सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा दिलीप का उत्‍कर्ष”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! इलविला के पुत्र राजा दिलीप की भी मृत्यु सुनी गयी है, जिनके सौ यज्ञों में लाखों ब्राह्मण नियुक्‍त थे। वे सभी ब्राह्मण वेदों के कर्मकाण्‍ड और ज्ञानकाण्‍ड के तात्‍पर्य को जानने वाले, यज्ञकर्ता तथा पुत्र-पौत्रों से सम्‍पन्‍न थे। पृथ्‍वीपति दिलीप ने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न इस सारी पृथ्‍वी को ब्राह्मणो के लिये दान कर दिया था। 

    राजा दिलीप के यज्ञों में सोने की सड़कें बनायी गयी थीं। इन्‍द्र आदि देवता मानो धर्म की प्राप्ति के लिये उन्‍हें अलंकृत करते हुए उनके यहाँ पधारते थे। वहाँ पर्वतों के समान विशालकाय सहस्‍त्रों गजराज विचरा करते थे। राजा का सभामण्‍डप सोने का बना हुआ था, जो सदा देदीप्‍यमान रहता था। वहाँ रस की नहरें बहती थीं और अन्‍न के पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। राजन! उनके यज्ञ में सहस्‍त्र व्‍याम-विस्‍तृत सुवर्णमय यूप सुशोभित होते थे। 

    उनके यूप में सुवर्णमय चषाल और प्रचषाल लगे हुए थे। उनके यहाँ तेरह हजार अप्‍सराएँ नृत्‍य करती थीं। उस समय वहाँ साक्षात गन्‍धर्वराज विश्वावसु प्रेमपूर्वक वीणा बजाते थे। समस्‍त प्राणी राजा दिलीप को सत्‍यवादी मानते थे। उनके यहाँ आये हुए अतिथि ‘रागखाण्‍डव’ नामक मोदक और विविध भोज्‍य पदार्थ खाकर मतवाले हो सड़कों पर लेट जाते थे। मेरे मत में उनके यहाँ यह एक अद्भुत बात थी, जिसकी दूसरे राजाओं से तुलना नहीं हो सकती थी। राजा दिलीप युद्ध करते समय जल में भी चले जाते तो उनके रथ के पहिये वहाँ डूबते नहीं थे। सुदृढ धनुष धारण करने वाले तथा प्रचुर दक्षिणा देने वाले सत्‍यवादी राजा दिलीप का जो लोग दर्शन कर लेते थे, वे मनुष्‍य भी स्‍वर्गलोक के अधिकारी हो जाते थे। खट्वांग के भवन में ये पांच प्रकार के शब्‍द कभी बंद नहीं होते थे वेद-शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍याय का शब्‍द, धनुष की प्रत्‍यंचा की ध्‍वनि तथा अतिथियों के लिये कहे जाने वाले ‘खाओ, पीओ और अन्‍न ग्रहण करो’ ये तीन शब्‍द। 

     श्‍वैत्‍य सृंजय! वे दिलीप धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य– इन चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे, तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्‍या बात है? अत: जिसने अभी यज्ञ नहीं किया, दक्षिणाएँ नहीं बाँटीं, अपने उस पुत्र के लिये तुम शोक न करो– इस प्रकार नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा मान्‍धाता की महत्‍ता”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! युवनाश्व के पुत्र राजा मान्‍धाता भी मरे थे, यह सुना गया है। वे देवता, असुर और मनुष्‍य– तीनों लोकों में विजयी थे। पूर्वकाल में दोनों अश्विनीकुमार नामक देवताओं ने उन्‍हें पिता के पेट से निकाला था। एक समय की बात है, राजा युवनाश्‍च वन में शिकार खेलने के लिये विचर रहे थे। वहाँ उनका घोड़ा थक गया और उन्‍हें भी प्‍यास लग गयी। इतने में दूर उठता हुआ धूआँ देखकर वे उसी ओर चले और एक यज्ञमण्‍डप में जा पहुँचे। वहाँ एक पात्र में रखे हुए घृतमिश्रित अभिमंत्रित जल को उन्‍होंने पी लिया। उस जल को युवनाश्‍च के पेट में पुत्ररूप में परिणत हुआ देख वैद्यों में श्रेष्‍ठ अश्विनीकुमार नामक देवताओं ने उसे पिता के गर्भ से बाहर निकाला। 

   देवता के समान तेजस्‍वी उस शिशु को पिता की गोद में शयन करते देख देवता आपस में कहने लगे, यह किसका दूध पीयेगा? यह सुनकर,,

 इन्‍द्र ने कहा ;–  यह पहले मेरा ही दूध पीये। तदनन्‍तर इन्‍द्र की अंगुलियों से अमृतमय दूध प्रकट हो गया, क्‍योंकि इन्‍द्र ने करुणावश ‘मां धास्‍यति’ ऐसा कहकर उस पर कृपा की थी, इसलिये उसका ‘मान्‍धाता’ यह अद्भुत नाम निश्चित कर दिया गया। तत्‍पश्चात महामना मान्‍धाता के मुख में इन्‍द्र के हाथ ने दूध और घी की धारा बहायी। वह बालक इन्‍द्र का हाथ पीने लगा और एक ही दिन में बहुत बड़ गया। वह पराक्रमी राजकुमार बारह दिनों में ही बारह वर्षों की अवस्‍था वाले बालक के समान हो गया मान्‍धाता ने एक ही दिन में इस सारी पृथ्‍वी को जीत लिया। वे धर्मात्‍मा, धैर्यवान, शूरवीर, सत्‍यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। मानव मान्धाता ने जनमेजय, सुधन्वा, गय, पुरु, बृहद्रथ, असित और नृग को भी जीत लिया। 

    सूर्य जहाँ से उदय होते थे और जहाँ जाकर अस्‍त होते थे, वह सारा का सारा प्रदेश युवनाश्‍चपुत्र मान्‍धाता का क्षेत्र कहलाता था। राजन! उन्‍होंने सौ अश्‍वमेध और सौ राजसूय यज्ञों का अनुष्‍ठान करके सौ योजन विस्‍तृत रोहितक, मत्‍स्‍य तथा हिरण्‍यमय जनपदों को, जो लोगों में ऊँची भूमि के रूप में प्रसिद्ध थे, ब्राह्मणों को दे दिया। अनेक प्रकार के सुस्‍वादु भक्ष्‍य–भोज्‍य पदार्थों के पर्वत भी उन्‍होंने ब्राह्मणों को दे दिये। ब्राह्मणों के भोजन से भी जो अन्न बच गया, उसे दूसरे लोगों को दिया गया। उस अन्‍न को खाने वाले लोगों की ही वहाँ कमी रहती थी। अन्‍न कभी नहीं घटता था। 

    वहाँ भक्ष्‍य–भोज्‍य अन्‍न और पीने योग्‍य पदार्थों की अनेक राशियाँ संचित थीं। अन्‍न के तो पहाड़ों जैसे ढेर सुशोभित होते थे। उन पर्वतों को मधु और दूध की सुन्‍दर नदियाँ घेरे हुए थीं। पर्वतों के चारों ओर घी के कुण्‍ड और दाल के कुएँ भरे थे। वहाँ कई नदियों में फेन की जगह दही और जल के स्‍थान में गुड़ के रस बहते थे। वहाँ देवता, असुर, मनुष्‍य, यक्ष, गन्धर्व, नाग, पक्षी तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण एवं ऋषि भी पधारे थे, किंतु वहाँ कोई मनुष्‍य ऐसे नहीं थे, जो विद्वान्न न हों। उस समय राजा मान्‍धाता सब ओर से धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी को ब्राह्मणों के अधीन करके सूर्य के समान अस्‍त हो गये। 

     उन्‍होंने अपने सुयश से सम्‍पूर्ण दिशाओं को व्‍याप्‍त करके पुण्‍यात्‍माओं के लोकों में पदार्पण किया। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे पूर्वोक्‍त चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्‍या बात है। अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक बासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा ययाति का उपाख्‍यान”

     नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! नहुषनन्‍दन राजा ययाति की भी मृत्यु हुई थी, यह मैंने सुना है। राजा ने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, एक हजार पुण्‍डरीक याग, सौ वाजपेय यज्ञ, एक सहस्‍त्र अतिरात्र याग तथा अपनी इच्‍छा के अनुसार चातुर्मास्‍य और अग्निष्टोम आदि नाना प्रकार के प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्‍ठान किया। इस पृथ्‍वी पर ब्राह्मण द्रोहियों के पास जो कुछ धन था, वह सब उनसे छीनकर उन्‍होंने ब्राह्मणों के अधीन कर दिया।

     नदियों में परम पवित्र सरस्वती नदी, समुद्रों, पर्वतों तथा अन्‍य सरिताओं ने यज्ञ में लगे हुए परम पुण्‍यात्‍मा राजा ययाति को घी और दूध प्रदान किये। देवासुर संग्राम छिड़ जाने पर उन्‍होंने देवताओं की सहायता करके नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा परमात्‍मा का यजन किया और इस सारी पृथ्‍वी को चार भागों में विभक्‍त करके उसे ऋत्विज, अध्‍वर्यु, होता तथा उद्गाता– इन चार प्रकार के ब्राह्मणों को बाँट दिया। फिर शुक्रकन्‍या देवयानी और दानवराज की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से धर्मत: उत्‍तम संतान उत्‍पन्‍न करके वे देवोपम नरेश दूसरे इन्‍द्र की भाँति समस्‍त देवकाननों में अपनी इच्‍छानुसार विहार करते रहे। 

    जब भागों के उपभोग से उन्‍हें शान्ति नहीं मिली, तब सम्‍पूर्ण वेदों के ज्ञाता राजा ययाति निम्‍नांकित गाथा का गान करके अपनी पत्नियों के साथ वन में चले गये। 

वह गाथा इस प्रकार है– इस पृथ्‍वी पर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्‍त्री आदि भोग्‍य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्‍य को भी संतोष कराने के लिये पर्याप्‍त नहीं हैं, ऐसा समझकर मन को शान्‍त करना चाहिये। इस प्रकार ऐश्‍वर्यशाली राजा ययाति ने धैर्य का आश्रय ले कामनाओं का परित्‍याग करके अपने पुत्र पूरु को राज्‍य सिंहासन पर बिठाकर वन को प्रस्‍थान किया। 

    श्‍वैत्‍य सृंजय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य इन चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब औरों की तो बात ही क्‍या है? अत: तुम अपने उस पुत्र के लिये शोक न करो, जिसने न तो यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही दी थी। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यानविषयक तिरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा अम्‍बरीष का चरित्र”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! मैंने सुना है कि नाभाग के पुत्र राजा अम्‍बरीष भी मृत्यु को प्राप्‍त हुए थे, जिन्‍होंने अकेले ही दस लाख राजाओं से युद्ध किया था। राजा के शुत्रुओं ने उन्‍हें युद्ध में जीतने की इच्‍छा से चारों ओर से उन पर आक्रमण किया था। वे सब अस्‍त्रयुद्ध की कला में निपुण और भयंकर थे तथा राजा के प्रति अभद्र वचनों का प्रयोग कर रहे थे। परंतु राजा अम्‍बरीष को इससे तनिक भी व्‍यथा नहीं हुई। उन्‍होंने शारीरिक बल, अस्‍त्र-बल, हाथों की फुर्ती और युद्ध सम्‍बन्‍धी शिक्षा के द्वारा शत्रुओं के छत्र, आयुध, ध्वजा, रथ और प्रासों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। 

     तब वे शत्रु अपने प्राण बचाने के लिये कवच खोलकर उनसे प्रार्थना करने लगे और हम सब प्रकार से आपके हैं; ऐसा कहते हुए उन शरणदाता नरेश की शरण में चले गये। अनघ! इस प्रकार उन शत्रुओं को वशीभूत करके इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी पर विजय पाकर उन्‍होंने शास्‍त्रविधि के अनुसार सौ अभीष्‍ट यज्ञों का अनुष्‍ठान किया। उन यज्ञों में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण तथा अन्‍य लोग भी सदा सर्वगुणसम्‍पन्‍न अन्‍न भोजन करते और अत्‍यन्‍त आदर-सत्‍कार पाकर अत्‍यन्‍त संतुष्‍ट होते थे। 

    लड्डू, पूरी, पुए, स्‍वादिष्‍ट कचौड़ी, करम्‍भ, मोटे मुनक्‍के, तैयार अन्‍न, मैरेयक अपूप, रागखाण्‍डव, पानक, शुद्ध एवं सुन्‍दर ढंग से बने हुए मधुर और सुगन्धित भोज्‍य पदार्थ, घी, मधु, दूध, जल, दही, सरस वस्‍तुएँ तथा सुस्‍वादु फल, मूल वहाँ ब्राह्मण लोग भोजन करते थे। मादक वस्‍तुएँ पापजनक होती हैं, यह जानकर भी पीने वाले लोग अपने सुख के लिये गीत और वाद्यों के साथ इच्‍छानुसार उनका पान करते थे। पीकर मतवाले बने हुए सहस्‍त्रों मनुष्‍य वहाँ हर्ष में भरकर गाथा गाते, अम्बरीष की स्‍तुति से युक्‍त कविताएँ पढ़ते और नृत्‍य करते थे। 

   उन यज्ञों में राजा अम्‍बरीष ने दस लाख यज्ञकर्ता ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में दस लाख राजाओं को ही दे दिया था। वे सब राजा सोने के कवच धारण किये, श्‍वेत छत्र लगाये, सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए तथा अपने अनुगामी सेवकों और आवश्‍यक सामग्रियों से सम्‍पन्‍न थे। उस विस्‍तृत यज्ञ में यजमान अम्‍बरीष ने उन मूर्धाभिषिक्‍त नरेशों और सैकड़ों राजकुमारों को दण्‍ड और खजानोंसहित ब्राह्मणों के अधीन कर दिया। महर्षि लोग उनके ऊपर प्रसन्न होकर उनके कार्यों का अनुमोदन करते हुए कहते थे कि असंख्‍य दक्षिणा देने वाले राजा अम्‍बरीष जैसा यज्ञ कर रहे हैं, वैसा न तो पहले के राजाओं ने किया और न आगे कोई करेंगे। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे पूर्वोक्‍त चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्‍हारे पुत्र की अपेक्षा भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरों की तो बात ही क्‍या है? अत: तुम यश और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडराजकीयोपाख्‍यानविषयक चौसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा शशबिन्‍दु का चरित्र”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! मेरे सुनने में आया है कि राजा शशबिन्‍दु की भी मृत्यु हो गयी थी। उन सत्‍य-पराक्रमी श्रीमान नरेश ने नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया था। महामना शशबिन्‍दु के एक लाख स्त्रियाँ थीं और प्रत्‍येक स्‍त्री के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए थे। वे सभी राजकुमार अत्‍यन्‍त पराक्रमी और वेदों के पारंगत विद्वान थे। वे राजा होने पर दस लाख यज्ञ करने का संकल्‍प ले प्रधान-प्रधान यज्ञों का अनुष्‍ठान कर चुके थे। शशबिन्‍दु के उन सभी पुत्रों ने सोने के कवच धारण कर रखे थे। वे सब उत्‍तम धनुर्धर थे और अश्‍वमेघ-यज्ञों का अनुष्‍ठान कर चुके थे। 

    पिता महाराज शशबिन्‍दु ने अश्वमेध-यज्ञ करके उसमें अपने वे सभी पुत्र ब्राह्मणों को दे डाले। एक-एक राजकुमार के पीछे सौ-सौ रथ और हाथी गये थे। उस समय प्रत्‍येक राजकुमार के साथ सुवर्णभूषित सौ सौ कन्‍याएँ थीं। एक एक कन्‍या के पीछे सौ सौ हाथी और प्रत्‍येक हाथी के पीछे सौ सौ रथ थे। हर एक रथ के साथ सोने के हारों से विभूषित सौ सौ बलवान अश्‍व थे। प्रत्‍येक अश्‍व के पीछे हजार हजार गौएँ तथा एक एक गाय के पीछे पचास पचास भेड़ें थीं। यह अपार धन महाभाग शशबिन्दु ने अपने अश्‍वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों के लिये दान किया था। 

   उनके महायज्ञ अश्‍वमेध में जितने काष्‍ठ के यूप थे, वे तो ज्‍यों के त्यों थे ही, फिर उतने ही और सुवर्णमय यूप बनाये गये थे। उस यज्ञ में भक्ष्‍य–भोज्‍य अन्‍न-पान के पर्वतों के समान एक कोस ऊँचे ढेर लगे हुए थे। राजा का अश्वमेध-यज्ञ पूरा हो जाने पर अन्‍न के तेरह पर्वत बच गये थे। शशबिन्‍दु के राज्‍यकाल में यह पृथ्‍वी हृष्‍ट-पुष्‍ट मनुष्‍यों से भरी थी। यहाँ कोई विघ्‍न-बाधा और रोग-व्‍याधि नहीं थी। शशबिन्दु इस वसुधा का दीर्घकाल तक उपभोग करके अन्‍त में स्‍वर्गलोक को चले गये। 

    श्‍वैत्‍य सृंजय! वे चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्रों से तो बहुत अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों की तो बात ही क्‍या है? अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक पैंसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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