सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (प्रतिज्ञा पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन को स्वप्न में ही पुनः पाशुपतास्त्र की प्राप्ति”
संजय कहते हैं ;- राजन। तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन ने प्रसन्नचित्त हो हाथ जोड़कर समस्त तेजों के भण्डार भगवान वृषभध्वज का हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से दर्शन किया। उन्होंने अपने द्वारा समर्पित किये हुए रात्रिकाल के उस नैत्यिक उपहार को, जिसे श्रीकृष्ण को निवेदित किया था भगवान त्रिनेत्रधारी शिव के समीप रखा हुआ देखा। तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने मन-ही-मन भगवान श्रीकृष्ण और शिव की पूजा करके भगवान शंकर से कहा,
अर्जुन ने कहा ;- 'प्रभो। मैं आपसे दिव्य अस्त्र प्राप्त करना चाहता हूँ।' उस समय अर्जुन का वर-प्राप्ति के लिये वह वचन सुनकर महादेव जी मुस्कराने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से बोले। 'नरश्रेष्ठ। तुम दोनों का स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे विदित है। तुम दोनों जिस कामना से यहाँ आये हो उसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ।' 'शत्रुसूदन वीरो! यहाँ पास ही दिव्य अमृतमय सरोवर है, वहीं पूर्वकाल में मेरा वह दिव्य धनुष और बाण रखा गया था, जिसके द्वारा मैंने युद्ध में सम्पूर्ण देव-शत्रुओं को मार गिराया था। कृष्ण तुम दोनों उस सरोवर से बाणसहित वह उत्तम धनुष ले आओ।' तब 'बहुत अच्छा' कहकर वे दोनों वीर भगवान शंकर के पार्षदगणों के साथ सैकड़ों दिव्य ऐश्वर्यों से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाले उस पुण्यमय दिव्य सरोवर की ओर प्रस्थित हुए, जिसकी ओर जाने के लिये महादेव जी ने स्वयं ही संकेत किया था। वे दोनों नर-नारायण ऋषि बिना किसी घबराहट के वहाँ जा पहुँचे। उस सरोवर के तट पर पहुँचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ने जल के भीतर एक भयंकर नाग देखा, जो सूर्यमण्डल के समान प्रकाशित हो रहा था।
वहीं उन्होंने अग्नि के समान तेजस्वी और सहस्र फणों से युक्त दूसरा श्रेष्ठ नाग भी देखा, जो अपने मुख से आग की प्रचण्ड ज्वालाएँ उगल रहा था। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन जल से आचमन करके हाथ जोड़ भगवान शंकर को प्रणाम करते हुए उन दोनों नागों के निकट खड़े हो गये। वे दोनों ही वेदों के विद्वान थे। अतः उन्होंने शतरुद्री मन्त्रों का पाठ करते हुए साक्षात ब्रह्मस्वरूप अप्रमेय शिव की सब प्रकार से शरण लेकर उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर भगवान शंकर की महिमा से वे दोनों महानाग अपने उस रूप को छोड़कर दो शत्रुनाशक धनुष-बाण के रूप में परिणत हो गये। उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उस प्रकाशमान धनुष और बाण को हाथ में ले लिया। फिर वे उन्हें महादेव जी के पास ले आये और उन्हीं महात्मा के हाथों में अर्पित कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)
तब भगवान शंकर के पार्श्व भाग से एक ब्रह्मचारी प्रकट हुआ, जो पिगंल नेत्रों से युक्त, तपस्या का क्षेत्र, बलवान तथा नील-लोहित वर्ण का था। वह एकाग्रचित्त हो उस श्रेष्ठ धनुष को हाथ में लेकर एक धनुर्धर को जैसे खड़ा होना चाहिये, वैसे खड़ा हुआ। फिर उसने बाणसहित उस उत्तम धनुष को विधिपूर्वक खींचा। उस समय अचिन्त्य पराक्रमी पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उसका मुट्ठी से धनुष पकड़ना, धनुष की डोरी को खींचना और विशेष प्रकार से उसका खड़ा होना- इन सब बातों की ओर लक्ष्य रखते हुए भगवान शकंर के द्वारा उच्चारित मन्त्र को सुनकर मन से ग्रहण कर लिया।
तत्पश्चात अत्यन्त बलशाली वीर भगवान शिव ने उस बाण को उसी सरोवर में छोड़ दिया। फिर उस धनुष को भी वहीं डाल दिया। तब स्मरण शक्ति से सम्पन्न अर्जुन ने भगवान शंकर को अत्यन्त प्रसन्न जानकर वनवास के समय जो भगवान शंकर का दर्शन और वरदान प्राप्त हुआ था, उसका मन-ही-मन चिन्तन किया और यह इच्छा की कि मेरा वह मनोरथ पूर्ण हो। उनके इस अभिप्राय को जानकर भगवान शंकर ने प्रसन्न हो वरदान के रूप में वह घोर पाशुपत अस्त्र जो उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति कराने वाला था, दे दिया। भगवान शंकर से उस दिव्य पाशुपतास्त्र को पुनः प्राप्त करके दुर्धर्ष वीर अर्जुन के शरीर में रोमांच हो आया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब मेरा कार्य पूर्ण हो जायेगा। फिर तो अत्यन्त हर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महापुरुषों ने मस्तक नवाकर भगवान महेश्वर को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले उसी क्षण वे दोनों वीर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने शिविर को लौट आये। जैसे पूर्वकाल में जम्भासुर के वध की इच्छा रखने वाले इन्द्र और विष्णु महासुरविनाशक भगवान शंकर की अनुमति पाकर प्रसन्नतापूर्वक लौटे थे। उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन भी आनन्दित होकर अपने शिविर में आये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुन को पुन: पाशुपतास्त्र की प्राप्तिविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (प्रतिज्ञा पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का प्रातःकाल उठकर स्नान और नित्यकर्म आदि से निवृत हो ब्राह्मणों को दान देना, वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सिंहासन पर बैठना और वहाँ पधारे हुए भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करना”
संजय कहते हैं ;- राजन! इधर श्रीकृष्ण और दारुक में पूर्वोक्त प्रकार से बातें हो ही रही थीं कि वह रात बीत गयी। दूसरी ओर राजा युधिष्ठिर भी जाग गये। उस समय हाथ से ताली देकर गीत गाने वाले तथा मांगलिक वस्तुओं को प्रस्तुत करने वाले सूत, मागध और वैतालिक जन पुरुषश्रेष्ठ युधिष्ठिर की स्तुति करने लगे। नर्तक नाचने और रागयुक्त कण्ठ वाले गायक कुरुकुल की स्तुति युक्त मधुर गीत गाने लगे।
भारत! सुशिक्षित एवं कुशल वादक अत्यन्त हर्ष में भरकर मृदंग, झांझा, भेरी, पणव , आनक, गोमुख, आडम्बर, शंख और बड़े जोर-से बजने वाली दुन्दुभियाँ तथा दूसरे प्रकार के वाद्यों को भी बजाने लगे। द्यों का वह मेघ के समान गम्भीर एवं महान घोष आकाश तक फैल गया। उस ध्वनि ने सोये हुए नृपश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर को जगा दिया।हुमूल्य एवं उत्तम शय्या पर सुखपूर्वक सोकर जगे हुए राजा युधिष्ठिर वहाँ से उठकर आवश्यक कार्य के लिये स्नान करने गये। हाँ स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये एक सौ आठ युवक सोने के घड़ों में जल भरकर उन्हें नहलाने के लिये उपस्थित हुए। उस समय एक हल्का वस्त्र पहनकर राजा युधिष्ठिर भद्रासन (चौकी) पर बैठ गये और चन्दनयुक्त मन्त्रपूत जल से स्नान करने लगे। सबसे पहले बलवान तथा सुशिक्षित पुरुषों ने सर्वौधि आदि द्वारा तैयार किये हुए उबटन से उनके शरीर को अच्छी तरह मला, फिर उन्होंने अधिवासित एवं सुगन्धित जल से स्नान किया। तत्पश्चात राजंहस के समान सफेद ढीली-ढाली पगड़ी लेकर माथे का जल सुखाने के लिये उसे मस्तक पर लपेट लिया।
फिर वे महाबाहु युधिष्ठिर अपने सारे अंगों में हरिचन्दन का अनुलेपन करके नूतन वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये हाथ जोड़े पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। सत्पुरुषों के मार्ग पर चलने वाले कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने जपने योग्य गायत्री मंत्र का जप किया और प्रज्वलित अग्नि से प्रकाशित अग्निशाला में विनीतभाव से प्रवेश किया। वहाँ पवित्री सहित समिधाओं तथा मन्त्रपूत आहुतियों से अग्नि देव की पूजा करके वे उस अग्निहोत्र- गृह से बाहर निकले। फिर शिविर की दूसरी ड्योढ़ी पार करके पुरुषसिंह राजा युधिष्ठिर वेदवेत्ता वृद्ध ब्राह्मणशिरोमणियों को देखा।
वे सब-के-सब जितेन्द्रिय, वेदाध्ययन के व्रत में निष्णात, यज्ञान्तस्नान से पवित्र तथा सूर्य देव के उपासक थे। वे संख्या में एक हजार आठ थे और उनके साथ एक सहस्र अनुचर थे। तब महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अक्षत-फूल देकर उन ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया और उनमें से प्रत्येक ब्राह्मण को मधु, घी एवं श्रेष्ठ मांगलिक फलों के साथ एक-एक स्वर्णमुद्रा प्रदान की।
इसके सिवा उन पाण्डुनन्दन ने ब्राह्मणों को सजे-सजाये सौ घोड़े, उत्तम वस्त्र, इच्छानुसार दक्षिणा और बछड़ों- सहित दूध देने वाली बहुत-सी कपिला गौएँ दीं। उन गौओं के सींगों में सोने और खुरों में चाँदी मढ़े हुए थे। उन सबको देकर युधिष्ठिर उन गौओं एवं ब्राह्मणों की परिक्रमा की।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्वयशीतितमो अध्याय के श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात सोने के बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुँह वाले अर्धपात्र, माला, जल से भरे हुए कलश, प्रज्वलित अग्रि, अक्षत से हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणों से विभूषित सुन्दरी कन्याएँ, दही, घी, मधु, जल मांगलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त वस्तुएँ हैं, उन सबको देखकर और उनमें से कुछ का स्पर्श करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने बाहरी ड्योढ़ी में प्रवेश किया। उस ड्योढ़ी में खड़े हुए महबाहु युधिष्ठिर के सेवकों ने उनके लिये सोने का बना हुआ एक सर्वतोभद्र नामक श्रेष्ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जड़ी हुई थी। उस पर बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ था। उसके ऊपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं समृद्धिशाली सिहांसन साक्षात विश्वकर्मा का बनाया हुआ था। वहाँ बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिर को उनके सेवकों ने सब प्रकार के उज्ज्वल एवं बहुमूल्य आभूषण भेंट किये।
महाराज! मुक्तामय आभूषणों से विभूषित वेश वाले महात्मा कुन्तीनन्दन का स्वरूप उस समय शत्रुओं का शोक बढ़ा रहा था।चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत तथा सुवर्णमय दण्ड वाले सुन्दर शोभाशाली अनेक चँवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिर की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियों से मेघ सुशोभित होता है। उस समय सूतगण स्तुति करते थे, वन्दीजन वन्दना कर रहे थे और गन्धर्वगण उनके सुयश के गीत गाते थे। इन सब से घिरे युधिष्ठिर वहाँ सिहांसन पर विराजमान थे।
तदनन्तर दो ही घड़ी में रथों का महान शब्द गूँज उठा। रथियों रथों के पहियों की घरघराहट और घोड़ों की टापों के शब्द सुनायी देने लगे। हाथियों के घंटों की घनघनाहट, शंखों की ध्वनि तथा पैदल चलने वाले मनुष्यों के पैरों की धमक से यह पृथ्वी काँपती-सी जान पड़ती थी। इसी समय कानों में कुण्डल पहने, कमर में तलवार बाँधे और वृक्षःस्थल पर कवच धारण किये एक तरुण द्वारपाल ने उस ड्योढ़ी के भीतर प्रवेश करके धरती पर दोनों घुटने टेक दिये और वन्दनीय महाराज युधिष्ठिर को मस्तक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिर से प्रणाम करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि भगवान श्रीकृष्ण पधार रहे हैं।
तब पुरुष सिंह युधिष्ठिर ने द्वारपाल से कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- 'तुम माधव को स्वागतपूर्वक ले आओ और उन्हें अर्घ्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो।' तब द्वारपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा दिया। तत्पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में युधिष्ठिर के सुसज्जित होने से सम्बंध रखने वाला बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (प्रतिज्ञा पर्व)
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन की प्रतिज्ञा को सफल बनाने के लिये युधिष्ठिर की श्रीकृष्ण से प्रार्थना और श्रीकृष्ण का उन्हें आश्वासन देना”
संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्न हो देवकीनन्दन जनार्दन का अभिनन्दन करके पूछा। 'मधुसूदन! क्या आपकी रात सुखपूर्वक बीती है? अच्युत! क्या आपकी सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न हैं?'तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनसे समयोचित प्रश्न किये तत्पश्चात सेवक ने आकर सूचना दी कि मन्त्री, सेनापति आदि उपस्थित हैं।
उस समय महाराज की अनुमति पाकर विराट, भीमसेन, धृष्टद्युम्न, सात्यकि, चेदिराज, धृष्टकेतु, महारथी द्रुपद, शिखण्डी, नकुल, सहदेव, चेकितान, केकयराजकुमार, कुरुवंशी युयुत्सु,पांचालवीर उत्तमौजा, युधामन्यु, सुबाहु तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र- इन सब लोगों को द्वारपाल भीतर ले आया। ये तथा और भी बहुत-से क्षत्रियशिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हुए और सुन्दर आसन पर बैठे। महाबली और महातेजस्वी महात्मा श्रीकृष्ण और सात्यकि ये दोनों वीर एक ही आसन पर बैठे थे।
तब युधिष्ठिर ने उन सब लोगों के सुनते हुए कमलनयन भगवान मधुसूदन को सम्बोधित करके मधुर वाणी में कहा। 'प्रभो! जैसे देवता इन्द्र का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार हम लोग एकमात्र आपका सहारा लेकर युद्ध में विजय और शाश्वत सुख पाना चाहते हैं।' 'श्रीकृष्ण! शत्रुओं ने जो हमारे राज्य का नाश करके हमारा तिरस्कार किया और भाँति-भाँति के क्लेश दिये, उन सबको आप अच्छी तरह जानते हैं।'
'भक्तवत्सल सर्वेश्वर! मधुसूदन! हम सब लोगों का सुख और जीवन-निर्वाह पूर्णरूप से आपके ही अधीन है।' 'वार्ष्णेय! हमारा मन आप में ही लगा हुआ है। अतः आप ऐसा करें, जिससे अर्जुन की अभीष्ट प्रतिज्ञा सत्य होकर रहे।' 'माधव! आज इस दुख और अमर्श के महासागर से पार होने की इच्छा वाले हम सब लोगों के लिये आप नौका बन जाइये। आप ही इस संकट से हमारा उद्धार कीजिये।'
'श्रीकृष्ण! संग्राम में शत्रु वध के लिये उद्यत हुआ रथी भी वैसा कार्य नहीं कर पाता, जैसा कि प्रयत्न्नशील सारथि कर दिखाता है।' 'महाबाहु जनार्दन! जैसे आप वृष्णिवंशियों को सम्पूर्ण आपत्तियों से बचाते हैं, उसी प्रकार हमारी भी इस संकट से रक्षा कीजिये।' 'शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले परमेश्वर! नौका-रहित अगाध कौरव-सागर में निगग्न पाण्डवों का आप स्वयं ही नौका बनकर उद्धार कीजिये।' 'शत्रुनाशक! सनातन देवदेवेश्वर! विष्णो! जिष्णो! हरे! कृष्ण! वैकुण्ठ! पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है।' 'माधव! देवर्षि नारद ने बताया है कि आप शांर्ग धनुष धारण करने वाले, सर्वोत्तम वरदायक, पुरातन ऋषिश्रेष्ठ नारायण हैं।, उनकी वह बात सत्य कर दिखाइये।' उस राजसभा में धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उत्तम वक्ता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने सजल मेघ के समान गम्भीर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।
श्रीकृष्ण बोले ;- राजन देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में कोई भी वैसा धनुर्धर नहीं है।, जैसे आपके भाई कुन्तीकुमार धनंजय हैं। वे शक्तिशाली, अस्त्रज्ञानसम्पन्न, पराक्रमी, महाबली, युद्धकुशल, सदा अमर्षशील और मनुष्यों में परम तेजस्वी हैं। अर्जुन के कंधे वृष के समान सुपुष्ट हैं, भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, उनकी चाल भी श्रेष्ठ सिंह के सदृश है, वे महान बलवान युवक और श्रीसम्पन्न हैं, अतः आपके शत्रुओं को अवश्य मार डालेंगे। मैं भी वही करूँगा, जिससे कुन्तीपुत्र अर्जुन दुर्योधन की सारी सेनाओं को उसी प्रकार जला डालेंगे, जैसे आग ईधन को जलाती है। आज सुभद्राकुमार अभिमन्यु की हत्या करने वाले उस नीच पापी जयद्रथ को अर्जुन अपने बाणों द्वारा उस मार्ग पर डाल देंगे, जहाँ जाने पर उस जीव का पुनः इस लोक में दर्शन नहीं होता। आज गीध, बाज, क्रोध भरे हुए गीदड़ तथा अन्य नरभक्षी जीव-जन्तु जयद्रथ का मांस खायेंगे।
यदि इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसकी रक्षा के लिये आ जायँ तथापि वह आज संग्राम में मारा जाकर यमराज की राजधानी में अवश्य जा पहुँचेगा। राजन आज विजयशील अर्जुन जयद्रथ को मारकर ही आपके पास आयेंगे, आप ऐश्वर्य से सम्पन्न रहकर शोक और चिन्ता को त्याग दीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (प्रतिज्ञा पर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद, अर्जुन का स्वप्न सुनकर समस्त सुहृदों की प्रसन्नता, सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ रथ पर बैठकर अर्जुन की रणयात्रा तथा अर्जुन के कहने से सात्यकि का युधिष्ठिर की रक्षा के लिये जाना”
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार उन लोगों में बात-चीत हो ही रही थी कि सुहॄदोंसहित भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर का दर्शन करने की इच्छा से अर्जुन वहाँ आ गये। उस सुन्दर ड्योढ़ी में प्रवेश करके राजा को प्रणाम करने के पश्चात उनके सामने खड़े हुए अर्जुन को पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर उठकर प्रेमपूर्वक हॄदय से लगा लिया। उनका मस्तक सूँघकर और एक बाँह से उनका आलिंगन करके उन्हें उत्तम आशीर्वाद देते हुए राजा ने मुस्कराकर कहा। 'अर्जुन! आज संग्राम में तुम्हें निश्चय ही महान विजय प्राप्त होगी यह बात स्पष्टरूप से दॄष्टिगोचर हो रही है; क्योंकि इसी के अनुरूप तुम्हारे मुख की कान्ति है और भगवान श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हैं।'
'तब विजयशील अर्जुन ने उनसे कहा- राजन! आपका कल्याण हो! आज मैंने बहुत उत्तम और आश्चर्यजनक स्वप्न देखा है। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से ही वैसा स्वप्न प्रकट हुआ था।' यों कहकर अर्जुन अपने सुहृदों के आश्वासन के लिये जिस प्रकार भगवान शंकर से मिलन का स्वप्न देखा था, वह सब कह सुनाया। यह स्वप्न सुनकर वहाँ आये हुए सब लोग आश्चर्यचकित हो उठे और सब ने धरती पर मस्तक टेक कर भगवान शंकर को प्रणाम करके कहा- 'यह तो बहुत अच्छा हुआ'।
तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर कवच धारण किये हुए समस्त सुहृद हर्ष में भरकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से युद्ध के लिये निकले। तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्यकि, श्रीकृष्ण और अर्जुन बड़े हर्ष के साथ उनके शिविर से बाहर निकले। दुर्धर्ष वीर सात्यकि और श्रीकृष्ण एक रथ पर आरूढ़ हो एक साथ अर्जुन के शिविर में गये।
वहाँ पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण ने एक सारथि के समान रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन के वानरश्रेष्ठ हनुमान के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले रथ को युद्ध के लिये सुसज्जित किया। मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाला और तपाये हुए सुवर्ण समान प्रभा से उद्भासित होने वाला वह सजाया हुआ श्रेष्ठ रथ प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था।तदनन्तर युद्ध के लिये सुसज्जित पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषसिहं श्रीकृष्ण ने नित्य-कर्म सम्पन्न करके बैठे हुए अर्जुन को यह सूचित किया कि रथ तैयार है।
तब पुरुषों में श्रेष्ठ लोकप्रवर अर्जुन सोने के कवच और किरीट धारण करके धनुष-बाण लेकर उस रथ की परिक्रमा की। उस समय तपस्या, विद्या तथा अवस्था में बड़े-बूढ़े, क्रियाशील जितेन्द्रिय ब्राह्मण उन्हें विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति-प्रशंसा कर रहे थेा। उनकी की हुई वह स्तुति सुनते हुए अर्जुन उस विशाल रथ पर आरूढ़ हुए। उस उत्तम रथ को पहले से ही विजयसाधक युद्धसम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किया गया था। उस पर आरूढ़ हुए तेजस्वी अर्जुन उदयाचल पर चढ़े हुए सूर्य के समान जान पड़ते थे। सुवर्णमय कवच से आवृत हो उस स्वर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए रथियों में श्रेष्ठ उज्ज्वल कान्तिधारी तेजस्वी अर्जुन मेरु पर्वत पर प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन के बैठने के बाद सात्यकि और श्रीकृष्ण भी उस रथ पर आरूढ़ हो गये, मानो राजा शर्याति के यज्ञ में आते हुए इन्द्रदेव के साथ दोनों अश्विनीकुमार आ रहे हों। उन घोड़ों की रास पकड़ने की कला में सर्वश्रेष्ठ भगवान गोविन्द ने रथ की बागडोर अपने हाथ में ली, ठीक उसी प्रकार जैसे, वृत्रासुर का वध करने के लिये जाने वाले इन्द्र के रथ की बागडोर मातलि ने पकड़ी थी। सात्यकि और श्रीकृष्ण दोनों के साथ उस श्रेष्ठ रथ पर बैठे हुए अर्जुन बुध और शुक्र के साथ स्थित हुए अन्धकार-नाशक चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे।
शत्रुसमूह का नाश करने वाले अर्जुन जब सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ सिंधुराज जयद्रथ का वध करने की इच्छा से प्रस्थित हुए, उस समय वरुण और मित्र के साथ तारकामय संग्राम में जाने वाले इन्द्र के समान सुशोभित हुए। तदनन्तर रणवाद्यों के घोष तथा शुभ एवं मांगलिक स्तुतियों के साथ यात्रा करते हुए वीर अर्जुन की मागधजन स्तुति करने लगे। विजयसूचक आशीर्वाद तथा पुण्याहवाचन के साथ सूत, मागध एवं बन्दीजनों का शब्द रणवाद्यों की ध्वनि से मिलकर उन सबकी प्रसन्नता को बढ़ा रहा था।
अर्जुन के प्रस्थान करने पर पीछे से मंगलमय पवित्र एवं सुगन्धयुक्त वायु बहने लगी, जो अर्जुन का हर्ष बढ़ाती हुई उनके शत्रुओं का शोषण कर रही थी। माननीय महाराज! उस समय बहुत-से ऐसे शुभ शकुन प्रकट हुए, जो पाण्डवों की विजय और आपके सैनिकों की पराजय की सूचना दे रहे थे। अर्जुन ने अपने दाहिने प्रकट होने वाले उन विजयसूचक शुभ लक्षणों को देखकर महाधनुर्धर सात्यकि से इस प्रकार कहा।
'शिनिप्रवर युयुधान! आज जैसे ये शुभ लक्षण दिखायी देते हैं, उनसे युद्ध में मेरी निश्चित विजय दृष्टिगोचर हो रही है।' 'अतः मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ सिधुंराज जयद्रथ यमलोक में जाने की इच्छा से मेरे पराक्रम की प्रतीक्षा कर रहा है।' 'मेरे लिये सिधुंराज जयद्रथ का वध जैसे अत्यन्त महान कार्य है, उसी प्रकार धर्मराज की रक्षा भी परम महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।' 'महाबाहो! आज तुम्हीं राजा युधिष्ठिर की सब ओर से रक्षा करो। जिस प्रकार वे मेरे द्वारा सुरक्षित होते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा भी उनकी सुरक्षा हो सकती है।'
'मैं संसार में ऐसे किसी वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में तुम्हें पराजित कर सके। तुम संग्राम भूमि में साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के समान हो। साक्षात देवराज इन्द्र भी तुम्हें नहीं जीत सकते।' 'नरश्रेष्ठ! इस कार्य के लिये मैं तुम पर अथवा महारथी प्रद्युम्न पर ही पूरा भरोसा करता हूँ। सिंधुराज जयद्रथ का वध तो मैं किसी की सहायता की अपेक्षा किये बिना ही कर सकता हूँ।' 'सात्वतवीर! तुम किसी प्रकार भी मेरा अनुसरण न करना। तुम्हें सब प्रकार से राजा युधिष्ठिर की ही पूर्णरूप से रक्षा करनी चाहिये।' 'जहाँ महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं और मैं भी उपस्थित हूँ, वहाँ अवश्य ही कोई कार्य बिगड़ नहीं सकता है।'
अर्जुन के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले सात्यकि 'बहुत अच्छा' कहकर जहाँ राजा युधिष्ठिर थे, वहीं चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुनवाक्यविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का विलाप”
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! अभिमन्यु के मारे जाने पर दुःख और शोक में डूबे हुए पाण्डवों ने सवेरा होने पर क्या किया? तथा मेरे पक्ष वाले योद्धाओं में से किन लोगों ने युद्ध किया? सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम को जानते हुए भी मेरे पक्ष वाले कौरव योद्धा उनका अपराध करके कैसे निर्भय रह सके? यह बताओ। पुत्रशोक से संतप्त हो क्रोध में भरे हुए प्राणान्तकारी मृत्यु के समान आते हुए पुरुषसिंह अर्जुन की ओर मेरे पुत्र युद्ध में कैसे देख सके? जिनकी ध्वजा में कपिराज हनुमान विराजमान हैं, उन पुत्रवियोग से व्यथित हुए अर्जुन को युद्धस्थल में अपने विशाल धनुष की टंकार करते देख मेरे पुत्रों ने क्या किया? संजय! संग्रामभूमि में दुर्योधन पर क्या बीता है? इन दिनों मैंने महान विलाप की ध्वनि सुनी हैं। आमोद-प्रमोद के शब्द मेरे कानों में नहीं पड़े हैं। पहले सिंधुराज के शिविर में जो मन को प्रिय लगने वाले और कानों को सुख देने वाले शब्द होते रहते थे, वे सब अब नहीं सुनायी पड़ते हैं। मेरे पुत्रों के शिविर में अब स्तुति करने वो सूतों, मागधों एवं नर्तकों के शब्द सर्वथा नहीं सुनायी पड़ते हैं।
जहाँ मेरे कान निरन्तर स्वजनों के आनन्द-कोलाहल से गूँजते रहते थे, वहीं आज मैं अपने दीन दुखी पुत्रों के द्वारा उच्चरित वह हर्षसूचक शब्द नहीं सुन रहा हूँ। तात संजय! पहले मैं यथार्थ धैर्यशाली सोमदत्त के भवन में बैठा हुआ। उत्तम शब्द सुना करता था। परंतु आज पुण्यहीन मैं अपने पुत्रों के घर को उत्साह-शून्य एवं आर्तनाद से गूँजता हुआ देख रहा हूँ। विविंशति, दुर्मुख, चित्रसेन, विकर्ण तथा मेरे अन्य पुत्रों के घरों में अब पूर्ववत आनन्दित ध्वनि नहीं सुनी जाती है।
सूत संजय। मेरे पुत्रों के परम आश्रय जिस महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी जातियों के विषय उपासना करते रहे हैं, जो वितण्डावाद, भाषण, पारस्परिक बातचीत, द्रुतस्वर में बजाये हुए वाद्यों के शब्दों तथा भाँति-भाँति के अभीष्ट गीतों से दिन-रात मन बहलाया करता था, जिसके पास बहुत-से कौरव, पाण्डव और सात्वतवंशी वीर बैठा करते थे, उस अश्वत्थामा के घर में आज पहले के समान हर्षसूचक शब्द नहीं हो रहा है। महाधनुर्धर द्रोणपुत्र की सेवा में जो गायक और नर्तक अधिक उपस्थित होते थे,उनकी ध्वनि अब नहीं सुनायी देती है।
विन्द और अनुविन्द के शिविर में संध्या के समय जो महान शब्द सुनायी पड़ता था, वह अब नहीं सुनने में आता है। तात सदा अनन्दित रहने वाले केकयों के भवनों में झुंड-के-झुंड नर्तकों का ताल स्वर के साथ गीत का जो महान शब्द सुनायी पड़ता था, वह अब नहीं सुना जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)
वेद-विद्या के भण्डार जिस सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा के यहाँ सातों यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले याजक सदा रहा करते थे, अब वहाँ उन ब्राह्मणों की आवाज नहीं सुनायी देती है। द्रोणाचार्य के घर में निरन्तर धनुष प्रत्यंचा का घोष, वेदमन्त्रों के उच्चारण की ध्वनि तथा तोमर, तलवार एवं रथ के शब्द गूँजते रहते थे; परंतु अब मैं वहाँ वह शब्द नहीं सुन रहा हूँ। नाना प्रदेशों से आये हुए लोगों के गाये हुए गीतों का और बजाये हुए बाजों का भी जो महान शब्द श्रवण गोचर होता था, वह अब नहीं सुनायी देता है। संजय! जब अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले भगवान जनार्दन समस्त प्राणियों पर कृपा करने के लिये शान्ति स्थापित करने की इच्छा लेकर उपप्लव्य से हस्तिनापुर पधारे थे, उस समय मैंने अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा था।
'बेटा। भगवान श्रीकृष्ण को साधन बनाकर पाण्डवों के साथ संधि कर लो। मैं इसी को समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम इसे टालो मत।' 'भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे हित की बात कहते हैं और स्वयं संधि के लिये याचना कर रहे हैं। ऐसी दशा में यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो युद्ध में तुम्हारी विजय नहीं होगी।' 'परंतु उसने सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण की बात मानने से इनकार कर दिया। यद्यपि वे अनुनयपूर्ण वचन बोलते थे, तथापि दुर्योधन ने अन्यायवश उन्हें नहीं माना। कर्ण, दुःशासन और खोटी बुद्धि वाले शकुनि के मत में आकर मेरे कुल का नाश करने वाले दुर्योधन ने महाबाहु श्रीकृष्ण का तिरस्कार कर दिया।
फिर तो काल से आकृष्ट हुए दुर्बुद्धि दुर्योधन ने मुझे छोड़कर दुःशासन और कर्ण इन्हीं दोनों के मत का अनुसरण किया। मैं जूआ खेलना नहीं चाहता था, विदुर भी उसकी प्रशंसा नहीं करते थे, सिंधुराज जयद्रथ भी जूआ नहीं चाहते थे और भीष्म जी भी द्यूत की अभिलाषा नहीं रखते थे। संजय! शल्य, भूरिश्रवा, पुरुषमित्र, जय ,अश्वत्थामा, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी जूआ होने देना नहीं चाहते थे। यदि बेटा दुर्योधन इन सब की राय लेकर चलता तो भाई-बन्धु, मित्र और सुहृदों सहित दीर्घकाल तक नीरोग एवं स्वस्थ रहकर जीवन धारण करता। 'पाण्डव सरल, मधुरभाषी, भाई-बन्धुओं के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले, कुलीन, सम्मानित और विद्वान हैं; अतः उन्हें सुख की प्राप्ति होगी। धर्म की अपेक्षा रखने वाला मनुष्य सदा सर्वत्र सुख का भागी होता है। मृत्यु के पश्चात भी उसे कल्याण एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है।' 'पाण्डव पृथ्वी का राज्य भोगने में और उसे प्राप्त करने में भी समर्थ हैं। यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी उनके बाप-दादों की भी है।'
'तात! पाण्डवों को यदि आदेश दिया जाये तो वे उसे मानकर सदा धर्म-मार्ग पर ही स्थिर रहेंगे। मेरे अनेक ऐसे भाई-बन्धु हैं, जिनकी बात पाण्डव सुनेंगे।' 'वत्स! शल्य, सोमदत्त महात्मा भीष्म, द्रोणाचार्य , विकर्ण, बाह्लीक, कृपाचार्य तथा अन्य जो बड़े-बूढे़ महामना भरतवंशी हैं।, वे यदि तुम्हारे लिये उनसे कुछ कहेंगे तो पाण्डव उनकी बात अवश्य मानेंगे।'
'बेटा दुर्योधन! तुम उपर्युक्त व्यक्तियों में से किसको ऐसा मानते हो जो पाण्डवों के विषय में इसके विपरीत कह सके। श्रीकृष्ण कभी धर्म का परित्याग नहीं कर सकते और समस्त पाण्डव उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले हैं।' 'मेरे कहने पर भी मेरे धर्मयुक्त वचन की अवहेलना नहीं करेगें; क्योंकि वीर पाण्डव धर्मात्मा हैं।' सूत। इस प्रकार विलाप करते हुए मैंने अपने पुत्र दुर्योधन से बहुत कुछ कहा, परंतु उस मुर्ख ने मेरी एक नहीं सुनी। अतः मैं समझता हूँ कि कालचक्र ने पलटा खाया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद)
जिस पक्ष में भीमसेन, अर्जुन, वृष्णिवीर सात्यकि, पांचालवीर उत्तमौजा, दुर्जय युधामन्यु , दुर्घर्ष धृष्टद्युम्न, अपराजित वीर शिखण्डी, अश्मक, केकय राजकुमार, सोमकपुत्र क्षत्रधर्मा, चेदिराज धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज के पुत्र अभिभू, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, राजा विराट और महारथी द्रुपद हैं, जहाँ पुरुषसिंह नकुल, सहदेव और मन्त्रदाता मधुसूदन हैं, वहाँ इस संसार में कौन ऐसा वीर है, जो जीवित रहने की इच्छा रखकर इन वीरों के साथ कभी युद्ध करेगा। अथवा दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चौथे दुःशासन के सिवा मैं पाँचवें किसी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो दिव्यास्त्र प्रकट करने वाले मेरे इन शत्रुओं का वेग सह सके। रथ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण हाथों में बागडोर लेकर जिनका सारथ्य करते हैं तथा जिनकी ओर से कवचधारी अर्जुन युद्ध करने वाले हैं, उनकी कभी पराजय नहीं हो सकती। संजय! यह दुर्योधन मेरे उन विलापों को कभी याद नहीं करेगा। तुम कहते हो कि 'पुरुषसिंह भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये।'
विदुर ने भविष्य में होने वाली दूर तक की घटनाओं को ध्यान में रखकर जो बातें कही थीं, उन्हीं के अनुसार इस समय हमें यह फल मिल रहा हैं। इसे देखकर मैं यह समझता हूँ कि मेरे पुत्र सात्यकि और अर्जुन के द्वारा अपनी सेना का संहार देखते हुए शोक कर रहे होंगे। बहुत-से रथों की बैठकों को रथियों से शून्य देखकर मेरे पुत्र शोक में डूब गये होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में वायु का सहारा पाकर बढ़ी हुई अग्नि सूखे घास को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन मेरी सेना को दग्ध कर डालेंगे। संजय! तुम कथा कहने में कुशल हो; अतः युद्ध का सारा समाचार मुझसे कहो।
तात! जब तुम लोग अभिमन्यु के मारे जाने पर अर्जुन का महान अपराध करके सायंकाल में शिविर को लौटे थे, उस समय तुम्हारे मन की क्या अवस्था थी? तात गाण्डीवधारी अर्जुन का महान अपकार करके मेरे पुत्र युद्ध में उनके पराक्रम को कभी नहीं सह सकेंगे। उस समय उनकी ऐसी अवस्था होने पर भी दुर्योधन ने कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया? कर्ण, दुःशासन तथा शकुनि ने क्या करने की सलाह दी? तात संजय! युद्ध में मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन के अत्यन्त अन्याय से एकत्र हुए मेरे अन्य सभी पुत्रों पर जो कुछ बीता था तथा लोभ का अनुसरण करने वाले, क्रोध से विकृत चित्त वाले, राग से दूषित हृदय वाले राज्यकामी मूढ़ और दुर्बुद्धि दुर्योधन जो न्याय अथवा अन्याय किया हो, वह सब मुझसे कहो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में धृतराष्ट्रवाक्यविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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