सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छिहत्तरवें अध्याय से अस्सीवें अध्याय तक (From the 76 chapter to the 80 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

छिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के वीरोचित वचन”

    अर्जुन बोले ;– मधुसूदन! दुर्योधन के जिन छ: महारथियों को आप बल में अधिक मानते हैं, उनका पराक्रम मेरे आधे के बराबर भी नहीं है, ऐसा मेरा विश्वास है। जयद्रथ के वध की इच्‍छा से मेरे युद्ध करते समय आप देखेंगे कि मैंने इन सब के अस्त्रों को अपने अस्‍त्र से काट गिराया है। मैं द्रोणाचार्य के देखते-देखते अपने सैनिकों सहित विलाप करते हुए सिन्‍धुराज जयद्रथ का मस्‍तक पृथ्वी पर गिरा दूँगा। मधुसूदन श्रीकृष्‍ण! यदि साध्‍य, रुद्र, वसु, अश्विनीकुमार, इन्‍द्रसहित मरुद्गण, विश्वेदेव, देवेश्‍वरगण, पितर, गन्धर्व, गरुड़, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग, आकाश, यह पृथ्‍वी, दिशाएँ, दिक्पाल, गाँवों तथा जंगलों में निवास करने वाले प्राणी और सम्‍पूर्ण चराचर जीव भी सिन्‍धुराज जयद्रथ की रक्षा के लिये उद्यत हो जायँ तो भी मैं सत्य की शपथ खाकर और अपना धनुष छूकर कहता हूँ कि कल युद्ध में आप मेरे बाणों द्वारा जयद्रथ को मारा गया देखेंगे। 

    केशव! उस दुर्बुद्धि पापी जयद्रथ की रक्षा का बीड़ा उठाये हुए जो महाधनुर्धर आचार्य द्रोण हैं, पहले उन्‍हीं पर आक्रमण करूँगा। दुर्योधन आचार्य पर ही इस युद्धरूपी द्यूत को आबद्ध मानता है; अत: उसी की सेना के अग्रभाग का भेदन करके मैं सिन्‍धुराज के पास जाऊँगा। जैसे इन्‍द्र अपने वज्र द्वारा पर्वतों के शिखरों को विदीर्ण कर देते हैं, उसी प्रकार कल युद्ध में मैं अच्‍छी तरह तेज किये हुए नाराचों द्वारा बड़े-बड़े धनुर्धरों को चीर डालूँगा; यह आप देखेंगे। मेरे तीखे बाणों द्वारा विदीर्ण होकर गिरते और गिरे हुए मनुष्य, हाथी और घोड़ों के शरीरों से खून की धारा बह चलेगी। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाण मन और वायु के समान वेगशाली होते हैं। वे शत्रुओं के सहस्‍त्रों हाथी-घोड़े और मनुष्‍यों को शरीर और प्राणों से शून्‍य कर देंगे। यम, कुबेर, वरुण, इन्‍द्र तथा रुद्र से मैंने जो भयंकर अस्त्र प्राप्‍त किये हैं, उन्‍हें कल के युद्ध में सब लोग देखेंगे। जयद्रथ के समस्‍त रक्षकों द्वारा छोड़े हुए अस्त्रों को मैं युद्ध में ब्रह्मास्त्र द्वारा काट डालूँगा, यह आप देखेंगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

   केशव! कल के युद्ध में आप देखेंगे कि इस पृथ्‍वी पर मेरे बाणों के वेग से कटे हुए राजाओं के मस्तक बिछ गये हैं। कल मैं मांसभोजी प्राणियों को तृत्‍प कर दूँगा, शत्रुसैनिकों को मार भगाऊँगा, सुहृदों को आनन्‍द प्रदान करूँगा और सिंधुराज जयद्रथ को मथ डालूँगा। सिन्‍धुराज जयद्रथ पापपूर्ण प्रदेश में उत्‍पन्‍न हुआ है। उसने बहुत-से अपराध किये हैं। वह एक दुष्‍ट सम्‍बन्‍धी है। अत: कल मेरे द्वारा मारा जाकर अपने सुजनों शोक में निमग्न कर देगा। सदा सब प्रकार से दूध-भात खाने वाले पापाचारी जयद्रथ को रणांगण में आप राजाओं सहित मेरे बाणों द्वारा विदीर्ण हुआ देखेंगे। श्रीकृष्‍ण! मैं कल सबेरे ऐसा युद्ध करूँगा, जिससे दुर्योधन रणक्षेत्र के भीतर संसार के दूसरे किसी धनुर्धर को मेरे समान नहीं मानेगा। नरश्रेष्‍ठ हृषीकेश! जहाँ गाण्‍डीव- जैसा दिव्‍य धनुष है, मैं योद्धा हूँ और आप सारथि हैं, वहाँ मैं किसको नहीं जीत सकता? 

    भगवन! आपकी कृपा से इस युद्धस्‍थल में कौन-सी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असह्य हो। हृषीकेश! आप यह जानते हुए भी क्‍यों मेरी निन्‍दा करते हैं? जनार्दन! जैसे चन्द्रमा में काला चिह्न स्थिर है, जैसे समुद्र में जल की सत्ता सुनिश्चित है, उसी प्रकार आप मेरी इस प्रतिज्ञा को भी सत्य समझें। प्रभो! आप मेरे अस्त्रों का अनादर न करें। मेरे इस सुदृढ धनुष की अवहेलना न करें। इन दोनों भुजाओं के बल का तिरस्‍कार न करें और अपने इस सखा धनंजय का अपमान न करें।

    मैं संग्राम में इस प्रकार चलूँगा, जिससे कोई मुझे जीत न सके, वरं मैं ही विजयी होऊँ। इस सत्‍य के प्रभाव से आप रणक्षेत्र में जयद्रथ को मारा गया ही समझें। जैसे ब्रह्मनिष्‍ठ ब्राह्मण में सत्‍य, साधुपुरुषों में नम्रता और यज्ञों में लक्ष्मी का होना ध्रुव सत्‍य है, उसी प्रकार जहाँ आप नारायण विद्यमान हैं, वहाँ विजय भी अटल है। 

    संजय कहते हैं ;- राजन! इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने गर्जना करते हुए इस प्रकार उपर्युक्‍त बातें कहकर सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के नियन्‍ता तथा सब कुछ करने में समर्थ अपने आत्‍मस्‍वरूप भगवान श्रीकृष्ण को स्‍वयं ही मन से सोचकर इस प्रकार आदेश दिया। 

‘श्रीकृष्‍ण! आप ऐसा प्रबन्‍ध कर लें कि कल सबेरा होते ही मेरा रथ तैयार हो जाय, क्‍योंकि हम लोगों पर महान कार्यभार आ पड़ा है।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अर्जुनवाक्यविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

सतहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“नाना प्रकार के अशुभसूचक उत्‍पात, कौरव सेना में भय और श्रीकृष्‍ण का अपनी बहिन सुभद्रा को आश्वासन देना”

    संजय कहते हैं ;– राजन! दु:ख और शोक से पीड़ित हुए श्रीकृष्‍ण और अर्जुन सर्पों के समान लंबी साँस खींच रहे थे। उन दोनों को उस रात में नींद नहीं आयी। नर और नारायण को कुपित जान इन्‍द्रसहित सम्‍पूर्ण देवता व्‍यथित हो चिन्‍ता करने लगे; यह क्‍या होने वाला है। रुक्ष, भयसूचक एवं दारुण वायु बहने लगी सूर्यमण्‍डल में कबन्‍धयुक्‍त घेरा देखा गया। बिना वर्षा के ही वज्र गिरने लगे। आकाश में बिजनी की चमक के सा‍थ भयंकर गर्जना होने लगी। पर्वत, वन और काननों सहित पृथ्‍वी काँपने लगी। महाराज! ग्राहों के निवासस्‍थान समुद्रों में ज्‍वार आ गया। समुद्रगामिनी नदियाँ उल्‍टी धारा में बहकर अपने उद्गम की ओर जाने लगीं। मांसभक्षी प्राणियों के आनन्‍द और यमराज के राज्‍य की वृद्धि के लिये रथ, घोड़े, मनुष्‍य और हाथियों के नीचे ऊपर के ओष्‍ठ फड़कने लगे। भरतश्रेष्‍ठ! हाथी, घोड़े आदि वाहन मल-मूल करने और रोने लगे। उन सब भयंकर एवं रोमांचकारी उत्‍पातों को देखकर और महाबली सव्‍यसाची अर्जुन की उस भयंकर प्रतिज्ञा को सुनकर आपके सभी सैनिक व्‍यथित हो उठे। इधर इन्‍द्रकुमार महाबाहु अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा,

   अर्जुन ने कहा ;– ‘माधव! आप पुत्रवधू उत्तरा सहित अपनी बहिन सुभद्रा को धीरज बँधाइये। उत्तरा और उसकी सखियों का शोक दूर कीजिये। प्रभो! शान्तिपूर्ण, सत्य और युक्तियुक्‍त वचनों द्वारा इन सब को आश्वासन दीजिये।' तब भगवान श्रीकृष्‍ण अत्‍यन्‍त उदास मन से अर्जुन के शिविर में गये और पुत्रशोक से पीड़ित हुई अपनी दुखिया बहिन को आश्वासन देने लगे। 

     भगवान श्रीकृष्‍ण बोले ;– वृष्णिनन्दिनी! तुम और पुत्रवधू उत्तरा कुमार अभिमन्‍यु के लिये शोक न करो। भीरु! काल एक दिन सभी प्राणियों की ऐसी ही अवस्‍था कर देता है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

    तुम्‍हारा पुत्र उत्‍तम कुल में उत्‍पन्‍न धीर-वीर और विशेषत: क्षत्रिय था। यह मृत्यु उसके योग्‍य ही हुई है, इसलिये शोक न करो। यह सौभाग्‍य की बात है कि पिता के तुल्‍य पराक्रमी धीर महारथी अभिमन्‍यु क्षत्रियोचित कर्तव्‍य का पालन करके उस उत्तम गति को प्राप्‍त हुआ है, जिसकी वीर पुरुष अभिलाषा करते हैं। वह बहुत-से शत्रुओं को जीतकर और बहुतों को मृत्‍यु के लोक में भेजकर पुण्‍यात्‍माओं को प्राप्‍त होने वाले उन अक्षय लोकों में गया है, जो सम्‍पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। तपस्या, ब्रह्मचर्य, शास्‍त्रज्ञान और सद्बुद्धि के द्वारा साधुपुरुष जिस गति को पाना चाहते हैं, वही गति तुम्‍हारे पुत्र को भी प्राप्‍त हुई है। 

    सुभद्रे! तुम वीरमाता, वीरपत्‍नी, वीरकन्‍या और वीर भाईयों की बहिन हो। तुम पुत्र के लिये शोक न करो। यह उत्‍तम गति को प्राप्‍त हुआ हैं। वरारोहे! बालक की हत्‍या कराने वाला वह पापकर्मा पापी सिंधुराज जयद्रथ रात बीतने पर प्रात:काल होते ही अपने सुहृदों और बन्‍धु-बान्‍धवों सहित इस अपराध का फल पायेगा। वह अमरावतीपुरी में जाकर छिप जाय तो भी अर्जुन के हाथ से उसका छुटकारा नहीं होगा। तुम कल ही सुनोगी किरण क्षेत्र में जयद्रथ का मस्‍तक काट लिया गया है और वह समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर जा गिरा है। अत: शोक त्‍याग दो और रोना बंद करो। शूरवीर अभिमन्‍यु ने क्षत्रिय-धर्म को आगे रखकर सत्‍यपुरुषों की गति पायी है, जिसे हम लोग और इस संसार के दूसरे शस्‍त्रधारी क्षत्रिय भी पाना चाहते हैं। 

    सुन्‍दरी! चौड़ी छाती और विशाल भुजाओं से सुशोभित युद्ध से पीछे न हटने वाला तथा शत्रुपक्ष के रथियों पर विजय पाने वाला तुम्‍हारा पुत्र स्‍वर्गलोक में गया है। तुम चिन्‍ता छोड़ो। बलवान शूरवीर और महारथी अभिमन्‍यु पितृकुल तथा मातृकुल की मर्यादा का अनुसरण करते हुए सहस्‍त्रों शत्रुओं को मारकर मरा है। रानी बहिन! अधिक चिन्‍ता छोड़ो और बहू को धीरज बंधाओ। अपने कुल को आनन्दित करने वाली क्षत्रियकन्‍ये! कल अत्‍यन्‍त प्रिय समाचार सुनकर शोकरहित हो जाओ। 

    अर्जुन ने जिस बात के लिये प्रतिज्ञा कर ली है, वह उसी रुप मे पूर्ण होगी। उसे कोई पलट नहीं सकता। तुम्‍हारे स्‍वामी जो कुछ करना चाहते हैं, वह कभी निष्‍फल नही होता। यदि मनुष्‍य, नाग, पिशाच, निशाचर, पक्षी, देवता और असुर भी रणक्षेत्र में आये हुए सिधुराज जयद्रथ की सहायता के लिये आ जाये तो भी वह कल उन सहायकों के साथ ही जीवन से हाथ धो बैठेगा। 

(इस प्रकार श्री महाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में सुभद्रा को श्री कृष्‍ण का आश्वासन विषयक सतहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

अठहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“सुभद्रा का विलाप और श्रीकृष्‍ण का सबको आश्वासन”

     संजय कहते हैं ;- राजन। महात्‍मा केशव का यह कथन सुनकर पुत्रशोक से व्‍याकुल और अत्‍यन्‍त दु:खित हुई सुभद्रा इस प्रकार विलाप करने लगी। ‘हा पुत्र'। हा बेटा अभिमन्‍यु। तुम मुझ अभागिनी के गर्भ में आकर क्रमश: पिता के तुल्‍य पराक्रमी होकर युद्ध में मारे कैसे गये?' ’वत्‍स। नील कमल के समान श्‍याम, सुन्‍दर दन्‍तपंक्ति‍यों से सुशोभित, मनोहर नेत्रों वाला तुम्‍हारा मुख आज युद्ध की धूल से आच्‍छादित होकर कैसा दिखायी देता होगा?' ’बेटा। तुम शूरवीर थे। युद्ध से कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। मस्‍तक, ग्रीवा, बाहु और कंधे आदि तुम्‍हारे सभी अंग सुन्‍दर थे, छाती चौड़ी थी, उदर एवं नाभिदेश नीचा था, समस्‍त अंग मनोहर और हृष्‍ट-पुष्‍ट थे। सम्‍पूर्ण इन्द्रियाँ विशेषत: नेत्र बड़े सुन्‍दर थे तथा तुम्‍हारे सारे अंग शस्‍त्रजनित आघात से व्‍याप्‍त थे। इस दशा में तुम धरती पर पड़े होंगे और निश्चय ही समस्‍त प्राणी उदय होते हुए चन्द्रमा के तुम्‍हें देख रहे होंगे।' ‘हाय। पहले जिसके शयन करने के लिये बहुमूल्‍य बिछौने-से ढकी हुई शय्या बिछायी जाती थी, वही बेटा अभिमन्‍यु सुख भोगने के योग्‍य होकर भी आज बाणविद्ध शरीर से भूतल-पर कैसे सो रहा होगा?' ’जिस महाबाहु वीर के पास पहले सुन्‍दरी स्त्रियाँ बैठा करती थी, वही आज युद्धभूमि में पड़ा होगा और उसके आस-पास सियारिनें बैठी होंगी; यह सब कैसे सम्‍भव हुआ?' ‘पहले हर्ष में भरे हुए सूत, मागध और वन्‍दीजन जिसकी स्‍तुति किया करते थे, उसी की आज विकट गर्जना करते हुए भयंकर मांसभक्षी जन्‍तुओं के समुदाय उपासना करते होंगे।

    ’शक्तिशाली पुत्र। तुम्‍हारे रक्षक पाण्‍डवों, वृष्णिवीरों तथा पांचालवीरों के होते हुए भी तुम्‍हें अनाथ की भाँति किसने मारा?' ‘बेटा। तुम्‍हें देखने के लिये मेरी आँखें तरस रही हैं, इनकी प्‍यास नहीं बुझी। अनघ। कितनी मन्‍दभागिनी हूँ। निश्चय ही आज मैं यमलोक को चली जाऊँगी।' ‘वत्‍स। बड़े-बड़े नेत्र, सुन्‍दर केशप्रान्‍त, मनोहर वाक्‍य और उत्तम सुगंध से युक्त तुम्‍हारा घावरहित सुन्‍दर मुख मैं फिर कब देख पाऊँगी?' ‘भीमसेन के बल को धिक्‍कार है, अर्जुन के धनुषधारण को धिक्कार है, वृष्णिवंशी वीरों के पराक्रम को धिक्कार है तथा पांचालों के बल को भी धिक्कार है।' ‘केकय, चेदि तथा मत्स्य देश के वीरों और सृंजयवंशी क्षत्रियों को भी धिक्कार है, जो युद्ध में गये हुए तुम-जैसे वीर की रक्षा न कर सके।' ‘अभिमन्‍यु को न देखने के कारण मेरे नेत्र शोक से व्‍याकुल हो रहे हैं। आज मुझे सारी पृथ्वी सूनी एवं कान्तिहीन-सी दिखायी देती है।' ‘वसुदेवनन्‍दन श्री कृष्‍ण के भानजे और गाण्‍डीवधारी अर्जुन के अतिरथी वीर पुत्र अभिमन्‍यु को आज मैं धरती पर पड़ा हुआ कैसे देख सकूँगी।' ‘बेटा। आओ। तुम्‍हें प्‍यास लगी होगी। तुम्‍हें देखने के लिये प्‍यासी हुई मुझ अभागिनी माता की गोद में बैठकर मेरे दूध से भरे हुए इन स्‍तनों को शीघ्र पी लो।' 

    ‘हा वीर। तुम सपने में मिले हुए धन की भाँति मुझे दिखायी दिये और नष्‍ट हो गये। अहो। यह मनुष्‍य जीवन पानी के बुलबुले के समान चंचल एवं अनित्‍य है।' 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 18-44 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘बेटा। तुम्‍हारी यह तरुणी पत्नी तुम्‍हारे विरहशोक में डूबी हुई है। जिसका बछड़ा खो गया हो, उस गाय की भाँति व्‍याकुल है। मैं इसे कैसे धीरज बंधाऊँगी?' ‘यह उत्तरा जाति से उत्तम, सुशील, प्रियभाषिणी, यशस्विनी तथा मेरी प्‍यारी बहू है। यह सुकुमारी है। इसके नेत्र बड़े-बड़े और मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति परम मनोहर है। इसके अंग नूतन पल्लवों के समान कृश हैं। यह मतवाले हाथी के समान मंद गति से चलने वाली है। इसके ओठ बिम्बफल के समान लाल हैं। बेटा अभिमन्‍यु। तुम मेरी इस बहू को धीरे-धीरे हृदय से लगाकर आनन्दित करो। ‘अहो वत्‍स। जब पुत्र के होने का फल मिलने का समय आया है, तब तुम मुझे अपने दर्शनों के लिये भी तरसती हुई छोड़कर असमय में ही चल बसे। ‘निश्चय ही काल की गति बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अत्‍यन्‍त दुर्बोध है, जिसके अधीन होकर तुम श्रीकृष्‍ण- जैसे संरक्षक के रहते हुए संग्राम-भूमि में अनाथ की भाँति मारे गये।' ‘वत्‍स। यज्ञकर्ता, दानी, जितेनिद्रय, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्‍यतीर्थों में नहाने वाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवा-परायण और सहस्‍त्रों की संख्‍या में दक्षिणा देने वाले धर्मात्‍मा पुरुषों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' ‘संग्राम में युद्धतत्‍पर हो कभी पीछे पैर न हटाने वाले और शत्रुओं को मारकर मरने वाले शूरवीरों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' ‘सहस्‍त्र गोदान करने वाले, यज्ञ के लिये दान देने वाले तथा मन के अनुरुप सब सामग्रियों सहित निवास स्‍थान प्रदान करने वाले पुरुषों को शुभ गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' ‘जो शरणागत वत्सल ब्राह्मणों के लिये निधि स्‍थापित करते हैं तथा किसी भी प्राणी को दण्‍ड नहीं देते, उन्‍हें जिस गति की प्राप्ति होती है, बेटा। वही गति तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' 

    ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनि ब्रह्मचर्य के द्वारा जिस गति को पाते है, बेटा। वही गति तुम्‍हें भी सुलभ हो।' ‘पुत्र। सदाचार के पालन से राजाओं को तथा सुरक्षित पुण्य के प्रभाव से पवित्र हुए चारों आश्रमों के लोगों को जो सनातन गति प्राप्‍त होती है; दीनों पर दया करने वाले, उत्तम वस्‍तुओं को घर में बाँटकर उपयोग में लेने वाले तथा चुगली से दूर रहने वाले लोगों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही गति तुम्‍हें भी मिले।' ‘वत्‍स। व्रतपरायण, धर्मशील, गुरुसेवक एवं अतिथि को निराश न लौटाने वाले लोगों को जिस गति की प्राप्ति होती है, वह तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' ‘बेटा। जो लोग भारी-से-भारी कठिनाइयों में और संकटों में पड़ने तथा शोकाग्नि से दग्‍ध होने पर भी धैर्य धारण करके अपने आपको स्थिर रखते हैं, उन्‍हें मिलने वाली गति को तुम भी प्राप्‍त करो।' ‘जो सदा इस जगत में माता-पिता की सेवा करते हैं और अपनी ही स्‍त्री में अनुराग रखते हैं, उनकी जैसी गति होती है, वही तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' ‘पुत्र। ऋतुकाल में अपनी स्‍त्री से सहवास करते हुए परायी स्त्रियों से सदा दूर रहने वाले मनीषी पुरुषों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।'

     ‘जो ईर्ष्‍या–द्वेष से दूर रहकर समस्‍त प्राणियों को समभाव से देखते हैं तथा जो किसी के मर्मस्‍थान को वाणी द्वारा चोट नहीं पहुँचाते एवं सबके प्रति क्षमाभाव रखते हैं, उनकी जो गति होती है, उसी को तुम भी प्राप्‍त करो।' ‘पुत्र। जो मद्य और मांस का सेवन नहीं करते, मद, दम्‍भ और असत्य से अलग रहते है और दूसरों को संताप नहीं देते हैं, उन्‍हें मिलने वाली सद्गति तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' ‘बेटा। सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के ज्ञाता, लज्जाशील, ज्ञान से परितृप्‍त, जितेन्द्रिय श्रेष्‍ठपुरुष जिस गति को पाते है, उसी को तुम भी प्राप्‍त करो।'

    इस प्रकार उत्तरासहित विलाप करती हुई दीन-दुखी एवं शोक से दुर्बल सुभद्रा के पास उस समय द्रौपदी भी आ पहुँची। राजन। वे सब-की-सब अत्‍यन्‍त दुखी हो इच्‍छानुसार रोती और विलाप करती हुई पगली-सी हो गयीं और मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण अत्‍यन्‍त दुखी हो उन सबको होश में लाने के लिये उपचार करने लगे। उन्‍होंने अपनी दु:खिनी बहिन सुभद्रा पर जल छिड़कर नाना प्रकार के हितकर वचन कहते हुए उसे आश्वासन दिया। पुत्रशोक से मर्माहत हो वह रोती हुई काँप रही थी और अचेत-सी हो गयी थी। उस अवस्‍था में भगवान ने उससे कहा। ‘सुभद्रे। तुम पुत्र के लिये शोक न करो। द्रुपदकुमारी! तुम उत्तरा को धीरज बँधाओ। वह क्षत्रियशिरोमणि सर्वश्रेष्‍ठ गति को प्राप्‍त हुआ है।' 

    ‘सुमुखि। हमारी इच्‍छा तो यह है कि हमारे कुल में और भी जितने पुरुष है, वे सब यशस्‍वी अभिमन्‍यु की ही गति प्राप्‍त करें।' ‘तुम्‍हारे महारथी पुत्र ने अकेले ही आज जैसा पराक्रम किया है, उसे हम और हमारे सुहृद भी कार्यरुप में परिणत करें।' इस प्रकार बहिन सुभद्रा, उत्तरा तथा द्रौपदी को आश्वासन देकर शत्रुदमन महाबाहु श्रीकृष्‍ण पुन: अर्जुन के ही पास चले आये। राजन। तदनन्‍तर श्रीकृष्‍ण राजाओं, बन्‍धुजनों तथा अर्जुन से अनुमति ले अन्‍त:पुर में गये और वे राजा लोग भी अपने-अपने शिबिर में चले गये। 

(इस प्रकार श्री माहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में सुभद्रा-विलापविषयक अठहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

उन्नासी अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्‍ण का अर्जुन की विजय के लिये रात्रि में भगवान शिव का पूजन करवाना, जागते हुए पाण्‍डव सैनिकों की अर्जुन के लिये शुभाशंसा तथा अर्जुन की सफलता के लिये श्रीकृष्‍ण के दारुक के प्रति उत्‍साह भरे वचन”

    संजय कहते हैं ;- राजन। तदनन्‍तर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के अनुपम भवन में प्रवेश करके जल का स्‍पर्श किया और शुभ लक्षणों से युक्त वेदी पर वैदूर्यमणि के सदृश कुशों की सुन्‍दर श्‍य्या बिछायी। तत्‍पश्‍चात विधिपूर्वक परम मंगलकारी अक्षत: गन्ध एवं पुष्‍पमाला आदि से उस शय्या को सजाया। उसके चारों ओर उत्तम आयुध रख दिये। इसके बाद जब अर्जुन आचमन कर चुके, तब विनीत परिचारकों ने उन्‍हें दिखाते हुए उनके निकट ही भगवान शंकर का निशीथ-पूजन किया। 

    तत्‍पश्चात अर्जुन ने प्रसन्नचित्त होकर श्रीकृष्‍ण को गन्‍ध और मालाओं से अलंकृत कर‍के रात्रि का वह सारा उपहार उन्‍हीं को समर्पित किया। तब मुस्कराते हुए भगवान गोविन्द अर्जुन से बोले। ‘कुन्‍तीकुमार। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अब शयन करो। मैं तुम्‍हारे कल्‍याण-साधन के लिये ही जा रहा हूँ’ ऐसा कहकर वहाँ अस्त्र-शस्त्र लिये हुए मनुष्‍यों को द्वारपाल एवं रक्षक नियुक्त करके भगवान श्रीकृष्‍ण दारुक के साथ उपने क में चले गये। वहाँ बहुत-से कार्यों का चिन्‍तन करते हुए उन्‍होंने शुभ्र शय्या पर शयन किया। कमलनयन भगवान श्रीकृष्‍ण सबके ईश्वरों के भी ईश्‍वर हैं। उनका यश महान है। वे विष्‍णुरुप गोविन्‍द अर्जुन का प्रिय करने वाले हैं और सदा उनके कल्‍याण की कामना रखते हैं। उन युक्तात्‍मा श्रीहरि ने उत्तम योग का आश्रय ले अर्जुन के लिये वह सारा विधि-विधान सम्‍पन्न किया, जो उनके शोक और दु:ख को दूर करने वाला तथा तेज और कान्ति को बढ़ाने वाला था। राजन। उस रात में पाण्‍डवों के शिविर में कोई नहीं सोया। सब लोगों में जागरण का आवेश हो गया था। सब लोग इसी चिन्‍ता में पड़े थे कि पुत्रशोक से संतप्‍त हुए गाण्‍डीवधारी महामना अर्जुन ने सहसा सिंधुराज जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली है। शत्रुवीरों का संहार करने वाले वे महाबाहु इन्‍द्रकुमार अपनी उस प्रतिज्ञा को कैसे सफल करेंगे? महामना पाण्‍डव ने यह बड़ा कष्‍टप्रद निश्चय किया है। उन्‍होंने पुत्रशोक से संतप्‍त होकर बड़ी भारी प्रतिज्ञा कर ली है। उधर राजा जयद्रथ का पराक्रम भी महान है, तथापि अर्जुन अपनी उस प्रतिज्ञा को पूरी कर लेंगे; क्‍योंकि उनके भाई भी बड़े पराक्रमी है और उनके पास सेनाएँ भी बहुत हैं। 

    धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन ने जयद्रथ को सब बातें बता दी होंगी। अर्जुन युद्ध में सिधुराज जयद्रथ को मारकर पुन: सकुशल लौट आवें (यही हमारी शुभ कामना है)। अर्जुन शत्रुओं को जीतकर अपना व्रत पूरा करें। यदि वे कल सिधुराज को न मार सके तो अग्‍नि में प्रवेश कर जायँगे। कुन्‍तीकुमार धनंजय अपनी बात झूठी नहीं कर सकते। यदि अर्जुन मर गये तो धर्मपुत्र युधिष्ठिर कैसे राजा होंगे? पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर ने अर्जुन पर ही सारा विजय का भार रख दिया। यदि हम लोगों का किया हुआ कुछ भी सत्‍कर्म शेष हो, यदि हमने दान और होम किये हों तो हमारे उन सभी शुभकर्मों के फल से सव्‍यसाची अर्जुन अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्‍त करें। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 19-43 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन। प्रभो। इस प्रकार बातें करते और अर्जुन की विजय चाहते हुए उन सभी सैनिकों की वह रात्रि महान कष्‍ट से बीती थी। भगवान श्रीकृष्ण उस रात्रि के मध्‍यकाल में जाग उठे और अर्जुन की प्रतिज्ञा को स्‍मरण करके दारुक से बोले। ‘दारुक। अपने पुत्र अभिमन्‍यु के मारे जाने से शोकार्त होकर अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि मैं कल जयद्रथ का वध कर डालूँगा।' ‘यह सब सुनकर दुर्योधन अपने मन्त्रियों के साथ ऐसी मन्‍त्रणा करेगा’ जिससे अर्जुन समरभूमि में जयद्रथ को मार न सके।' ‘वे सारी अक्षौहिणी सेनाएँ जयद्रथ की रक्षा करेंगी तथा सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-विधि के पारंगत विद्वान द्रोणाचार्य भी अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ उसकी रक्षा में रहेंगे।' ‘त्रिलोक के एक मात्र वीर हैं सहस्‍त्र नेत्रधारी इन्‍द्र, जो दैत्‍यों और दानवों के भी दर्प का दलन करने वाले है; परंतु वे भी द्रोणाचार्य से सु‍रक्षित जयद्रथ को युद्ध में मार नहीं सकते।' ‘अत: मैं कल वह उद्योग करूँगा, जिससे कुन्‍तीपुत्र अर्जुन सूर्यदेव के अस्‍त होने से पहले जयद्रथ को मार डालेंगे।' ‘मुझे स्‍त्री, मित्र, कुटुम्‍बीजन, भाई-बन्‍धु तथा दूसरा कोई भी कुन्‍तीपुत्र अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है।' ‘दारुक। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता (कि मेरे रहते अर्जुन का कोई अनिष्‍ट हो)।'

    ‘मैं अर्जुन के लिये हाथी, घोड़े, कर्ण और दुर्योधन सहित उन समस्‍त शत्रुओं को जीतकर सहसा उनका संहार कर डालूँगा।' ‘दारुक। कल के महासमर में तीनों लोक धनंजय के लिये युद्ध में पराक्रम प्रकट करते हुए मेरे बल और प्रभाव को देखें।' ‘दारुक। कल के युद्ध में सहस्‍त्रों राजाओं तथा सैकड़ों राजकुमारों को उनके घोड़े, हाथी एवं रथों सहित मार भगाऊँगा।' ‘तुम कल देखोगे कि मैंने समरांगण में कुपित होकर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के लिये सारी राजसेना को चक्र से चूर-चूर करके धरती पर मार गिराया है।' ‘कल देवता, गन्धर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षस आदि समस्‍त लोक यह अच्‍छी तरह जान लेंगे कि मैं सव्‍यसाची अर्जुन का हितैषी मित्र हूँ। ‘जो अर्जुन से द्वेष करता है, वह मुझ से द्वेष करता है और जो अर्जुन का अनुगामी है, वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धि से यह निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।' ‘कल प्रात:काल तुम शास्‍त्रविधि के अनुसार मेरे उत्तम रथ को सुसज्जित करके सावधानी के साथ लेकर युद्ध स्‍थल में चलना।' ‘सूत। कौमोद की गदा, दिव्‍य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्‍य सब आवश्यक सामग्रियों को रथ पर रखकर उसके पिछले भाग में समरांगण में रथ पर शोभा पाने वाले वीर विनतानन्‍दन गरुड़ के चिह्न वाले ध्वज के लिये भी स्‍थान बना लेना।' ‘दारुक। साथ ही उसमें छत्र लगाकर अग्‍नि और सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले तथा विश्वकर्मा के बनाये हुए दिव्‍य सुवर्णमय जालों से विभूषित मेरे चारों श्रेष्‍ठ घोड़ों- बलाहक, मेघपुष्प, शैव्य तथा सुग्रीव को जोत लेना और स्‍वयं भी कवच धारण करके तैयार रहना।' ‘पांचजन्‍य शंख का ऋषभ स्‍वर से बजाया हुआ शब्‍द और भयंकर कोलाहल सुनते ही तुम बड़े वेग से मेरे पास पहुँच जाना।'

   ‘दारुक। मैं अपनी बुआजी के पुत्र भाई अर्जुन के सारे दु:ख और अमर्ष को एक ही दिन में दूर कर दूँगा।' ‘सभी उपायों से ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे अर्जुन युद्ध में धृतराष्‍ट्रपुत्रों के देखते-देखते जयद्रथ को मार डालें।' ‘सारथे। कल अर्जुन जिस-जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, मैं आशा करता हूँ, वहाँ वहाँ उनकी निश्चय ही विजय होगी।'

    दारुक बोला ;- पुरुषसिंह। आप जिनके सारथि बने हुए हैं, उनकी विजय तो नि‍श्चित है ही। उनकी पराजय कैसे हो सकती है? अर्जुन की विजय के लिये कल सबेरे जो कुछ करने की आप मुझे आज्ञा देते हैं, उसे उसी रुप में मैं अवश्‍य पूर्ण करूँगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में श्रीकृष्‍ण और दारुक की बातचीत विषयक उन्‍नासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

अस्सीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का स्वप्न में भगवान श्रीकृष्ण के साथ शिव जी के समीप जाना और उनकी स्तुति करना”

    संजय कहते हैं ;- राजन। इधर अचिन्त्य पराक्रमशाली कुन्तीपुत्र अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये मन्त्र का चिन्तन करते-करते नींद से मोहित हो गये। उस समय स्वप्न में महातेजस्वी गरूड़ध्वज भगवान श्रीकृष्ण शोकसंतप्त हो चिन्ता में पड़े हुए कपिध्वज अर्जुन के पास आये। धर्मात्मा धनंजय किसी भी अवस्था में क्यों न हो, सदा प्रेम और भक्ति के साथ खड़े होकर श्रीकृष्ण का स्वागत करते थे। अपने इस नियम का वे कभी लोप नहीं होने देते थे। अर्जुन ने खड़े होकर गोविन्द को बैठने के लिये आसन दिया और स्वयं उस समय किसी आसन पर बैठने का विचार उन्होंने नहीं किया। तब महातेजस्वी श्रीकृष्ण पार्थ के इस निश्चय को जानकर अकेले ही आसन पर बैठ गये और खड़े हुए कुन्तीकुमार से इस प्रकार बोले।'

    कुन्तीनन्दन। तुम अपने मन को विषाद में न डालो; क्योंकि काल पर विजय पाना अत्यनत कठिन है। काल ही समस्त प्राणियों को विधाता के अवश्यम्भावी विधान में प्रवृत्त कर देता है।' 'मनुष्यों में श्रेष्ठ अर्जुन। बताओ तो सही, तुम्हे किस लिये विषाद हो रहा है? विद्वद्वर। तुम्हे शोक नहीं करना चाहिये; शोक समस्त कर्मों का विनाश करने वाला है। जो कार्य करना हो, उसे प्रयत्नपूर्वक करो। धनंजय! उद्योगहीन मनुष्य का जो शोक है, वह उसके लिये शत्रु के समान है।' 

    'शोक करने वाला पुरुष अपने शत्रुओ को आनन्दित करता और बन्धु-बान्धवों को दुःख से दुर्बल बनाता है। इसके सिवा वह स्वयं भी शोक के कारण क्षीण होता जाता है। अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।' वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर किसी से पराजित न होने वाले विद्वान अर्जुन ने ये अर्थयुक्त वचन उस समय कहा। 'केशव। मैंने जयद्रथ वध के लिय यह भारी प्रतिज्ञा कर ली है कि कल मैं अपने पुत्र के घातक दुरात्मा सिंधुराज को अवश्‍य मार डालूँगा।'

    'परंतु अच्युत। धृतराष्‍ट्र-पक्ष के सभी महारथी मेरी प्रतिज्ञा भंग करने के लिये सिंधुराज को निश्चय ही सबसे पीछे खड़े करेंगे और वह उन सबके द्वारा सुरक्षित होगा।' माधव! श्रीकृष्ण! कौरवों की वे ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ, जो अत्यनत दुर्जय हैं और उनमें मरने से बचे हुए जितने सैनिक विद्यमान हैं, उनसे तथा पूर्वोक्त सभी महारथियों से युद्धस्थल में घिरे होने पर दुरात्मा सिंधुराज को कैसे देखा जा सकता है।' 

     'केशव। ऐसी अवस्था में प्रतिज्ञा की पूर्ति नहीं हो सकेगी और प्रतिज्ञा भंग होने पर मेरे-जैसा पुरुष कैसे जीवन धारण कर सकता है?' 'वीर। अब इस कष्टसाध्य की ओर से मेरी अभिलाषा परिवर्तित हो रही है। इसके सिवा इन दिनों सूर्य जल्दी अस्त हो जाते हैं; इसलिये मैं ऐसा कह रहा हूँ।' 

    अर्जुन के शोक का आधार क्या है, यह सुनकर महातेजस्वी विद्वान गरूड़ध्वज कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण आचमन करके पूर्वाभिमुख होकर बैठे और पाण्डुपुत्र अर्जुन के हित तथा सिंधुराज जयद्रथ के वध के लिये इस प्रकार बोले 'पार्थ। पाशुपत नामक एक परम उत्तम सनातन अस्त्र है, जिससे युद्ध में भगवान महेश्‍वर ने समस्त दैत्यों का वध किया था।' 'यदि वह अस्त्र आज तुम्हें विदित हो तो तुम अवश्‍य कल जयद्रथ को मार सकते हो और यदि तुम्हें उसका ज्ञान न हो तो मन-ही-मन भगवान वृषभध्वज (शिव) की शरण लो। धनंजय! तुम मन में उन महादेव जी का ध्यान करते हुए चुपचाप बैठ जाओ। तब उनके दया-प्रसाद से तुम उनके भक्त होने के कारण उस महान अस्त्र को प्राप्त कर लोगे।' भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर अर्जुन जल का आचमन करके धरती पर एकाग्र होकर बैठ गये और मन से महादेव जी का चिन्तन लगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)

    तब शुभ लक्षणों से युक्त ब्रह्म मुहूर्त में ध्यानस्थ होने पर अर्जुन ने अपने आपको भगवान श्रीकृष्ण के साथ आकाश में जाते देखा। पवित्र हिमालय के शिखर तथा तेजःपुन्ज से व्याप्त एवं सिद्धों और चारणों से सेवित मणिमान पर्वत को भी देखा। उस समय अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के साथ वायुवेग के समान तीव्र गति से आकाश में बहुत ऊँचे उठ गये। भगवान केशव ने उनकी दाहिनी बाँह पकड़ रखी थी। तत्पश्चात धर्मात्मा अर्जुन ने अद्भुत दिखायी देने वाले बहुत-से पदार्थों को देखते हुए क्रमश: उत्तर दिशा में जाकर श्वेत पर्वत का दर्शन किया। इसके बाद उन्होंने कुबेर के उद्यान में कमलों से विभुषित सरोवर तथा अगाघ जलराशि‍ से भरी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा का अवलोकन किया। गंगा के तट पर स्फटिकमणिमय पत्थर सुशोभित होते थे। सदा फूल और फलों से भरे हुए वृक्ष समूह वहाँ की शोभा बढ़ा रहे थे। गंगा के उस तटप्रान्त में बहुत-से सिंह और व्याघ्र विचरण करते थे। नाना प्रकार के मृग वहाँ सब ओर भरे हुए थे। अनेक पवित्र आश्रमों से युक्त और मनोहर पक्षियों से सेवित रमणीय गंगा नदी का दर्शन करते हुए आगे बढ़ने पर उन्हें मन्दराचल के प्रदेश दिखायी दिये, जो किन्नरों के उच्च स्वर से गाये हुए मधुर गीतों से मुखरित हो रहे थे।

   सोने और चाँदी के शिखर तथा फूलों से भरे हूए पारिजात के वृक्ष उन पर्वतीय प्रान्तों की शोभा बढ़ा रहे थे तथा भाँति-भाँति की तेजोमयी ओषधियाँ वहाँ अपना प्रकाश फैला रही थीं। वे क्रमश: आगे बढ़ते हुए स्निग्ध कज्जलराशि के समान आकार वाले काल पर्वत के समीप जा पहुँचे। फिर ब्रह्मतुंग पर्वत, अन्यान्य नदियों तथा बहुत-से जनपदों को भी उन्होंने देखा। 

   बतदनन्तर क्रमश: उच्चतम शतश्रृंग, शर्यातिवन, पवित्र अश्वशिररःस्थान, आथर्वण, मुनिका स्थान और गिरिराज वृषदंश का अवलोकन करते हुए वे महा-मन्दराचल पर जा पहुँचे, जो अप्सराओं से व्याप्त और किन्नरों से सुशोभित था। उस पर्वत के ऊपर से जाते हुए श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने नीचे देखा कि नगरों एवं गाँवों के समुदाय से सुशोभित, सुवर्णमय धातुओं से विभूषित तथा सुन्दर झरनों से युक्त पृथ्वी के सम्पूर्ण अतः चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशित हो रहे हैं। बहुत-से रत्नों की खानों से युक्त समुद्र भी अद्भुत आकार- मैं द‍ष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार पृथ्वी, अन्तरिक्ष और आकाश एक साथ दर्शन करके आश्चर्य चकित हुए। अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ विष्णुपद में यात्रा करने लगे। वे धनुष चलाये हुए बाण के समान आगे बढ़ रहे थे। तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन ने एक पर्वत को देखा, जो अपने तेज से प्रज्जवलित-सा हो रहा था। ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के समान उसकी प्रभा सब ओर फैल रही थी। 

    उस पर्वत पर पहुँचकर अर्जुन ने उसके एक शिखर पर खड़े हुए नित्य तपस्यापरायण परमात्मा भगवान वृषभध्वज दर्शन किया। वे अपने तेज से सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहे थे। उनके हाथ में त्रिशूल, मस्तक पर जटा और श्री अंगों पर वल्कल एवं मृगचर्म के वस्त्र शोभा पा रहे थे। उनकी कान्ति गौरवर्ण की थी। सहस्रों नेत्रों से युक्त उनके श्रीविग्रह की विचित्र शोभा हो रही थी। वे तेजस्वी महादेव अपनी धर्मपत्नी पार्वती जी- के साथ विराजमान थे और तेजोमय शरीर वाले भूतों के समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित थे। उनके सम्मुख गीतों और वाद्यों की मधुर ध्वनि हो रही थी। हास्य-लास्य (नृत्य) का प्रदर्शन किया जा रहा था। प्रमथगण उछल-कूदकर बाहें फैलाकर और उच्चस्वर से बोल-बोलकर अपनी कलाओं से भगवान का मनोरंजन करते थे। उनकी सेवा में पवित्र, सुगन्धित पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे। 

(सम्पूर्ण महाभारत( द्रोण पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 42-65 का हिन्दी अनुवाद)

    ब्रह्मवादी महर्षिगण दिव्य स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति कर रह थे। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले वे समस्त प्रणियों के रक्षक भगवान शिव धनुष धारण किये हुए अद्भुत शोभा पा रहे थे। अर्जुन सहित धर्मात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने उन्हें देखते ही वहाँ की पृथ्वी पर माथा टेकर प्रणाम किया और उन सनातन ब्रह्मस्वरूप भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे जगत के आदि कारण, लोकस्रष्टा, अजन्मा, ईश्‍वर, अविनाशी, मन की उत्पत्ति के प्रधान कारण आकाश एवं वायुस्वरूप, तेज के आश्रय, जल की सृष्टि करने वाले, पृथ्वी के भी परम कारण, देवताओं , दानवों, यक्षों तथा मनुष्यों के भी प्रधान कारण, सम्पूर्ण योगों के परम आश्रय, ब्रह्मवेत्ताओं की प्रत्यक्ष निधि, चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले तथा इन्द्र के ऐश्वर्य आदि और सूर्य देव के प्रताप आदि गुणों को प्रकट करने वाले परमात्मा थे। उनके क्रोध में काल का निवास था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने मन, वाणी बुद्धि और क्रियाओं द्वारा उनकी वन्दना की। 

    सूक्ष्म अध्यात्म पद की अभिलाषा रखने वाले विद्वान जिनकी शरण लेते है।, उन्हीं कारणस्वरूप अजन्मा भगवान शिव की शरण में श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गये। अर्जुन ने उन्हें समस्त भूतों का आदि कारण और भूत, भविष्य एवं वर्तमान जगत का उत्पादक जानकर बारंबार उन महादेव जी के चरणों में प्रणाम किया। उन दोनों नर और नारायण को वहाँ आया देख भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर हँसते हुए-से बोले। 'नरश्रेष्ठों। तुम दोनों का स्वागत है। उठो तुम्हारा श्रम दूर हो। वीरो! तुम दोनों के मन की अभीष्ट वस्तु क्या है? यह शीघ्र बताओ। 

    तुम दोनों जिस कार्य से यहाँ आये हो, वह क्या है मैं उसे सिद्ध कर दूँगा। अपने लिये कल्याणकारी वस्तु को माँगो। मैं तुम दोनों को सब कुछ दे सकता हूँ।' भगवान शंकर की यह बात सुनकर अनिन्दित महात्मा परम बुद्धिमान श्रीकृष्ण और अर्जुन हाथ जोड़कर खड़े हो गये और दिव्य स्तोत्र द्वारा भक्तिभाव से उन भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भव, शर्व, रुद्र, वरदाता, पशुपति, सदा उग्ररूप में रहने वाले और जटाजूटधारी भगवान शिव को नमस्कार है। महान देवता, भयंकर रूपधारी, तीन नेत्र धारण करने वाले, दक्ष-यज्ञनाशक तथा अन्धकासुर का विनाश करने वाले भगवान शंकर को प्रणाम है। प्रभो! आप कुमार कार्तिकेय के पिता, कण्ठ में नील चिह्न धारण करने वाले, लोकस्रष्टा, पिनाकधारी, हविष्य के अधिकारी, सत्यस्वरूप और सर्वत्र व्यापक हैं आपको सदैव नमस्कार है। विशेष लोहित एवं धूम्रवर्ण वाले, मृगव्याणस्वरूप, समस्त प्राणियों का पराजित करने वाले, सर्वदा नीलकेश धारण करने वाले, त्रिशुलधारी, दिव्यलोचन, संहारक, पालक, त्रिनेत्रधारी पापरूपी मृगों के बधिक, हिरण्यरेता (अग्नि), अचिन्त्य, अम्बिकापति, सम्पूर्ण देवताओं द्वारा प्रशंसित, वृषभ-चिह्न से युक्त ध्वजा धारण करने वाले, मुण्डित मस्तक, जटाधारी, ब्रह्मचारी, जल में तप करने वाले, ब्राह्मणभक्त, अपराजित, विश्वात्मा, विश्वस्रष्टा, विश्व को व्याप्त करके स्थित, सब के सेवन करने योग्य तथा सदा समस्त प्राणियों की उत्पति के कारणभूत आप भगवान शिव को बारंबार नमस्कार है। ब्राह्मण जिनके मुख हैं, उन सर्वस्वरूप कल्याणकारी भगवान शिव को नमस्कार है। वाणी के अधीश्रर और प्रजाओं के पालक आप को नमस्कार है। विश्व के स्वामी और महापुरुषों के पालक भगवान शिव को नमस्कार है, जिनके सहस्रों सिर और सहस्रों भुजाएँ हैं, जो मृत्युस्वरूप हैं, जिनके नेत्र और पैर भी सहस्रों की संख्या में हैं तथा जिनके कर्म असंख्य हैं, उन भगवान शिव को नमस्कार है। 

     सुवर्ण के समान जिनका रंग है, जो सुवर्णमय कवच धारण करते हैं, उन आप भक्तवत्सल भगवान को मेरा नित्य नमस्कार है। प्रभो हमारा अभीष्‍ट वर सिद्ध हो। 

    संजय कहते हैं ;- इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके उस समय अर्जुन सहित भगवान श्रीकृष्ण ने पाशुपतास्त्र- की प्राप्ति के लिये भगवान शंकर को प्रसन्न किया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुन स्वप्नविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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