सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छियाछठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (From the 66 chapter to the 70 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

छियाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा गय का चरित्र”

     नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! राजा अमूर्तरय के पुत्र गय की भी मृत्यु सुनी गयी है। राजा गय ने सौ वर्षों तक नियमपूर्वक अग्निहोत्र करके होमा‍वशिष्‍ट अन्‍न का ही भोजन किया। इससे प्रसन्‍न होकर अग्निदेव ने उन्‍हें वर देने की इच्‍छा प्रकट की। गय ने उनसे यह वरदान माँगा– ‘मैं, तप, ब्रह्मचर्य, व्रत, नियम और गुरुजनों की कृपा से वेदों का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहता हूँ। दूसरों को कष्‍ट पहुँचाये बिना अपने धर्म के अनुसार चलकर अक्षय धन पाना चाहता हूँ। ब्राह्मणों को दान देता रहूँ और इस कार्य में प्रतिदिन मेरी अधिकाधिक श्रद्धा बढ़ती रहे। अपने ही वर्ण की पतिव्रता कन्‍याओं से मेरा विवाह हो और उन्‍हीं के गर्भ से मेरे पुत्र उत्‍पन्‍न हों। अन्‍नदान में मेरी श्रद्धा बढ़े तथा धर्म में ही मेरा मन लगा रहे। अग्निदेव! मेरे धर्मसम्‍बन्‍धी कार्यों में कभी कोई विघ्‍न न आवे’। 

   ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर अग्निदेव वहीं अन्‍तर्धान हो गये। राजा गय ने वह सब कुछ पाकर धर्म से ही शत्रुओं पर विजय पायी। राजा ने यथा समय सौ वर्षों तक बड़ी श्रद्धा के साथ दर्श, पौर्णमास, आग्रयण और चातुर्मास्य आदि नाना प्रकार के यज्ञ किये तथा उनमें प्रचुर दक्षिणा दी। वे सौ वर्षों तक प्रतिदिन प्रात:काल उठकर एक लाख साठ हजार गौ, दस हजार अश्‍व तथा एक लाख स्‍वर्णमुद्रा दान करते थे। वे सोम और अंगिरा की भाँति सम्‍पूर्ण नक्षत्रों में नक्षत्र दक्षिणा देते हुए नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करते थे। 

   राजा गय ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में मणिमय रेतवाली सोने की पृथ्‍वी बनवाकर ब्राह्मणों को दान की थी। गय के यज्ञ में सम्‍पूर्ण यूप जाम्‍बूनद नामक सुवर्ण के बने हुए थे। उन्‍हें रत्‍नों से विभूषित किया गया था। वे समृद्धिशाली यूप सम्‍पूर्ण प्राणियों के मन को हर लेते थे। राजा गय ने यज्ञ करते समय हर्ष से उल्‍लसित हुए ब्राह्मणों तथा अन्‍य समस्‍त प्राणियों को सम्‍पूर्ण कामनाओं से सम्‍पन्‍न उत्‍तम अन्‍न दिया था। 

    समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कानन, नगर, राष्‍ट्र, आकाश तथा स्‍वर्ग में जो नाना प्रकार के प्राणिसमुदाय रहते थे, वे उस यज्ञ की सम्‍पत्ति से तृप्‍त होकर कहने लगे, राजा गये के समान दूसरे किसी का यज्ञ नहीं हुआ है। यजमान गय के यज्ञ में छत्‍तीस योजन लम्‍बी, तीस योजन चौड़ी और आगे-पीछे चौबीस योजन ऊँची सुवर्णमयी वेदी बनवायी गयी थी। उसके ऊपर हीरे-मोती एवं मणिरत्‍न बिछाये गये थे। प्रचुर दक्षिणा देने वाले गय ने ब्राह्मणों को वस्‍त्र, आभूषण तथा अन्‍य शास्‍त्रोक्‍त दक्षिणाएँ दी थीं। 

    उस यज्ञ में खाने-पीने से बचे हुए अन्‍ने के पचीस पर्वत शेष थे। रसों को कौशलपूर्वक प्रवाहित करने वाली कितनी ही छोटी-छोटी नदियाँ तथा वस्‍त्र, आभूषण और सुगन्धित पदार्थों की विभिन्‍न राशियाँ भी उस समय शेष रह गयी थीं। उस यज्ञ के प्रभाव से राजा गय तीनों लोकों में विख्‍यात हो गये। साथ ही पुण्‍य को अक्षय्य करने वाला अक्षयवट तथा पवित्र तीर्थ ब्रह्मसरोवर भी उनके कारण प्रसिद्ध हो गये। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे धर्म-ज्ञानादि चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों के लिये क्‍या कहना है? अत: तुम यज्ञानुष्‍ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये अनुताप न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक छियासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

सरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा रन्तिदेव की महत्‍ता”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! सुना है कि संकृति के पुत्र रन्तिदेव भी जीवित नहीं रह सके। उन महामना नरेश के यहाँ दो लाख रसोईये थे, जो घर पर आये हुए ब्राह्मण अतिथियों को अमृत के समान मधुर कच्‍चा-पक्‍का उत्‍तम अन्‍न दिन-रात परोसते रहते थे। उन्‍होंने ब्राह्मणों को न्‍यायपूर्वक प्राप्‍त हुए धन का दान किया और चारों वेदों का अध्‍ययन करके धर्म द्वारा समस्‍त शत्रुओं को अपने वश में कर लिया। 

    ब्राह्मणों को सोने के चमकीले निष्क देते हुए वे बार-बार प्रत्‍येक ब्राह्मण से यही कहते थे कि यह निष्‍क तुम्‍हारे लिये है, यह निष्‍क तुम्‍हारे लिये है। ‘तुम्‍हारे लिये, तुम्‍हारे लिये’ कहकर वे हजारों निष्‍क दान किया करते थे। इतने पर भी जो ब्राह्मण पाये बिना रह जाते, उन्‍हें पुन: आश्वासन देकर वे बहुत-से निष्‍क ही देते थे। राजा रन्तिदेव एक दिन में सहस्‍त्रों कोटि निष्‍क दान करके भी यह खेद प्रकट किया करते थे कि आज मैंने बहुत कम दान किया, ऐसा सोचकर वे पुन: दान देते थे। भला दूसरा कौन इतना दान दे सकता है?

    ब्राह्मणों के हाथ का वियोग होने पर मुझे सदा महान दु:ख होगा, इसमें संदेह नहीं है। यह विचार कर राजा रन्तिदेव बहुत धन दान करते थे। सृंजय! एक हजार सुवर्ण के बैल, प्रत्‍येक के पीछे सौ-सौ गायें और एक सौ आठ स्‍वर्ण मुद्राएँ– इतने धन को निष्‍क कहते हैं। राजा रन्तिदेव प्रत्‍येक पक्ष में ब्राह्मणों को करोड़ों निष्‍क दिया करते थे। इसके साथ अग्निहोत्र के उपकरण और यज्ञ की सामग्री भी होती थी। उनका यह नियम सौ वर्षों तक चलता रहा। वे ऋषियों को करवे, घड़े, बटलोई, पिठर, शय्या, आसन, सवारी, महल और घर, भाँति-भाँति के वृक्ष तथा अन्‍न–धन दिया करते थे। बुद्धिमान रन्तिदेव की सारी देय वस्‍तुएँ सुवर्णमय ही होती थीं। 

    राजा रन्तिदेव की वह अलौकिक समृद्धि देखकर पुराणवेत्‍ता पुरुष वहाँ इस प्रकार उनकी यशोगाथा गाया करते थे। हमने कुबेर के भवन में भी पहले कभी ऐसा भरा-पूरा धन का भंडार नहीं देखा है, फिर मनुष्‍यों के यहाँ तो हो ही कैसे सकता है? वास्‍तव में रन्तिदेव की समृद्धि का सारतत्त्‍व उनका सुवर्णमय राजभवन और स्‍वर्णराशि ही है। इस प्रकार विस्मित होकर लोग उस गाथा का गान करने लगे। संकृतिपुत्र रन्तिदेव के यहाँ जिस रात में अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय वहाँ इक्‍कीस हजार गौएँ छूकर दान की जाती थीं। वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्‍डल धारण किये रसोईये पुकार-पुकार कर कहते थे, आप लोग खूब दाल और कढ़ी खाइये। यह आज जैसी स्‍वादिष्‍ट बनी है, वैसी पहले एक महीने तक नहीं बनी थी। 

    उन दिनों राजा रन्तिदेव के पास जो कुछ भी सुवर्णमयी सामग्री थी, वह सब उन्‍होंने उस विस्‍तृत यज्ञ में ब्राह्मणों को बाँट दी। उनके यज्ञ में देवता और पितर प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर यथासमय हव्‍य और कव्‍य ग्रहण करते थे तथा श्रेष्‍ठ ब्राह्मण वहाँ सम्‍पूर्ण मनोवांछित पदार्थों को पाते थे। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे रन्तिदेव चारों कल्‍याणमय गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों की क्‍या बात है? अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक सरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा भरत का चरित्र”

   नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! दुष्‍यन्‍तपुत्र राजा भरत की भी मृत्यु सुनी गयी है, जिन्‍होंने शैशवावस्‍था में ही वन में ऐसे-ऐसे कार्य किये थे, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुष्कर हैं। बलवान भरत बाल्‍यावस्‍था में ही नखों और दाढ़ों से प्रहार करने वाले बरफ के समान सफेद रंग के सिंहों को अपने बाहुबल के वेग से पराजित एवं निर्बल करके उन्‍हें खींच लाते और बाँध देते थे। वे अत्‍यन्‍त भयंकर और क्रूर स्‍वभाव वाले व्‍याघ्रों का दमन करके उन्‍हें अपने वश में कर लेते थे। मैनसिल के समान पीली और लाक्षाराशि से संयुक्‍त लाल रंग की बड़ी-बड़ी शिलाओं को वे सुगमतापूर्वक हाथ से उठा लेते थे। 

   अत्‍यन्‍त बलवान भरत सर्प आदि जन्‍तुओं को और सुप्रतीक जाति के गजराजों के भी दाँत पकड़ लेते और उनके मुख सुखाकर उन्‍हें विमुख करके अपने अधीन कर लेते थे। भरत का बल असीम था। वे बलवान भैंसों और सौ-सौ गर्वीले सिंहों को भी बलपूर्वक घसीट लाते थे। बलवान सामरों, गेंड़ों तथा अन्‍य नाना प्रकार के हिंसक जन्‍तुओं को वे वन में बाँध लेते और उनका दमन करते-करते उन्‍हें अधमरा करके छोड़ते थे। उनके इस कर्म से ब्राह्मणों ने उनका नाम सर्वदमन रख दिया। माता शकुंतला ने भरत को मना किया कि तू जंगली जीवों को सताया न कर। पराक्रमी महाराज भरत जब बड़े हुए, तब उन्‍होंने यमुना के तट पर सौ, सरस्‍वती के तट पर सौ और गंगा जी के किनारे चार सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्‍ठान करके पुन: उत्‍तम दक्षिणाओं से सम्‍पन्‍न एक हजार अश्वमेध और सौ राजसूय महायज्ञों द्वारा भगवान का यजन किया। 

    इसके बाद भरत ने अग्निष्‍टोम और अति‍रात्र याग करके विश्वजित नामक यज्ञ किया। तत्‍पश्चात सर्वथा सुरक्षित दस लाख वाजपेय यज्ञों द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष की आराधना करके महायशस्‍वी शकुन्‍तलाकुमार राजा भरत ने धन द्वारा ब्राह्मणों को तृप्‍त करते हुए आचार्य कण्व को विशुद्ध जाम्‍बूनद सुवर्ण के बने हुए एक हजार कमल भेंट कये। इन्‍द्र आदि देवताओं ने वहाँ ब्राह्मणों के साथ मिलकर राजा भरत के यज्ञ में सोने के बने हुए सौ व्‍याम लंबे सुवर्णमय यूप का आरोपण किया। शत्रुविजयी, दूसरों से पराजित होने वाले अदीनचित्‍त चक्रवर्ती सम्राट भरत ने ब्राह्मणों को सम्‍पूर्ण मनोहर रत्‍नों से विभूषित, कान्तिमान एवं सुवर्ण शोभित घोड़े, हाथी, रथ, ऊँट, बकरी, भेड़, दास, दासी, धन-धान्‍य, दूध देने वाली सवत्‍सा गायें, गाँव, घर, खेत तथा वस्‍त्राभूषण आदि नाना प्रकार की सामग्री एवं दस लाख कोटि स्‍वर्ण मुद्राएँ दी थीं। 

     श्‍वैत्‍य सृंजय! चारों कल्‍याणकारी गुणों में वे तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब दूसरे कैसे बच सकते हैं? अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक अड़सठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

छियाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा पृथु का चरित्र”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! वेन के पुत्र राजा पृथु भी जीवित नहीं रह सके, यह हमने सुना है। महर्षियों ने राजसूय-यज्ञ में उन्‍हें सम्राट के पद पर अभिषिक्‍त किया था। ‘ये समस्‍त शत्रुओं को पराजित करके अपने प्रयत्‍न से प्रथित होंगे’– ऐसा महर्षियों ने कहा था। इसलिये वे ‘पृथु’ कहलाये। ऋषियों ने यह भी कहा कि ‘ये क्षत से हमारा त्राण करेंगे’, इसलिये वे ‘क्षत्रिय’ इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए। वेनकुमार पृथु को देखकर प्रजा ने कहा, हम इनमें अनुरक्‍त हैं। इसलिये उस प्रजारंजन जनित अनुराग के कारण उनका नाम ‘राजा’ हुआ।वेननन्‍दन पृथु के लिये यह पृथ्वी कामधेनु हो गयी थी। उनके राज्‍य में बिना जोते ही पृथ्‍वी से अनाज पैदा होता था। उस समय सभी गौएँ कामधेनु के समान थीं। पत्‍ते-पत्‍ते में मधु भरा रहता था। 

   कुश सुवर्णमय होते थे। उनका स्‍पर्श कोमल था और वे सुखद जान पड़ते थे। उन्‍हीं के चीर बनाकर प्रजा उनसे अपना शरीर ढकती थी तथा उन कुशों की ही चटाइयों पर सोती थी। वृक्षों के फल अमृत के समान मधुर और स्‍वादिष्‍ट होते थे। उन दिनों उन फलों का ही आहार किया जाता था। कोई भी भूखा नहीं रहता था। सभी मनुष्‍य नीरोग थे। सबकी सारी इच्‍छाएँ पूर्ण होती थीं और उन्हें कहीं से भी कोई भय नहीं था। वे अपनी इच्‍छा के अनुसार वृक्षों के नीचे और पर्वतों की गुफाओं में निवास करते थे। उस समय राष्‍ट्रों और नगरों का विभाग नहीं था। सबको इच्‍छानुसार सुख और भोग प्राप्‍त थे। इससे यह सारी प्रजा प्रसन्‍न थी। राजा पृथु जब समुद्र में यात्रा करते थे, तब पानी थम जाता था और पर्वत उन्‍हें जाने के लिये मार्ग दे देते थे। उनके रथ की ध्वजा कभी खण्डित नहीं हुई थी। एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए राजा पृथु के पास वनस्‍पति, पर्वत, देवता, असुर, मनुष्‍य, सर्प, सप्तर्षि, पुण्‍यजन (यक्ष), गन्धर्व, अप्सरा तथा पितरों ने आकर इस प्रकार कहा,,– ‘महाराज! तुम हमारे सम्राट हो, क्षत्रिय हो तथा राजा, रक्षक और पिता हो। तुम हमें अभीष्‍ट वर दो, जिससे हम लोग अनन्‍त काल तक तृप्ति और सुख का अनुभव करें। तुम ऐसा करने में समर्थ हो।'

    ‘बहुत अच्‍छा‘ ऐसा ही होगा, यह कहकर वेनकुमार पृथु ने अपना आजगव नामक धनुष और जिनकी कहीं तुलना नहीं थी, ऐसे भयंकर बाण हाथ में ले लिये और कुछ सोचकर पृथ्‍वी से कहा। ‘वसुधे! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। आओ-आओ, इन प्रजाजनों के लिये शीघ्र ही मनोवांछित दूध की धारा बहाओ। तब मैं जिसका जैसा अभीष्‍ट अन्‍न है, उसे वैसा दे सकूँगा।' 

   वसुधा बोली ;– वीर! तुम मुझे अपनी पुत्री मान लो, तब जितेन्द्रिय राजा पृथु ने ‘तथास्‍तु’ कहकर वहाँ सारी आवश्‍यक व्‍यवस्‍था की। तदनन्‍तर प्राणियों के समुदाय ने उस समय वसुधा को दुहना आरम्‍भ किया। सबसे पहले दूध की इच्‍छा वाले वनस्‍पति उठे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनसप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

  उस समय गोरूपधारिणी पृथ्‍वी वात्‍सल्‍य–स्‍नेह से परिपूर्ण हो बछड़े, दुहने वाले और दुग्‍धपात्र की इच्‍छा करती हुई खड़ी हो गयी। वन‍स्‍पतियों में से खिला हुआ शाल वृक्ष बछड़ा हो गया। पाकर का पेड़ दुहने वाला बन गया। गूलर सुन्‍दर दुग्‍धपात्र का काम देने लगा। कटने पर पुन: पनप जाना यही दूध था। पर्वतों में उदयाचल बछड़ा, महागिरि मेरु दुहने वाला, रत्‍न और ओषधि दूध तथा प्रस्‍तर ही दुग्‍धपात्र था। 

   देवताओं में भी उस समय कोई दुहने वाला और कोई बछड़ा बन गया। उन्‍होंने पुष्टिकारक अमृतमय प्रिय दूध दुह लिया। असुरों ने कच्‍चे बर्तन में मायामय दूध का ही दोहन किया। उस समय द्विमूर्धा दुहने वाला और विरोचन बछड़ा बना था। भूतल के मनुष्‍यों ने कृषिकर्म और खेती की उपज को ही दूध के रूप में दुहा। उनके बछड़े के स्‍थान पर स्‍वायम्‍भू मनु थे और दुहने का कार्य पृथु ने किया। सर्पों ने तुम्‍बी के बर्तन में पृथ्‍वी से विष का दोहन किया। उनकी ओर से दुहने वाला धृतराष्ट्र और बछड़ा तक्षक था।

    अक्लिष्‍टकर्मा सप्‍तर्षियों ने ब्रह्म का दोहन किया। उनके दोग्‍धा बृहस्पति, पात्र छन्‍द और बछड़ा राजा सोम थे। यक्षों ने कच्‍चे बर्तन में पृथ्‍वी से अन्‍तर्धान विद्या का दोहन किया। उनके दोग्‍धा कुबेर और बछड़ा महादेव जी थे। गन्‍धर्वों और अप्‍सराओं ने कमल के पात्र में पवित्र गन्‍ध को ही दूध के रूप में दुहा। उनका बछड़ा चित्ररथ और दुहने वाले गन्‍धर्वराज विश्वरुचि थे। पितरों ने पृथ्वी से चाँदी के पात्र में स्‍वधारूपी दूध का दोहन किया। उस समय उनकी ओर से वैवस्‍वत यम बछड़ा और अन्‍तक दुहने वाले थे। 

   सृंजय! इस प्रकार सभी प्राणियों ने बछड़ों और पात्रों की कल्‍पना करके पृथ्‍वी से अपने अभीष्‍ट दूध का दोहन किया था, जिससे वे आज तक निरन्‍तर जीवन-निर्वाह करते हैं। तदनन्‍तर प्रतापी वेनकुमार पृथु ने नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यजन करके मन को प्रिय लगने वाले सम्‍पूर्ण भोगों की प्राप्ति कराकर सब प्राणियों को तृप्‍त किया। भूतल पर जो कोई भी पार्थिव पदार्थ हैं, उनकी सोने की आकृति बनाकर राजा पृथु ने महायज्ञ अश्वमेघध में उन्‍हें ब्राह्मणों को दान किया। 

   राजा ने छाछठ हजार सोने के हाथी बनवाये और उन्‍हें ब्राह्मणों को दे दिया। राजा पृथु ने इस सारी पृथ्‍वी की भी मणि तथा रत्‍नों से विभूषित सुवर्णमयी प्रतिमा बनवायी और उसे ब्राह्मणों को दे दिया। श्‍वैत्‍य सृंजय! चारों कल्‍याणकारी गुणों में वे तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों की क्‍या गिनती है? अत: तुम यज्ञानुष्‍ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍यवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक उनहत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“परशुराम जी का चरित्र”

   नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! महातपस्‍वी शूरवीर, वीरजनवन्दित महायशस्‍वी जमदग्निनन्‍दन परशुराम जी भी अतृप्‍त अवस्‍था में ही मौत के मुख में चले जायँगे। जिन्‍होंने इस पृथ्वी को सुखमय बनाते हुए आदि युग के धर्म का जहाँ निरन्‍तर प्रचार किया था तथा परम उत्‍तम सम्‍पत्ति को पाकर भी जिनके मन में किसी प्रकार का विकार नहीं आया। जब क्षत्रियों ने गाय के बछड़े को पकड़ लिया और पिता जमदग्नि को मार डाला, तब जिन्‍होंने मौन रहकर ही समरभूमि में दूसरों से कभी पराजित न होने वाले कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध किया था। उस समय मरने-मारने का निश्चय करके एकत्र हुए चौसठ करोड़ क्षत्रियों को उन्‍होंने एकमात्र धनुष के द्वारा जीत लिया। 

   उसी युद्ध के सिलसिले में परशुराम जी ने चौदह हजार दूसरे ब्रह्मद्रोहियों का दमन किया और दन्‍तक्रूर नामक राजा को भी मार डाला। उन्‍होंने एक सहस्‍त्र क्षत्रियों को मूसल से मार गिराया, एक सहस्‍त्र राजपूतों को तलवार से काट डाला, फिर एक सहस्‍त्र क्षत्रियों को वृक्षों की शाखाओं में फाँसी पर लटकाकर मार डाला और पुन: एक सहस्‍त्र को पानी में डूबो दिया। एक सहस्‍त्र राजपूतों के दाँत तोड़कर नाक और कान काट डाले तथा सात हजार राजाओं को कड़ुवा धूप पिला दिया। शेष क्षत्रियों को बाँधकर उनका वध कर डाला। उनमें से कितनों के ही मस्‍तक विदीर्ण कर डाले। गुणावती से उत्‍तर और खाण्डव वन से दक्षिण पर्वत के निकटवर्ती प्रदेश में लाखों हैहयवंशी क्षत्रिय वीर पिता के लिये कुपित हुए बुद्धिमान परशुराम के द्वारा समरभूमि में मारे गये। वे अपने रथ, घोड़े और हाथियों सहित मारे जाकर वहाँ धराशायी हो गये। परशुराम जी ने उस समय अपने फरसे से दस हजार क्षत्रियों को काट डाला। आश्रमवासियों ने आर्तभाव से जो बातें कही थीं, वहाँ के श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने ‘भृगुवंशी परशुराम! दौड़ो, बचाओ’ इस प्रकार कहकर जो करुण क्रन्‍दन किया था, उनकी वह कातर पुकार परशुराम जी से नहीं सही गयी। 

    तदनन्‍तर प्रतापी परशुराम ने काश्‍मीर, दरद, कुन्ति, क्षुद्रक, मालव, अंग, वंग, कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्‍त, रक्षोवाह, वीतिहोत्र, त्रिगर्त, मार्तिकावत, शिबि तथा अन्‍य सहस्‍त्रों देशों के क्षत्रियों का अपने तीखे बाणों द्वारा संहार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍ततितम अध्याय के श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

    सहस्‍त्रों और लाखों कोटि क्षत्रियों के इन्‍द्रगोप नामक कीट तथा बन्‍धुजीव पुष्‍प के समान रंग वाले रक्‍त की धाराओं से भृगुनन्‍दन परशुराम ने कितने ही तालाब भर दिये और समस्‍त अठारह द्वीपों को अपने वश में करके उत्‍तम दक्षिणाओं से युक्‍त सौ पवित्र यज्ञों का अनुष्‍ठान किया। उस यज्ञ में विधिपूर्वक बत्‍तीस हाथ ऊँची सोने की बेदी बनायी गयी थी, जो सब प्रकार के सैकड़ों रत्‍नों से परिपूर्ण और सौ पताकाओं से सुशोभित थी। जमदग्निनन्‍दन परशुराम की उस वेदी को तथा ग्रामीण और जंगली पशुओं से भरी पूरी इस पृथ्‍वी को भी महर्षि कश्यप ने दक्षिणारूप से ग्रहण किया। उस समय परशुराम जी ने लाखों गजराजों को सोने के आभूषणों से विभूषित करके तथा पृथ्‍वी को चोर-डाकुओं से सूनी और साधु पुरुषों से भरी-पूरी करके महायज्ञ अश्वमेध में कश्‍यप जी को दे दिया। 

     वीर एवं शक्तिशाली परशुराम जी ने इक्‍कीस बार इस पृथ्‍वी को क्षत्रियों से शून्‍य करके सैकड़ों यज्ञों द्वारा भगवान का यजन किया और इस वसुधा को ब्राह्मणों के अधिकार में दे दिया। ब्रह्मर्षि कश्‍यप ने जब सातों द्वीपों से युक्‍त यह पृथ्‍वी दान में ले ली तब उन्‍होंने परशुराम जी से कहा,

ब्रह्मर्षि कश्यप ने कहा ;– ‘अब तू मेरी आज्ञा से इस पृथ्‍वी से निकल जाओ।’ कश्यप के इस आदेश से योद्धाओं में श्रेष्‍ठ परशुराम ने जितनी दूर बाण फेंका जा सकता है, समुद्र को उतनी ही दूर पीछे हटाकर ब्राह्मण की आज्ञा का पालन करते हुए उत्‍तम पर्वत गिरिश्रेष्‍ठ महेन्‍द्र पर निवास किया। 

    इस प्रकार भृगुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले महायशस्‍वी, महातेजस्‍वी और सैकड़ों गुणों से सम्‍पन्‍न जमदग्निनन्‍दन परशुराम भी एक-न-एक दिन मरेंगे ही। सृंजय! चारों कल्‍याणकारी गुणों में वे तुमसे श्रेष्‍ठ और तुम्‍हारे पुत्र से अधिक पुण्‍यात्‍मा हैं। अत: तुम यज्ञानुष्‍ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के शोक न करो। नरश्रेष्‍ठ सृंजय! अब तक जिन लोगों का वर्ण किया गया है, वे चतुर्विध कल्‍याणकारी गुणों में तो तुमसे बढ़कर थे ही, तुम्‍हारी अपेक्षा उनमें सैकड़ों मंगलकारी गुण अधिक भी थे, तथापि वे मर गये और जो विद्यमान हैं, वे भी मरेंगे ही। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक सत्‍तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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