सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के इकहत्तरवें अध्याय से पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 71 chapter to the 75 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“नारद जी का सृंजय के पुत्र को जीवित करना और व्‍यास जी का युधिष्ठिर को समझाकर अन्‍तर्धान होना”

     व्‍यास जी कहते हैं ;– राजन! इन सोलह राजाओं का पवित्र एवं आयु की वृद्धि करने वाला उपाख्‍यान सुनकर राजा सृंजय कुछ भी नहीं बोलते हुए मौन रह गये। उन्‍हें इस प्रकार चुपचाप बैठे देखकर भगवान नारद मुनि ने उनसे पूछा,

  नारदमुनि बोले ;– 'महातेजस्‍वी नरेश! मैंने जो कुछ कहा है, उसे तुमने सुना और समझा है न।' ‘अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि जैसे शूद्र जाति की स्‍त्री से सम्‍बन्‍ध रखने वाले ब्राह्मण को दिया हुआ श्राद्ध का दान नष्‍ट हो जाता है, उसी प्रकार मेरा यह सारा कहना अन्‍ततोगत्‍वा व्‍यर्थ हो गया हो’। उनके इस प्रकार पूछने पर उस समय सृंजय ने हाथ जोड़कर उत्‍तर दिया। ‘महाबाहु महर्षे! यज्ञ करने और दक्षिणा देने वाले प्राचीन राजर्षियों का यह परम उत्‍तम सराहनीय उपख्‍यान सुनकर मुझे ऐस विस्‍मय हुआ है कि उसने मेरा सारा शोक हर लिया है। ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य का तेज सारा अंधकार हर लेता है। अब मैं पाप[2] और व्‍यथा से शून्‍य हो गया हूँ। बताइये, आपकी किस आज्ञा का पालन करूँ।' 

     नारद जी ने कहा ;– राजन! बड़े सौभाग्‍य की बात है कि तुम्‍हारा शोक दूर हो गया। अब तुम्‍हारी जो इच्‍छा हो, यहाँ मुझसे माँग लो। तुम्‍हारी वह सारी अभिलषित वस्‍तु तुम्‍हें प्राप्‍त हो जायगी। हम लोग झूठ नहीं बोलते हैं। 

    सृंजय ने कहा ;– मुने! आप मुझ पर प्रसन्‍न हैं, इतने से ही मैं पूर्ण संतुष्‍ट हूँ। जिस पर आप प्रसन्‍न हों, उसे इस जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। 

   नारद जी ने कहा ;- राजन! लुटेरों ने तुम्‍हारे पुत्र को प्रोक्षित पशु की भाँति व्‍यर्थ ही मार डाला है। तुम्‍हारे उस मरे हुए पुत्र को मैं कष्‍टप्रद नरक से निकालकर तुम्‍हें पुन: वापस दे रहा हूँ। 

   व्‍यास जी कहते हैं ;– युधिष्ठिर! नारद जी के इतना कहते ही सृंजय का अद्भुत कान्तिमान पुत्र वहाँ प्रकट हो गया। उसे ऋषि ने प्रसन्‍न होकर राजा को दिया था। वह देखने में कुबेर के पुत्र के समान जान पड़ता था। अपने इस पुत्र से मिलकर राजा सृंजय को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन्‍होंने उत्‍तम दक्षिणाओं से युक्‍त पुण्‍यमय यज्ञों द्वारा भगवान का यजन किया। सृंजय का पुत्र कवच बांधकर युद्ध में लड़ता हुआ नहीं मारा गया था। उसे अकृतार्थ और भयभीत अवस्‍था में अपने प्राणों का त्‍याग करना पड़ा था। वह यज्ञकर्म से रहित और संतानहीन भी था। इसलिये नारद जी ने पुन: उसे जीवित कर दिया था। 

    परंतु शूरवीर अभिमन्‍यु तो कृतार्थ हो चुका है। वह वीर शत्रुसेना के सम्‍मुख युद्ध तत्‍पर हो सहस्‍त्रों वैरियों को संतप्‍त करके मारा गया और स्‍वर्ग लोक में जा पहुँचा है। पुण्‍यात्‍मा पुरुष ब्रह्मचर्यपालन, उत्‍तम ज्ञान, वेद-शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍याय तथा यज्ञों के अनुष्‍ठान से जिन किन्‍ही लोकों में जाते हैं, उन्‍हीं अक्षय लोकों में तुम्‍हारा पुत्र अभिमन्‍यु भी गया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

   विद्वान पुरुष पुण्‍य कर्मों द्वारा सदा स्‍वर्गलोक में जाने की इच्‍छा करते हैं, परंतु स्‍वर्गवासी पुरुष स्‍वर्ग से इस लोक में आने की कामना नहीं करते हैं। अर्जुन का पुत्र युद्ध में मारे जाने के कारण स्‍वर्ग लोक में गया हुआ है। अत: उसे यहाँ नहीं लाया जा सकता। कोई अप्राप्‍य वस्‍तु केवल इच्‍छा करने मात्र से नहीं सुलभ हो सकती। जिन्‍होंने ध्‍यान के द्वारा पवित्र ज्ञानमयी दृष्टि प्राप्‍त कर ली है, वे योगी निष्‍काम भाव से उत्‍तम यज्ञ करने वाले पुरुष तथा अपनी उज्‍ज्‍वल तपस्‍याओं द्वारा तपस्वी मुनि जिस अक्षय गति को पाते हैं, तुम्‍हारे पुत्र ने भी वही गति प्राप्‍त की है। वीर अभिमन्‍यु मृत्यु के पश्चात पुन: पूर्वभाव को प्राप्‍त होकर चन्द्रमा से उत्‍पन्‍न अपने द्विजोचित शरीर में प्रतिष्ठित हो अपनी अमृतमयी किरणों से राजा सोम के समान प्रकाशित हो रहा है। अत: उसके लिये तुम्‍हें शोक नहीं करना चाहिये। 

    राजन! ऐसा जानकर सुस्थिर हो धैर्य का आश्रय लो और उत्‍साहपूर्वक शत्रुओं का वध करो। अनघ! हमें इस संसार में जीवित पुरुषों के लिये ही शोक करना चाहिये। जो स्‍वर्ग में चला गया है, उसके लिये शोक करना उचित नहीं है। महाराज! शोक करने से केवल दु:ख ही बढ़ता है।अत: विद्वान पुरुष उत्‍कृष्‍ट हर्ष, अतिशय सम्‍मान और सुख प्राप्ति का चिन्‍तन करते हुए शोक का परित्‍याग करके अपने कल्‍याण के लिये ही प्रयत्‍न करे।

   यही सब सोच-समझकर ज्ञानवान पुरुष शोक नहीं करते हैं। शोक को शोक नहीं कहते हैं। राजन! ऐसा जानकर तुम युद्ध के लिये उठो। मन और इन्द्रियों को संयम में रखो तथा शोक न करो। तुमने मृत्यु की उत्‍पत्ति और उसकी अनुपम तपस्या का वृत्‍तान्‍त सुन लिया है। मृत्‍यु सम्‍पूर्ण प्राणियों को समभाव से प्राप्‍त होती है और धन-ऐश्‍वर्य चंचल है– यह बात भी जान ली है। सृंजय का पुत्र मरा और पुन: जीवित हुआ, यह कथा भी तुमने सुन ही ली है। महाराज! यह सब तुम जानते हो। अत: शोक न करो। अब मैं अपनी साधना में लग रहा हूँ। ऐसा कहकर भगवान व्‍यास वहीं अन्‍तर्धान हो गये। 

    बिना बादल के आकाश की-सी कान्ति वाले, बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ वागीश्वर भगवान व्‍यास जब युधिष्ठिर को आश्वासन देकर चले गये, तब देवराज इन्‍द्र के समान पराक्रमी और न्‍याय से धन प्राप्‍त करने वाले प्राचीन राजाओं के उस यज्ञ-वैभव की कथा सुनकर विद्वान युधिष्ठिर मन-ही-मन उनके प्रति आदर की भावना करते हुए शोक से रहित हो गये। तदनन्‍तर फिर दीनभावना से यह सोचने लगे कि अर्जुन से मैं क्‍या कहूँगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक इकहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अभिमन्‍यु की मृत्‍यु के कारण अर्जुन का विषाद और क्रोध”

    धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;– संजय! जब अर्जुन संशप्‍तकों के साथ युद्ध कर रहे थे, जब बलवानों में श्रेष्‍ठ बालक अभिमन्‍यु मारा गया और जब महर्षियों में श्रेष्‍ठ व्‍यास चले गये, तब शोक से व्‍याकुल चित्‍तवाले युधिष्ठिर और अन्‍य पाण्‍डवों ने क्‍या किया? कपिध्‍वज अर्जुन संशप्‍तकों की ओर से कैसे लौटे तथा किसने उनसे कहा कि तुम्‍हारा अग्नि के समान तेजस्‍वी पुत्र सदा के लिये शान्‍त हो गया। इन सब बातों को तुम यथार्थ रूप से मुझे बताओ।

   संजय बोले ;– भरतश्रेष्‍ठ! प्राणधारियों का संहार करने वाले उस भयंकर दिन के बीत जाने पर जब सूर्यदेव अस्‍ताचल को चले गये और संध्‍याकाल उपस्थित हुआ, उस समय समस्‍त सैनिक जब शिबिर में विश्राम के लिये चल दिये, तब विजयशील श्रीमान कपिध्‍वज अर्जुन अपने दिव्यास्त्रों द्वारा संशप्‍तक समूहों का वध करके अपने उस विजयी रथ पर बैठे हुए शिविर की ओर चले। चलते-चलते ही वे अश्रुगद्गदकण्‍ठ हो भगवान गोविन्‍द से इस प्रकार बोले। ‘केशव! न जाने क्‍यों आज मेरा हृदय धड़क रहा है, वाणी लड़खड़ा रही है, अनिष्‍टसूचक बायें अंग फड़कर रहे हैं और शरीर शिथिल होता जा रहा है।' ‘मेरे हृदय में अनिष्‍ट की चिन्‍ता घुसी हुई है, जो किसी प्रकार वहाँ से निकलती ही नहीं है। पृथ्‍वी पर तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में होने वाले भयंकर उत्‍पात मुझे डरा रहे हैं।' 

    ‘ये उत्‍पात अनेक प्रकार के दिखायी देते हैं और सब-के-सब भारी अमंगल की सूचना दे रहे हैं। क्‍या मेरे पूज्‍य भ्राता राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों सहित सकुशल होंगे?’ 

   भगवान श्रीकृष्‍ण बोले ;- अर्जुन! शोक न करो। मुझे स्‍पष्‍ट जान पड़ता है कि मंत्रियों सहित तुम्‍हारे भाई का कल्‍याण ही होगा। इस अपशकुन के अनुसार कोई दूसरा ही अनिष्‍ट हुआ होगा। 

   संजय कहते हैं ;– राजन! तदनन्‍तर वे दोनों वीर उस वीर संहारक रणभूमि में संध्‍या-वंदन करके पुन: रथ पर बैठकर युद्धसम्‍बन्‍धी बातें करते हुए आगे बढ़े। फिर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन जो अत्‍यन्‍त दुष्‍कर कर्म करके आ रहे थे, अपने शिविर के निकट आ पहुँचे। उस समय वह शिविर आनन्‍द शून्‍य और श्रीहीन दिखायी देता था। अपनी छावनी को विध्‍वस्‍त हुई-सी देखकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन का हृदय चिन्तित हो उठा। अत: वे भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार बोले। 

    ‘जनार्दन! आज इस शिविर में मांगलिक बाजे नहीं बज रहे हैं। दुन्‍दुभि-नाद तथा तुरही के शब्‍दों के साथ मिली हुई शंखध्‍वनि भी नहीं सुनायी देती है।' ‘ढाक और करतार की ध्‍वनि के साथ आज वीणा भी नहीं बज रही है। मेरी सेनाओं में वन्‍दीजन न तो मंगलगीत गा रहे हैं और न स्‍तुतियुक्‍त मनोहर श्‍लोकों का ही पाठ करते हैं।' ‘मेरे सैनिक मुझे देखकर नीचे मुख किये लौट जाते हैं। पहले की भाँति अभिवादन करके मुझसे युद्ध का समाचार नहीं बता रहे हैं। माधव! क्‍या आज मेरे भाई सकुशल होंगे?' ‘आज इन स्‍वजनों को व्‍याकुल देखकर मेरे हृदय की आशंका नहीं दूर होती है। दूसरों को मान देने वाले अच्‍युत श्रीकृष्‍ण! राजा द्रुपद, विराट तथा मेरे अन्‍य सब योद्धाओं का समुदाय तो सकुशल होगा न।' ‘आज प्रतिदिन की भाँति सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु अपने भाइयों के साथ हर्ष में भरकर हँसता हुआ-सा युद्ध से लौटते हुए मेरी उचित अगवानी करने नहीं आ रहा है (इसका क्‍या कारण है?)'

    संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार बातें करते हुए उन दोनों ने शिविर में पहुँचकर देखा कि पाण्‍डव अत्‍यन्‍त व्‍याकुल और हतोत्‍साह हो रहे हैं। भाइयों तथा पुत्रों को इस अवस्‍था में देख और सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु को वहाँ न पाकर कपिध्‍वज अर्जुन का मन अत्‍यन्‍त उदास हो गया तथा वे इस प्रकार बोले। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘आज आप सभी लोगों के मुख की कान्ति अप्रसन्‍न दिखायी दे रही है, इधर मैं अभिमन्‍यु को नहीं देख पाता हूँ और आप लोग भी मुझसे प्रसन्‍नतापूर्वक वार्तालाप नहीं कर रहे हैं।' ‘मैंने सुना है कि आचार्य द्रोण ने चक्रव्‍यूह की रचना की थी। आप लोगों में से बालक अभिमन्‍यु के सिवा दूसरा कोई उस व्‍यूह का भेदन नहीं कर सकता था।' ‘परंतु मैंने उसे उस व्‍यूह से निकलने का ढंग अभी नहीं बताया था। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आप लोगों ने उस बालक को शत्रु के व्‍यूह में भेज दिया हो।' शत्रुवीरों का संहार करने वाला महाधनुर्धर सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु युद्ध में शत्रुओं के उस व्‍यूह का अनेकों वार भेदन करके अन्‍त में वहीं मारा तो नहीं गया।' ‘पर्वतों में उत्‍पन्‍न हुए सिंह के समान लाल नेत्रों वाले, श्रीकृष्‍णतुल्‍य पराक्रमी महाबाहु अभिमन्‍यु के विषय में आप लोग बतावें। वह युद्ध में किस प्रकार मारा गया?' ‘इन्‍द्र के पौत्र तथा मुझे सदा प्रिय लगने वाले सुकुमार शरीर महाधनुर्धर अभिमन्‍यु के विषय में बताइये। वह युद्ध में कैसे मारा गया?' 

    ‘सुभद्रा और द्रौपदी के प्‍यारे पुत्र अभिमन्‍यु को, जो श्रीकृष्‍ण और माता कुन्‍ती का सदा दुलारा रहा है, किसने काल से मोहित होकर मारा है?' ‘वृष्णिकुल के वीर महात्‍मा केशव के समान पराक्रमी, शास्‍त्रज्ञ और महत्‍वशाली अभिमन्‍यु युद्ध में किस प्रकार मारा गया है?' ‘सुभद्रा के प्राणप्‍यारे शूरवीर पुत्र को, जिसको मैंने सदा लाड़-प्‍यार किया है, यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोक चला जाऊँगा।' 

    ‘जिसके केशप्रान्‍त कोमल और घुँघराले थे, दोनों नेत्र मृगछौने के समान चंचल थे, जिसका पराक्रम मतवाले हाथी के समान और शरीर नूतन शालवृक्ष के समान ऊँचा था, जो मुसकराकर बातें करता था, जिसका मन शान्‍त था, जो सदा गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता था, बाल्‍यावस्‍था में भी जिसके पराक्रम की कोई तुलना नहीं थी, जो सदा प्रिय वचन बोलता और किसी से ईर्ष्‍या-द्वेष नहीं रखता था, जिसमें महान उत्‍साह भरा था, जिसकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और दोनों नेत्र विकसित कमल के समान सुन्‍दर एवं विशाल थे, जो भक्‍तजनों पर दया करता, इन्द्रियों को वश में रखता और नीच पुरुषों का साथ कभी नहीं करता था, जो कृतज्ञ, ज्ञानवान, अस्‍त्र-विद्या में पारंगत, युद्ध से मुँह न मोड़ने वाला, युद्ध का अभिनन्‍दन करने वाला तथा सदा शत्रुओं का भय बढ़ाने वाला था, जो स्‍वजनों के प्रिय और हित में तत्‍पर तथा अपने पितृकुल की विजय चाहने वाला था, संग्राम में जिसे कभी घबराहट नहीं होती थी और जो शत्रु पर पहले प्रहार नहीं करता था, अपने उस पुत्र बालक अभिमन्‍यु को यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोक की राह लूँगा।' 

    ‘रथियों के गणना होते समय जो महारथी गिना गया था, जिसे युद्ध में मेरी अपेक्षा ड्यौढ़ा समझा जाता था तथा अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाला जो तरुण वीर प्रद्युम्न को, श्रीकृष्‍ण को और भी सदैव प्रिय था, उस पुत्र को यदि मैं नहीं देखूँगा तो यमराज के लोक में चला जाऊँगा।' ‘जिसकी नासिका, ललाट प्रान्‍त, नेत्र, भौंह तथा ओष्‍ठ- ये सभी परम सुन्‍दर थे, अभिमन्‍यु के उस मुख को न देखने पर मेरे हृदय में क्‍या शान्ति होगी?' 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘अभिमन्‍यु का स्‍वर वीणा की ध्‍वनि के समान सुखद, मनोहर तथा कोयल की काकली के तुल्‍य मधुर था। उसे न सुनने पर मेरे हृदय को क्‍या शान्ति मिलेगी?' ‘उसके रूप की कहीं तुलना नहीं थी। देवताओं के लिये भी वैसा रूप दुर्लभ है। यदि वीर अभिमन्‍यु के उस रूप को नहीं देख पाता हूँ तो मेरे हृदय को क्‍या शान्ति मिलेगी?' ‘प्रणाम करने में कुशल और पितृवर्ग की आज्ञा का पालन करने में तत्‍पर अभिमन्‍यु को यदि आज मैं नहीं देखता हूँ तो मेरे हृदय को क्‍या शान्ति मिलेगी?' 

    ‘जो सदा बहुमूल्‍य शय्या पर सोने के योग्‍य और सुकुमार था, वह सनाथशिरोमणि वीर अभिमन्‍यु आज निश्चय ही अनाथ की भाँति पृथ्‍वी पर सो रहा है।' ‘आज से पहले सोते समय परम सुन्‍दरी स्त्रियाँ जिसकी उपासना करती थीं, अपने क्षत-विक्षत अंगों से पृथ्‍वी पर पड़े हुए उस अभिमन्‍यु के पास आज अमंगलजनक शब्‍द करने वाली सियारिनें बैठी होंगी।' 

    ‘जिसे पहले सो जाने पर सूत, मागध और बन्‍दीजन जगाया करते थे, उसी अभिमन्‍यु को आज निश्चय ही हिंसक जन्‍तु अपने भयंकर शब्‍दों द्वारा जगाते होंगे।' ‘उसका वह सुन्‍दर मुख सदा छत्र की छाया में रहने योग्‍य था, परंतु आज युद्ध भूमि में उड़ती हुई धूल उसे आच्‍छादित कर देगी।' 

    ‘हा पुत्र! मैं बड़ा भाग्‍यहीन हूँ। निरन्‍तर तुम्‍हें देखते रहने पर भी मुझे तृप्ति नहीं होती थी, तो भी काल आज बलपूर्वक तुम्‍हें मुझसे छीनकर लिये जा रहा है।' ‘निश्‍चय ही वह संयमनी पुरी सदा पुण्‍यवानों का आश्रय है, जो आज अपनी प्रभा से प्रकाशित और मनोहारिणी होती हुई भी तुम्‍हारे द्वारा अत्‍यन्‍त उद्भासित हो उठी होगी।' 

    ‘अवश्‍य ही आज वैवस्‍वत यम, वरुण, इन्‍द्र और कुबेर वहाँ तुम जैसे निर्भय वीर को अपने प्रिय अतिथि के रूप में पाकर तुम्‍हारा बड़ा आदर-सत्‍कार करते होंगे।' इस प्रकार बारंबार विलाप करके टूटे हुए जहाज वाले व्‍यापारी की भाँति महान दु:ख से व्‍याप्‍त अर्जुन ने युधिष्ठिर से इस प्रकार पूछा। 

    ‘कुरुनन्‍दन! क्‍या उन श्रेष्‍ठ वीरों के साथ युद्ध करता हुआ अभिमन्‍यु रणभूमि में शत्रुओं का संहार करके सम्‍मुख मारा जाकर स्‍वर्ग लोक में गया है?' ‘अवश्‍य ही बहुत-से श्रेष्‍ठ एवं सावधानी के साथ प्रयत्‍नपूर्वक युद्ध करने वाले योद्धाओं के साथ अकेले लड़ते हुए अभिमन्‍यु ने सहायता की इच्‍छा से मेरा बारंबार स्‍मरण किया होगा।' 

    ‘जब कर्ण, द्रोण और कृपाचार्य आदि ने चमकते हुए अग्रभाग वाले नाना प्रकार के तीखे बाणों द्वारा मेरे पुत्र को पीड़ित किया होगा और उसकी चेतना मन्‍द होने लगी होगी, उस समय अभिमन्‍यु ने बारंबार विलाप करते हुए यह कहा होगा कि यदि यहाँ मेरे पिताजी होते तो मेरे प्राणों की रक्षा हो जाती। मैं समझता हूँ, उसी अवस्‍था में उन निर्दयी शत्रुओं ने उसे पृथ्वी पर मार गिराया होगा।' ‘अथवा वह मेरा पुत्र, श्रीकृष्‍ण का भानजा था, सुभद्रा की कोख से उत्‍पन्‍न हुआ था, इसलिये ऐसी दीनतापूर्ण बात नहीं कह सकता था।' ‘निश्‍चय ही मेरा यह हृदय अत्‍यन्‍त सुदृढ एवं वज्रसार का बना हुआ है, तभी तो लाल नेत्रों वाले महाबाहु अभिमन्‍यु को न देखने पर भी यह फट नहीं जाता है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद)

    'उन क्रूरकर्मा महान धनर्धरों ने श्रीकृष्‍ण के भानजे और मेरे बालक पुत्र पर मर्मभेदी बाणों का प्रहार कैसे किया?' ‘जब मैं शत्रुओं को मारकर शिबिर को लौटता था, उस समय जो प्रतिदिन प्रसन्‍नचित्‍त हो आगे बढ़कर मेरा अभिनन्‍दन करता था, वह अभिमन्‍यु आज मुझे क्‍यों नहीं देख रहा है?' ‘निश्‍चय ही शत्रुओं ने उसे मार गिराया है और वह खून से लथपथ होकर धरती पर पड़ा सो रहा है एवं आकाश से नीचे गिराये हुए सूर्य की भाँति वह अपने अंगों से इस भूमि की शोभा बढ़ा रहा है।' ‘मुझे बारंबार सुभद्रा के लिये शोक हो रहा है, जो युद्ध से मुँह न मोड़ने वाले अपने वीर पुत्र को रणभूमि में मारा गया सुनकर शोक से आतुर हो प्राण त्‍याग देगी।' 

     ‘अभिमन्‍यु को न देखकर सुभद्रा मुझे क्‍या कहेगी? द्रौपदी भी मुझसे किस प्रकार वार्तालाप करेगी, इन दोनों दु:ख कातर देवियों को मैं क्‍या जवाब दूँगा? ‘निश्चय ही मेरा हृदय वज्रमार का बना हुआ है, जो शोकर से कातर हुई बहू उत्तरा को रोती देखकर सहस्‍त्रों टुकड़ों में विदीर्ण नहीं हो जाता।' 'मैंने घमंड में भरे हुए धृतराष्‍ट्रपुत्रों का सिंहनाद सुना है और श्रीकृष्‍ण ने यह भी सुना है कि युयुत्सु उन कौरव वीरों को इस प्रकार उपालम्‍भ दे रहा था।' ‘युयुत्‍सु कह रहा था, धर्म को न जानने वाले महारथी कौरवों! अर्जुन पर जब तुम्‍हारा वश न चला, तब तुम एक बालक की हत्‍या करके क्‍यों आनन्‍द मना रहे हो? कल पाण्‍डवों का बल देखना।' ‘रणक्षेत्र में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का अपराध करके तुम्‍हारे लिये शोक का अवसर उपस्थित है, ऐसे समय में तुम लोग प्रसन्‍न होकर सिंहनाद कैसे कर रहे हो?'

    ‘तुम्‍हारे पापकर्म का फल तुम्‍हें शीघ्र ही प्राप्‍त होगा। तुम लोगों ने घोर पाप किया है। उसका फल मिलने में अधिक विलम्‍ब कैसे हो सकता है।' ‘राजा धृतराष्‍ट्र की वैश्‍यजातीय पत्‍नी का परम बुद्धिमान पुत्र युयुत्‍सु कोप और दु:ख से युक्‍त हो कौरवों से उपर्युक्‍त बातें कहकर शस्त्र त्‍यागकर चला आया है।' 

    ‘श्रीकृष्‍ण! आपने रणक्षेत्र में ही यह बात मुझसे क्‍यों नहीं बता दी? मैं उसी समय उन समस्‍त क्रूर महारथियों को जलाकर भस्‍म कर डालता।' 

    संजय कहते हैं ;– महाराज! इस प्रकार अर्जुन को पुत्रशोक से पीड़ित और उसी का चिन्‍तन करते हुए नेत्रों से आँसू बहाते देख भगवान श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें पकड़कर संभाला। वे पुत्र वियोग के कारण होने वाली गहरी मनोव्‍यथा में डूबे हुए थे और तीव्र शोक उन्हें संतप्‍त कर रहा था। 

   भगवान बोले ;– ‘मित्र! ऐसे व्‍याकुल न होओ।' ‘युद्ध में पीठ न दिखाने वाले सभी शूरवीरों का यही मार्ग है। विशेषत: उन क्षत्रियों को, जिनकी युद्ध से जीविका चलती है, इस मार्ग से जाना ही पड़ता है।' ‘बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ वीर! जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं, उन युद्धपरायण शूरवीरों के लिये सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों ने यही गति निश्चित की है।' ‘पीछे पैर न हटाने वाले शूरवीरों का युद्ध में मरण अवश्‍यम्‍भावी है। अभिमन्‍यु पुण्‍यात्‍मा पुरुषों के लोक में गया है, इसमें संशय नहीं है।' 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 70-88 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘दूसरों को मान देने वाले भरतश्रेष्‍ठ! संग्राम में सम्‍मुख युद्ध करते हुए वीर को मृत्यु की प्राप्ति हो, यही सम्‍पूर्ण शूरवीरों का अभीष्‍ट मनोरथ हुआ करता है।' ‘अभिमन्‍यु ने रणक्षेत्र में महाबली वीर राजकुमारों का वध करके वीर पुरुषों द्वारा अभि‍लषित संग्राम में सम्‍मुख मृत्‍यु प्राप्‍त की है।' 

    ‘पुरुषसिंह! शोक न करो। प्राचीन धर्मशास्‍त्रकारों ने संग्राम में वध होना क्षत्रियों का सनातन धर्म नियत किया है।' ‘भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारे शोकाकुल हो जाने से ये तुम्‍हारे सभी भाई, नरेशगण तथा सुहृद दीन हो रहे हैं।' ‘मानद! इन सबको अपने शान्तिपूर्ण वचन से आश्वासन दो। तुम्‍हें जानने योग्‍य तत्त्व का ज्ञान हो चुका है। अत: तुम्‍हें शोक नहीं करना चाहिये।' अद्भुत कर्म करने वाले श्रीकृष्‍ण के इस प्रकार समझाने-बुझाने पर अर्जुन उस समय वहाँ गद्गद कण्‍ठवाले अपने सब भाइयों से बोले। 

    ‘मोटे कंधों, बड़ी भुजाओं तथा कमलसदृश विशाल नेत्रों वाला अभिमन्‍यु संग्राम में जिस प्रकार बड़ा था, वह सब वृत्‍तान्‍त मैं सुनना चाहता हूँ।' ‘कल आप लोग देखेंगे कि मेरे पुत्र के वैरी अपने हाथी, रथ, घोड़े और सगे-सम्‍बन्धियों सहित युद्ध में मेरे द्वारा मार डाले गये।' ‘आप सब लोग अस्‍त्रविद्या के पण्डित और हाथ में हथियार लिये हुए थे। सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु साक्षात वज्रधारी इन्‍द्र से भी युद्ध करता हो तो भी आपके सामने कैसे मारा जा सकता था?' 

     ‘यदि मैं ऐसा जानता कि पाण्‍डव और पांचाल मेरे पुत्र की रक्षा करने में असमर्थ है तो मैं स्‍वयं उसकी रक्षा करता।' ‘आप लोग रथ पर बैठे हुए बाणों की वर्षा कर रहे थे तो भी शत्रुओं ने आपकी अवहेलना करके कैसे अभिमन्‍यु को मार डाला? ‘अहो! आप लोगों में पुरुषार्थ नहीं है और पराक्रम भी नहीं है, क्‍योंकि समरभूमि में आप लोगों के देखते-देखते अभिमन्‍यु मार डाला गया।' ‘मैं अपनी ही निन्‍दा करूँगा, क्‍योंकि आप लोगों को अत्‍यन्‍त दुर्बल, डरपोक और सुदृढ निश्चय रहित जानकर भी मैं अन्‍यत्र चला गया।' ‘अथवा आप लोगों के ये कवच और अस्‍त्र-शस्‍त्र क्‍या शरीर का आभूषण बनाने के लिये हैं? मेरे पुत्र की रक्षा न करके वीरों की सभा में केवल बातें बनाने के लिये हैं?’

     ऐसा कहकर फिर अर्जुन धनुष और श्रेष्ठ तलवार लेकर खड़े हो गये। उस समय कोई उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सका। वे यमराज के समान कुपित हो बार-बार लंबी साँसें छोड़ रहे थे। उस समय पुत्र शोक से संतप्‍त हुए अर्जुन के मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थीं। उस अवस्‍था में वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण अथवा ज्‍येष्‍ठ पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को छोड़कर दूसरे सगे-सम्‍बन्‍धी न तो उनसे कुछ बोल सकते थे और न तो देखने का ही साहस करते थे। श्रीकृष्‍ण और युधिष्ठिर सभी अवस्‍थाओं में अर्जुन के हितैषी और उनके मन के अनुकूल चलने वाले थे, क्‍योंकि अर्जुन के प्रति उनका बड़ा आदर और प्रेम था। अत: वे ही दोनों इनसे उस समय कुछ कहने का अधिकार रखते थे। तदनन्‍तर मन-ही-मन पुत्र शोक से अत्‍यन्‍त पीड़ित हुए क्रोध भरे कमलनयन अर्जुन से राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में अर्जुनकोपविषयक बहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

तिहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर के मुख से अभिमन्‍यु वध का वृत्‍तान्‍त सुनकर अर्जुन की जयद्रथ को मारने के लिये शपथपूर्ण प्रतिज्ञा”

   युधिष्ठिर बोले ;– महाबाहो! जब तुम संशप्‍तक सेना के साथ युद्ध के लिये चले गये, उस समय आचार्य द्रोण ने मुझे पकड़ने के लिये घोर प्रयत्‍न किया। वे रथों की सेना का व्‍यूह बनाकर बार-बार उद्योग करते थे और हम लोग रणक्षेत्र में अपनी सेना को व्‍यूहाकार में संघटित करके सब प्रकार से द्रोणाचार्य को आगे बढ़ने से रोक देते थे। जब रथियों के द्वारा आचार्य रोक दिये गये और मैं सर्वथा सुर‍क्षित रह गया, तब उन्‍होंने अपने तीखे बाणों द्वारा हमें पीड़ा देते हुए हम लोगों पर तीव्र वेग से आक्रमण किया। 
    द्रोणाचार्य से पीड़ित होने के कारण हम लोग उनके सैन्‍य व्‍यूह की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे; फिर युद्धभूमि में उसका भेदन तो कर ही कैसे सकते थे? तब हम सब लोग अनुपम पराक्रमी अपने पुत्र सुभद्रानन्‍दन अभिमन्‍यु से बोले,
   युधिष्ठिर बोले ;– ‘तात! तुम इस व्‍यूह का भेदन करो, क्‍योंकि तुम ऐसा करने में समर्थ हो।' हमारे इस प्रकार आज्ञा देने पर उस पराक्रमी वीर ने अच्‍छे घोड़े की भाँति उस असह्य भार को भी वहन करने का ही प्रयत्‍न किया। तुम्‍हारे दिये हुए अस्त्र-विद्या के उपदेश और पराक्रम से सम्‍पन्‍न बालक अभिमन्‍यु ने उस सेना में उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे गरुड़ समुद्र में घुस जाते हैं। तत्‍पश्चात हम लोग रणक्षेत्र में वीर सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु के पीछे उस व्यूह में प्रवेश करने की इच्‍छा से चले। हम भी उसी मार्ग से उसमें घुसना चाहते थे, जिसके द्वारा उसने शत्रुसेना में प्रवेश किया था। 
    तात! ठीक इसी समय नीच सिंधुनरेश राजा जयद्रथ ने सामने आकर भगवान शंकर के दिये हुए वरदान के प्रभाव से हम सब लोगों को रोक दिया। तदनन्‍तर द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्बल और कृतवर्मा– इन छ: महारथियों ने सुभद्राकुमार को चारों ओर से घेर लिया। घिरा होने पर भी वह बालक पूरी शक्ति लगाकर उन सबको जीतने का प्रयत्‍न करता रहा, तथापि वे संख्‍या में अधिक थे, अत: उन समस्त महारथियों ने उसे घेरकर रथहीन कर दिया। 
    तत्‍पश्चात दु:शासनपुत्र ने अभिमन्‍यु के प्रहार से भारी प्राण संकट में पड़कर पूर्वोक्‍त महारथियों द्वारा रथहीन किये हुए अभिमन्‍यु को शीघ्र ही मार डाला। इसके पहले उसने हजारों हाथी, रथ, घोड़े और मनुष्‍यों को मार डाला था। आठ हजार रथों और नौ सौ हाथियों का संहार किया था। दो हजार राजकुमारों तथा और भी बहुत से अलक्षित वीरों का वध करके राजा बृहद्बल को भी युद्धस्‍थल में स्‍वर्गलोक का अतिथि बनाया। इसके बाद परम धर्मात्‍मा अभिमन्‍यु स्‍वयं मृत्यु को प्राप्‍त हुआ।      वह पुण्‍यात्‍माओं के लोकों में गया है। अपने पुण्य के बल से स्‍वर्गलोक पर विजय पाने वाले धर्मात्‍मा पुरुषों को जो शुभ लोक सुलभ होते हैं, वे ही उसे भी प्राप्‍त हुए हैं। उसने कभी युद्ध में दीनता नहीं दिखायी। वह वीर शत्रुओं को त्रास और बान्‍धवों को आनन्‍द प्रदान करता हुआ अपने पितरों और मामा के नाम को बारंबार विख्‍यात करके अपने बहुसंख्‍यक बन्‍धुओं को शोक में डालकर मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ है। तभी से हम लोग शोक से संतप्‍त हैं और इस समय तुमसे हमारी भेंट हुई है। यही हम लोगों के लिये शोक बढ़ाने वाली घटना घटित हुई है। पुरुषसिंह अभिमन्‍यु इस प्रकार स्‍वर्गलोक में गया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद)

   धर्मराज युधिष्ठिर की कही हुई यह बात सुनकर अर्जुन व्‍यथा से पीड़ित हो लंबी साँस खींचते हुए ‘हा पुत्र’ कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सबके मुख पर विषाद छा गया। सब लोग अर्जुन को घेरकर दुखी हो एकटक नेत्रों से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तदनन्‍तर इन्‍द्रपुत्र अर्जुन होश में आकर क्रोध से व्‍याकुल हो मानो ज्‍वर से काँप रहे हों– इस प्रकार बारंबार लंबी साँस खींचते और हाथ पर हाथ मलते हुए नेत्रों से आँसू बहाने लगे और उन्‍मत्‍त के समान देखते हुए इस तरह बोले। 
     अर्जुन ने कहा ;– मैं आप लोगों के सामने सच्‍ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कल जयद्रथ को अवश्‍य मार डालूँगा। महाराज! यदि वह मारे जाने के भय से डरकर धृतराष्‍ट्रपुत्रों को छोड़ नहीं देगा, मेरी, पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण की अथवा आपकी शरण में नहीं आ जायगा तो कल उसे अवश्‍य मार डालूँगा। जो धृतराष्‍ट्र के पुत्रों का प्रिय कर रहा है, जिसने मेरे प्रति अपना सौहार्द्र भुला दिया है तथा जो बालक अभिमन्‍यु के वध में कारण बना है, उस पापी जयद्रथ को कल अवश्‍य मार डालूँगा। राजन! युद्ध में जयद्रथ की रक्षा करते हुए जो कोई मेरे साथ युद्ध करेंगे, वे द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ही क्‍यों न हों, उन्‍हें अपने बाणों के समूह से आच्‍छादित कर दूँगा।
    पुरुषश्रेष्‍ठ वीरो! यदि संग्राम भूमि में मैं ऐसा न कर सकूँ तो पुण्‍यात्‍मा पुरुषों के उन लोकों को, जो शूरवीर को प्रिय हैं, न प्राप्‍त करूँ। माता-पिता की हत्‍या करने वालों को जो लोक प्राप्‍त होते हैं, गुरु-पत्‍नीगामी और चुगलखोरों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, साधुपुरुषों की निन्‍दा करने वालों और दूसरों को कलंक लगाने वालों को जो लोक प्राप्‍त होते हैं, धरोहर हड़पने और विश्वासघात करने वालों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, दूसरे के उपभोग में आयी हुई स्‍त्री को ग्रहण करने वाले , पाप की बातें करने वाले, ब्रह्महत्‍यारे और गोघातियों को जो लोक प्राप्‍त होते हैं, खीर, यवान्न, साग, खिचड़ी, हलुआ, पूआ आदि को बलिवैश्‍वदेव किये बिना ही खाने वाले मनुष्‍यों को जो लोक प्राप्‍त होते हैं, यदि मैं कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ तो मुझे तत्‍काल उन्‍हीं लोकों को जाना पड़े। 
     वेदों का स्‍वाध्‍याय अथवा अत्‍यन्‍त कठोर व्रत का पानल करने वाले श्रेष्‍ठ ब्राह्मण की तथा बड़े-बूढ़ों, साधु पुरुषों और गुरुजनों की अवहेलना करने वाला पुरुष जिन नरकों में पड़ता है, ब्राह्मण, गौ और अग्नि को पैर से छूने वाले पुरुष की जो गति होती है तथा जल में थूक अथवा मल-मूत्र छोड़ने वालों की जो दुर्गति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो उसी कष्‍टदायिनी गति को मैं भी प्राप्‍त करूँ। 
नंगे नहाने वाले तथा अतिथि को भोजन दिये बिना ही उसे असफल लौटा देने वाले पुरुष की जो गति होती है, घूसखोर, असत्‍यवादी तथा दूसरों के साथ वंचना (ठगी) करने वालों की जो दुर्गति होती है, आत्‍मा का हनन करने वाले, दूसरों पर झूठे दोषारोपण करने वाले, भृत्‍यों की आज्ञा के अधीन रहने वाले तथा स्‍त्री, पुत्र एवं आश्रित जनों के साथ यथायोग्‍य बँटवारा किये बिना ही अकेले मिष्ठान्‍न उड़ाने वाले क्षुद्र पुरुषों को जिस घोर नारकी गति की प्राप्ति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो मुझे भी वही दुर्गति प्राप्‍त हो। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 35-53 का हिन्दी अनुवाद)

     जो नृशंस स्‍वभाव का मनुष्‍य शरणागत, साधुपुरुष तथा आज्ञापालन में तत्‍पर रहने वाले पुरुष को त्‍यागकर उसका भरण-पोषण नहीं करता, जो उपकारी की निन्‍दा करता है, पड़ोस में रहने वाले योग्‍य व्‍यक्ति को श्राद्ध का दान नहीं देता और अयोग्‍य व्‍यक्तियों को तथा शूद्रा के स्‍वामी ब्राह्मण को देता है, जो मद्य पीने वाला, धर्म-मर्यादा को तोड़ने वाला, कृतघ्न और अग्नि की निन्‍दा करने वाला है– इन सभी लोगों को जो दुर्गति प्राप्‍त होती है, उसी को मैं भी शीघ्र ही प्राप्‍त करूँ, यदि कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ। 
      जो बायें हाथ से भोजन करते हैं, गोद में रखकर खाते हैं, जो पलास के आसन का और तेंदू की दातुन का त्‍याग नहीं करते तथा उष:काल में सोते हैं, उनको जो नरक लोक प्राप्‍त होते हैं (वे ही मुझे भी मिले, यदि मैं जयद्रथ को न मार डालूँ)। जो ब्राह्मण होकर सर्दी से और क्षत्रिय होकर युद्ध से डरते हैं, जिस गाँव में एक ही कुएँ का जल पीया जाता हो और जहाँ कभी वेदमंत्रों की ध्‍वनि न हुई हो, ऐसे स्‍थानों में जो छ: महीनों तक निवास करते हैं, जो शास्त्र की निन्दा में तत्‍पर रहते, दिन में मैथुन करते और सोते हैं, जो दूसरों के घरों में आग लगाते और दूसरों को जहर दे देते हैं, जो कभी अग्निहोत्र और अतिथि-सत्‍कार नहीं करते तथा गायों के पानी पीने में विघ्‍न डालते हैं, जो रजस्‍वला स्‍त्री का सेवन करते हैं और शुल्‍क लेकर कन्‍या देते हैं, जो बहुतों की पुरोहिती करते, ब्राह्मण होकर सेवा-वृत्ति से जीविका चलाते, मुँह में मैथुन करते अथवा दिन में स्‍त्री-सहवास करते हैं, जो ब्राह्मण को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश नहीं देते हैं, उन सबको जिन लोकों अथवा दुर्गति की प्राप्ति होती है, उन्‍हीं को मैं भी प्राप्‍त होऊँ; य‍दि कल तक जयद्रथ को न मार डालूँ। 
    ऊपर जिन पापियों का नाम मैंने गिनाया है तथा जिन दूसरे पापियों का नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्‍त होती है, उसी को शीघ्र ही मैं भी प्राप्‍त करूँ, यदि यह रात बीतने पर कल जयद्रथ को न मार डालूँ। 
     अब आप लोग पुन: मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुन लें। यदि इस पापी जयद्रथ के मारे जाने से पहले ही सूर्यदेव अस्‍ताचल को पहुँच जायँगे तो मैं यहीं प्रज्‍वलित अग्नि में प्रवेश कर मर जाउँगा। देवता, असुर, मनुष्‍य, पक्षी, नाग, पितर, निशाचर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचर जगत तथा इसके परे जो कुछ है, वह– ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु जयद्रथ की रक्षा नहीं कर सकते। 
     यदि जयद्रथ पाताल में घुस जाय या उससे भी आगे बढ़ जाय अथवा आकाश, देवलोक या दैत्‍यों के नगर में जाकर छिप जाय तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणों से अभिमन्‍यु के उस घोर शत्रु का सिर अवश्य काट लूँगा। ऐसा कहकर अर्जुन ने दाहिने और बायें हाथ से भी गाण्डीव धनुष की टंकार की। उसकी ध्‍वनि दूसरे शब्‍दों को दबाकर सम्‍पूर्ण आकाश में गूँज उठी। अर्जुन के इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेने पर भगवान श्रीकृष्‍ण ने भी अत्‍यन्‍त कुपित होकर पांचजन्य शंख बजाया। इधर अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख को फूँका। 
      भगवान श्रीकृष्‍ण के मुख की वायु से भीतरी भाग भर जाने के कारण अत्‍यन्‍त भयंकर ध्‍वनि प्रकट करने वाले पांचजन्‍य ने आकाश, पाताल, दिशा और दिक्‍पालों सहित सम्‍पूर्ण जगत को कम्पित कर दिया, मानो प्रलयकाल आ गया हो। 
    महामना अर्जुन ने अब उक्‍त प्रतिज्ञा कर ली, उस समय पाण्‍डवों के शिबिर में अनेक बाजों के हजारों श‍ब्‍द और पाण्‍डव वीरों का सिंहनाद भी सब ओर गूँजने लगा। 
    भीमसेन ने कहा ;- अर्जुन! तुम्‍हारी प्रतिज्ञा के शब्‍द से और भगवान श्रीकृष्‍ण के इस शंखनाद से मुझे विश्वास हो गया कि यह धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन अपने सगे-सम्‍बन्धियों सहित अवश्य मारा जायगा। नरश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा यह वचन महान अर्थ से युक्‍त और मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है। यह अत्‍यन्‍त प्रभावशाली वाक्‍य तुम्‍हारे पुत्रशोकमय उस रोष-समूह का निवारण कर रहा है, जिसने तुम्‍हारे गले के सुन्‍दर पुष्‍पहार को मसल डाला था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में अर्जुनप्रतिज्ञा विषयक तिहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

चौहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतु:सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“जयद्रथ का भय तथा दुर्योधन और द्रोणाचार्य का उसे आश्‍वासन देना”

    संजय कहते हैं ;- राजन! सिंधुराज जयद्रथ ने जब विजयाभिलाषी पाण्‍डवों का वह महान शब्‍द सुना और गुप्‍तचरों ने आकर जब अर्जुन की प्रतिज्ञा का समाचार निवेदन किया, तब वह सहसा उठकर खड़ा हो गया, उसका हृदय शोक से व्‍याकुल हो गया। वह दु:ख से व्‍याप्‍त हो शोक के विशाल एवं अगाध महासागर में डूबता हुआ-सा बहुत सोच-विचारकर राजाओं की सभा में गया और उन नरदेवों के समीप रोने बिलखने लगा। जयद्रथ अभिमन्‍यु के पिता से बहुत डर गया था, इसलिये लज्जित होकर बोला,
    जयद्रथ बोला ;– ‘राजाओ! कामी इन्‍द्र ने पाण्‍डु की पत्नी के गर्भ से जिसको जन्‍म दिया है, वह दुर्बुद्धि अर्जुन केवल मुझको ही यमलोक भेजना चाहता है, यह बात सुनने में आयी है। अत: आप लोगों का कल्‍याण हो। अब मैं अपने प्राण बचाने की इच्‍छा से अपनी राजधानी को चला जाऊँगा। ‘अथवा क्षत्रियशिरोमणि वीरो! आप लोग अस्‍त्र-शस्‍त्रों के ज्ञान में अर्जुन के समान ही शक्तिशाली हैं। उधर अर्जुन ने मेरे प्राण लेने की प्रतिज्ञा की है। इस अवस्‍था में आप मेरी रक्षा करें और मुझे अभयदान दें।' ‘द्रोणाचार्य, दुर्योधन, कृपाचार्य, कर्ण, मद्रराज शल्‍य, बाह्लक तथा दु:शासन आदि वीर मुझे यमराज के संकट से भी बचाने में समर्थ हैं। प्रिय नरेशगण! फिर अब अकेला अर्जुन ही मुझे मारने की इच्‍छा रखता है तो उसके हाथ से आप समस्‍त भूपतिगण मेरी रक्षा क्‍यों नहीं कर सकते हैं।' 
   ‘राजाओ! पाण्‍डवों का हर्षनाद सुनकर मुझे महान भय हो रहा है। मरणासन्न मनुष्‍य की भाँति मेरे सारे अंग शिथिल होते जा रहे हैं।'
‘निश्चय ही गाण्‍डीवधारी अर्जुन ने मेरे वध की प्रतिज्ञा कर ली है, तभी शोक के समय भी पाण्‍डव योद्धा बड़े हर्ष के साथ गर्जना करते हैं।' ‘उस प्रतिज्ञा को देवता, गन्धर्व, असुर, नाग तथा राक्षस भी पलट नहीं सकते हैं। फिर ये नरेश उसे भंग करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं?' ‘अत: नरश्रेष्‍ठ वीरो! आपका कल्‍याण हो। आप लोग मुझे जाने की आज्ञा दें। मैं अदृश्‍य हो जाऊँगा। पाण्‍डव मुझे नहीं देख सकेंगे।' भय से व्‍याकुलचित्‍त होकर विलाप करते हुए जयद्रथ से राजा दुर्योधन ने अपने कार्य की गुरुता का विचार करके इस प्रकार कहा। 
     ‘पुरुषसिंह! नरश्रेष्‍ठ! तुम्‍हें भय नहीं करना चाहिये। युद्धस्‍थल में इन क्षत्रिय वीरों के बीच में खड़े रहने पर कौन तुम्‍हें मारने की इच्‍छा कर सकता है?' 
    ‘मैं, सूर्यपुत्र कर्ण, चित्रसेन, विविंशति, भूरिश्रवा, शल, शल्‍य, दुर्धर्ष वीर वृषसेन, पुरुमित्र, जय, भो, काम्‍बोजराज सुदक्षिण, सत्यव्रत, महाबाहु विकर्ण, दुर्मुख दु:शासन, सुबाहु, अस्‍त्र–शस्‍त्रधारी कलिंगराज, अवन्ती के दोनों राजकुमार विन्‍द और अनुविन्‍द, द्रोण, अश्वत्थामा और शकुनि– ये तथा और भी बहुत-से नरेशों जो विभिन्‍न देशों के अधि‍पति हैं, अपनी सेना के साथ तुम्‍हारी रक्षा के लिये चलेंगे। अत: तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जानी चाहिये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतु:सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘अमित तेजस्‍वी सिंधुराज! तुम स्‍वयं भी तो तो रथियों में श्रेष्‍ठ शूरवीर हो, फिर पाण्डु के पुत्रों से अपने लिये भय क्‍यों देख रहे हो?' 
‘मेरी ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाएँ तुम्‍हारी रक्षा के लिये उद्यत होकर युद्ध करेंगी, अत: सिंधुराज! तुम भय मत मानो। तुम्‍हारा भय निकल जाना चाहिये।' 
    संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन के आश्वासन देने पर जयद्रथ उसके साथ रात्रि के समय द्रोणाचार्य के पास गया। महाराज! उस समय उसने द्रोणाचार्य के चरण छूकर विधिपूर्वक प्रणाम किया और पास बैठकर प्रणतभाव से इस प्रकार पूछा। ‘दूर तक बाण चलाने में, लक्ष्‍य वेधने में, हाथ की फुर्ती में तथा अचूक निशाना मारने में मुझ में और अर्जुन में कितना अन्‍तर है, यह पूज्‍य गुरुदेव मुझे बतावें।' ‘आचार्य! मैं अर्जुन की और अपनी विद्याविषयक विशेषता को ठी ठीक जानना चाहता हूँ। आप मुझे यथार्थ बात बताइए।' 
    द्रोणाचार्य ने कहा ;– तात! यद्यपि तुम्‍हारा और अर्जुन का आचार्यत्‍व मैंने समान रूप से ही किया है, तथापि सम्‍पूर्ण दिव्‍यास्‍त्रों की प्राप्ति एवं अभ्‍यास और क्‍लेश सहन की दृष्टि से अर्जुन तुमसे बढ़े-चढ़े हैं। वत्‍स! तो भी तुम्‍हें युद्ध में किसी प्रकार भी अर्जुन से डरना नहीं चाहिये, क्‍योंकि मैं उनके भय से तुम्‍हारी रक्षा करने वाला हूँ– इसमें संशय नहीं है। मेरी भुजाएँ जिसकी रक्षा करती हों, उस पर देवताओं का भी जोर नहीं चल सकता। मैं ऐसा व्‍यूह बनाऊँगा, जिसे अर्जुन पार नहीं कर सकेंगे। 
    इसलिये तुम डरो मत। उत्‍साहपूर्वक युद्ध करो और अपने क्षत्रिय-धर्म का पालन करो। महारथी वीर! अपने बाप-दादों के मार्ग पर चलो। तुमने वेदों का विधिपूर्वक अध्‍ययन करके भली-भाँति अग्निहोत्र किया है। बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान भी कर लिया है। तुम्‍हें तो मृत्यु का भय करना ही नहीं चाहिये। जो मन्‍दभागी मनुष्‍यों के लिये दुर्लभ है, रणक्षेत्र में मृत्युरूप उस परम सौभाग्‍य को पाकर तुम अपने बाहुबल से जीते हुए परम उत्तम दिव्‍य लोकों में पहुँच जाओगे। 
    कौरव-पाण्‍डव, वृष्णिवंशी योद्धा, अन्‍य मनुष्‍य तथा पुत्रसहित मैं– ये सभी अस्थिर हैं– ऐसा चिन्‍तन करो। बारी-बारी से हम सभी लोग बलवान काल के हाथों मारे जाकर अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक में चले जायँगे। तपस्वी लोग तपस्या करके जिन लोकों को पाते हैं, क्षत्रिय-धर्म का आश्रय लेने वाले वीर क्षत्रिय उन्‍हें अनायास ही प्राप्‍त कर लेते हैं। 
     द्रोणाचार्य के इस प्रकार आश्वासन देने पर राजा जयद्रथ ने अर्जुन का भय छोड़ दिया और युद्ध करने का विचार किया। महाराज! तदनन्‍तर आपकी सेवा में भी हर्षध्‍वनि होने लगी, सिंहनाद के साथ-साथ रणवाद्यों की भयंकर ध्‍वनि गूँज उठी। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में जयद्रथ को आश्वासन विषयक चौहत्‍तरववाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (प्रतिज्ञापर्व)

पचहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्‍ण का अर्जुन को कौरवों के जयद्रथ की रक्षा विषयक उद्योग समाचार बताना”

     संजय कहते हैं ;– राजन! जब अर्जुन ने सिंधुराज जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली, उस समय महाबाहु भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से कहा। ‘धनंजय! तुमने अपने भाइयों का मत जाने बिना ही जो वाणी द्वारा यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं सिंधुराज जयद्रथ को मार डालूँगा, यह तुमने दु:साहसपूर्ण कार्य किया है।' ‘मेरे साथ सलाह किये बिना ही तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी दशा में हम सम्‍पूर्ण लोकों के उपहास पात्र कैसे नहीं बनेंगे?' ‘मैंने दुर्योधन शिविर में अपने गुप्‍तचर भेजे थे। वे शीघ्र ही वहाँ से लौटकर अभी-अभी वहाँ का समाचार मुझे बता गये हैं।' 
    ‘शक्तिशाली अर्जुन! जब तुमने सिंधुराज के वध की प्रतिज्ञा की थी, उस समय यहाँ रणवाद्यों के साथ-साथ महानसिंहनाद किया गया था जिसे कौरवों ने सुना था।' ‘उस शब्‍द से जयद्रथ सहित धृतराष्‍ट्रपुत्र संत्रस्‍त हो उठे। वे यह सोचकर कि यह सिंहनाद अकारण नहीं हुआ है, सावधान हो गये।' ‘महाबाहो! फिर तो कौरवों के दल में भी बड़े जोर का कोलाहल मच गया। हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथ-सेनाओं का भयंकर घोष सब ओर गूँजने लगा।' ‘वे यह समझकर युद्ध के लिये उद्यत हो गये कि अभिमन्‍यु के वध का वृत्‍तान्‍त सुनकर अर्जुन को अवश्‍य ही महान कष्‍ट हुआ होगा; अत: वे क्रोध करके रात में ही युद्ध के लिये निकल पड़ेंगे।' ‘कमलनयन! युद्ध के लिये तैयार होते-होते उन कौरवों ने सदा सत्य बोलने वाले तुम्‍हारी जयद्रथ-वध विषयक वह सच्‍ची प्रतिज्ञा सुनी।' ‘फिर तो दुर्योधन के मंत्री और स्‍वयं राजा जयद्रथ– ये सब के सब क्षुद्र मृगों के समान भयभीत और उदास हो गये।' ‘तदनन्‍तर सिंधुसौवीर देश का स्‍वामी जयद्रथ अत्‍यन्‍त दुखी और दीन हो मंत्रियों सहित उठकर अपने शिविर में आया।' ‘उसने मंत्रणा के समय अपने लिये श्रेयस्‍कर सिद्ध होने वाले समस्‍त कार्यों के सम्‍बन्‍ध में मंत्रियों से परामर्श करके राजसभा में आकर दुर्योधन से इस प्रकार कहा।' ‘राजन! मुझे अपने पुत्र का घातक समझकर अर्जुन कल सबेरे मुझ पर आक्रमण करने वाला है, क्‍योंकि उसने अपनी सेना के बीच में मेरे वध की प्रतिज्ञा की है।' ‘सर्वव्‍यापी अर्जुन की उस प्रतिज्ञा को देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षस भी अन्‍यथा नहीं कर सकते।' ‘अत: आप लोग संग्राम में मेरी रक्षा करें। कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन आप लोगों के सिर पर पैर रखकर अपने लक्ष्‍य तक पहुँच जाय; अत: इसके लिये आप आवश्‍यक व्‍यवस्‍था करें।'

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

    'कुरुनंदन! यदि आप युद्ध में मेरी रक्षा ना कर सकें तो मुझे आज्ञा दें; राजन! मैं अपने घर चला जाऊँगा।' ‘जयद्रथ के ऐसा कहने पर दुर्योधन अपना सिर नीचे किये मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया और तुम्‍हारी उस प्रतिज्ञा को सुनकर उसे बड़ी भारी चिन्‍ता हो गयी। ‘दुर्योधन को उद्विग्‍नचित्‍त देखकर सिंधुराज जयद्रथ ने व्‍यंग्‍य करते हुए कोमल वाणी में अपने हित की बात इस प्रकार कही।' ‘राजन! आपकी सेना में किसी भी ऐसे पराक्रमी धनुर्धर को नहीं देखता, जो उस महायुद्ध में अपने अस्त्र द्वारा अर्जुन के अस्‍त्र का निवारण कर सके।' 
    ‘श्रीकृष्‍ण के साथ आकर गाण्डीव धनुष का संचालन करते हुए अर्जुन के सामने कौन खड़ा हो सकता है? साक्षात इन्‍द्र भी तो उसका सामना नहीं कर सकते।' ‘मैंने सुना है कि पूर्वकाल में हिमालय पर्वत पर पैदल अर्जुन ने महापराक्रमी भगवान महेश्‍वर के साथ भी युद्ध किया था।' ‘देवराज इन्‍द्र की आज्ञा पाकर उसने एकमात्र रथ की सहायता से हिरण्‍यपुरवासी सहस्‍त्रों दानवों का संहार कर डाला था।' ‘मेरा तो ऐसा विश्‍वास है कि परम बुद्धिमान वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण के साथ रहकर कुन्‍तीकुमार अर्जुन देवताओं सहित तीनों लोकों को नष्‍ट कर सकता है।' 
     ‘इसलिये मैं यहाँ से चले जाने की अनुमति चाहता हूँ। अथवा यदि आप ठीक समझें तो पुत्रसहित वीर महामना द्रोणाचार्य के द्वारा मैं अपनी रक्षा का आश्वासन चाहता हूँ।' ‘अर्जुन! तब राजा दुर्योधन ने स्‍वयं ही आचार्य द्रोण से जयद्रथ की रक्षा के लिये बड़ी प्रार्थना की है। अत: उसकी रक्षा का पूरा प्रबन्‍ध कर लिया गया है तथा रथ भी सजा दिये गये हैं।' ‘कल के युद्ध में कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, दुर्जय वीर वृषसेन, कृपाचार्य और मद्रराज शल्‍य ये– छ: महारथी उसके आगे रहेंगे।' ‘द्रोणाचार्य ने ऐसा व्‍यूह बनाया है, जिसका अगला आधा भाग शकट के आकार का है और पिछला कमल के समान। कमलव्‍यूह के मध्‍य की कर्णिका के बीच सूचीव्‍यूह के पार्श्‍व भाग में युद्ध दुर्मद सिंधुराज जयद्रथ खड़ा होगा और अन्‍यान्‍य वीर उसकी रक्षा करते रहेंगे।' 
    ‘पार्थ! ये पूर्व निश्चित छ: महारथी धनुष, बाण, पराक्रम, प्राणशक्ति तथा मनोबल में अत्‍यन्‍त असह्य माने गये हैं। इन छ: महारथियों को जीते बिना जयद्रथ को प्राप्‍त करना असम्‍भव है।' ‘पुरुषसिंह! पहले तुम इन छ: महारथियों में एक-एक के बल-पराक्रम का विचार करो। फिर जब ये छ: एक साथ होंगे, उस समय इन्‍हें सुगमता से नहीं जीता जा सकता।' ‘अब मैं पुन: अपने हित का ध्‍यान रखते हुए कार्य की सिद्धि के लिये मंत्रज्ञ म‍ंत्रियों और हितैषी सुहृदों के साथ सलाह करूँगा।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में श्रीकृष्‍णवाक्‍य विषयक पचहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)



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