते थे और कितने ही योद्धा धरती पर पड़े-पड़े अपने बन्धु-बान्धवों को पुकार रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन के श्रेष्ठ बाणों से कटी हुई वीरों की परिघ के समान मोटी और महान सर्प के समान दिखायी देने वाली भिन्दिपाल, प्रास, शक्ति, ऋष्टि,फरसे,निर्व्यूह, खड्ग, धनुष, तोमर, बाण, कवच, आभूषण, गदा और भुजवद आदि से युक्त भुजाएँ आवेश में भरकर अपना महान वेग प्रकट करती, ऊपर को उछलती, छटपटाती और सब प्रकार की चेष्टाएँ करती थीं। जो जो मनुष्य उस समरांगण में अर्जुन का सामना करने के लिये चलता था, उस-उस के शरीर पर प्राणान्तकारी बाण आ गिरता था।
अर्जुन वहाँ इस प्रकार निरन्तर रथ के मार्गों पर विचरते और धनुष को खींच रहे थे कि उस समय कोई भी उन पर प्रहार करने का थोड़ा-सा भी अवसर नहीं देख पाता था। पाण्डुपुत्र अर्जुन पूर्ण सावधान हो विजय पाने की चेष्टा करते और शीघ्रतापूर्वक बाण चलाते थे। उस समय उनकी फुर्ती देखकर दूसरे लोगों को बडा़ आश्चर्य होता था। अर्जुन ने हाथी और महावत को, घोडे़ और घुड़सवार को तथा रथी और सारथि को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर डाला।
जो लौटकर आ रहे थे, जो आ चुके थे, जो युद्ध करते थे और जो सामने खडे़ थे- इनमें से किसी को भी पाण्डुकुमार अर्जुन मारे बिना नहीं छोड़ते थे। जैसे आकाश में उदित हुआ सूर्य महान अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने कंक की पाख वाले बाणों द्वारा उस गजसेना का संहार कर डाला। राजन बाणों से छिन्न-भिन्न होकर धरती पर पड़े हुए हाथियों से आपकी सेना वैसी ही दिखायी देती थी, जैसे प्रलयकाल में यह पृथ्वी इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतों से आच्छादित देखी जाती है। जैसे दोपहर के सूर्य की ओर देखना समस्त प्राणियों के लिये सदा ही कठिन होता है, उसी प्रकार उस युद्धस्थल में कुपित हुए अर्जुन की ओर शत्रुलोग बड़ी कठिनाई से देख पाते थे।
शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! इस प्रकार उस युद्ध स्थल में अर्जुन के बाणों से पीड़ित हुई आपके पु़त्र की सेना के पाँव उखड़ गये और वह अत्यन्त उद्विग्न हो तुंरत ही वहाँ से भाग चली। जैसे बड़े वेग से उठी हुई वायु बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार दुर्मर्षण की सेना का व्यूह टूट गया और वह अर्जुन के खदेड़ने पर इस प्रकार जोर-जोर से भागने लगी कि उसे पीछे फिरकर देखने का भी साहस न हुआ।
अर्जुन के बाणों से पीड़ित हुए आपके पैदल, घुड़सवार और रथी सैनिक चाबुक, धनुष की कोटि , हुंकार, हाँकने की सुन्दर कला, कोड़ों के प्रहार, चरणों के आघात तथा भयंकर वाणी द्वारा अपने घोड़ों को बड़ी उतावली के साथ हाँकते हुए भाग रहे थे। दूसरे गजारोही सैनिक अपने पैरों के अँगूठों और अंकुशों द्वारा हाथियों को हाँकते हुए रणभूमि से पलायन कर रहे थे। कितने ही योद्धा अर्जुन के बाणों से मोहित होकर उन्हीं के सामने चले जाते थे। उस समय आपके सभी योद्धाओं का उत्साह नष्ट हो गया था और मन में बड़ी भारी घबराहट पैदा हो गयी थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अनुसार जयद्रथवधपर्व में अर्जुनयुद्धविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
नब्बेवाँ अध्याय
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