सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (Drona Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षट्पंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा सुहोत्र की दानशीलता”

   नारदजी कहते हैं ;– सृंजय! राजा सुहोत्र की भी मृत्‍यु सुनी गयी है। वे अपने समय के अद्वितीय वीर थे। देवता भी उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देख सकते थे। उन्‍होंने धर्म के अनुसार राज्‍य पाकर ऋत्विजों, ब्राह्मणों तथा पुरोहितों से अपने कल्‍याण का उपाय पूछा और पूछकर वे उनकी सम्‍मति के अनुसार चलते हरे। प्रजापालन, धर्म, दान, या और शत्रुओं पर विजय पाना – इन सबको राजा सुहोत्र ने अपने लिये श्रेयस्‍कर जानकर धर्म के द्वारा ही धन पाने की अभिलाषा की। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी को म्‍लेच्‍छों तथा तस्‍करों से रहित करके इसका उपभोग किया और धर्माचरण द्वारा देवताओं की आराधना तथा बाणों द्वारा शत्रुओं पर विजय करते हुए अपने गुणों से समस्‍त प्राणियों का मनोरंजन किया था, उनके लिये मेघ ने अनेक वर्षों तक सुवर्ण की वर्षा की थी। राजा सुहोत्र के राज्‍य में पहले स्‍वच्‍छन्‍द गति से बहने वाली स्‍वर्णरस से भरी हुई सरिताऍं सुवर्णमय, ग्राहों, केकडों, मत्‍स्‍यों तथा नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक जल-जन्‍तुओं को अपने भीतर बहाया करती थी।

     मेघ अभीष्‍ट वस्‍तुओं की तथा नाना प्रकार के रजत और असंख्‍य सुवर्ण की वर्षा करते थे। उनके राज्‍य में एक-एक कोस की लंबी-चौडी बावलियां थीं। उनमें सहस्‍त्रों नाटे-कुबडे ग्राह, मगर और कछुए रहते थे, जिनके शरीर सुवर्ण के बने हुए थे। उन्‍हें देखकर रजा को उन दिनों बडा विस्‍मय होता था। राजर्षि सुहोत्र ने कुरुजांगल देश में यज्ञ किया और उस विशाल यज्ञ में अपनी अनन्‍त सुवर्ण राशि ब्राह्मणों को बांट दी। उन्‍होंने एक हजार अश्‍वमेघ, सौ राजसूय तथा बहुत सी श्रेष्‍ठ दक्षिणा वाले अनेक पुण्‍यमय क्षत्रिय-यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था। राजा ने नित्‍य, नैमित्तिक तथा कास्‍य यज्ञों के निरन्‍तर अनुष्‍ठान से मनोवांछित गति प्राप्‍त कर ली। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे भी तुमसे धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य – इन चारों कल्‍याणकारी विषयों में बहुत बढे-चढे थे। तुम्‍हारे पुत्र से भी वे अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्‍हें अपने पुत्र के लिये अनुताप नहीं चाहिये, क्‍योंकि तुम्‍हारे पुत्र ने न तो कोई यज्ञ किया था और न उसमें दाक्षिण्‍य (उदारता का गुण) ही था। नारदजी ने राजा सृंजय से यही बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍यु वध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक छप्‍पन वां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय

(महाभारत (द्रोण पर्व) सप्‍तपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा पौरव के अद्भुत दान का वृत्‍तान्‍त”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! हमने वीर राजा पौरव की भी मृत्यु हुई सुनी है, जिन्‍होंने दस लाख श्वेत घोड़ों का दान किया था। उन राजर्षि के अश्वमेध यज्ञ में देश-देश से आये हुए शिक्षाशास्‍त्र, अक्षर और यज्ञ-विधि के ज्ञाता विद्वानों की गिनती नहीं थी। वेदविद्या के अध्‍ययन का व्रत पूर्ण करके स्‍नातक बने हुए उदार और प्रियदर्शन पण्डितजन राजा से उत्‍तम अन्‍न, वस्‍त्र, गृह, सुन्‍दर शय्या, आसन और भोजन पाते थे। नित्‍य उद्योगशील एवं खेल-कूद करने वाले नट, नर्तक और गन्‍धर्वगण कुक्‍कुट की-सी आकृति वाले आरती के प्‍यालों से अपनी कला दिखाकर उक्‍त विद्वानों का मनोरंजन एवं हर्षवर्द्धन करते रहते थे। 

    राजा पौरव प्रत्‍येक यज्ञ में यथासमय प्रचुर दक्षिणा बाँटते थे। उन्‍होंने स्‍वर्ण की-सी कान्ति वाले दस हजार मतवाले हाथी, ध्‍वजा और पताकाओं सहित सुवर्णमय बहुत-से रथ तथा एक लाख स्‍वर्णभूषित कन्‍याओं का दान किया था। वे कन्‍याएँ रथ, अश्व एवं हाथियों पर आरूढ़ थीं। उनके साथ ही उन्‍होंने सौ-सौ घर, क्षेत्र और गौएँ प्रदान की थीं। राजा ने सुवर्ण मालामण्डित विशालकाय एक करोड़ गाय-बैलों और उनके सहस्‍त्रों अनुचरों को दक्षिणारूप से दान किया था। 

   सोने के सींग, चांदी के खुर और कांसे के दुग्‍धपात्र वाली बहुत-सी बछड़े सहित गौएं तथा दास, दासी, गदहे, ऊँट एवं बकरी और भेड़ आदि भारी संख्‍या में दान किये। उस विशाल यज्ञ में नाना प्रकार के रत्‍नों तथा भाँति-भाँति के अन्‍नों के पर्वत-समान ढेर उन्‍होंने दक्षिणारूप में दिये। 

    उस यज्ञ के सम्‍बन्‍ध में प्राचीन बातों को जानने वाले लोग इस प्रकार गाथा गाते हैं। ‘यजमान अंगनरेश के सभी यज्ञ स्‍वधर्म के अनुसार प्राप्‍त और शुभ थे। वे उत्‍तरोत्‍तर गुणवान और सम्‍पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाले थे।' सृंजय! राजा पौरव धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य इन चारों बातों में तुमसे बढ़कर थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। श्‍वैत्‍य सृंजय! जब वे भी मर गये, तब तुम यज्ञ और दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍यु वध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक सत्‍तावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय

(राजा शिबिके यज्ञ और दान की महत्ता)

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) अष्‍टपंचासत्‍तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

   नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! जिन्‍होंने इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था, वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है। राजा शिबि ने पर्वत, द्वीप समुद्र और वनों सहित इस पृथ्‍वी को अपने रथ की घरघराहट से प्रतिध्‍वनित करते हुए प्रधान-प्रधान शत्रुओं को मारकर सदा ही अपने विपक्षियों पर विजय प्राप्‍त की थी। उन्‍होंने प्रचुर दक्षिणाओं से युक्‍त नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था। वे पराक्रमी और बुद्धिमान नरेश पर्याप्‍त धन पाकर युद्ध में सम्‍पूर्ण मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं की दृष्टि में सम्‍माननीय वीर हो गये थे। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी को जीतकर अनेक अश्‍वमेघ-यज्ञ किये थे। 

   उनके वे यज्ञ प्रचुर फल देने वाले थे और सदा निर्बाध रूप से चलते रहते थे। उन्‍होंने सहस्‍त्रकोटि स्‍वर्ण मुद्राओं का दान किया था। राजा शिबि ने हाथी, घोड़े, मृग, गौ, भेड़ और बकरी आदि पशुओं तथा धान्‍यों सहित नाना प्रकार के पवित्र भूखण्‍ड ब्राह्मणों के अधीन कर दिये थे। बरसते हुए मेघ से जितनी धाराएँ गिरती हैं, आकाश में जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, गंगा के किनारे जितने बालू के कण हैं, सुमेरु पर्वत में जितने स्‍थूल प्रस्‍तरखण्‍ड हैं तथा महासागर में जितने रत्‍न और प्राणी निवास करते हैं, उतनी गौएं उशीनरपुत्र शिबि ने यज्ञ में ब्राह्मणों को दी थीं। प्रजापति ने भी अपनी सृष्टि में भूत, भविष्‍य और वर्तमान काल के किसी भी दूसरे नरश्रेष्‍ठ राजा को ऐसा नहीं पाया, जो शिबि के कार्यभार को सँभाल सकता हो। 

    उन्‍होंने नाना प्रकार के बहुत-से यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियों की सम्‍पूर्ण कामनाएँ पूर्ण की जाती थीं। उन यज्ञों में यज्ञस्‍तम्‍भ, आसन, गृह, परकोटे और दरवाजे सुवर्ण के बने हुए थे। उन यज्ञों में खाने-पीने की वस्‍तुएँ पवित्र और स्‍वादिष्‍ट होती थीं। वहाँ दूध-दही के बड़े-बड़े सरोवर बने हुए थे। वहाँ हजारों और लाखों ब्राह्मण भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थ पाकर प्रसन्‍नता प्रकट करने वाली बातें कहते थे। उनकी यज्ञशालाओं में पीने योग्‍य पदार्थों की नदियाँ बहती थीं और शुद्ध अन्‍न के पर्वतों के समान ढेर लगे रहते थे। 

    वहाँ सब के लिये यह घोषणा की जाती थी कि 'सज्‍जनो! स्‍नान करो और जिसकी जैसी रुचि हो उसके अनुसार अन्‍न पान लेकर खूब खाओ-पीओ’। भगवान शिव ने राजा शिबि के पुण्‍यकर्म से प्रसन्‍न होकर उन्‍हें यह वर दिया था कि राजन! सदा दान करते रहने पर भी तुम्‍हारा धन क्षीण नहीं होगा, तुम्‍हारी श्रद्धा, कीर्ति और पुण्‍यकर्म भी अक्षय होंगे। तुम्‍हारे कहने के अनुसार ही सब प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अन्‍त में तुम्‍हें उत्‍तम स्‍वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। इन अभीष्‍ट वरों को पाकर राजा शिबि समय आने पर स्‍वर्ग लोक में गये। सृंजय! वे तुम्‍हारी अपेक्षा पूर्वोक्‍त चारों बातों में बहुत बढ़े-चढ़े थे। तुम्‍हारे पुत्र से भी पुण्‍यात्‍मा थे। श्वित्‍यनन्‍दन! जब वे शिबि भी मर गये, तब तुम्‍हें यज्ञ और दान से रहित अपने पुत्र के लिये इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत षोडराजकीयोपाख्‍यान विषयक अट्ठावनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान श्रीराम का चरित्र”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! दशरथनन्‍दन भगवान श्रीराम भी यहाँ से परमधाम को चले गये थे, यह मेरे सुनने में आया है। उनके राज्‍य में सारी प्रजा निरन्‍तर आनन्‍दमग्‍न रहती थी। जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्‍त प्रजा का स्‍नेहपूर्वक संरक्षण करते थे। वे अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी थे और उनमें असंख्‍य गुण विद्यमान थे। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीराम ने पिता की आज्ञा से चौदह वर्षों तक अपनी पत्नी सीता के साथ वन में निवास किया था। 

  नरश्रेष्‍ठ श्रीरामचन्‍द्र जी ने जनस्‍थान में तपस्‍वी मुनियों की रक्षा के लिये चौदह हजार राक्षसों का वध किया था। वहीं रहते समय लक्ष्‍मण सहित श्रीराम को मोह में डालकर रावण नामक राक्षस ने उनकी पत्‍नी विदेहनन्दिनी सीता को हर लिया। अपनी मनोरमा पत्‍नी के राक्षस द्वारा हर लिये जाने का समाचार जटायु के मुख से सुनकर श्रीरामचन्‍द्र जी आतुर एवं शोकसंतप्‍त हो वानरराज सुग्रीव के पास गये।

   सुग्रीव से मिलकर श्रीराम ने महाबली वानरों को साथ ले महासागर में पुल बांधकर समुद्र को पार किया। वहाँ पुलस्‍त्‍यवंशी राक्षसों को उनके सुहृदों और बन्‍धु-बान्‍धवों सहित मारकर श्रीराम ने अपने प्रधान अपराधी अत्‍यन्‍त घोर मायावी लोककंटक पुलस्‍त्‍यनन्‍दन रावण को, जो दूसरों के द्वारा कभी जीता नहीं गया था, कुपित होकर समरभूमि में मार डाला। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में भगवान शंकर ने अन्धकासुर को मारा था। जो देवताओं और असुरों के लिये भी अवध्‍य था, देवताओं और ब्राह्मणों के लिये कण्‍टकरूप उस पुलस्‍त्‍यवंशी रावण का रणक्षेत्र में महाबाहु श्रीरामचन्‍द्र जी ने उसके दलबल सहित संहार कर डाला। 

    इस प्रकार वहाँ युद्धस्‍थल में अपने वैरी रावण का वध करके वे धर्मपत्‍नी सीता से मिले। तत्‍पश्चात धर्मात्‍मा विभीषण को उन्‍होंने लंका का राजा बना दिया। तदनन्‍तर वीर श्रीरामचन्‍द्र जी अपनी पत्नी तथा वानरसेना के साथ शोभा वाली पुष्पक विमान के द्वारा अयोध्या में आये। राजन! अयोध्‍या में प्रवेश करके महायशस्‍वी श्रीराम वहाँ माताओं, मित्रों, मंत्रियों, ऋत्विजों तथा पुरोहितों की सेवा में सदैव संलग्‍न रहने लगे। फिर मंत्रियों ने उनका राज्‍याभिषेक कर दिया। इसके बाद वानरराज सुग्रीव, हनुमान और अंगद को विदा करके अपने वीर भ्राता भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण का आदर करते हुए विदेहनन्दिनी सीता द्वारा परम प्रेमपूर्वक सम्‍मानित हो श्रीरामचन्‍द्र जी ने चारों समुद्रों तक की सारी पृथ्‍वी का शासन किया और समस्‍त प्रजाओं पर अनुग्रह करके वे देवताओं द्वारा सम्‍मानित हुए।

     देवर्षिगणों से सेवित श्रीराम ने विधिपूर्वक राज्‍य पाकर अपनी कीर्ति से सम्‍पूर्ण जगत को व्‍याप्‍त कर दिया और समस्‍त प्राणियों पर अनुग्रह करते हुए वे धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। भगवान राम ने निर्बाधरूप से राजसूय और अश्‍वमेघ-यज्ञ का अनुष्‍ठान किया और देवराज इन्‍द्र को हविष्‍य से तृप्‍त करके उन्‍हें अत्‍यन्‍त आनन्‍द प्रदान किया। राजा राम ने नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे यज्ञ भी किये थे, जो अनेक गुणों से सम्‍पन्‍न थे। 

    श्रीरामचन्‍द्र जी ने भूख और प्‍यास को जीत लिया था। सम्‍पूर्ण देहधारियों के रोगों को नष्‍ट कर दिया था। वे उत्‍तम गुणों से सम्‍पन्‍न हो सदैव अपने तेज से प्रकाशित होते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

   दशरथनन्‍दन श्रीराम सम्‍पूर्ण प्राणियों से बढ़कर शोभा पाते थे। श्रीराम के राज्‍यशासन करते समय ऋषि, देवता और मनुष्‍य सभी एक साथ इस पृथ्‍वी पर निवास करते थे। उस समय उनके राज्‍य शासनकाल में प्राणियों के प्राण, अपान और समान आदि प्राणवायु का क्षय नहीं होता था; इस नियम में कोई हेर-फेर नहीं था। 

    सब ओर अग्निदेव प्रज्‍वलित होते रहते थे। उन दिनों किसी प्रकार का अनर्थ नहीं होता था। सारी प्रजा दीर्घायु होती थी। किसी युवक की मृत्यु नहीं हुआ करती थी। चारों वेदों के स्‍वाध्‍याय से प्रसन्‍न हुए देवता तथा पितृगण नाना प्रकार के हव्‍य और कव्‍य प्राप्‍त करते थे। सब ओर इष्‍ट और पूर्त का अनुष्‍ठान होता रहता था। 

   श्रीरामचन्‍द्र जी के राज्‍य में किसी भी देश में डाँस और मच्‍छरों का भय नहीं था। साँप और बिच्‍छू नष्‍ट हो गये थे। जल में पड़ने पर भी किसी प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी। चिता की अग्नि ने किसी भी मनुष्‍य को असमय में नहीं जलाया था। उन दिनों लोग अधर्म में रुचि रखने वाले, लोभी और मूर्ख नहीं होते थे। उस समय सभी वर्ण के लोग अपने लिये शास्‍त्रविहित यज्ञ-यागादि कर्मों का अनुष्‍ठान करते थे। जनस्‍थान में राक्षसों ने जो पितरों और देवताओं की पूजा अर्चा नष्‍ट कर दी थी, उसे भगवान श्रीराम ने राक्षसों को मारकर पुन: प्रचलित किया और पितरों को श्राद्ध का तथा देवताओं को यज्ञ का भाग दिया। 

     श्रीराम के राज्‍यकाल में एक-एक मनुष्‍य के हजार-हजार पुत्र होते थे और उनकी आयु भी एक-एक सहस्‍त्र वर्षों की होती थी। बड़ों को अपने छोटों का श्राद्ध नहीं करना पड़ता था। श्रीराम के राज्‍य में कहीं भी चोर, नाना प्रकार के रोग और भाँति-भाँति के उपद्रव नहीं थे। दुर्भिक्ष, व्‍याधि और अनावृष्टि का भय भी कहीं नहीं था। सारा जगत अत्‍यन्‍त सुख से सम्‍पन्‍न और प्रसन्‍न ही दिखायी देता था। इस प्रकार श्रीराम के राज्‍य करते समय सब लोग बहुत सुखी थे।

    भगवान श्रीराम की श्‍यामसुन्‍दर छबि, तरुण अवस्‍था और कुछ-कुछ अरुणाई लिये बड़ी-बड़ी आँखें थीं। उनकी चाल मतवाले हाथी-जैसी थी, भुजाएँ सुन्‍दर और घुटनों तक लंबी थीं। कंधे सिंह के समान थे। उनमें महान बल था। उनकी कान्ति समस्‍त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली थी। उन्‍होंने ग्‍यारह हजार वर्षों तक राज्‍य किया था। 

    श्रीरामचन्‍द्र जी के राज्‍य शासनकाल में समस्‍त प्रजाओं में ‘राम, राम, राम’ यही चर्चा होती थी। श्रीराम के कारण सारा जगत ही राममय हो रहा था। फिर समय अनुसार अपने और भाइयों के अंशभूत दो-दो पुत्रों द्वारा आठ प्रकार के राजवंश की स्‍थापना करके उन्‍होंने चारों वर्णों की प्रजा को अपने धाम में भेजकर स्‍वयं ही सदेह परम धाम को गमन किया। 

   श्‍वैत्‍य सृंजय! ये श्रीरामचन्‍द्र जी धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य चारों बातों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी यहाँ नहीं रह सके, तब दूसरों की तो बात ही क्‍या है? अत: तुम यज्ञ एवं दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक उनसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

द्रोण पर्व (अभिमन्युपर्व)

साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा भगीरथ का चरित्र”

    नारद जी कहते हैं ;– सृंजय! हमारे सुनने में आया है कि राजा भगीरथ भी मर गये, जिन्‍होंने अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिये इस भूतल पर गंगा जी को उतारा था। जिन महामना नरेश के बाहुबल से इन्‍द्र बहुत प्रसन्‍न थे, जिन्‍होंने प्रचुर एवं उत्‍तम दक्षिणा से युक्‍त हविष्‍य, मंत्र और अन्‍न से समपन्‍न सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्‍ठान किया और देवताओं का आनन्‍द बढ़ाया, जिनके महान यज्ञ में इन्‍द्र सोमरस पीकर मदोन्‍मत्‍त हो उठे थे तथा जिनके महान यज्ञ में रहकर लोकपूजित भगवान देवेन्‍द्र ने अपने बाहुबल से अनेक सहस्‍त्र असुरों को पराजित किया, उन्‍हीं राजा भगीरथ ने यज्ञ करते समय गंगा के दोनों किनारों पर सोने की ईंटों के घाट बनवाये। इतना ही नहीं, उन्‍होंने कितने ही राजाओं तथा राजपुत्रों को जीतकर उनके यहाँ से सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्‍याएँ लाकर उन्‍हें ब्राह्मणों को दान किया था। 

   वे सभी कन्‍याएँ रथों में बैठी थीं। उन सभी रथों में चार-चार घोड़े जुते थे। प्रत्‍येक रथ के पीछे सोने के हारों से अलंकृत सौ-सौ हाथी चलते थे। एक-एक हाथी के पीछे हजार-हजार घोड़े जा रहे थे और एक-एक घोड़े के साथ सौ-सौ गौएँ एवं गौओं के पीछे भेड़ और बकरियों के झुंड चलते थे। 

  राजा भगीरथ गंगा के तट पर भूयसी दक्षिणा देते हुए निवास करते थे। अत: उनके संकल्‍प कालिक जलप्रवाह से आक्रान्‍त होकर गंगादेवी मानो अत्‍यन्‍त व्‍यथित हो उठीं और समीपवर्ती राजा के अंक में आ बैठी। इस प्रकार भगीरथ की पुत्री होने से गंगा जी भागीरथी कहलायीं और उनके ऊरु पर बैठने के कारण उर्वशी नाम से प्रसिद्ध हुईं। राजा के पुत्री भाव को प्राप्‍त होकर उनका नरक से त्राण करने के कारण वे उस सयम पुत्री भाव को भी प्राप्‍त हुईं। 

    सूर्य के समान तेजस्वी और मधुरभाषी गन्‍धर्वों ने प्रसन्‍न होकर देवताओं, पितरों और मनुष्‍यों के सुनते हुए यह गाथा गायी थी। यज्ञ करते समय भूयसी दक्षिणा देने वाले इक्ष्‍वाकुवंशी ऐश्‍वर्यशाली राजा भगीरथ को समुद्रगामिनी गंगादेवी ने अपना पिता मान लिया था। 

   बइन्‍द्र आदि सम्‍पूर्ण देवताओं ने उनके यज्ञ को सुशोभित किया था। उसमें प्राप्‍त हुए हविष्‍य को भली-भाँति ग्रहण करके उसके विघ्‍नों को शान्‍त करते हुए उसे निर्बाध रूप से पूर्ण किया था। जिस-जिस ब्राह्मण ने जहाँ-जहाँ अपने मन को प्रिय लगने वाली जिस-जिस वस्‍तु को पाना चाहा, जितेन्द्रिय राजा ने वहीं-वहीं प्रसन्‍नतापूर्वक वह वस्‍तु उसे तत्‍काल समर्पित की। उनके पास जो भी प्रिय धन था, वह ब्राह्मण के लिये अदेय नहीं था। राजा भगीरथ ब्राह्मणों की कृपा से ब्रह्मलोक को प्राप्‍त हुए। शत्रुओं की दशा और आशा का हनन करने वाले सृंजय! राजा भगीरथ ने यज्ञों में प्रधान ज्ञानयज्ञ और ध्‍यानयज्ञ को ग्रहण किया था। इसलिये किरणों का पान करने वाले महर्षिगण भी उस ब्रह्मलोक में जितेन्द्रिय राजा भगीरथ के निकट जाकर उसी स्‍थान पर रहने की इच्‍छा करते थे। 

     श्‍वैत्‍य सृंजय! वे भगीरथ उपर्युक्‍त चारों बातों में तुमसे बहुत बढ़कर थे। तुम्‍हारे पुत्र की अपेक्षा उनका पुण्‍य ब‍हुत अधिक था। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरों की बात ही क्‍या है? अत: तुम यज्ञानुष्‍ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें