सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का विलाप”
संजय कहते हैं ;– राजन! महापराक्रमी रथयूथपति सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मारे जाने पर समस्त पाण्डव महारथी रथ और कवच का त्याग कर और धनुष को नीचे डालकर राजा युधिष्ठिर को चारों ओर-से घेरकर उनके पास बैठ गये। उन सबका मन सुभद्राकुमार अभिमन्यु में ही लगा था और वे उसी युद्ध का चिन्तन कर रहे थे। उस समय राजा युधिष्ठिर अपने भाई के वीर पुत्र महारथी अभिमन्यु के मारे जाने के कारण अत्यन्त दुखी हो विलाप करने लगे। 'अहो! कृपाचार्य, शल्य, राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य, महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा अन्य महारथियों को जीतकर, मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोणाचार्य के निर्बाध सैन्यव्यूह को विनष्ट करके वीर शत्रुसमूहों का संहार करने के पश्चात यह पुत्र अभिमन्यु मार गिराया गया और अब रणक्षेत्र में सो रहा है। जो अस्त्रविद्या के विद्वान, युद्धकुशल, कुल-शील और गुणों से युक्त, शूरवीर तथा अपने पराक्रम के लिये प्रसिद्ध थे, उन महाधनुर्धर महारथियों को परास्त करके देवताओं के लिये भी जिसका भेदन करना असम्भव है तथा हमने जिसे पहले कभी देखा तक नहीं था, उस द्रोणनिर्मित चक्रव्यूह का भेदन करके चक्रधारी श्रीकृष्ण का प्यारा भानजा वह अभिमन्यु के भीतर उसी प्रकार प्रवेश कर गया, जैसे सिंह गौओं के झुडं में घुस जाता है।'
'उसने रणक्षेत्र में प्रमुख-प्रमुख शत्रुवीरों का वध करते हुए अद्भुत रणक्रीड़ा की थी। युद्ध में उसके सामने जाने पर शत्रुपक्ष अस्त्रविद्याविशारद युद्धदुर्मद और महान धनुर्धर शूरवीर भी हतोत्साह हो भाग खड़े होते थे।' 'जिस वीर अर्जुनकुमार ने युद्धस्थल में हमारे अत्यन्त शत्रु दु:शासन को सामने आने पर शीघ्र ही अपने बाणों से अचेत करके भगा दिया, वही महासागर के समान दुस्तर द्रोणसेना को पार करके भी दु:शासनपुत्र के पास जाकर यमलोक में पहुँच गया।'
'सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मार दिये जाने पर अब मैं कुन्तीकुमार अर्जुन की ओर आँख उठाकर कैसे देखूँगा? अथवा अपने प्रियपुत्र को अब नहीं देख पाने वाली महाभागा सुभद्रा के सामने कैसे जाऊँगा?' 'हाय! हम लोग भगवान कृष्ण और अर्जुन दोनों के सामने किस प्रकार अनर्थपूर्ण असंगत ओर अनुचित वृत्तान्त कह सकेंगे।'
'मैंने ही अपने प्रिय कार्य की इच्छा, विजय की अभिलाषा रखकर सुभद्रा, श्रीकृष्ण ओर अर्जुन का यह अप्रिय कार्य किया है।' 'लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोष को नहीं समझता। वह लोभ और मोह के वशीभूत होकर उसमें प्रवृत्त हो जाता है। मैंने मधु के समान मधुर लगने वाले राज्य को पाने की लालसा रखकर यह नहीं देखा इसमें ऐसे भयंकर पतन का भय है।' 'हाय! जिस सुकुमार बालक को भोजन और शयन करने, सवारी पर चलने तथा भूषण, वस्त्र पहनने में आगे रखना चाहिये था, उसे हम लोगों ने युद्ध में आगे कर दिया।
'वह तरुण कुमार अभी बालक था। युद्ध की कला में पूरा प्रवीण नहीं हुआ था। फिर गहन वन में फँसे हुए सुन्दर अश्व की भाँति वह उस विषम संग्राम में कैसे सकुशल रह सकता था?' 'यदि हम लोग अभिमन्यु के साथ ही उस रणक्षेत्र में शयन न कर सके तो अब क्रोध से उत्तेजित हुए अर्जुन के शोकाकुल नेत्रों से हमें अवश्य दग्ध होना पड़ेगा।' 'जो लोभरहित, बुद्धिमान, लज्जाशील, क्षमावान, रूपवान, बलवान, सुन्दर शरीरधारी, दूसरों को मान देने वाले, प्रीतिपात्र, वीर तथा सत्यपराक्रमी हैं, जिनके कर्मों की देवता लोग भी प्रंशसा करते हैं, जिनके कर्म सबल एवं महान हैं, जिन पराक्रमी वीर ने निवात कवचों तथा कालकेय नामक दैत्यों का विनाश किया था, जिन्होंने आँखों की पलक मारते-मारते हिरण्यपुर निवासी इन्द्रशत्रु पौलोम नामक दानवों का उनके गणों सहित संहार कर डाला था तथा जो सामर्थ्यशाली अर्जुन अभय की इच्छा रखने वाले शत्रुओं को भी अभय-दान देते हैं, उन्हीं के बलवान पुत्र की भी हम लोग रक्षा नहीं कर सके।'
'अहो! महाबली धृतराष्ट्रपुत्रों पर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है; क्योंकि अपने पुत्र के वध से कुपित हुए कुन्तीकुमार अर्जुन कौरवों को सोख लेंगे– उनका मूलोच्छेद कर डालेंगे।' 'दुर्योधन नीच है। उसके सहायक भी ओछे स्वभाव के हैं, अत: वह निश्चय ही (अर्जुन के हाथों) अपने पक्ष का विनाश देखकर शोक से व्याकुल हो जीवन का परित्याग कर देगा।' 'जिसके बल और पुरुषार्थ की कहीं तुलना नहीं थी, देवेन्द्रकुमार अर्जुन के पुत्र इस अभिमन्यु को रणक्षेत्र में मारा गया देख अब मुझे विजय, राज्य, अमरत्व तथा देवलोक की प्राप्ति भी प्रसन्न नहीं कर सकती।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में युधिष्ठिर प्रलापविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“विलाप करते हुए युधिष्ठिर के पास व्यास जी का आगमन और अकम्पन-नारद-संवाद की प्रस्तावना करते हुए मृत्यु की उत्पति का प्रंसग आरम्भ करना”
संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार विलाप करते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के पास वहाँ महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास जी आये। उस समय युधिष्ठिर ने उनकी यथायोग्य पूजा की और जब वे बैठ गये, तब भतीजे के वध से शोक संतप्त हो युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले। 'मुने! बहुत-से अधर्मपरायण महाधनुर्धर महारथियों ने चारों ओर-से घेरकर रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए सुभद्राकुमार अभिमन्यु को असहायावस्था में मार डाला है।'
'शत्रुवीरों का संहार करने वाला अभिमन्यु अभी बालक था; बालोचित बुद्धि से युक्त था। विशेषत: संग्राम में वह उपयुक्त साधनों से रहित होकर युद्ध कर रहा था।' 'मैंने युद्धस्थल में उससे कहा था कि तुम व्यूह में हमारे प्रवेश के लिये द्वार बना दो। तब वह द्वार बनाकर भीतर प्रविष्ट हो गया और जब हम लोग उसी द्वार से व्यूह में प्रवेश करने लगे, उस समय सिंधुराज जयद्रथ ने हमें रोक दिया।' 'युद्धजीवी क्षत्रियों को अपने समान साधन सम्पन्न वीर के साथ युद्ध करने की इच्छा करनी चाहिये। शत्रुओं ने जो अभिमन्यु के साथ इस प्रकार युद्ध किया है, यह कदापि समान नहीं है।'
'इसलिये मैं अत्यन्त संतप्त हूँ, शंकाश्रुओं से मेरे नेत्र भरे हुए हैं। मैं बारंबार चिन्तामग्न होकर शान्ति नहीं पा रहा हूँ।'
संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार शोक से व्याकुल चित्त होकर विलाप करते हुए राजा युधिष्ठिर से भगवान वेदव्यास ने इस प्रकार कहा।
व्यास जी बोले ;– सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ, परम बुद्धिमान, भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! तुम्हारे जैसे पुरुष संकट के समय मोहित नहीं होते हैं। यह पुरुषोत्तम अभिमन्यु शूरवीर था। इसने रणक्षेत्र में अबालोचित पराक्रम करके बहुत-से शत्रुओं को मारकर स्वर्गलोक की यात्रा की है। भरतनन्दन युधिष्ठिर! यह विधाता का विधान है। इसका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। मृत्यु देवताओं, दानवों तथा गन्धर्वों के भी प्राण हर लेती है।
युधिष्ठिर बोले ;– मुने! ये महाबली भूपालगण सेना के मध्य में मारे जाकर 'मृत' नाम धारण करके पृथ्वी पर सो रहे हैं। इनमें से कितने ही राजा दस हजार हाथियों के समान बलवान थे तथा कितनों के वेग और बल वायु के समान थे। ये सब मनुष्य एक समान रूप वाले हैं, जो दूसरे मनुष्यों द्वारा युद्ध में मार डाले गये हैं। इन प्राणशक्तिसम्पन्न वीरों का युद्ध में कहीं कोई वध करने वाला मुझे नहीं दिखायी देता था; क्योंकि ये सब-के-सब पराक्रम से सम्पन्न और तपोबल से संयुक्त थे। जिनके हृदय में सदा एक-दूसरे को जीतने की अभिलाषा रहती थी, वे ही ये बुद्धिमान नरेश आयु समाप्त होने पर युद्ध में मारे जाकर धरती पर सो रहे हैं।
अत: इनके विषम में 'मृत' शब्द सार्थक हो रहा है। ये भयंकर पराक्रमी भूमिपाल प्राय: 'मर गये' कहे जाते हैं। ये शूरवीर राजकुमार चेष्टा और अभिमान से रहित हो शत्रुओं के अधीन हो गये थे। वे कुपित होकर बाणों की आग में कूद पड़े थे। मुझे संदेह होता है कि इन्हें 'मर गये' ऐसा क्यों कहा जाता है? मृत्यु किसकी होती है? किस निमित्त से होती है? तथा वह किसलिये इन प्रजाओं (प्राणियों) का अपहरण करती है? देवतुल्य पितामह! ये सब बातें आप मुझे बताइये।
संजय कहते हैं ;– राजन! इस प्रकार पूछते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से मुनिवर भगवान व्यास ने यह आश्वासनजनक वचन कहा।
व्यास जी बोले ;– नरेश्वर! जानकार लोग इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का दृष्टान्त दिया करते हैं। वह इतिहास पूर्वकाल में नारद जी ने राजा अकम्पन से कहा था। राजेन्द्र! राजा अकम्पन को भी अपने पुत्र की मृत्यु का बड़ा भारी शोक प्राप्त हुआ था, जो मेरे विचार में सबसे अधिक असह्य दु:ख है। इसलिये मैं तुम्हें मृत्यु की उत्पति का उत्तम वृतान्त बताऊँगा, उसे सुनकर तुम स्नेह बन्धन के कारण होने वाले दु:ख से छूट जाओगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोणपर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद)
वह उपाख्यान समस्त पापराशि का नाश करने वाला है। मैं इसका वर्णन करता हूँ, सुनो। यह धन और आयु को बढ़ाने वाला, शोकनाशक, पुष्टिवर्धक, पवित्र, शत्रु समूह का निवारक ओर मंगलकारी कार्यों में सबसे अधिक मंगलकारक है। जैसे वेदों का स्वाध्याय पुण्यदायक होता है, उसी प्रकार यह उपाख्यान भी है। महाराज! दीर्घायु पुत्र, राज्य और धन-सम्पति चाहने वाले श्रेष्ट राजाओं को प्रतिदिन प्रात:काल इस इतिहास का श्रवण करना चाहिये।
तात! प्राचीनकाल की बात है, सत्ययुग में अकम्पन नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे। वे युद्ध में शत्रुओं के वश में पड़ गये। राजा के एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बल में भगवान नारायण के समान था। वह अस्त्रविद्या में पारंगत, मेधावी, श्रीसम्पन्न तथा युद्ध में इन्द्र के तुल्य पराक्रमी था। वह रणक्षेत्र में शत्रुओं द्वारा घिर जाने पर शत्रुपक्ष के योद्धाओं और गजारोहियों पर बारंबार सहस्त्रों बाणों की वर्षा करने लगा। युधिष्ठिर! वह शत्रुओं को संताप देने वाला वीर राजकुमार संग्राम में दुष्कर पराक्रम दिखाकर अन्त में शत्रुओं के हाथ से वहाँ सेना के बीच में मारा गया। राजा अकम्पन को बड़ा शोक हुआ। वे पुत्र का अन्त्येष्टि संस्कार करके दिन-रात उसी के शोक में मग्न रहने लगे। उनकी अन्तरात्मा को (थोडा-सा भी) सुख नहीं मिला।
राजा अकम्पन को अपने पुत्र की मृत्यु से महान शोक हो रहा है, यह जानकर देवर्षि नारद उनके समीप आये। उस समय महाभाग राजा अकम्पन ने देवर्षि प्रवर नारद जी को आया देख उनकी यथायोग्य पूजा करके उनसे अपने पुत्र की मृत्यु का वृत्तान्त कहा।
राजा ने क्रमश: शत्रुओं की विजय और युद्धस्थल में अपने पुत्र के मारे जाने का सब समाचार उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया।
(वे बोले-) 'देवर्षि! मेरा पुत्र इन्द्र और विष्णु के समान तेजस्वी, महापराक्रमी और बलवान था; परंतु युद्ध में बहुत-से शत्रुओं ने मिलकर एक साथ पराक्रम करके उसे मार डाला है।
'भगवान! यह मृत्यु क्या है? इसका वीर्य, बल और पौरुष कैसा है? बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महर्षे! मैं यह सब यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ।' राजा की यह बात सुनकर वर देने में समर्थ एवं प्रभावशाली नारद जी ने यह पुत्र शोकनाशक उत्तम उपाख्यान कहना आरम्भ किया।
नारद जी बोले ;– पृथ्वीपते! तुम्हारे पुत्र की मृत्यु जिस प्रकार घटित हुई है, वह सब वृत्तान्त मैंने भी यथार्थरूप से सुन लिया है। महाबाहु नरेश! अब मैं तुम्हारे सामने एक बहुत विस्तृत कथा आरम्भ करता हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। आदि सृष्टि के समय महातेजस्वी एवं शक्तिशाली पितामह ब्रह्मा ने जब प्रजा वर्ग की सृष्टि की थी, उस समय संहार की कोई व्यवस्था नहीं की थी, अत: इस सम्पूर्ण जगत को प्राणियों से परिपूर्ण एवं मृत्युरहित देख प्राणियों के संहार के लिये चिन्तित हो उठे। राजन! पृथ्वीपते! बहुत सोचने-विचारने पर भी ब्रह्मा जी के प्राणियों के संहार का कोई उपाय नहीं ज्ञात हो सका।
महाराज! उस समय क्रोधवश ब्रह्मा जी के श्रवण-नेत्र आदि इन्द्रियों से अग्नि प्रकट हो गयी। वह अग्नि इस जगत को दग्ध करने की इच्छा से सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं (कोणों) में फैल गयी।
तदनन्तर आकाश और पृथ्वी में सब ओर आग की प्रचण्ड लपटें व्याप्त हो गयीं। दाह करने में समर्थ एवं अत्यन्त शक्तिशाली भगवान अग्निदेव महान क्रोध के वेग से सबको त्रस्त करते हुए सम्पूर्ण चराचर जगत को दग्ध करने लगे। इससे बहुत-से स्थावर जंगल प्राणी नष्ट हो गये। तत्पश्चात राक्षसों के स्वामी जटाधारी दु:खहारी स्थाणु नामधारी भगवान रुद्र परमेष्ठी भगवान ब्रह्मा जी की शरण में गये।
प्रजा वर्ग के हित की इच्छा से भगवान रुद्र के आने पर परमदेव महामुनि ब्रह्मा जी अपने तेज से प्रज्वलित होते हुए-से इस प्रकार बोले। 'अपने अभीष्ट मनोरथ को प्राप्त करने योग्य पुत्र! तुम मेरे मानसिक संकल्प से उत्पन्न हुए हो। मैं तुम्हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ? स्थाणो! तुम जो कुछ चाहते हो, बतलाओ। मैं तुम्हारा सम्पूर्ण प्रिय कार्य करूँगा।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“शंकर और ब्रह्मा का संवाद, मृत्यु की उत्पत्ति तथा उसे समस्त प्रजा के संहार का कार्य सौंपा जाना”
स्थाणु (रुद्रदेव) ने कहा ;– प्रभो! आपने प्रजा की सृष्टि के लिये स्वयं ही यत्न किया है। आपने ही नाना प्रकार के प्राणि समुदाय की सृष्टि एवं वृद्धि की है। आपकी वे ही सारी प्रजाएँ पुन: आपके ही क्रोध से यहाँ दग्ध हो रही हैं। इससे उनके प्रति मेरे हृदय में करुणा भर आयी है। अत: भगवन! प्रभो! आप उन प्रजाओं पर कृपादृष्टि करके प्रसन्न होइये।
ब्रह्मा जी बोले ;– रुद्र! मेरी इच्छा यह नहीं है कि इस प्रकार इस जगत का संहार हो। वसुधा के हित के लिये ही मेरे मन में क्रोध का आवेश हुआ था। महादेव! इस पृथ्वीदेवी ने भार से पीड़ित होकर मुझे जगत के संहार के लिये प्रेरित किया था। यह सती-साध्वी देवी महान भार से दबी हुई थी। मैंने अनेक प्रकार से इस अनन्त जगत के संहार के उपाय पर विचार किया, पंरतु मुझे कोई उपाय सूझ न पड़ा। इसलिये मुझमें क्रोध का आवेश हो गया।
रुद्र ने कहा ;– वसुधा के स्वामी पितामह! आप रोष न कीजिये। जगता का संहार बंद करने के लिये प्रसन्न होइये। इन स्थावर जंगम प्राणियों का विनाश न कीजिये। भगवन! आपकी कृपा से यह जगत भूत, भविष्य और वर्तमान– तीन रूपों में विभक्त हो जाय। प्रभो! आपने क्रोध से प्रज्वलित होकर क्रोधपूर्वक जिस अग्नि की सृष्टि की है, वह पर्वत-शिखरों, वृक्षों और सरिताओं को दग्ध कर रही है।
यह समस्त छोटे-छोटे जलाशयों, सब प्रकार के तृण और लताओं तथा स्थावर और जंगम जगत को सम्पूर्णरूप से नष्ट कर रही है। इस प्रकार यह सारा चराचर जगत जलकर भस्म हो गया। भगवन! आप प्रसन्न होइये। आपके मन में रोष न हो, यही मेरे लिये आपकी ओर से वर प्राप्त हो। देव! आपके रचे हुए समस्त प्राणी किसी-न-किसी रूप में नष्ट होते चले जा रहे हैं; अत: आपका यह तेजस्वरूप क्रोध जगत के संहार से निवृत हो आप में विलीन हो जाय।
प्रभो! आप प्रजावर्ग के अत्यन्त हित की इच्छा से इनकी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखिये, जिससे ये समस्त प्राणी नष्ट होने से बच जायँ, वैसा कीजिये। संतानों का नाश हो जाने से इस जगत के सम्पूर्ण प्राणियों का अभाव न हो जाय। आदि देव! आपने सम्पूर्ण लोकों में मुझे लोकस्रष्टा के पद पर नियुक्त किया है। जगन्नाथ! यह चराचर जगत नष्ट न हो, इसलिये सदा कृपा करने को उद्यत रहने वाले प्रभु के सामने मैं ऐसी प्रार्थना कर रहा हूँ। (14)
नारद जी कहते हैं ;– राजन! प्रजा के हित के लिये महादेव का यह वचन सुनकर भगवान ब्रह्मा ने पुन: अपनी अन्तरात्मा में ही उस तेज (क्रोध) को धारण कर लिया। तब विश्ववन्दित भगवान ब्रह्मा ने उस अग्नि का उपसंहार करके मनुष्यों के लिय प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (ज्ञान) मार्गों का उपदेश दिया। उस क्रोधाग्नि का उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्मा जी की सम्पूर्ण इन्द्रियों से एक नारी प्रकट हुई, जो काले और लाल रंग की थी। उसकी जिह्वा, मुख और नेत्र पीले और लाल रंग के थे। राजेन्द्र! वह तपाये हुए सोने के कुण्डलों से सुशोभित थी और उसके सभी आभूषण तप्त सुवर्ण के बने हुए थे। वह उनकी इन्द्रियों से निकलकर दक्षिण दिशा में खड़ी हुई और उन दोनों देवताओं एवं जगदीश्वरों की ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कराने लगी।
महीपाल! उस समय सम्पूर्ण लोकों के आदि और अन्त के स्वामी ब्रह्मा जी ने उस नारी को अपने पास बुलाकर उसे बारंबार सान्त्वना देते हुए मधुर वाणी में 'मृत्यो' (हे मृत्यु) कह करके पुकारा और कहा– 'तू इन समस्त प्रजाओं का संहार कर।' 'देवी! तू संहारबुद्धि से मेरे रोष द्वारा प्रकट हुई है, इसलिये मूर्ख और पण्डित सभी प्रजाओं का संहार करती रह, मेरी आज्ञा से तुझे यह कार्य करना होगा। इससे तू कल्याण प्राप्त करेगी।' ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर मृत्यु नाम वाली कमललोचना अबला अत्यन्त चिन्तामग्न हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी।
पितामह ब्रह्मा ने उसके उन आँसुओं को समस्त प्राणियों के हित के लिये अपने दोनों हाथों में ले लिया और उस नारी को भी अनुनय से प्रसन्न किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में मृत्युवर्ण विषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुःपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“मृत्यु की घोर तपस्या, ब्रह्मा जी के द्वारा उसे वर की प्राप्ति तथा नारद-अकम्पन संवाद का उपसंहार”
नारद जी कहते हैं ;– राजन! तदनन्तर वह अबला अपने भीतर ही उस दु:ख को दबाकर झुकायी हुई लता के समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी से बोली।
मृत्यु ने कहा ;– वक्ताओं में श्रेष्ठ प्रजापते! आपने मुझे ऐसी नारी के रूप में क्यों उत्पन्न किया? मैं जान बूझकर वही क्रूरतापूर्ण अहितकर कर्म कैसे करूँ?
भगवन! मैं पाप से डरती हूँ। प्रभो! मुझ पर प्रसन्न होइये। जब मैं लोगों के प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं, पिताओं तथा पतियों को मारने लगूँगी, देव! उस समय उनके सम्बन्धी इन लोगों के मेरे द्वारा मारे जाने पर सदा मेरा अनिष्ट चिन्तन करेंगे। अत: मैं इन सबसे बहुत डरती हूँ। भगवन! रोते हुए दीन-दुखी प्राणियों के नेत्रों से जो आँसुओं की बूँदें गिरती हैं, उनसे भयभीत होकर मैं आपकी शरण में आयी हूँ।
देव! सुरश्रेष्ठ! लोकपितामह! मैं शरीर और मस्तक को झुकाकर, हाथ जोड़कर विनीतभाव से आपकी शरणागत होकर केवल इसी अभिलाषा की पूर्ति चाहती हूँ कि मुझे यमराज के भवन में न जाना पड़े। प्रजेश्वर! मैं आपकी कृपा से तपस्या करना चाहती हूँ। देव! भगवन! प्रभो! आप मुझे यही वर प्रदान करें। आपकी आज्ञा लेकर मैं उत्तम धेनुकाश्रम को चली जाऊँगी और वहाँ आपकी ही आराधना में तत्पर रहकर कठोर तपस्या करूँगी।
देवेश्वर! मैं रोते बिलखते प्राणियों के प्यारे प्राणों का अपहरण नहीं कर सकूँगी, आप इस अधर्म से मुझे बचावें।
ब्रह्मा जी ने कहा ;– मृत्यो! प्रजा के संहार के लिये ही मेरे द्वारा संकल्पपूर्वक तेरी सृष्टि की गयी है। जा, तू सारी प्रजा का संहार कर। तेरे मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। यह बात इसी प्रकार होने वाली है। इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। तू लोक में निन्दित न हो, मेरी आज्ञा का पालन कर।
नारद जी कहते हैं ;– राजन! भगवान ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर उन्हीं की ओर मुंह करके हाथ जोड़े खड़ी हुई वह नारी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई; परंतु उसने प्रजा के हित की कामना से संहार कार्य में मन नहीं लगाया। तब प्रजेश्वरों के भी स्वामी भगवान ब्रह्मा चुप हो गये। फिर वे भगवान प्रजापति तुरंत अपने आप ही प्रसन्नता को प्राप्त हुए। देवेश्वर ब्रह्मा सम्पूर्ण लोकों की ओर देखकर मुसकराये। उन्होंने क्रोध शून्य होकर देखा, इसलिये वे सभी लोक पहले के समान हरे-भरे हो गये। उन अपराजित भगवान ब्रह्मा का रोष निवृत हो जाने पर वह कन्या भी उन परम बुद्धिमान देवेश्वर के निकट से अन्यत्र चली गयी।
राजेन्द्र! उस समय प्रजा का संहार करने के विषय में कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँ से हट गयी और बड़ी उतावली के साथ धेनुकाश्रम में जा पहुँची। उसने वहाँ अत्यन्त कठोर और उत्तम व्रत का पालन आरम्भ किया। उस समय वह दयावश प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से अपनी इन्द्रियों को प्रिय विषयों से हटाकर इक्कीस पद्म वर्षों तक एक पैर पर खड़ी रही। नरेश्वर! तदनन्तर पुन: अन्य इक्कीस पद्म वर्षों तक एक पैर से खड़ी होकर तपस्या करती रही।
तात! इसके बाद दस हजार वर्षों तक वह मृगों के साथ विचरती रही, फिर शीतल एवं निर्मल जल वाली पुण्यमयी नन्दा नदी में जाकर उसके जल में उसने आठ हजार वर्ष व्यतीत किये। इस प्रकार नन्दा नदी में नियमों के पालनपूर्वक रहकर व निष्पाप हो गयी। तदनन्तर व्रत नियमों से सम्पन्न हो मृत्यु पहले पुण्यमयी कौशिकी नदी के तट पर गयी और वहाँ वायु तथा जल का आहार करती हुई पुन: कठोर नियमों का पालन करने लगी। उस पवित्र कन्या ने पंचगंगा में तथा वेतस वन में बहुत-सी भिन्न-भिन्न तपस्याओं के द्वारा अपने शरीर को अत्यन्त दुर्बल कर दिया। इसके बाद वह गंगा जी के तट और प्रमुख तीर्थ महामेरू के शिखर पर जाकर प्राणायाम में तत्पर हो प्रस्तर मूर्ति की भाँति निश्चेष्ट भाव से बैठी रही।
फिर हिमालय के शिखर पर जहाँ पहले देवताओं ने यश किया था, वहाँ वह परम शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षों तक अँगूठे के बल पर खड़ी रही।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुःपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 26-42 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर पुष्कर, गोकर्ण, नैमिषारण्य तथा मलयाचल के तीर्थों में रहकर मन को प्रिय लगने वाले नियमों द्वारा उसने अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर दिया। दूसरे किसी देवता में मन न लगाकर वह सदा पितामह ब्रह्मा में ही सुदृढ़ भक्तिभाव रखती थी। उस कन्या ने अपने धर्माचरण से पितामह को संतुष्ट कर लिया।
राजन! तब लोकों को उत्पत्ति के कारणभूत अविनाशी ब्रह्मा उस समय मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो सौम्य हृदय से प्रीतिपूर्वक उससे बोले। 'मृत्यो! तू किसलिये इस प्रकार अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही है?' तब मृत्यु ने भगवान पितामह से फिर इस प्रकार कहा। 'देव! प्रभों! सर्वेश्वर! मैं आपसे यही वर पाना चाहती हूँ कि मुझे रोती-चिल्लाती हुई स्वस्थ प्रजाओं का वध न करना पड़े।'
'महाभाग! मैं अधर्म के भय से बहुत डरती हूँ, इसीलिये तपस्या में लगी हुई हूँ। अविनाशी परमेश्वर! मुझ भयभीत अबला को अभय-दान दीजिये।' 'नाथ! में एक निरपराध नारी हूँ और आपके सामने आर्तभाव से याचना करती हूँ, आप मेरे आश्रयदाता हों।' तब भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता भगवान ब्रह्मा ने उससे कहा। 'मृत्यो! इन प्रजाओं का संहार करने से तुझे अधर्म नहीं होगा। भद्रे! मेरी कही हुई बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती।'
'इसलिये कल्याणि! तू चार श्रेणियों मे विभाजित समस्त प्राणियों का संहार कर। सनातन धर्म तुझे सब प्रकार से पवित्र बनाये रखेगा।' लोकपाल, यम तथा नाना प्रकार की व्याधियाँ तेरी सहायता करेंगी। मैं और सम्पूर्ण देवता तुझे पुन: वरदान देंगे, जिससे तू पापमुक्त हो अपने निर्मल स्वरूप से विख्यात होगी।' महाराज! उनके ऐसा कहने पर मृत्यु हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करके उस समय पुन: यह वचन बोली।
'प्रभो! यदि इस प्रकार यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा मैंने शिरोधार्य कर ली है, परंतु इसके विषय में मैं आपसे जो कुछ कहती हूँ, उसे (ध्यान देकर) सुनिये। 'लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्या, द्रोह, मोह, निर्लज्जता और एक-दूसरे के प्रति कही हुई कठोर वाणी– ये विभिन्न दोष ही देहधारियों की देह का भेदन करें।'
ब्रह्मा जी ने कहा ;– मृत्यो! ऐसा ही होगा। तू उत्तम रीति से प्राणियों का संहार कर। शुभे! इससे तुझे पाप नहीं लगेगा और मैं भी तेरा अनिष्ट-चिन्तन नहीं करूँगा। तेरे आँसुओं की बूँदे, जिन्हें मैंने हाथ में ले लिया था, प्राणियों के अपने ही शरीर से उत्पन्न हुई व्याधियाँ बनकर गतायु प्राणियों का नाश करेंगी। तुझे अधर्म की प्राप्ति नहीं होगी; इसलिये तू भय न कर। निश्चय ही, तूझे पाप नहीं लगेगा। तू प्राणियों का धर्म और उस धर्म की स्वामिनी होगी। अत: सदा धर्म में तत्पर रहने वाली और धर्मानुकूल जीवन बिताने वाली धारित्री होकर इन समस्त जीवों के प्राणों का नियन्त्रण कर।
काम और क्रोध का परित्याग करके इस जगत के समस्त प्राणियों का संहार कर। ऐसा करने से तुझे अक्षय धर्म की प्राप्ति होगी। मिथ्याचारी पुरुषों को तो उनका अधर्म ही मार डालेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) चतुःपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 43-58 का हिन्दी अनुवाद)
तू धर्माचरण द्वारा स्वयं ही अपने आपको पवित्र कर। असत्य का आश्रय लेने से प्राणी स्वयं अपने आपको पाप पंक में डूबों लेंगे। इसलिये अपने मन में आये हुए काम और क्रोध का त्याग करके तू समस्त जीवों का संहार कर।
नारद जी कहते हैं ;– राजन! वह मृत्यु नाम वाली नारी ब्रह्मा जी के उस उपदेश से और विशेषत: उनके शाप के भय से भीत होकर उनसे बोली,
मृत्यु बोली ;– 'बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है।' वही मृत्यु अन्तकाल आने पर काम और क्रोध का परित्याग करके अनासक्त भाव से समस्त प्राणियों के प्राणों का अपहरण करती है। यही प्राणियों की मृत्यु है, इसी से व्याधियों की उत्पति हुई है। व्याधि नाम है रोग का, जिससे प्राणी रूग्ण होता है। आयु समाप्त होने पर सभी प्राणियों की मृत्यु इस प्रकार होती है। अत: राजन! तुम व्यर्थ शोक न करो।
आयु के अन्त में सारी इन्द्रियाँ प्राणियों के साथ परलोक में जाकर स्थित होती हैं और पुन: उनके साथ ही इस लोक में लौट आती हैं। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार सभी प्राणी देवलोक में जाकर वहाँ देवस्वरूप में स्थित होते हैं तथा वे कर्मदेवता मनुष्यों की भाँति भागों की समाप्ति होने पर पुन: इस लोक में लौट आते हैं। भयंकर शब्द करने वाला महान बलशाली भयानक प्राणवायु प्राणियों के शरीरों का ही भेदन करता है चेतन आत्मा का नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापी, उग्र प्रभावशाली और अनन्त तेज से सम्पन्न है। उसका कभी आवागमन नहीं होता। राजसिंह! सम्पूर्ण देवता भी मर्त्य (मरणधर्मा) नाम से विभूषित हैं, इसलिये तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोक में जा पहुँचा है और नित्य रमणीय वीर-लोकों में रहकर आनन्द का अनुभव करता है।
वह दु:ख का परित्याग करके पुण्यात्मा पुरुषों से जा मिला है। प्राणियों के लिये यह मृत्यु भगवान की ही दी हुई है; जो समय आने पर यथोचित रूप से (प्रजाजनों का) संहार करती है। प्रजावर्ग के प्राण लेने वाली इस मृत्यु को स्वयं ब्रह्मा जी ने ही रचा है। सब प्राणी स्वयं ही अपने आपको मरते हैं। मृत्यु हाथ में डंडा लेकर इनका वध नहीं करती है। अत: धीर पुरुष मृत्यु को ब्रह्माजी का रचा हुआ निश्चित विधान न समझकर मरे हुए प्राणियों के लिये कभी शोक नहीं करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी की बनायी हुई सारी सृष्टि को ही मृत्यु के वशीभूत जानकर तुम अपने पुत्र के मर जाने से प्राप्त होने वाले शोक का शीघ्र परित्याग कर दो।
व्यास जी कहते हैं ;– युधिष्ठिर! नारद जी की कही हुई यह अर्थ भरी बात सुनकर राजा अकम्पन अपने मित्र नारद से इस प्रकार बोले।
राजा अकम्पम बोले ;- 'भगवन! मुनिश्रेष्ठ! आपके मुँह से यह इतिहास सुनकर मेरा शोक पूरा हो गया। मैं प्रसन्न और कृतार्थ हो गया हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।' राजा अकम्पन के इस प्रकार कहने पर ऋषियों में श्रेष्ठतम अमितात्मा देवर्षि नारद शीघ्र ही नन्दन वन को चले गये।
जो इस इतिहास को सदा सुनता और सुनाता है, उसके लिये यह पुण्य, यश, स्वर्ग, धन तथा आयु प्रदान करने वाला है। युधिष्ठिर! उस समय महारथी महापराक्रमी राजा अकम्पन इस उत्तम अर्थ को प्रकाशित करने वाले वृत्तान्त को सुनकर तथा क्षत्रिय धर्म एवं शूरवीरों की परम गति के विषय में जानकर यथा समय स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। महाधनुर्धर अभिमन्यु पूर्व जन्म में चन्द्रमा का पुत्र था, वह महारथी और समरांगण में समस्त धनुर्धरों के सामने शत्रुओं का वध करके खड्ग, शक्ति, गदा और धनुष द्वारा सम्मुख युद्ध करता हुआ मारा गया है तथा दु:खरहित हो पुन: चन्द्रलोक में ही चला गया है।
अत: पाण्डुनन्दन! तुम भाइयों सहित उत्तम धैर्य धारण करके प्रसाद छोड़कर भली-भाँति कवच आदि से सुसज्जित हो पुन: शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में मृत्यु प्रजापति संवाद विषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
द्रोण पर्व (द्रोणाभिषेक पर्व)
पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“षोडशराज की योपाख्यान का आंरभ, नारद जी की कृपा से राजा सृंजय को पुत्र की प्राप्ति, दस्युओं द्वारा उसका वध तथा पुत्र शोक संतप्त सृंजय को नारद जी का मरुत्त का चरित्र सुनाना”
संजय कहते हैं ;– राजन! मृत्यु की उत्पति और उसके अनुपम कर्म सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पुन: व्यास जी को प्रसन्न करके उनसे यह बात कही।
युधिष्ठिर बोले ;– ब्रह्मन! इन्द्र के समान पराक्रमी, श्रेष्ठ, पुण्यकर्मा, निष्पाप तथा सत्यवादी राजर्षिगण अपने योग्य उत्तम स्थान (लोक) में निवास करते हैं। अत: आप पुन: उन प्राचीन राजर्षियों के सत्कर्मों का बोध कराने वाले अपने यथार्थ वचनों द्वारा मेरा सौभाग्य बढ़ाइये और मुझे आश्वासन दीजिये। पूर्वकाल के किन-किन महामनस्वी पुण्यात्मा राजर्षियों ने यज्ञों में कितनी-कितनी दक्षिणाएँ दी थीं। यह सब आप मुझे बताइये।
व्यास जी ने कहा ;– राजन! राजा शैव्य के सृंजय नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था। उसके पर्वत और नारद– ये दो ऋषि मित्र थे। एक दिन वे दोनों महर्षि सृंजय से मिलने के लिय उसके घर पधारे। उसने विधिपूर्वक उनकी पूजा की और वे दोनों वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे।
एक समय दोनों ऋषियों के साथ राजा सृंजय सुखपूर्वक बैठे थे। उसी समय पवित्र मुस्कान वाली परम सुन्दरी सृंजय की कुमारी पुत्री वहाँ आयी। आकर उसने राजा को प्रणाम किया। राजा ने उसके अनुरूप अभीष्ट आशीर्वाद देकर अपने पार्श्व भाग में खड़ी हुई उस कन्या का विधिपूर्वक अभिनन्दन किया। तब महर्षि पर्वत ने उस कन्या की ओर देखकर हँसते हुए-से कहा,
महर्षि बोले ;– 'राजन! यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्मानित चंचल कटाक्ष वाली कन्या किसकी पुत्री है?' 'अहो! यह सूर्य की प्रभा है या अग्नि देव की शिखा है अथवा श्री, ह्री, कीर्ति, धृति, पुष्टि, सिद्धि या चन्द्रमा की प्रभा है।'
इस प्रकार पूछते हुए देवर्षि पर्वत से राजा सृंजय ने कहा,
राजा संजय ने कहा ;– 'भगवन! यह मेरी कन्या है, जो मुझसे वर प्राप्त करना चाहती है।' इसी समय नारद जी राजा से बोले,
नारद जी ने कहा ;– 'नरेश्वर! यदि तुम परम कल्याण प्राप्त करना चाहते हो तो अपनी इस कन्या को धर्मपत्नी बनाने के लिये मुझे दे दो।'
तब सृंजय ने अत्यन्त प्रसन्न होकर नारद जी से कहा,
संजय ने कहा ;– 'दे दूँगा'। यह सुनकर पर्वत अत्यन्त कुपित हो नारद जी से बोले।
पर्वत बोले ;- 'ब्रह्मन! मैंने मन-ही-मन पहले ही जिसका वरण कर लिया था, उसी का तुमने वरण किया है। अत: तुमने मेरी मनोनीत पत्नी को वर लिया है, इसलिये अब तुम इच्छानुसार स्वर्ग में नहीं जा सकते।' उनके ऐसा कहने पर नारद जी ने उन्हें यह उत्तर दिया- 'मन से संकल्प करके, वाणी द्वारा प्रतिज्ञा करके, बुद्धि के द्वारा पूर्ण निश्चय के साथ, परस्पर सम्भाषणपूर्वक तथा संकल्प का जल हाथ में लेकर जो कन्यादान किया जाता है, वर के द्वारा जो कन्या का पाणिग्रहण होता है और वैदिक मन्त्र के पाठ किये जाते हैं, परंतु इतने से ही पाणिग्रहण की पूर्णता का निश्चय नहीं होता है। उसकी पूर्ण निष्ठा तो सप्तपदी ही मानी गयी है।' 'अत: इस कन्या के ऊपर पति रूप से तुम्हारा अधिकार नहीं हुआ है– ऐसी अवस्था में भी तुमने मुझे शाप दे दिया है, इसलिये तुम भी मेरे बिना स्वर्ग नहीं जा सकोगे।'
इस प्रकार एक-सरे को शाप देकर वे दोनों उस समय वहीं ठहर गये। इधर राजा सृंजय ने पुत्र की इच्छा से पवित्र हो पूरी शक्ति लगाकर बड़े यत्न से भोजन, पीने योग्य पदार्थ तथा वस्त्र आदि देकर ब्राह्मणों की अराधना की।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
एक दिन राजा पर प्रसन्न होकर उन्हें पुत्र देने की इच्छा वाले सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न रहने वाले तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, एक साथ नारद जी से बोले,
ब्राह्मण बोले ;– 'देवर्षे! आप इन राजा सृंजय को अभीष्ट पुत्र प्रदान कीजिये।' ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर नारद जी ने 'तथास्तु' कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। फिर वे सृंजय से इस प्रकार बोले– 'राजर्षे! ये ब्राह्मण लोग प्रसन्न होकर तुम्हारे लिये अभीष्ट पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं।
'तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जैसा पुत्र अभीष्ट हो, उसके लिये वर मांगो।' नारद जी के ऐसा कहने पर राजा ने हाथ जोड़कर उनसे एक सद्गुणसम्पन्न, यशस्वी, कीर्तिमान, तेजस्वी तथा शत्रुदमन पुत्र मांगा। वह बोला– 'मुने! मै ऐसे पुत्र की याचना करता हूँ, जिसका मल, मूत्र, थूक और पसीना सब कुछ आपके कृपाप्रसाद से सुवर्णमय हो जाय।'
'व्यास जी कहते हैं ;– राजन! तब मुनि ने कहा,
मुनि ने कहा ;– ऐसा ही होगा।' उनके ऐसा कहने पर राजा को मनोवांच्छित पुत्र प्राप्त हुआ। मुनि के प्रसाद से वह शोभाशाली पुत्र सुवर्ण की खान निकला। राजा वैसा ही पुत्र चाहते थे। रोते समय उसके नेत्रों से सुवर्णमय आँसू गिरता था। इसीलिये उस पुत्र का नाम सुवर्णष्ठीवी प्रसिद्ध हो गया। वरदान के प्रभाव से वह अनन्त धनराशि की वृद्धि करने लगा। राजा ने घर, परकोटे, दुर्ग एवं ब्राह्मणों के निवास स्थान सारी अभीष्ट वस्तुएँ सोने का बनवा लीं। शय्या, आसन, सवारी, बटलाई, थाली,अन्य बर्तन, उस राजा का महल तथा ब्राह्य उपकरण- ये सब कुछ सुवर्णमय बन गये थे, जो समय के अनुसार बढ़ रहे थे।
तदनन्तर लुटेरों ने राजा के वैभव की बात सुनकर तथा उन्हें वैसा ही सम्पन्न देखकर संगठित हो उनके यहाँ लूटपाट आरम्भ कर दी।
उन डाकुओं में से कोई-कोई इस प्रकार बोले– 'हम सब लोग स्वयं इस राजा के पुत्र को अधिकार में कर लें; क्योंकि वही इस सुवर्ण की खान है। अत: हम उसी को पकड़ने का यत्न करें।' तब उन लोभी लुटेरों ने राजमहल में प्रवेश करके राजकुमार सुवर्णष्ठीवी को बलपूर्वक हर लिया। योग्य उपाय को न जानने वाले उन विवेकशून्य डाकुओं ने उसे वन में ले जाकर मार डाला और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके देखा, परंतु उन्हें थोड़ा-सा भी धन नहीं दिखायी दिया। उसके प्राणशून्य होते ही वह वरदायक वैभव नष्ट हो गया। उस समय वे विचारशून्य मूर्ख एवं दुराचारी दस्यु भूमण्डल के उस अद्भुत और असम्भव कुमार का वध करके परस्पर एक-दूसरे को मारने लगे। इस प्रकार मार-पीट करके वे भी नष्ट हो गये और भयंकर नरक में पड़ गये।
मुनि के वर से प्राप्त हुए उस पुत्र को मारा गया देख वे महातपस्वी नरेश अत्यन्त दु:ख से आतुर हो नाना प्रकार से करुणाजनक विलाप करने लगे। पुत्र शोक से पीड़ित हुए राजा सृंजय विलाप कर रहे हैं– यह सुनकर देवर्षि नारद उनके समीप दिखाये दिये। युधिष्ठिर! दु:ख से पीड़ित हो अचेत होकर विलाप करते हुए राजा सृंजय के निकट आकर नारद जी ने जो कुछ कहा था, वह सुनो।
नारद जी बोले ;– महाराज! शोक का त्याग करो। बुद्धिमान नरेश! व्याकुलता छोड़ों! जनेश्वर! कोई कितना ही शोक क्यों न करे या दु:ख से मूर्च्छित क्यों न हो जाय, इससे मरा हुआ मनुष्य जीवित नहीं हो सकता। नृपश्रेष्ठ! मोह त्याग दो! तुम्हारे जैसे पुरुष मोहित नहीं होते हैं। महाराज! धैर्य धारण करो! मैं तुम्हें ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा मानता हूँ।
सृंजय! जिसके घर में हम- जैसे ब्रह्मवादी मुनि निवास करते हैं, वह तुम भी यहाँ एक दिन भोगों से अतृप्त रहकर ही मर जाओगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (द्रोण पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद)
सृंजय! अविक्षित के पुत्र राजा मरुत्त भी मर गये, ऐसा हमने सुना है। बृहस्पति जी के साथ स्पर्धा रखने के कारण उनके भाई संवर्त ने जिन राजर्षि मरुत्त का यज्ञ कराया था, भाँति-भाँति के यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करने की इच्छा होने पर जिन्हें साक्षात भगवान शंकर के प्रचुर धनराशि के रूप में हिमालय का एक सुवर्णमय शिखर प्रदान किया था तथा प्रतिदिन यज्ञ कार्य के अन्त में जिनकी सभा में इन्द्र आदि देवता और वृहस्पति आदि समस्त प्रजापतिगण सभासद के रूप में बैठा करते थे, जिनके यज्ञमण्डप की सारी सामग्रियाँ सोने की बनी हुई थीं, जिनके यहाँ उन दिनों सब प्रकार का अन्न, मन की इच्छा के अनुरूप और पवित्र रूप में उपलब्ध होता था औए सभी भोजनार्थी ब्राह्मण एवं द्विज जहाँ अपनी इच्छा के अनुसार दूध, दही, घी, मधु एवं सुन्दर भक्ष्य-भोज्य पदार्थ भोजन करते थे, जिनके सम्पूर्ण यज्ञों में प्रसन्नता से भरे हुए वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को अपनी रुचि के अनुसार वस्त्र एवं आभूषण प्राप्त होते थे, जिन अविक्षितकुमार (राजर्षि मरूत्त) के घर में मरुद्गण रसोई परोसने का काम करते थे और विश्वेदेवगण समासद थे, जिन पराक्रमी नरेश के राज्य में उत्तम वृष्टि के कारण खेती की उपज बहुत होती थी, जिन्होंने उत्तम विधि से समर्पित किये हुए हविष्यों द्वारा देवताओं को तृप्त किया था, जो ब्रह्मचर्यपालन और वेदपाठ आदि सत्कर्मों द्वारा तथा सब प्रकार के दानों से सदा ऋषियों, पितरों एवं सुखजीवी देवताओं को भी संतुष्ट करते थे तथा जिन्होंने इच्छानुसार ब्राह्मणों को शय्या, आसन, सवारी और दुस्त्यज स्वर्णराशि आदि वह सारा अपरिमित धन दान कर दिया था, देवराज इन्द्र जिनका सदा शुभ चिन्तन करते थे, वे श्रद्धालु नरेश मरुत्त अपनी प्रजा को नीरोग करके अपने सत्कर्मों द्वारा जीते हुए पुण्य फलदायक अक्षय लोकों में चले गये।
राजा मरुत्त ने युवावस्था में रहकर प्रजा, मन्त्री, धर्म, पत्नी, पुत्र और भाइयों के साथ एक हजार वर्षों तक राज्यशासन किया था। श्वैत्य सृंजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य – इन चारों बातों में राजा मरुत्त तुमसे बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। तुम्हारे पुत्र ने न तो कोई यज्ञ किया था और न उसमें कोई उदारता ही थी। अत: उसको लक्ष्य करके तुम चिन्ता न करो– नारदजी ने राजा सृंजय से यही बात कही।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में षोडशराज की योपाख्यानविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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